मरुस्थल से घिरे छप्पन्न के पहाड़ : Siwana Hills 

मरुस्थल से घिरे छप्पन्न के पहाड़ : Siwana Hills 

राजस्थान के मरुस्थल की कठोरता की पराकाष्ठा इन  छप्पन्न के पहाड़ों में देखने को मिलती हैं।यह ऊँचे तपते पहाड़ एक वीर सेनानायक की कर्म स्थली हुआ करता था।

उनके लिए कहते हैं की

आठ पहर चौबीस घडी, घुडले ऊपर वास I
सैल अणि सूं सेकतो, बाटी दुर्गादास II

जी हाँ वे थे वीर दुर्गादास जिन्होंने अरावली के उबड़-खाबड़ इलाके में घुड़सवारी करते हुए दिन और रात काटे! अपने भाले की नोक से आटे की बाटी बनाकर भूख मिटाई, इस तरह अत्यंत कष्ट पूर्ण स्थिति में रह कर अपने क्षेत्र की रक्षा की थी।

यह क्षेत्र था, मारवाड़ का यानि जोधपुर और इसके आस पास का। इस वीर ने मुगलों के सबसे मुश्किल शासक औरंगजेब के बगावती बेटे – अकबर (यही नाम उसके दादा का भी था) को सहारा देकर मुगलों से सीधी टक्कर ली थी। अकबर के बेटे और बेटी को सुरक्षित जगह रख कर वीर दुर्गादास स्वयं निरंतर युद्धरत रहे।  जहाँ इन बच्चों को रखा गया था, वह स्थान था- बाड़मेर के सिवाना क्षेत्र की ऊंची पहाड़ियां, जिन्हें छपन्न के पहाड़ों के नाम से जाना जाता है। कहते हैं 56 पहाड़ियों के समूह के कारण इनका नाम छप्पन के पहाड़ रखा गया था, कोई यह भी कहता हैं छप्पन गांवों के कारण इस क्षेत्र को छप्पन के पहाड़ कहा जाने लगा।  मुख्यतया 24 -25 किलोमीटर लंबी दो पहाड़ी श्रंखलाओं से बना हैं यह, परन्तु असल में यह अनेकों छोटे छोटे पर्वतों का समूह हैं। अतः इसे सिवाना रिंग काम्प्लेक्स भी कहा जाता हैं।

वीर दुर्गादास द्वारा निर्मित दुर्गद्वार, जहाँ वह औरंगेज़ब के पौत्र और पौत्री को रखते थे।

पश्चिमी राजस्थान में स्थित यह सिवाना रिंग काम्प्लेक्स अरावली रेंज के पश्चिम में फैले नियो-प्रोटेरोज़ोइक मालाणी इग्नेस का हिस्सा हैं। नियो-प्रोटेरोज़ोइक मालाणी इग्नेस 20,000 वर्ग किमी क्षेत्र में फैला है। सिवाना क्षेत्र आजकल भूगर्भ शास्त्रियों की नजर में है क्योंकि यहाँ रेयर अर्थ एलिमेंट (REE) मिलने की अपार सम्भावना है।

सिवाना रिंग कॉम्प्लेक्स (SRC) बाईमोडल प्रकार के ज्वालामुखी से बने है जिनमें बेसाल्टिक और रयोलिटिक लावा प्रवाहित हुआ था, जो प्लूटोनिक चट्टानों के विभिन्न चरणों जैसे पेराल्कलाइन ग्रेनाइट, माइक्रो ग्रेनाइट, फेल्साइट और एप्लाइट डाइक द्वारा बने हैं, जो कि रेयर अर्थ एलिमेंट  की महत्वपूर्ण बहुतायत की विशेषता है। रेयर अर्थ एलिमेंट यानि दुर्लभ-पृथ्वी तत्व (REE), जिसे दुर्लभ-पृथ्वी धातु भी कहा जाता है जैसे लैंथेनाइड, येट्रियम और स्कैंडियम आदि। इन तत्वों का उपयोग हाइब्रिड और इलेक्ट्रिक वाहनों के इलेक्ट्रिक मोटर्स, विंड टर्बाइन में जनरेटर, हार्ड डिस्क ड्राइव, पोर्टेबल इलेक्ट्रॉनिक्स, माइक्रोफोन, स्पीकर में किया जाता है। यह विशेषता कभी इस क्षेत्र के लिए मुश्किल का सबब भी बन सकता हैं क्योंकि मानव जरूरतें बढ़ती ही जा रही हैं और जिसके लिए खनन करना पड़ेगा।

कौन सोच सकता है कि बाड़मेर का यह जैव विविध हिस्सा, जो थार मरुस्थल से घिरा है उसका अपना एक अनोखा पारिस्थितिक तंत्र भी है, जिसे लोग मिनी माउंट आबू कहने लगे। यद्यपि माउंट आबू जैसा सुहाना मौसम और उतना हरा भरा स्थान नहीं हैं यह, परन्तु बाड़मेर के मरुस्थल क्षेत्र में इस प्रकार के वन से युक्त कोई अन्य स्थान भी नहीं हैं। लोग मानते हैं की 1960 तक यहाँ गाहे-बगाहे बाघ  (टाइगर) भी आ जाया करता था। आज के वक़्त यद्यपि कोई बड़ा स्तनधारी यहाँ निवास नहीं करता परन्तु आस पास नेवले, मरू लोमड़ी एवं मरू बिल्ली अवस्य है। कभी कभार जसवंतपुरा की पहाड़ियों से बघेरा अथवा भालू भी यहाँ आ जाता हैं। विभिन्न प्रकार के शिकारी पक्षी एवं अन्य पक्षी इन पहाड़ियों में निवास करते है। जिनमें – बोनेलीज ईगल, शार्ट टॉड स्नेक ईगल,  लग्गर फाल्कन, वाइट चीकड़ बुलबुल, आदि देखी जा सकती है।

a) Microgecko persicus, b) Psammophis schokari, c) Ophiomorus tridactylus, d)Chamaeleo zeylanicus, आदि सिवाना की तलहटी में आसानी से मिल जाते है।

छपन्न की इन पहाड़ियों में एक प्रसिद्ध शिव मंदिर है- हल्देश्वर महादेव, जिसके यहाँ से मानसून में एक झरना भी बहता है, जो अच्छी बारिश होने पर दिवाली के समय तक बहता है। बाड़मेर के इस शुष्क इलाके में शायद सबसे अधिक प्रकार के वृक्षों की प्रजातियां यहीं मिलती होगी। धोक (Anogeissus pendula),  इंद्र धोक (Anogeissus rotundifolia), पलाश (Butea monosperma), कुमठा (Acacia senegal), सेमल (Bombax ceiba), बरगद (Ficus bengalensis), गुंदी(Cordia gharaf), और कई प्रकार की ग्रेविया Grewia झाड़िया जैसे – विलोसा (Vilosa), jarkhed (Grewia flavescens), टेनक्स (Grewia tenax) आदि शामिल है।

