वन रक्षक 3:  रेस्क्यू क्वीन: अंजू चौहान

वन रक्षक 3: रेस्क्यू क्वीन: अंजू चौहान

अंजू, एक वन रक्षक की बेटी जिसे पूरा सिरोही जिला रेस्क्यू क्वीन के नाम से जानता है और जिसने अपनी सकारात्मक सोच और परिश्रम से जिले के कई थैलेसीमिया से पीड़ित बच्चों की जान बचाई…

सिरोही जिले में वन विभाग में वनरक्षक के पद पर कार्यरत अंजू चौहान आज वन,वनस्पति व वन्यजीवों के लिए सजगतापूर्वक कार्य कर रही हैं। एक महिला होकर वन्य क्षेत्र में वन्यजीवों के संरक्षण और मुश्किलों में फसे जीवों का रेस्क्यू करने के कारण आज वह केवल नारी समाज ही नही बल्कि वह पुरुषों के लिए भी प्रेरणा का केंद्र बनी हुई हैं। आमजन को वन, वनस्पति एवं वन्यजीवों के महत्व के बारे में समझाना, विद्यालयों में जाकर बालक बालिकाओं में जागरूकता लाना आदि इनकी कार्यशैली का प्रमुख रूप से हिस्सा रही है। ये अपने अनुभव को साथियों में बांटना व उनसे अनुभव को प्राप्त करने को बेहतर समझती हैं क्योंकि अपने कार्य क्षेत्र में विचारों की सहमति व अनुभव एक मजबूत जड़ के रूप में विराजमान हैं।

अंजू चौहान का जन्म 19 मई 1985 को सिरोही जिले के पिंडवाड़ा कस्बे के एक किसान परिवार में हुआ था। इनके पिता श्री अचलाराम मेघवाल वर्तमान में सहायक वनपाल नाका इंचार्ज मोरस के पद पर कार्यरत हैं। ये चार भाई बहनों में सबसे बड़ी थी। इनकी प्रारंभिक व उच्च माध्यमिक शिक्षा पिंडवाड़ा से हुई और इन्होंने स्नातक तक की पढ़ाई राजकीय महाविद्यालय सिरोही से की। स्नातक के दौरान वर्ष 2004 में ही इनकी श्री भूराराम परिहार जो वर्तमान में राजस्थान पुलिस में सिपाही के पद पर कार्यरत हैं के साथ शादी हो गयी। परन्तु अंजू ने अपनी पढ़ाई जारी रखी तथा पिंडवाड़ा क्षेत्र में महाविद्यालय में प्रथम आने वाली ये मेघवाल समाज की एकमात्र व प्रथम लड़की थी। बाद में इनको महाविद्यालय द्वारा सम्मानित भी किया गया और स्नातकोत्तर की पढ़ाई के बाद इन्होंने बीएड किया और शिक्षक बनने के लिए प्रतियोगी परीक्षा के लिए तैयारी शुरू की। अंजू हमेशा से ही अपने पिताजी को देख कर प्रेरित होती थी और उनको भी खाखी वर्दी वाली नौकरी ही करनी थी परन्तु अपनी शादी के बाद अंजू पारिवारिक परिस्थितियों में व्यस्त हो गयी। कुछ वर्षों बाद अंजू के मन में फिर से आगे पढ़ने व नौकरी करने की चाह जाएगी और इसमें उनके पति ने उनका बहुत साथ दिया तथा अंजू को समझाया भी की अपने बचपन के सपने “वर्दी वाली नौकरी” को सच करों। अंजू ने 2016 में वनरक्षक भर्ती परीक्षा पास की और 2 मई 2016 को वन विभाग नर्सरी सिरोही में इनको नियुक्ति मिल गई। वन विभाग में वनरक्षक के पद पर नियुक्ति मिलने के बाद वन व वन्यजीवों के प्रति कार्य करने के लिए इनके हौसले व जुनून बढ़ते चले गए और वर्तमान में अंजू चौधरी नाका व रेंज पिंडवाड़ा (सिरोही) में कार्यरत हैं।

आज अंजू दो बच्चों की माँ है जिनकी उम्र 15 व 14 साल हैं और अपने परिवार की देखरेख के साथ-साथ अंजू अपने कार्य क्षेत्र में भी कुशलतापूर्वक कार्य कर रही हैं।

गरासिया समुदाय की महिलाओं को मूलभूत सामग्रियों का वितरण करती अंजू चौहान।

शुरुआत में जब अंजू की सिरोही नर्सरी में ड्यूटी लगी वहाँ सांपो की अधिकता थी, इधर-उधर कार्य के लिए आते-जाते सांप देखने को मिल जाते थे और कभी कभार पौधों में सांप आ जाता था तो सब डरते थे। उसको पकड़ने के लिए बाहर से किसी व्यक्ति को बुलाना पड़ता था।  रोज़ -रोज़ ऐसी गतिविधि देख कर धीरे-धीरे अंजू ने खुद से ही साहस जुटाना शुरू किया और सांपो का रेस्क्यू करना शुरू किया। इससे पहले इन्होने रेस्क्यू देखे थे लेकिन मन में हिम्मत नहीं हो पाती थी लेकिन आज अंजू इस कार्य को सफलतापूर्वक करती हैं।

