राजस्थान में ऊँटो की नस्ल में विविधता एवं उनकी संख्या

राजस्थान में ऊँटो की नस्ल में विविधता एवं उनकी संख्या

राजस्थान में ऊँटो की नस्ल में विविधता एवं उनकी संख्या

सन 1900 में, तंदुरुस्त ऊंटों पर बैठ के बीकानेर राज्य की एक सैन्य टुकड़ी, ब्रिटिश सेना की और से चीन में एक युद्ध में भाग लेने गयी थी। उनका सामना, वहां के उन लोगों से हुआ जो मार्शल आर्ट में निपुण थे। ब्रिटिश सरकार ने इन मार्शल योद्धाओं को बॉक्सर रिबेलियन का नाम दिया था। यह बड़ा विचित्र युद्ध हुआ होगा, जब एक ऊँट सवार टुकड़ी कुंग फु योद्धाओं का सामना कर रही थी। यह मार्शल लोग एक ऊँचा उछाल मार कर घुड़सवार को नीचे गिरा लेते थे, परन्तु जब उनके सामने ऊँचे ऊँट पर बैठा सवार आया तो वह हतप्रभ थे, की इनसे कैसे लड़े। इस युद्ध में विख्यात बीकानेर महाराज श्री गंगा सिंह जी ने स्वयं भाग लिया था। बीकानेर के ऊंटों को विश्व भर में युद्ध के लिए अत्यंत उपयोगी माना जाता है।

गंगा रिसाला का एक गर्वीला जवान (1908 Watercolour by Major Alfred Crowdy Lovett. National Army Museum, UK)

राजस्थान में मिलने वाली ऊंटों की अलग अलग नस्ल, उनके उपयोग के अनुसार विकशित की गयी होगी।

1. बीकानेरी : – यह बीकानेर , गंगानगर ,हनुमानगढ़ एवं चुरू में पाया जाता है |

2. जोधपुरी :- यह मुख्यत जोधपुर और नागपुर जिले में पाया जाता है |

3. नाचना :- यह   तेज दौड़ने वाली नस्ल है, मूल रूप से यह जैसलमेर के नाचना गाँव में पाया जाता है |

4. जैसलमेरी :-यह  नस्ल जैसलमेर, बाड़मेर, जोधपुर में पाई जाती है |

5. कच्छी :- यह  नस्ल  मुख्यरूप से बाड़मेर और जलोर में पाई जाती है |

6. जालोरी :- यह  नस्ल मुख्यरूप से जालोर और सिरोही में पाई जाती है |

7. मेवाड़ी :- इस नस्ल का बड़े पैमाने पर भार ढोने के लिए उपयोग किया जाता है | यह नस्ल मुख्यत उदयपुर , चित्तोरगढ़ , प्रतापगढ़ और अजमेर में पाई जाती है |

8. गोमत :- ऊँट की यह नस्ल अधिक दुरी के मालवाहन के लिए प्रसिद्ध है और यह तेज़ धावक भी है। नस्ल मुख्य रूप से जोधपुर और नागौर में पाई जाती है |

9. गुढ़ा :- यह नागौर और चुरू में पाया जाता है |

10.खेरुपल :- यह बीकानेर और चुरू में पाया जाता है |

11. अल्वारी :- यह नस्ल मुख्य रूप से पूर्वी राजस्थान में पाई जाती है |

भारत में आज इस प्राणी की संख्या में अत्यंत गिरावट आयी है जहाँ वर्ष 2012 में इनकी संख्या 4 लाख थी वहीं वर्ष 2019 में 2.5 लाख रह गयी है। राजस्थान में पिछले कुछ वर्षो में ऊंटों की संख्या में भरी गिरावट देखी गयी है। भारत की 80% से अधिक ऊंटों की संख्या राजस्थान में मिलती है एवं वर्ष 2012 में जहाँ 3.26 लाख थी वहीँ सन 2019 में यह घट कर 2.13 लाख रह गयी जो 35% गिरावट के रूप में दर्ज हुई। ऊँटो की सर्वाधिक संख्या राजस्थान में वर्ष 1983 में दर्ज की गयी थी जब यह

इस गिरावट का मूल कारण जहाँ यातायात एवं मालवाहक संसाधनों के विस्तार को माना गया वहीँ राज्य में लाये गए ”The Rajasthan Camel (Prohibition of Slaughter and Regulation of Temporary Migration or Export) Act, 2015 ” के द्वारा इसके व्यापार की स्वतंत्रता पर लगे नियंत्रण को भी इसका कारण माना गया है।

