पैसिव प्लांट टैक्सोनॉमी: राजस्थान के विशेष सन्दर्भ में

पैसिव प्लांट टैक्सोनॉमी: राजस्थान के विशेष सन्दर्भ में

जानिये कैसे गूगल से पौधों की सरल पहचान बने खतरा ए जान?

क्या आपने कभी सोचा है कि हमारे चारों ओर कितने प्रकार के पेड़-पौधे और जीव-जंतु पाए जाते हैं? सोचिये अगर इन सभी के भिन्न-भिन्न नाम ही न होते तो? इन्हें अलग-अलग समूहों में बांटा ही न गया होता तो?… यह स्थिति सोच कर ही कितनी कठिनाई महसूस होती है? इस कठिनाई को हल करने के लिए ही विभिन्न वैज्ञानिकों ने इस पृथ्वी पर पाए जाने वाले सभी पौधों व् प्राणियों को विभिन्न समूहों में बांटा व उनका नामकरण किया है। जैविक जगत में अज्ञात जीवों को समझने, पहचानने तथा उनको समानता व असमानता के आधार पर विभिन्न समूहों में बांटने को “वर्गिकी (Taxonomy) या वर्गीकरण विज्ञान” कहते हैं। वर्गिकी, जीव जगत की एक ऐसी महत्वपूर्ण शाखा हैं जिसमें यदि कोई वैज्ञानिक किसी विशेष प्रजाति पर शोध के दौरान यदि उसकी पहचान ही गलत कर दे, तो उसका पूरा शोध कार्य गलत व व्यर्थ हो सकता है। यदि इस प्रकार की गलती दवा विज्ञान में हो जाए तो पूरे समाज और विज्ञान के लिए घातक साबित हो सकती है।

हाल ही में हमें “The End of Botany” नामक एक आलेख पढ़ने का मौका मिला, जिसे क्रिसी एवं साथियों (2020) ने लिखा है। इस आलेख के लेखकों का कहना है की “आजकल वैज्ञानिक आम पौधों को पहचानने में असमर्थ होते जा रहे हैं और लगातार वनस्पति विज्ञान के छात्रों, शिक्षकों, पाठ्यक्रमों, विश्वविद्यालयों में प्रकृति विज्ञान के विभागों की और हर्बेरियमों की पौधे पहचान क्षमता में गिरावट आ रही है। ये गिरावट सिर्फ और सिर्फ वनस्पति विज्ञान की क्षमताओं की गिरावट को उजागर करती हैं। हम अच्छी तरह से जानते हैं की पौधे हमारे जीवन का आधार हैं, एवं उनकी सही पहचान बहुत जरूरी है फिर भी हम इस संकट तक कैसे पहुंचे? इसके क्या कारण हैं? हम इस हालात को कैसे सुधार सकते हैं?”  Crisci et al. (2020) ने जो भी लिखा वो बिलकुल सही और चिंताजनक है। दिन प्रतिदिन वनस्पतियों की सही पहचान करना एक कठिन कार्य बनता जा रहा है और राजस्थान भी इस स्थिति से अछूता नहीं है।

भारत की आज़ादी से पहले (वर्ष 1947 से पहले) और 1970 तक पौधों को पहचानने के लिए हम केवल Hooker et al. (1872-1897) एवं Brandis (1874) द्वारा लिखित पुस्तकों का ही इस्तेमाल करते थे क्योंकि उस समय राजस्थान की वनस्पतियों के लिए कोई एक विशेष “सटीक फ़्लोरा” उपलब्ध नहीं था। यदि कोई जानकारी उपलब्ध भी थी तो विभिन्न शोधपत्रों के रूप बिखरी हुई थी। परन्तु आज़ादी के बाद रामदेव (1969), भंडारी (1978) और शर्मा व त्यागी (1979) राजस्थान के अग्रणी वर्गीकरण वैज्ञानिक (Taxonomist) के रूप में उभरे तथा उन्होंने राज्य के क्षेत्रीय “फ़्लोरा” बनाने की पहल की। उन्होंने राजस्थान राज्य की वनस्पति सम्पदा जानने हेतु हर्बेरियम भी विकसित किये। इन शुरूआती प्रयासों के बाद कई फ़्लोरा अस्तित्व में आये जिनमें से कुछ महत्वपूर्ण फ़्लोरा निम्नलिखित हैं:

Sr. no.PeriodName of flora published (year of publication )Author(s)Coverage
11947-1980 Contribution to the flora of Udaipur (1969)K.D. RamdevSouth- East Rajasthan
Flora of the Indian Desert (1978)M.M. BhandariJaisalmer, Jodhpur and Bikaner districts
Flora of North- East Rajasthan (1979)S. Sharma &B. TiagiNorth – East Rajasthan
21981-2000Flora of Banswara (1983)V. SinghBanswara district
Flora of Tonk (1983)B.V. Shetty & R. P. PandeyTonk district
Flora of Rajasthan, Vol. I,II,III (1987,1991,1993)B.V. Shetty & V. SinghWhole Rajasthan
 Flora of Rajasthan(Series – Inferae ) (1989)K.K. Sharma & S. SharmaWhole Rajasthan
Illustrated flora of Keoladeo National Park , Bharatpur , Rajasthan (1996)Prasad et al.KNP Bharatpur
32001-2020The flora of Rajasthan (2002)N. SharmaHadoti zone
Flora of Rajasthan (South and South- East Rajasthan ) (2007)Y. D. Tiagi & N.C. AreySouth and South- East Rajasthan
Orchids of Desert and Semi – arid Biogeographic zones of India (2011)S.K. SharmaOrchids of whole Rajasthan (including parts of adjacent states )
Flora of South – Central Rajasthan (2011)B. L. Yadav & K.L. MeenaSouth- Central Rajasthan

