सरिस्का की समग्र सफलता का रास्ता और कितना लम्बा?

सरिस्का की समग्र सफलता का रास्ता और कितना लम्बा?

क्या सरिस्का में बाघों की संख्या में हुई वृद्धि इसकी समग्र सफलता का एक पैमाना हो सकती है ? या फिर अभी भी सरिस्का को एक सतत पारिस्थितिक तंत्र बनने के लिए काफी लम्बा सफर तय करना है ?

हाल ही में सरिस्का बाघ अभयारण्य में कई बाघिनों के शावकों के जन्म के कारण वन्यजीव प्रेमियों और संरक्षकों में ख़ुशी की एक लहर है क्योंकि, बाघों की एक छोटी आबादी को रणथम्भौर से सरिस्का लाये जानें के लगभग एक दशक के बाद ये वृद्धि देखने को मिली है। पिछले पांच वर्षों में बाघों की प्रजनन दर में लगातार वृद्धि देखी गई है, जो दर्शाती है कि, बाघों और उनके शावकों के लिए सरिस्का का पर्यावरण अनुकूल होता जा रहा है। लेकिन इस सफलता पर अभी भी कई सवाल मंडरा रहे हैं जैसे कि, क्या बाघों की ये बढ़ती आबादी वहां लाये गए बाघों के सफल विस्थापन का एक पैमाना हो सकती है?

क्योंकि यह वृद्धि अकेले इस कार्यक्रम की स्थिरता को तय करने के लिए निर्णायक नहीं हो सकती है। इसी क्रम में भरद्वाज एवं साथियों द्वारा, सरिस्का में बाघों द्वारा किये गए शिकारों के पैटर्न के अध्ययन से मालूम होता है कि, अभी सरिस्का को एक आत्मनिर्भर पारिस्थितिक तंत्र बनने के लिए काफी लम्बा रास्ता तय करना है (Bhardwaj et al 2020)।

बाघ जैसे शिकारी के जीवित रहने का सीधा संबंध उसके आवास, अन्य प्रतियोगी प्रजातियों की उपस्थिति और उसके आहार की गुणवत्ता एवं मात्रा से होता है और यदि आवास में पर्याप्त मात्रा में शिकार उपलब्ध न हो खासतौर से बड़ी शाकाहारी प्रजातियां तो बाघों का जीवित रहना और प्रजनन कर पाना नामुमकिन हो जाएगा। इसीलिए, आहार के प्रकार और मात्रा की जानकारी हमेशा से बाघ और तेंदुए जैसे माँसाहारी जीवों की पारिस्थितिकी के अध्ययन के बुनियादी चरणों में से एक रहा है तथा इससे ही एक पारिस्थितिक वैज्ञानिक को शिकारी एवं आहार प्रजाति के सम्बन्ध समझने में मदद मिलती है।

वर्ष 2004 में, अवैध शिकार के चलते सरिस्का में बाघों की पूरी तरह आबादी ख़त्म सी हो गयी थी उसके बाद 2008 में रणथम्भौर राष्ट्रीय उद्यान से सरिस्का टाइगर रिज़र्व में बाघों का विस्थापन किया गया और सरिस्का में कुल 21 बाघ हैं। (फोटो: श्री भुवनेश सुथार)

आज सरिस्का में कई बाघों को रेडियो कॉलर लगाया हुआ है क्योंकि, वर्ष 2004 में, अवैध शिकार के चलते सरिस्का में बाघों की पूरी तरह आबादी ख़त्म सी हो गयी थी उसके बाद 2008 में राष्ट्रीय बाघ सरंक्षण प्राधिकरण (National Tiger Conservation Authority (NTCA) द्वारा एक निर्णय लिया गया कि सरिस्का में वापस से बाघों को लाया जाएगा। उस निर्णय के चलते अलग-अलग चरणों में रणथम्भौर से कुल 5 बाघ (2 नर व 3 मादाएं) सरिस्का लाए गए थे। बाघों की इस छोटी आबादी को सरिस्का लाने का केवल एक यही उद्देश्य था, इनका प्रजनन करवा कर सरिस्का में फिर से बाघों की आबादी को बढ़ाना और यह निर्णय काफी हद्द तक सही भी साबित हुआ क्योंकि आज सरिस्का में कुल 21 बाघ हैं।

इन सभी बाघों की रेडियो कॉलर और कैमरा ट्रैप की सहायता से निगरानी की जाती है जिससे बाघों के इलाकों के क्षेत्रफल, उनके विचरण स्थान एवं पैटर्न और आपसी व्यवहार से सम्बंधित कई आकड़े प्राप्त होते हैं। तथा इन सभी आंकड़ों को सुरक्षित ढंग से समय-समय पर विश्लेषण किया जाता है ताकि बदलती परिस्थितियों के साथ नीतियों में भी उचित बदलाव किये जा सके।

रेडियो कॉलर की सहायता से मानव-मांसाहारी संघर्षों और आहार पैटर्न को भी समझा जा सकता है। (फोटो: श्री भुवनेश सुथार)

हालांकि बाघों की आहार पैटर्न का अनुमान मल विश्लेषण और शिकार से लगाया जा सकता है, परन्तु यह अध्यन पूरी तरह से बाघों द्वारा किये गए शिकारों पर आधारित है। इस अध्ययन में, जून 2016 से नवंबर 2018 तक, मुख्य रूप से बाघों की मॉनिटरिंग टीमों और बीट गार्ड द्वारा सरिस्का में बाघों और तेंदुए द्वारा किये गए शिकारों की विविधता और अन्य आंकड़ों का विश्लेषण कर बाघों के आहार पैटर्न और अभयारण्य में मवेशियों की उपस्थिति के रूप में मानवजनित दबाव का पता लगाया गया है।

