कॉमन ट्री फ्रॉग का रहस्यमयी जीवन

कॉमन ट्री फ्रॉग का रहस्यमयी जीवन

सीतामाता अभयारण्य में पाए जाने वाला कॉमन ट्री फ्रॉग एक ऐसी मेंढक प्रजाति है जो अन्य मेंढकों की तरह पानी में नहीं बल्कि पेड़ पर रहना ज्यादा पसंद करती है। प्रस्तुत आलेख द्वारा जानिये इसके बारे में

चितोड़गढ़ और प्रतापगढ़ जिले में स्थित “सीतामाता वन्यजीव अभयारण्य” जैव विविधता के दृष्टिकोण से राजस्थान के सबसे समृद्ध अभयारण्यों में से एक है। इस अभयारण्य का क्षेत्रफल लगभग 422.94 वर्ग किमी है और यह अभयारण्य अरावली, विंध्य और मालवा पठार के संगम पर स्थित है, जो अपने बांस और सागौन वनों के लिए जाना जाता है।

सीतामाता अभयारण्य का पारिस्थितिक तंत्र कई दिलचस्प और दुर्लभ जीवों एवं वनस्पतिक प्रजातियों का प्रतिनिधित्व करता है। यह उभयचरों (Amphibians) में भी समृद्ध है। राजस्थान में टॉड और मेंढकों की सबसे ज्यादा प्रजातियां यहीं पायी जाती हैं तथा राजस्थान से ज्ञात सभी मेंढक और टॉड प्रजातियां इस अभयारण्य के भीतर और आसपास उपलब्ध हैं। यहाँ से उभयचरों की 13 प्रजातियाँ प्राप्त हुई हैं, जिनमें से दो प्रजातियाँ – कॉमन ट्री फ्रॉग (Common Tree Frog (Polypedates maculatus) और पेंटेड कलौला (Painted Kaloula (Kaloula taprobanicus) अभयारण्य के विशेष हैं।

सीतामाता के वनों को छोड़कर, ये दोनों प्रजातियाँ राजस्थान के किसी और अभयारण्य और राष्ट्रीय उद्यान में अभी तक नहीं पायी गई हैं। वर्ष ऋतु  इन दोनों प्रजातियों को देखने के लिए सबसे अच्छा समय है, विशेष रूप से पहली कुछ वर्षा, जो इन मेंढकों का पता लगाने के लिए सबसे उपयुक्त हैं। जहाँ एक तरफ पेंटेड फ्रॉग राजस्थान का सबसे सुंदर मेंढक है, जिसकी पीठ, हाथ और पैरों पर विशिष्ट काला-भूरा और गहरा लाल रंग होता है, वहीँ दूसरी ओर हल्के भूरे बिलकुल गैर-आकर्षक रंग वाला के कॉमन ट्री फ्रॉग राज्य का सबसे विशिष्ट मेंढक है।

कॉमन ट्री फ्रॉग (Common Tree Frog (Polypedates maculatus)

वंशावली (Genealogy):

दुनिया में विभिन्न प्रकार के आवासों जैसे कि, नम भूमि, जल स्रोत और यहां तक कि झाड़ियां और पेड़ों पर कई मेंढक प्रजातियां व्यापक रूप से पायी जाती हैं। पेड़ और झाड़ियों पर पाए जाने वाले मेंढक Rhacophoridae कुल के होते हैं जिसमें अलग-अलग आकार के मेंढक शामिल हैं। उनका आकार (थूथन से मलद्वार तक लंबाई) 2.0 सेमी से 10.0 सेमी तक होता है। विश्व में Rhacophoridae कुल के मेंढक मुख्य रूप से पूर्वी देशों तक ही सीमित हैं। हालांकि, इस कुल के कई सदस्यों को मेडागास्कर और एक वंश Chiromatis- अफ्रीका से दर्ज किया गया है।

भारत में, Rhacophoridae कुल के छह वंश; Rhacophorus, Polypedates, Phailautus, Chrixalus, Nyctixalus और Theloderma पाए जाते हैं। जबकि राजस्थान में केवल एक वंश-पॉलीपेडटीस (Polypedates) और उसकी भी केवल एक ही प्रजाति Polypedates maculatus पायी जाती है, जो वर्षा ऋतु में सीतामाता अभयारण्य के आसपास, विशेष रूप से इमारतों के पास दिखाई देती है। इनके पिछले पतले और लम्बे पैरों की मदद से, यह प्रजाति लंबी छलांग लगा सकती है हालाँकि यह अच्छी तरह से तैरने में सक्षम हैं, परन्तु फिर भी ये पानी में नहीं रहते हैं।

कॉमन ट्री फ्रॉग (पॉलीपीडेट्स मैक्यूलैटस) एक आर्बोरियल मेंढक है अर्थात यह पेड़ व वनस्पतियों पर रहता है। इसकी हाथ की उंगलियों और पैर की उंगलियों पर चिपचिपा पदार्थ स्त्रावित करने वाली पतली डिस्क होती हैं। चिपचिपी डिस्कों की मदद से, यह मेंढक दीवारों और पेड़ के तनों के ऊर्ध्वाधर सतहों पर चढ़ने की क्षमता रखता है। कॉमन ट्री फ्रॉग की आँखें बड़ी और इनकी पुतलियां क्षैतिज (Horizontal) होती हैं। इस प्रजाति में नर आकार में मादा से छोटे होते हैं। इनके कानों के पर्दे “टाइम्पेनम (Ear-drum)” आंख के व्यास का लगभग तीन-चौथाई होते हैं। इनकी अगली भुजाओं की उँगलियों में झिल्ली होती है, जबकि पैर की उँगलियों में झिल्ली पूरी तरह से विकसित होती है।

इस मेंढक का रंग हल्का ही होता है – इसकी पीठ भूरे-पीले-हरे रंग की होती है जिसपर गहरे रंग के धब्बे होते हैं। जांघ के पास असमान आकार के गोल-गोल पीले धब्बे होते हैं, जो आमतौर पर गहरे भूरे रंग के पैरों से अलग होते हैं। कॉमन ट्री फ्रॉग में कुछ हद तक अपना रंग बदलने की क्षमता होती है, जो इसे प्रकृति द्वारा दिया गया एक सुरक्षात्मक उपाय है जिससे यह परिवेश के अनुसार छलावरण करता है।

विशिष्ठ गुण (Typical features):

कॉमन ट्री फ्रॉग एक प्रायद्वीपीय प्रजाति है, जो नम पर्णपाती जंगलों में रहना पसंद करती है। एक छोटी अवधि को छोड़कर, मानसून की शुरुआत के बाद, से ही यह आमतौर पर पूरे वर्ष इमारतों और उद्यानों में देखा जाता है। मानसून की समाप्ति के बाद जब बाहरी परिस्थितियां शुष्क हो जाती हैं, तो यह मानव घरों में वापस आ जाती है, और आमतौर पर स्नान घरों के अंदर और अन्य सुरक्षित, शुष्क स्थान (यदि उपलब्ध हो तो नम) में छिप जाती है।

दिन के दौरान, ये आमतौर पर पानी से दूर रहते हैं, लेकिन शाम होते ही ये बहार निकलते हैं और सबसे पहले ऐसे स्थानों पर जाते हैं, जहां उन्हें पानी मिलने की संभावना होती है। नम स्थानों में जाने से पहले, ये आकार में छोटे लगते हैं। ये कभी भी सीधे अपने मुंह से पानी नहीं पीते हैं, बल्कि अपनी त्वचा के माध्यम से पानी को अवशोषित करने के लिए काफी समय तक गीले स्थान पर बैठते हैं। पानी में बैठे रहने के बाद इनका आकार बड़ा हो जाता है।