मॉर्निंग ग्लोरी (Ipomoea nil) के खिले हुए फूल हल्देश्वर महादेव के रास्ते को अत्यंत सुन्दर बना देते है |

नाग (Naja naja), ग्लॉसी बेलिड रेसर (Platyceps ventromaculatus),, सिंध करैत (Bungarus sindanus), थ्रेड स्नेक (Myriopholis sp.), सोचुरेक्स सॉ स्केल्ड वाईपर (Echis carinatus sochureki), एफ्रो एशियाई सैंड स्नेक (Psammophis schokari), आदि सर्प आसानी से मिल जाते हैं। मेरी दो यात्राओं के दौरान मुझे अनेक महत्वपूर्ण सरिसर्प यहाँ मिले जिनमें सबसे अधिक उल्लेखनीय हैं – पर्शियन ड्वार्फ गेक्को (Microgecko persicus) जो एक अत्यंत खूबसूरत छोटी छिपकली हैं।  शायद यह भारत की सबसे छोटी गेक्को समूह की छिपकली होगी। इन पहाड़ी की तलहटी को ऊँचे रेत के धोरों ने घेर के रखा हैं, इन धोरों के और पहाड़ों के मिलन स्थल पर केमिलिओन या गिरगिट(Chamaeleo zeylanicus) का मिलना भी अद्भुत हैं। मिटटी में छुपने वाली स्किंक प्रजाति की छिपकली दूध गिंदोलो (Ophiomorus tridactylus) तलहटी  के धोरो  पर मिल जाती है।

बारिश के मौसम में ब्लू टाइगर नमक तितली देखने को मिल जाती हैं।

इन पहाड़ियों के भ्रमण का सबसे अधिक सुगम तरीका हैं सिवाना से पीपलूण गांव जाकर हल्देश्वर महादेव मंदिर तक जाने का मार्ग। पीपलूण तक आप अपने वाहन से जा सकते हैं एवं वहां से पैदल मार्ग शुरू होता हैं। मार्ग के रास्ते में वीर दुर्गादास राठौड़ के द्वारा बनवाया गया उस समय का एक विशाल द्वार भी आता हैं, मार्ग कठिन है और मंदिर तक जाने में एक स्वस्थ व्यक्ति को २-३ घंटे तक का समय लग जाते हैं और आने में भी इतना ही समय लग जाता हैं। नाग और वाइपर से भरे इन पहाड़ों को दिन के उजाले में तय करना ही सही तरीका हैं।
महादेव का मंदिर होने के कारण श्रावण माह में अत्यंत भक्त श्रद्धालु मिल जाते हैं परन्तु मानसून के अन्य महीने में कम ही लोग यहाँ आते हैं।  अत्यंत शुष्क पहाड़ियों पर धोक जैसा वृक्ष भी दरारों और पहाड़ियों के कोनों में छुप कर उगता हैं। खुले में मात्र कुमठा ही रह पाता हैं।
राजस्थान के पश्चिमी छोर पर इस तरह का नखलिस्तान कब तक बचा रहेगा यह हमारी जरूरतें तय करेगी।

राजस्थान का एक सुनहरा  बिच्छू : बूथाकस अग्रवाली (Buthacus agarwali)

राजस्थान का एक सुनहरा बिच्छू : बूथाकस अग्रवाली (Buthacus agarwali)

राजस्थान के सुनहरे रेतीले धोरों पर मिलने वाला  एक सुनहरा बिच्छू जो मात्र यहीं पाया जाता हैं …………………………………..

राजस्थान के रेगिस्तान में ऐसे तो कई तरह के भू-भाग है, परन्तु सबसे प्रमुख तौर पर  जो जेहन में आता है वह है सुनहरे रेत के टीले या धोरे। इन धोरो पर एक खास तरह का बिच्छू रहता है- जिसका नाम है- बूथाकस अग्रवाली (Buthacus agarwali)। मेरे लिए यह इस लिए महत्वपूर्ण है क्योंकि मेरे एक साथी श्री अमोद जामब्रे ने 2010 में इसकी खोज की थी। यहाँ खोज से मतलब है, पहली बार जंतु जगत के सामने इस प्रजाति के अस्तित्व के बारे में जानकारी रखी थी। उन्हें यह बिच्छू उनके मित्र श्री ईशान अग्रवाल ने ही संगृहीत करके दिया था जो राजस्सथान के जैसलमेर जिले के सगरो गांव से मिला था।श्री अमोद ने इसे अपने इसी मित्र के उपनाम से नाम भी दिया – अग्रवाली।

राजस्थान  के  कठोर वातावरण को दर्शाते  हुए  एक सटीक कविता है |

लू री लपटा लावा लेवे |
धोरा में तू किकर जीवै ?
कियाँ रेत में तू खावै पीवै ?
(एक अज्ञात राजस्थानी कवि की रचना)

खोज कर्ता :- श्री अमोद जामब्रे

यह बिच्छू आपको राजस्थान के मुलायम रेत वाले धोरों पर ही मिलेगा, इन धोरों पर लगभग उसी रंग के यह मध्यम आकार के बिच्छू शाम को सूरज ढलते ही सक्रिय हो जाते है और अपने लिए भोजन तलाशते है। पूरे दिन यहां तापमान 50 डिग्री सेल्सियस तक पहुँच जाता हैं अतः इन्हें छुप कर रहना पड़ता हैं। इनकी एक विशेषता यह है  की यह धोरों के सबसे मुलायम रेत वाले हिस्से पर रहता है।त्वरित रूप से अपने आगे के तीनो पांवों की जोड़ियों से रेत निकालते हुए अपने चतुर्थ पांव की जोड़ी से मिट्टी को तेजी से बाहर निकालता है (जैसे अक्सर कोई ततैया करता है) और एक छोटा सा कोटर बना कर छुप कर बैठ जाता है।   और तब तक इंतज़ार करता है, जब तक कोई शिकार नहीं आ जाये जिसे वह अपना भोजन बना सके । यदि यह अधिक धोरों पर अधिक विचरण कर अपना शिकार खोजेगा तो खुद का भी इसे किसी शिकारी द्वारा पकड़े जाने का खतरा रहेगा। दिन उगते ही यह एक कोटर को और गहरा करके रेत में समा जाता हैं।

अमोद अपने आलेख में लिखते हैं की यह जीनस बूथाकस अफ्रीका में मिलता हैं परन्तु इस खोज के साथ यह जीनस भारत में पहली बार पाया गया हैं। साथ ही यह प्रजाति राजस्थान की एक एंडेमिक या स्थानिक प्रजाति हैं जो मात्र राजस्थान में ही मिलती हैं।

Citation:
Amod Zambre and  R Lourenço (Feb 2011), A NEW SPECIES OF BUTHACUS BIRULA, 1908 (SCORPIONES, BUTHIDAE) FROM INDIA,   115 Boletín de la Sociedad Entomológica Aragonesa, nº 46 (2010) : 115 -119.

