एक अनजान पक्षी के संरक्षण के असाधारण प्रयासों की गाथा

एक अनजान पक्षी के संरक्षण के असाधारण प्रयासों की गाथा

वर्ष 1980 में भारत के पर्यावरण मंत्री दिग्विजय सिंह ने एक पुस्तक में लिखा है कि,

”हर्षवर्धन ने अपने अकेले के दम पर ग्रेट इंडियन बस्टर्ड (गोडावण) की ओर विश्व का ध्यान आकर्षित किया है और उन्होंने एक पुरजोर मांग रखी है कि, भारतीय मरुस्थल में बाजदारी के माध्यम से इनका शिकार बंद हो। यह एक पक्षी प्रजाति के संरक्षण की दिशा में उठाया गया एक अत्यंत दुर्लभ उदहारण है। ”
बाज़दरी यानि बाज़ या इस जैसे अन्य शिकारी पक्षियों के माध्यम से शिकार करना। यह एक प्राचीन शिकार का तरीका रहा है जिसने अरब देशों में एक परम्परा की शक्ल लेली है। अरब देशों में एक आज भी कई लोग और मुख्यतया वहां के रॉयल परिवार इस शौक के पीछे पागल है।

ग्रेट इंडियन बस्टर्ड (गोडावण) (फोटो: श्री नीरव भट्ट)

लगभग 40 पूर्व (1979 ) पहले तक राजस्थान अरब के राजपरिवार से शेख राजस्थान के मरुस्थल में आते थे और बाज़ों की सहायता से तेजी से विलुप्त की और बढ़ते विशाल पक्षी ग्रेट इंडियन बस्टर्ड का शिकार किया करते थे। राजस्थान के एक पक्षी विद्ध हरकीरत सांगा कहते हैं कि, शेखो के पास उस ज़माने में अत्यंत ताकतवर गाड़िया हुआ करती थी जिनमें ६ सिलिंडर से कम कोई नहीं थी। जैसे आज इस्तेमाल होने वाली जिप्सी गाड़ी में भी मात्र ४ सिलिंडर ही है। इन शेखो के द्वारा किये गए नुकसान का हमें कोई अंदाज नहीं है क्योंकि राज्य का वन विभाग या पुलिस उस समय के थार मरुस्थल में इनके पीछे ही नहीं जा पाता था। क्योंकि रास्ते कच्चे थे अथवा थे ही नहीं, जबकि शेख खुले आम शिकार के परमिट के साथ जैसलमेर के वीरान मरुथल में कहीं भी शिकार करते घूम रहे थे। सरकार ने उन्हें बाज से शिकार के लिए आज्ञा पत्र जारी किया हुआ था। इनको शिकार की आज्ञा मिलने के पीछे विदेश नीति और विदेशी मुद्रा महत्वपूर्ण कारण माना जा रहा था।
सभी लोग मूक दर्शक बने यह तमाशा देख रहे थे किसी की हिम्मत और सोच नहीं थी कि, शेखो के खिलाफ कुछ बोले और इस से अधिक सरकार के इस फैसले के खिलाफ कुछ बोले। शैख़ साल दर साल सर्दियों में यही काम करने भारत आते रहते थे।

यह सब देख कर हर्षवर्धन रह नहीं पाए परन्तु लोगों को संरक्षण के प्रति कोई अधिक जागरूकता ही नहीं थी। बाघों के प्रति हमारे मन मस्तिष्क में पहले से एक छवि थी अतः बाघों के प्रति जागरूकता पैदा करना कहीं आसान काम है। ग्रेट इंडियन बस्टर्ड को लोग अधिक जानते ही नहीं थे। यह हर्षवर्धन के लिए मुश्किल काम होने वाला था परन्तु उन्होंने ने कई आंदोलन, धरने और ज्ञापन देकर एक माहौल पैदा किया। निरंतर अख़बारों के माध्यम से आमजन के मध्य ग्रेट इंडियन बस्टर्ड के बारे में जानकारी बढ़ायी गयी। यह एक व्यक्ति द्वारा चलाया गया इतना सधा हुआ और संगठित आंदोलन था कि, हर व्यक्ति उस समय इस अनजान पक्षी के बारे में बात कर रहा था और भारत के संरक्षण के लम्बे इतिहास और परम्परा की दुहाई देकर शेखो को गाली दे रहा था। परन्तु सरकार फिर भी मूक बानी रही थी। अंततः हर्षवर्धन राजस्थान हाई कोर्ट से एक फैसला लेकर आये जिसने शेखो द्वारा इस तरह ग्रेट इंडियन बस्टर्ड के शिकार पर पूर्णतया रोक लगवादी थी।


इसी क्रम में हर्षवर्धन ने बस्टर्ड पर एक अंतरष्ट्रीय सिम्पोजियम बुलाई, जिसमें अनेक लोगो ने भाग लिया और पहली बार बस्टर्ड से जुड़े मसलो को एक जगह एकत्रित किया और ‘बस्टर्ड इन डिक्लाइन’ नाम से एक दस्तवेज प्रकाशित किया गया ।

यह उस ज़माने में भारत का ही नहीं अपितु विश्व में किसी एक पक्षी प्रजाति के संरक्षण के लिए किया गया पहला प्रयास था, जिसे आज भी एक मील के पत्थर के रूप में जाना जाता है।

अंततः हर्षवर्धन द्वारा चलायी गयी इस मुहीम से प्रभावित हो कर एक व्यक्ति राजस्थान हाई कोर्ट से एक फैसला लेकर आये जिसने शेखो द्वारा किये जारहे ग्रेट इंडियन बस्टर्ड के शिकार पर पूर्णतया रोक लगवा दिया।

लेखक:

Dr. Dharmendra Khandal (L) has worked as a conservation biologist with Tiger Watch – a non-profit organisation based in Ranthambhore, for the last 16 years. He spearheads all anti-poaching, community-based conservation and exploration interventions for the organisation.

Mr. Ishan Dhar (R) is a researcher of political science in a think tank. He has been associated with Tiger Watch’s conservation interventions in his capacity as a member of the board of directors.

गोडावण के संरक्षण के लिए तैनात पहली महिला वनरक्षक

गोडावण के संरक्षण के लिए तैनात पहली महिला वनरक्षक

  • सुखपाली, एक ऐसी महिला वनरक्षक जिसने सुदासरी जैसे कठिन परिस्थितियों वाले क्षेत्र में अकेले रहकर उठाई गोडावण के संरक्षण की जिम्मेदारी…

राजस्थान के राष्ट्रीय मरु उधान (Desert National Park) को विश्व भर में “गोडावण” (ग्रेट इंडियन बस्टर्ड) की अंतिम शरण स्थली माना जाता है। इसमें स्थित सुदासरी नामक स्थल गोडावण के लिए सबसे महत्वपूर्ण क्षेत्र है, यहाँ आज भी यह फल-फूल रहे है। इनको यहाँ सुरक्षा मिले इसके लिए अनेकों लोग कड़ी मेहनत करते है, इसी कड़ी में एक महत्वपूर्ण नाम रहा है- सुखपाली देवी का जो राजस्थान वन विभाग में  वन रक्षक के रूप में कार्यरत है। जहाँ अन्य लोग इस क्षेत्र में पानी की कमी के कारण इसे काला पानी की संज्ञा देते हैं, एवं काम करना नहीं चाहते वहीँ सुखपाली ने इस कठोर पारिस्थितिक तंत्र को दिल से स्वीकार किया।

संकटापन्न सूची में शामिल गोडावण पक्षी के संरक्षण लिए सुखपाली पहली महिला वनरक्षक के रूप में कार्यरत रही है जिसने पूर्ण मुस्तैदी के साथ मरुस्थल के सभी वन्यजीवों के संरक्षण के लिए महती भूमिका निभाई हैं। और यही नहीं वह अपनी ढाई साल की बच्ची के साथ कठिन क्षेत्र में रहकर बुलंद हौसलों के साथ कार्य किया हैं। वह जाबाज़ महिला वनरक्षक वर्तमान में जोड़बीड़ गिद्ध संरक्षण अभयारण्य में कार्यरत है।

