भारत में मूलरूप से तीन स्थानिक (Endemic) बस्टर्ड प्रजातियां; गोडावण, खड़मोर और बंगाल फ्लोरिकन, पायी जाती हैं तथा मैकक्वीनस बस्टर्ड पश्चिमी भारत में सर्दियों का मेहमान है, परन्तु घास के मैदानों के बदलते स्वरुप के कारण यह सभी संकटग्रस्त है। वहीँ इनके आवास को बंजर भूमि समझ कर उनके संरक्षण के लिए राष्ट्रिय स्तर पर कोई ठोस कदम नहीं उठाये जा रहे है। राजस्थान इनमें से तीन बस्टर्ड प्रजातियों के लिए महत्वपूर्ण स्थान है

आज भी मुझे अगस्त 2006 का वह दिन याद है, जब एक उत्सुक पक्षी विशेषज्ञ मेरे दफ्तर में पहुंचा और बड़े ही उत्साह से उसने मुझे प्रतापगढ़ से 15 किलोमीटर दूर एक छोटे से गाँव करियाबाद में “खड़मोर” (लेसर फ्लोरिकन) के आगमन की खबर दी। प्रतापगढ़, राजस्थान के दक्षिणी भाग में स्थित एक छोटा शहर और जिला मुख्यालय है। भूगर्भिक रूप से यह मालवा पठार का हिस्सा है और इसके अवनत परिदृश्य के कारण काफी दर्शनीय है। क्योंकि मैं उस क्षेत्र में प्रभागीय वन अधिकारी के रूप में नियुक्त हुआ था, इसलिए मुझे विशेष रूप से बरसात के दौरान करियाबाद और रत्नीखेरी क्षेत्रों में लेसर फ्लोरिकन के देखे जाने के बारे में बताया जाता था।

मानसून की शुरुआत के बाद से ही, मैं इस खबर का बेसब्री से इंतजार कर रहा था और तुरंत मैं इस रहस्य्मयी बस्टर्ड को देखने के लिए करियाबाद इलाके की सैर के लिए रवाना हो गया। मैं बड़ी ही उत्सुकता से हरे-भरे घास के मैदान की आशा कर रहा था, जो मेरे किताबी ज्ञान के कारण एक सैद्धांतिक फ्लोरिकन निवास स्थान के रूप में मेरी कल्पना में था; इसके बजाय मुझे चरागाह व्फसलों के खेतों के बीच में स्थित घास के मैदानों के खण्डों में प्रवेश कराया गया। बीट ऑफिसर शामू पहले से ही वहां मौजूद था और उसने मुझे बताया कि उसने अभी-अभी फ्लोरिकन की आवाज सुनी थी। हवा में उड़ते हुए पक्षी की आवाज़ को सुनने के लिए हम चुपचाप खड़े हो गए।

बस कुछ ही मिनटों में शामू चिल्लाया, “वहाँ से आ रहा है।” मुझे तब एहसास हुआ कि यह वही आवाज़ थी जिसे मैंने पहले गलती से एक मेंढक की आवाज समझा था और यह पहली बारी थी जब मैंने लेसर फ्लोरिकन की आवाज़ सुनी। एक मिनट बाद शामू फिर चिल्लाया, “हुकुम, वो रहा।” मैंने उस तरफ अपनी दृष्टि डाली और पूछा, “कहाँ?” “हुकुम, अभी कूदेगा”, शामू ने आत्मविश्वास से उत्तर दिया। तभी, अचानक, उसने बड़ी-बड़ी घासों से ऊपर उठते हुए अपनी छलांग लगाने की कला का प्रदर्शन किया- ये देख मेरा दिल मानो उत्साह से एक बार धड़कना ही भूल गया हो। मैं एक घंटे के लिए उसके छलांग लगाने के व्यवहार को देखकर रोमांचित हो गया और अपने कैमरे के साथ एक जगह पर बैठ गया। एक उछलते-कूदते फ्लोरिकन को देखना, मेरे जीवन के सबसे मंत्रमुग्ध कर देने वाले क्षणों में से एक था जो की मेरे लिए, जंगल में एक बाघ को देखने से भी ज्यादा सम्मोहक था।