ऊपर दी गयी सारणी यह दर्शाती है कि 21वी शताब्दी में हमने राजस्थान से संबंधित एन्जियोस्पर्मिक फ्लोरा की बहुत कम पुस्तकें प्रकाशित की हैं। हमारे वरिष्ठ वनस्पति वर्गीकरण वैज्ञानिक जो विभिन्न विश्वविद्यालयों के वनस्पति विज्ञान विभागों से सम्बंधित थे जैसे श्री के. डी. रामदेव, डॉ. शिवा शर्मा, प्रोफेसर बी. त्यागी, प्रोफेसर एम. एम. भंडारी और प्रोफेसर वाई. डी. त्यागी जो हमारे बीच नहीं रहे। इन विद्वानों के समय में, फील्ड स्टडीज के लिए नियमित बाहर जाना, हर्बेरियम बनाना, अन्य राज्यों के दौरे करना, सूक्ष्मदर्शी निरिक्षण आदि अध्यन्न गतिविधियों का नियमित हिस्सा थे। उस समय पौधों की पहचान करने के लिए पुस्तकालय या बाजार में शायद ही कोई रंगीन चित्रों वाली फील्ड गाइड उपलब्ध थी, और तो और इंटरनेट व् गूगल जैसी सुविधाएं भी उपलब्ध नहीं थीं। पौधों की पहचान करने का एकमात्र तरीका था बिना चित्रों वाले फ़्लोरा। ऐसे में यदि किसी छात्र को कोई नया पौधा मिलता था तो शिक्षकों द्वारा उसे निर्देशित किया जाता था, कि वह स्वयं फ़्लोरा का निरिक्षण कर, पौधे को पहचानने कि कोशिश करे। क्योंकि विकल्प कम थे अतः छात्र अलग-अलग फ़्लोरा का प्रयोग कर पौधे को पहचानने की कोशिश करते थे। इस प्रकार का वातावरण एक छात्र को “एक्टिव टैक्सोनोमिस्ट” बनाने के लिए बहुत ही सहायक हुआ करता था। जब छात्र फ़्लोरा कि मदद से किसी पौधे की स्वयं पहचान करते थे, तो उनमें पौधों के वर्गीकरण के लिए एक विशेष रूचि विकसित होती थी।

इस सभी के प्रभाव का नतीजा जानने हेतु यहाँ एक उदाहरण देना उचित होगा और इस उदहारण के रूप में श्री रूप सिंह को याद करना उचित होगा। “श्री रूप सिंह”, राजस्थान विश्वविद्यालय के वनस्पति विज्ञान विभाग (Botany Department) में हर्बेरियम को सँभालते थे। श्री रूप सिंह एक प्रशिक्षित वर्गीकरण वैज्ञानिक नहीं थे परन्तु फिर भी उन्होंने डॉ. शिव शर्मा को एक हर्बेरियम बनाने में अदभुत योगदान दिया था। डॉ. शिव शर्मा द्वारा लाये गए सभी पौधों का हर्बेरियम बनाने कि पूरी प्रक्रिया जैसे; नमूनों को सुखाना, हर्बेरियम शीट पर चिपकाना, लेबलिंग, वर्ग और प्रजाति फ़ोल्डर में रखना, तथा उनको अलमारी में क्रमानुसार रखने का कार्य श्री रूप सिंह किया करते थे। वे बहुत बारीकी से पौधों का अवलोकन कर उनकी पहचान करते थे, तथा उन्होंने डॉ शिव शर्मा से एन्जियोस्पर्मिक वर्गीकरण विज्ञान (Angiospermic Taxonomy) के विभिन्न पहलुओं को बड़े मनोयोग से सीखा। जल्द ही उन्होंने वनस्पति वर्गीकरण कि एक अद्भुत समझ विकसित कर ली तथा उनकी पहचान करने की क्षमता बहुत विश्वसनीय और सटीक थी। श्री रूप सिंह के उदहारण को देखकर, एक सवाल उठ सकता है कि आखिर वह पौधों की पहचान में इतने अच्छे कैसे थे? इसका उत्तर यह है कि वह पौधों का स्वयं निरीक्षण करते थे और उन्होंने कभी भी “बनी बनाई पहचान प्रक्रिया” पर विश्वास नहीं किया। यदि एक फ़्लोरा उनको संतोषजनक परिणाम नहीं देता था, तो वह अन्य फ़्लोरा का उपयोग शुरू कर देते थे, और तब तक वे ऐसा करते जब तक कि उनको एक सही पहचान नहीं मिल जाती थी। हम इस आदत को “सक्रिय पहचान प्रक्रिया” कह सकते हैं। इस प्रकार, एक सक्रिय वनस्पति वर्गीकरण वैज्ञानिक बनने के लिए, छात्रों को पौधों कि सक्रिय पहचान की आदत विकसित करनी चाहिए।