अभी कुछ दिनों पहले ही एक सुखि हौद में एक कोबरा घुस गया था और लोगों ने उसे देखा तो वह पिछले 10 दिन से परेशान था बाहर आने के लिए रास्ता ढूंढ रहा था, जैसे ही अंजू को सूचना मिली वह वहाँ पहुँची और नीचे उतरकर उसका रेस्क्यू किया और उसे जंगल में छोड़ दिया।

आज अंजू पुरे प्रोटोकॉल के साथ साँपों का रेस्क्यू करती हैं।

पहले तो अंजू सिर्फ रेस्क्यू ही किया करती थी परन्तु साँपों की सही पहचान बहुत ही जरुरी है। एक बार अंजू ने रसल वाइपर जो की अत्यंत जेह्रीला सांप होता है को अजगर का बच्चा समझ लिया था और उसको पकड़ने की कोशिश की, परन्तु उसकी पूँछ पर हाथ लगाते ही अंजू को वह अलग लगा और उन्होंने उसे पुरे ध्यान से रेस्क्यू किया। रेस्क्यू के बाद अंजू ने साँपों के बारे में जान ने वाले एक व्यक्ति से सलाह ली और जाना की वह सांप रसल वाइपर था और जो की बहुत ही जेह्रीला होता है एवं इसके काटने से जल्दी मौत हो जाती है। इस घटना के बाद से ही अंजू को लगा की उनको साँपों की पहचान के बारे में भी सीखना चाहिए तथा धीरे-धीरे अंजू ने जानकारी जुटाना शुरू किया व साँपों की पहचान भी करने लगी।

पिछले पांच वर्षों में अंजू लगभग 2000 साँपों को रेस्क्यू कर चुकी हैं इसके अलावा गोह, नीलगाय व मगरमछ जैसे अन्य जीवों का रेस्क्यू भी करती हैं। हर रोज इन्हें सिरोही जिले के कई गाँवों में रेस्क्यू के लिए बुलाया जाता है जिसके कारण इन्हें आमजन भी भलीभाति जानते हैं तथा सिरोही में इन्हें “रेस्क्यू क्वीन (Rescue Queen)” के नाम से जाना जाता है।

रेस्क्यू करना कोई आसान कार्य नहीं है क्योंकि हर बार सांप की प्रजाति, उसका व्यवहार और परिस्थितियां अलग-अलग होती हैं और हर रेस्क्यू अपने आप में एक नई चुनौती होता है। एक बार अंजू को एक बार रात के समय अंजू को सूचना मिली की एक कमरे में कोबरा अंदर घुस गया और उस कमरे अंदर तीन बच्चे थे। अंजू वहां पर पहुची तो परिवार वाले घबरा रहे थे तथा बच्चों को बाहर नही निकाल पा रहे थे क्योंकि वो खुद भी डरे हुए थे। अंजू, हिम्मत के साथ एक टॉर्च लेकर कमरे में गई और कमरे की लाइट को जलाया, लाइट जलते ही कोबरा रसोई में घुस गया। अंजू ने सबसे पहले बच्चो को निकाला फिर रसोई में जाकर सांप को रेस्क्यू किया और उसको एक बैग में डालकर ऊपर से रस्सी से बांधकर जंगल मे ले जा कर छोड़ दिया। अंजू बताती हैं की “यह एक ऐसा रेस्क्यू था जब मुझे खुद भी लगा की तीन बच्चों की जान की जिम्मेदारी मेरे ऊपर है परन्तु मैं जितने शांत दिमाग से कार्य करुँगी वही सही होगा”।

हेड ऑफ़ फारेस्ट फोर्सेज (HOFF) डॉ. GV Reddy प्रे बेस डाटा के बारे में समझते हुए।

सांप रेस्क्यू के बारे में अंजू को उच्च अधिकारियों द्वारा ट्रेनिग भी दी गई है। ट्रेनिंग के बाद इनको लगा कि क्यों न एक टीम गठित हो जिसमें और लड़कियों को भी साँपों का रेस्क्यू सिखाया जाए, तो अंजू ने अपने साथियों को भी इसके बारे में अवगत कराया। जिसके बाद अंजू के पास चार महिलाओं के कॉल आए तथा अंजू ने अपना अनुभव उनके साथ साझा किया व उनको प्रेरित किया। आज वो महिलायें पूर्ण सुरक्षा के साथ सफलतापूर्वक स्नेक रेस्क्यू कर लेती हैं और यह अंजू के जीवन की सबसे बड़ी उपलब्धियों में से एक हैं कि आज यह पांच महिलायें पूरे राजस्थान में स्नेक रेस्क्यू वुमन के नाम से जानी जाती हैं।