छलांग लगाते लेसर फ्लोरिकन (फोटो: जी.एस. भरद्वाज)

भारतीय उपमहाद्वीप के स्थानिक, लेसर फ्लोरिकन (Sypheotides indica), एक लुप्तप्राय प्रजाति है जो मुख्यरूप से मानसून के मौसम के दौरान उत्तरी-पश्चिमी भारत में देखी जाती है, जहां यह मानसून के दौरान प्रजनन करती है। स्थानीय रूप से “खड़मोर” कहलाये जाने वाला, लेसर फ्लोरिकन या “लीख”, भारतीय उपमहाद्वीप में पाए जाने वाले बस्टर्ड (Family Otididae, Order Gruiformes) की छह प्रजातियों में से एक है। यह सभी बस्टर्ड में सबसे छोटा होता है तथा इसका वज़न मुश्किल से 510 से 740 ग्राम होता है। घास के मैदान इसका प्राथमिक प्रजनन स्थान है जहाँ इसे प्रजनन के समय में पर्याप्त ढकाव उपलब्ध होता है। जार्डन और शंकरन अपने लेख में लिखते है की लेसर फ्लोरिकन प्रजनन काल के दौरान, पूर्वी राजस्थान, गुजरात और पश्चिमी मध्य प्रदेश के उन क्षेत्रों में इकट्ठा होते है जहाँ अच्छी वर्षा होती है। किसी विशेष क्षेत्र में इसका आगमन और प्रजनन सफलता पूरी तरह से बारिश की मात्रा और वितरण पर निर्भर करता है, जो कि इसके पूरे प्रजनन क्षेत्र में अनिश्चित है।

नर लेसर फ्लोरिकन की छलांग, इस बस्टर्ड की विशिष्ट विशेषता है। नरों द्वारा लगाए जाने वाली छलांग उनके प्रजनन काल के आगमन का संकेत देती है। नर एक चयनित स्थान पर खड़े होकर, चारों ओर देखता है और 1.5 से 2 मीटर की ऊंचाई तक कूदता है। एक नर लेसर फ्लोरिकन एक दिन में कम से कम 600 बार तक छलांग लगा सकता है। नरों द्वारा यह प्रदर्शन अन्य नरों को उसके क्षेत्र में घुसने से रोकने तथा संभोग के लिए मादाओं को बुलाने में मदद करता है। कूदते समय, यह एक मेंढक जैसी क्रॉकिंग कॉल भी करता है, जो 300 से 500 मीटर की दूरी सुनाई देती है और हवा का एक झोंका इस ध्वनि को एक किलोमीटर से भी अधिक दुरी तक लेजा सकता है।

मैंने इस लुप्तप्राय प्रजाति पर नज़र रखने के लिए हर मानसून में करियाबाद के घास के मैदानों और प्रतापगढ़ के हर अन्य क्षेत्रों की अपनी यात्रा जारी रखी। परन्तु हर गुजरते साल के साथ ये घास के मैदान फसल के खेतों के दबाव से सिकुड़ रहे थे, जिसके कारण फ्लोरिकन की उपस्थिति व् उनका दिखना कम हो रहा था। एक ही स्थान पर आबादी की घटती प्रवृत्ति ने मुझे पश्चिमी भारत में इसकी संपूर्ण वितरण रेंज में एक सर्वेक्षण करने के लिए मजबूर किया, जिसके परिणाम स्वरूप 2010 से 2012 तक अगस्त और सितंबर के महीनों में कुल तीन क्षेत्र सर्वेक्षण कि ये गए। वर्तमान में, पक्षियों और वन्यजीव प्रेमियों के लिए बहुत कम ऐसी जगहे है जहाँ मानसून के दौरान इस पक्षी को देखा जा सकता है, हालांकि कभी-कभी कई अन्य क्षेत्रों से भी फ्लोरिकन के देखे जाने की रिपोर्टें मिलती हैं।