परन्तु आजकल स्थिति बिलकुल विपरीत है। लोगों के पास बाहर जाने का समय नहीं होता है और यदि कोई चले भी जाए तो  हमेशा जल्दी में ही रहते हैं। यहां तक कि कई तो स्वयं एक अज्ञात पौधे की पहचान करने के लिए चंद मिनट भी खर्च नहीं करना चाहते हैं। उन्हें पहचान के लिए एक सीधी, सरल बानी बनाई सुविधा चाहिए। इंटरनेट, गूगल, मोबाइल में विभिन्न व्हाट्सऐप ग्रुप्स आदि ऐसे तरीके हैं जिसमें लोग अपने अज्ञात पौधों की तस्वीरें भेजते हैं और कुछ सेकंड के भीतर पहचान उनके हाथों में आ जाती है। हालांकि, इस तरह के तरीकों का उपयोग करके, पहचान जल्दी संभव है लेकिन ऐसे लोग कभी भी “श्री रूप सिंह” नहीं बन सकते हैं। दिन प्रतिदिन लोग पौधों की सुविधाजनक पहचान के आदी होते जा रहे हैं। आज “passive identification” और “passive taxonomy” का यह चलन हर जगह वर्गीकरण विज्ञान के पुराने तरीकों की जगह ले रहा है। अब पौधे की पहचान आसान हो रही है, लेकिन राज्य के विभिन्न विश्वविद्यालयों के वनस्पति विज्ञान विभागों में नए वनस्पति वर्गीकरण वैज्ञानिक विकसित नहीं हो रहे हैं। वन विभागों और आयुर्वेद विभागों में भी यही स्थिति है। एक समय था जब डॉ. सी. एम. माथुर और श्री. वी. एस. सक्सेना  जैसे वन अधिकारी राजस्थान के वन विभाग में थे, जो वन वनस्पति वर्गीकरण विज्ञान के विद्वान थे। इसी प्रकार से, डॉ. महेश शर्मा, डॉ. आर. सी. भूतिया और कुछ अन्य लोग आयुर्वेद विभाग में पौधों की पहचान के मशाल वाहक थे, लेकिन उनकी सेवानिवृत्ति के बाद, अब बस एक खालीपन है।

हमें अब देर हो रही है। हमारे राज्य में नई पीढ़ी का शायद ही कोई विश्वसनीय और प्रमुख एन्जियोस्पर्मिक टैक्सोनोमिस्ट उपलब्ध है। समान स्थिति प्राणी वर्गीकरण विज्ञान के क्षेत्र में भी है। राजस्थान में कई विश्वविद्यालय और कॉलेज हैं, लेकिन पारंपरिक प्लांट टैक्सोनॉमी वहां ज्यादा पसंद नहीं कि जाती है। “सक्रिय वर्गीकरण विज्ञान” को पुनर्जीवित करने का अभी भी समय है नहीं तो बाद में बहुत देर हो जाएगी। यह हर विश्वविद्यालय के वनस्पति विज्ञान विभागों एवं वन और आयुर्वेद विभागों का एक नैतिक कर्तव्य है।

सन्दर्भ:
  • Cover Photo- PC: Dr. Dharmendra Khandal
  • Bhandari , M.M. (1978) : Flora of the Indian desert. (Revised 1990)
  • Brandis , D. (1874) : The forest flora of the North – West and Central India. London.
  • Crisci , J.V. , L. Katinas , M.J. Apodaca & P.C. Hode (2020): The end of Botany. Trends in plants science. XX (XX) : 1-4.
  • Hooker, J.D. et al. (1872-1897) : The flora of British India. Vol. 1-7. London (Repr. Ed. 1954-1956, Kent).
  • Prasad V. P., D. Mason , J.P. Marburger & C.R. Ajitkumar (1996) : Illustrated flora of Keoladeo Nation Park , Bharatpur.
  • Ramdev , K. D. (1969) : Contribution to the flora of Udaipur .
  • Sharma K.K. & S. Sharma (1989) : Flora of Rajasthan (Series- Inferae) .
  • Sharma N. (2002) : The flora of Rajasthan
  • Sharma , S. K. (2011) : Orchids of Desert and Semi- arid Biogeographic Zones of India.
  • Sharma ,S. &B. Tiagi (1979) : Flora of North – East Rajasthan.
  • Shetty , B. V.  & R.P. Pandey (1983) : Flora of Tonk.
  • Shetty B.V. & V. Singh (1987,1991,1993) : Flora of Rajasthan , Vol. I , II & III .
  • Singh , V. (1983) : Flora of Banswara .
  • Tiagi , Y.D. & N.C. Arey (2007) Flora of Rajasthan (South & South- East Rajasthan )
  • Yadav , B.L. & K.L. Meena (2011) : Flora of South – Central Rajasthan. Scientific Publishers , Jodhpur .

