कार्वी: आठ साल में फूल देने वाला राजस्थान का अनूठा पौधा

कार्वी: आठ साल में फूल देने वाला राजस्थान का अनूठा पौधा

कार्वी, राजस्थान का एक झाड़ीदार पौधा जिसकी फितरत है आठ साल में एक बार फूल देना और फिर मर जाना…

कार्वी एक झाड़ीदार पौधा है जिसे विज्ञान जगत में “स्ट्रोबाइलैंथस कैलोसा (strobilanthes callosa)” कहा जाता है। भारत में कई स्थानों पर इसे मरुआदोना नाम से भी जाना जाता है। एकेंथेंसी (Acantheceae) कुल के इस पौधे का कुछ वर्ष पहले तक “कार्वीया कैलोसा (Carvia Callosa)” नाम रहा है। यह उधर्व बढ़ने वाला एक झाड़ीदार पौधा है जो पास-पास उगकर एक घना झाड़ीदार जंगल सा बना देता है। इसकी ऊंचाई 1.0 से 1.75 मीटर तक पाई जाती है और पत्तियां 8-20 सेंटीमीटर लंबी एवं 5-10 सेंटीमीटर चौड़ी व् कुछ दीर्घवृत्ताकार सी होती हैं जिनके किनारे दांतेदार होते हैं। पत्तियों में नाड़ियों के 8-16 जोड़े होते हैं जो स्पष्ट नज़र आते हैं। कार्वी में अगस्त से मार्च तक फूल व फल आते हैं। इसपर बड़ी संख्या में बड़े आकार के गहरे नीले रंग के आकर्षक फूल आते हैं और फूलों के गुच्छे पत्तियों की कक्ष में पैदा होते हैं तथा दूर से ही नजर आते हैं।

कार्वी एक झाड़ीदार पौधा है और इसपर बड़ी संख्या में बड़े आकार के गहरे नीले रंग के आकर्षक फूल आते हैं। (फोटो: श्री महेंद्र दान)

भारतीय वनस्पतिक सर्वेक्षण विभाग (Botanical Survey of India) द्वारा प्रकाशित “फ्लोरा ऑफ राजस्थान” के खण्ड-2 के अनुसार राजस्थान में यह पौधा आबू पर्वत एवं जोधपुर में पाया जाता है। इसके अलावा यह महाराष्ट्र, कर्नाटक, मध्यप्रदेश और पश्चिमी घाट की पहाड़ियों में दूर-दूर तक फैला हुआ है तथा मध्यप्रदेश में सतपुड़ा बाघ परियोजना क्षेत्र में इसका अच्छा फैलाव है।

आलेख के लेखक ने अपनी वन विभाग में राजकीय सेवा के दौरान इसे “फुलवारी की नाल, सीता माता एवं कुंभलगढ़ अभयारण्य” में जगह-जगह अच्छी संख्या में देखा है। सीता माता अभयारण्य में भागी बावड़ी से वाल्मीकि आश्रम तक यह खूब नज़र आता है और फुलवारी की नाल में खांचन से लोहारी की तरफ जाने पर “सोना घाटी क्षेत्र में दिखता है। दक्षिणी अरावली में यह प्रजाति अच्छे वन क्षेत्रों में कई जगह विद्यमान है। कमलनाथ, राम कुंडा, लादन, जरगा आदि वन खंडों में यह पायी जाती है। जरगा पर्वत पर बनास नदी के उस पार से नया जरगा मंदिर की तरफ यह झाडी जगह-जगह वितरित है। जब इसमें फूल आ रहे हो उस समय इसको ढूंढना है पहचानना बहुत सरल हो जाता है।

माउंट आबू अभयारण्य में कार्वी के फूलों को देखते हुए पर्यटक (फोटो: श्री महेंद्र दान)

फूल देना और फिर मर जाना है फितरत इसकी…

स्ट्रोबाइलैंथस वंश के पौधों का फूल देने का तरीका सबसे अनूठा है। इनमें 1 से 16 वर्षों के अंतराल पर फूल देने वाली भिन्न-भिन्न प्रजातियां ज्ञात हैं। इस वंश में “कुरंजी या नील कुरंजी (strobilanthes kunthiana)” सबसे प्रसिद्ध है जो हर 12 वर्ष के अंतराल पर सामुहिक पुष्पन करते हैं और फिर सामूहिक ही मृत्यु का वरण कर लेते हैं।

इस प्रजाति में नीलगिरी के पश्चिमी घाट के अन्य भागों में वर्ष 1838,1850,1862,1874,1886,1898,1910,1922,1934,1946,1958,1970,1982,1994, 2006 एवं 2018 में पुष्पन हुआ है अगला पुष्पन अब 2030 में होगा। स्ट्रोबाइलैंथस वेलिचाई में हर साल, स्ट्रोबाइलैंथस क्सपीडेट्स में हर सातवे साल तो राजस्थान में उगने वाले स्ट्रोबाइलैंथस कैलोसा अथवा कार्वी में हर आठवे साल फूल आते हैं।

राजस्थानी कार्वी करता है एक शताब्दी में बारह बार पुष्पन

राजस्थान में पायी जाने वाली प्रजाति स्ट्रोबाइलैंथस कैलोसा आठ साल के अंतराल पर पुष्पन करती है इसके पौधे 7 साल तक बिना फूल पैदा किए बढ़ते रहते है और आठवां वर्ष इनके जीवन चक्र के लिए एक अहम वर्ष होता है। वर्षा प्रारंभ होते ही गर्मी का मारा सूखा-सूखा सा पौधा हरा भरा हो जाता है तथा अगस्त से पुष्पन प्रारंभ करता है। पुष्पन इतनी भारी मात्रा में दूर-दूर तक होता है कि, आप दिनभर झाड़ियों के बीच ही रहना पसंद करते हैं। चारों तरफ बड़े-बड़े फूलों का चटक नीला रंग अद्भुत नजारा पेश करता है ऐसे समय में मधुमक्खियां, तितलियां,भँवरे व अन्य तरह-तरह के कीट-पतंगे व पक्षी फूलों पर मंडराते नजर आते हैं।

पुष्पन का यह क्रम 15-20 दिन तक चलता है तत्पश्चात फल बनने की प्रक्रिया प्रारंभ हो जाती है। वर्षा समाप्ति के बाद भूमि व पौधे के शरीर की नमी  का उपयोग कर फल बढ़ते व पकते रहते हैं और मार्च के आते-आते फल पक कर तैयार हो जाते हैं लेकिन बीज नीचे भूमि पर न गिरकर फलों में ही फंसे रह जाते हैं। (फोटो: श्री महेंद्र दान)

इधर राजस्थान में अप्रैल से गर्मी का मौसम शुरू हो जाता है और 8 साल का जीवन पूर्ण कर कार्वी खड़ा-खड़ा सूख जाता है यानी पौधे का जीवन समाप्त हो जाता है। इस तरह के पौधे को प्लाइटेशियल (plietesials) कहा जाता है। ऐसे पौधे कई साल बढ़वार करते हैं तथा फिर एक साल फूल देकर मर जाते हैं। अरावली में यही व्यवहार बांस का है जो 40 साल के अंतराल पर फूल व बीज देकर दम तोड़ देता है। प्लाइटेशियल पौधे की एक विशेषता और है कि, यह पौधे अधिक मात्रा में बीज पैदा करते हैं यह व्यवहार मास्टिंग (Masting) कहलाता है।