किसी समय पर पूरे देश में वितरित होने वाला लेसर फ्लोरिकन, आज केवल कुछ ही क्षेत्रों जैसे राजस्थान के सोनखलिया, शाहपुरा, करियाबाद; पूर्वी मध्य प्रदेश में सैलाना, सरदारपुरा अभ्यारण्य और पेटलाबाद ग्रासलैंड; रामपुरिया ग्रासलैंड, वेलावदार राष्ट्रिय उद्यान, कच्छ के छोटा रण और गुजरात में भुज के नालिया ग्रासलैंड में देखा जाता है। इन घास के मैदानों में सर्वेक्षणों से पश्चिमी भारत में लेसर फ्लोरिकन की उपस्थिति का भी पता चला है। इसके अलावा, महाराष्ट्र के अकोला क्षेत्र से भी फ्लोरिकन की सूचना मिली है।

राजस्थान के अजमेर जिले के नसीराबाद शहर के पास स्थित सोनखलिया क्षेत्र, लेसर फ्लोरिकन की संख्या में वृद्धि और अच्छे से दिखने के कारण, तेजी से पक्षी और वन्यजीव प्रेमियों के लिए एक पसंदीदा स्थान के रूप में उभर रहा है। लगभग 400 वर्गकिमी के क्षेत्र के साथ, सोनखलिया लगभग 300 प्रवासी फ्लोरिकन के लिए एक आकर्षक स्थान बन गया है तथा वर्ष 2014 में, इस क्षेत्र से लगभग 80 नर फ्लोरिकन की उपस्थिति दर्ज की गई थी। इस क्षेत्र में वर्ष प्रतिवर्ष पर्यटकों की संख्या कई गुना बढ़ती जा रही है – 2011 में 20 बर्डर्स से शुरू होकर, यह संख्या 2014 के मानसून के दौरान लगभग 150 बर्डर्स तक बढ़ गई है। कृषि क्षेत्रों से घिरे हुए ये घास के मैदान, दुनिया में लेसर फ्लोरिकन की सबसे बड़ी आबादी का आवास स्थान है। अपने गैर-संरक्षित क्षेत्र की स्थिति के कारण और घना वन क्षेत्र नहीं होने के कारण, इस कूदते –फाँदते सुन्दर पक्षी को देखने के लिए बर्डर्स का मनपसंद गंतव्य हैं। वन विभाग के राजेंद्र सिंह और गोगा कुम्हार इस क्षेत्र के असली नायक हैं जो इस परिवेश में इस पक्षी की निगरानी और सुरक्षा का कार्य कर रहे हैं।

घास के मैदानों में लेसर फ्लोरिकन (फोटो: जी.एस. भरद्वाज)

हालांकि प्रतापगढ़ का करियाबाद-बोरी इलाका भी स्थानीय रूप से लेसर फ्लोरिकन के दर्शन के लिए जाना जाता था, परन्तु घास के मैदानों के कृषि क्षेत्रों में तेजी से रूपांतरण के परिणाम स्वरूप यह पक्षी स्थानीय रूप से विलुप्त हो गया है। मालवा क्षेत्र के सैलाना, सरदारपुरा, पेटलाबाद और पमपुरिया घास के मैदानों से अभी भी फ्लोरिकन की उपस्थिति की खबरें आती रहती हैं। पिछले कुछ वर्षों में तेजी से भूमि रूपांतरण और बदलते कृषि स्वरुप के बाद, नालिया घास के मैदानों में फ्लोरिकन के दिखने में अचानक से कमी आई है। हालांकि वेलावादर में फ्लोरिकन की आबादी ध्यान देने योग्य है क्योंकि कम से कम 100 फ्लोरिकन की आबादी का समर्थन करने वाला यह लेसर फ्लोरिकन के लिए एकमात्र शेष प्राकृतिक परिवेश है।