सुखपाली बताती है कि, गोडावण एक बहुत ही शर्मिला पक्षी हैं, जो एक साल में एक ही अंडा देता हैं।  इन अंडो को दो मुख्य खतरे हैं एक तो जंगल मे विचरण करने वाले पशुओं के खुरों से कुचला जाना और दूसरा आबादी क्षेत्र से आने वाले आवारा कुत्ते द्वारा नुकशान। सुखपाली ने गोडावण के इन्ही दुर्लभ अंडो की देखभाल की। इसके अलावा मादा गोडावण के लिए पानी की व्यवस्था को भी सुचारु रखा ताकि मादा को पानी की तलाश में अंडो से अधिक दूर नहीं जाना पड़े, और जब तक अंडो से चूजे बाहर नहीं आ गए तब तक सुखपाली उनकी देखभाल करती रही।

गोडावण के संरक्षण लिए सुखपाली पहली महिला वनरक्षक के रूप में कार्यरत रही है जिसने पूर्ण मुस्तैदी के साथ मरुस्थल के सभी वन्यजीवों के संरक्षण के लिए महती भूमिका निभाई हैं।

सुखपाली ने सुदासरी में कार्यरत रहने के समय एक पीएचडी की छात्रा जो गोडावण पर शोध करने आयी थी, के साथ रहकर उसकी शोध में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। जिसमें सुबह से शाम तक उनके साथ गोडावण पर निगरानी रखना, ब्लॉक बनाना, वाटर पॉइंट चेक करना व गोडावण की गतिविधियों पर नज़र रखना औऱ उसके खान पान की विविधता को दर्ज करना इनका मुख्य कार्य था।

परन्तु समाज का एक वर्ग आज भी इस साहसी कार्य को एक हे दृष्टि से देखता हैं सुखपाली ऐसे ही एक वाकये को याद करती हुई कहती हैं की  शोध के दौरान ही एक रोज़ वह दोनों जंगल मे ट्रैकिंग कर रही थी तो पर्याप्त पानी न होने की वजह से पास में बसे एक गांव में पानी लेने के लिए चली गई। वहां एक घर में जाकर पानी पिया व बोतल में पानी भर लिया, तभी वहां पर मौजूद एक महिला इन दोनों से बात करने लग गई और वह महिला बोली कि, “आप इस तरह से जंगल मे भटकती रहती हो इसमें कोई इज्जत नही हैं हमारे यहां महिलाएं घर से बाहर नही जाती हैं आपकी जैसी महिलाओं का नारी जाति में कोई सम्मान नही है”। सुखपाली और उनकी साथी ने चुप चाप खड़े रहकर उस महिला की बातों को सुना और फिर वहां से चल दिए तथा रास्ते भर यही सोचते रहे कि, “हमने अच्छी शिक्षा हासिल कर अपने काम के लिए घर से दूर रहने का फैसला कर क्या कोई गलती कर दी है ?”

सुखपाली पंवार का जन्म श्रीगंगानगर जिले की सार्दुलशहर तहसील के प्रतापपुरा गांव में एक किसान परिवार में हुआ था। परिवार में ये पांच भाई बहनों में सबसे बड़ी हैं और इनकी शादी पंजाब के मुक्तसर जिले के भाइकेरा गांव में हुई। इनके पति का नाम हरपाल सिंह हैं और इनकी एक छोटी बेटी है जिसका नाम नवनीत कौर हैं।

सुखपाली की प्राथमिक शिक्षा प्रतापपुरा गांव के एक सरकारी विद्यालय में हुई थी और इन्होंने 9वी से लेकर स्नातक तक की पढ़ाई सादुलशहर से एवं बीएड पंजाब से की थी। अध्ययन के दौरान इन्हें विद्यालय में पौधारोपण करना, छोटे-छोटे बच्चों को पढ़ाना आदि बहुत पसंद था तथा बीएड करने के बाद इन्होंने एक निजी विद्यालय में प्रधानाध्यापक के पद पर भी कार्य किया था। बाद में इनके मन मे अध्यापक बनने का जुनून बढ़ता चला गया इन्होंने मेहनत और लगन के साथ अध्यापक भर्ती परीक्षा के लिए तैयारी शुरू की उसके बीच मे ही वनरक्षक भर्ती परीक्षा का विज्ञापन जारी हुआ, परिवार की स्वेच्छा से इनके पति ने वनविभाग में आवेदन करवा दिया और पहली ही भर्ती में सुखपाली का चयन हो गया।

जोधपुर में तीन माह के विभागीय प्रशिक्षण के बाद सुखपाली की पहली पोस्टिंग राष्ट्रीय मरु उधान स्थित बाड़मेर जिले के बछड़ा गांव स्थित नाके पर हुई। बाद में मार्च 2014 में इनको जैसलमेर जिले के सुदासरी नाके पर लगाया गया। राष्ट्रीय मरू उद्यान एक वन्य जीव अभयारण्य है जो क्षेत्रफल की दृष्टि से राजस्थान का सबसे बड़ा जीव संरक्षित क्षेत्र है।

सुदासरी क्षेत्र के बारे में वहां के उप वन संरक्षक भी मानते हैं कि, यहां पर छोटी सी बच्ची के साथ अकेले एक महीला वनरक्षक का रुकना कठिन और हिम्मत वाला कार्य है और इसलिए वन विभाग द्वारा उनके पति को निजी रोजगार भी दे दिया हैं।

यह जैसलमेर और बाड़मेर जिले में फैला हुआ है और वहाँ पर प्रयटक भी आते रहते हैं। सुदासरी में सुखपाली को गोडावण के संरक्षण के अलावा सभी पर्यटकों को जंगल का भ्रमण करवाने की जिम्मेदारी भी सौंपी गयी थी जिसमें ये वहां आने वाले सभी पर्यटकों को जंगल का भ्रमण करवाती एवं वहां मिलने वाले वन्यजीवों के बारे में बताती थी।

सुदासरी में काम करने के दौरान इनका गोडावण संरक्षण की नई वैज्ञानिक तकनीकें सीखने हेतु दुबई जाने के लिए चयन हुआ था लेकिन बच्ची की परवरिश को देखतें हुए इन्होंने अपना नाम वापिस ले लिया।

वर्तमान में सुखपाली, कोटडी रेंज जोड़बीड़ (बीकानेर) में कार्यरत हैं

सुखपाली, सुदासरी नाके व आसपास के क्षेत्र के बारे में बताती हैं कि, मौसम में यहाँ काफी असमानताएं देखी जा सकती हैं सर्दियों में यहां पर तापमान 2 डिग्री से नीचे व गर्मियों में तापमान 50 डिग्री से ऊपर चला जाता है। गर्मी के दिनों में तेज आंधी, धूल भरे गुब्बार, चारों ओर रेत के टीले व धोरे ही धोरे नज़र आते हैं। आसपास पानी के अलावा बिजली व स्वास्थ्य सुविधा भी नहीं है सौर ऊर्जा से संचालित बैटरी के एक छोटे से बल्ब के उजाले से ही काम चलता है। मोबाइल नेटवर्क भी हमेशा नहीं मिल पाता है। नाके पर स्थित एक छोटी सी रसोई, पास में एक कमरा और बगल में एक पानी का टैंक है जिसमें टैंकर द्वारा जरूरत के अनुसार पानी डलवाया जाता है। इस प्रकार की कठिन परिस्थिति में सुखपाली एक दो माह नहीं बल्कि पुरे डेढ़ साल वहां रही हैं।

डेढ वर्ष तक सुदासरी रहने के बाद अगस्त 2015 में पोस्टिंग सूरतगढ़ (श्रीगंगानगर) हो गई थी और इनका परिवार भी सूरतगढ़ ही आ गया था। सूरतगढ़ में नेशनल पार्क नही हैं बल्कि आसपास विश्नोई समुदाय के लोगों की ज़मीने हैं वे जीवो को अत्यधिक प्यार करते हैं। यहाँ भी कार्य की दिनचर्या सुदासरी जैसी ही थी जैसे गश्त करना, अवैध गतिविधियों की निगरानी, कुत्तो की निगरानी, घायल जानवरों का रेस्क्यू करना आदि रहता था।