क्योंकि आज सरिस्का में बाघों की आबादी निरंतर बढ़ तो रही है परन्तु अभयारण्य गंभीर रूप से मानवीय दबाव भी झेल रहा है क्योंकि सरिस्का के अंदर और आसपास कुल 175 गाँव स्थित हैं जिनमें से 26 गाँव (पहले 29 , तीन गाँवों के स्थानांतरण हो गया) क्रिटिकल टाइगर हैबिटेट (कोर क्षेत्र/Core Area) में हैं, और बाकी 146 गाँव वन क्षेत्र की सीमा से सटे व नज़दीक हैं इन 175 गाँवों में लगभग 14254 परिवार (2254 परिवार कोर क्षेत्र में और 12000 परिवार बाहरी सीमा) रहते हैं। मानव आबादी के साथ-साथ यहाँ भैंस, गाय, बकरी और भेड़ सहित कुल 30000 मवेशी (10000 अंदर और 20000 बाहरी सीमा पर) रहते हैं और इस प्रकार यह क्षेत्र गंभीर रूप से मानवीय दबाव में है।

सरिस्का के अंदर और आसपास कुल 175 गाँव स्थित हैं। (फोटो: डॉ धर्मेंद्र खांडल)

इसी कर्म में, मौजूदा अध्ययन के शोधकर्ताओं ने पुरे ढाई वर्ष (जून 2016 से नवंबर 2018) तक सभी 11 बाघों (उस समय मौजूद 11 वयस्क, 5 उप-व्यस्क और 1 शावक) की गतिविधियों (Movement Pattern), शिकार विविधता और स्थानों का अवलोकन किया। जिसमें स्थानांतरित किये गए रेडियो कॉलर्ड बाघों की निगरानी को प्राथमिकता दी गई तथा अन्य बाघों की निगरानी उनके पगचिन्हों और कैमरा ट्रैपिंग के आधार पर की गई।

बाघों की निगरानी करने के लिए कई समूह कार्यरत है। प्रत्येक समूह में दो व्यक्ति होते हैं, एक वन रक्षक और दूसरा स्थानीय ग्रामीण है जिसे रेडियो कॉलर, जी पी एस और पगमार्क द्वारा बाघों की निगरानी में प्रशिक्षित किया गया है। इन निगरानी दलों द्वारा बाघों की गतिविधि का स्थान व पैटर्न और शिकार की प्रजाति की जानकारी दर्ज की जाती और कण्ट्रोल रूम में भेजी जाती थी। शिकार की बहुतायत जानने के लिए लाइन ट्रांससेक्ट विधि का इस्तेमाल किया गया।

मांसाहारी जीवों की बदलती पारिस्थितिकी:

इस अध्ययन में बाघों और तेंदुओं द्वारा कुल 737 शिकार दर्ज किये गए, जिसमें से 500 (67.84 %) शिकार बाघों द्वारा और 227 (30.80 %) शिकार तेंदुओं द्वारा किये गए थे। बाकि 10 शिकारों की पहचान स्पष्ट नहीं हो पायी क्योंकि अधिकतम भाग खाया जा चूका था। शिकारों के सभी आंकड़ों के विश्लेषण के दौरान इनके आहार संबंधी प्राथमिकताओं में भारी परिवर्तन देखे गए हैं। क्योंकि, यदि शिकारों की विविधता को देखे तो, दर्ज किये गए सभी (n=737) शिकारों में से सबसे अधिक संख्या भैस 330 (44.48%) और उसके बाद गाय 163 (22.12%) की पायी गई। इसके अलावा सांभर 85 (11.53%), बकरी 81 (10.99%), चीतल 27 (3.66%), नीलगाय 18 (2.44%) और अज्ञात शिकार 11 (1.49%) रहे। इन सभी आंकड़ों में से यदि हम सिर्फ मवेशियों (भैंस, गाय, बकरी, भेड़, ऊंट और गधे) के शिकारों को देखे तो कुल 581 (78.83%) शिकार मवेशियों के थे।

बाघों द्वारा किये गए शिकार मुख्यरूप से मानव दबाव से रहित क्षेत्रों (Undisturbed areas) में देखे गए। कुल 500 शिकारों में से 77% मवेशी (livestock) थे जिसमें विशेषरूप से भैस (58%) शामिल थी तथा वन्यजीव शिकारों में सांभर (13.6%), चीतल (3.6%), नीलगाय (2.4%) और जंगली सुअर (1%) थे।

पशुपालन, सरिस्का के आसपास रहने वाले इन गांव वालों का मुख्या व्यवसाय है। (फोटो: डॉ धर्मेंद्र खांडल)