अच्छी तरह से नमी सोखने के बाद, ये भोजन करने के लिए अपनी गतिविधि शुरू करते हैं और पूरी रात सक्रिय रहते हैं। प्रातःकाल होने से पहले ही ये अपने-अपने स्थान पर वापस लौट जाते हैं। आराम करते समय, टांगों को शरीर के नीचे अच्छी तरह से इकट्ठा कर लिया जाता है। दिन के इस समय, एक “सेवानिवृत्त” मेंढक सुस्त हो जाता है और उसे कुदाने और भागने के लिए काफी उकसाने की आवश्यकता होती है।

कई मेंढक प्रजातियों के विपरीत, कॉमन ट्री फ्रॉग नर में प्रजनन काल के दौरान विशेष प्रकार की कॉल करने के लिए एक उप-गूलर (sub-gular) थैली होती है। मानव घरों के अंदर, नर गर्मियों के अंत में बोलना शुरू करते हैं। तक- तक- तक या डोडो-डोडो-डोडो इनकी सामान्य आवाज़ होती है।  बरसात के मौसम में ये मानव घरों को छोड़ देते हैं और प्रजनन गतिविधियों के लिए वनस्पति क्षेत्र में चले जाते हैं। और इस समय में झाड़ियों और पेड़ों के पास से नरों की आवाज़ को सुना जा सकता है।

उपयुक्त स्थान (Suitable sites):

अन्य मेंढकों की तरह, इस प्रजाति की मादाएं सीधे पानी में अंडे नहीं देती हैं, बल्कि ये अंडे झागनुमा-घोंसले में रखती हैं, जो की पेड़ों पर, पानी के टैंकों, जल भराव क्षेत्रों, नालों आदि पर रखा जाता है। सफेद रंग का झागनुमा-घोंसला रंग में सफ़ेद और आकार में अर्ध गोलाकार होता है जिसमें अंडे बिखरे हुए होते हैं। यदि नियमित रूप से बारिश नहीं हो रही हो और सूखे की स्थिति बनी रहे तो ये झागनुमा-घोंसला अंडों को पानी की कमी से बचने में मदद करता है। भ्रूण का प्रारंभिक विकास इन झागनुमा-घोंसलों में ही होता है। टैडपोल के उभरने के बाद, वे नीचे मौजूद पानी में कूद जाते हैं और उनका बाकी विकास जलस्रोतों में होता है।

सीतामाता अभयारण्य के बाहरी इलाके में बांसी नामक गांव में इमारतों पर यह कॉमन ट्री फ्रॉग अक्सर देखा जाता है। ये सीतामाता अभयारण्य के दमदमा द्वार पर स्थित वन चौकी के आस-पास भी देखे जाते हैं। सीतामाता के अंदर व सीमा पर स्थित सभी वन चौकियां इस मेंढक को देखने के लिए उपयुक्त स्थान हैं। यह प्रजाति बांसवाड़ा शहर में भी देखी गई है। इस प्रकार राजस्थान में, कॉमन ट्री फ्रॉग की वितरण सीमा बहुत ही सीमित है, इसलिए इसे उचित रूप से संरक्षित किया जाना चाहिए।

 

राजस्थान में जंगली मुर्गे (Grey Jungle Fowl) का वितरण

राजस्थान में जंगली मुर्गे (Grey Jungle Fowl) का वितरण

राजस्थान के जंगली मुर्गे (Grey Jungle fowl Gallus sonneratii) पर अग्रवाल (1978,1979), अनाम (2010), अली एवं रिप्ले (1983), ओझा (1998), सहगल (1970), शर्मा (1998, 2007, 2017), तहसीन एवं तहसीन (1990) के अध्ययन का अवलोकन करने पर इस मुर्गे पर अच्छी जानकारी मिलती है लेकिन वितरण संबंधी पूर्ण ज्ञान अनुपलब्ध है। प्रस्तुत लेख में इस प्रजाति के वितरण संबंधी जानकारी को  समाहित किया गया है। जंगलीे मुर्गे की राजस्थान के विभिन्न जिलों के भिन्न – भिन्न क्षेत्रों में उपस्थिति को जाँचने हेतु उपलब्ध वैज्ञानिक साहित्य का अध्ययन किया गया एवं सर्वे के द्वारा प्राथमिक तथ्य संग्रहीत किये गये। वितरण संबंधी उपलब्ध सूचनाएं सारणी 1 में प्रदर्शित की गई हैं।

नर ग्रे जंगल फाउल (फोटो: श्री ऋषिराज सिंह देवल)

मादा ग्रे जंगल फाउल (फोटो: श्री ऋषिराज सिंह देवल )

सारिणी – 1: ग्रे जंगल फाउल का राजस्थान में वितरण
क्र.सं.जिलास्थानवर्तमान में उपस्थितिसन्दर्भ
1उदयपुरलादन वन क्षेत्रउपस्थिततहसीन एवं तहसीन (1990), शर्मा (2007, 2017)
फुलवारी अभयारण्य, रामकुण्डा, तिनसारा, धरियावद, मानसी वाकल नदी के गुजरात सीमा तक किनारे, तोरना वन खण्डउपस्थितशर्मा (2007, 2017), श्री रजा तहसीन (निजी वर्तालाप 2005)
पई, डोडावली, देवास, कर्नावली, उभेश्वर (उबेश्वर), नाल मोखी, ओगना, साण्डोल की नाल, सूरजबारा (पडावली के पास), खैरवाडा, बेडावल (सलुम्बर के पास), कोडियात, मोरवानिया, पुराना श्रीनाथ (घसियार), कुण्डेश्वर, दडीसा, अगदा, पागा, वनक्षेत्र, जामुडिया (जामुनिया) की नाल, गोगुन्दा (मजार के पास), खैरवाडा, धरियावदवर्ष 1960 तक उपस्थित, वर्तमान में अनुपस्थितश्री रजा तहसीन (निजी वर्तालाप 2005), शर्मा (2007, 2017)
2उदयपुर, पाली, राजसमंदकुंभलगढ़ अभयारण्यउपस्थितशर्मा (2007, 2017)
3पाली, राजसमंद, अजमेरटॉडगढ़ -रावली अभयारण्य (कालीघाटी भीलबेरी व काबरदाता क्षेत्र में अधिक दिखते हैं)उपस्थितशर्मा (2007, 2017)़
4सिरोहीमाउन्ट आबूउपस्थितसिंह एवं सिंह(1995)
अग्नेश्वर मंदिर (देलवाडा से 2 किमी. पश्चिम में)उपस्थितशर्मा (2007, 2017)
रेवदर, नीमाज, रव्वा बड़वज वन क्षेत्र1961 तक उपस्थित, वर्तमान में नहींडॉ . रजा तहसीन (निजी वार्तालाप 2005), शर्मा (2007, 2017)
मोरस वन क्षेत्र 1970 तक उपस्थित, अब अनुपस्थितडॉ . रजा तहसीन (निजी वार्तालाप 2005)
5उदयपुर, चित्तौड़गढ़ एवं प्रतापगढ़लव-कुश आश्रम, वाल्मिकी आश्रम (सीतामाता अभयारण्य)उपस्थितिशर्मा (2007 2017), श्री. पी. सी. जैन उपवन संरक्षक (निजी वार्तालाप 2016), श्री मनोज पराशर उपवन संरक्षक (निजी वार्तालाप 2009)
6चित्तौडगढ़बस्सी1970 तक उपस्थित लेकिन अब अनुपस्थितठाकुर विजय सिंह राव (निजी वार्तालाप 2014), मेजर दुर्गा दास (निजी 7वार्तालाप 2016),
7बाँसवाड़ाबाँसवाडा जिले के विभिन्न वन क्षेत्रप्रजाति पहले विद्यमान थी, लेकिन अब अनुपस्थितओझा (1998), सहगल (1970), डॉ . दीपक द्विवेदी (निजी वार्तालाप 2015)
8डूंगरपुरबीछीवाड़ा1970 तक उपस्थित लेकिन अब अनुपस्थितमहारावल श्री समरसिंह (निजी वार्तालाप 2005)
9प्रतापगढ़सीतामाता अभयारण्य के क्षेत्रों के अलावा अन्य वन क्षेत्र1970 तक सभी जगह उपस्थित लेकिन अब केवल सीतामाता अभयारण्य में उपस्थितश्री रजा तहसीन (निजी वार्तालाप 2005), शर्मा (2007, 2017)
10राजसमन्दकटार, बरवाडा1970 तक पश्चिमी ढाल के वनों में उपस्थित (पूर्वी ढाल में तत्समय नहीं थे)। वर्तमान में अनुपस्थितश्री रजा तहसीन (निजी वार्तालाप 2005), शर्मा (2007, 2017)