सुखपाली बताती हैं कि, एक बार जब नवनीत तीन माह की थी रात का समय था तो इनको एक नर नील गाय के कुत्तों द्वारा घायल होने की सूचना मिली। इन्होने हिम्मत जुटाते हुए किराये की एक टैक्सी ली और मौके पर पहुँचकर लोगो की सहायता से नील गाय को टैक्सी में डाला व उपचार करवा के रायसिंह नगर स्थित रेस्क्यू सेंटर छोड़ कर आयी। रात का समय था और इनका मोबाइल फ़ोन भी बैटरी कम होने के कारण बंद हो गया था ऐसे में इनके परिवार वाले बहुत चिंतित थे। सुखपाली रात को 12 बजे घर पहुँची तो इनकी सासु माँ काफी चिंतित हुई लेकिन उनको एक गर्व की अनुभूति भी हुई कि मेरी बहू वन्यजीवों के लिए सदैव लगी रहती है।

सुखपाली बताती हैं कि, संरक्षित क्षेत्रों के आसपास बसे गांवो में खेती की जमीने बहुत कम होती हैं और ऐसे में कई बार आसपास के लोगो के साथ अवैध अतिक्रमण को लेकर भी आमना सामना हो जाता हैं। ऐसे लोग जेसीबी और ट्रैक्टर द्वारा पेड़ पौधों की सफाई करके कृषि कार्य के लिए जमीन खाली कर लेते हैं तथा सुखपाली उनको रोकती, समझाती और अगर नहीं समझते हैं तो फिर कानूनी तौर पर कार्यवाही करती। कई बार इनको महिला होने के नाते ऐसे कार्यों में कुछ असामाजिक तत्वों द्वारा अपशब्द भी सुनने को मिलते हैं लेकिन ग्रामीणों में भी ऐसे कुछ लोग होते हैं जो इनका  साथ देते हैं और सामंजस्य स्थापित करवाते हैं। हालांकि ऐसे कार्यो से निपटना एक महिला वनरक्षक के लिए चुनौती भी है फिर भी ऐसी परिस्थितियों में तत्पर रहना बहुत आवश्यक है।

सुखपाली की कड़ी मेहनत और निष्ठा की सभी वन अधिकारी प्रशंसा करते हैं।

सूरतगढ़ में इनकी पोस्टिंग डिडमलसर चौकी पर थी तो रोज़ एक अधिकारी द्वारा सूचना आई कि, “आप तैयार रहे एक सेही (सेव पोर्क्युपाइन) के शिकार की खबर है”।  सुचना मिलते ही ये और इनके पति स्टाफ के सदस्यों के साथ शिकारी को ढूंढने के लिए रवाना हो गए।

आसपास के लोगों से इनको शिकारी के चरित्र व उसकी दिनचर्या की जानकारी प्राप्त हुई और उसी के अनुसार इन्होने जहां उसका उठना बैठना रहता था, वहां इनकी टीम ने जाकर दबिश दी और मुज़रिम को पकड़ लिया। तो जैसे ही उसे हिरासत में लिया तो वह सच उगलने लगा उसके साथ दो व्यक्ति और थे तथा इनके बीच मांस के बंटवारे को लेकर विवाद भी हुआ था। सेही के शिकार के स्थान पर उसे लेकर गए लेकिन वहां इन्हे केवल  कांटे व थोड़ा सा मांस बरामद हुआ जिसको तीन जगह दफ़नाया गया था। उन शिकारियों पर कानूनी कार्यवाही के साथ जुर्माना भी लगाया गया।

वर्तमान में सुखपाली, कोटडी रेंज जोड़बीड़ (बीकानेर) में कार्यरत हैं और यहाँ भी इनकी दिनचर्या वैसी ही रहती है जैसी सुदासरी और सूरतगढ़ में थी। कोटड़ी रेंज में इनकी चौकी के पास लोगों ने आबादी क्षेत्र से बाहर निकल कर जंगल में झोपड़ी बनाकर अवैध कब्जा कर रखा था जिसे सुखपाली ने स्टाफ के सदस्यों और गांव वालों की सहायता से सामंजस्य स्थापित कर वहां से हटवाया था। इस कदम की वजह से वहां के लोगों ने इनका जबरदस्त विरोध भी किया था लेकिन काम करने का हौसला इनको ऐसे विरोध को झेलने का सहस भी देता है।

जोड़बीड़ में रहकर सुखपाली ने पक्षियों के बारे में सीखा है और वहां आने वाले पर्यटकों को गाइड भी करती हैं। इसके अलावा ये रोज़ गस्त, पक्षियों के लिए बने वाटर स्रोतों को चेक करना व अगर उन में पानी नहीं होता है तो टेंकर द्वारा पानी डलवाना इनकी ड्यूटी है। कभी कभार गांव के लोग अवैध चराई व कटाई के लिए आते हैं तो ये उनको वन संपदा व वन्यजीवों के महत्व के बारे में भी बताती हैं।

सुखपाली बताती हैं कि, अवैध मानवीय गतिविधि अक्सर यहाँ होती रहती हैं कुछ महीनों दिवाली से पहले अक्टूबर में एक चिंकारा का शिकार हो चुका था। शिकारी को पकड़ने के लिए सुखपाली और इनके साथी अलग-अलग दल बनाकर शिकारी को ढूंढने के लिए रवाना हो गए। शिकारी को तो इन्होने सफलतापूर्वक पकड़ लिया लेकिन मृत जानवर के अवशेष इन्हे नही मिले क्योंकि उसे किसी दूसरी गाड़ी वाले लेकर फरार हो गए और बहुत कोशिश के बाद भी वो पकड़ में नही आ पाया। लेकिन जो शिकारी पकड़ा गया उसे पर कानूनी कार्यवाही के लिए पुलिस को सौंप दिया।

समय के साथ-साथ सुखपाली ने वन्यजीवों की विविधता का ज्ञान अर्जित कर किया है और विभिन्न जीवों का रेस्क्यू भी कर लेती हैं। आज सुखपाली वन विभाग में काम करने वाली हर महिला के लिए प्रेरणा का श्रोत है तथा इनके सुदासरी में रहने के बाद अब वहां रहने के लिए कई महिलाये तैयार हैं।

सुखपाली, अपनी बेटी को भी एक वन अधिकारी बनाना चाहती हैं।

सुखपाली बताती है कि, आज उनके इस मुकाम के पीछे उनके परिवार और उनके पति का बहुत बड़ा योगदान है। उन्होंने इन्हे हर प्रकार से सहयोग किया है, हमेशा घरेलू कार्यों से दूर रख पढ़ाई में आगे बढ़ने के लिए हमेशा साथ दिया है। सुखपाली अपने पति के बारे में भी बताती है कि, “वह मेरे साथ रेगिस्तान में चले आये और हमेशा मेरा साथ दिया, जिसके लिए मैं उनका धन्यवाद करती हूँ।

सुखपाली के अनुसार अवैध मानवीय गतिविधियों से गोडावण के भोजन का प्रमुख़ आधार समाप्त हो जाना भी गोडावण की घटती संख्या का प्रमुख कारण हैं और इन गतिविधियों को तुरंत रोका जाना चाइये। साथ ही वर्तमान समय अनुसार नारी का योगदान इस युग मे अतुलनीय है ऐसे में हर महिला को आगे बढ़कर आना चाइये और मुश्किल कार्यों को भी करने की पहल करनी चाइये।

हम सुखपाली को उनके बुलंद हौसलों और भविष्य में यूँ ही निडर होकर कार्य करने ले लिए धन्यवाद और शुभकामनाये देते हैं।

प्रस्तावित कर्ता: Dr. GV Reddy, सेवनिर्वित हेड ऑफ़ फारेस्ट फोर्सेज (HOFF)

Shivprakash Gurjar (L) is a Post Graduate in Sociology, he has an interest in wildlife conservation and use to write about various conservation issues.

Meenu Dhakad (R) has worked with Tiger Watch as a conservation biologist after completing her Master’s degree in the conservation of biodiversity. She is passionately involved with conservation education, research, and community in the Ranthambhore to conserve wildlife. She has been part of various research projects of Rajasthan Forest Department.