वैज्ञानिकों द्वारा यह माना जाता है कि, बाघ अपने शिकार को अवसरवादी रूप से मारता है यानी आसानी से मिलने वाले शिकार को पहले मारा जाएगा। ऐसे में सरिस्का जैसे क्षेत्र में मानवजनित दबाव (Anthropogenic disturbance) का हिसाब लगाने के लिए, मवेशी शिकारों (Livestock prey) के साथ वन्यजीव शिकारों (Natural Prey) के अनुपात को “अप्रत्यक्ष सूचक (Indirect index)” माना जा सकता है। ऐसे में सभी बाघों के लिए यह अनुपात 3.34 देखा गया क्योंकि, बाघों ने कुल 385 मवेशियों का शिकार किया जबकि वन्यजीव शिकार केवल 115 ही मारे गए और यह अनुपात रिज़र्व में मवेशियों की बहुतायत को दर्शाता है जो रिज़र्व के लिए अच्छा नहीं है।

यह अनुपात सबसे अधिक ST6 (17) और सबसे कम ST5 (0.8) एवं ST8 (1) के लिए पाया गया और इसका कारण यह है कि, दोनों बाघों के इलाके में वन्यजीव आहार का घनत्व अच्छा देखा गया है।

Sankar et al. द्वारा वर्ष 2010 में किए गए एक अध्ययन में पाया गया की सरिस्का में सांभर बाघों द्वारा खाये जाने वाला सबसे प्रमुख शिकार है और लगभग 45.2% शिकार सांभर के ही पाए गए तथा मवेशी (भैस और गाय) केवल 10.4% ही। इसके बाद एक अन्य अध्ययन में, सबसे अधिक सांभर (41.7%) और मवेशी (19.4%) दर्ज किया गया (Mondal et al 2012)। इसी तरह रणथम्भौर, जो आवास और वन प्रकार में सरिस्का जैसा ही है में देखा गया कि, बाघों द्वारा सबसे अधिक शिकार (54.54%) सांभर के ही किए जाते हैं और मवेशियों के 12.5%।

इस प्रकार सरिस्का में बाघों के आहार में मवेशी 10.4% (2010) से बढ़कर 19.4% (2012) हो गए। परन्तु इस अध्ययन में यह संख्या 77% पायी गई और बाघों द्वारा मवेशियों के शिकार में वृद्धि की यह खतरनाक दर स्पष्ट रूप से सरिस्का में चराई की तीव्रता में कई गुना वृद्धि का संकेत देती है।

लगातार बढ़ते अलवर शहर के प्रशिद्ध मिल्क केक व्यवसाय के कारण पिछले कुछ वर्षों में पशुपालन और भी बढ़ गया है तथा मवेशियों की इस बढ़ती हुई आबादी के कारण सरिस्का में अवैध चराई और मानवीय दबाव कई गुना बढ़ गया है। (फोटो: श्री भुवनेश सुथार)

सरिस्का में बाघ के बाद तेंदुआ बड़ी बिल्ली प्रजाति है तथा इसके द्वारा भी विभिन्न जीवों के शिकार किये जाते हैं। इसी कर्म में अध्ययन के दौरान तेंदुओं द्वारा कुल 227 शिकार किए गए जिनमें सबसे अधिक बकरियां (33.8%) थी और इसके अलावा गाय (31.1%), भैंस (16.7%), सांभर (7%), चीतल (3.9%) आदि थे तथा ज़्यादातर (76%) शिकार मानवीय बस्तियों के पास मानवजनित दबाव क्षेत्र में थे। साथ ही यह भी देखा गया है कि, सभी शिकारों में से एक बड़ा भाग 84.2% मवेशी शिकार थे।

तेंदुए द्वारा सबसे अधिक यानी 77 बार बकरियों का शिकार किया गया। परन्तु इसका अर्थ यह नहीं है कि, सिर्फ इतनी ही बकरियां मारी गई है बल्कि यह सिर्फ घटनाओं की संख्या है। दरअसल इन 77 घटनाओं में कुल 169 बकरियों का शिकार किया गया है और हर घटना में लगभग 1-12 बकरियां मारी गई थी। तथा भैसों के कुल 37 शिकारों में से 28 तो बछड़े ही थे यानी तेंदुए द्वारा व्यस्क भैसों का शिकार बहुत कम हुआ है।

इस अध्ययन में देखा गया कि, सरिस्का में तेंदुए द्वारा किये गए अधिकाँश शिकार मानव बस्तियों के पास देखे गए जबकि बाघ ने आबादित क्षेत्र से दूर शिकार किये थे। और ये दोनों ही क्षेत्र अलग-अलग होने के कारण इनमें संघर्ष स्थिति नहीं देखी गई। हालांकि बाघ और तेंदुए के देखे गए आहार में बड़े पैमाने पर मवेशी शामिल हैं, परन्तु जहाँ एक ओर बाघ बड़े से मध्यम आकार के पशु (भैंस>गाय>बकरी) पसंद करता है वहीँ दूसरी ओर तेंदुए को छोटे से मध्यम आकार के पशु (बकरी>गाय>भैंस) अधिक पसंद है।

सरिस्का बाघ अभयारण्य (फोटो: श्री भुवनेश सुथार)