उपरोक्त सारणी की सूचनाओं से स्पष्ट है कि जंगली मुर्गे का वितरण क्षेत्र 1960 से 2020 तक गत 60 वर्षो में राजस्थान में काफी कम हुआ है (चित्र 1)। यह प्रजाति मुख्यतः दक्षिणी राजस्थान के सघन वनों में ही निवास करती पाई जाती है । शिकार, आवास विनाश, गर्मी की ऋतु में अग्नि घटनाऐं, वनों एवं वनों के पास रहने वालेे लोगों द्वारा अण्डों को उठाने जैसे कारणों से इस मुर्गे की संख्या में कमी आई है। यह प्रजाति भूमि पर अण्डे देती है एवं आग की घटना के कारण अण्डे तथा बहुत छोटे चूजे जो उडने में असमर्थ होते हैं आग की चपेट में आ जाते हैं।

आवास सुरक्षा, शिकार पर प्रभावी अंकुश, अग्नि घटनाओं की प्रभावी रोकथाम, पेयजल व्यवस्था, जन जागरण आदि जैसे उपाय कर इस प्रजाति को संरक्षित किया जा सकता है।

संन्दर्भ:
  1.  अग्रवाल, बी. डी. (1978) गजेटियर ऑफ़ इन्डिया, राजस्थान सीकर।
  2.  अग्रवाल, बी. डी. (1979) गजेटियर ऑफ़ इन्डिया, राजस्थान उदयपुर।
  3.  अनाम (2010) असेसमेन्ट ऑफ़ बायोडाईवर्सिटी इन सीतामाता वाइल्ड लाईफ सैंक्चुरी: ए कन्जर्वेशन पर्सपैक्टिव, फाउंडेशन फाॅर ईकोलोजिकल सिक्युरीटी आंनद।
  4.  अली, एस. एवं रिप्ले, एस. डी. (1983) हैण्ड बुक ऑफ़ द बर्ड्स ऑफ़ इन्डिया एण्ड पाकिस्तान (काॅम्पेक्ट एडीशन)।
  5.  ओझा, जी. एच. (1998) बाँसवाड़ा राज्य का इतिहास (प्रथम 1936 में प्रकाशित), प्रिन्ट 1998, राजस्थान ग्रन्थालय, जोधपुर।
  6.  सहगल, के. के. (1970) गजेटियर ऑफ़ चित्तौडगढ़, राजपत्र निदेशालय, राजस्थान सरकार।
  7.  शर्मा, एस. के. (1998) लोक प्राणी विज्ञान, हिमांशु पब्लिकेशन्स, उदयपुर एवं दिल्ली।
  8.  शर्मा, एस. के. (2007) स्टडी ऑफ़ बायोडायवर्सिटी एण्ड एथनोबायोलाॅजी ऑफ़ फुलवारी वाईल्ड लाइफ सैंक्चुरी, उदयपुर (राजस्थान)। पी एच. डी. थीसिस। वनस्पति विज्ञान विभाग, मोहनलाल सुखाडिया विश्वविद्यालय, उदयपुर।
  9.  शर्मा, एस. के. (2017) राजस्थान में जंगली मुर्गों का वितरणः एक अध्ययन, अनुसंधान (विज्ञान शोध पत्रिका) 5 (1) 1-9
  10.  तहसीन, आर. एवं तहसीन, एफ. (1990) जंगल कैट फैलिस चाउस एण्ड गे्र जंगल फाउल गैलस सोनेरेटाई। जे. बी. एन. एच. एस. खण्ड – 87 (1):144

 

 

 

 

राजस्थान के वन

राजस्थान के वन

प्रस्तुत आलेख द्वारा जानते हैं, राजस्थान की अनुपम वन सम्पदा के बारे में जो न सिर्फ हमारी अनेक प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष जरूरतों को पूर्ण करते हैं बल्कि वन्य जैव-विविधता को भी संरक्षित करते हैं…

प्रकृति में तरह-तरह की प्रजातियों के पौधे मिलते हैं। उनके स्वभाव भी अलग अलग होते हैं – कुछ वृक्ष, तो कुछ झाड़ियां, कुछ शाक तो कुछ बेलें। प्रकृति में कई जगह वृक्षों का बाहुल्य भूमि पर एक हरे आवरण की तरह पनप जाता है एवं इस वृक्ष आवरण के नीचे विभिन्न प्रकार के छोटे पौधे (under growth) भी पनप जाते हैं। वनस्पतियों का यह पुंज “वन” कहलाता है। वैसे आम आदमी सामान्यतया प्रायः सघन वृक्षों वाले क्षेत्र को ही वन समझता है लेकिन घास के मैदान भी एक तरह के वन ही होते हैं।

वनों की वन्यजीव व जैव विविधता संरक्षण में महत्ती भूमिका है। वन वन्य प्राणियों एवं पौधों को उपयुक्त आवास प्रदान करते हैं। वे न केवल उस आवास से जीवित रहने हेतु आवश्यक चीजें ग्रहण करते हैं बल्कि स्वयं भी आवास का हिस्सा बन कर दूसरों की जरूरतें पूर्ण करते हैं। इस तरह वन अपने आप में एक ऐसे तंत्र के रूप में काम करता है जो अपनी आवश्यकता स्वयं पूर्ण करता है, अपनी टूट-फूट स्वयं ठीक कर लेता है तथा जिसमें अदृश्य असंख्य जैव-भौतिक रासायनिक क्रियायें निर्बाध चलती रहती हैं। यह वनीय तंत्र “वन पारिस्थितिकी तंत्र (Forest Ecosystem)” कहलाता है। प्रकृति में वन पारिस्थितिकी तंत्र के साथ साथ “घास क्षेत्र पारिस्थितिकी तंत्र (Grassland Ecosystem)” और “जलीय पारिस्थितिकी तंत्र (Aquatic Ecosystem)” आदि भी देखने को मिलते हैं। ये सभी पारिस्थितिकी तंत्र तरह-तरह के स्तनधारी, पक्षियों, सरीसृपों, उभयचारी, मछलियों, कीट-पतंगों, घोंघों आदि को रहने, प्रजनन करने एवं अपना समुदाय बनाने की सुविधा प्रदान करते हैं। यदि पौधों में विविधता न हो तो आवास विविधता भी नहीं पनप सकती है एवं आवास विविधता नहीं होगी तो प्राणी व वनस्पति विविधता भी पैदा नहीं होगी साथ ही वन विविधता भी नहीं होगी। वनों के प्रकार या विविधता ही वस्तुतः वन वर्गीकरण है।