राजस्थान के गौरव शाली इतिहास, रंगबिरंगी संस्कृति, आर्थिक विकाश के आधार रहे इस प्राणी को शायद हम पूर्ववर्ती स्वरुप में नहीं देख पाएंगे, परन्तु आज भी इनसे जुड़े लोग ऊँटो के लिए वही समर्पण भाव से कार्य कर रहे है, उन सभी को हम सबल देंगे इसी आशा के साथ।

 

 

गिद्धों का नया सुरक्षित आश्रय स्थल : ठेकरा गौशाला, करौली

गिद्धों का नया सुरक्षित आश्रय स्थल : ठेकरा गौशाला, करौली

प्राचीन काल से गाय का हिन्दू संस्कृति में अपना एक विशेष स्थान है परन्तु आज के समय इनकी बात करना आधुनिकता के खिलाफ और प्राचीन मानसिकता का द्योतकमान लिया जाता है। यदि आप पारिस्थितिक तंत्र की हलकी सी भी समझ रखते है तो ठेकरा गौशाला धाम नामक करौली की यह गौशाला आपके लिए एक नए विचार का संचार करेगी। मैंने पाया की किस तरह एक खनन से बर्बाद भू क्षेत्र जिसमें बिना वृक्षारोपण के और अतिरिक्त प्रयासों के किस प्रकार उसे पुनर्स्थापित किया जा सका है।

१ गिद्ध के साथ पूरे दिन चलने वाला सियार के साथ संघर्ष इस स्थान को विशेष बनाते हैं।

यह प्राचीन गौशाला का चरागाह क्षेत्र जो 1790 बीघा का है, एक ज़माने में अतिक्रमण से घटता गया एवं अवैध खनन से बर्बाद पारिस्थितिक तंत्र उजड़े बयार के सामान था।  गौशाला के नाम पर अव्यवस्था का आलम था। खैर समय पलटा और एक सज्जन श्री मुन्ना सिंह ने इसमें अनेक समाज के लोगों की मदद से अतिक्रमण हटाया  और खनन पर रोक लगायी।  गौशाला में २००० गायों को शरण दी गयी एवं इन्ही सज्जन के अथक प्रयासों से पर्याप्त चारे पानी की समुचित व्यवस्था  की गयी। जिस प्रकार केंचुए द्वारा खाद बनाकर इकोसिस्टम को पोषित किया जाता है लगभग उसी प्रकार इस विशाल भू भाग में यह २ हजार गाये रात दिन इस खनन प्रभावित क्षेत्र को पोषक तत्वों से उर्वरक बनाती रही।

२ प्रवासी यूरेशियन ग्रिफ्फॉन आपस में विभिन्न तरह की क्रियाएं करते रहते हैं।

यह क्षेत्र आज एक सुरक्षित इकोसिस्टम बन चुका है। यह क्षेत्र मुझे तब देखने का मौका मिला जब रणथम्भौर से एक नरभक्षी बाघ T104 मानव बस्ती की और निकल पड़ा जो इस गौशाला में एक सप्ताह रुक गया जहाँ से वन विभाग ने इसे टाइगर वाच की टीम की मदद से उसे सुरक्षित जगह पहुँचाया। टाइगर वॉच की टीम इस क्षेत्र में बाघ की मॉनिटरिंग करती थी। 
खैर समय के साथ इसके पारिस्थितिक तंत्र में सुधार हुआ और आज यह ३५ से अधिक स्थानिक गिद्धों की प्रजाति के लिए आवास बन चुका है एवं २०० से अधिक विदेशी गिद्ध इस साल दिखाई दिए है। इन गिद्धों का सियारों के साथ आपस में व्यवहार देखने लायक होता है। यह एक तरह का छोटा  जोड़बीड़ है जहाँ गौशाला की मृत गायें यहाँ रहने वाले गिद्धों और सियारों के लिए आसान भोजन मिल जाता है।

३ सभी गिद्ध सियारों से मजबूती से टक्कर लेते हैं।

४ शरद ऋतु में सुबह और शाम की धुप इनके लिए अत्यंत आवश्यक हैं। शायद वह अंदरूनी पंखो पर सीधी पड़ती हैं।


५ अक्सर १०-१५ सियारों के समूह में भी अकेला गिद्ध डटा रहता है, और सियार उन्हें अपना शिकार बनाने का प्रयास नहीं करते, परन्तु भोजन के लिए संघर्ष करते अवश्य नजर आते हैं।

वन विभाग चाहे तो इसे गिद्धों के लिए इस स्थान को गिद्धों के लिए संरक्षित क्षेत्र घोषित करवा सकती हैं, जिस से यह संकटग्रस्त समूह को एक और स्थान मिल सके।  इसके लिए गौशाला और आस पास के क्षेत्रों में इस्तेमाल होने वाली पशु दवाओं पर गहन ध्यान देना होगा लोगों के सहयोग से इस मुहीम को और आगे बढ़ाना होगा।