बाघ एक अकेला रहने वाला जीव है साथ ही प्रत्येक बाघ को जीवित रहने के लिए आवश्यक भोजन, प्रजनन के लिए साथी और रहने का स्थान बहुत आवश्यक होता है। परन्तु, मानव प्रधान (human dominated) पर्यावास में जहां मवेशियों की उपलब्धता प्राकृतिक शिकार से अधिक होती है, तथा ऐसे में मानवीय दबाव वाले ये क्षेत्र बाघों के लिए कुछ हद्द तक महत्वपूर्ण हो जाते हैं। बाघ जैसे बड़े शिकारियों के लिए भी, जंगल में शिकार करना कोई आसान काम नहीं है और आम तौर पर दस प्रयासों में से एक बार सफलता मिलती है। बाघ अपनी ऊर्जा बनाये रखने के लिए बड़े जानवरों का शिकार करना अधिक पसंद करते हैं। यदि वन क्षेत्र में मानवीय दबाव न हो तो सांभर बाघ का पसंदीदा शिकार होता है लेकिन सरिस्का जैसे मानव-प्रधान क्षेत्र में जहाँ मवेशियों की संख्या अधिक है, बाघ शिकार करने में आसानी होने के कारण मवेशियों का शिकार करना अधिक पसंद करता है।

इस प्रकार, बाघों द्वारा मवेशियों का अधिक शिकार यह दर्शाता है कि, रिजर्व में मवेशियों की संख्या अधिक है जिन्हें अन्य शिकार की तुलना में मारना कहीं अधिक आसान है।

पशुपालन को सरिस्का के आसपास रहने वाले स्थानीय समुदायों में प्राथमिक व्यवसाय के रूप में देखा गया है ऐसे में लगातार बढ़ते अलवर शहर के प्रशिद्ध मिल्क केक व्यवसाय के कारण पिछले कुछ वर्षों में पशुपालन और भी बढ़ गया है। मवेशियों की इस बढ़ती हुई आबादी के कारण सरिस्का में अवैध चराई और मानवीय दबाव कई गुना बढ़ गया है।

एक वन पारिस्थितिक तंत्र की खाद्य श्रृंखला (food chain) में बाघ सभी माँसाहारी जीवों के ऊपर रहता है तथा उसकी आहार की आदतें प्राकृतिक आवास में एक महत्वपूर्ण स्थान रखती हैं और उनकी सामाजिक संरचना, व्यवहार और शिकार प्रजातियों के घनत्व को प्रभावित करने वाले विभिन्न कारकों को निर्धारित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं। ऑडिट-माइंडेड सरकार रिज़र्व से गाँवों को विस्थापित कर मानवीय दबाव को कम किए बिना बाघों की आबादी को बढ़ाना चाहती है। परन्तु बाघों की बढ़ती आबादी से और कुछ नहीं सिर्फ मानव-बाघ संघर्ष की घटनाएं बढ़ेंगी जिससे स्थानीय समुदायों का बाघ संरक्षण में समर्थन कम हो सकता है तथा बाघ संरक्षण व्यवस्था में मुश्किलें भी कड़ी हो सकती है।

सरिस्का में बाघों और उनके आवास को संरक्षित करने के लिए कानून को और सख्ती से लागू कर अवैध चराई पर रोक लगाने की आवश्यकता है। (फोटो: श्री हिमांशु शर्मा)

सरिस्का में वन विभाग के फ्रंटलाइन स्टाफ की बेहद कमी हैं और जो हैं उनमें भी प्रेरणा और प्रतिबद्धता की कमी है जो पिछले एक दशक के दौरान वन अपराध/वन्यजीव मामलों के पंजीकरण में गिरावट की प्रवृत्ति से स्पष्ट है और इन्हीं सबके चलते रिजर्व में मानवजनित दबाव मुख्यरूप से अवैध चराई बहुत अधिक बढ़ गई है।

सरिस्का के कोर और बफर क्षेत्र दोनों में बाघ और तेंदुए द्वारा मवेशियों के बढ़ते शिकार यदि यु ही चलते रहे तो शायद स्थानीय समुदायों में इनकी उपस्थिति के प्रति असहिष्णुता बढ़ सकती है। हालांकि रिज़र्व से गांवों के स्वैच्छिक विस्थापन की प्रक्रिया जारी है, लेकिन पिछले एक दशक से देखी गई बेहद धीमी गति ने आवास को और खराब स्थिति में ला दिया है। तथा अध्ययन के शोधकर्ताओं के सुझाव है कि, सरिस्का में कानून को और सख्ती से लागू कर अवैध चराई पर रोक लगाई जानी चाइये ताकि हानि कि गति को रोका जा सके।

References:

  • Mondal, K., Gupta, S. , Bhattacharjee, S., Qureshi, Q. and K. Sankar. (2012). Prey selection, food habits and dietary overlap between leopard Panthera pardus (Mammalia: Carnivora) and re-introduced tiger Panthera tigris (Mammalia: Carnivora) in a semi-arid forest of Sariska Tiger Reserve, Western India, Italian Journal of Zoology, 79:4, 607-616.
  • Sankar, K., Qureshi, Q., Nigam, P., Malik, PK., Sinha, PR., Mehrotra, RN., Gopal, R., Bhattacharjee, S., Mondal, K. and S. Gupta. 2010. Monitoring of reintroduced tigers in Sariska Tiger Reserve, Western India: Preliminary findings on home range, prey selection and food habits. J. Trop. Conserv. Sci., 3(3): 301-318
  • Bhardwaj, G. S., Selvi, G., Agasti, S., Kari, B., Singh, H., Kumar, A. and Reddy G.V. 2020. Study on kill pattern of re-introduced tigers, demonstrating increased livestock preference in human dominated Sariska tiger reserve, India. SCIREA Journal of Biology. 5(2): 20-39

 

Cover Photo Credit: Mr. Buvnesh Suthar

सरिस्का: आखिर क्या है टाइगर रिजर्व में बाघों की क्षेत्र सीमाओं का प्रारूप ?

