आजकल हर आदमी को जल्दी से जल्दी, सघन, सदाबहार व आकर्षक हरियाली चाहिए। आम आदमी से लेकर स्वंयसेवी संस्थाऐं, नगरपालिका, नगर परिषद्, वनविभाग व अन्य सभी विभागों की यही चाह है। यह चाह तब और प्रबल और आवश्यक हो जाती है जब सोशियल मीड़िया, प्रिन्ट मीड़िया, पर्यावरण प्रेमी व कई अन्य ऐजेन्सिया यह कहने लग जाती हैं कि धन बहुत खर्च हुआ है लेकिन हरियाली कहा है? एक दूसरे पर आरोप-प्रत्यारोप लगते हैं। अनावश्यक खर्च व बेईमानी करने के आरोप भी लगते हैं। सफाईया पेश होती हैं लेकिन शक बने रहते हैं। जांच के सिलसिले भी चलते हैं।
हाल यह है कि लोग रेगिस्तान, शहर, गाँव, पहाड़ आदि हर जगह को वैसा ही हरा-भरा देखना चाहते है जैसा केरल है! जैसा उत्तर-पूर्व भारत है!
क्या राजस्थान में ऐसा संभव है?
जहाँ वर्षा कम है, वर्षाकाल छोटा है, वर्षा के दिन कम है, पौधों का वृद्विकाल छोटा है, मौसम की बेरूखी को सहन करने हेतु वनस्पतियों में सुसुप्त अवस्था में जाने की अन्तर्निहीत अनुवांशिकी है, सर्दी तो सर्दी गर्मी की हवा भी जहा शुष्क हो, वास्पोत्सर्जन दर अधिक हो, जहाँ ट्यूबवेल सिंचित कृषि ने भूमि की ऊपरी पर्तो में नमी की उपलब्धता को घटाया हो, वहा क्या सदाबहार वनस्पतियों की हर जगह हरियाली संभव है?
हमारी चाह कुछ भी हो लेकिन प्रकृति हर जगह उस वनस्पति विविधता को ही रोपती है जो वहाँ जैसी मिट्टी, वर्षा, भूमि की नमी, ताप एवं अन्य परिस्थितियाँ हैं उनमें जीवित बच सके। चाहे वह फिर कांटेदार वनस्पति हो या पतझड़ी या सदाबहार। प्रकृति मनुष्य की चाह की बजाय स्थानीय जलवायु एवं वहाँ कि पारिस्थितिकी को घ्यान में रखकर ही घास व वन उगाती है। यही कारण है कि केरल के वन राजस्थान में नहीं उग सकते और राजस्थान के केरल में नहीं। यदि राजस्थान में केरल जैसी हरियाली की सोच में बाहर से लाकर विदेशी मूल की प्रजातियों को लगायेगें तो भले ही कुछ दिनों के लिये अच्छी हरियाली व सुन्दरता नजर आये लेकिन इन्हें इस स्थिति में रखने की लागत सिंचाई व दूसरे कार्यो के रूप में अधिक आयेगी। जिस दिन उनको सिंचाई व अन्य देखभाल से वंचित किया जायेगा, उनमें से अधिकांश प्रजातियाँ मरने लगेगी।
आज आकर्षक हरियाली लाने के दबाव के नीचे दबी शहरी व कस्बों की संस्थाऐं, उद्यानों, पार्को, रोड़ किनारे, डिवाइड़र, कार्यालयों आदि जगह विदेशी मूल की वनस्पतियों को बेहिचक लगाने लगी है। शहर स्थित जलाश्यों के किनारें एवं अन्दर स्थित टापूओं पर भी यही सिलसिला जारी है। लोग अपने आलीशान घरों व होटलों में भी विदेशी प्रजातियों को चाव से लगाते हैं। पिछले 20 साल में यह प्रवृति काफी बढ़ी है।
क्या ऐसा कर हम स्थानीय इकोलाॅजी से छेड़छाड़ करने का प्रयास नहीं कर रहे हैं?
क्या कम लागत में स्थानीय जलवायु में पनपने वाली देशी प्रजातिया बेकार हैं?
विदेशी प्रजातियों पर घ्यान केन्द्रित होने से देशी प्रजातियों को बढ़ावा नहीं मिलेगा तो हमारी स्थानीय जैव विविधता क्या नहीं घटेगी?
स्मरण रहे, विदेशी प्रजातियों के मुकाबले देशज प्रजातिया कम देखभाल व कम खर्चे में ही पनप जाती हैं। विपरीत परिस्थितियों में उनके बचे रहने की प्रबल संभावना रहती है। उनसे स्थानीय इकोलाॅजी में कोई बदलाव की संभावना भी नहीं रहती है। खतरा यह भी है कि किसी विदेशी प्रजाति को यदि स्थानीय परिस्थितियां रास आ गई एवं दुर्धटनावश या असावधानी में प्राकृतिक वनों व दूसरें पारिस्थितिकी तंत्रों में वह पहुंच गई या जानबूझ कर पहुंचा दी गई एवं यदि वह आक्रमणकारी (invasive) सिद्व हो गई तो स्थानीय जैव विविधता, वन एवं चारागाहों को भारी नुकसान होगा।
हम लेन्टाना कमारा, प्रोसोपिस जूलीफ्लोरा, कोनोकारपस इरेक्टस, हिप्टिस सुवियोलेन्स, केशिया टोरा, केशिया यूनिफ्लोरा आदि से हो रहे नुकसान को सालों से देख रहे हैं। आज जिन विदेशी प्रजातियों को लापरवाही से लगाया जा रहा है, भविष्य में उनका व्यवहार देशज प्रजातियों के साथ क्या रहेगा कोई नहीं जानता।
हमारी स्थानीय परिस्थितयों में पनपने वाले नीम, बरगद, विषतेन्दु, तेन्दु, रायण, सहजना, सेमल, मोजाल, उम्बिया, खजूर, मोलश्री (बकूल), लिसोड़ा, गोंदी, मीठाजाल, खाराजाल, फराश, शहतूत, खेजड़ी, अरणी, लम्पाण, रोहण, जंगली करौंदा, जीवापूता, इमली, इन्द्रधौक, वाहीवरणा, महुआ, पाखड़, पिम्परी, जामुन, कठ जामुन, आल, लेण्ड़िया, रोहिड़ा, पलाश, पीला पलाश, देशी आम, दहमन, जमरासी, मावाबेर, फालसा, कचनार, जंगली गधा पलाश, कुसुम, कैथ, बिन्नास, कढीनीम, मीढ़ोल, तल्ला आदि ऐसी प्रजातियाँ है जिनमें अधिकांश शुष्क जलवायु में भी सदाबहार एवं अद्र्वसदाबहार बने रहने की प्रवृत्ति है। कुछ प्रजातियाँ बहुत सुन्दर फूल भी देती है। देशज होने के कारण वे पर्यावरण के लिये भी सुरक्षित है अतः दीर्धकालीन सोच को घ्यान में रखते हुए देशज प्रजातियों को लगाना, बचाना ज्यादा उचित होगा।