वाइल्डलाइफ रेस्क्यू ट्रेनिंग के दौरान स्नेक रेस्क्यू वुमन की टीम।

साँपों के साथ-साथ अंजू कई अन्य प्रकार के वन्यजीवों का रेस्क्यू भी कर चुकी हैं। एक बार एक नीलगाय का बच्चा साधारण गायों के साथ चर रहा था और शाम को उन्ही गायों के साथ गाँव में चला गया और वह जाकर रास्ता भूल गया। गाँव के लोगो ने उसे हिरन समझ कर उसको पकड़ने कि कोशिश कि और उसके पीछे भागने लग गए। परिस्थिति ऐसी थी कि भरी सड़क पर नीलगाय का बच्चा भाग रहा है और उसके पीछे ग्रामीण लोग। तभी कुछ लोगों ने अंजू को फ़ोन कर के रेस्क्यू के लिए बुलाया। जब अंजू मौके पर पहुंची तब तक वह बच्चा एक घर में घुस गया था। उस घर के सभी लोग घर के बाहर खड़े हुए थे और नीलगाय का बच्चा एक कमरे में दौड़-दौड़ कर तोड़-फोड़ मचा रहा था। अंजू ने घर के अंदर जाकर हालात का जायजा लिया और अपनी टीम के साथ नीलगाय के बच्चे को रेस्क्यू किया। ऐसे ही एक बार रिलीज करने जाते समय एक मगरमच्छ का मुँह खुल गया था, और उसे कोई भी बाँध नहीं पा रहा था, उस परस्थिति में रात को दो बजे अंजू को बुलाया गया और फिर उन्होंने जाकर मगरमछ का मुँह बाँधा और उसको सुरक्षित स्थान पर छोड़ दिया। एक बार अंजू ने तालाब के पास के पेलिकन को लड़खड़ाते हुए देखा, पास में जाकर पता किया तो किसी कुत्ते ने उसके पैर को जख्मी कर दिया था और वह पक्षी चल नही पा रहा था। ऐसे में अंजू ने उसको रेस्क्यू किया। ऐसे ही एक बार आइबिस पक्षी के पैर में कोई धागा फंस गया था तो उसको भी रेस्क्यू कर के सुरक्षित स्थान पर छोड़ा।

अंजू के इस कार्य को देखते हुए उन्हें हेड ऑफ़ फारेस्ट फोर्सेज (HOFF) डॉ. GV Reddy द्वारा 15 अगस्त को राज्य स्तर पर सम्मानित भी किया गया है।

अंजू बताती हैं कि “मैंने फील्ड कार्य को आसान करने के लिए वाहन चलाना सीखा हैं और अब रेस्क्यू किट गाड़ी में रखती हूं जैसे ही सूचना मिलती हैं, मैं पूर्ण उपकरण के साथ वहां पहुँच जाती हूं और घायल वन्यजीव को उनके अनुकूल आवास में छोड़ देती हूं, उसके साथ उनकी देखभाल व ज्यादा घायल होने पर सम्बन्धित स्टाफ से सलाह व मदद भी लेती हूं”।

जीवन में मुश्किलें तो हैं परन्तु अंजू हिम्मत के साथ हर परिस्थिति का सामना करती हैं। अंजू के बड़े बेटे को थैलीसीमिया नामक बीमारी हैं। थैलेसीमिया, एक तरह का रक्त विकार है इसमें बच्चे के शरीर में लाल रक्त कोशिकाओं का उत्पादन सही तरीके से नहीं हो पाता है और इन कोशिकाओं की आयु भी बहुत कम हो जाती है। इस कारण इन बच्चों को हर 21 दिन बाद कम से कम एक यूनिट खून की जरूरत होती है। जब अंजू का बेटा चार वर्ष का था धीरे-धीरे उसकी तबियत ख़राब रहने लगी तथा उसका विकास भी अन्य बच्चों जैसे नहीं हो पा रहा था और सभी प्रकार की जांच करवाने के बाद अंजू को मालूम हुआ की उनका बेटा इस बीमारी से ग्रस्त है। उस समय सिरोही में इस बीमारी की न तो जानकारी थी न इलाज था और न ही इसको जानने के लिए जागरूकता थी, ऐसे में अंजू ने सोचा की “मेरे बच्चे के अलावा इस बीमारी से पीड़ित कई और भी बच्चे होंगे जो इलाज के लिए बाहर जाते होंगे”। फिर इन्होने ऐसे बच्चे ढूंढने शुरू किए और सिरोही जिले में करीब 7-8 ऐसे बच्चे मिले जो इस बीमारी से पीड़ित थे। तब फिर अंजू ने सोचा कि क्यूँ न वो जिले में ही कुछ ऐसी व्यवस्था शुरू करें जिससे इन बच्चों को इलाज के लिए बाहर न भटकना पड़े। अंजू ने प्रयास भी किया और इस बीमारी को लेकर वो कई बार उस वक्त के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत से भी मिली और इन सभी बच्चों को उन्होंने बीपीएल में सम्मिलित करवाया ताकि उनकों मुफ्त में इलाज मिल सके परन्तु सिरोही जिले में अभी तक इसका इलाज नहीं है। इस परिस्थिति में आबूरोड में संकल्प इंडिया फाउंडेशन द्वारा अंजू ने एक सेंटर स्थापित करवाया है जिसमें ये अपनी मासिक तनख्वाह का कुछ भाग अनुदान करती हैं। प्रत्येक 2 माह में आसपास रक्त दान शिविर लगवाकर ये थैलीसीमिया से पीड़ित बच्चों के लिए रक्त की व्यवस्था करवाते हैं। वर्तमान में सिरोही में ऐसे 35 बच्चे हैं जो इस बीमारी से पीड़ित है तथा इन सभी बच्चों को 50 यूनिट ब्लड की जरूरत होती हैं। और सबसे ख़ुशी कि बात यह है कि अंजू और उनकी टीम के द्वारा इतना रक्त एकत्रित किया जाता है कि आजतक किसी भी बच्चे को यहां से निराश होकर नही लौटना पड़ा हैं। रक्त दान शिविर में आसपास के लोग बढ़ चढ़ कर हिस्सा लेते हैं और अंजू खुद भी रक्तदान करती हैं तथा यहाँ के लोग उन्हें प्यार से “ब्लड क्वीन व मदर टेरेसा” के नाम से पुकारते हैं। इन सब के बाद अंजू ने अपना “देहदान” भी किया हुआ है यानि उनके गुजरने के बाद उनके शरीर के जो भी अंग किसी जरूरतमंद के काम आये उनको दान कर रखा हैं।