 

वन रक्षक 4: “आई लव माई खेतोलाई”: कमलेश बिश्नोई

वन रक्षक 4: “आई लव माई खेतोलाई”: कमलेश बिश्नोई

कमलेश, बिश्नोई समाज का वह बालक जिसने अपने दादाजी के साथ ऊंट चराते हुए वन्यजीवों के बारे में सीखा और आज वन-रक्षक बन गोडावण सहित अन्य वन्यजीवों की रक्षा कर रहा है

“आई लव माई खेतोलाई”, खेतोलाई राजस्थान पोखरण में स्थित वह जगह है जहाँ प्रधानमंत्री स्व.श्री अटल बिहारी वाजपेई ने अपनी सूझबूझ साहस और दूरदर्शिता दिखाते हुए 11 मई 1998 को परमाणु परीक्षण किया था। उस परमाणु परीक्षण के इंचार्ज मिसाइल मैन स्व. श्री ए. पी.जे.अब्दुल कलाम थे। श्री कलाम साहब ने 2002 में राष्ट्रपति पद संभालने के बाद एक अंग्रेजी अखबार के इंटरव्यू में कहा था “आई लव माई खेतोलाई ।

इसी पोखरण की धरती में जन्म लेने वाले प्रकृति प्रेमी, कोमल ह्रदय कमलेश विश्नोई आज वनरक्षक में भर्ती होकर वन सम्पदा, जीव-जंतुओं एवं वन्य प्राणियों के प्रति समर्पित भाव से कार्य कर रहे हैं।

कमलेश बिश्नोई का जन्म 1 जुलाई 1990 को जैसलमेर जिले की पोखरण तहसील के खेतोलाई गांव में एक पशुपालक परिवार में हुआ। बचपन में ही जब इनकी उम्र मात्र 6 वर्ष थी इनके सिर से पिता का साया उठ चुका था। माता गृहणी थी और इनके दादाजी ऊंट चराते थे और घर चलाते। बचपन में कमलेश भी अपने दादाजी के साथ ऊंट चराने जाया करते थे, क्योंकि इनको ऊँटो की सवारी करना बहुत पसंद था। जब ये अपने दादाजी के साथ जाया करते थे तो आसपास की वनस्पतियां और जीव-जंतु इनको बड़ा आकर्षित करते थे और ये उनके बारे में अपने दादाजी से पूछते रहते थे और दादाजी इनको उन सभी जंतुओं के ग्रामीण नाम व उनकी विशेताएं बताया करते थे।

एक बार ये अपने दादाजी के साथ एक तालाब के पास बैठे हुए थे और तब इन्होने पहली बार ग्रेट इंडियन बस्टर्ड (गोडावण) को देखा तभी से इनके मन वन्यप्राणियों के प्रति लगाव और उनको बचाने का जज़्बा आ गया और उस समय इनको लगा कि “मैं वन विभाग में ही कार्य करू जिससे मैं प्रकृति का प्रेमी बन सकू” साथ ही इनके दादाजी भी चाहते थे कि ये वनकर्मी बने और वे इन्हें प्रेरित भी करते रहते थे। कठिन घरेलू परिस्थितियों के चलते हुए भी इन्होंने हिम्मत नही हारी और बुलन्द हौसलों व जज्बातों के साथ एक उज्ज्वल व सफल भविष्य की ओर अग्रसर हो गए। इनकी प्रारंभिक शिक्षा गांव में ही हुई व कक्षा 9 और 10 की पढ़ाई इन्होंने सागरमल गोपा स्कूल जैसलमेर से की थी 11वीं व 12वीं की पढ़ाई इन्होंने जयपुर से की थी इसी दौरान ये अंडर 16 व अंडर 18 में 800 मीटर तक की दौड़ में चार बार राष्ट्रीय स्तर पर खेलने भी गए थे। वर्ष 2013 में इनका वनरक्षक के पद पर चयन हुआ और ये सफलता इनके परिवार के लिए एक संजीवनी व इनके दादाजी के सपनो को साकार करने वाली थी।

विश्नोई समाज से आने वाले कमलेश बताते हैं कि हिरन को हम अपने परिवार का हिस्सा ही मानते है। यहां तक की इस समुदाय के पुरुषों को अगर जंगल के आसपास कोई लावारिस हिरन का बच्चा या हिरन दिखता है तो वह उसे घर पर लेकर आते हैं फिर अपने बच्चे की तरह उसे पालते हैं। यहां तक बिश्नोई समाज की महिलाएं भी हिरनों को एक मां का पूरा प्यार देती हैं। प्रारंभिक शिक्षा के दौरान जैसे कभी कोई हिरन का बच्चा बीमार या दुर्घटना से घायल इनको मिल जाता था तो ये अपने दोस्तों के साथ मिलकर उसके इलाज की समुचित व्यवस्था उपलब्ध कराते थे।

घायल चिंकारा का इलाज करते हुए कमलेश

कमलेश की पहली पोस्टिंग कुम्भलगढ़ नाका (राजसमंद) में हुई और वर्तमान में ये वन्य जीव चौकी चाचा डेजर्ट नेशनल पार्क में तैनात हैं। वर्ष 2016 में जब इन्होने डेजर्ट नेशनल पार्क को ज्वाइन किया तो उस समय श्री अनूप के आर उप वन संरक्षक के पद पर कार्यरत थे। वन संरक्षक हमेशा गोडावण के संरक्षण के प्रति सोचते व कार्य करते रहते थे, तब कमलेश को भी बचपन में देखे हुए गोडावण की याद आ गई जिसके बारे में इनको बाद में पता चला था कि ये राज्य पक्षी है। तो साहब की प्रेरणा से कमलेश की भी “गोडावण बचाओ” के प्रति रुचि बढ़ती चली गई और इन्होने वन संरक्षक के निर्देशानुसार स्थानीय सरपंच व गांव वालों के सहयोग से डेढ़ सौ हेक्टेयर में एक व्यवस्थित ढंग से क्लोजर भी बनवाया था जिसे आसपास के लोग देखने भी आते हैं।

अपना कार्यभार संभालने के बाद जब कमलेश रोज़ पार्क में गश्त के लिए जाया करते थे तो इन्हे अनेक छोटे-छोटे गड्ढे देखने को मिलते थे जिनके बारे में इन्होने वहां घूमने वाले चरवाहों से जानकारी जुटाना शुरू किया। तब इनको मालूम कि भील समुदाय से आने वाले कुछ लोग जो अवैध गतिविधियों में शामिल हैं स्पाईनि टेल्ड लिजार्ड जिसको स्थानीय भाषा मे “सांडा” छिपकली कहा जाता है का शिकार करते हैं। क्योंकि ऐसा माना जाता है कि सांडा के ऊपरी हिस्से में से तेल निकलता है जो औषधि बनाने के काम में आता है। धीरे-धीरे कमलेश ने चरवाहों व पशुपालकों को विश्वास में लेने एवं उनका मनोबल बढ़ाने के लिए, वन संपदा और जीव-जंतुओं का प्रकृति में महत्व को समझाना शुरू किया। इस पहल से 8-10 चरवाहे कमलेश के लिए विश्वासपात्र मुखबिर बन गए और अपराधियों के नाम, पते और गतिविधियां बताने लगे। वर्तमान में 40 चरवाहे ऐसे हैं जो कमलेश को सहयोग करते हैं। कमलेश भी उन्हें जरुरत पड़ने पर सहायता करते हैं और ग्रामीण क्षेत्र में ये एक पहल हैं जो इनके बीच में सम्बन्धों को मधुर बनाने के लिए सामंजस्य स्थापित करती हैं।

इन चरवाहों के माध्यम से कमलेश ने चार बार सांडा के शिकारियों को पकड़ा। एक बार ये पोखरण थे तब इन्हे सुचना मिली कि, “रामदेवरा के पास तीन आदमी अभी-अभी साइकिल से आए हैं और वो ज़मीन खोद रहे हैं”। सुचना मिलते ही कमलेश ने अपनी पूरी टीम के साथ उनके ऊपर धावा बोलकर उनको पकड़ लिया जिनके पास से 6 सांडे बरामद हुए थे। बाद में उनके ऊपर कानूनी कार्रवाई की गई। इसी प्रकार ऐसा ही केस और आया ये घटना लोहारकी गांव के पास की हैं जब रात के समय गांव के स्थानीय लोग कहीं बाहर से आ रहे थे तो उनकी गाड़ी की लाइट में उन्होंने कुछ अवैध व्यक्तियों को सांडा के बिलों को खोदते हुए देखा तो उन लोगों ने तुरंत कमलेश को सूचित किया। सुचना मिलते है वन कर्मी टीम के साथ वहां पहुंचे और उनको पकड़कर उनपर कानूनी कार्रवाई की।