मानसून काल प्रारंभ होने पर वर्षा जल एवं हवा में मौजूद नमी को कार्वी का आद्रताग्राही फल सोख लेता है तथा फूलकर फटता हुआ कैद बीजों को बाहर उड़ेल देता है। बीज बिना इंतजार किए सामूहिक अंकुरण करते हैं और वनतल से विदा हुए बुजुर्ग कार्वी पौधों का स्थान उनके “बच्चे” यानी नए पौधे ले लेते हैं। अब यह नन्हे पौधे अगले 7 साल बढ़ते रहेंगे और अपने पूर्वजों की तरह आठवे साल पुष्पन करेंगे। इस तरह दो शताब्दीयो में कोई 25 बार यानी एक शताब्दी में 12 बार (या तेरह बार) पुष्पन करते हैं।

राजस्थान में सीता माता, फुलवारी, आबू पर्वत एवं कुंभलगढ़ में इस प्रजाति के पुष्पन पर अध्ययन की जरूरत है। इसके 8 साल के चक्रीय पुष्पन को ईको-टूरिज्म से जोड़कर स्थानीय लोगों को रोजगार के अवसर भी उपलब्ध कराए जा सकते हैं।

पौधशालाओं में पौध तैयार करके दक्षिण राजस्थान में इस प्रजाति का विस्तार भी संभव है। कार्वी क्षेत्रों में तैनात वनकर्मी भी इसपर निगरानी रखे तथा पुष्पन वर्ष की जानकारी आमजन को भी दे। वे स्वयं भी इसका आनंद लें क्योंकि राजकीय सेवाकाल में वे चार बार से अधिक इस घटना को नही देख पाएंगे।

 

Cover photo credit : Shri Mahendra Dan

आखिर क्या होते हैं “प्राणी प्रमाण” ?

आखिर क्या होते हैं “प्राणी प्रमाण” ?

हम जब वन क्षेत्र मे जाते हैं तो उस प्राकृतिक आवास के वन्य प्राणी हमें कहीं न कहीं, किसी न किसी जैविक गतिविधि में लिप्त नजर आते हैं। हर प्राणी, हर जगह एवं हर समय दिखाई नहीं देता। प्रत्येक वन्य प्राणी का अपना विशिष्ठि स्वभाव होता है। सबके अपने जगने, सोने, भोजन प्राप्ति हेतु  क्रियाशाील होने, प्रजनन गतिविधियाँ करने, खेलने, सुस्तानें, धूप सेकने, आदि का एक खास समय होता है। कुछ प्राणी रात्रि में सक्रिय रहते हैं एवं दिन में सोते रहते हैं या आराम करते हैं। इन्हें रात्रिचार (Nocturnal) प्राणी कहते हैं। कुछ सुबह-शाम सक्रिय रहते हैं बाकी रात्रि व दिन में सोते रहते हैं या आराम करते हैं। इन्हें क्रीपसकुलर (Cripuscular) प्राणी कहते हैं।

वन क्षेत्र के पथ पर वन्यजीव के पगचिन्ह (फोटो: डॉ जॉय गार्डनर)

इस तरह सक्रियता के आधार पर प्राणियों के तीन वर्ग होते हैं। इन वर्गों के कुछ उदाहरण निम्न हैं

क्र सं
वर्ग
उदाहरण
1दिनचारीबन्दर, लंगूर, साँभर*, चीतल*, काला हिरण, चिंकारा, हाथी, गंगा डॉलफिन, नेवले, खरगोश*, जंगली मुर्गे, तीतर, बटेर, तोते आदि।
2रात्रिचारीसाँभर#, चीतल#, खरगोश#, जरख, भारतीय लोमड़ी, सिंह, बाघ$, तेंदुआ, शियागोश, रस्टी-स्पॉटेड कैट, मछुआ बिल्ली, छोटा बिज्जू, काला बिज्जू, पैंगोलिन, छुछुंदर, झाऊ चूहा, सेही, उडन गिलहरी, बागल, चमगादड. उल्लू, नाइटजार आदि।
3क्रीपसकुलरबाघ, चूहा, हिरण, ऊद बिलाव, पतासी पक्षी आदि।

* रात्रिचर व्यवहार भी करते हैं , # दिनचारी व्यवहार भी करते हैं , $ क्रीपसकुलर व्यवहार भी करते हैं

दिनचारी प्राणी भी पूरे दिन सक्रिय नहीं रहते बल्कि कुछ खास घन्टों में ही अपनी सक्रियता ज्यादा बनाये रखते हैं बाकि समय किसी सुरक्षित जगह व्यतीत करते हैं। यही बात रात्रिचर प्राणियों पर लागू होती है। वे भी कुछ खास घन्टों अधिक सक्रिय रहते है। बाकी समय सुरक्षित जगह पर चले जाते हैं।

वन्यजीवों के चिन्हों का अवलोकन करते हुए वन्यजीव प्रेमी (फोटो: डॉ धर्मेंद्र खांडल)

कोई व्यक्ति प्राणी अवलोकन हेतु वन में दिन में निकलता है एवं माना उसे उडन गिलहरी की तलाश है तो चाहे वह वन में कितना ही घूमे, संभावना यह रहेगी कि उसे उडन गिलहरी नहीं मिलेगी। उडन गिलहरी रात्रि में निकलेगी जबकि व्यक्ति उसे दिन में तलाश कर रहा है। यानी प्राणी भौतिक रूप से साक्षात दिन में नज़र नहीं आयेगा, परन्तु रात्रि में जब वह सक्रिय बना रहा था उस समय उसने कई प्रमाण पीछे छोडे़ होंगे जो प्रकृति में मिलने की पूरी संभावना होती है। मसलन किसी महुये या सालर वृक्ष के नीचे टहनियों के छोर पत्तियों के भूमि पर बेतरतीब बिखरे मिलेंगे। यदि इन टहनियों के निचले चोरों का अवलोकन किया जाये तो पायेंगे कि वहाँ इनसाइजर दाँतों से कुतरने के स्पष्ट निशान हैं। यह एक ऐसा पुख्ता प्रमाण है जो दिन में गिलहरी दिखाई न देने के बावजूद रात्रि में उसकी उपस्थिती को निश्चायक रूप से प्रमाणित करता है। यहाँ महुये की कुतरी टहनियां “प्राणी प्रमाण“ कहलायेंगी। प्रकृति में जब भी हम वन पथों, पगंडडियों या आवास के दूसरे भागों में घूमते हैं, हमें तरह-तरह के प्राणी प्रामाण देखने को मिलाते हैं। ये सब किसी न किसी प्रजाति विशेष के चिन्ह या प्रमाण होते हैं जो उसकी उपस्थिति को सिद्व करते हैं। जब भी हम वन में अकेले जायें या एक गाइड के रूप में जायें, प्राणी नजर नहीं भी आ रहे हो तो रास्तों पर व उनके आस-पास, तिराहों व चौराहों पर ध्यान से देखेंगे तो कोई न कोई निशानात अवश्य मिलेंगे।