वन विभाग द्वारा आयोजित जैव-विविधता शिविर में ग्रामीण लोगों को पेड़-पौधों की महत्वता के बार में समझाती हुई अंजू।

अंजू बताती हैं कि “सामान्य रूप से हमारी दिनचर्या सुबह से शाम तक घने जंगलों में घूमना,पेड़ पौधों की अवैध कटाई की निगरानी करना,जीव जंतुओं की देखभाल व समय-समय पर गश्त करना आदि मुख्य रूप से हैं”। एक बार गश्त के दौरान अंजू को ट्रैक्टर-ट्रॉली के टायर के निशान जंगल की ओर जाते मिले, तो वह वहीँ रुकी और ट्रैक्टर -ट्रॉली के वापस आने का इंतजार करने लगी और जैसे ही पत्थरों से भरा ट्रैक्टर वापस आ रहा था, अंजू ने साहस दिखाते हुए उसको रुकवाकर ट्रैक्टर में से चाबी निकाल ली व फोटोग्राफ ले लिया ट्रैक्टर ट्रॉली के साथ दो पुरुष थे। अंजू ने तुरन्त नजदीकी नाका इंचार्ज को पूरी व्यवस्था के साथ बुलाया व उन ट्रैक्टर वालों पर कानूनी कार्यवाही करवाई करी। उसके बाद उनके हितैषी नेता व जनप्रतिनिधियों के कॉल भी आते हैं लेकिन अंजू व उनकी टीम का मकसद यही हैं कि जो गलत है वो चाहे कितना ही राजनीतिक या प्रशासनिक दबाब बनाये ये डरते नहीं हैं। और जब ईमानदारी से किसी कार्य मे शामिल हैं सिफारिश कर्ता कोई भी हो वो कोई मायने नही रखता, ऐसा अंजू खुद मानती हैं। कभी कभार गांवों की महिलाएं भी जंगल में ईंधन के लिए लकड़ी लेने आ जाती हैं। आजकल ये बहुत कम हैं क्योंकि प्रधानमंत्री उज्ज्वला योजना के तहत गैस कनेक्शन मिलने के बाद से अवैध कटाई बहुत कम होती हैं। परन्तु अगर कोई आ भी जाती है तो ये उनको वनों के महत्व के बारे में समझाते हैं तथा इनकों न काटने कि सलाह देते हैं।

सिरोही में कुछ संस्थाए कार्य करती हैं जैसे पीपुल्स फ़ॉर एनिमल्स (Peoples For Animals) और जैन समाज का भी एक केंद्र है जो जागरूकता के छोटे-छोटे कार्यक्रम करते रहते हैं और अंजू इन कार्यक्रमों में जाकर न सिर्फ हिस्सा लेती हैं बल्कि सहयोग भी करती हैं। अंजू बताती है कि, पिंडवाड़ा व उसके आसपास के क्षेत्र में 90% भूभाग पर आदिवासी जनजाति “गरासिया समूह” के लोग जंगलों के अंदर ही निवास करते हैं यह लोग धरती को माता की तरह पूजते हैं, ये प्रकर्ति की सुरक्षा करते हैं। इस आदिवासी समूह में एनजीओ के माध्यम से समय-समय मूलभूत सामग्रियों जैसे गर्म कपडे व पाठन सामग्री का वितरण किया जाता हैं। और अंजू खुद भी यही कोशिश करती हैं कि अधिक से अधिक आदिवासी समुदाय के लोगों को फायदा मिले क्योंकि सुरक्षा में सर्वाधिक सहयोग हमें स्थानीय लोगों से ही है जैसे जंगल मे आग की घटना हो जाती हैं तो अकेला आदमी आग नही बुझा सकता तो और भी ऐसी गतिविधि हैं जिनमें ये स्थानीय लोग वन कर्मियों का सहयोग करते हैं।