ऐसे ही एक बार कमलेश जंगल में एक पेड़ के नीचे बैठे थे तो उन्हें आदमी दिखा जिसका केवल सिर ही नज़र आ पा रहा था। वो एक पहाड़ी से नीचे की तरफ जा रहा था तो जैसे ही कमलेश पास गए तो पाया कि वहां दो आदमी थे और उन्होंने 16 सांडे खोदकर रखे हुए थे। कमलेश उस समय अकेले थे तो उन्होंने बुद्धिमता से काम लेते हुए रेंजर व अपने साथियों को फोन से मैसेज कर दिया और दूसरी ओर शिकारियों बातों में उलझाते रहे। इस से पहले कि शिकारी कमलेश को पहचान पाते वन-विभाग के अन्य लोग वहां पर पहुंच गए और अपराधियों को पकड़ लिया। एक बार और शिकारियों कि सुचना मिली थी परन्तु पहुंचने से पहले ही वे भाग गए थे तथा वहां से कुछ हथियार व 10 सांडे बरामद हुए थे।

शिकारियों से बरामद किये हुए सांडा

कमलेश बताते हैं कि “अवैध कार्यों में शिकारियों को गिरफ्तार करवाने पर मुझे जनप्रतिनिधि व असामाजिक तत्वों की धमकी भी सुनने को मिलती है लेकिन हम बिश्नोई समुदाय से आते हैं इसलिए जीव जंतुओं को हम हमेशा दया की भावना से ही देखते हैं तथा हमको कितनी भी धमकियां मिले लेकिन हम घबराते नहीं हैं”। साथ ही कमलेश मानते हैं कि आपराधिक तत्वों पर लगाम लगाने में कहीं न कहीं सुचना देने वाले ग्रामीण व चरवाहों का भी महत्वपूर्ण योगदान हैं।

कमलेश बताते हैं कि, आसपास के इलाके में चिंकारा का शिकार भी किया जाता है। एक घटना ऐसी हुई जब गांव के एक व्यक्ति ने सूचना दी कि “मावा गाँव के पास दो गाड़ियों पर चार व्यक्ति हैं और हिरन को मारने कि कोशिश कर रहे हैं, मई यहीं पर छिप कर बैठा हूँ आप जल्दी आजाओ “। चिंकारा का शिकार करने का यह सामान्य तरीका है, जब चिंकारा पानी पीता है तो तुरंत भाग नहीं पाता है ऐसे में शिकारी चिकारा कि तरफ गाड़ी चालते हैं। चिंकारा भागता है लेकिन जल्दी थक जाता है और मारा जाता है। उन शिकारियों ने भी चिंकारा के पीछे दौड़ा कर उसे मार दिया था तथा उसे जाल में डालकर शरीर को चीर रहे हैं। सुचना मिलते ही कमलेश ने स्टाफ के अन्य साथियों को सूचना दी और वहां पहुंचे थे। विभाग कि टीम के वहां पहुंचने से पहले वे शिकारी तीन और चिंकारा मार चुके थे। घटना स्थल पर पहुंचते ही उन शिकारियों को तुरंत गिरफ्तार किया गया व कानूनी कार्यवाही की तथा उनको तीन महीने की जेल भी हुई। जेल से बाहर आने के बाद वे लोग कमलेश को धमकियाँ देने लगे। परन्तु ऐसी धमकियाँ कमलेश के जुनून व हौसले को कमजोर नहीं कर पाई।

समय के साथ-साथ कमलेश को विभिन प्रकार कि नई चीज़ें भी सीखने को मिली हैं, वरिष्ठ साथियों का अनुभव व अधिकारियों के मार्गदर्शन ने इनके इरादों को इतना मजबूत कर दिया कि प्रतिदिन इन्हे वन्य क्षेत्र में नया कार्य करने के लिए उत्सुकता रहती हैं। वर्ष 2019 में उपवनरक्षक महोदय ने कमलेश को बताया कि, “एक गोडावण ने अंडे दिए हैं और आपको विशेष तौर से उसकी निगरानी करनी होगी”। यह बात सुनते ही कमलेश इस कार्य के लिए तैयार हो गए और उस गोडावण व उसके अण्डों की सुरक्षा की जिम्मेदारी ले ली। कमलेश ने जरूरत का सारा सामान व एक टेंट पैक किया और उस स्थान के पास पहुँचा जहाँ गोडावण ने अंडे दिए थे। गोडावण को उनकी उपस्थिति से कोई परेशानी न  हो इस बात को समझते हुए उन्होंने 100 मीटर की दुरी रखते हुए एक अस्थायी तम्बू तैयार किया। मादा गोडावण सुबह 9 बजे पानी पीने के लिए ताल पर जाती थी और सुबह-शाम भोजन के लिए इधर उधर टहलती थी और उस समय कमलेश उसके घोंसले की पूरी मुस्तैदी निगरानी करते थे ताकि कोई बाज़ या लोमड़ी अण्डों पर हमला न करदे।

गोडावण एक शर्मीला पक्षी होता है और इस बात को समझते हुए कमलेश टेंट में ऐसे रहते थे की जैसे वहां कोई है ही नहीं। ये पूरे 28 दिन तक उस तम्बू में रहे। गोडावण गर्मियों में अंडे देता है और उस समय पोखरण में रेत के धोरों पर दैनिक तापमान 45-46 डिग्री तक पहुँच जाता है और ऐसे तेज़ गर्मी वाले वातावरण में रहना बड़ा चुनौतीपूर्ण कार्य है। परन्तु यह एक बड़ी ज़िम्मेदारी जिसे कमलेश ने भलभाँति निभाया।

आज अधिकतर संरक्षित क्षेत्रों के आसपास मानव बस्तियां हैं और इन बस्तियों में आवारा कुत्तों की बढ़ती आबादी वन्यजीवों के लिए मुश्किल बनती जा रही है। ये आवारा कुत्ते संरक्षित क्षेत्रों की सीमा के अंदर भी जाने लगे हैं तथा कई बार बाहर आने वाले जानवर जैसे की हिरन, चिंकारा और नीलगाय को घायल कर देते हैं। ऐसी की मुश्किल कमलेश के कार्य क्षेत्र में भी है। कमलेश बताते हैं की “जब से मैंने यहाँ कार्यभार संभाला है रोज कुत्तों द्वारा एक न एक दिन हिरण को घायल करना, मार देना ऐसी घटनाएं होती रहती हैं। वन क्षेत्र के आसपास गाँव हैं जिधर अधिकतर लोगो ने अपने खेतों की तार बाढ़ कर रखी है। ऐसे में भोजन की तलाश में कई चिंकारे इधर-उधर भटक जाते हैं तो रास्ता तलाश कर खेतों में प्रवेश कर जाते हैं और पीछे से कुत्ते भी खेतों में घुस जाते हैं और चिंकारा का पीछा करते हैं। रास्ता न मिल पाने के कारण वो इधर उधर टकराकर घायल हो जाता है और कुत्ते उसको आसानी से मार देते है। इस परेशान को देखते हुए कमलेश ने अपने उच्च अधिकारियों से सम्पर्क किया और इस समस्या का समाधान ढूंढना शुरु किया। इन्होने विभाग से एक पिंजरा लाकर ग्रामीणों के सहयोग से उनको पकड़ना शुरू किया। इनकी सोच कुत्तो के खिलाफ नही थी बल्कि ऐसी घटनाओं की रोज पुनरावृत्ति न हो इसीलिए इन्होने कुत्तों को पकड़ कर अन्यत्र स्थान पर ले जाकर छोड़ा जहाँ उन्हें भोजन भी मिल जाए और कोई वन्यजीव को खतरा भी न हो। इसी प्रकार से कमलेश अभी तक और अब तक 250 कुत्तो को ग्रामीणों के सहयोग से अन्यत्र स्थान पर छोड़ चुके हैं।