पश्चिमी भारत, दो अन्य बस्टर्ड, ग्रेट इंडियन बस्टर्ड (GIB) और मैकक्वीनस बस्टर्ड के लिए भी जाना जाता है। स्थानीय रूप से गोडावन, जिसे ग्रेट इंडियन बस्टर्ड कहा जाता है, राजस्थान का राज्य पक्षी भी है। लगभग 50-150 पक्षियों की विश्वव्यापी घटती आबादी के कारण, यह गंभीर रूप से संकटग्रस्त पक्षी है जो थार, नालिया (गुजरात) और नानज (महाराष्ट्र) के घास के मैदान में जीवित रहने के लिए संघर्ष कर रहा है। आज थार मरुस्थल के कुछ छोटे-छोटे भाग गोडावन का एक मात्र निवास स्थान हैं जो वर्तमान में इसकी सबसे बड़ी प्रजनन आबादी का समर्थन करता हैं। इसके वितरण रेंज में तेजी से गिरावट ने दुनिया भर में वन्यजीव विशेषज्ञों, प्रबंधकों, पक्षी विज्ञानियों और पक्षी प्रेमियों को चिंतित कर दिया है, हालांकि स्वस्थानी संरक्षण रणनीतियों (in-situ conservation strategies) को विभिन्न राज्यों ने अपनाया और संरक्षण वादियों की याचनाओं द्वारा कुछ घास के मैदानों को 1980 के दशक की शुरुआत में संरक्षित क्षेत्र नेटवर्क में भी शामिल किया गया।

दुर्भाग्य से, ये सभी उपाय गोडावण की आनुवंशिक रूप से वर्धनक्षम (Viable) और जनसांख्यिकी (Demography) रूप से स्थिर आबादी को बनाए रखने में विफल हे। अब बची हुई यह छोटी सी आबादी भी आनुवांशिक, पर्यावरणीय और जनसांख्यिकीय कारकों के कारण विलुप्त होने की कगार पर है। शिकार, घास के मैदानों का रूपांतरण, प्रजनन । जैसलमेर से लगभग 55 किमी दूर, डेजर्ट नेशनल पार्क इस खूबसूरत पक्षी के लिए एक प्राकृतिक आवास है जहाँ सुदाश्री व् सम  क्षेत्र में इसको देखा जा सकता है, इसके आलावा यह कभी-कभी राष्ट्रीय उद्यान के बाहर सल्खान और रामदेवरा के पास भी देखा जा सकता है।

एक शीतकालीन प्रवासी; मैकक्वीनस बस्टर्ड, गोडावण के निवास स्थान में पाया जाता है। यह एक सुंदर और बहुत ही शर्मीला पक्षी है इसीलिए इस पक्षी को देखने के लिए धैर्य और तेज दृष्टि की आवश्यकता होती है। अभी भी पाकिस्तान सहित कई देशों में इस का शिकार किया जाता है, यह व्यापक रूप से कई लोगों द्वारा गेम बर्ड के रूप में शिकार किया जाता था, विशेषरूप से अरब के शेखों ने, इसका 1970 के दशक के अंत तक जैसलमेर में लगातार शिकार किया।

शीतकालीन प्रवासी मैकक्वीनस बस्टर्ड (फोटो: जी.एस. भरद्वाज)

इन तीन बस्टर्ड्स के अलावा एक और बस्टर्ड, बंगाल फ्लोरिकन है जो ज्यादातर शुष्क और अर्ध-घास के मैदानों में रहते हैं तथा भारत के तराई क्षेत्रों में पाए जाते है। उत्तर प्रदेश में लग्गा-बग्गा घास के मैदान पीलीभीत और दुधवा टाइगर रिजर्व, असम में मानस टाइगर रिजर्व और काजीरंगा घास के मैदान, इस पक्षी के आवास स्थान हैं। लेसर फ्लोरिकन की तरह, यह भी अपने शानदार प्रदर्शन के लिए जाना जाता है। परन्तु इसमें एक अंतर है, जहाँ लेसर फ्लोरिकन लंबवत छलांग लगता है वहीँ बंगाल फ्लोरिकन संभोग प्रदर्शन में 3-4 मीटर ऊंची उड़ान भरता है फिर थोड़ा नीचे होते हुए दुबारा ऊपर उठता है। निचे उतरते समय इसकी गर्दन पेट के पास तक घूमी रहती है। इसकी यह उड़ान चिक-चिक-चिक की कॉल और पंखों की तेज आवाज के साथ होती है।