आजकल वन्यजीवों की गतिविधियों की निगरानी करने के लिए “कैमरा ट्रैपिंग” तकनीक का प्रयोग किया जाता है (फोटो: डॉ धर्मेंद्र खांडल)

कुछ प्राणी प्रमाण :

प्रकृति में अनेक प्राणी प्रमाण देखने को मिलते हैं। हमारे क्षेत्र में मिलने वाले कुछ प्राणी प्रमाण निम्न हैः

  • चलने के दौरान बने पैरों के निशान (Pugmark & Hoof Mark)
  • रेंगने के निशान: सरीसृप् वर्गो के प्रार्णीयों के चलने के दौरान पैर,पेट व पूँछ द्वारा बनाये घसीट जैसे निशान
  • घसीट के निशानः माँसाहारी प्राणी कई बार शिकार को घसीट कर सुरक्षित स्थान पर ले जाते हैं। शिकार को घसीटने से जमीन की घास व पौधे मुड़ जाते हैं तथा एक घसीट का स्वच्छ निशान बन जाता है।
  • कंकाल व शव के अवशेषः माँसाहारी प्राणियों द्वारा किसी शाकाहारी का शिकार करने के बाद उसे खाने के उपरान्त हडियों का ढाँचा छोड दिया जाता है। ताजा स्थिति में खाल,बाल,पेट में भरा चारा आदि भी मौके पर मिलते हैं। दुर्गन्ध भी मिलती है। समय के साथ जरख प्राणी कंकाल को भी इधर-उधर कर देते हैं फिर भी कुछ अवशेष कई दिनों तक पड़े मिल जाते हैं।

बाघ और जंगल कैट के पगचिन्ह (फोटो: डॉ धर्मेंद्र खांडल)

  • किलः माँसाहारी प्राणी द्वारा बडा शाकाहारी मारने पर वह एक से अधिक दिन खाया जाता है। मरा हुआ प्राणी किल के रूप मेें जाना जाता है। कई बार किल पर दूर से देखने पर गिद्व व कौवे भी मँडराते देखे जाते हैं। किल दो प्रजातियों की उपस्थिती सिद्व करता है। एक शाकाहारी प्रजाति व दूसरी माँसहारी प्रजाति की।
  • पंखः पक्षी मॉल्टिग द्वारा अपने पंख स्वयं भी गिराते हैं एवं किसी शिकारी प्राणी द्वारा मारे जाने पर भी बेतरतीब पंख बिखरे मिल सकते हैं। पंखों को पहचान कर पक्षी की प्रजाति पहचानी जा सकती है।

आंकड़ों का संग्लन करते समय हमेशा पगचिन्ह के साथ एक मापक रखना चाहिए ताकि पगचिन्ह के आकार का अंदाजा लगाया जा सके (फोटो: डॉ जॉय गार्डनर)

  • छाल उतारने व छाल खाने के निशानः नर साँभर व नर चीतल एन्टलरों की वेलवेट सूख जाने पर किसी वृक्ष के तने या टहनी के एण्टलर रगड़-रगड़ कर सूखी खाल उतारते हैं। इस प्रयास में वृक्ष की छाल भी छिल जाती है। साँभर चीतल के मुकाबले अधिक ऊंचाई पर छाल उतारता है। इस तरह वृक्ष की छिली छाल व उसकी ऊंचाई को देख कर साँभर व चीतल की उपस्थिति जानी जा सकती है। सेही व लंगूर भी हरे वृक्षों व झाडियों की छाल को खाते हैं। सेेही छाल उतारने में ऊपरी व निचले जबडे के 2-2 इनसाइजर दाँतों का उपयोग करती है अतः छीलने के स्थान पर दो-दो इनसाइजरों के स्पष्ट निशान मिलते हैं। लंगूर केनाइन का उपयोग करता है अतः पौधे के तने पर अकेले केनाइन का लकीरनुमा निशान मिलता है।
  • नखर चिन्हः तेदुआ जब वृक्ष पर चढता है तो अपने नाखून छाल में गडा कर चढता व उतरता है। इस प्रयास में तने की छाल में खरौंचनुमा निशान उभर आते हैं। भालू चढता है तब भी वृक्ष की छाल में नाखून गड़ाने से खरौंच का निशान बनता है। लेकिन तेदुऐ के नाखून पैने होने से छाल में सँकरी व गहरी खरौंच बनती है।
  • घौंसलेः हर पक्षी के घौंसले की बनावट, रखने का स्थान,बनाने में प्रयोग की गई सामग्री के बहुत अंतर होता है। घौंसले के प्रकार को देख कर पक्षी की प्रजाति को पहचाना जा सकता है। घौंसलों के पास टूटे अण्डों के खोल, बीटों के प्रकार आदि का मुल्यांकन कर भी पक्षीयों की प्रजाति को पहचाना जा सकता है। घौंसले किसी प्रजाति के वहाँ होने के अच्छे प्रमाण होते हैं।
  • अवाजेंः जंगल में तरह-तरह की आवाज़ें सुनने को मिलती हैं। बाघ या तेंदुऐ की उपस्थिति में शाकाहारी प्राणी जैसे साँभर, चीतल, नीलगाय आदि डर के मारे अलार्म काल निकलते हैं। इन आवाजों को पहचान कर शाकाहारी प्रजाति की उपस्थिति व प्रजाति का निर्धारण किया जा सकता है। माँसाहारी के वहाँ होने का भी प्रमाणीकरण हो जाता है। ऐसे ही डिस्ट्रेसकॉल भी बिल्ली या साँप पास होने पर पक्षी करते हैं। पक्षियों के बच्चे भोजन माँगने हेतु बैगिंगकाल करते है। प्रजनन में प्राणी प्रणय आवाजें निकालते हैं। आवाजों को समझने का एक पृथक विज्ञान है जिसे “आवाज विज्ञान“ कहते हैं।

अन्य प्रमाणः कुतरे फल व बीज, केंचुली,मल, मैंगणी, बिल, मल की ढेरी, मुड़ी हुई घास, चरे हुये पौधे, वृक्षों के तनों पर रगड़ के निशान या कींचड़ रगडने के निशान, बीटिंग पाथ(बार-बार चलने से बने रास्ते) आदि प्रकृति में अनेक प्राणियों की उपस्थिति का संकेत देते हैं।

सेही का मल (फोटो: श्री महेंद्र दन)

निम्न स्थानों पर प्राणियों के अप्रत्यक्ष प्रमाण मिलने की संभावना अधिक रहती हैः
  1. कच्चे वन पथ
  2. पगंडडिया व गेम टेªल
  3. तिराहे व चौराहे
  4. जल स्त्रोतों के पास
  5. दो आवासों के मिलन स्थल पर

सेही के पैर, इस से आप अंदाज लगा सकते हैं की इसका पगचिन्ह कैसा दिखेगा (फोटो: डॉ धर्मेंद्र खांडल)