वरिष्ठ अधिकारियों के साथ कमलेश

कमलेश बताते हैं कि वर्ष 2019 में, कमलेश के इन सभी कार्यों को देखते हुए टाइगर वॉच संस्था और वाइल्ड लाइफ क्राइम कण्ट्रोल ब्यूरो (WCCB) द्वारा पुरुस्कृत भी किया गया है। साथ ही श्री कपिल चंद्रवाल, उप-वनसंरक्षक डेजर्ट नेशनल पार्क कमलेश के बारे में बताते हैं कि “कमलेश एक बहुत ही आश्वस्त और समर्पित वन रक्षक है। वह न केवल अपने कर्तव्य की भावना कार्य करते हैं, बल्कि वन्यजीवों के प्रति गहरी लगन और प्रेम से भी प्रेरित हैं। इनका स्थानीय लोगों के साथ एक अच्छा संपर्क है और संरक्षण के लिए समुदाय के समर्थन का होना बहुत जरुरी होता है”।

कमलेश बताते हैं कि उनकी शादी 2011 में हो गई थी और उनके दो बच्चे हैं। इनकी पत्नी भी चिंकारों के संरक्षण में रुचि रखती हैं उन्होने ने भी चिंकारे के बच्चे पाल-पालकर बड़े किए हैं फिर उनको जंगल मे छोड़ा हैं। आज जब इनके घर कोई अतिथि आता है और बच्चों से पूंछते हैं कि बेटा तुम्हारे पापा क्या करते हैं तो इनके बच्चे बड़े गर्व से कहते हैं कि “पापा गोडावण बचाते हैं”। और इसके चलते परिवार व सगे सम्बंदियो के लिए तो यह स्लोगन बन चुका हैं कि “कमलेश एक गोडावण प्रेमी” हैं।

कमलेश बताते हैं कि गोडावण संरक्षण को लेकर विभाग स्तर पर सराहनीय प्रयास किए गए हैं। गोडावण प्रजनन व रहवासी स्थलों पर खुफिया कैमरों की नजर, अंडों के सुरक्षा के पुख्ता प्रबंधन, क्लोजरों में पानी की समुचित व्यवस्था, गोडावण रहवासी क्लोजरों में अन्य हिंसक वन्यजीवों के प्रवेश पर पाबंदी जैसी सुविधाओं का विस्तार कर गोडावण संरक्षण को लेकर विशेष कार्य किए गए हैं। और आगे बहुते से अन्य जरुरी कदम भी उठाये जाएगी जिनसे हमारे राज्य पक्षी गोडावण को बचाया जा सके।

हम कमलेश को उनके अच्छे कार्यों के लिए शुभकामनाये देते हैं।

प्रस्तावित कर्ता: श्री कपिल चंद्रवाल, उप-वन संरक्षक डेजर्ट नेशनल पार्क 
लेखक:

Shivprakash Gurjar (L) is a Post Graduate in Sociology, he has an interest in wildlife conservation and use to write about various conservation issues.

Meenu Dhakad (R) has worked with Tiger Watch as a conservation biologist after completing her Master’s degree in the conservation of biodiversity. She is passionately involved with conservation education, research, and community in the Ranthambhore to conserve wildlife. She has been part of various research projects of Rajasthan Forest Department.

 

जाने, कैसे गोडावण खुद को शिकारी पक्षियों से बचाता है?

जाने, कैसे गोडावण खुद को शिकारी पक्षियों से बचाता है?

राजस्थान के सूखे रेतीले इलाकों में पाए जाने वाला गोडावण पक्षी, दुनिया का सबसे बड़े आकार का पक्षी है जो कि लगभग एक मीटर तक ऊँचा व दिखने में शुतुरमुर्ग जैसा प्रतीत होता है। अपने भारी वजन के कारण यह लम्बी दुरी तक उड़ पाने में अशक्षम होता है परन्तु यह बहुत तेजी से दौड़ सकता है। यह राजस्थान का राज्य पक्षी है तथा जैसलमेर के मरू उद्यान में सेवन घास के मैदानों में पाया जाता है। एक समय था जब यह पक्षी बड़ी संख्या में पाया जाता था, परन्तु इसके घटते आवास व् अवैध शिकार के चलते आज यह गंभीर रूप से संकटग्रस्त प्रजाति है।
परन्तु इस पक्षी के जीवन का संघर्ष केवल यही तक सिमित नहीं है बल्कि कई बार इसे खुद को शिकारी पक्षियों से भी बचाना पड़ता है…

जब भी कभी गोडावण किसी शिकारी पक्षी को अपनी ओर बढ़ते देखता है…

तो ऐसे में यह खुद को बचाने के लिए तुरंत नजदीकी किसी पेड़ या झाड़ के नीचे जाकर खुद को छुपा लेता है…

और तब तक छुपा रहता है जब तक शिकारी पक्षी वहां से चला नहीं जाता

अपने अस्तित्व को बचाये रखने के लिए यह इस पक्षी की एक रणनीति होती है

  1. Cover picture credit Mr. Nirav Bhatt
  2. Other pictures credit Dr. Dharmendra Khandal

 

 

घास के मैदान और शानदार बस्टर्ड प्रजातियां

घास के मैदान और शानदार बस्टर्ड प्रजातियां

भारत में मूलरूप से तीन स्थानिक (Endemic) बस्टर्ड प्रजातियां; गोडावण, खड़मोर और बंगाल फ्लोरिकन, पायी जाती हैं तथा मैकक्वीनस बस्टर्ड पश्चिमी भारत में सर्दियों का मेहमान है, परन्तु घास के मैदानों के बदलते स्वरुप के कारण यह सभी संकटग्रस्त है। वहीँ इनके आवास को बंजर भूमि समझ कर उनके संरक्षण के लिए राष्ट्रिय स्तर पर कोई ठोस कदम नहीं उठाये जा रहे है। राजस्थान इनमें से तीन बस्टर्ड प्रजातियों के लिए महत्वपूर्ण स्थान है

आज भी मुझे अगस्त 2006 का वह दिन याद है, जब एक उत्सुक पक्षी विशेषज्ञ मेरे दफ्तर में पहुंचा और बड़े ही उत्साह से उसने मुझे प्रतापगढ़ से 15 किलोमीटर दूर एक छोटे से गाँव करियाबाद में “खड़मोर” (लेसर फ्लोरिकन) के आगमन की खबर दी। प्रतापगढ़, राजस्थान के दक्षिणी भाग में स्थित एक छोटा शहर और जिला मुख्यालय है। भूगर्भिक रूप से यह मालवा पठार का हिस्सा है और इसके अवनत परिदृश्य के कारण काफी दर्शनीय है। क्योंकि मैं उस क्षेत्र में प्रभागीय वन अधिकारी के रूप में नियुक्त हुआ था, इसलिए मुझे विशेष रूप से बरसात के दौरान करियाबाद और रत्नीखेरी क्षेत्रों में लेसर फ्लोरिकन के देखे जाने के बारे में बताया जाता था।

मानसून की शुरुआत के बाद से ही, मैं इस खबर का बेसब्री से इंतजार कर रहा था और तुरंत मैं इस रहस्य्मयी बस्टर्ड को देखने के लिए करियाबाद इलाके की सैर के लिए रवाना हो गया। मैं बड़ी ही उत्सुकता से हरे-भरे घास के मैदान की आशा कर रहा था, जो मेरे किताबी ज्ञान के कारण एक सैद्धांतिक फ्लोरिकन निवास स्थान के रूप में मेरी कल्पना में था; इसके बजाय मुझे चरागाह व्फसलों के खेतों के बीच में स्थित घास के मैदानों के खण्डों में प्रवेश कराया गया। बीट ऑफिसर शामू पहले से ही वहां मौजूद था और उसने मुझे बताया कि उसने अभी-अभी फ्लोरिकन की आवाज सुनी थी। हवा में उड़ते हुए पक्षी की आवाज़ को सुनने के लिए हम चुपचाप खड़े हो गए।

बस कुछ ही मिनटों में शामू चिल्लाया, “वहाँ से आ रहा है।” मुझे तब एहसास हुआ कि यह वही आवाज़ थी जिसे मैंने पहले गलती से एक मेंढक की आवाज समझा था और यह पहली बारी थी जब मैंने लेसर फ्लोरिकन की आवाज़ सुनी। एक मिनट बाद शामू फिर चिल्लाया, “हुकुम, वो रहा।” मैंने उस तरफ अपनी दृष्टि डाली और पूछा, “कहाँ?” “हुकुम, अभी कूदेगा”, शामू ने आत्मविश्वास से उत्तर दिया। तभी, अचानक, उसने बड़ी-बड़ी घासों से ऊपर उठते हुए अपनी छलांग लगाने की कला का प्रदर्शन किया- ये देख मेरा दिल मानो उत्साह से एक बार धड़कना ही भूल गया हो। मैं एक घंटे के लिए उसके छलांग लगाने के व्यवहार को देखकर रोमांचित हो गया और अपने कैमरे के साथ एक जगह पर बैठ गया। एक उछलते-कूदते फ्लोरिकन को देखना, मेरे जीवन के सबसे मंत्रमुग्ध कर देने वाले क्षणों में से एक था जो की मेरे लिए, जंगल में एक बाघ को देखने से भी ज्यादा सम्मोहक था।