राजस्थान के खोये हुए तीन चमगादड़ प्रजातियों की कहानी  

राजस्थान के खोये हुए तीन चमगादड़ प्रजातियों की कहानी  

पिछले लगभग 150 वर्षों से राजस्थान राज्य में चमगादड़ की तीन प्रजातियां को देखा नहीं जा सका हैं। अनेकों सर्वे, खोज यात्रा, अध्ययन के बाद भी आज तक इन तीनो प्रजातियों का कोई अता पता नहीं लगा है। राजस्थान की जैव-विविधता पर कार्य करने वाले शोधकर्ता इनके विलोपन पर  अत्यंत चिंता जाहिर कर चुके है। यह तीनों है – लेसर माउस-ईयर बैट (Myotis blythii) Tomes, 1857,  लार्ज बारबास्टेल (Barbastella darjelingensis) Hodgson, in Horsfield, 1855 और सेरोटिन बैट  (Eptesicus serotinus pachyomus) Tomes, 1857.

आप को जान कर आश्चर्य होगा की ऐसा माना जाता है की इन चमगादड़ प्रजातियां में से दो तो मात्र राजस्थान से ही खोजी गयी थी, – लेसर माउस-ईयर बैट (Myotis blythii) और सेरोटिन बैट  (Eptesicus serotinus pachyomus) दोनों को पहली स्वतंत्रता की लड़ाई वाले वर्ष यानी 1857 में पहली बार वर्णित किया गया था।

इतने लंबे समय तक इनका कोई सबूत क्यों नहीं मिला? यह ठीक से जानने के लिए प्रत्येक प्रजाति को पृथक रूप से अध्ययन करते है।

1. लेसर माउस-ईयर बैट (Myotis blythii) Tomes, 1857 

चमगादड़ की इस प्रजाति का विवरण  इंग्लैंड में रहने वाले किसान रॉबर्ट फिशर टॉम्स, सन 1857 में किया था, जिनकी प्राणी विज्ञानी में गहरी रुचि थी। उनका यह विवरण ब्रिटिश संग्रहालय में संरक्षित एक नमूने पर आधारित था और उन्होंने स्वयं ने इस चमगादड़ का नमूना एकत्र नहीं किया था। उन्होंने तब इसे नाम दिया था – Vespertilio blythii. टोम्स (1857) ने अपने वर्णन में लिखा था कि ब्रिटिश संग्रहालय में इस नमूने पर एक लेबल लगा था जिस पर लिखा था-  भारत के  नसीनाबाद नामक जगह से, मिस्टर वारविक, 1848 । आगे टॉमस ने लिखा कि , “मेरा मानना है कि यह कैप्टन बॉयज़ द्वारा एकत्रित किया गया हैं”।

तो नमूने पर लिखे नाम मिस्टर वारविक को टॉम्स ने संग्रहकर्ता क्यों नहीं माना?

मिस्टर वारविक की पृष्ठभूमि खोजने पर इसका जवाब मिलता हैं-  “मिस्टर वारविक”  उस समय लंदन के एक जूलॉजिकल गार्डन के लिए प्राणी संग्रहकर्ता थे। वारविक उस समय विभिन्न जानवरों को मंगवाया करते थे। जैसे कि 1836 में मिस्र से जिराफ, पांच शुतुरमुर्ग, अठारह न्यूमिडियन क्रेन, एक ऊंट और पांच जेरोबा लाए गए थे। वारविक विभिन्न संग्रहालयों को प्राणियों के नमूने भी बेचा करते थे, जैसे कि क्यूबा नाइट जार को 1849 में डर्बी संग्रहालय को उन्होंने बेचा था।  अतः प्रतीत होता हैं की  वह इस चमगादड़ के  मूल संग्रहकर्ता  नहीं थे,  इसी कारण ने टॉम्स (1857) को यह अनुमान लगाने के लिए प्रेरित किया कि शायद किसी अन्य संग्रहकर्ता ने इसे एकत्रित किया है।

पर अब एक और प्रश्न उठता है की टॉम्स ने यह अनुमान क्यों लगाया कि मूल संग्रहकर्ता कैप्टन बॉयज़ हो सकते हैं।

इसका सीधा जवाब है की टोम्स ने उस समय के मशहूर संग्रहकर्ता कैप्टन बॉयज़ जो विभिन्न नमूनों  को संग्रह करते थे  “नसीराबाद” इलाके से जोड़ा, और यह मान लिया कि नमूना लेबल पर “नसीनाबाद” का मतलब नसीराबाद हैं, जो राजस्थान का एक कस्बा हैं। यह संभव है कि उन्होंने माना की  “नसीनाबाद” एक टाइपोलॉजिकल त्रुटि थी।

अब हम देखते हैं की कैप्टन बॉयज की पृष्ठभूमि क्या रही थी ? कैप्टन बॉयज़, ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी की फ़ौज में एक अधिकारी थे और साथ ही नमूनों का एक जाना माना संग्रहकर्ता। राजस्थान में अजमेर जिले के नसीराबाद एक प्रमुख सैन्य शहर रहा है। शायद वे नसीराबाद में रहे हो।

नसीराबाद, राजस्थान के साथ कैप्टन बॉयज़ के जुड़ाव ने इस प्रजाति के इलाके के बारे में एक धारणा को कायम रखा, भले ही टोम्स (1857) ने स्पष्ट रूप से कभी भी ऐसा कोई दावा नहीं किया की यह प्रजाति राजस्थान (तब का राजपुताना) से सम्बन्ध रखती हैं। उन्होंने भी संग्रहकर्ता के लिए शायद शब्द का इस्तेमाल किया था।

असल में जेर्डन (1867) ने सबसे पहले इसका उल्लेख किया था किनमूना  नसीराबादराजपुताना से कैप्टन बॉयज़ द्वारा खोजा गया था। जेर्डन (1867) ने टॉम्स की अटकलों को तथ्य के रूप में बताया।

हालाँकि, ब्रिटिश भारत में “नसीराबाद” नाम के कई शहर थे। नसीराबाद राजस्थान के अलावा पाकिस्तान, भारत के अन्य राज्य जैसे उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड में भी हैं और कैप्टन बॉयज राजस्थान से अधिक तो हिमालयन क्षेत्र में अधिक सक्रिय रहे थे।  यह भी ध्यान दिया जाना चाहिए कि टॉम्स (1857) द्वारा इस चमगादड़ का विवरण लिखने से तीन साल पहले ही कैप्टेन बॉयज की मृत्यु हो गई थी और टॉम्स के विवरण की पुष्टि या खंडन करने के कोई नहीं था।