सरिस्का: आखिर क्या है टाइगर रिजर्व में बाघों की क्षेत्र सीमाओं का प्रारूप ?

वैज्ञानिकों और बाघ प्रेमियों में हमेशा से यह एक चर्चा का विषय रहा है कि, आखिर बाघ का इलाका औसतन कितना बड़ा होता है? इस विषय पर प्रकाश डालते हुए राजस्थान के वन अधिकारियों द्वारा सरिस्का के सभी बाघों की क्षेत्र सीमाओं का एक अध्यन्न कर कई महत्वपूर्ण तथ्यों को उजागर किया है आइये जानते हैं

हाल ही में राजस्थान के कुछ वन अधिकारीयों द्वारा बाघों पर एक अध्ययन किया गया है जिसमें अलवर जिले में स्थित “सरिस्का बाघ परियोजना” के बाघ मूवमेंट क्षेत्र (Territory) को मानचित्र पर दर्शाकर तुलना करने का प्रयास किया गया। इस अध्ययन का मुख्य उद्देश्य बाघों की गतिविधियों और वितरण सीमा को प्रभावित करने वाले संभावित कारणों को समझना था ताकि बाघों की बढ़ती आबादी के फैलाव और उसके साथ मानव-बाघ संघर्ष की घटनाओं को कम करने के लिए बेहतर योजनाए भी बनाई जा सके (Bhardwaj et al 2021)।

दअरसल सरिस्का अभयारण्य में विभाग द्वारा अधिकतर बाघों को रेडियो कॉलर किया हुआ है तथा इनकी नियमित रूप से निगरानी की जाती है। निगरानी के सभी आंकड़ों को सुरक्षित ढंग से समय-समय पर विश्लेषण किया जाता है ताकि बदलती परिस्थितियों के साथ नीतियों में भी उचित बदलाव किये जा सके। नियमित रूप से निगरानी और वैज्ञानिक तरीकों से एकत्रित आंकड़ों की मदद से यहाँ बाघों के स्वभाव एवं पारिस्थितिकी को समझने के लिए विभिन्न प्रकार के शोध भी किये जाते हैं।

सरिस्का अभयारण्य में विभाग द्वारा अधिकतर बाघों को रेडियो कॉलर किया हुआ है तथा इनकी नियमित रूप से निगरानी की जाती है (फोटो: श्री हिमांशु शर्मा)

मुख्यत: राजस्थान के अर्ध-शुष्क एवं अरावली पर्वत श्रृंखला का भाग सरिस्का बाघ परियोजना जो कि अलवर जिले में स्थित हैं इसका कुल क्षेत्रफल 1213.31 वर्ग किलोमीटर है। यहाँ मुख्यरूप से उष्णकटिबंधीय शुष्क पर्णपाती वन हैं, जिसमें धोक (Anogeissus pendula) सबसे ज्यादा पायी जाने वाली वृक्ष प्रजाति है। इसके अलावा सालार (Boswellia serrata), Lannea coromandelica , कत्था (Acacia catechu), बेर (Zizyphus mauritiana), ढाक (Butea monosperma) और केर (Capparis separia) आदि पाई जाने वाली अन्य प्रजातियां हैं। वन्यजीवों में बाघ यहाँ का प्रमुख जीव है इसके अलावा यहाँ तेंदुआ, जरख, भालू, सियार, चीतल, सांबर, लोमड़ी आदि भी पाए जाते हैं।

सरिस्का में स्थित सूरज कुंड बाउरी (फोटो: श्री हिमांशु शर्मा)

वर्ष 1978 में सरिस्का को बाघों की आबादी के लिए एक महत्वपूर्ण स्थान समझते हुए “बाघ परियोजना (Project Tiger) का हिस्सा बनाया गया था। परन्तु वर्ष 2004 में, अवैध शिकार के चलते सरिस्का में बाघों की पूरी तरह आबादी ख़त्म सी हो गयी थी उसके बाद 2008 में राष्ट्रीय बाघ सरंक्षण प्राधिकरण (National Tiger Conservation Authority (NTCA) द्वारा एक निर्णय लिया गया कि सरिस्का में वापस से बाघों को लाया जाएगा।

सरिस्का में दुबारा बाघों को लाने के लिए, सरिस्का से 240 किलोमीटर दूर राजस्थान के एक और सबसे प्रसिद्ध बाघ अभयारण्य “रणथम्भौर” का चयन किया गया तथा 28 जून 2008 को भारतीय वायुसेना के विंग कमांडर विमल राज (wing commander Vimal Raj) द्वारा रणथम्भौर राष्ट्रीय उद्यान से सरिस्का टाइगर रिज़र्व में पहली बाघ (ST-1) विस्थापन की प्रक्रिया को Mi-17 हेलीकॉप्टर की मदद से सफल बनाया गया।

उस समय अलग-अलग चरणों में रणथम्भौर से कुल 5 बाघ (2 नर व 3 मादाएं) सरिस्का लाए गए थे। बाघों की इस छोटी आबादी को सरिस्का लाने का केवल एक यही उद्देश्य था, इनका प्रजनन करवा कर सरिस्का में फिर से बाघों की आबादी को बढ़ाना और यह निर्णय काफी हद्द तक सही भी साबित हुआ क्योंकि आज सरिस्का में कुल 21 बाघ हैं।