विश्व में बस्टर्ड की कुल 24 प्रजातियां है, तथा जिनमे से तीन प्रजातियां मुख्यरूप से भारतीय ग्रासलैंड में पायी जाती हैं – ग्रेट इंडियन बस्टर्ड, लेसर फ्लोरिकन और बंगाल फ्लोरिकन। 30 से अधिक देशों में पाए जाने वाला “मैकक्वीनस बस्टर्ड”, सर्दियों के दौरान पश्चिमी भारत में आते है। भारत से इन बस्टर्ड का गायब होना दुनिया के नक्शे से इनके विलुप्त होने का संकेत देगा। ग्रासलैंड प्रजातियों के रूप में, बस्टर्ड्स की उपस्थिति घास के मैदानों के संतुलित पारिस्थितिक तंत्र का संकेत देती है, जो दुर्भाग्य से, अक्सर नज़र अंदाज किये जाते है और यहां तक इनकों एक बंजर भूमि भी माना जाता है। इसके विपरीत, ये घास के मैदान न केवल कुछ वन्यजीव प्रजातियों के लिए घर हैं, बल्कि वे स्थानीय समुदायों की अर्थव्यवस्था में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। क्योंकि यह ग्रासलैंड्स पशुधन की चराई के लिए चारा उपलब्ध करवाते हैं। विश्व की कुल पशुधन आबादी का लगभग 15-20 प्रतिशत भाग भारत में रहता है और कोई भी घास के मैदानों पर इनकी निर्भरता का अंदाजा लगा सकता है।

वैज्ञानिक तरीकों से ग्रासलैंड प्रबंधन की कमी, निवास स्थान के लगातार घटने, घास के मैदानों पर वृक्षारोपण गतिविधियाँ, बदलते लैंडयुस पैटर्न, कीटनाशक, आवारा कुत्ते- बिल्लियों द्वारा घोंसलों का नष्ट करना, आक्रामक वनस्पतिक प्रजातियाँ, अंधाधुंध विकास गतिविधियाँ, वन्यजीव संरक्षित क्षेत्र में अपर्याप्त कवरेज और लोगो में ज्ञान की कमी, लेसर फ्लोरिकन जैसी प्रजातियों के लिए बड़े खतरे हैं। संभावित घास के मैदानों में चराई और आक्रामक वनस्पतिक प्रजातियों से निपटने के अलावा, बस्टर्ड्स के प्रजनन स्थानों को कुत्तों, बिल्लियों और कौवे जैसे अन्य शिकारियों से बचाने की सख्त जरूरत है। इसके अलावा, बस्टर्ड प्रजातियों पर शोध और निगरानी के साथ-साथ सार्वजनिक जागरूकता और संवेदीकरण जैसे कार्यक्रम भी शुरू किये जाने चाहिए।

वर्तमान में, ग्रासलैंड प्रबंधन की एक राष्ट्रीय नीति की तत्काल आवश्यकता है जो कि ग्रासलैंड पारिस्थितिकी तंत्र द्वारा प्रदान की गई पारिस्थितिक सेवाओं की सराहना करे। मौजूदा संरक्षित क्षेत्र नेटवर्क में और अधिक बस्टर्ड निवास स्थानों को शामिल करना और स्थानीय समुदायों को इसकी निगरानी व् संरक्षण  कार्यों में साथी बनाना इसके संरक्षण में एक बड़ी सफलता हो सकती है। बस्टर्ड को बचाने के लिए किए गए हर प्रयास से हमारे ग्रासलैंड और उससे जुड़े कई अन्य जींवों को बचाया जा सकता है, क्योंकि यदि बाघ वन पारिस्थितिकी तंत्र की नब्ज है, तो बस्टर्ड घास के मैदान के पारिस्थितिकी तंत्र की नब्ज है।

(मूल अंग्रेजी आलेख का हिंदी अनुवाद मीनू धाकड़ द्वारा)

Dr. Gobind Sagar Bhardwaj, IFS is APCCF and Nodal officer (FCA) in Rajasthan. He has done his doctorate on birds of Sitamata WLS. He served in the different ecosystems of the state like Desert, tiger reserves like Ranthambhore and Sariska, and protected areas of south Rajasthan and as a professor in WII India. He is also a commission member of the IUCN SSC Bustard Specialist Group.