प्राणी प्रमाणों का महत्वः

हम हर बार उस समय जंगल में नहीं जा सकते जब कोई प्राणी सक्रिय रूप से घूम रहा हो। हम नियमों एवं प्रबन्ध व्यवस्था का पालन करते हुये किसी खास घन्टों में ही जंगल में जा सकते हैं। हो सकता है उन घन्टों में प्राणी अपनी दैनिक क्रियाएं पूर्ण कर सोने व आराम करने चला गया हो। इन विषम घन्टों में यदि हम प्राणी प्रमाणों को ढूंढें तो हमारी यात्रा का उद्देश्य व आनन्द किसी हद तक पूर्ण हो जाते हैं। अतः प्राणी प्रमाणों को ढूढने की काबलियत व उनको समझने की क्षमता विकसित करनी चाहिये।

राजस्थान में मिलने वाले दुर्लभ पक्षी “व्हाइट-नेप्ड टिट” का वितरण

राजस्थान में मिलने वाले दुर्लभ पक्षी “व्हाइट-नेप्ड टिट” का वितरण

व्हाइट-नेप्ड टिट (Parus nuchalis) भारत की एक स्थानिक पक्षी प्रजाति है जिसकी वितरण सीमा बहुत ही छोटी है जो देश के केवल पश्चिमी और दक्षिणी हिस्से में सीमित है। राजस्थान में यह अनेक हिस्सों में मिलती है जिसके बारे में हम इस आलेख द्वारा जानेंगे। वैज्ञानिक साहित्य में उपलब्ध जानकारी बताती हैं कि, यह शुरुआत में सांभर झील के आसपास के क्षेत्र से दर्ज की गई थी (एडम 1873)। परन्तु बाद में, कई शोधकर्ताओं द्वारा इस प्रजाति के वितरण स्थानों और क्षेत्र को दर्ज करने के लिए विस्तृत अध्यन्न किये गए और अब तक यह प्रजाति राजस्थान के 13 जिलों से सूचित की जा चुकी है (शर्मा 2017)।

व्हाइट-नेप्ड टिट (Parus nuchalis) (फोटो: श्री श्याम शर्मा)

जिन जिलों और स्थानों पर यह प्रजाति दर्ज की गई है, उनकी सूची नीचे दी गई है:
क्र.सं.
क्षेत्र
जिला 
उपस्थिति का स्थान 
सन्दर्भ 
1अरावली पहाड़ियां और आसपास के पहाड़ी क्षेत्रअजमेरसेंदडा, आरक्षित वन, किशनगढ़, रावली -टॉडगढ़, नसीराबाद, रामसर के पास, अजमेर, सौंखलिया, ब्यावर पहाड़ी क्षेत्रwww.rdb.or.id;Hussain et al.,1992; Tiwari, 2001;   Tiwari et al., 2013
2चित्तौड़गढ़बस्सी अभयारण्य , किशन करेरी (तहसील डूंगला)Tiwari et al., 2013
3जयपुरसांभर झील के आसपास, कानोता, नसिया पुराना किला, नाहरगढ़ बायोलॉजिकल पार्क (जयपुर), खींची वन क्षेत्र (अचरोल के पास), गोदियाना वन ब्लॉक, झालाना अभयारण्य,  विश्व वानिकी वृक्ष उद्यान, अमृता देवी वृक्ष उद्यान, दांतला वन खंडTiwari et al., 2013 एवं स्वयं प्रेक्षण
4नागौरमारोठ, पांचोटा पहाड़ी क्षेत्र, मकराना, सांभर झील क्षेत्रAdam, 1873; Hussain et al., 1992; Tiwari, 2001; Tiwari et al.,2013
5पालीसेंदरा, देसूरी की नाल, मालगढ़ की चौकी, जोभा गाँव, सुमेर, बरTehsin et al., 2005; Tiwari et al., 2013
6राजसमंदबरवा गाँव (नाथद्वार तहसील), गोरमघाटTiwari, 2007 एवं स्वयं प्रेक्षण
7सीकररुलियाना गाँव (बे और दंता गाँव के बीच में)Sharma, 2004
8सिरोहीमाउंट अबू (देलवारा से अचलगढ़)Butlar, 1875
9उदयपुरसज्जनगढ़ अभयारण्य, जयसमंद अभयारण्य, छावनी के पास वन क्षेत्र, शांति निकेतन कॉलोनी (बेदला-बड़गांव), देवला, जामुनिया की नाल, जंगल सफारी पार्क, माछला मगरा, कलेर आरक्षित वन, नीमच माता, मोती मगरी, थूर मगरा, बेदला के पास का जंगल, चीरवा घाटा, बाघदड़ा नेचर पार्क, उदयसागर वन क्षेत्र, सेगरा वन खंड, बोरडी और देबारी क्षेत्र, कोडियात, बड़ा हवाला गांव, घासा, मेनार, सज्जनगढ़ जैविक उद्यान; कैलाशपुरी, वल्लभनगर (तहसील वल्लभनगर), प्रकृति साधना केंद्र, भीलों-का-बेदला, मादड़ा गाँव, कैलेश्वर महादेव (सुराना गाँव, तहसील गिरवा), झामेश्वर महादेवHussain et al.,1992; Tiwari, 2001; Sharma, 2004; Mehra, 2004; Tiwari, 2007;  Tiwari, et al., 2013; Sharma & Koli 2014; Sharma 2015 & 2016, एवं स्वयं प्रेक्षण
10जालोरसुंडामाता जालोरTiwari et al., 2013
11विंध्य वनों में (अरावली के पूर्व दिशा में)झालावाड़झालावाड़Hussain et al., 1992, Tiwari, 2001
12थार रेगिस्तानी निवासों में (अरावली के पश्चिमी दिशा में)बीकानेरराजस्थान कृषि विश्वविद्यालय कैंपस, बीकानेर में रोजरी गाँव के पास-( श्री गंगानगर सीमा)Dookia, 2007
13जोधपुरजोधपुरHussain et al., 1992

प्रस्तुत सूची से संकेत मिलता है कि, व्हाइट – नेप्ड टिट मुख्य रूप से राजस्थान के अरावली वनों तक ही सीमित है जहां मुख्यरूप से कांटेदार वनस्पतियां पायी जाती हैं। माना जाता है कि, यह कुमठा (Acacia senegal) के वनों में पायी जाती है। अरावली के पूर्व और पश्चिम में इसका वितरण अपेक्षाकृत सीमित है। राजस्थान राज्य में इस प्रजाति की पूरी वितरण सीमा को जानने के लिए आसपास के जिलों के कांटेदार वनों में और अधिक शोध की आवश्यकता है।

व्हाइट-नैप्ड टिट, सालर और कुमठा के पेड़ों पर रहती व घोंसला बनाती है (फोटो: श्री नीरव भट्ट)

IUCN ने वाइट-नेप्ड टाइट को एक संवेदनशील (Vulnerable) प्रजाति के रूप में दर्ज किया है तथा इसके प्राकर्तिक आवास के नष्ट होने के कारण इस प्रजाति के अस्तित्व पर खतरा है। इसे बचाने के लिए कांटेदार वनस्पतियों के संरक्षण के अलावा, मृत पेड़ों के संरक्षण की भी आवश्यकता है। इस प्रजाति के संरक्षण के लिए सालर के पेड़ों (Boswellia serrata) को भी संरक्षित किया जाना चाहिए क्योंकि सज्जनगढ़ वन्यजीव अभयारण्य में हरे-भरे सालार के पेड़ों में मौजूद छिद्रों में व्हाइट – नेप्ड टिट को घोंसला बनाते और रहते हुए देखा जाता है (Sharma & Koli 2014)। इस प्रजाति के संरक्षण के लिए आवश्यक है पुराने वृक्षों और कुमठा के वनों को संरक्षित किया जाए।