बाघिन ST9 (फोटो: श्री हिमांशु शर्मा)

आज सरिस्का में बाघों की आबादी निरंतर बढ़ तो रही है परन्तु अभयारण्य गंभीर रूप से मानवीय दंश भी झेल रहा है क्योंकि सरिस्का के अंदर और इसके आसपास कुल 175 गाँव स्थित हैं जिनमें से 26 गाँव (पहले 29 , तीन गाँवों के स्थानांतरण हो गया) क्रिटिकल टाइगर हैबिटेट (कोर क्षेत्र/Core Area) में हैं, और बाकी 146 गाँव वन क्षेत्र की सीमा से सटे व नज़दीक हैं इन 175 गाँवों में लगभग 14254 परिवार (2254 परिवार कोर क्षेत्र में और 12000 परिवार बाहरी सीमा) रहते हैं और इस प्रकार यह क्षेत्र गंभीर रूप से मानवीय व्यवहार के दबाव में है।

पिछले कुछ वर्षों में यह भी देखा गया है कि, बाघों की बढ़ती आबादी के कारण कुछ शावक अपना क्षेत्र स्थापित करने हेतु अभयारण्य की सीमा को पार कर गाँवों के आसपास चले गए थे ऐसे में बाघों के मानव बस्तियों के आसपास जाने के कारण बाघ-मानवीय संघर्ष की घटनाएं भी हो उतपन्न हो जाती हैं

बाघों की  बढ़ती आबादी व इनकी गतिविधियों को देखते हुए, विभाग द्वारा सभी बाघों की क्षेत्र सीमाओं को समझने की आवश्यकता और भी बढ़ जाती है ताकि यह अनुमान लगाया जा सके की वन क्षेत्र बिना किसी संघर्ष घटनाओं के सफलतापूर्वक कितने बाघों को रख सकता है तथा बढ़ती आबादी के अनुसार उचित उपाय ढूंढे जा सके।

जीवित रहने के लिए आवश्यक भोजन, आराम, प्रजनन के लिए साथी, रहने के स्थान की तलाश और अन्य कारणों से जुड़ी गतिविधियों के दौरान बाघ इन इलाकों को पार कर दूसरे बाघ के इलाके में चले जाते हैं (फोटो: श्री हिमांशु शर्मा)

बाघ, पुरे विश्व में बिल्ली परिवार का सबसे बड़ा सदस्य है जो विभिन्न प्रकार के पर्यावासों में रहने के लिए अनुकूल है। इन आवासों में पर्यावरणीय विविधताओं के कारण शिकार की बहुतायत में भी अंतर देखे जाते हैं और इसी कारण बाघों की वितरण सीमा में भी भिन्नता देखी गई है। बाघ एक अकेला रहने वाला जीव है साथ ही प्रत्येक बाघ का अपना एक निर्धारित क्षेत्र (इलाका/Territory) होता है।

वहीँ दूसरी ओर जब हम प्रकाशित सन्दर्भों को देखते हैं तो विभिन्न तरह की बाते सामने आती हैं जैसे कि, जीवित रहने के लिए आवश्यक भोजन, आराम, प्रजनन के लिए साथी, रहने के स्थान की तलाश और अन्य कारणों से जुड़ी गतिविधियों के दौरान बाघ इन इलाकों को पार कर दूसरे बाघ के इलाके में चले जाते हैं।

सरिस्का के बाघों की वंशावली:
क्र स  बाघ  ID लिंग माँ का नाम  जन्म स्थान  वर्तमान स्थिति  इलाके का क्षेत्रफल (वर्ग किमी )
1 ST1 नर रणथम्भौर मृत
2 ST2 मादा रणथम्भौर जीवित 19.34
3 ST3 मादा रणथम्भौर जीवित 172.75
4 ST4 नर रणथम्भौर मृत 85.4
5 ST5 मादा रणथम्भौर मृत 51.91
6 ST6 नर रणथम्भौर जीवित 79.94
7 ST7 मादा ST2 सरिस्का जीवित 16.59
8 ST8 मादा ST2 सरिस्का जीवित 43.04
9 ST9 मादा रणथम्भौर जीवित 85.24
10 ST10 मादा रणथम्भौर जीवित 80.1
11 ST11 नर ST10 सरिस्का मृत 57.63
12 ST12 मादा ST10 सरिस्का जीवित 50.87
13 ST13 नर ST2 सरिस्का जीवित 61.39
14 ST14 मादा ST2 सरिस्का जीवित 36.58
15 ST15 नर ST9 सरिस्का जीवित 47.67
16 ST16 नर रणथम्भौर जीवित

 

कई विशेषज्ञों के शोध यह भी बताते हैं कि, नर बाघ का इलाका उसकी ऊर्जा की जरूरत को पूरा करने से भी काफी ज्यादा बड़ा होता है और ये इसीलिए हैं ताकि बाघ अपने प्रजनन के अवसरों को अधिकतम कर सके। इसी प्रकार के कई तर्क एवं तथ्य संदर्भो में देखने को मिलते हैं।