जेर्डन के मोहर लगाने के पश्चात अधिकांश चमगादड़ विशेषज्ञ यही मानते रहे की लेसर माउस-ईयर बैट (Myotis blythii) राजस्थान में मिली थी।

  1. सेरोटिन बैट  (Eptesicus serotinus pachyomus), Tomes, 1857टॉम्स (1857) ने उसी शोधपत्र में, एक और चमगादड़ की प्रजाति (तब Scotophilus pachyomus) के लिए  विवरण दिया था, वह भी ब्रिटिश संग्रहालय में संरक्षित एक नमूने पर आधारित था। टोम्स (1857) के अनुसार, उसका संग्रहकर्ता  “कैप्टन बॉयज” और संग्रह का स्थान भारत था। इसमें कहीं भी राजपूताना का उल्लेख नहीं था।

    कथित तौर पर राजपूताना या राजस्थान से इस प्रजाति को सबसे पहले जोड़ा  Wroughton (1918)  ने। उन्होंने बॉम्बे नेचुरल हिस्ट्री सोसाइटी के भारतीय स्तनपायी सर्वेक्षण रिपोर्ट में लिखा की इस चमगादड़ की “टाइप लोकैलिटी: राजपुताना: बॉयज़” हैं। संभवत उन्होंने कैप्टन बॉयज़ के नसीराबाद से सम्बन्ध के कारण इस नमूने को भी राजपुताना का ही मान लिया गया था।

    इसके बाद सभी ने मान लिया की सेरोटिन बैट  (Eptesicus serotinus pachyomus) की यह राजस्थान में मिलने वाली एक प्रजाति हैं जैसे की  एलरमैन और मॉरिसन-स्कॉट (1951), सिन्हा (1980), श्रीनिवासुलु और श्रीनिवासुलु (2012), श्रीनिवासुलु एट अल। (2013) ।

हालाँकि, यह कहना पड़ेगा की  बेट्स एंड हैरिसन (1997) ने राजस्थान को इस प्रजाति के वितरण क्षेत्र में शामिल किया था, लेकिन साथ ही यह  चेतावनी भी दी थी की, “राजस्थान: कोई निश्चित इलाका नहीं। बेट्स एंड हैरिसन (1997) ने इस चमगादड़ के वितरण मानचित्र पर राजस्थान में किसी भी इलाके को चिह्नित नहीं किया।

 

  1. लार्ज बारबास्टेल (Barbastella darjelingensis) Hodgson, in Horsfield, 1855राजस्थान में लार्ज बारबास्टेल (Barbastella darjelingensis) नामक चमगादड़ की प्रजाति का प्रथम उल्लेख  Wroughton (1918), द्वारा प्रदान किया गया है। Wroughton (1918) ने ब्रिटिश संग्रहालय में जमा एक नमूने के कारण इस प्रजाति के वितरण में “राजपुताना” को शामिल किया था, लेकिन इस नमूने के लिए संग्रहकर्ता ने राजपूताना का उल्लेख ही नहीं किया था । फिर क्या वजह थी की Wroughton ने राजपूताना नाम का उल्लेख किया ?

    डॉब्सन (1878) द्वारा ब्रिटिश संग्रहालय के नमूनों पर एक कैटलॉग प्रकाशित किया गया उसके से पता चलता है कि ब्रिटिश संग्रहालय में एक साथ Barbastella darjelingensis  के दो नमूने रखे हुए थे।  एक वह नमूना जिसके आधार पर B.H. Hodgson ने लार्ज बारबास्टेल (Barbastella darjelingensis) की खोज की थी एवं दूसरा नमूना जो कैप्टेन बॉयज ने जमा कराया था। कैप्टेन बॉयज ने कभी नहीं कहा की यह नसीराबाद (राजपूताना) से प्राप्त किया गया था। डोबसन (1878) ने भी इस प्रजाति के वितरण में राजपूताना का उल्लेख नहीं किया, बल्कि माना की “भारत में (दार्जिलिंग, खासी पहाड़ियाँ, सिख, मसूरी, शिमला);यारकंद” आदि में इसका वितरण हैं ।

    Wroughton (1918)  ने कैप्टन बॉयज और नसीराबाद या राजपुताना (राजस्थान) के बीच कथित जुड़ाव को मानते हुए इसे भी राजपूताना में शामिल कर लिया, जैसा कि टोम्स (1857) द्वारा वर्णित दो प्रजातियों के साथ हुआ था।

    इसके बाद एलरमैन एंड मॉरिसन-स्कॉट (1951), सिन्हा (1980), श्रीनिवासुलु एट अल (2013) आदि सभी ने इसे राजस्थान की प्रजाति माना।
    हालांकि, सिन्हा (1980) को संदेह था अतः उन्होंने ने ब्रिटिश संग्रहालय के जे.ई. हिल से परामर्श किया और लिखा की:  जे.ई. हिल (बी.एम.) द्वारा सूचित किया गया है, ब्रिटिश संग्रहालय का नमूना संभवतः नसीराबाद का है, लेकिन “भारत” के रूप में लेबल किया गया है।

    बेट्स एंड हैरिसन (1997) ने अपने पाठ में इस प्रजाति के वितरण क्षेत्र में राजस्थान का उल्लेख नहीं किया, न ही उन्होंने इस प्रजाति के लिए अपने वितरण मानचित्र पर राजस्थान में किसी भी इलाके को चिह्नित किया।

सूक्ष्मता से देखने पर पता लगता है सभी वैज्ञानिकों ने कैप्टन बॉयज़ को नसीराबाद, राजपुताना से जोड़ कर देखा या नसीराबाद को कैप्टन बॉयज से।

परन्तु कैप्टन बॉयज़ के जीवन से स्पष्ट है कि वह राजपूताना के अलावा उत्तर भारत में भी सक्रिय रहे थे। 1843 में, उन्होंने कुमाऊं (उत्तराखंड) के आयुक्त  के सहायक के रूप में कार्य किया और दूसरे एंग्लो-सिख युद्ध में भी शामिल रहे थे। अंततः 21 मार्च 1854 को अल्मोड़ा (उत्तराखंड) में बॉयज़ की मृत्यु हो गई थी।

प्राणी नमूने एकत्र करने में कैप्टन बॉयज़ का अत्यंत कुशल थे इसी वजह से उन्हें सर्वसम्मति से 1842 में बंगाल की एशियाटिक सोसाइटी का सदस्य भी चुना गया था।   बॉयज़ ने आगरा से एक घोंघा (उत्तर प्रदेश), अल्मोड़ा (उत्तराखंड) से एक ततैया, सिंध (अब पाकिस्तान) और फिरोजपुर (भारतीय पंजाब) के बीच एक स्थान से एक पक्षी, राजस्थान के जयपुर से एक कैरकल आदि भी एकत्रित किये थे।