सन्दर्भ:
  1. Adam, R.M. 1873: Notes on the birds of Sambhar lake and its vicinity. Stray Feathers 1: 361-404.
  2. Ali, S.& S.D. Ripley 1983 : Handbook of the birds of India and Pakistan. Oxford University Press.
  3. Butler, E.A. 1875: Notes on the avians of Mount Aboo and northern Gujarat. Stray Feathers 3: 337-500.
  4. Dookia, S.2007: First record of Pied Tit Parus nuchalis in Thar desert of Rajasthan. Indian Birds 3(3) : 112-113.
  5. Hussain, S.A., S.A. Akhtar & J.K. Tiwari 1992 : Status and distribution of White-winged Black Tit Parus nuchalis in Kuchchh Gujarat, India. Bird Conservation International, 2 : 115-122.
  6. Mehra, S.P.2004: Sighting of White-naped Tit Parus nuchalis at Udaipur. Newsletter for Ornithologists 5:77.
  7. Sharma, S.K. 2004: New sight records of Pied Tit Parus nuchalis in Rajasthan. JBNHS 100(1):162-163.
  8. Sharma, S.K. 2015: Night roosting on iron poles by the White-naped Tit Parus nuchalis in Udaipur, Rajasthan, India. JBNHS 112(2):100-101.
  9. Sharma, S.K. 2016 : A study on White-naped Tit Parus nuchalis in Sajjangarh Wildlife Sanctuary for conservation of the species. Study report 2016-17. Dy. Conservator  of Forests, Wildlife Division, Udaipur .1-65.
  10. 10 . Sharma, S.K.2017 : White-naped Tit ( Parus nuchalis) in Rajasthan , with special reference to southern parts of  the state. Udaipur Bird Festval 2017-18 Souvenir.
  11. Sharma, S.K. & V.K. Koli 2014 : Population and nesting characteristic of the vulnerable White-naped Tit Parus nuchalis at Sajjangarh Wildlife Sanctuary, Rajasthan, india. Forktail 30: 1-4 .
  12. Tehsin, R.H., S.H. Tehsin & H.Tehsin 2005: Pied Tit Parus nuchalis in Pali district, Rajasthan, India. Indain Birds 1(1):15.
  13. Tiwari, J.K. 2001: Status and distribution of the White-naped Tit Parus nuchalis in Gujarat and Rajasthan. JBNHS 98(1):26-30.
  14. Tiwari, J.K. 2007 : Some observations of sightings and occurrence of Black-winged/ White-naped Tit Parus nuchalis in southern Rajasthan. Newsletter for Bird Watchers 47(5):72-74.
  15. Tiwari, J.K. & A.R. Rahmani 1996: The current status and biology of the White-naped Tit Parus nuchalis in Kutch, Gujarat, India. Forktail 12: 95-102.
  16. Tiwari, J.K., D. Bharjwaj & B.K. Sharma 2013: White-naped Tit Parus nuchalis : A vulnerable species in Rajasthan . In, B.K. Sharma, S. Kulshreshtha & A.R. Rahamani (eds.) Faunal Heritage of Rajasthan, India. Springer New York Heidelberg Dordrecht London. 411-414

 

Cover Photo Credit: Mr. Shyam Sharma

राजस्थान में विशाल आकार के वृक्ष, झाडियां एवं काष्ठ लतायेंः एक विवेचन

राजस्थान में विशाल आकार के वृक्ष, झाडियां एवं काष्ठ लतायेंः एक विवेचन

दुनियाँ में पक्षी अवलोकन (Bird watching or birding), साँप अवलोकन (Snake watching), वन्यजीव छायाचित्रण (Wildlife Photography),  वन भ्रमण (Jungle trekking), जंगल सफारी (Jungle safari), पर्वतारोहण (Mountaineering), ऊँचे स्थानों पर चढाई चढना (Hicking) आदि काफी लोकप्रिय हो रहे हैं। हाल के वर्षों में लोगों में वनों एवं अन्य प्राकृतिक स्थलों पर किसी प्रजाति विशेष के विशालतम आकार या अत्यधिक आयु वाले या किसी असामान्य बनावट वाले वृक्षों को देखने की रूची पनपने लगी है। लोग वनों में या अपने आस-पास के परिवेश में प्रजाति विशेष के बडे से बडे वृक्षों को ढूढने के प्रयासों से व्यस्त देखने को मिल जाते हैं। वृक्ष अवलोकन या निहारन लोगों की प्रिय रूची बनता जा रहा है। यह उसी तरह लोकप्रिय होने लगा है जैसे देश में जगह- जगह पक्षी निहारन या अवलोकन (Bird watching) लोक प्रिय हो रहा है। विशिष्ठ वृक्षों को ढूँढ -ढूँढ कर देखने की अभिरुची (Hobby) को वृक्ष निहारण या वृक्ष अवलोकन (Tree watching or tree spotting) कहा जाता है। भारत सरकार द्वारा 1994 से राष्ट्रीय स्तर पर महावृक्ष पुरस्कार देने का सिलसिला प्रारम्भ किया गया है। इस पुरस्कार हेतु प्रतिवर्ष भारत सरकार किन्हीं प्रजाति विशेष की घोषणा करती है तथा उन प्रजातियों के देश के सबसे विशालतम् वृक्षों की जानकारी देने वाली प्रवष्ठियाँ मांगी जाती हैं। एक नियत तिथी के बाद सभी प्रविष्ठियो की जाँच एक विशेषज्ञ कमेटी द्वारा की जाती है तथा प्रजाति विशेष के सबसे बडे वृक्ष की प्रविष्टि का सत्यापन होने पर उस वृक्ष को प्रजाति विशेष की श्रेणी में देश का “महावृक्ष” मानते हुऐ महावृक्ष घोषित कर दिया जाता है। भारत सरकार अभी तक सागवान, देवदार, नीम, यूकेलिप्टस, इमली, चम्पा, शीशम, अंगू, होलोंग, फलदू, बहेडा, आँवला, तून, सेमल, मौलसरी, महुआ, बेंखोर आदि को महावृक्ष घोषित कर चुकी है।

हाँलाकि राजस्थान मे भारत सरकार ने किसी प्रजाति के वृक्ष को महावृक्ष घोषित नहीं किया है लेकिन जगह-जगह विशाल आकार-प्रकार के वृक्ष, झाडिया एवं यहाँ तक की काष्ठ लताएं (Lianas) भी देखने को मिल जाती हैं। इस अध्ययन में इन्हीं विशाल प्रकार के वृक्षों, झाडियों व काष्ठ लताओं की जानकारी दी गई है।

राजस्थान राज्य के विशालतम आकार के विभिन्न प्रजातियों के वृक्षों, झाडियों एवं काष्ठ लताओं की जानकारी नीचे सारणी 1 में प्रस्तुत की गई हैं।