मौजूदा अध्ययन के शोधकर्ताओं ने पुरे एक वर्ष (2017 -2018) तक सभी बाघों (उस समय मौजूद कुल 16 बाघों) की गतिविधियों (Movement Pattern) का अवलोकन किया। जिसमें स्थानांतरित किये गए रेडियो कॉलर्ड बाघों की निगरानी को प्राथमिकता दी गई तथा अन्य बाघों की निगरानी उनके पगचिन्हों के आधार पर की गई। इसके अलावा सभी बाघों को उनकी उम्र के आधार पर तीन भागों में बांटा गया; शावक (<1.5 वर्ष), उप-वयस्क (1.53 वर्ष) और वयस्क (> 3 वर्ष)। इसके पश्चात सभी बाघों के मूवमेंट क्षेत्रो को मानचित्र पर दर्शाने के साथ तुलना भी की गई।

रेडियो-टेलीमेट्री के महत्त्व को देखते हुए सरिस्का में अब तक नौ बाघ रेडियो कॉलर किये गए हैं जिनमे सात बाघ वे हैं जो रणथम्भोर से लाये गए थे और दो नर बाघ (ST11 और ST13) जो सरिस्का में ही पैदा हुए थे।

ST11 और ST13 के अलावा आज तक सरिस्का में पैदा होने वाले किसी भी बाघ को रेडियो-कॉलर नहीं लगाया गया है क्योंकि ये दोनों बाघ अपना क्षेत्र स्थापित करने के दौरान काफी बड़े इलाके और अभयारण्य की सीमा के बाहरी छोर पर घूम रहे थे। ऐसे में इनकी सुरक्षा को देखते हुए इनको रेडियो कॉलर लगाया गया।

इन नौ बाघों के अलावा बाकी सभी बाघों की पगचिन्हों और कैमरा ट्रैप के आधार पर ही निगरानी की जाती है।

अध्ययन द्वारा एकत्रित किए गए आंकड़ों की जांच से पता चलता है कि, सरिस्का में बाघिनों की क्षेत्र सीमा न्यूनतम 16.59 किमी² से अधिकतम 172.75 किमी² तक हैं, जिसमें से सबसे छोटा क्षेत्र बाघिन ST7 (16.59 किमी²) का तथा सबसे बड़ा क्षेत्र ST3 (172.75 किमी²) का देखा गया है। अन्य बाघिनों जैसे ST9 का क्षेत्र 85.24 किमी², ST10 (80.10 किमी²), ST5 (51.91 किमी²), ST12 (50.87 किमी²), ST8 (43.04 किमी²),  ST14 (36.58 किमी²) और ST2 (19.34 किमी²) तक पाए गए।

पिछले वर्षों में सरिस्का के अलावा अन्य अभयारण्यों में हुए कुछ अध्ययनों की समीक्षा से ज्ञात होता है कि, अमूर बाघों के क्षेत्र अपर्याप्त शिकार और आवास की गुणवत्ता की कमी के कारण बड़े होते हैं वहीँ दूसरी ओर भारतीय उपमहाद्वीप में वयस्क मादाओं के क्षेत्र पर्याप्त मात्रा में शिकार उपलब्ध होने के कारण छोटे होते हैं। इस अध्ययन में भी कुछ ऐसा ही देखा गया है जहाँ बाघिन ST7, ST2, ST14, और ST8 के क्षेत्र, शिकार की बहुतायत होने के कारण छोटे (50 किमी² से छोटे) हैं।

परन्तु सरिस्का के बाघों की वंशावली को ध्यानपूर्वक देखा जाए तो बाघिन ST2 इन सभी बाघिनों (ST7, ST14 और ST8) की माँ है तथा इनके ये क्षेत्र “female philopatry” का परिणाम है जिसमें, ST2 के क्षेत्र में उसकी बेटियों को जगह मिल गई है तथा ST2 का क्षेत्र 181.4 किमी² से कम होकर 19.34 किमी² रह गया है। इस तरह की female philopatry को कई मांसाहारी प्रजातियों में भी देखी गई है, जिसमें उप-वयस्क मादाओं को अक्सर अपनी माँ के क्षेत्र में ही छोटा हिस्सा प्राप्त हो जाता है और नर शावकों को लम्बी दुरी तय कर अन्य स्थान पर जाकर अपना क्षेत्र स्थापित करना पड़ता है।

कई अध्ययन इस व्यवहार के लिए एक ही कारण बताते हैं और वो है बेटियों की प्रजनन सफलता बढ़ाना। हालाँकि ST2 की केवल एक ही बेटी (ST14) ने सफलतापूर्वक दो मादा शावकों जन्म दिया व पाला है।

वहीँ दूसरी ओर अन्य बाघिनों जैसे ST3 (172.75 km²), ST9 (85.25 km²) और ST10 (80.10 km²) के क्षेत्र काफी बड़े थे क्योंकि इनके इलाके सरिस्का में ऐसे स्थान पर हैं जहाँ मानवजनित दबाव अधिक होने के कारण शिकार की मात्रा कम है तथा इसके पीछे एक और कारण प्रतीत होता है कि, अलग वंशावली के होने के कारण, इन बाघिनों को अन्य बाघिनों द्वारा कम शिकार और अपेक्षाकृत अशांत क्षेत्रों में बसने के लिए मजबूर किया गया है।

यदि नर बाघों की क्षेत्र सीमाओं की तुलना की जाए तो, बड़ी उम्र और पहले स्थान घेरने के कारण पहले सरिस्का भेजे गए नर बाघों के इलाके नए पैदा हुए नरों से बड़े हैं। सबसे बड़ा क्षेत्र ST11 (646.04 km²) का देखा गया है। परन्तु यदि वर्ष के सभी महीनों की औसत निकाली जाए तो सबसे बड़ा क्षेत्र ST4 (85.40 km²) का और सबसे छोटा क्षेत्र ST15 (47.67 km²) का दर्ज किया गया है। इसके अलावा अन्य बाघों के इलाके ST6 (79.94 km²), ST13 (61.39 km²) और ST11 (57.63 km²) तक पाए गए।