जार्डिन (1852) ने लंदन में कैप्टेन बॉयज के पक्षी संग्रह की नीलामी के बारे में लिखा हैं की, “पक्षियों के 500 – 600 प्रजातियां के नमूने उनके भारत के ऊपरी गंगा प्रांतों में उनके कई वर्षों के निवास का परिणाम हैं। उनमें से कुछ बहुत दुर्लभ हैं। एशियाटिक सोसाइटी ऑफ बंगाल ने उन्हें “तिब्बत दर्रे” (भारत-तिब्बत सीमा क्षेत्रों) में भूवैज्ञानिक अभियानों के लिए वित्तीय सहायता भी प्रदान की थी।

इस प्रकार यह स्पष्ट है कि कैप्टेन बॉयज के प्रयास केवल राजपुताना तक ही सीमित नहीं थे और उन्होंने हिमालय में काफी समय बिताया। संयोग से, हिमालय वह जगह है जहाँ यह तीनों चमगादड़ मिलती हैं।

इस प्रकार कह सकते हैं की राजस्थान में इन तीनों प्रजातियों के होने का कोई ठोस सबूत नहीं है, तो उन्हें राजस्थान सूची से हटा दिया जाना चाहिए।

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Dr. Dharmendra Khandal (L) has worked as a conservation biologist with Tiger Watch – a non-profit organisation based in Ranthambhore, for the last 16 years. He spearheads all anti-poaching, community-based conservation and exploration interventions for the organisation.

Mr. Ishan Dhar (R) is a researcher of political science in a think tank. He has been associated with Tiger Watch’s conservation interventions in his capacity as a member of the board of directors.

राजस्थान के धागे जैसे पतले थ्रेड स्नैक्स (Thread snake)

राजस्थान के धागे जैसे पतले थ्रेड स्नैक्स (Thread snake)

लोगो का सांपों के प्रति दो प्रकार से व्यवहार देखा गया है, कुछ लोग इनसे अत्यंत लगाव रखते हैं और हर मौके पर सांपों की चर्चा करते हुए नहीं थकते हैं, और दूसरे वे जो केंचुओं जैसे दिखने वाले निरीह ब्लाइंड स्नेक तक को भी, जहरीले सांप मान कर मारते रहते हैं।  केंचुए जैसे दिखने वाले ‘ब्लाइंड स्नेक’ सांप जो अक्सर आपके घरों के बाथरूमों के ड्रेनेज वाले नालों से निकलते हैं, उनको हम दो समूह में बाँट सकते हैं एक सामान्य तौर पर मिलने वाला ब्लाइंड स्नेक हैं, दूसरा पतला होने के कारण स्लेंडर ब्लाइंड स्नेक जिसका ही एक अन्य नाम हैं – थ्रेड स्नेक।

Myriopholis blanfordi (Blanford’s worm snake , the Sindh thread snake) photo by Dhamrendra Khandal & Vivek Sharma

ये दोनों ही इतनी छोटे आकर के हैं की इन्हें मात्र प्रशिक्षित लोग ही इन्हें सही तरह से पहचान सकते हैं।  पिछले दिनों राजस्थान में मिलने वाले थ्रेड स्नैक्स पर एक सर्प विशेषज्ञ श्री विवेक शर्मा  द्वारा एक अध्ययन किया गया। उन्होंने राजस्थान में 4000 किलोमीटर की एक दुष्कर यात्रा की जिसका उद्देश्य था, उपेक्षित सांपों पर शोध कार्य करना जैसे थ्रेड स्नेक आदि को उनके विभिन्न परिवेशों में देखना- जिनमें रेगिस्तान, उजाड़, खुले वन, मानव विकसित एवं परिवर्तित पारिस्थितिक तंत्र इत्यादि शामिल थे। यह प्रयास वह एक लम्बे शोध अध्ययन के पूर्व में उसकी ज़रूरत को देखने लिए कर रहे थे ताकि अपने शोध के उद्देश्य निर्धारित कर सके।  जबलपुर, मध्य प्रदेश के रहने वाले श्री विवेक शर्मा, सांपों की टेक्सोनोमी एवं उनकी पहचान में माहिर हैं। टैक्सोनॉमी पृथ्वी पर सभी जीवित जीवों को वर्गीकृत (छँटाई और वर्गीकृत) करने के लिए उपयोग की जाने वाली एक प्रणाली है। उन्होंने भारतीय सांपों को नए स्थानों पर खोजने एवं सांपों की एकदम नयी प्रजातियों की खोज पर कई राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय शोधपत्र प्रकाशित किये हैं।

अक्सर किसी भी प्राणी की प्रजाति का सही नाम जान लेना एक अत्यंत दुष्कर कार्य हैं। यह काम हमारे लिए आसान करते हैं टैक्सनॉमिस्ट (Taxonomist)।  टैक्सनॉमिस्ट जीवित प्राणियों को वर्गीकृत करने का कार्य करते हैं। टेक्सोनोमी “जीवन” के लिए एक पुस्तकालय की तरह है, जिसमें पूरी दीवारें अलमारियों में विभाजित हैं, फिर अलमारियों के भीतर अलग अलग खाने, फिर उसके भीतर किताबें, और अंत में प्रत्येक प्रजाति के लिए एकल पन्ना।

Myriopholis macrorhyncha (Beaked-thread snake , Long-nosed worm snake or Hook-snouted worm snake) photo by Dhamrendra Khandal & Vivek Sharma

विवेक शर्मा ने अचानक एक दिन मुझे फोन किया की आप यदि सिंध थ्रेड स्नेक (Myriopholis blanfordi) को देखना चाहते हैं और आज के दिन समय निकाल सकते हैं तो राजस्थान के अजमेर जिले में आ जाये।  जब में वहां पहुंचा तो उन्होंने बताया की एक स्थान पर निर्माण कार्य चल रहा है और यहाँ कुछ अच्छी संभावनाएं हैं, विवेक बोले हम इस स्थान पर कुछ सिंध थ्रेड स्नेक पहले ही देख चुके हैं और स्थानीय सज्जनों ने भी ऐसे किसी गुलाबी रेंगने वाले “कीड़े” को कभी कभार देखने की बात की है। कुछ समय में खुदाई करने वाले मजदूरों ने एक सांप को उठा कर दूर किया, जिसको विवेक शर्मा ने सावधानीपूर्वक अवलोकन कर पाया की यह सिंध थ्रेड स्नेक ही हैं, इसे देखना मेरे लिए एक अवसर जैसा था। साथ ही उसने कहा की इसके खोजकर्ता के बाद और आजादी के पहले यहां काम कर रहे विदेशी जीव वैज्ञानिकों के बाद से इसे किसी ने ठीक से पहचानने का कार्य स्वतंत्र भारत में अभी तक किसी ने नहीं किया हैं।