अंजू समझती हैं कि सार्वजनिक सहकारिता और वन संरक्षण के लिए जागरूकता बहुत आवश्यक है। वन संरक्षण के लिए हम जरूरी कदम उठा सकते हैं जैसे कि बरसात के मौसम में सामुदायिक वानिकी के माध्यम से पौधों को बढ़ावा देना, जंगलों के रोपण और जंगलों के संरक्षण के लिए प्रचार और जागरूकता कार्यक्रम द्वारा वन क्षेत्र में वृद्धि करना। सरकार को गांवों में वन सुरक्षा समितियाँ बनाने, जागरूकता फैलाने और वनों की कटाई को रोकने के लिए काम करना चाहिए। प्रदूषण से लोगों को बचाने के लिए लोगों को जंगलों के संरक्षण के साथ अधिक से अधिक पेड़ लगाने की जरूरत है। अगर इसे ध्यान में नहीं रखा गया तो हम सभी के लिए शुद्ध हवा और पानी प्राप्त करना मुश्किल होगा।

अलग-अलग नेशनल पार्क और वाइल्ड लाइफ सैंक्चुरीज अलग-अलग प्रजाति का संरक्षण कर रही हैं। इंसान को समझना होगा कि मानव जीवन तभी तक बच सकता है जब तक जल, जंगल और जानवर बचेंगे। प्रकृति से छेड़-छाड़ मानव को विनाश की ओर ले जा रहा है। इसलिये प्रकृति से छेड़-छाड़ करना बंद करना होगा और पर्यावरण प्रेमी बनकर उसका संरक्षण करना होगा। इंसान जानवर को महज जानवर न समझे, बल्कि अपना वजूद बनाए रखने का सहारा समझे।

आज अंजू एवं वन्यजींवों के संरक्षण के कार्य के साथ-साथ थैलेसीमिया से ग्रस्त बच्चों के लिए भी कार्य कर रही हैं साथ ही अपने परिवार का भी भलीभांति ख्याल रख रही हैं। हम उनके इस कार्य की सराहना करते हैं और उनको भविष्य में और अच्छा कार्य करने के लिए शुभकामनाएं देते हैं।

प्रस्तावित कर्ता: Dr. GV Reddy, सेवनिर्वित हेड ऑफ़ फारेस्ट फोर्सेज (HOFF)

Shivprakash Gurjar (L) is a Post Graduate in Sociology, he has an interest in wildlife conservation and use to write about various conservation issues.

Meenu Dhakad (R) has worked with Tiger Watch as a conservation biologist after completing her Master’s degree in the conservation of biodiversity. She is passionately involved with conservation education, research, and community in the Ranthambhore to conserve wildlife. She has been part of various research projects of Rajasthan Forest Department.

 

वन रक्षक 1:    जुनून और जज़्बे की मिसाल: अभिषेक सिंह शेखावत

वन रक्षक 1: जुनून और जज़्बे की मिसाल: अभिषेक सिंह शेखावत

अभिषेक एक सक्षम एवं संपन्न परिवार में जन्म लेने के बावजूद, अपने लिए प्रकृति एवं वन्यजीव संरक्षण जैसे कठोर एवं श्रमशील कार्य के निचले पायदान को चुना और आज वन क्षेत्र में शिकारियों की रोकथाम, वन्यजीवों के संरक्षण और प्रबन्धन में वनकर्मी के रूप में योगदान दे रहे हैं।

एक संपन्न परिवार से आनेवाले “श्री अभिषेक सिंह शेखावत” को हमेशा से ही प्रकृति एवं वन्यजीव संरक्षण के प्रति कार्य करने का जुनून था, जिसके चलते उन्होंने वनरक्षक (फारेस्ट गार्ड) से भर्ती होकर इस क्षेत्र में प्रवेश किया। इनके पिताजी भारतीय पुलिस सेवा में पुलिस अध्यक्ष के पद पर कार्यरत हैं तथा उनके न चाहते हुए भी अभिषेक ने इस कार्य क्षेत्र को ही नहीं बल्कि सरकारी सेवा के निचले पायदान को चुना। आज, 7 साल तक वनरक्षक के रूप में कार्य करने के बाद, 22 जनवरी 2021 को ये सहायक वनपाल के पद पर पदोन्नत हुए हैं। हालांकि इनकी पदोन्नति से भी ये अपने पिताजी को खुश नही कर पाए। परन्तु फिर भी, एक उम्मीद की किरण, निरन्तर कर्मठ व प्रगतिशील व्यक्तित्व इन्हें अपनी कर्मभूमि के प्रति ईमानदार व व्यवस्थित रहने के लिए हौसला बढ़ाता रहा हैं। वन क्षेत्र में अवैध खनन व शिकारियों की रोकथाम, वन्यजीवों के संरक्षण और प्रबन्धन में इनका उल्लेखनीय योगदान रहा है। ये अपनी कार्यशैली व कुशलता के दम पर अपने साथियों को सकारात्मक रूप से प्रेरित रखने में भी अहम भूमिका निभा रहे हैं।