उष्ण शुष्क पतझड़ी वन (फोटो: डॉ. धर्मेंद्र खांडल)

वैज्ञानिक वर्गीकरण: मुख्यरूप से राजस्थान के वनों को वैज्ञानिक एवं जैविक दृष्टि से वर्गीकृत किया गया है। वैज्ञानिक दृष्टि से वनों का वर्गीकरण कानून की पुस्तकों में मिलता है। भारतीय वन अधिनियम 1927 (Indian Forest Act 1927) की आधार शिला पर राजस्थान वन अधिनियम 1953 (Rajasthan Forest Act 1953) बनाया गया है। यह अधिनियम वनों को तीन श्रेणी में विभाजित करता है :

  1. आरक्षित वन (Reserve Forest)
  2. रक्षित वन (Protected Forest)
  3. अवर्गीकृत वन (Unclass Forest)

आरक्षित वन एवं उसकी उपज का स्वामित्व पूर्ण रूप से या उसके कुछ भाग पर सरकार का होता है। रक्षित वन पर भी सरकार का स्वामित्व होता है लेकिन सरकार चाहे तो उसके उपयोग के कुछ अधिकार या अधिकांश अधिकार अपनी जनता या स्थानीय समुदाय को दे सकती है। अवर्गीकृत वन वे हैं जिनका अभी निर्धारण नहीं हुआ है कि उनको आरक्षित वन बनाया जाये या रक्षित। वनों की वैज्ञानिक श्रेणी का निर्धारण वन विभाग, वन बंदोबस्त अधिकारी (Forest Settlement Officer), सरकार अवं रेवेन्यू विभाग करते हैं। वन बंदोबस्त का कार्य रेवेन्यू बंदोबस्त से स्वतंत्र रह कर चलता है। वन बंदोबस्त में वन खंड अवं कम्पार्टमेंट के रूप में नक़्शे तैयार होते हैं। रेवेन्यू सेटलमेंट की तरह वन क्षेत्र में खसरों का प्रावधान नहीं होता।

जैविक वर्गीकरण दृष्टि से भारत के वनों का वर्गीकरण एच्. जी. चैम्पियन एवं एस. के. सेठ ने किया है। उन्होंने 16 मुख्य वनों के प्रकार पहचाने हैं जिनमें राजस्थान में 3 मुख्य प्रकार ज्ञात हैं:

  • वर्ग 5 -उष्ण शुष्क पतझड़ी वन (Tropical Dry Deciduous Forest)
  • वर्ग 6 -शुष्क कांटेदार वन (Tropical Thorn Forest)
  • वर्ग 8 – उपोष्ण चौड़ी पत्ती के पहाड़ी वन (Subtropical Broad Leaved Hills Forest)
उष्ण शुष्क पतझड़ी वन:

उष्ण शुष्क पतझड़ी वनों में उन वृक्ष प्रजातियों का बाहुल्य होता है जो वर्षा में हरी-भरी  नजर आती हैं तथा पत्तियों से ढकी रहती हैं लेकिन वर्षा के बाद जैसे ही नमी का स्तर गिरता है, इनके पत्ते पीले होकर झड़ने लगते हैं एवं गर्मियों के आते-आते ये पर्ण विहीन होकर सूखे जैसे नजर आते हैं। गर्मी में प्राय: इनमें फूल व फल लगते हैं तथा वर्षा काल प्रारम्भ होते ही फिर इनमें पत्तियाँ आने लगती हैं। इन वनों में बाँस व झाड़ियों को भी देखा जा सकता है। इन वनों में धौंक, सफ़ेद धौंक, बहेड़ा, सादड, गुर्जन, सालर, खिरन, खिरनी, खैर, बरगद, पीपल, पहाड़ी पीपल, महुआ, बबूल, पलाश, खजूर आदि प्रजातियों के वृक्षों का बाहुल्य होता है तथा काली स्याली, गणगेरण, हरसिंगार, कड़वा या दुद्धी आदि झाड़ियों का बाहुल्य होता है। उष्ण शुष्क पतझड़ी वनों के भी कई उप प्रकार नजर आते हैं। राजस्थान में मिलने वाले प्रमुख उप प्रकार निम्न हैं :

  1. धौक वन (Anogeissus pendula Forest)
  2. सालर वन (Boswellia Forest)
  3. बबूल वन (Babool Forest)
  4. पलाश वन (Butea Forest)
  5. बेलपत्र वन (Aegle Forest)
  6. लवणीय क्षेत्र के झाड़ीदार वन (Saline Alkaline scrub forest)
  7. खजून वन (Phoenix savannah)
  8. शुष्क बॉस वन (Dry Bamboo Brakes)
  9. सागवान वन (Teak Forest)
  10. मिश्रित वन (Mixed Forest)

यह वन पूरी अरावली पर्वत माला, विंध्याचल पर्वतमाला एवं अरावली पर्वत माला के पूर्व दिशा में फैले हुये हैं। ये वन उदयपुर, प्रतापगढ़, बांसवाड़ा, डूंगरपुर, चित्तौडग़ढ़, भीलवाड़ा, कोटा, बूंदी, झालावाड़, बारां, धौलपुर, भरतपुर, अलवर, दौसा, जयपुर आदि अपेक्षाकृत अधिक वर्षा वाले जिलों में मिलते हैं। सालर के वन पहाड़ों के ऊपरी हिस्सों में, धौक वन पहाड़ों के ढाल पर तथा पलाश वन तलहटी क्षेत्र में मिलते हैं। जहाँ मिटटी का अच्छा जमाव है एवं नमी का स्तर अच्छा है वहां खजूर एवं बाँस वन मिलते हैं। बाँस मुख्य रूप से दक्षिणी राजस्थान में पाये जाते हैं। सागवान वन हाड़ौती एवं दक्षिण राजस्थान में मिलते हैं। उदयपुर जिले की गोगुन्दा तहसील की सायरा रेंज का सागेती वन खण्ड भारत में सागवान की अंतिम पश्चिमी एवं उत्तरी सीमा बनता हैं। राजस्थान व गुजरात सागवान के विस्तार रेंज की पश्चिमी सीमा बनाते हैं।

रेगिस्तानी कांटेदार वन (फोटो: डॉ. धर्मेंद्र खांडल)

शुष्क कांटेदार वन:

इस प्रकार के वनों का अस्तित्व मुख्यरूप से कम वर्षा वाले क्षत्रों में होता है।  इन वनों में छोटी व संयुक्त पत्तियों तथा काँटों वाली प्रजातियों के वृक्ष व झाड़ियों का बाहुल्य मिलता है। इन वनों में कुमठा, रौंझ, बेर, फोग,थूर, पीलू, (खारा जाल व मीठा जाल), कैर, आंवल छाल आदि वनस्पतियां मिलती हैं।  ये वन मुख्य तथा शुष्क व रेगिस्तानी क्षेत्र में अधिक मिलते हैं। जहाँ भूमि का कटाव हो रहा है, तथा जल बहाव अधिक है वहां भले ही अधिक वर्षा हो, ये ही वन पनपते हैं क्योंकि भौतिक रूप से वहां सूखे की स्थिति बनी रहती है। चम्बल जैसी नदियों के कंदरा क्षेत्र में भी ऐसे ही वन पनप पाते हैं।

कांटेदार वनों के भी कई उप प्रकार ज्ञात हैं। राजस्थान के मुख्य उप प्रकार निम्न हैं:

  1. रेगिस्तानी कांटेदार वन (Desert Thorn Forest)
  2. कंदरा क्षेत्र कांटेदार वन (Ravine Thorn Forest)
  3. बेर के झाड़ीदार वन (Ziziphus scrub)
  4. थूर झाड़ीदार वन (Tropical Euphorbia Forest)
  5. कुमठा वन (Acacia senegal Forest)
  6. पीलू वन (Salvadora Scrubs)
  7. आंवल छाल झाड़ीदार क्षेत्र (Cassia auriculata scrubland)

कांटेदार वन मुख्य रूप से राजस्थान में अरावली के पश्चिम में पाली,सिरोही,जालोर, बाड़मेर, जैसलमेर, जोधपुर, सीकर, झुंझुनूं, चूरू, नागौर, बीकानेर, आदि जिलों में पाएं जाते हैं। इंदिरा गाँधी नहर की सिंचाई से गंगानगर एवं हनुमानगढ़ जिलों की परिस्थितियां काफी बदल गई हैं एवं वहां वनस्पति एवं वन प्रकारों में बदलाव हुआ है। कांटेदार वन क्षेत्र में सेवण घास के घास क्षेत्र (grassland) भी पाए जाये हैं। कांटेदार वन अजमेर, जयपुर, अलवर, धौलपुर, व अरावली के पूर्व में अन्य जिलों में भी जहाँ-तहाँ विधमान हैं।

रेगिस्तानी कांटेदार वन (फोटो: डॉ. धर्मेंद्र खांडल)

उपोष्ण चौड़ी पत्ती के पहाड़ी वन:

चौड़ी-पत्ती के पहाड़ी वनों का फैलाव राजस्थान में सबसे कम क्षेत्र में है। ये वन सिरोही जिलों में आबू पर्वत पर ऊपरी तरफ पाए जाते हैं। आबू पर्वत पर हिमालय एवं नीलगिरि के बीच में सबसे ऊँची छोटी गुरु शिखर भी विध्यमान है। यहाँ 1500 मिमी. तक वर्षमान है तथा ताप अपेक्षाकृत कम है जिसमें जहाँ अर्द्ध-सदाबहार वन अस्तित्व में आया है। यहाँ आम, जामुन, स्टर्कुलिया की कई प्रजातियां, करौंदा, फर्न, आर्किड आदि वनस्पतियां पायी जाती हैं। यहाँ जंगली गुलाब (Rosa involucrata) नमक प्रजाति भी पायी जाती है।

राजस्थान की वन सम्पदा बहुत ही अनुपम है ये वन न सिर्फ लोगों की अनेक प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष जरूरतों को तो पूर्ण करते ही है, साथ ही यहाँ की वन्य जैव विविधता को भी संरक्षित करते हैं अतः इन्हें संरक्षित करने की अत्यंत आवश्यकता है।

Cover Photo Credit: Dr. Dharmendra Khandal

 

 

 

राजस्थान वन विभाग के लेखकों द्वारा वन एवं वन्यजीवों संबंधी साहित्य सृजन में योगदान

राजस्थान वन विभाग के लेखकों द्वारा वन एवं वन्यजीवों संबंधी साहित्य सृजन में योगदान

राजस्थान मे वानिकी साहित्य सृजन के तीन बडे स्त्रोत है – वन अधिकारीयों द्वारा  स्वतंत्र लेखन, विभागीय स्तर पर दस्तावेजीकरण एवं वन विभाग के बाहर के अध्येताओं द्वारा लेखन। वन विभाग राजस्थान में कार्य योजनाऐं (Working plans), वन्य जीव प्रबन्ध योजनाऐं (Wildlife management plans), विभागीय कार्य निर्देशिकायें, तकनीकी निर्देशिकायें, प्रशासनिक प्रतिवेदन, वन सांख्यिकी प्रतिवेदन (Forest statistics),  ब्रोशर, पुस्तकें, लघु पुस्तिकायें, न्यूज लेटर, पत्रिकाएं, सामाजिक-आर्थिक सवेंक्षण (Socio-economic surveys) आदि तैयार की जाती है। या प्रकाशित की जाती है। इन दस्तावेजों/वानिकी साहित्य से विभिन्न सूचनाओं, योजनाओं एवं तकनीकों की जानकारी प्राप्त की जा सकती है।

वन विभाग मुख्य रूप से वन एवं वन्यजीवों के प्रबन्धन एवं विकास कार्यों के संपादन से संबंध रखता है लेकिन अपनी आवश्यकताओं को ध्यान में रखकर अनुसंधान एवं सर्वेक्षण कार्य भी संपादित करता है। वन कर्मी अपने अनुभव, अनुसंधान एवं सर्वेक्षण कार्यों को कई बार अनुसंधान पत्रों एवं पुस्तकाकार रूप में प्रकाशित करते रहे है। यह कार्य राज्य सेवा के दौरान या सेवानिवृति के बाद भी किया जाता है। प्रस्तुत लेख मे वर्ष 1947 से 2019 तक 73 वर्षों में राजस्थान वन विभाग के अधिकारीयों-कर्मचारीयों द्वारा लिखित, प्रकाशित  एवं संपादित पुस्तक/ पुस्तिकाओं का विवरण प्रस्तुत किया गया है जो नीचे सारणी में प्रस्तुत हैः

