बोखा बाघ अब इतिहास का एक किस्सा भर लगता है, पर यह वह बाघ था जिसने डूंगरपुर राज्य को संरक्षण की मिशाल का अग्रणी बना दिया।
डूंगरपुर रियासत के बाघ उस ज़माने के भीषण अकाल के कारण स्थानीय लोगो द्वारा बाघों के भोजन हिरन आदि को समाप्त करने से पैदा हुए संकट से कम होगये एवं बाकि कुछ जो बचे उन्हें रियासत में पदस्थापित अंग्रेज अफसरों ने पूरी तरह ही समाप्त दिए। कहा जाता है कि, रियासत के प्रमुख महारावल बिजय सिंह बाघों की घटती संख्या के चलते चिंतातुर थे, परन्तु जब तक कि वह कुछ ठोस कदम उठा पाते वर्ष 1918 में उनकी मृत्यु हो गयी। उनके पश्च्यात उनके पुत्र लक्ष्मण सिंह गद्दी पर बैठे परन्तु उम्र में काफी छोटे थे और अंग्रेजो के पोलिटिकल एजेंट डोनल्स फील्ड उनके दैनदिन के कार्यभार को सँभालने लगे। डोनाल्ड फील्ड भी शिकार के शौकीन थे। पहले से ही घटती बाघों की संख्या के काल में उन्होंने डूंगरपुर को पूर्णतया बाघ विहीन ही बना दिया था।
बाघ के शिकार का आयोजन उस समय का सबसे बड़ा खेल था और राजनैतिक रिश्ते बनाने का जरिया भी। शिकार के बहाने राजा महाराजा मिलते थे, और एक साथ अच्छा समय गुजारते थे। इस दौरान वह नए राजैनतिक और आर्थिक निर्णय भी लेते थे। यह डूंगरपुर के लिए एक बहुत बड़ा नुकशान था की अब वहां बाघ नहीं थे।
छोटे बालक महारावल लक्ष्मण सिंह जब सक्षम हुए तो वर्ष 1928 में उन्होंने डूंगरपुर में पुनः बाघ लाने का निर्णय लिया। विभन्न उपायों को सोचने के बाद निर्णय हुआ की बाघ ला कर छोड़े जाये। चिड़ीयाघरो को वन्यजीव देने वाले एक व्यापारी से संपर्क किया गया और उसने दो बाघों को ग्वालियर के जंगलो पकड़ा और रेल की मदद से गुजरात के तालोड तक लाया। तत्पश्च्यात दोनों बाघों को को सड़क मार्ग से डूंगरपुर लाकर छोड़ा गया। बाघों को जंगलो से जिन्दा पकड़ना एक मुश्किल काम हुआ करता था, दवा से बेहोश करने का प्रचलन नहीं था। अक्सर बाघ पिंजरों के मजबूत सरियो से अपने दांत तोड़ लिया करते थे। लाये गये नर मादा बाघ के दांत भी शायद इसी कारण टूटे हुए थे, अतः नर को बोखा एवं मादा को बोखी कहा गया। 1928 से 1930 के मध्य कई बाघों को डूंगरपुर के जंगलो में छोड़ा गया।
अब इनकी सुरक्षा के लिए कई तरह के नियम कायदे बनाये गये, शुरुआती दौर में बाघों के शिकार को रोका गया, उनके लिए पानी की समुचित व्यवस्था की गयी। सुरक्षा दल का गठन किया गया एवं ताकीद की गयी की यदि कोई बाघ पालतू पशु आदि का शिकार करता है तो उसके मालिक को समय से मुआवजा भी दिया जायेगा। वर्ष 1935 के आते आते बाघों की संख्या बढ़ कर 20 होगयी थी। यह ६-७ वर्ष में प्राप्त की गयी एक बड़ी उपलब्धि थी। 1930 से 1937 के मध्य इन बाघों ने 45 शावकों को जन्म दिया था और डूंगरपुर को पुनः बाघों से समृद्ध धरती बनादिया था।
इस तरह सरिस्का से पहले डूंगरपुर में बाघ पुनर्थापन कार्यक्रम स्थापित किया गया था। इस तरह से सरिस्का से पहले डूंगरपुर बाघ पुनर्थापन कार्यक्रम स्थापित किया गया था।
यदपि सरिस्का में बाघ बाघ पुनर्स्थापन करना और भी अधिक मुश्किल काम था, जिसे राजस्थान वन विभाग ने बखूबी अंजाम दिया है। दुखद है की आज डूंगरपुर पुनः बाघविहीन है और इस इंतजार में है की कोई लक्ष्मण सिंह फिर आये जो इस भूमि को बाघों से युक्त कर दे।
सन्दर्भ:
- Singh, P. & G.V. Reddy (2016).Lost Tigers, Plundered Forests: A report tracing the decline of the tiger across the state of Rajasthan (1900 to present).WWF-India, New Delhi, 131 pp.
लेखक:
Dr. Dharmendra Khandal (L) has worked as a conservation biologist with Tiger Watch – a non-profit organisation based in Ranthambhore, for the last 16 years. He spearheads all anti-poaching, community-based conservation and exploration interventions for the organisation.
Mr. Ishan Dhar (R) is a researcher of political science in a think tank. He has been associated with Tiger Watch’s conservation interventions in his capacity as a member of the board of directors.
Cover Photo Caption & Credit : लंबी घास के किनारे पर बाघ का चित्रण (The Edinburgh journal of natural history and of the physical sciences, with the Animal kingdom of the Baron Cuvier published in 1835)