वर्तमान में 28 वर्षीय, अभिषेक सिंह का जन्म सीकर जिले की रामगढ़ तहसील के खोटिया गांव में हुआ तथा इनकी प्रारंभिक शिक्षा बाड़ी धौलपुर एवं उच्च माध्यमिक शिक्षा जयपुर से हुई और अलवर से इन्होने बीएससी नर्सिंग की शिक्षा प्राप्त की है। इन्हे हमेशा से ही पर्यटन, वन भृमण, प्रकृति एवं वन्यजीवों के प्रति रुचि रही है। वर्ष 2003 में जब इनके पिताजी अलवर में पुलिस उपाधीक्षक थे, तब ये अक्सर अपने दोस्तों के साथ सरिस्का अभ्यारण में घूमने जाया करते थे और तब से ही इनके मन में एक चाह थी कि मैं भी किसी तरह प्रकृति के नजदीक रह कर इसके संरक्षण के लिए कार्य करू।

अपनी पढ़ाई पूरी करने के बाद वर्ष 2011 में इन्होने वनरक्षक के लिए आवेदन किया तथा चयनित भी हुए। ट्रेनिंग के दौरान इन्होने वन्यजीव कानून व वन्य सुरक्षा में प्रथम स्थान प्राप्त किया तथा गर्व की अनुभूति के साथ इन्होने उमरी तिराहा पांडुपोल (सरिस्का) वनरक्षक के रूप में अपना पद संभाला।

वन क्षेत्र के भीतर अवैध चरवाहों को रोकते हुए अभिषेक

अभिषेक बताते हैं की “उस समय वहां के उप-वनसंरक्षक को लगा कि एक पुलिस अधिकारी का बेटा जंगल में काम नही कर पाएगा और उन्होंने मेरे पिताजी से बातकर मुझे ऑफिस में लगाने की बात कही, लेकिन मैंने साफ मना कर दिया। फिर एक बार यूँ हुआ उप-वनसंरक्षक और मैं साथ में रेंज का दौरा करने गए, तो कुछ पशु चरवाहों और उप-वनसंरक्षक में आपस मे कहासुनी हो गई। परन्तु मैंने हौसला दिखाते हुए 29 भैसों व उनके चरवाहों को वहां से भगा दिया। यह देख न सिर्फ उप-वनसंरक्षक प्रभावित हुए बल्कि मेरे जुनून व हौसलों की असल पहचान भी हुई।”

वर्तमान में अभिषेक सरिस्का बाघ परियोजना, बफर रेंज अलवर नाका प्रताप बंध व बीट डडीकर में सहायक वनपाल के पद पर तैनात हैं।

इतने वर्षों की अपनी कार्यसेवा के दौरान कई बार अभिषेक ने न सिर्फ मुश्किल बल्कि खतरनाक कार्यवाहियों में भी बड़ी सूझ-बुझ से भूमिका निभाई है।

नबम्बर 2018 में, वन विभाग कर्मियों ने नीलगाय का शिकार करने वाले कुछ शिकारियों को पकड़ा था। परन्तु पूछताछ के दौरान अपराधियों ने बताया की उन्होंने एक बाघिन का शिकार भी किया था तथा उनके कुछ साथी पडोसी जिले में छिपे हुए थे। उन शिकारियों को पकड़ने के लिए उप-वनसंरक्षक द्वारा 8 विश्वस्त लोगों की टीम गठित की गई जिसमें अभिषेक भी थे। अभिषेक और उनके एक साथी तहकीकात के लिए पडोसी जिले में गए और इस दौरान उनके सामने कई प्रकार की मुश्किलें आई जैसे की कुछ लोग उनकी सूचनाएं अपराधियों तक पहुचाने लगे। वे शिकारी एक जाति विशेष की बहुलता वाले क्षेत्र से आते थे, जो राजस्थान के सबसे संवेदनशील इलाकों मे शामिल था, और उस क्षेत्र में मुखबिरी करना अभिषेक के लिए एक चुनौतीपुर्ण कार्य था। ऐसे में अभिषेक और उनका साथी साधारण वेषभूषा में वहां के स्थानीय व्यक्ति की तरह दुकानों व चाय की थडियों पर बैठकर जानकारी जुटाने लगे। उन्होंने स्थानीय पुलिस की सहायता से उस जगह की छानभीन कर अपराधियों के अड्डों का पता तो लगा लिया था। परन्तु उस जगह पर छापा मारना आसान नहीं था क्योंकि काफी संख्या में ग्रामीण इकट्ठे हो सकते थे और हमला भी कर सकते थे। ऐसे में स्थानीय पुलिस टीम की मदद से उन अपराधियों को पकड़ लिया गया। वर्तमान में उन अपराधियों पर कानूनी कार्यवाही चल रही है तथा न्याय व्यवस्था इस प्रकार के अपराधों के लिए गंभीर रूप से कार्य कर रही है।