सारणी 1: राजस्थान के कार्मिकों द्वारा लिखित पुस्तकों की सूची
क्र.सं.लेखकवन/विभाग में अंतिम पद/ वर्तमान पदलिखित पुस्तक मय प्रकाशन वर्षभाषा
1श्री वी.डी.शर्मा’ (श्री राजपाल सिंह के साथ प्रथम लेखक के रूप में सहलेखन किया)प्रधान मुख्य वन संरक्षकWild Wonders of Rajasthan (1998)अंग्रेजी
2डॉ. डी. एन. पान्डे*प्रधान मुख्य वन संरक्षक1000 Indian Wildlife Quiz (1991)अंग्रेजी
अरावली के वन्यवृक्ष (1994)हिन्दी
Beyond vanishing woods (1996)अंग्रेजी
साझा वन प्रबन्धनःजल और वन प्रबंध में लोग ज्ञान की साझेदारी (1998)हिन्दी
Ethnoforestry: Local knowledge for sustainable forestry and livelihood security (1998)अंग्रेजी
वन का विराट रूप: वन के उपयोग, दुरूपयोग और सदुपयोग का संयोग (1999) (श्री आर.सी.एल.मीणा के साथ द्वितीय सहलेखक के रूप में लेखन)हिन्दी
3श्री पी.एस.चैहान* (श्री डी.डी.ओझा के साथ द्वितीय सहलेखक के रूप में लेखन)प्रधान मुख्य वन संरक्षकमरूस्थलीय परितंत्र में वानिकी एवं वन्यजीव (1996)हिन्दी
4श्री सम्पतसिंह*उप वन संरक्षकराजस्थान की वनस्पति (1977)हिन्दी
5श्री आर.सी.एल. मीणा*मुख्य वन संरक्षकअरावली की समस्यायें एवं समाधान (2003)हिन्दी
जल से वन: पारंपरिक जल प्रबंध से वानिकी विकास (2001)हिन्दी
वन का विराट रूप: वन के उपयोग, दुरूपयोग और सदुपयोग का संयोग (1999) (श्री डी.एन. पाण्डे के साथ प्रथम सह लेखक के रूप में लेखन)हिन्दी
6श्री एस.के.वर्मा*प्रधान मुख्य वन संरक्षकराजस्थान का वन्यजीवन (1991)हिन्दी
Reviving wetlands: Issues and Challenges (1998)अंग्रेजी
7श्री अभिजीत घोष*प्रधान मुख्य वन संरक्षकसही विधि से कैसे करें पौधारोपण? (2005)हिन्दी
8श्री एस.के.जैन* (डी.के.वेद, जी.ए.किन्हाल,के.रविकुमार, एस.के.जैन, आर. विजय शंकर एवं आर. सुमती के संयुक्त संपादकत्व में प्रकाशित)मुख्य वन संरक्षकConservation, Assessment and Management prioritization for the medicinal plants of Rajasthan (2007)अंग्रेजी
9श्री कैलाश सांखला*मुख्य वन्यजीव प्रतिपालकNational Parks (1969)अंग्रेजी
Wild Beauty (1973)अंग्रेजी
Tiger (1978)अंग्रेजी
The story of Indian Tiger (1978)अंग्रेजी
Garden of God (1990)अंग्रेजी
Return of Tiger (1993)अंग्रेजी
10डॉ.. जी.एस. भारद्वाज*अतिरिक्त प्रधान मुख्य वन संरक्षकTracking Tigers in Ranthambhoreअंग्रेजी
11यू.एम.सहाय*प्रधान मुख्य वन संरक्षकTennis the menace: 1000 Tennis quiz (1998)अंग्रेजी
12श्री पी.आर सियाग*वन संरक्षकAfforestaiton Manual (1998)अंग्रेजी
13श्री एस. एस चौधरीप्रधान मुख्य वन संरक्षकRanthambhore beyond tigers (2000)अंग्रेजी
14श्री फतह सिंह राठौड*उप वन संरक्षकWith tigers in the wild (1983) (श्री तेजवरी सिंह एवं श्री वाल्मिक थापर के साथ प्रथम लेखक के रूप में लेखन)अंग्रेजी
Wild Tiger of Ranthambhore (श्री वाल्मिक थापर के साथ द्वितीय लेखक के रूप में लेखन)अंग्रेजी
Tiger Portrait of Predators (श्री वाल्मिक थापर एवं श्री जी. सिजलर के साथ तृतीय लेखक के रूप में लेखन)अंग्रेजी
15श्री वी. एस. सक्सेना*मुख्य वन संरक्षकAfforestation as a tool for environmental improvement (1990)अंग्रेजी
Tree nurseries and planting practices (1993)अंग्रेजी
Useful trees, shrubs and grasses (1993)अंग्रेजी
16श्री एच.वी. भाटिया**उप वन संरक्षकराजस्थान की आन-बान-शान (2011)हिन्दी
पुण्यात्मा दानी वृक्ष (प्रकाशन वर्ष अंकित नहीं)हिन्दी
17डॉ. सतीश कुमार शर्मा**सहायक वन संरक्षकOrnithobotany of Indian weaver birds (1995)अंग्रेजी
लोकप्राणि-विज्ञान (1998)हिन्दी
वन्यजीव प्रबन्ध (2006)हिन्दी
Orchids of Desert and Semi-arid Biogeographic  zones of India (2011)अंग्रेजी
वन्य प्राणी प्रबन्ध एवं पशु चिकित्सक (2013)हिन्दी
Faunal and floral endemism in Rajasthan (2014)अंग्रेजी
Traditional techniques used to protect farm and forests in India(2016)अंग्रेजी
वन विकास एवं परिस्थितिकी (2018)हिन्दी
वन पौधशाला-स्थापना एवं प्रबन्धन (2019)हिन्दी
वन पुनरूद्भवन एवं जैव विविधता संरक्षण (2019)हिन्दी
18डॉ. भगवान सिंह नाथवत**सहायक वन संरक्षकवन-वन्यजीव अपराध अन्वेषण (2006)हिन्दी
पर्यावरण कानून बोध (2010)हिन्दी
19डॉ. रामलाल विश्नोई**उप वन संरक्षकसामाजिक वानिकी से समृद्धि (1987)हिन्दी
भीलवाडा जिले में वन विकास (1997)हिन्दी
Prespective on social forestry (2001)अंग्रेजी
20श्री भागवत कुन्दन***वनपालरूँखड़ा बावसी नी कथा (1990)हिन्दी
21डॉ. सूरज जिद्दी***जन सम्पर्क अधिकारीरणथम्भौर का इतिहास (1997)हिन्दी
Bharatpur (1986)अंग्रेजी
वनः बदलते सन्दर्भ में (1985)हिन्दी
Museum and art galleries of Rajasthan (1998)अंग्रेजी
Step well and Rajasthan (1998)अंग्रेजी
मानव स्वास्थ्य (2003)हिन्दी
अजब गजब राजस्थान के संग्रहालय (2005)हिन्दी
राजस्थान के जन्तुआलय (2005)हिन्दी
राजस्थान के मनोहारी वन्यजीव अभयारण्य (2005)हिन्दी
राष्ट्रीय उद्यान एवं अभयारण्यहिन्दी
कचरा प्रबन्ध (2009)हिन्दी
वनमित्र योजना (2010)हिन्दी
A guide to the Wildlife parks of Rajasthan (1998)अंग्रेजी
22श्री संजीव जैन***क्षेत्रीय वन अधिकारीविद्यालयों में बनावें ईको क्लब (2005)हिन्दी
प्रकृति प्रश्नोत्तरी (2003)हिन्दी
23डॉ. राकेश शर्मा***क्षेत्रीय वन अधिकारीसाझा वन प्रबन्ध (2002)हिन्दी
पर्यावरण प्रशासन एवं मानव पारिस्थितिकी (2007)हिन्दी
पर्यावरण प्रदूषण नियंत्रण (2012)हिन्दी
राजस्थान फोरेस्ट लॉ कम्पेडियम   (2012)हिन्दी
24श्री दौलत सिंह शक्तावत**उप वन संरक्षकMy encounters with the big cat and other adventures in Ranthabhore (2018)अंग्रेजी
25श्री सुनयन शर्मा*उप वन संरक्षकSariska (2015)अंग्रेजी

*भारतीय वन सेवा का अधिकारी, **राजस्थान वन सेवा को अधिकारी, ***अन्य स्तर के अधिकारी – कर्मचारी, 1-वर्ष 2019 तक सेवा निवृत हो चुके कार्मिक, 2- वर्तमान में भी विभाग में कार्यरत कार्मिक

सारणी 1 से स्पष्ट है कि राजस्थान के वन कार्मिकों ने राज्य से सम्बन्धित वानिकी साहित्य के सृजन हेतु आजादी के बाद यानी 1947 के बाद ही स्वतंत्र लेखन किया है। 1947 से 2019 तक 26 वन विभाग लेखकों ने कुल 70 पुस्तकें प्रकाशित की जिनमें 37 हिन्दी भाषा में एवं 33 अंग्रेजी में लिखी गई। भारतीय वन सेवा के 17 अधिकारीयों ने एवं राजस्थान वन सेवा के 5 अधिकारीयों ने अपनी लेखनी चलाई। श्री कैलाश सांखला (1973 से 1993) ने मुख्यतया बाघ (Tiger-Panthera tigris) पर मोनोग्राफ तर्ज पर विश्व प्रसिद्ध पुस्तकें लिखीं। उन्होंने बाघ के रहस्यमय जीवन का जो दिग्दर्शन कराया वह अनूठा है। श्री वी,डी, शर्मा (1998) द्वारा अपने सेवाकाल के प्रेक्षणों को बेजोड़ रूप में पुस्ताकाकार प्रस्तुत किया गया। उनकी पुस्तक ’’वाइल्ड वन्डर्स ऑफ़ राजस्थान” में विषय व छायाचित्रों की विविधता देखने लायक है। डॉ. जी.एस.भारद्वाज (1978), श्री फतह सिंह राठौड़ (1983,2000), श्री तेजवीर सिंह (1983) एवं श्री सुनयन शर्मा (2015) ने अपने लेखन कौशल द्वारा श्री सांखला की बाघ संरक्षण संबंधी लेखन विरासत को और आगे बढाया है। श्री आर.सी.एल.मीणा (1999,2001,2003) ने ग्रामीण परिवेश से जुडे पर्यावरणीय एवं वानिकी मुद्दों को छूआ है। डॉ. डी. एन. पाण्डे (1991, 94, 96, 98, 99) ने पारम्परिक देशज ज्ञान व लोक वानिकी की अहमियत को रेखंकित कर इसके उपयोग को बढावा देकर वन समृद्धि लाने पर जोर दिया है। श्री वी.एस.सक्सेना (1990, 93) ने पौधशाला एवं वृक्षारोपण विषयों पर लिखा है। श्री एस.के.वर्मा (1991, 98) ने वन्यजीवन की विविधतापूर्ण झाँकी प्रस्तुत की है एवं नमक्षेत्र की समस्याओं व संरक्षण उपायों को प्रकट किया है। श्री पी.एस.चैहान (1996) ने थार मरूस्थल की समस्याओं व जुड़े मुद्दों पर प्रकाश डाला है एवं विषम क्षेत्र की परिस्थितियों में वानिकी एवं वन्यजीवन संरक्षण-प्रबन्धन प्रद्धतियों का लेखा-जोखा प्रस्तुत किया है।