उसने बताया की कुछ लोग दावा करेंगे की उन्होंने इसे देखा हैं परन्तु थार मरुस्थल में एक और थ्रेड स्नेक प्रजाति मिलती हैं जिसे इसकी सहोदर प्रजाति (sibling species) कह सकते है। यानी दो या दो से अधिक प्रजातियां जो दिखने में लगभग समान हैं, फिर भी आपस में प्रजनन नहीं करती हो उन्हें सहोदर या गुप्त प्रजाति कहा जाता है। यह प्रोटोजोआ से लेकर हाथियों तक के सभी जीवों में देखा गया है। अपनी संरचनात्मक समानता को बनाए रखते हुए, ऐसी प्रजातियों सूक्ष्म शारीरिक और व्यवहारिक रूप से निसंदेह अलग भी होती हैं।  ऐसी  प्रजातियों के प्रजनन व्यवहार, फेरोमोन, मौसमी, या अन्य विशेषताओं में अंतर होते हैं जो इन प्रजातियों की अलग पहचान बनाए रखते हैं।

मैंने श्री विवेक से पूछा तो क्या थार में थ्रेड स्नेक की कोई अन्य प्रजाति भी मिलती हैं ?

विवेक बोले बिलकुल मिलती हैं।  और देखना आपको में एक बार मेरी यात्रा के दौरान फिर बुलाऊंगा।  यही हुआ, कुछ दिनों बाद विवेक ने कहा आप जोधपुर आये आपको नया थ्रेड स्नेक देखने को मिलेगा।उसी तरह रोड के पास देखा अन्य प्रजाति का बीकड थ्रेड स्नेक (Myriopholis macrorhyncha)। देखने में बिलकुल सिंध थ्रेड के समान परन्तु मुँह के सामने ध्यान से देखने पर आपको मुँह आगे चोंच की तरह निकला हुआ हिस्सा (रोस्ट्राल), जो इसे सिंध थ्रेड स्नेक से अलग प्रजाति बनाता हैं।

जब और अधिक अंतर जानने का प्रयास किया तो विवेक बोले यह काम सांप पर काम करने वालो का हैं जो इतने छोटे सांपों को मात्र सूक्ष्मदर्शी से ही पहचान सकते हैं, मोटे तौर पर आप इतना ध्यान रखे की जो गुलाबी रंग का अधिक चमकदार हैं स्नेक हैं वह थ्रेड स्नेक या स्लेंडर ब्लाइंड स्नेक हैं, और गहरे भूरे रंग के ब्लाइंड स्नेक हैं। साथ ही बताया की किस प्रकार थ्रेड स्नेक के कपाल और ऊपरी जबड़े स्थिर होते हैं और ऊपरी जबड़े में कोई दांत नहीं होते है। निचले जबड़े में बहुत लम्बी चतुष्कोणीय हड्डी, एक छोटी यौगिक हड्डी और अपेक्षाकृत बड़ी दांतेदार हड्डी होती है।जबकि ब्लाइंड स्नेक में ऊपरी जबड़े में दांत होते हैं। ब्लाइंड स्नैक्स में निचले जबड़े की जोड़-तोड़ अन्य सर्पों की तरह खुलते नहीं हैं जो उसे अपने मुँह से छोटे शिकार करने के लिए बाध्य करते हैं। इसलिए कहते हैं यह सांप प्रजाति अपने शिकार को टुकड़े टुकड़े कर के खाते हैं, अन्य सर्पों की भाँति उन्हें निगलते नहीं हैं। खैर यह व्यवहार भी किसी प्रयोगशाला  में ही देखा जा सकता है.

आगे विवेक थोड़ा रुक कर बोले “राजस्थान में थ्रेड स्नेक एवं ब्लाइंड स्नेक की कई प्रकार की ज्ञात प्रजातियां पायी जाती हैं एवं कई अज्ञात प्रजातियां होने की भी पूरी सम्भावना हैं।जब समझ नहीं आये तो यह बोले की यह एक थ्रेड स्नेक हैं – सिंध हैं या बीकड पता नहीं। बस आप एक सुधि शोधार्थी   की तरह व्यवहार करें।”

राजस्थान के अंतिम जंगली चीता की कहानी

राजस्थान के अंतिम जंगली चीता की कहानी

कई विवादों और शंकाओं के बीच भारत देश में अब चीता को पुनः स्थापित किया जाने वाला हैं। राजस्थान राज्य के कुछ क्षेत्र भी इसके लिए उपयुक्त माने गए हैं। परन्तु क्या आप जानते हैं की राजस्थान में अंतिम चीता कहाँ और कब पाया जाता था ?

इसे जानने के लिए हमें भारत के एक महान प्रकृतिवादी इतिहासकार श्री दिव्यभानु सिंह के एक लंबे शोध पत्र को सूक्ष्मता से देखना होगा जो उन्होंने एक युवा शोधार्थी रजा काज़मी के साथ बॉम्बे नेचुरल हिस्ट्री सोसाइटी के जर्नल -JBNHS 2019 में प्रकाशित किया हैं।

A fresco painting in Bundi .

इस शोध पत्र में ईस्वी सं 1772 से भारत और पाकिस्तान से चीता के 199 रिकॉर्ड समाहित किये हैं।  यानी पिछले लगभग 250 वर्षो में  चीता से संबंधित अधिकांश उद्धरण इस शोध पत्र में शामिल हैं। इन माहिर शोधकर्ताओं के अन्वेषण से शायद ही कोई चीता के रिकॉर्ड अछूते रहे होंगे।

यदि राजस्थान की बात करें तो इस शोध पत्र के अनुसार चीता के मात्र 12 रिकॉर्ड (टेबल 1) ही प्राप्त हुए है।  इन रिकॉर्ड की समीक्षा करे तो देखेंगे की  इन में 6 रिकॉर्ड गैर विशिष्ट प्रकार के हैं, यानी ऐसे रिकॉर्ड जो दर्शाते हैं कि भारत के कई राज्यों में चीता की उपस्थिति दर्ज की गयी हैं, जिनमें राजस्थान भी शामिल हैं, परन्तु ऐसे रिकॉर्ड  एक  स्थान विशेष को इंगित नहीं करते हैं जहाँ चीता देखा गया । यह रिकॉर्ड मात्र साहित्यिक विवेचना के क्रम में समाहित हुए है। जैसे की उदाहरण के लिए हम एक रिकॉर्ड लेते हैं –  स्टेरनदेल, (Sterndale,1884) ने लिखा की चीता ” Central or Southern India, and in the North-West from Kandeish, through Scinde and Rajpootana to the Punjab,…… In India the places where it most common are Jeypur in Upper India, and Hyderabad in Southern India ”  में पाया जाता है। इस रिकॉर्ड से यह सत्यापित नहीं होता की स्टेरनदेल ने किस तारीख को अथवा किस स्थान पर चीता देखा हैं।