समय के साथ-साथ अभिषेक ने नई-नई चीजे सीखने में बहुत रुचि दिखाई है जैसे की उन्होंने श्री गोविन्द सागर भारद्वाज के साथ रह कर बर्ड-वॉचिंग व पक्षियों की पहचान के बारे में सीखा।

टाइगर ट्रैकिंग के लिए इनकी 15-15 दिन डयूटी लगती हैं जिसमें कई बार इनका टाइगर से आमना-सामना भी हुआ है। एक रात अभिषेक अपने साथियों के साथ बोलेरो केम्पर गाड़ी से गश्त कर रहे थे, तभी एक जगह खाना खाने के लिए उन्होंने गाड़ी रोकी। उनके साथियों ने गाड़ी से नीचे उतर एक साथ बैठकर खाना खाने को कहा परन्तु अभिषेक बोले की कैम्पर में बैठकर खाना खाते हैं। वो जगह कुछ ऐसी थी कि एक तरफ दुर्गम पहाड़ व दूसरी तरफ एक नाला था और सामने एक तंग घाटी थी। तभी अँधेरे में लगभग 15 फिट की दूरी पर एक मानव जैसी आकृति प्रतीत हुई और जैसे ही टॉर्च जलाई तो सामने टाइगर नजर आया। पूरी टीम ने ईश्वर को धन्यवाद किया की अगर गाड़ी से नीचे उतर गए होते तो कितनी बड़ी दुर्घटना हो गई होती। टाइगर ट्रैकिंग का एक वाक्य ऐसा भी हुआ जब अभिषेक व उनके साथी अनजाने में टाइगर के बिलकुल नज़दीक पहुंच गए और टाइगर गुर्राने लगा। तभी उन्होंने जल्दबाजी में एक पेड़ में चढ़ कर अपनी जान बचाई।

अभिषेक ने जंगल के सीमावर्ती क्षेत्रों में अवैध खनन को रोकने के लिए भी प्रयास किये हैं। जैसे एक बार गस्त के दौरान उन्होंने अवैध खनन वाले एक व्यक्ति को ट्रॉली में पत्थर भरकर ले जाते हुए देखा व रोकने की कोशिश भी की। ट्रैक्टर तेज गति से जाने लगा तो उन्होंने ने भागते हुए ट्रॉली के पीछे लटक गए,  ट्रैक्टर तेज गति में था, अतः अभिषेक ट्रॉली से लिपटकर घिसटते चले गए। लेकिन उस आदमी ने ट्रेक्टर नही रोका बाद में जैसे तैसे कूदकर उन्होंने अपनी जान बचाई। अभिषेक बताते हैं कि “ऐसे मौकों पर जब हम अवैध खनन माफिया के संसाधनों का पीछा करते हैं या जब्त करते हैं तो अधिकाँश ऐसे लोगों को दबंगों या राजनीतिक व्यक्त्वि विशेष का संरक्षण होता हैं। ऐसे में कई बार अपशब्द व धमकियां भी सुनने को मिलती हैं तब मन मे एक पीड़ा होती हैं कि हमारे पास ऐसे आदेश नही हैं कि हम अवैध कार्य करने वाले व इनको संरक्षण देने वालो को खुद सजा सुना सके।”

आवारा कुत्तों द्वारा हमले में अपनी माँ को खो चुके नीलगाय के इन छोटे बच्चों को अभिषेक ने बचाया व इनका ध्यान भी रखा

अभिषेक के अनुसार संरक्षण क्षेत्र की सबसे बड़ी समस्या है वन क्षेत्रों के आसपास रह रही आबादी जो कई बार एक साथ इक्कट्ठे होकर लड़ाई करने के लिए आ जाते हैं। एक बार अभिषेक अपने साथियों के साथ विस्थापित परिवारों से मिलने गए तो वहां पर एक जाति विशेष की बहुलता वाला क्षेत्र था। वे लोग विस्थापित परिवारों के साथ भी दुर्व्यवहार करते थे और पेड़ों का कटाव भी कर रहे थे। जब वन अभिषेक एवं साथियों ने उन लोगों को रोकने की कोशिश की तो उन्होंने पत्थर फेकना शुरू कर दिया। ऐसे में वन कर्मियों के पास न तो कोई संसाधन थे और न ही प्रयाप्त टीम।