छलांग लगाते लेसर फ्लोरिकन (फोटो: जी.एस. भरद्वाज)

भारतीय उपमहाद्वीप के स्थानिक, लेसर फ्लोरिकन (Sypheotides indica), एक लुप्तप्राय प्रजाति है जो मुख्यरूप से मानसून के मौसम के दौरान उत्तरी-पश्चिमी भारत में देखी जाती है, जहां यह मानसून के दौरान प्रजनन करती है। स्थानीय रूप से “खड़मोर” कहलाये जाने वाला, लेसर फ्लोरिकन या “लीख”, भारतीय उपमहाद्वीप में पाए जाने वाले बस्टर्ड (Family Otididae, Order Gruiformes) की छह प्रजातियों में से एक है। यह सभी बस्टर्ड में सबसे छोटा होता है तथा इसका वज़न मुश्किल से 510 से 740 ग्राम होता है। घास के मैदान इसका प्राथमिक प्रजनन स्थान है जहाँ इसे प्रजनन के समय में पर्याप्त ढकाव उपलब्ध होता है। जार्डन और शंकरन अपने लेख में लिखते है की लेसर फ्लोरिकन प्रजनन काल के दौरान, पूर्वी राजस्थान, गुजरात और पश्चिमी मध्य प्रदेश के उन क्षेत्रों में इकट्ठा होते है जहाँ अच्छी वर्षा होती है। किसी विशेष क्षेत्र में इसका आगमन और प्रजनन सफलता पूरी तरह से बारिश की मात्रा और वितरण पर निर्भर करता है, जो कि इसके पूरे प्रजनन क्षेत्र में अनिश्चित है।

नर लेसर फ्लोरिकन की छलांग, इस बस्टर्ड की विशिष्ट विशेषता है। नरों द्वारा लगाए जाने वाली छलांग उनके प्रजनन काल के आगमन का संकेत देती है। नर एक चयनित स्थान पर खड़े होकर, चारों ओर देखता है और 1.5 से 2 मीटर की ऊंचाई तक कूदता है। एक नर लेसर फ्लोरिकन एक दिन में कम से कम 600 बार तक छलांग लगा सकता है। नरों द्वारा यह प्रदर्शन अन्य नरों को उसके क्षेत्र में घुसने से रोकने तथा संभोग के लिए मादाओं को बुलाने में मदद करता है। कूदते समय, यह एक मेंढक जैसी क्रॉकिंग कॉल भी करता है, जो 300 से 500 मीटर की दूरी सुनाई देती है और हवा का एक झोंका इस ध्वनि को एक किलोमीटर से भी अधिक दुरी तक लेजा सकता है।

मैंने इस लुप्तप्राय प्रजाति पर नज़र रखने के लिए हर मानसून में करियाबाद के घास के मैदानों और प्रतापगढ़ के हर अन्य क्षेत्रों की अपनी यात्रा जारी रखी। परन्तु हर गुजरते साल के साथ ये घास के मैदान फसल के खेतों के दबाव से सिकुड़ रहे थे, जिसके कारण फ्लोरिकन की उपस्थिति व् उनका दिखना कम हो रहा था। एक ही स्थान पर आबादी की घटती प्रवृत्ति ने मुझे पश्चिमी भारत में इसकी संपूर्ण वितरण रेंज में एक सर्वेक्षण करने के लिए मजबूर किया, जिसके परिणाम स्वरूप 2010 से 2012 तक अगस्त और सितंबर के महीनों में कुल तीन क्षेत्र सर्वेक्षण कि ये गए। वर्तमान में, पक्षियों और वन्यजीव प्रेमियों के लिए बहुत कम ऐसी जगहे है जहाँ मानसून के दौरान इस पक्षी को देखा जा सकता है, हालांकि कभी-कभी कई अन्य क्षेत्रों से भी फ्लोरिकन के देखे जाने की रिपोर्टें मिलती हैं।

किसी समय पर पूरे देश में वितरित होने वाला लेसर फ्लोरिकन, आज केवल कुछ ही क्षेत्रों जैसे राजस्थान के सोनखलिया, शाहपुरा, करियाबाद; पूर्वी मध्य प्रदेश में सैलाना, सरदारपुरा अभ्यारण्य और पेटलाबाद ग्रासलैंड; रामपुरिया ग्रासलैंड, वेलावदार राष्ट्रिय उद्यान, कच्छ के छोटा रण और गुजरात में भुज के नालिया ग्रासलैंड में देखा जाता है। इन घास के मैदानों में सर्वेक्षणों से पश्चिमी भारत में लेसर फ्लोरिकन की उपस्थिति का भी पता चला है। इसके अलावा, महाराष्ट्र के अकोला क्षेत्र से भी फ्लोरिकन की सूचना मिली है।

राजस्थान के अजमेर जिले के नसीराबाद शहर के पास स्थित सोनखलिया क्षेत्र, लेसर फ्लोरिकन की संख्या में वृद्धि और अच्छे से दिखने के कारण, तेजी से पक्षी और वन्यजीव प्रेमियों के लिए एक पसंदीदा स्थान के रूप में उभर रहा है। लगभग 400 वर्गकिमी के क्षेत्र के साथ, सोनखलिया लगभग 300 प्रवासी फ्लोरिकन के लिए एक आकर्षक स्थान बन गया है तथा वर्ष 2014 में, इस क्षेत्र से लगभग 80 नर फ्लोरिकन की उपस्थिति दर्ज की गई थी। इस क्षेत्र में वर्ष प्रतिवर्ष पर्यटकों की संख्या कई गुना बढ़ती जा रही है – 2011 में 20 बर्डर्स से शुरू होकर, यह संख्या 2014 के मानसून के दौरान लगभग 150 बर्डर्स तक बढ़ गई है। कृषि क्षेत्रों से घिरे हुए ये घास के मैदान, दुनिया में लेसर फ्लोरिकन की सबसे बड़ी आबादी का आवास स्थान है। अपने गैर-संरक्षित क्षेत्र की स्थिति के कारण और घना वन क्षेत्र नहीं होने के कारण, इस कूदते –फाँदते सुन्दर पक्षी को देखने के लिए बर्डर्स का मनपसंद गंतव्य हैं। वन विभाग के राजेंद्र सिंह और गोगा कुम्हार इस क्षेत्र के असली नायक हैं जो इस परिवेश में इस पक्षी की निगरानी और सुरक्षा का कार्य कर रहे हैं।

घास के मैदानों में लेसर फ्लोरिकन (फोटो: जी.एस. भरद्वाज)

हालांकि प्रतापगढ़ का करियाबाद-बोरी इलाका भी स्थानीय रूप से लेसर फ्लोरिकन के दर्शन के लिए जाना जाता था, परन्तु घास के मैदानों के कृषि क्षेत्रों में तेजी से रूपांतरण के परिणाम स्वरूप यह पक्षी स्थानीय रूप से विलुप्त हो गया है। मालवा क्षेत्र के सैलाना, सरदारपुरा, पेटलाबाद और पमपुरिया घास के मैदानों से अभी भी फ्लोरिकन की उपस्थिति की खबरें आती रहती हैं। पिछले कुछ वर्षों में तेजी से भूमि रूपांतरण और बदलते कृषि स्वरुप के बाद, नालिया घास के मैदानों में फ्लोरिकन के दिखने में अचानक से कमी आई है। हालांकि वेलावादर में फ्लोरिकन की आबादी ध्यान देने योग्य है क्योंकि कम से कम 100 फ्लोरिकन की आबादी का समर्थन करने वाला यह लेसर फ्लोरिकन के लिए एकमात्र शेष प्राकृतिक परिवेश है।