उपरोक्त सारणी में दर्ज वृक्ष, झाडी व काष्ठ लताऐं राजस्थान के संदर्भ में ज्ञात विशाल आकार-प्रकार के विशिष्ठ पौधे हैं। कडेच गाँव के बरगद का फैलाव लगभग 0.2 हैक्टेयर में है। इसी तरह कुण्डेश्वर महादेव पवित्र कुंज (Sacred grove) के बरगद का विस्तार 0.3 हैक्टेयर है जो मादडी गाँव में स्थित राज्य के सबसे बडे बरगद से काफी कम है। मादडी गाँव का बरगद 1.02 हैक्टेयर में फैला हुआ है। दोनों छोटे बरगदों को इसलीए शामिल किया गया है क्योंकि इनका छत्रक अच्छे आकार का है तथा ये दोनों बहुत सुन्दर भी हैं, खास कर कुण्डेश्वर महादेव क्षेत्र का बरगद बहुत ही सुन्दर एवं दर्शनीय है। इस बरगद के आस-पास का पवित्र कुंज साल भर देखने लायक रहता है तथा बडी संख्या में धार्मिक एवं पारिस्थितिक पर्यटन करने वाले लोग यहाँ पहुँचते हैं।

रामकुण्डा मंदिर क्षेत्र मे काँकण गाँव के रास्ते आवरीमाता होकर ‘‘हाला हल्दू” के पास से चलते हुए करूघाटी तक जाने में रामकुण्डा एवं लादन वन खण्डों का जंगल पार करना पडता है। यहाँ पहाडों की ऊँचाई पर राजस्थान राज्य का बाँस (Dendrocalamus strictus) का श्रेष्ठतम् वन विद्यमान है। संभवत इस क्षेत्र में जंगली केले (Ensete superbum) का घनत्व पश्चिमी घाट के वनों के समतुल्य या उसमे कुछ बेहतर है। स्थल गुणवत्ता (Site quality) का अन्दाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि यहाँ 24‘ ऊँचाई वाला बाँस दोहन किया जाता है तथा लगभग 873 मी. समुन्द्रतल से ऊँचाई पर भी पहाडों में हल्दू (Adina cordifolia) के वृक्षों की वृद्वी लगभग वैसी ही है जो की पहाडों की तलहटी में है। प्रसिद्व लैण्ड मार्क (Landmark) ‘‘हाला हल्दू’’ नामक हल्दू का वृक्ष इसका उदाहरण है जो इतनी ऊँचाई का पर भी विशाल आकार ग्रहण करने मे सफल रहा है।

सारणी 1: राजस्थान के कुछ विषाल आकार के वृक्ष, झाडियां एवं काष्ठ लताऐं
क्र.स.
स्थिती
जिला
प्रजाति
नाप संबंधित जानकारी (एवं स्वभाव)
सुरक्षा की स्थिती
1नांदेशमा गाँव, तहसील गोगुन्दाउदयपुरपलास (Butea monosperma)भूमि से निकलते ही दो शाखाओं में  विभाजित जिनका वक्ष ऊँचाई घेरा क्रमषः 2.82 एवं 1.19 मीटर (वृक्ष)सुरक्षित
2कडेच गाँव, तहसील गोगुन्दाउदयपुरबरगद (Ficus benghalensis)छत्रक फैलाव 50X42 मी., 27 प्रोप जडें(वृक्ष)सुरक्षित
3गुलाबबाग (चिडियाघर)उदयपुरमहोगनी (Swietenia mahagoni)वक्ष ऊँचाई घेरा 2.50 मी., ऊँचाई 12.0 मी. (वृक्ष)सुरक्षित
4गुलाबबाग (बच्चों का पार्क)उदयपुरमहोगनी (Swietenia mahagoni)वक्ष ऊँचाई घेरा 5.97 मी., ऊँचाई 15.0 मी. (वृक्ष)सुरक्षित
5गुलाबबाग (बच्चों का पार्क)उदयपुरमहोगनी (Swietenia mahagoni)वक्ष ऊँचाई घेरा 7.0 मी, ऊँचाई 15.0 मी.(वृक्ष)सुरक्षित
6कंडेश्वर र महादेव, तहसील गिर्वाउदयपुरबरगद (Ficus benghalensis)छत्रक फैलाव 60X60 मी.(वृक्ष)सुरक्षित
7भेरू जी कुंज, बरावली गाँव, तहसील गोगुन्दाउदयपुरमाल कांगणी (Celastrus paniculata)भूमि तल पर घेरा 0.75 मी., लंबाई 20.0 मी. (काष्ठ लता)सुरक्षित
8भेरू जी कुंज, बरावली गाँव, तहसील गोगुन्दाउदयपुरकैगर खैर (Acacia ferruginea)वक्ष ऊँचाई घेरा 1.80 मी., ऊँचाई 10.0 मी. (वृक्ष)सुरक्षित
9रामेश्वर धाम, काछबा तहसील गोगुन्दाउदयपुरजंगल जलेबी (Pithocellobium dulce)वक्ष ऊँचाई घेरा 3.21 मी., ऊँचाई 18.0 मी.सुरक्षित
10केकडिया खोह, केकडिया गाँव, तहसील माण्डलगढभीलवाडाजामुन (Syzygium cumini)वक्ष ऊँचाई घेरा 4.70 मी., ऊँचाई 10.0 मी. (वृक्ष)सुरक्षित
11झिर पौधशालाझालावाडपीपल (Ficus religiosa)वक्ष ऊँचाई घेरा 6.0 मी., ऊँचाई 12.0 मी.(वृक्ष)सुरक्षित
12इटावा गाँव, पंचायत समिती कोटडीभीलवाडापलास (Butea monosperma)सभी पतियाँ एक पर्णी (वृक्ष)सुरक्षित
13दही मता मंदिर के पास, दहीमाता गाँव, तहसील गिर्वाउदयपुरबहेडा (Terminalia bellirica)वक्ष ऊँचाई घेरा 6.30 मी., ऊँचाई 18.0 मी., बट्रेस 18 (वृक्ष)सुरक्षित
14श्री शंकर महाराज का खेत, मदारिया गाँव, करेडा- देवगढ रोडराजसमन्दबबूल (Acacia nilotica var. indica)वक्ष ऊँचाई घेरा 3.90 मी., ऊँचाई 12.0 मी. (वृक्ष)सुरक्षित
15काँकल (काकंण) गाँव, तहसील झाडोलउदयपुरसेमल (Bombex ceiba)वक्ष ऊँचाई घेरा 7.50 मी., ऊँचाई 25.0 मी. (वृक्ष)आंशिक सुरक्षित
16काँकल (काकंण) गाँव, तहसील झाडोलउदयपुरगूलर (Ficus recemosa)वक्ष ऊँचाई घेरा 8.40 मी., ऊँचाई 21.0 मी. (वृक्ष)आंशिक सुरक्षित
17रामकुण्डा वनखण्ड, क.न. 18 तथा लादन क.न. 11उदयपुरहल्दू (Adina cordifolia)वक्ष ऊँचाई घेरा 3.90 मी., ऊँचाई 25.0 मी. (वृक्ष)सुरक्षित
18लादन वनखण्ड मे करूघाटी से पहले पगडण्डी के पासउदयपुरपलास (Butea monosperma)वक्ष ऊँचाई घेरा 4.80 मी., ऊँचाई 20.0 मी. (वृक्ष)सुरक्षित
19दीपेश्वर महादेव प्रतापगढप्रतापगढकलम (Mitragyna parvifolia)वक्ष ऊँचाई घेरा 4.20 मी., ऊँचाई 15.0 मी. (वृक्ष)सुरक्षित
20पानगढ पुराना किला, (बिजयपुर रेंज)चित्तौडगढबडी गूगल (Commiphora agalocha)भूमि तल पर घेरा 1.05 मी., ऊँचाई 5.0 मी. (झाडी)सुरक्षित
21पानगढ तालाब की पाल (बिजयपुर रेंज)चित्तौडगढरायण (Manilkara hexandra)वक्ष ऊँचाई घेरा 5.0 मी., ऊँचाई 12.0 मी. (वृक्ष)सुरक्षित
22पानगढ तालाब की पाल (बिजयपुर रेंज)चित्तौडगढइमली (Tamarandus indica)वक्ष ऊँचाई घेरा 5.60 मी., ऊँचाई 12.0 मी. (वृक्ष)सुरक्षित
23गाँव भभाण, तह. माँण्डलभीलवाडापीलवान (Cocculus pendulus)काष्ठ लता, भूमि पर घेरा 0.95 मी. (काष्ठ लता)आंशिक सुरक्षित
24गाँव देवली (माँझी)कोटादखणी सहजना (Moringa concanensis)वक्ष ऊँचाई घेरा 3.14 मी., ऊँचाई 12.0 मी. (वृक्ष)आंशिक सुरक्षित
25आल गुवाल एनीकट, बाघ परीयोजना, सरिस्काअलवरगूलर (Ficus recemosa)वक्ष ऊँचाई घेरा 11.67 मी., ऊँचाई 18.0 मी. (वृक्ष)आंशिक सुरक्षित
26जूड की बड़ली (रीछेड गाँव के पास तहसील केलवाड़ा)उदयपुरबरगद (Ficus benghalensis)1.4 हैक्टेयर में फैलावसुरक्षित