 

राजस्थान की मुख्य दुर्लभ वृक्ष प्रजातियां

राजस्थान की मुख्य दुर्लभ वृक्ष प्रजातियां

दुर्लभ वृक्ष का अर्थ है वह वृक्ष प्रजाति जिसके सदस्यों की संख्या काफी कम हो एवं पर्याप्त समय तक छान-बीन करने पर भी वे बहुत कम दिखाई पड़ते हों उन्हें दुर्लभ वृक्ष की श्रेणी में रखा जा सकता है। किसी प्रजाति का दुर्लभ के रूप में मानना व जानना एक कठिन कार्य है।यह तभी संभव है जब हमें उस प्रजाति के सदस्यों की सही सही संख्या का ज्ञान हो। वैसे शाब्दिक अर्थ में कोई प्रजाति एक जिले या राज्य या देश में दुर्लभ हो सकती है लेकिन दूसरे जिले या राज्य या देश में हो सकता है उसकी अच्छी संख्या हो एवं वह दुर्लभ नहीं हो।किसी क्षेत्र में किसी प्रजाति के दुर्लभ होने के निम्न कारण हो सकते हैं:

1.प्रजाति संख्या में काफी कम हो एवं वितरण क्षेत्र काफी छोटा हो,
2.प्रजाति एंडेमिक हो,
3.प्रजाति अतिउपयोगी हो एवं निरंतर व अधिक दोहन से उसकी संख्या में तेज गिरावट आ गई हो,
4.प्रजाति की अंतिम वितरण सीमा उस जिले या राज्य या देश से गुजर रही हो,
5.प्रजाति का उद्भव काफी नया हो एवं उसे फैलने हेतु पर्याप्त समय नहीं मिला हो,
6.प्रजाति के बारे में पर्याप्त सूचनाएं उपलब्ध नहीं हो आदि-आदि।

इस लेख में राजस्थान राज्य के दुर्लभ वृक्षों में भी जो दुर्लभतम हैं तथा जिनकी संख्या राज्य में काफी कम है, उनकी जानकारी प्रस्तुत की गयी है।इन दुर्लभ वृक्ष प्रजातियों की संख्या का भी अनुमान प्रस्तुत किया गया है जो वर्ष 1980 से 2019 तक के प्रत्यक्ष वन भ्रमण,प्रेक्षण,उपलब्ध वैज्ञानिक साहित्य अवलोकन एवं वृक्ष अवलोककों(Tree Spotters), की सूचनाओं पर आधारित हैं।

Antidesma ghaesembilla

अब तक उपलब्ध सूचनाओं के आधार पर राजस्थान की अति दुर्लभ वृक्ष प्रजातियां निम्न हैं:

क्र. सं.नाम प्रजातिप्रकृतिकुलफ्लोरा ऑफ राजस्थान (भारतीय वनस्पति सर्वेक्षण अनुसार स्टेटस)राज्य में संख्या अनुमान*मुख्य वितरण क्षेत्रवि. वि.
1.Borassus flabellifer, Asian Palmyra palm,ताड़ वृक्षArecaceaeदर्ज नहींAबांसी (चित्तौड़गढ़), सलूम्बर, ऋषभदेववन्य एवं रोपित अवस्था में विद्यमान
2.Commiphora agallocha, (बड़ी गूगल)छोटा वृक्षBurseraceaeदर्ज नहींBभींडर (उदयपुर), कुंडाखोह (बारां), विजयपुर (चित्तौड़गढ़)वन्य अवस्था में विद्यमान
3.Washingtonia robusta, Mexican Fan Palm वृक्ष Arecaceaeदर्ज नहींAनागफणी (डूंगरपुर) वन भवन एवं गुलाबबाग,(उदयपुर)वन्य एवं रोपित अवस्था में विद्यमान
4.Protium serratumमध्यम आकार का वृक्षBurseraceaeदर्ज नहींAकमलनाथ नाला (कमलनाथ वन खंड,उदयपुर) गौमुख के रास्ते पर(मा.आबू) वन्य अवस्था में विद्यमान
5.Butea monosperma leutea पीला पलाशमध्यम आकार का वृक्षFabaceaeदर्ज नहींBमुख्यतः दक्षिणी राजस्थान, बाघ परियोजना सरिस्कावन्य अवस्था में विद्यमान
6.Celtis tetrandraमध्यम आकार का वृक्षUlmaceaeदुर्लभ के रूप में दर्जAमाउन्ट आबू (सिरोही), जरगा पर्वत (उदयपुर)वन्य अवस्था में विद्यमान
7.Cochlospermum religisoum गिरनार, धोबी का कबाड़ाछोटा वृक्षLochlospermaceae‘अतिदुर्लभ’ के रूप में दर्जBसीतामाता अभ्यारण्य, शाहबाद तहसील के वन क्षेत्र (बारां)वन्य अवस्था में विद्यमान
8.Cordia crenata ,(एक प्रकार का गैंदा)छोटा वृक्षBoraginaceae‘अतिदुर्लभ’ के रूप में दर्जपुख़्ता जानकारी उपलब्ध नहींमेरवाड़ा के पुराने जंगल, फुलवारी की नाल अभ्यारण्यवन्य अवस्था में विद्यमान
9.Ehretia serrata सीला, छल्लामध्यम आकार का वृक्षEhretiaceaeदुर्लभ के रूप में दर्जAमाउन्ट आबू (सिरोही), कुम्भलगढ़ अभयारण्य,जरगा पर्वत,गोगुन्दा, झाड़ोल,कोटड़ा तहसीलों के वन एवं कृषि
क्षेत्र
वन्य एवं रोपित अवस्था में विद्यमान
10.Semecarpus anacardium, भिलावाबड़ा वृक्षAnacardiaceaeफ्लोरा में शामिल लेकिन स्टेटस की पुख़्ता जानकारी नहींहाल के वर्षों में उपस्थित होने की कोई सूचना नहीं हैमाउन्ट आबू (सिरोही)वन्य अवस्था में ज्ञात था
11.Spondias pinnata, काटूक,आमण्डाबड़ा वृक्षAnacardiaceaeदर्ज नहींसंख्या संबधी पुख़्ता जानकारी नहींसिरोही जिले का गुजरात के
बड़ा अम्बाजी क्षेत्र से सटा
राजस्थान का वनक्षेत्र, शाहबाद तहसील के वन क्षेत्र (बारां)
वन्य अवस्था में विद्यमान
12.Antidesma ghaesembillaमध्यम आकार का वृक्षPhyllanthaceaeदर्ज नहींAरणथम्भौर बाघ परियोजना (सवाई माधोपुर)वन्य अवस्था में विद्यमान
13.Erythrinasuberosasublobataछोटा वृक्षFabaceaeदर्ज नहींAशाहबाद तहसील के वन क्षेत्र (बारां)वन्य अवस्था में विद्यमान
14.Litsea glutinosaमैदा लकड़ीLauraceaeदर्ज नहींAरणथम्भौर बाघ परियोजना (सवाई माधोपुर)वन्य अवस्था में विद्यमान