पश्चिमी भारत, दो अन्य बस्टर्ड, ग्रेट इंडियन बस्टर्ड (GIB) और मैकक्वीनस बस्टर्ड के लिए भी जाना जाता है। स्थानीय रूप से गोडावन, जिसे ग्रेट इंडियन बस्टर्ड कहा जाता है, राजस्थान का राज्य पक्षी भी है। लगभग 50-150 पक्षियों की विश्वव्यापी घटती आबादी के कारण, यह गंभीर रूप से संकटग्रस्त पक्षी है जो थार, नालिया (गुजरात) और नानज (महाराष्ट्र) के घास के मैदान में जीवित रहने के लिए संघर्ष कर रहा है। आज थार मरुस्थल के कुछ छोटे-छोटे भाग गोडावन का एक मात्र निवास स्थान हैं जो वर्तमान में इसकी सबसे बड़ी प्रजनन आबादी का समर्थन करता हैं। इसके वितरण रेंज में तेजी से गिरावट ने दुनिया भर में वन्यजीव विशेषज्ञों, प्रबंधकों, पक्षी विज्ञानियों और पक्षी प्रेमियों को चिंतित कर दिया है, हालांकि स्वस्थानी संरक्षण रणनीतियों (in-situ conservation strategies) को विभिन्न राज्यों ने अपनाया और संरक्षण वादियों की याचनाओं द्वारा कुछ घास के मैदानों को 1980 के दशक की शुरुआत में संरक्षित क्षेत्र नेटवर्क में भी शामिल किया गया।

दुर्भाग्य से, ये सभी उपाय गोडावण की आनुवंशिक रूप से वर्धनक्षम (Viable) और जनसांख्यिकी (Demography) रूप से स्थिर आबादी को बनाए रखने में विफल हे। अब बची हुई यह छोटी सी आबादी भी आनुवांशिक, पर्यावरणीय और जनसांख्यिकीय कारकों के कारण विलुप्त होने की कगार पर है। शिकार, घास के मैदानों का रूपांतरण, प्रजनन । जैसलमेर से लगभग 55 किमी दूर, डेजर्ट नेशनल पार्क इस खूबसूरत पक्षी के लिए एक प्राकृतिक आवास है जहाँ सुदाश्री व् सम  क्षेत्र में इसको देखा जा सकता है, इसके आलावा यह कभी-कभी राष्ट्रीय उद्यान के बाहर सल्खान और रामदेवरा के पास भी देखा जा सकता है।

एक शीतकालीन प्रवासी; मैकक्वीनस बस्टर्ड, गोडावण के निवास स्थान में पाया जाता है। यह एक सुंदर और बहुत ही शर्मीला पक्षी है इसीलिए इस पक्षी को देखने के लिए धैर्य और तेज दृष्टि की आवश्यकता होती है। अभी भी पाकिस्तान सहित कई देशों में इस का शिकार किया जाता है, यह व्यापक रूप से कई लोगों द्वारा गेम बर्ड के रूप में शिकार किया जाता था, विशेषरूप से अरब के शेखों ने, इसका 1970 के दशक के अंत तक जैसलमेर में लगातार शिकार किया।

शीतकालीन प्रवासी मैकक्वीनस बस्टर्ड (फोटो: जी.एस. भरद्वाज)

इन तीन बस्टर्ड्स के अलावा एक और बस्टर्ड, बंगाल फ्लोरिकन है जो ज्यादातर शुष्क और अर्ध-घास के मैदानों में रहते हैं तथा भारत के तराई क्षेत्रों में पाए जाते है। उत्तर प्रदेश में लग्गा-बग्गा घास के मैदान पीलीभीत और दुधवा टाइगर रिजर्व, असम में मानस टाइगर रिजर्व और काजीरंगा घास के मैदान, इस पक्षी के आवास स्थान हैं। लेसर फ्लोरिकन की तरह, यह भी अपने शानदार प्रदर्शन के लिए जाना जाता है। परन्तु इसमें एक अंतर है, जहाँ लेसर फ्लोरिकन लंबवत छलांग लगता है वहीँ बंगाल फ्लोरिकन संभोग प्रदर्शन में 3-4 मीटर ऊंची उड़ान भरता है फिर थोड़ा नीचे होते हुए दुबारा ऊपर उठता है। निचे उतरते समय इसकी गर्दन पेट के पास तक घूमी रहती है। इसकी यह उड़ान चिक-चिक-चिक की कॉल और पंखों की तेज आवाज के साथ होती है।

विश्व में बस्टर्ड की कुल 24 प्रजातियां है, तथा जिनमे से तीन प्रजातियां मुख्यरूप से भारतीय ग्रासलैंड में पायी जाती हैं – ग्रेट इंडियन बस्टर्ड, लेसर फ्लोरिकन और बंगाल फ्लोरिकन। 30 से अधिक देशों में पाए जाने वाला “मैकक्वीनस बस्टर्ड”, सर्दियों के दौरान पश्चिमी भारत में आते है। भारत से इन बस्टर्ड का गायब होना दुनिया के नक्शे से इनके विलुप्त होने का संकेत देगा। ग्रासलैंड प्रजातियों के रूप में, बस्टर्ड्स की उपस्थिति घास के मैदानों के संतुलित पारिस्थितिक तंत्र का संकेत देती है, जो दुर्भाग्य से, अक्सर नज़र अंदाज किये जाते है और यहां तक इनकों एक बंजर भूमि भी माना जाता है। इसके विपरीत, ये घास के मैदान न केवल कुछ वन्यजीव प्रजातियों के लिए घर हैं, बल्कि वे स्थानीय समुदायों की अर्थव्यवस्था में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। क्योंकि यह ग्रासलैंड्स पशुधन की चराई के लिए चारा उपलब्ध करवाते हैं। विश्व की कुल पशुधन आबादी का लगभग 15-20 प्रतिशत भाग भारत में रहता है और कोई भी घास के मैदानों पर इनकी निर्भरता का अंदाजा लगा सकता है।

वैज्ञानिक तरीकों से ग्रासलैंड प्रबंधन की कमी, निवास स्थान के लगातार घटने, घास के मैदानों पर वृक्षारोपण गतिविधियाँ, बदलते लैंडयुस पैटर्न, कीटनाशक, आवारा कुत्ते- बिल्लियों द्वारा घोंसलों का नष्ट करना, आक्रामक वनस्पतिक प्रजातियाँ, अंधाधुंध विकास गतिविधियाँ, वन्यजीव संरक्षित क्षेत्र में अपर्याप्त कवरेज और लोगो में ज्ञान की कमी, लेसर फ्लोरिकन जैसी प्रजातियों के लिए बड़े खतरे हैं। संभावित घास के मैदानों में चराई और आक्रामक वनस्पतिक प्रजातियों से निपटने के अलावा, बस्टर्ड्स के प्रजनन स्थानों को कुत्तों, बिल्लियों और कौवे जैसे अन्य शिकारियों से बचाने की सख्त जरूरत है। इसके अलावा, बस्टर्ड प्रजातियों पर शोध और निगरानी के साथ-साथ सार्वजनिक जागरूकता और संवेदीकरण जैसे कार्यक्रम भी शुरू किये जाने चाहिए।

वर्तमान में, ग्रासलैंड प्रबंधन की एक राष्ट्रीय नीति की तत्काल आवश्यकता है जो कि ग्रासलैंड पारिस्थितिकी तंत्र द्वारा प्रदान की गई पारिस्थितिक सेवाओं की सराहना करे। मौजूदा संरक्षित क्षेत्र नेटवर्क में और अधिक बस्टर्ड निवास स्थानों को शामिल करना और स्थानीय समुदायों को इसकी निगरानी व् संरक्षण  कार्यों में साथी बनाना इसके संरक्षण में एक बड़ी सफलता हो सकती है। बस्टर्ड को बचाने के लिए किए गए हर प्रयास से हमारे ग्रासलैंड और उससे जुड़े कई अन्य जींवों को बचाया जा सकता है, क्योंकि यदि बाघ वन पारिस्थितिकी तंत्र की नब्ज है, तो बस्टर्ड घास के मैदान के पारिस्थितिकी तंत्र की नब्ज है।

(मूल अंग्रेजी आलेख का हिंदी अनुवाद मीनू धाकड़ द्वारा)