समय के साथ-साथ अभिषेक ने नई-नई चीजे सीखने में बहुत रुचि दिखाई है जैसे की उन्होंने श्री गोविन्द सागर भारद्वाज के साथ रह कर बर्ड-वॉचिंग व पक्षियों की पहचान के बारे में सीखा। जंगल में काम करते हुए अभिषेक ने सांप रेस्क्यू करना भी सीख लिया तथा बारिश के मौसम में अब कई बार ग्रामीण लोग उन्हें सांप रेस्क्यू करने के लिए बुलाते हैं। अभिषेक का जंगल के आसपास रहने वाले लोगों को वन व वन्यजीवों के लिए जागरूक भी करते हैं जैसे की वे समय-समय पर विस्थापित परिवारों से मिलने जाते थे और उनसे समाज की मुख्य धारा, शिक्षा व स्वास्थ्य के बारे में चर्चा करते हैं। कई बार जब आसपास के गांवों से महिलाएं जंगल में लकड़ियां लेने आती हैं तो उनको वनों की विशेषता के बारे में बताकर, पेड़ न काटने की शपथ दिलवाकर भेज देते हैं और इसके चलते आज उस क्षेत्र में पेडों की अवैध कटाई बिल्कुल बन्द हो गई हैं तथा वर्तमान में वहाँ हमेशा टाइगर की मूवमेंट रहता हैं।

अभिषेक के पिताजी चाहे कितने भी सख्त बने परन्तु उनको भी अपने बेटे व उसकी कार्यशैली को लेकर काफी चिंता रहती है जिसके चलते वर्ष 2018 की शुरुआत में उनके पिताजी के प्रभाव से उनका तबादला गांव के पास ही एक नाके पर हो गया ताकि वो घर के पास रहे। लेकिन प्रकर्ति के प्रति उनका जुनून और हौसले के चलते उन्होंने पिताजी से बिना पूछे ही अपना ट्रांसफर पुनः सरिस्का में करवा लिया। ये देख सभी को अचम्भा भी हुआ क्योंकि रणथम्भौर और सरिस्का में खुद की इच्छा से कोई भी नही आना चाहता।

एक बार सरिस्का बाघ रिसर्व के सीसीएफ ने वनरक्षकों का मनोबल बढ़ाने के लिए “मैं हु वनरक्षक” नामक पोस्टर बनवाये थे और जिसके ऊपर अभिषेक की फोटो छापी गई थी। चाहे आम नागरिक हो या वनकर्मी सभी ने पोस्टर की सराहना की थी। जब उनके पिताजी को पोस्टर के बारे में मालूम चला तो वो काफी खुश हुए और उस वक्त उनकी खुशी से अभिषेक को दोगुनी खुशी मिली।

अभिषेक के अनुसार वन्यजीव संरक्षण क्षेत्र में कुछ ऐसी जटिल समस्याए हैं जो हमारे लिए सबसे बड़ी बाधा हैं जैसे; एक बीट में केवल एक ही वनरक्षक रहता हैं, वन चौकियां दुर्गम स्थान पर होती हैं जहाँ चिकित्सा,बिजली व पानी जैसी मूलभूत सुविधाओं का अभाव व नेटवर्क की समस्या  रहती हैं। कई बार शिकारियों से भी आमना सामना होता हैं और ऐसे में केवल एक डंडे के अलावा उनके पास कोई हथियार नही होता। साथ ही कम वेतन भी इनके मनोबल को कमजोर करता है। क्योंकि एक वनरक्षक की शैक्षणिक व शारिरिक योग्यता पुलिस सिपाही की भर्ती मापदण्ड के समान हैं तथा इनका कार्य भी 24 घण्टे का रहता हैं लेकिन जो सुविधाएं पुलिस सिपाही को मिलती है जैसे हथियार, 2400 ग्रेड,वर्दी भत्ता व जोखिम भत्ता आदि ये सुविधा वनकर्मियों को नही मिल पाती हैं। यह कुछ मूलभूत आवश्यकताएं हैं जो सभी को चाइये परन्तु प्रकृति व वन्यजीव संरक्षण के प्रति इनके हौसलों की उड़ान कभी कमजोर नही हो सकती।

अभिषेक बताते हैं की “अभी तक के इन कार्यों में हमेशा पिताजी मेरा साथ देते रहे हैं अतः मैं समझता हूं कि मेरे इस कार्य से खुश जरूर हुए होंगे या फिर उन्हें कुछ तो मेरे प्रति सुकून मिला होगा। तथा वे मेरे पिताजी ही हैं जो मुझे हमेशा सकारात्मक, कर्मठ व साहसी रहने की प्रेरणा देते हैं।”

नाम प्रस्तावित कर्ता: डॉ गोविन्द सागर भरद्वाज

लेखक:

Shivprakash Gurjar (L) is a Post Graduate in Sociology, he has an interest in wildlife conservation and use to write about various conservation issues.

Meenu Dhakad (R) has worked with Tiger Watch as a conservation biologist after completing her Master’s degree in the conservation of biodiversity. She is passionately involved with conservation education, research, and community in the Ranthambhore to conserve wildlife. She has been part of various research projects of Rajasthan Forest Department.