(*गिनती पूर्ण विकसित वृक्षों पर आधारित है A=50 से कम,B=50 से 100)

उपरोक्त सारणी में दर्ज सभी वृक्ष प्रजातियां राज्य के भौगोलिक क्षेत्र में अति दुर्लभ तो हैं ही,बहुत कम जानी पहचानी भी हैं।यदि इनके बारे में और विश्वसनीय जानकारियां मिलें तो इनके स्टेटस का और भी सटीक मूल्यांकन किया जा सकता है।चूंकि इन प्रजातियों की संख्या काफी कम है अतः ये स्थानीय रूप से विलुप्त भी हो सकती हैं। वन विभाग को अपनी पौधशाला में इनके पौधे तैयार कर इनको इनके प्राकृतिक वितरण क्षेत्र में ही रोपण करना चाहिए ताकि इनका संरक्षण हो सके।

राजस्थान का विशालतम बरगद

राजस्थान का विशालतम बरगद

बरगद का राजस्थान में बहुत सम्मान होता है। बरगद को राजस्थान में बड़, बड़ला, वड़ला आदि स्थानीय नामों से जाना जाता है। आमतौर पर बरगद को राज्य में संरक्षित वृक्ष का दर्जा प्राप्त है। विशाल व गहरी छाया प्रदान करने से राज्य में सभी जगह इसे उगाने-बचाने के प्रयास होते रहते हैं। बरगद फाईकस वंश का वृक्ष है। बरगद एवं इसके वंश ‘‘फाईकस’’ की राजस्थान से जुड़ी अच्छी जानकारी एलमिडा(1), मेहता(2), सुधाकर एवं साथी (3), शेट्टी एवं पाण्डे (4), शेट्टी एवं सिंह(5), शर्मा एवं त्यागी (6) एवं शर्मा (7) से मिलती है। लेकिन उक्त संदर्भों में मादड़ी गांव में विद्यमान राजस्थान के सबसे विशाल बरगद वृक्ष के बारे में कोई जानकारी उपलब्ध नहीं है।  

दक्षिणी राजस्थान में उदयपुर जिले की झाड़ोल तहसील के मादड़ी गाँव में राजस्थान राज्य का सबसे विशाल आकार-प्रकार का एवं सम्भवतः सबसे अधिक आयु वाला भी बरगद वृक्ष विद्यमान है। इस बरगद को देखने हेतु उदयपुर-झाड़ोल सड़क मार्ग से यात्रा करते हुए झाड़ोल से 10 किमी. पहले एवं उदयपुर से 40 किमी. दूर पालियाखेड़ा गाँव से आगे लगभग 25 किमी. दूर स्थित मादड़ी गाँव पहुँचना पड़ता है। मादड़ी से खाटी-कमदी गाँव जाने वाली सड़क के किनारे (गाँव के पूर्व-दक्षिण छोर पर) यह बरगद विद्यमान है। इस बरगद के नीचे एक हनुमान मंदिर स्थित होने से इसे स्थानीय लोग ‘‘हनुमान वड़ला’’ कहते है। स्थानीय जनमानस का कहना है कि इस वृक्ष की आयु लगभग 600 वर्ष है।

दक्षिणी राजस्थान में बरगद, पीपल, खजूर, महुआ, आम, जोगन बेल आदि सामाजिक रूप से संरक्षित या अर्द्ध-संरक्षित प्रजातियाँ हैं। संरक्षण के कारण इन प्रजातियों के वृक्ष/लतायें दशकों एवं शताब्दियों तक सुरक्षा पाने से विशाल आकार के हो जाते हैं एवं कई बार एक प्रसिद्ध भूमि चिन्ह बन जाते हैं। जाड़ा पीपला (बड़ा पीपल), आड़ा हल्दू (तिरछा गिरा हुआ हल्दू), जाड़ी रोहण (बड़े आकार की रोहण,) खाटी कमदी (खट्टे फल वाला जंगली करौंदा) आदि हाँलाकि संभाग में गांवों के नाम हैं लेकिन ये नाम वनस्पतियों एवं उनके कुछ विशेष आकार-प्रकार व गुणों पर आधारित हैं। मादड़ी गाँव का ‘‘हनुमान वड़ला’’ भी एक सुस्थापित भूमि चिन्ह है तथा स्थानीय लोग विभिन्न गाँवों व जगहों तक पहुँचने का उनका रास्ता ढूँढ़ने व बताने में इस भूमि चिन्ह का उपयोग करते हैं।