श्री सम्पतसिंह (1977) ने राजस्थान के विभिन्न महत्वपूर्ण पौधों की जानकारी प्रस्तुत की है। श्री अभिजीत घोष (2005), डॉ. भगवान सिंह नाथावत (2006, 2010), डॉ. सूरज जिद्दी (1977 से 2010) एवं श्री संजीव जैन (2005) ने वानिकी से सम्बन्धित अलग-अलग विषयों पर सरल भाषा में सचित्र पुस्तिकायें प्रकाशित की हैं। डॉ. जिद्दी द्वारा लिखित विभिन्न पुस्तिकायें बच्चों हेतु बहुत उपयोगी हैं जो विद्यालय – महाविद्यालयों के छात्र-छात्राओं के लिये बहुत ज्ञान वर्धक हैं एवं एक हद तक वानिकी क्षेत्र के बाल साहित्य की कमी पूरी करती हैं। श्री यू.एम.सहाय (1996) ने टेनिस खेल संबंधी प्रश्नोत्तरी पर पुस्तक लिखी है। हालांकि इस पुस्तक का वन से संबंध नहीं है तथापि वनाधिकारी की लेखन कुशलता का प्रमाण है। वानिकी से संबंधित प्रश्नोत्तरी डॉ. डी.एन.पान्डे (1991) एवं श्री संजीव जैन (2003) ने पुस्तककार प्रस्तुत की हैं। डॉ. राकेश शर्मा (2002,07,12) ने वानिकी के क्षेत्र में जनता की भागीदारी, प्रशासनिक पहलुओं एवं नियामवली जैसे विषयों पर प्रकाश डाला है। श्री एस.के.जैन (2007) ने राज्य के औषधीय पौधों पर हुई कैम्प कार्यशाला (Camp Workshop)  के आधार पर तैयार रेड डेटा बुक के संपादन में भाग लिया है। डॉ. सतीश कुमार शर्मा (1995 से 2019) ने राजस्थान की जैव विविधता, तथा वन एवं वन्यजीवों के वनवासियों से संबंध की झलक के साथ- साथ संरक्षित क्षेत्रों एवं चिडियाघरों में वन्यप्राणी संरक्षण-संवर्धन एवं प्रबन्धन विषयों पर सविस्तार प्रकाश डाला है। श्री एच.वी. भाटिया (2011) ने रजवाडों के समय एवं आजादी के तुरन्त बाद की वानिकी पर प्रकाश डाला है। उन्होंने जन – जागरण हेतु भी कलम चलाई है। श्री भागवत कुन्दन (1990) ने डूंगरपुर- बांसवाडा की स्थानीय वागडी बोली में वनों-वृक्षों की महिमा को काव्य रूप में प्रस्तुत कर वन संरक्षण हेतु जनजागृत में योगदान दिया है। जब वे राजकीय सेवा में थे, उन्होंने अपने काव्य को आमजन के समक्ष गेय रूप में भी प्रस्तुत कर जागरण अभियान चलाया। लेखक ने 1986 में उनके काव्य पाठ स्वयं सुने हैं।

वन कार्मिकों के लेखन में एक बात सामने आई है, वह है उनके द्वारा अनुभवों एवं संस्मरणों का भी वैज्ञानिकता के साथ प्रस्तुतिकरण। फील्ड में निरन्तर होने वाले प्रेक्षणों एवं अनुभवों से हम अच्छे निष्कर्ष निकाल सकते हैं तथा नये सिरे से ऐसी चीजों पर अनुसंधान की ज्यादा जरूरत नहीं होती।

आजादी के बाद राजस्थान वन विभाग में श्री सी.एम. माथुर पहले ऐसे वन अधिकारी हुऐ हैं जिन्होने 1971 मे पीएच.डी. की उपाधि प्राप्त की। इसके बाद वनअधिकारीयों में पीएच.डी. उपाधि लेने की प्रवृति प्रारंभ हुई और वन अनुसंधान को गति मिलने लगी। श्री कैलाश सांखला ने 1970 के आसपास फील्ड में प्रेक्षण लेकर उसे आधार बना कर वैज्ञानिक लेखन की नींव प्रारंभ की। राजस्थान में वैज्ञानिक प्रेक्षण-लेखन को आधार मानकर पुस्तकें लिखने का युग डॉ. सी.एम. माथुर एवं श्री कैलाश सांखला जैसे वन अधिकारियों ने प्रारंभ किया। उनके बाद यह प्रवृति और बढती गयी। माथुर – सांखला के लेखन युग से प्रारंभ कर अगले 45 सालों में 26 वनकर्मी पुस्तक -लेखक के रूप में अपना नाम दर्ज करा चुके हैं।

वन कार्मिकों के लेखन में विविधता है। वन, वन्यजीव, पर्यावरण, जैव विविधता आदि विषयों पर अत्याधिक लेखन हुआ है लेकिन अभी वन – इतिहास (थ्वतमेज भ्पेजवतल) एवं आत्मकथा लेखन का कार्य किसी ने नहीं किया है। राजकीय स्तर पर हाँलांकि “विरासत” नामक पुस्तक में इतिहास लेखन की तरफ कदम उठाया गया हैं लेकित यह शुरूआत भर है। आने वाले समय में इन क्षेत्रों में भी लेखन होगा, ऐसी आशा है।

Cover photo Credit: Mr. Abhikram Shekhawat

 

 

 

 

Passive Plant Taxonomy With Special Reference To Rajasthan

Passive Plant Taxonomy With Special Reference To Rajasthan

Know how the simple identification of plants from Google poses a threat?

Plant Taxonomy is one of the very important branches of the Botany which helps us in classification , identification  and authentication  of an unknown plant species. It provides us important tools to place, search and understand a species properly. If someone is doing a research work on a particular species, but identification is erroneous, then whole research work would be futile and senseless. Especially, if some research work is based on a particular single species and identification of same is mistaken, we can easily think of the hazards. Particularly, in medicology, wrong species identification may prove disastrous to self, society and science.

Recently, we got a chance to read a beautiful and provoking article, titled “The End of Botany” published by Crisci et al. (2020). Authors of this article say “Biologist unable to recognize common plants and a decline in botany students, faculty, courses, university departments and herbaria highlight the current erosion of botany. How did we reach this crisis, knowing that plants form the basis for life ? What are causes? What can we do to reverse it?” What Crisci et al. (2020) wrote is absolutely correct and alarming. Day by day correct plant identification is becoming a difficult task and Rajasthan is also not unaffected from this situation.

