अरे कुत्ते को क्या देख रहे हो ? एक पर्यटन बोला और बेचारा टूरिस्ट गाडी वाला उसे छोड़ आगे बढ़ गया। यही था अंतिम जंगली कुत्ता जो वर्ष 2004 में रणथम्भोर में दिख रहा था। मैं इसकी एक बेहद ख़राब फोटो ले पाया। जंगली कुत्ता जिसके लिए एक सही भारतीय नाम है – ‘ढोल’ (Cuon alpinus)। ढोल वर्ष 2004 के बाद में राजस्थान से विलुप्त हो चुके है, और यह एक मात्र स्तनधारी प्राणी है, जो राज्य से आज़ादी के बाद से गायब हुआ है। परन्तु उस सामान्य पर्यटन की हिकारत भरी उपेक्षा से भी कहीं अधिक कठोर था हमारे पुरखो का बर्ताव। क्योंकि ढोल को एक हानिकारक प्राणी माना जाता था जो हिरणो को मारता है। हिरन का कम होना मतलब बाघ और इंसान के लिए खाना कम होना। यह हालात वन्य जीव अधिनियम कानून आने के बाद भी नहीं सुधरे थे, तब भी पुराने खयालो के वन अधिकारी अक्सर इनके खिलाफ रहे और कुछ तो इनको चुप चाप मारते या मरवाते भी रहे।
जयपुर के एक पुराने शिकारी कहते थे की, १९५० के दशक में वे जब श्योपुर- मध्य प्रदेश के जंगलो में शिकार करने जाते तो, अक्सर वहां के वन अधिकारी उनसे ढोल को ख़तम करने की सलाह देते थे, और वे जब ढोल मारते तो उन्हें लगता की यह एक वन्य जीव संरक्षण केलिए किया गया सही फैसला है।
वर्ष 2004 में, रणथम्भोर में ढोल कहाँ से आये कोई नहीं जानता परन्तु मध्य प्रदेश के अलावा कही से कोई और दूसरा जगह नहीं है, आज श्योपुर में भी इनका पूरी तरह सफाया हो चूका है। एक जमाना था जब रणथम्भोर- सरिस्का – करौली , धौलपुर, बारां, दक्षिणी राजस्थान के अन्य जिलों के जंगलो में इनकी तादाद ठीक-ठाक रही थी।
राजस्थान के जाने माने शिकारी कर्नल केसरी सिंह ने अपनी पुस्तकों में इनसे जुड़े अनेक किस्से लिखे है की किस प्रकार रणथम्भोर के सोनकच्छ इलाके में उन्होंने सांभर के पीछे लगे 5 -6 शिकारी कुतो में से एक को मार गिराया,एक अन्य को घायल कर दिया और बाकि सब भाग गए। उन्होंने दो और उद्धरण लिखे है जिसमें भी ढोल सांभर हिरन का पीछा करते हुए ही बताये गए थे। उनके अनुसार जब ऊंटो पर बैठे वन रक्षक ने देखा की एक घबराया हुआ सांभर का छौना उनके बीच आगया है और उनके पीछे दो ढोल मोके की तलाश में है ताकि उसका शिकार कर सके। इसी प्रकार एक बार उनको सुबह सुबह जब वे अपने एक शिकारी दोस्त के साथ सुबह का नास्ता ले रहे थे तब भी एक सांभर तेजी से भागते हुए उनके पास आगया जिसके पीछे ढोल भाग रहे थे। उनका दोस्त जो एक सांभर के शिकार के लिए रणथम्भोर आया था और उसे पहले दिन पुरे दिन घूमने के बाद भी सांभर नहीं दिखा था। ढोल के द्वारा दिखाए सांभर से अत्यंत प्रसन्न था। एक और वाकये में तो ढोल के समूह ने बाघ से खाना तक छीन लिया था। यह सभी वाकये देश आजादी (1947) के आस पास के रहे होंगे।
इन कहानीयो से स्पष्ट है की रणथम्भोर ढोल का अच्छा पर्यावास था। खैर कोटा, डूंगरपुर, झालावाड़ आदि सभी जगह के पुराने राजवंशो के महलो में आज भी राजस्थान से मारे गए ढोल की कई ट्रॉफीज दीवारों पर टंगी हुई है।
पिछले दिनों ढोल का जिक्र भारत की एक महती परियोजना -भारत माला राज मार्ग के पर्यावरण प्रभाव आकलन की रिपोर्ट में भी हुआ था की राजस्थान के कई अभ्यारण्यो से गुजरनेवाला यह राजमार्ग किस प्रकार अन्य वन्य जीवो के साथ ढोल के जीवन को प्रभावित करेगा। पर्यावरण प्रभाव आकलन की रिपोर्ट बनाने वाले अक्सर इधर उधर का ज्ञान चोरी कर अपनी रिपोर्ट बनाते है जिसमें सच्चाई अक्सर कहीं पीछे ही छूट जाती है। ढोल राजस्थान से कब ही के समाप्त हो चुके परन्तु पर्यावरण प्रभाव आकलन करने वाले अभी भी गलती से उसे दर्ज कर ही रहे है।
ढोल राज्य का सबसे अधिक भुला दिया गया प्राणी है जिसे आज पुनः लाने से वन विभाग के अधिकारी भी कतराते है क्योंकि वर्षो से हमने इसकी छवि को इतना कलुषित जो कर दिया है।
लेखक :
Dr. Dharmendra Khandal (L) has worked as a conservation biologist with Tiger Watch – a non-profit organisation based in Ranthambhore, for the last 16 years. He spearheads all anti-poaching, community-based conservation and exploration interventions for the organisation.
Mr. Ishan Dhar (R) is a researcher of political science in a think tank. He has been associated with Tiger Watch’s conservation interventions in his capacity as a member of the board of directors.
Cover photo Caption: जंगली कुत्तों द्वारा शिकार किया गया बाघ (1807) (फोटो:सैमुअल हॉविट)