मादड़ी गाँव के बरगद में कई विशेषतायें देखी गई हैं। इस बरगद में शाखाओं से निकलकर लटकने वाली प्रोप मूल के बराबर हैं। पूरे वृक्ष की केवल एक शाखा से एक प्रोप मूल सीधी नीचे आकर भूमि से सम्पर्क कर खम्बे जैसी बनी है। इस जड़ का 2015 में व्यास 15.0 से.मी. तथा ऊँचाई लगभग 3.0 मी. की थी। यह जड़ भूमि पर गिरी शाखा क्रमांक 4/2 से निकली हैं (चित्र-1) । इस जड़ के अलावा कुछ शाखाओं में बहुत पतली-पतली हवाई जड़ें निकली है जो हवा में ही लटकी हुई हैं तथा वर्ष 2016 तक भी भूमि के सम्पर्क में नहीं आई हैं।

चूँकि मादड़ी गाँव के बरगद में हवाई जड़ों का अभाव है अतः क्षैतिज दिशा में लम्बी बढ़ती शाखाओं को सहारा नहीं मिला । फलतः शाखाओं की लकड़ी, पत्तियों एवं फलों के वजन ने उन पर भारी दबाव डाला । इस दबाव एवं सम्भवतः किसी तूफान के मिले-जुले कारण से चारों तरफ बढ़ रही विशाल शाखाएँ टूट कर भूमि पर गिर गई होंगी। यह भी हो सकता है कि मुख्य तने में सड़न होने से ऐसा हुआ होगा । लेकिन यह तय है कि जब शाखायें टूट कर गिरी होंगी वह वर्षा ऋतु या उसके आसपास का समय रहा होगा । क्योंकि यदि गर्मी या सर्दी के मौसम में ये शाखायें टूटती तो ये सब पानी के अभाव में सूख जाती । वर्षा ऋतु में टूट कर भूमि पर गिरने से, गीली भूमि में जहाँ-जहाँ ये छूई, वहाँ-वहाँ जड़ें निकलकर भूमि के सम्पर्क में आ गई । चूंकि वर्षा में हवा की उच्च आद्रता होती है अतः आद्रता ने भी टूटी शाखाओं को निर्जलीकृत होने से बचाने में मदद की । पुख्ता सूचनायें हैं कि ये शाखायें सन 1900 से पूर्व टूटी हैं। 80 वर्ष के बुजुर्ग बताते हैं कि वे बचपन से इन्हें ऐसे ही देख रहे हैं। यह घटना सम्भवतः बहुत पहले हुई होगी क्योंकि मुख्य तने से नीचे गिरी शाखाओं के वर्तमान आधार (निचला छोर) की दूरी 24.0 मी. या इससे भी अधिक है। यानी तने व नीचे गिरी शाखा के आधार के बीच 24.0 मी. तक का बड़ा अन्तराल है। यह अन्तराल टूटे छोर की तरफ से धीरे-धीरे सड़न प्रक्रिया जारी रहने से प्रकट हुआ है। टूटी गिरी शाखाओं के आधार सूखने से कुछ सिकुड़े हुए, खुरदरे, छाल विहीन होकर धीमी गति से सड़ रहे हैं। वर्षा में इनमें सड़ान प्रक्रिया तेज हो जाती है। यानी शाखाएं निचले छोर पर सड़ती जा रही है एवं उपरी छोर पर वृद्धि कर आगे बढ़ती जा रही हैं। नीचे गिरी शाखायें अपनी पूरी लम्बाई में जीवित नहीं है। उनके आधार का टूटे छोर की तरफ कुछ भाग मृत है तथा कुछ आगे जाकर जीवित भाग प्रारम्भ होता है। 

वर्ष 1992 में इस बरगद की भूमि पर विभिन्न आकार की गिरी हुई कुल शाखाओं की संख्या 12 थी । इन शाखाओं में कुछ-कुछ द्विविभाजन जैसा नजर आता है जो अब भी विद्यमान है। ये शाखायें अरीय विन्यास में मुख्य तने से अलग होकर चारों तरफ त्रिज्याओं पर भूमि पर पड़ी हैं। क्षैतिज पड़ी शाखायें भूमि को छूने के उपरान्ह प्रकाश की चाह में उपर उठी हैं लेकिन वजन से फिर नीचे की तरफ झुककर भूमि को छू गई हैं। छूने के उपरान्त फिर प्रकाश की तरफ ऊँची उठी हैं। कई शाखायें तो दो बार तक भूमि को छू चुकी हैं। यानी शाखाएं ‘‘उपर उठने, फिर भूमि को  छू जाने, फिर उठने, फिर भूमि को छू जाने’’ का व्यवहार कर रेंगती सी बाहर की तरफ वृद्धि कर रही हैं। भूमि को छू कर ऊपर उठने से दो छूने के बिन्दुओं के बीच तना ‘‘कोन ’’ जैसा नजर आता है। जब शाखायें भूमि पर गिरी थी, वह लम्बाई अपेक्षाकृत अधिक सीधी थी लेकिन भूमि पर गिरने के बाद की लम्बाई ‘‘जिग-जैग‘‘ है जो शाखाओं के झुकने व पुनः उठने से प्रकट हुआ है। भूमि पर शाखाओं का फैलाव उत्तर-दक्षिण दिशा में लगभग 117 मी. एवं पूर्व-पश्चिम दिशा में लगभग 111 मी. है । इस तरह औसत व्यास 114 मी. होने से छत्र फैलाव लगभग 1.02 हैक्टर है।