बाकी बचे 6 रिकॉर्ड इन मे से 4 रिकॉर्ड पालतू चीता के दर्शाये गए हैं, जो भरतपुर, अलवर और जयपुर से प्राप्त हुए हैं। इन पालतू चीता के सन्दर्भ में प्रामाणिक तथ्य उपलब्ध नहीं हैं कि वह कहाँ से लाये गए है। राजस्थान के दो पूर्व वन्य जीव प्रतिपलाकों श्री विष्णु दत्त शर्मा एवं श्री कैलाश सांखला (1984) के अनुसार जयपुर में उपलब्ध सारे पालतू चीता अफ्रीका या काबुल, अफगानिस्तान से आते रहे हैं एवं श्री दिव्यभानुसिंह के अनुसार यह ग्वालियर (उन्हें अफ्रीका से आते थे, ऐसा प्रमाण नहीं मिला) से आते थे। अतः इन्हें किसी भी तरह राजस्थान का नहीं माना जा सकता हैं।

खैर अब बचे मात्र 2 प्रमाण जो राजस्थान के जंगली चीता होने के करीब हैं –

एक हैं प्रसाद गांव से जो दक्षिण उदयपुर में स्थित हैं। रिकॉर्ड धारक के अनुसार एक चीता रात में कैंप के करीब कुत्ते ढूंढ़ते हुए घूम रहा था। इस प्रमाण में दो संदेह पैदा होते हैं की क्या दक्षिण राजस्थान के घने जंगल चीता के लिए मुनासिब थे ? दूसरा की क्या चीता वाकई कुत्तों का शिकार करता रहा होगा? कहीं वह एक बघेरा/ तेंदुआ तो नहीं था जिसे चीता नाम से दर्ज  कर लिया गया होगा ? क्योंकि दक्षिण राजस्थान में आज भी तेंदुआ को चितरा नाम से जाना जाता हैं।

दूसरा प्रमाण कुआं खेड़ा गांव से हैं जो कोटा जिले के रावतभाटा क्षेत्र का एक गांव हैं जो मध्यप्रदेश की सीमा पर स्थित हैं।  यह निःसंदेह एक चीता के बारे में ही हैं, जिसे दुर्भाग्य से एक बाघ ने मौत के घाट उतार दिया था।  इस रिकॉर्ड के संकलनकर्ता विलियम राइस एक अत्यंत माहिर शिकारी थे।

विलियम राइस 25 वी बॉम्बे रेजिमेंट में लेफ्टिनेंट पद पर थे और उन्होंने अपने शिकार के संस्मरण में लिखा है कि, किस प्रकार से उन्होंने पांच वर्षो के समय में 156 बड़े शिकार किये जिनमें 68 बाघ मारे एवं 30 को घायल करते हुए कुल 98 बाघों का शिकार किया, मात्र 4 बघेरे मारे एवं 3 घायल करते हुए कुल 7 बघेरे एवं 25 भालू मारे एवं 26 घायल किये और इस तरह कुल 51 भालुओं का शिकार किया। उन्हें लगता था कि, लोग उनके इस साहसिक कारनामे पर कोई विश्वास नहीं करेगा, इसलिए उन्होंने सात चश्मदीद अफसरों के नाम इस तथ्य के साथ में उल्लेखित किये हैं। यह अधिकांश वन्य प्राणी उन्होंने कोटा के वर्तमान में गांधी सागर, जवाहर सागर, राणा प्रताप सागर, बिजोलिया, मांडलगढ़, भेसरोडगढ़ आदि क्षेत्र से मारे थे।

A tamed cheetah in Alwar c. 1890

इस चीता के प्रमाण को संदेह से नहीं देखा जा सकता कि उन्हें इस प्राणी के बारे में पता नहीं था। यद्यपि, उन्हें स्वयं को भी संदेह हुआ की इस घने वन एवं पहाड़ी प्रदेश में यह प्राणी किस प्रकार आ गया जबकि यह मैदानी हिस्सों  का प्राणी हैं।

हालांकि इस अंतिम प्रमाण पर भी संदेह किया जाता हैं की यह कोई पालतू चीता था जो भटक कर पहाड़ी क्षेत्र में आ गया हो ? क्योंकि कोटा एवं बूंदी राज्य के भित्ति चित्रों में पालतू चीता रखने के प्रमाण मिलते हैं। कई बार शिकार के दौरान चीता भटक कर खो जाते थे, एवं कभी मिल जाते थे कभी नहीं मिलते थे।  शायद यह चीता भी इसी प्रकार का रहा हो।

इस तरह पूरे 250 वर्षो में यही प्रमाण जंगली चीता के सन्दर्भ में प्राप्त हुए हैं जो ईस्वी सन् 1852 में मिला था, यानी लगभग 170 वर्षों पहले हमारे राज्य में कोई चीता ऐसे जंगल में मिला था, जहाँ इस रिकॉर्ड धारक विलियम राइस के अनुसार वह नहीं हो सकता हैं।

 

S.no. yearPlace Remarks Reference
1C. 1840Bharatpur, RajasthanCoursing with CheetahOrlich, 1842
2C.1852Kooakhera (Kuvakhera), RajasthanOne dead cheetah killed by a tigerRice, 1857
3c. 1860Jaipur, RajasthanPhotograph of two cheetah with keepersFabb, 1986
428 December 1865Pursad village, RajasthanAuthor sees a cheetah prowling near the camp in search of dogsRousselet and Buckie 1882
5c. 1880Sind, Rajputana, Punjab, Central, southern, and N.W. India.Cheetah ReportedMurray, 1884
6c. 1884Central, Southern India, north-west from Khandesh through Sind and Rajputana to the Punjab, commonest in Jaipur and Hyderabad (in the Deccan)Cheetahs reportedSterndale, 1884
71889Jaipur, RajasthanCoursing with CheetahsO’shea, 1890
81892-93Alwar, RajasthanTame Cheetahs seenGardner, 1895
91892Punjab, Rajputana Central India up to BengalCheetahs reportedSanyal, 1892
10c.1907Central India, Rajputana, PunjabCheetahs reportedLydekker, 1907
11c.1920Northern India, Punjab, Rajputana, Central India, Central Provinces, almost upto BengalCheetahs reportedBurke, 1920
12c.1932Rajputana, Central India, Central Provinces, PunjabCheetahs reportedAlexander & Martin-Leake, 1932

References :-

Divyabhanusinh & R. Kazmi, ‘Asiatic Cheetah Acinonyx jubatus venaticus in India: A Chronology of Extinction and Related Report’, J. Bombay Nat. Hist. Soc 116, 2019. doi: 10.17087/jbnhs/2019/v116/141806

V. Sharma & K. Sankhala, ‘Vanishing Cats of Rajasthan’, in P. Jackson (ed.), The Plight of the Cats. Proceedings from the Cat Specialist Group meeting in Kanha National Park. IUCN Cat Specialist Group, Bougy-Villars, Switzerland, 1984, pp. 117-135.