६ अक्सर खाने की कमी संघर्ष को बढ़ा देती हैं।

७ अत्यंत क्रोधित सियार से भी गिद्ध घबराते नहीं हैं।

आप इस जगह को गौशाला प्रबंधको की सहमति के साथ स्वयं देख सकते हो जो करौली से ३० किलोमीटर दूर धौलपुर मार्ग पर हैं। गौशाला प्रबंधक गिद्धों के प्रति अत्यंत संवेदनशील हैं अतः आप उनके द्वारा तय मानको का अवश्य ध्यान रखे।

८ श्री मुन्ना सिंह जी जिन्होंने इस नए आश्रय स्थल को विकसित किया है

 

गिद्ध और गीदड़
सुनी गायें मरे जहाँ भी सड़े वहां ही,
क्यों न इन्हें खाये भूखे गिद्ध,
क्यों न इन्हें डाले एक जगह जहाँ हो छोटा बाड़ा शहर के किनारे ,
शायद गिद्ध और गीदड़ यही पुकारे

 

 

राजस्थान का एक खास बटेर और एक विवादित ब्रिटिश खोजकर्ता 

राजस्थान का एक खास बटेर और एक विवादित ब्रिटिश खोजकर्ता 

राजस्थान में बटेर की खास उप प्रजाति मिलती है और कहा जाता है यह राजस्थान की एक स्थानिक या एंडेमिक उप प्रजाति है। जिसे राजस्थान रॉक बुश क्वेल के नाम से जाना जाता है । यह अजमेर के पास नसीराबाद से एक अंग्रेज अफसर द्वारा खोजी गयी थी,  जो असल में रॉक बुश क्वेल  (Perdicula argoondah (Sykes 1832)) की ही एक उप-प्रजाति है। इस अंग्रेज अफसर का नाम था – कर्नल रिचर्ड मैनेरतज़हेगेन (3 March 1878 – 17 June 1967) जो एक ब्रिटिश सेना के अफसर, ख़ुफ़िया विभाग के अधिकारी एवं पक्षीविद थे।

इन्होने 1926  में इसे पकड़ा और इंग्लैण्ड के एक अन्य पक्षीविद हुग व्हिस्टलर को पहचानने के लिए दिया,  जो एक बटेर एवं फ्रैंकोलिन जैसे पक्षियों के विशेषज्ञ थे।

राजस्थान के रॉक बुश क्वेल (Perdicula argoondah meinertzhageni) (Photo: Dr. Dharmendra Khandal)

राजस्थान के रॉक बुश क्वेल के खोजकर्ता कर्नल मैनेरतज़हेगेन एक ऐसा नाम था जिसके सीने पर पदको की क्षृंखलाए थी, परन्तु चेहरे पर बेईमानियों के काले धब्बे। किसी एक इंसान पर लगे इल्जामो पर कभी शायद इतने शोध पत्र नहीं लिखे होंगे जितने इन महाशय पर लिखे गये है और इनके कृत्य आज भी इनकी मृत्यु के कई दशकों बाद भी सामने आते रहते है। हालाँकि यह अपने आनंद के लिए भारत और अफ्रीका की आम जनता पर जुल्म करने वाले वह इतिहास के अकेले फौजी अफसर नहीं थे, अपनी पत्नी की हत्या कर उस मामले को दबा देने वाले  दुनिया के एक मात्र हत्यारे पति भी नहीं थे, परन्तु विश्व के अनेको नेचुरल हिस्ट्री म्यूजियम से प्राणियों के नमूने चुराकर अपने नाम से दर्ज करवाने वाले शायद वह गिने चुने प्रकृतिविद में से एक थे। किसी मृत व्यक्ति पर इतने लांछन शायद सभ्य समाज की परम्परा के विरुद्ध है परन्तु एलन क्नॉक्स (Alan Knox), पामेला रासमुसेन (Pamela Rasmussen),  जॉन क्रीटचलै (John Critchley) जैसे लोगो ने यह सब इल्जाम उन के द्वारा ब्रिटिश म्यूजियम में जमा करवाए गए २० हजार से अधिक पक्षी नमूनों पर कड़ी मेहनत कर एकत्रित किये गए प्रमाण पर आधारित है जिन पर इन्होने विश्लेषणात्मक शोध पत्र भी प्रकाशित किये है। यह शोध पत्र हमें ताकीद कराते  है की जीवन में सत्य से बढ़ कर कुछ नहीं।

रॉक बुश क्वेल का समूह (Photo: Dr. Dharmendra Khandal)