Before independence (i.e. 1947) and till 1970 our dependency was more or less on the floras of Hooker et al. (1872-1897) and Brandis (1874) as that time specific floras for geographical limits of erstwhile Rajasthan (Rajputana) were not available. Various information in the form of published papers related to flora of Rajasthan were scattered and a real “compact flora” for the state or any part of the state was not available. Ramdev (1969), Bhandari (1978) and Shamra and Tiagi (1979) were the state’s pioneer post-independence taxonomists and they took a lead to produce regional floras of the state. They also developed the herbaria for the state. After these initial efforts, many floras came into existence. Few important landmark Angiospermic floras of Rajasthan are as follows:

Sr. no.PeriodName of flora published (year of publication )Author(s)Coverage
11947-1980 Contribution to the flora of Udaipur (1969)K.D. RamdevSouth- East Rajasthan
Flora of the Indian Desert (1978)M.M. BhandariJaisalmer, Jodhpur and Bikaner districts
Flora of North- East Rajasthan (1979)S. Sharma &B. TiagiNorth – East Rajasthan
21981-2000Flora of Banswara (1983)V. SinghBanswara district
Flora of Tonk (1983)B.V. Shetty & R. P. PandeyTonk district
Flora of Rajasthan, Vol. I,II,III (1987,1991,1993)B.V. Shetty & V. SinghWhole Rajasthan
 Flora of Rajasthan(Series – Inferae ) (1989)K.K. Sharma & S. SharmaWhole Rajasthan
Illustrated flora of Keoladeo National Park , Bharatpur , Rajasthan (1996)Prasad et al.KNP Bharatpur
32001-2020The flora of Rajasthan (2002)N. SharmaHadoti zone
Flora of Rajasthan (South and South- East Rajasthan ) (2007)Y. D. Tiagi & N.C. AreySouth and South- East Rajasthan
Orchids of Desert and Semi – arid Biogeographic zones of India (2011)S.K. SharmaOrchids of whole Rajasthan (including parts of adjacent states )
Flora of South – Central Rajasthan (2011)B. L. Yadav & K.L. MeenaSouth- Central Rajasthan

The above table indicates that in present century, we have published less number of Angiospermic floras related to Rajasthan. Our old generation of “University Taxonomist” namely Sh. K.D. Ramdev, Dr. Shiva Sharma, Prof. B Tiagi, Prof. M.M. Bhandari and Prof. Y.D. Tiagi had left us, leaving a massive vacuum in the field of taxonomy of Rajasthan. Prof. N.C. Arey has also retired. During the days of above plant taxonomists, regular outings for field studies, herbarium preparation, outstate botanical tours, morphological micro- scopic studies etc. were the routine part of day to day activities. At that time, there were hardly any coloured field guides available in the library or market to identify the plants. Neither internet  nor Google facilities were available. The only method to identify the plants was non- illustrated descriptive floras. Easy and readily available plant identifying sources were hardly available. If any student use to get a plant new to him/ her , he /she used to instructed by the teachers to use the flora their own to identify the plant. Since options were less and  compulsions were more , hence M.Sc. and Ph.D. students used to refer different floras for cross checking also. This type of atmosphere was very helpful to make a student “active taxonomist”. When student involves in “active identification” of a plant with the help of floras, he used to develop a special  and real taste for plant taxonomy. We would like to give an example of Sh. Roop Singh, the thence herbarium keeper of the Deptt. Of Botany , University of Rajasthan, Jaipur . Dr. Shiv Sharma had developed a beautiful herbarium with the help of Sh. Roop Singh. Sh. Roop Singh was not a qualified taxonomist but the plant material, brought by Dr. Shiv Sharma from the field were used to process by him. Drying, pasting on herbarium sheet, labeling, placing in Genus and Species folder, then storing in the pigeon hole almirah, etc. activities were regularly done by him.  He actively and minutely used to observe the plant specimen to help in identification. He learnt various aspects of Angiospermic taxonomy from Dr. Shiv Sharma. Soon he developed a wonderful taste for taxonomy. He was quite smooth to use the floras and to refer the Index Kewensis for correct identification and nomenclature. His identification ability was most reliable and par excellence. Seeing the case of Sh. Roop Singh, one can raise a question- why he was so thorough in plant identification? The answer is, he used to observe the plant material himself and he never believed in “ready-made identification process”. If one flora is not giving satisfactory results, then he used to start probing the next flora and so on, till he got a correct identification. we would like to call this habit “active plant identification”. Thus, to become an active plant taxonomist, students should have to develop a habit of active plant identification.

In present days, the situation is reverse. Most of people are seem always in hurry. Generally, people have no time to go in the field. Even, many do not want to spent few minutes to identify an unknown plant on their own. They like a ready-made identification facility. Internet, Google , mobile groups etc. are such fora where people send their pictures of unknown plants and sometimes within few seconds identification reaches in their hands. Though, using such methods, identification is possible quickly but people never become “Roop Singh”. Day by day people are becoming addict of “ready made identification” of the plants.  This culture of “passive identification” and “passive taxonomy” is replacing old trends of taxonomy every where. Now plant identification becoming easy but new plant taxonomists are not developing in the botany departments of various Universities of the state. The same situation is in Forest Department and Ayurveda Department. There was a time when Dr. C.M. Mathur and Sh. V.S. Saxena like forest officers were there in the Forest Department, Rajasthan who were experts of forest taxonomy. Similarly, Dr. Mahesh Sharma, Dr. R.C. Bhutiya, and few others were torch bearers of plant identification in the department of Ayurveda, but after their retirement, a vacuum is there.

We are getting late now. We hardly have any reliable and leading angiospermic taxonomist from the new generation in our state. The same situation is in the field of animal taxonomy. We have a good network of Universities and colleges in the state but traditional plant taxonomy is not a much-liked subject there. It’s the right time to revive “active taxonomy” in the state before it dies completely. This is a moral duty of every University and Forest and Ayurveda Departments as well.

References :

  • Cover Photo- PC: Dr. Dharmendra Khandal
  • Bhandari , M.M. (1978) : Flora of the Indian desert. (Revised 1990)
  • Brandis , D. (1874) : The forest flora of the North – West and Central India. London.
  • Crisci , J.V. , L. Katinas , M.J. Apodaca & P.C. Hode (2020): The end of Botany. Trends in plants science. XX (XX) : 1-4.
  • Hooker, J.D. et al. (1872-1897) : The flora of British India. Vol. 1-7. London (Repr. Ed. 1954-1956, Kent).
  • Prasad V. P., D. Mason , J.P. Marburger & C.R. Ajitkumar (1996) : Illustrated flora of Keoladeo Nation Park , Bharatpur.
  • Ramdev , K. D. (1969) : Contribution to the flora of Udaipur .
  • Sharma K.K. & S. Sharma (1989) : Flora of Rajasthan (Series- Inferae) .
  • Sharma N. (2002) : The flora of Rajasthan
  • Sharma , S. K. (2011) : Orchids of Desert and Semi- arid Biogeographic Zones of India.
  • Sharma ,S. &B. Tiagi (1979) : Flora of North – East Rajasthan.
  • Shetty , B. V.  & R.P. Pandey (1983) : Flora of Tonk.
  • Shetty B.V. & V. Singh (1987,1991,1993) : Flora of Rajasthan , Vol. I , II & III .
  • Singh , V. (1983) : Flora of Banswara .
  • Tiagi , Y.D. & N.C. Arey (2007) Flora of Rajasthan (South & South- East Rajasthan )
  • Yadav , B.L. & K.L. Meena (2011) : Flora of South – Central Rajasthan. Scientific Publishers , Jodhpur .
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