चित्र-1 : मादड़ी ग्राम में स्थित बरगद के वृक्ष का रेखांकित विन्यास

बरगद की नीचे पड़ी टहनियों के बीच से एक पगडंडी मादड़ी से ‘‘घाटी वसाला फला’’ नामक जगह जा रही है । इस पगडंडी के पास से उत्तरी छोर की पहली टहनी को क्रम संख्या 1 देते हुए आगे बढ़ते हैं तो भूमि पर कुल 12 शाखायें पड़ी हैं (चित्र-1)। क्रमांक 4 व 7 की शाखायें जोड़े में हैं। जिनको चित्र 1 में क्रमशः 4/1, 4/2, 7/1 व 7/2 क्रमांक दिया गया है। इनके नीचे के हिस्से को सड़ते हुए दुफंक बिन्दु को छू जाने से ऐसा हुआ है। शाखा क्रमांक 5 व 6 सम्भवतः शाखा क्रमांक 4 की उपशाखा 4/2 से अलग होकर बनी हैं। शाखा 4/2 में एक दुफंके से जुड़ा एक सड़ता हुआ ठूँठ ठ1 है जिसका घेरा 54 सेमी. है। इससे कुछ मीटर दूर शाखा क्रमांक 6 भूमि पर पड़ी है जिसके प्रथम छोर से जड़ें निकलकर भूमि में घुसी हुई हैं। प्रकृति में यह देखने को मिलता है कि शाखाओं का व्यास नीचे से ऊपर की तरफ क्रमशः घटता जाता है। अतः उसकी परिधि भी घटती है लेकिन इस सिद्धान्त का इस बरगद में उल्लंघन हुआ है। इसी तरह क्रमांक 5 शाखा भी शाखा 4/2 की पुत्री शाखा है। भविष्य में सड़ाने के कारण अनेक पुत्री शाखायें अपनी मातृ शाखाओं से अलग हो जायेंगी। मुख्य तने पर एकदम सटकर चारों तरफ से लटकती प्रोप जड़ें आपस में व तने से चिपक गई है एवं वास्तविक तना अब दिखाई नहीं देता है। चिपकी मूलों सहित तने का घेरा 21.0 मी. है जिसे 12 व्यक्ति बांह फैलाकर घेर पाते हैं। तने पर अभी 5 शाखायें और विद्यमान हैं जो हवा में फैलकर अपना अस्तित्व बनाए हुए हैं। यह भी यहां दर्शनीय है कि तने से एकदम सटकर तो प्रोप मूल पैदा हुई हैं लेकिन वे आगे शाखाओं पर पैदा नहीं हुई हैं । 

इस बरगद को सुरक्षा देने हेतु ग्राम पंचायत ने परिधि पर वृत्ताकार घेरा बनाते हुए लगभग 1.5 मी. ऊँची पक्की दिवार बना दी है। मादड़ी से ‘‘घाटी वसाला फला’’ को जाने वाला सीमेन्ट – कंक्रीट रोड़ बरगद के नीचे से निकला है तथा प्रवेश व निकास पर लोहे का फाटक लगाया है। एक फाटक पश्चिम दिशा में भी लगाया है। बरगद हल्के ढाल वाले क्षेत्र में स्थित है। आसपास की भूमि का ढाल पश्चिम से पूर्व दिशा में होने से पानी भराव को बाहर निकालने हेतु पूर्व दिशा में दिवार में एक ‘‘मोरा’’ भी छोड़ा गया है। पंचायत ने यहाँ कई अन्य भवन भी बना दिये है । 

पंचायत ने जो पक्की दिवार बनाई है उस घेरे के अन्दर 10 शाखायें है तथा 2 शाखायें जो पश्चिम दिशा में है, पक्की दिवार के बाहर हैं । एक शाखा क्रमांक 10 पूरी तरह बाहर है तथा क्रं.11 का अशाखित हिस्सा अन्दर है तथा शाखित हिस्सा दिवार के बाहर है। यहां तने को दिवार में रखते हुए चिनाई की गई है (चित्र 1) ।

दिन व रात फाटक खुले होने से बच्चे दिनभर नीचे गिरी शाखाओं पर खेलते रहते हैं एवं पत्तियों व टहनियों को तोड़ते रहते हैं। शाखाओं के अन्तिम छोरों को आगे बढ़ने से रोकने हेतु चारों तरफ के खेत मालिकों ने जगह-जगह उनको काट दिया है। इससे आगे बढ़ते छोर रूक गये है एवं सड़न का शिकार होने लगे हैं। यदि इस बरगद को पूर्व से सुरक्षा मिली होती तो यह और विशाल हो गया होता ।