सारणी 1 में दर्ज वृक्ष एवं काष्ठ लताऐं अपनी-अपनी प्रजाति के विशाल आकार प्रकार वाले वृक्ष हैं। ये राज्य की अद्भुत जैविक धरोहर भी हैं जिन्हें हमें जतनपूर्वक संरक्षित करना चाहिये। ये परिस्थितिकी पर्यटन को बढावा देकर स्थनीय जनता हेतु रोजगार के नये अवसर भी स्थापित कर सकते हैं।

विशाल आकार-प्रकार ग्रहण करने के लिए किसी भी पौधे को एक बडी आयु तक जीना पडता है। इस लेख में वर्णित पौधे बहुत बडी आयु तक संरक्षित रहे हैं तभी द्वितियक वृद्धी (Secondary growth) के कारण वे विशाल आकार ग्रहण कर पाये हैं। यह राज्य की एक अद्भुत जैविक विरासत है। हर वन मण्डल, रेंज एवं नाकों को अपने- अपने क्षेत्र में स्थिती इन विरासत वृक्षों की कटाई, आग, व दूसरे नकारात्मक कारकों से सुरक्षा करनी चाहिये। उचित प्रचार- प्रसार द्वारा जन-जन तक इन विरासत वृक्षों, झाडियों व काष्ठ लताओं की जानकारी पहुँचाई जानी चाहिये ताकी परिस्थितिकी पर्यटन को विस्तार दिया जा सके ताकि स्थानीय लोगों को रोजगार के अधिक अवसर मिल सकें।

कॉमन ट्री फ्रॉग का रहस्यमयी जीवन

कॉमन ट्री फ्रॉग का रहस्यमयी जीवन

सीतामाता अभयारण्य में पाए जाने वाला कॉमन ट्री फ्रॉग एक ऐसी मेंढक प्रजाति है जो अन्य मेंढकों की तरह पानी में नहीं बल्कि पेड़ पर रहना ज्यादा पसंद करती है। प्रस्तुत आलेख द्वारा जानिये इसके बारे में

चितोड़गढ़ और प्रतापगढ़ जिले में स्थित “सीतामाता वन्यजीव अभयारण्य” जैव विविधता के दृष्टिकोण से राजस्थान के सबसे समृद्ध अभयारण्यों में से एक है। इस अभयारण्य का क्षेत्रफल लगभग 422.94 वर्ग किमी है और यह अभयारण्य अरावली, विंध्य और मालवा पठार के संगम पर स्थित है, जो अपने बांस और सागौन वनों के लिए जाना जाता है।

सीतामाता अभयारण्य का पारिस्थितिक तंत्र कई दिलचस्प और दुर्लभ जीवों एवं वनस्पतिक प्रजातियों का प्रतिनिधित्व करता है। यह उभयचरों (Amphibians) में भी समृद्ध है। राजस्थान में टॉड और मेंढकों की सबसे ज्यादा प्रजातियां यहीं पायी जाती हैं तथा राजस्थान से ज्ञात सभी मेंढक और टॉड प्रजातियां इस अभयारण्य के भीतर और आसपास उपलब्ध हैं। यहाँ से उभयचरों की 13 प्रजातियाँ प्राप्त हुई हैं, जिनमें से दो प्रजातियाँ – कॉमन ट्री फ्रॉग (Common Tree Frog (Polypedates maculatus) और पेंटेड कलौला (Painted Kaloula (Kaloula taprobanicus) अभयारण्य के विशेष हैं।

सीतामाता के वनों को छोड़कर, ये दोनों प्रजातियाँ राजस्थान के किसी और अभयारण्य और राष्ट्रीय उद्यान में अभी तक नहीं पायी गई हैं। वर्ष ऋतु  इन दोनों प्रजातियों को देखने के लिए सबसे अच्छा समय है, विशेष रूप से पहली कुछ वर्षा, जो इन मेंढकों का पता लगाने के लिए सबसे उपयुक्त हैं। जहाँ एक तरफ पेंटेड फ्रॉग राजस्थान का सबसे सुंदर मेंढक है, जिसकी पीठ, हाथ और पैरों पर विशिष्ट काला-भूरा और गहरा लाल रंग होता है, वहीँ दूसरी ओर हल्के भूरे बिलकुल गैर-आकर्षक रंग वाला के कॉमन ट्री फ्रॉग राज्य का सबसे विशिष्ट मेंढक है।

कॉमन ट्री फ्रॉग (Common Tree Frog (Polypedates maculatus)

वंशावली (Genealogy):

दुनिया में विभिन्न प्रकार के आवासों जैसे कि, नम भूमि, जल स्रोत और यहां तक कि झाड़ियां और पेड़ों पर कई मेंढक प्रजातियां व्यापक रूप से पायी जाती हैं। पेड़ और झाड़ियों पर पाए जाने वाले मेंढक Rhacophoridae कुल के होते हैं जिसमें अलग-अलग आकार के मेंढक शामिल हैं। उनका आकार (थूथन से मलद्वार तक लंबाई) 2.0 सेमी से 10.0 सेमी तक होता है। विश्व में Rhacophoridae कुल के मेंढक मुख्य रूप से पूर्वी देशों तक ही सीमित हैं। हालांकि, इस कुल के कई सदस्यों को मेडागास्कर और एक वंश Chiromatis- अफ्रीका से दर्ज किया गया है।