W. Rice, Tiger-Shooting in India: Being an Account of Hunting Experiences on Foot in Rajpootana During the Hot Season, from 1850 to 1854. Smith, Elder & Co., London, 1857.

Divyabhanusinh, The End of a Trail: The Cheetah in India (2nd edn.) Oxford University Press, New Delhi, 2002.

Authors:

Dr. Dharmendra Khandal (L) has worked as a conservation biologist with Tiger Watch – a non-profit organisation based in Ranthambhore, for the last 16 years. He spearheads all anti-poaching, community-based conservation and exploration interventions for the organisation.

Mr. Ishan Dhar (R) is a researcher of political science in a think tank. He has been associated with Tiger Watch’s conservation interventions in his capacity as a member of the board of directors.

 

Cover photo caption & credit: Human-wildlife conflict is as old as mankind itself. A revealing cave painting from Bundi. (Photo: Dr. Dharmendra Khandal)

आम की बारहमासी फल देने वाली राजस्थान की एक किस्म – ‘सदाबहार’ 

आम की बारहमासी फल देने वाली राजस्थान की एक किस्म – ‘सदाबहार’ 

 

क्या कोई यह  विश्‍वास करेगा की राजस्थान के एक किसान ने  आम की एक ऐसी नई किस्म विकसित की हैं जो वर्ष में तीन बार फल देती है।   राजस्थान के  कोटा शहर के पास गिरधरपुरा गांव के  रहने वाले किसान श्री किशन सुमन ने 20 वर्ष की कड़ी मेहनत कर आमों यह एक अनूठी किस्म  विकसित की है  जिसे “सदाबहार” नाम दिया गया है।

वह बड़े गर्व से कहते है की ग्रीष्म, वर्षा एवं शीत ऋतुओ में हमारी आम की यह किस्म  फल देती है।  श्री किशन अतीत  के मुश्किल समय को याद करते है | पहले हमारा परिवार मात्र पारम्परिक कृषि पर आधारित था | जिसमें गेहू एवं चावल आदि की फसले उगाकर जीवन यापन करते थे | परन्तु जितनी मेहनत उसमे लगायी जाती थी उतना लाभ प्राप्त नहीं होता था ।  अत: पारम्परिक खेती को छोड़ कर उनका परिवार सब्ज़ियों की खेती करने लगा परन्तु इसके लिए जितनी मात्रा में कीटनाशकों का उपयोग किया जाता था | उससे मन को बहुत ख़राब लगता था एवं एक अपराध भाव पैदा होता था की हम लोगों को मानो जहर ही खिला रहे है । अत: उन्होंने फूलों की खेती शुरू कर दी।  जिनमें गुलाब के फूलों की  खेती भी शामिल थी  और यहाँ से श्री किशन की शोध यात्रा आरम्भ होती है । गुलाब पर कई प्रकार की कलमें  चढ़ा कर उन्होंने एक पौधें पर कई रंग के पुष्प प्राप्त किये |

 

अब उन्हें लगने लगा की फलदार वृक्षों पर भी मेहनत की जा सकती है फिर उन्होंने बाजार से कई प्रकार के आमों के फल लाना शुरू किया और उगाकर के उनके पौधें लगाने शुरू किये ।  उन्होंने पाया की आमों की अलग – अलग  किस्म के स्वाद में तो अंतर है  ही परन्तु इनमें एक और अंतर है  वह हैं उनके  पुष्प एवं फलो के लगने के समय में भी । श्री किशन ने पाया की जब विभिन्न आमों  के पौधों की किस्मों की कलमों को एक साथ लगाया गया तो पाया की एक आम के पेड़ के एक हिस्से में कुछ फल बड़े हो चुके है, और किसी हिस्से में अभी भी छोटे है और किसी हिस्से में अभी बोर भी आये हुए थे ।

इस तरह धीरे – धीरे कई वर्षो के प्रयोगों के बाद  सदाबहार किस्म का विकास हुआ।  यह विकसित किस्म वर्ष में तीन बार फसल देती है। यानी इस पर वर्ष भर आम के फल लगे रहते है।  श्री किशन ने कोटा के कृषि अनुसन्धान केंद्र  को अपनी बात बताई परन्तु उन्होंने इस प्रयास के प्रति उदासीनता का भाव रखा ।

परन्तु राष्ट्रीय नव प्रवर्तन प्रतिष्ठान भारत ( National Innovation Foundation  – India – NIF) के सुंडा राम जी ( सीकर निवासी ) ने श्री किशन   को एक अनोखा अवसर दिलाने में मदद की उन्होंने NIF की मदद से इस किस्म को राष्ट्रपति भवन में प्रदर्शित करने के लिए उन्हें वहां भेजा । उन्हें वहां अत्यंत सम्मान एवं पहचान मिली ।  इस “सदाबहार” आम एवं श्री किशन को देश विदेश के लोग जानने लगे। देश के विभिन्न हिस्सों से श्री किशन को इस किस्म के पौधों के लिए आर्डर आ ने लगे । साथ ही   भा . कृ . अनु . प . केंद्रीय उपोषण बागवानी संसथान ( ICAR- Central Institute for subtropical Horticulture) के वैज्ञानिको के साथ संपर्क किया गया एवं इस नस्ल को एक नई नेसल होने का दर्जा मिला साथ ही उन्होंने ही इसे एक नाम दिया  – ‘सदाबहार’ है।  यह आम अत्यंत स्वादिष्ट है एवं  इनमें में  पूर्णतः घुले हुए ठोस पदार्थ (Total dissolved solids – TSS ) 16 % मानी गयी है , TSS का मतलब होता है, इसके  मीठास कार्बोहाइड्रेट, कार्बनिक अम्ल , प्रोटीन , वसा एवं खनिज  की मात्रा कितनी है | सदाबहार आमों की TSS मात्रा अच्छी मानी गयी है |

श्री किशन जी मुस्कुराते हुए कहते है की कृषि अनुसन्धान केंद्र का सहयोग न सही, परन्तु मेरी पत्नी सुगना देवी और ईश्वर साथ देने में कोई कमी भी नहीं छोड़ी है। आज श्री किशन आशान्वित हैं की इस आम को जनता ने पहचान लिया हैं एवं इस की सफलता को अब कोई रोक नहीं पायेगा।  आप भी श्री किशन से आम का पौधा मंगवा सकते हैं।