यदपि इनके द्वारा राजस्थान से खोजे गए इस विशेष बटेर पर अभी तक किसी भी प्रकार का कोई प्रश्न नहीं उठा है। परन्तु इस उपप्रजाति पर किसी ने पर्याप्त शोध भी नहीं की है।  आशा है  नव पक्षी वैज्ञानिक इस पर नए सिरे से प्रकाश डालेंगे। अक्सर यह प्रश्न पूछा जाता है की राजस्थान में कितने प्रकार के स्थानिक (एंडेमिक) पक्षी है? यानी जो मात्र राजस्थान राज्य की सीमा में ही मिलते हो।  पक्षी विशेषज्ञ कहते है की असल में एक भी नहीं है। परन्तु फिर भी 6 -7  उप-प्रजातियों का मुख्य क्षेत्र राजस्थान है, परन्तु आस पास के राज्य में भी इनका वितरण है। यह अलग बात है की इन उपप्रजातियों को ही कुछ विशेषज्ञ सिरे से नकारते है, उनका का मानना है की प्रजातियों में थोड़ी विविधता भौगोलिक आधार पर आ ही जाती है।

कर्नल रिचर्ड मैनेरतज़हेगेन

हुग व्हिस्टलर को जब नसीराबाद से बटेर का नमूना मिला तो उन्होंने 1937 में इसे डेक्कन क्षेत्र में मिलने वाले रॉक बुश क्वेल से इसे अलग किस्म का पाया और मात्र दो लाइन के विवरण में लिखा की इसका रंग डेक्कन क्षेत्र में मिलने वाले बटेर से काफी हल्का है और निचले भाग में मिलने वाली धारिया भी हलके रंग की है एवं नजदीक है। यह विवरण मात्र एक नर पक्षी के नमूने के आधार पर ही लिखा गया था।

1915 में केन्या में कोरी बस्टर्ड के शिकार के साथ कर्नल रिचर्ड मैनेरतज़हेगेन

उन्होंने इसके वितरण के बारे में लिखा है की यह पंजाब, यूनाइटेड प्रोविंस (उस समय का उत्तेर प्रदेश का नाम), मध्य भारत का उत्तरी हिस्सा, राजपुताना एवं कच्छ में मिलता है।  यह स्पष्ट नहीं है की उन्होंने इसके वितरण किस प्रकार जुटाया क्योंकि विवरण तो मात्र एक ही नमूने पर आधारित है। खैर आज इस तरह के छोटे से दो लाइनों के विवरण के आधार पर कोई अलग उपप्रजाति स्थापित नहीं की जासकती है। हुग व्हिस्टलर ने 1940  में भारत के पक्षीविद  सलीम अली के द्वारा भेजे गए एक और रॉक बुश क्वेल को मैसूर रॉक बुश क्वेल का नाम देकर उस भी एक नयी उप-प्रजाति के रूप में स्थापित किया था। खैर अब जमाना बदल गया है और डीएनए जैसी तकनीक से इन सवालो पर शायद और अधिक प्रकाश डाला जा सकता है।

कर्नल विलियम हेनरी साइक्स द्वारा रॉक बुश बटेर (पेर्डिकुला अर्गूंडा) (नर और मादा) की एक जोड़ी का एक चित्र, जिन्होंने पहली बार 1832 में इस प्रजाति का वर्णन किया था।

खैर DNA न सही आप भी इंटरनेट पर उपलब्ध फोटोज के आधार तीनो उप प्रजातियों में अंतर ढूंढे का प्रयास तो कर ही सकते है।

और ध्यान रहे मैनेरतज़हेगेन वही व्यक्ति है जिन्होंने फारेस्ट आउलट के एक नमूने को किसी और वैज्ञानिक के संग्रह से चुरा कर गुजरात का बता दिया था और कई पक्षीविद काफी दिनों तक भृमित रहे थे। होसकता है राजस्थान के बटेर में भी कोई और ही कहानी छुपी हो। प्रश्न आपके सामने है उत्तर खिजिये।

सन्दर्भ:
लेखक:

Dr. Dharmendra Khandal (L) has worked as a conservation biologist with Tiger Watch – a non-profit organisation based in Ranthambhore, for the last 16 years. He spearheads all anti-poaching, community-based conservation and exploration interventions for the organisation.

Mr. Ishan Dhar (R) is a researcher of political science in a think tank. He has been associated with Tiger Watch’s conservation interventions in his capacity as a member of the board of directors.

 

Cover photo caption: 1922 में कर्नल रिचर्ड मैनेरतज़हेगेन, और कर्नल विलियम हेनरी साइक्स द्वारा बनाया गया रॉक बुश बटेर का चित्र।