भारत में, Rhacophoridae कुल के छह वंश; Rhacophorus, Polypedates, Phailautus, Chrixalus, Nyctixalus और Theloderma पाए जाते हैं। जबकि राजस्थान में केवल एक वंश-पॉलीपेडटीस (Polypedates) और उसकी भी केवल एक ही प्रजाति Polypedates maculatus पायी जाती है, जो वर्षा ऋतु में सीतामाता अभयारण्य के आसपास, विशेष रूप से इमारतों के पास दिखाई देती है। इनके पिछले पतले और लम्बे पैरों की मदद से, यह प्रजाति लंबी छलांग लगा सकती है हालाँकि यह अच्छी तरह से तैरने में सक्षम हैं, परन्तु फिर भी ये पानी में नहीं रहते हैं।

कॉमन ट्री फ्रॉग (पॉलीपीडेट्स मैक्यूलैटस) एक आर्बोरियल मेंढक है अर्थात यह पेड़ व वनस्पतियों पर रहता है। इसकी हाथ की उंगलियों और पैर की उंगलियों पर चिपचिपा पदार्थ स्त्रावित करने वाली पतली डिस्क होती हैं। चिपचिपी डिस्कों की मदद से, यह मेंढक दीवारों और पेड़ के तनों के ऊर्ध्वाधर सतहों पर चढ़ने की क्षमता रखता है। कॉमन ट्री फ्रॉग की आँखें बड़ी और इनकी पुतलियां क्षैतिज (Horizontal) होती हैं। इस प्रजाति में नर आकार में मादा से छोटे होते हैं। इनके कानों के पर्दे “टाइम्पेनम (Ear-drum)” आंख के व्यास का लगभग तीन-चौथाई होते हैं। इनकी अगली भुजाओं की उँगलियों में झिल्ली होती है, जबकि पैर की उँगलियों में झिल्ली पूरी तरह से विकसित होती है।

इस मेंढक का रंग हल्का ही होता है – इसकी पीठ भूरे-पीले-हरे रंग की होती है जिसपर गहरे रंग के धब्बे होते हैं। जांघ के पास असमान आकार के गोल-गोल पीले धब्बे होते हैं, जो आमतौर पर गहरे भूरे रंग के पैरों से अलग होते हैं। कॉमन ट्री फ्रॉग में कुछ हद तक अपना रंग बदलने की क्षमता होती है, जो इसे प्रकृति द्वारा दिया गया एक सुरक्षात्मक उपाय है जिससे यह परिवेश के अनुसार छलावरण करता है।

विशिष्ठ गुण (Typical features):

कॉमन ट्री फ्रॉग एक प्रायद्वीपीय प्रजाति है, जो नम पर्णपाती जंगलों में रहना पसंद करती है। एक छोटी अवधि को छोड़कर, मानसून की शुरुआत के बाद, से ही यह आमतौर पर पूरे वर्ष इमारतों और उद्यानों में देखा जाता है। मानसून की समाप्ति के बाद जब बाहरी परिस्थितियां शुष्क हो जाती हैं, तो यह मानव घरों में वापस आ जाती है, और आमतौर पर स्नान घरों के अंदर और अन्य सुरक्षित, शुष्क स्थान (यदि उपलब्ध हो तो नम) में छिप जाती है।

दिन के दौरान, ये आमतौर पर पानी से दूर रहते हैं, लेकिन शाम होते ही ये बहार निकलते हैं और सबसे पहले ऐसे स्थानों पर जाते हैं, जहां उन्हें पानी मिलने की संभावना होती है। नम स्थानों में जाने से पहले, ये आकार में छोटे लगते हैं। ये कभी भी सीधे अपने मुंह से पानी नहीं पीते हैं, बल्कि अपनी त्वचा के माध्यम से पानी को अवशोषित करने के लिए काफी समय तक गीले स्थान पर बैठते हैं। पानी में बैठे रहने के बाद इनका आकार बड़ा हो जाता है।

अच्छी तरह से नमी सोखने के बाद, ये भोजन करने के लिए अपनी गतिविधि शुरू करते हैं और पूरी रात सक्रिय रहते हैं। प्रातःकाल होने से पहले ही ये अपने-अपने स्थान पर वापस लौट जाते हैं। आराम करते समय, टांगों को शरीर के नीचे अच्छी तरह से इकट्ठा कर लिया जाता है। दिन के इस समय, एक “सेवानिवृत्त” मेंढक सुस्त हो जाता है और उसे कुदाने और भागने के लिए काफी उकसाने की आवश्यकता होती है।

कई मेंढक प्रजातियों के विपरीत, कॉमन ट्री फ्रॉग नर में प्रजनन काल के दौरान विशेष प्रकार की कॉल करने के लिए एक उप-गूलर (sub-gular) थैली होती है। मानव घरों के अंदर, नर गर्मियों के अंत में बोलना शुरू करते हैं। तक- तक- तक या डोडो-डोडो-डोडो इनकी सामान्य आवाज़ होती है।  बरसात के मौसम में ये मानव घरों को छोड़ देते हैं और प्रजनन गतिविधियों के लिए वनस्पति क्षेत्र में चले जाते हैं। और इस समय में झाड़ियों और पेड़ों के पास से नरों की आवाज़ को सुना जा सकता है।

उपयुक्त स्थान (Suitable sites):

अन्य मेंढकों की तरह, इस प्रजाति की मादाएं सीधे पानी में अंडे नहीं देती हैं, बल्कि ये अंडे झागनुमा-घोंसले में रखती हैं, जो की पेड़ों पर, पानी के टैंकों, जल भराव क्षेत्रों, नालों आदि पर रखा जाता है। सफेद रंग का झागनुमा-घोंसला रंग में सफ़ेद और आकार में अर्ध गोलाकार होता है जिसमें अंडे बिखरे हुए होते हैं। यदि नियमित रूप से बारिश नहीं हो रही हो और सूखे की स्थिति बनी रहे तो ये झागनुमा-घोंसला अंडों को पानी की कमी से बचने में मदद करता है। भ्रूण का प्रारंभिक विकास इन झागनुमा-घोंसलों में ही होता है। टैडपोल के उभरने के बाद, वे नीचे मौजूद पानी में कूद जाते हैं और उनका बाकी विकास जलस्रोतों में होता है।

सीतामाता अभयारण्य के बाहरी इलाके में बांसी नामक गांव में इमारतों पर यह कॉमन ट्री फ्रॉग अक्सर देखा जाता है। ये सीतामाता अभयारण्य के दमदमा द्वार पर स्थित वन चौकी के आस-पास भी देखे जाते हैं। सीतामाता के अंदर व सीमा पर स्थित सभी वन चौकियां इस मेंढक को देखने के लिए उपयुक्त स्थान हैं। यह प्रजाति बांसवाड़ा शहर में भी देखी गई है। इस प्रकार राजस्थान में, कॉमन ट्री फ्रॉग की वितरण सीमा बहुत ही सीमित है, इसलिए इसे उचित रूप से संरक्षित किया जाना चाहिए।