भूमि पर पड़ी शाखाओं में वृद्धि प्रकार

आमतौर पर प्रकृति में शाखाओं का व्यास धीरे-धीरे घटता जाता है लेकिन भूमि पर पड़ी शाखाओं में द्वितीयक वृद्धि अलग तरह से हुई है। यदि एक शाखा भूमि को दो जगह छुई है, तो छूने के बिन्दु पर या तुरन्त बाद जो शाखायें उर्ध्व दिशा में बढ़ी हैं उन शाखाओं में अत्यधिक मोटाई है। लेकिन छूने के दोनों बिन्दुओं के बीच अगले छूने के बिन्दु से पहले शाखा की मोटाई काफी कम है।

सड़न प्रक्रिया

भूमि पर पड़ी शाखायें अपने निचले छोर पर सड़न से ग्रसित हैं । यह सड़न वहाँ पहुँच कर रूकती है जहाँ पर तने ने जड़ें निकालकर भूमि से सम्पर्क कर लिया है। यह भी देखा गया है कि वे क्षैतिज शाखायें जिनकी कोई उपशाखा भूमि क्षरण से आ रही मिट्टी के नीचे आंशिक या पूरी तरह दूर तक दब गई हैं, वे सड़न का शिकार हो गई लेकिन जिन्होंने हवा में रहते हुये भूमि को छुआ है वे सड़ने से बच गई हैं । वैसे तो शाखाओं में सड़न आमतौर पर नीचे से उपर की तरफ बढ़ रही है । जैसे ही किसी शाखा में सड़न दुफंक बिन्दु पर पहुंचती है, वह दो शाखाओं में विभाजित हो जाती है। यह क्रम आगे से आगे चलता रहता है । अधिकांश शाखाओं में सड़न नीचे से ऊपर तो चल रही है, लेकिन कुछ में अचानक आगे कहीं बीच में भी सड़न प्रारम्भ हो रही है। जिससे सड़न बिन्दु के दोनों तरफ जीवित भाग विद्वमान है। सड़न की प्रक्रिया आगे बढ़ने से शाखा का बीच का हिस्सा गायब दिख रहा है। यहां सड़न नीचे से ऊपर व ऊपर से नीचे दोनों दिशाओं में जा रही है । सड़ने की प्रक्रिया से अनुमान है कि प्रथम बार जब शाखाएं भूमि पर गिरी थी, उनकी संख्या और भी कम रही होगी तथा आने वाले दशकों में सड़न प्रक्रिया के जारी रहने से शाखाओं की संख्या बढ़ती रहेगी ।  

मादड़ी गांव के बरगद का महत्त्व

चूँकि यह राज्य का सबसे विशाल बरगद है अतः परिस्थितिकीय पर्यटन की यहाँ बड़ी संभावना है। इस बरगद से मात्र 3 किमी. दूर जोगन बेल दर्रा नामक जगह में राज्य की सबसे बड़े आकार की जोगन बेल भी स्थित है । अतः फुलवारी की नाल अभयारण्य जाने वाले पर्यटकों को यहाँ भी आकर्षित किया जा सकता है। इससे न केवल ग्राम पंचायत को आय अर्जित होगी अपितु स्थानीय लोगो को रोजगार भी मिलेगा साथ ही प्रकृति संरक्षण मुहिम को भी बल मिलेगा ।

मादड़ी गांव के बरगद को संरक्षित करने हेतुु सुझाव

  • पक्की दीवार को हटाकर मूल स्वरूप लगाया जावे एवं चेन लिंक फेंसिंग की जावे।जो शाखा चिनाई में आ गई है उसको स्वतंत्र किया जाना जरूरी है।
  • कोई भी शाखा फेंसिंग से बाहर नहीं छोड़ी जावें।
  • बरगद में चढ़ने, झूला डालने, पत्ते तोड़ने, शाखा काटने, नीचे व आसपास मिट्टी खुदाई करने आदि की मनाही की जानी चाहिये।
  • बरगद की नीचे सड़क पर आवागमन रोका जावे।लोगों को आने-जाने हेतु वैकल्पिक मार्ग दे दिया जावे।
  • चारों तरफ के खेतों की भूमि का अधिग्रहण किया जावे एवं बरगद शाखाओं को आगे बढ़ने दिया जावें या लोगों का सहयोग लिया जावे कि उनके खेत की तरफ बढ़ने पर बरगद को नुकसान न पहुँचावें। खेती को हुए नुकसान की भरपाई किसानों को मुआवजा देकर किया जा सकता है।
  • जिन छोरों पर सड़न जारी है उनका कवकनाशी से उपचार कर कोलतार पोता जावे। इसे कुछ अन्तराल पर दोहराते रहना जरूरी है।
  • इस बरगद के पास विद्युत लाईन, टावर, बहुमंजिला इमारत आदि नहीं होनी चाहियें। आसपास कोई अग्नि दुर्घटना भी नहीं होने देने की व्यवस्था की जावे।
  • इसके आसपास भूमि उपयोग पैटर्न को बदला नहीं जावे।
  • उचित प्रचार‘-प्रसार, जन जागरण निरन्तर होना चाहिये।वृक्ष की जैवमिती की जानकारी देते हुये बोर्ड प्रदर्शित किया जावे।
  • प्रबन्धन राज्य वन विभाग व पर्यटन विभाग को सौंप दिया जाना चाहिये। लेकिन पंचायत के हितों की सुरक्षा की जानी चाहिये।