अध्ययन में यह भी पाया गया कि, वर्ष 2017 में, बाघिन माँ ST9 से अलग होने के शुरुआती महीनों के दौरान ST15 का क्षेत्र अधिकतम (189.5 किमी²) हो गया था, लेकिन सरिस्का के दक्षिणी भाग में बस जाने के बाद इसका क्षेत्र धीरे-धीरे कम हो गया था। इसी प्रकार शुरुआत में ST13 (687.58 वर्ग किमी) का क्षेत्र भी काफी बड़ा था जो की बाद में कम हो गया था।

मार्च 2018 में, नर बाघ ST11 की किसी कारण वश मृत्यु हो गई और शोधकर्ताओं का यह अनुमान था कि, इसके बाद अन्य नरों के क्षेत्रों में वृद्धि होगी परन्तु यह अनुमान गलत साबित हुआ और बाघों की क्षेत्र सीमाओं में गिरावट देखी गई।

बाघों के इलाके पूर्ण रूप से अलग-अलग होते हैं या कहीं-कहीं एक दूसरे में मिलते भी हैं इस प्रश्न को हल करने के लिए सभी बाघों के प्रत्येक माह और पुरे वर्ष के इलाकों को मानचित्र पर दर्शाया गया। जब सभी नर बाघों की प्रत्येक माह की क्षेत्र सीमाओं को देखा गया तो वे पूर्णरूप से अलग-अलग थी। परन्तु, पुरे वर्ष की क्षेत्र सीमाएं कुछ जगहों पर एक-दूसरे से मिल रही थी, जिसमें सबसे अधिक ओवरलैप ST4 व ST11 और  ST4 व ST13 के बीच में देखा गया।

ऐसा इसलिए था क्योंकि नर बाघ ST11 और ST13 युवा हैं और उस समय वे अपना क्षेत्र स्थापित करने के लिए अभयारण्य में अधिक से अधिक क्षेत्र में घूम रहे थे। परन्तु ST11 की मृत्यु के बाद यह ओवरलैप कम हो गया।

कई अध्ययन यह भी बताते हैं कि, नर बाघ की मृत्यु के बाद अन्य बाघ उस क्षेत्र को कब्ज़ा कर अपने क्षेत्र को बड़ा कर लेते हैं परन्तु इस अध्ययन में किसी भी बाघ की सीमाओं में बदलाव नहीं देखे गए तथा यह पहले से बसे नर बाघों के गैर-खोजपूर्ण व्यवहार के बारे में संकेत देता है।

रेडियो-टेलीमेट्री एक महत्वपूर्ण तकनीक है तथा बाघों की निगरानी के लिए इसे प्राथमिकता दी जानी चाहिए। (फोटो: श्री हिमांशु शर्मा)

अध्ययन में यह भी पाया गया कि, नर बाघों का क्षेत्र कुछ मादाओं के साथ लगभग पूरी तरह से ओवरलैप करता है और कुछ मादाओं के साथ बिलकुल कम। युवा बाघ ST15 के अलावा बाकि सभी नरों के क्षेत्र मादाओं के साथ ओवरलैप करते हैं। अपना क्षेत्र स्थापित करने के दौरान ST11 का संपर्क सभी मादाओं के क्षेत्रों के साथ रहा है। इसके अलावा वर्ष के अलग-अलग महीनों में लगभग सभी बाघों की क्षेत्र सीमाओं में थोड़ी बहुत कमी, विस्तार और विस्थापन भी देखा गया है जिसमें सबसे अधिक मासिक विस्थापन युवा बाघ ST15 के क्षेत्र में (4.23 किमी) देखा गया और एक स्थान पर बस जाने के बाद यह कम हो गया। इसके बाद ST4 (2.04 किमी), ST13 (1.88 किमी), ST6 (1.69 किमी), और न्यूनतम विस्थापन ST11 (1.51 किमी) के क्षेत्र में दर्ज किया गया। परन्तु सभी बाघों की सीमाओं में ये बदलाव सरिस्का जैसे मानव-बहुल पर्यावास में एक ज़ाहिर सी बात है।

इस अध्ययन से यह स्पष्ट होता है कि, सभी बाघों की क्षेत्र सीमायें (Territories) अलग-अलग तो होती हैं लेकिन विभिन्न कारणों की वजह से यह वर्ष के किसी भी समय में बदल सकती हैं तथा पूर्णरूप से निर्धारित कुछ भी नहीं है। सरिस्का जैसे अभयारण्य में जहाँ मानवजनित दबाव बहुत है बाघों की बढ़ती आबादी के साथ-साथ मानव-वन्यजीव संघर्ष भी बढ़ सकते हैं और ऐसे में रेडियो-टेलीमेट्री (radio-telemetry) एक बहुत ही महत्वपूर्ण तकनीक है तथा बाघों की निगरानी के लिए इसे प्राथमिकता दी जानी चाहिए। इस तरह की तकनीक का इस्तेमाल कर भविष्य में होने वाले मानव-वन्यजीव संघर्षों को कम किया जा सकता है तथा बहार निकले वाले बाघों को वापिस से संरक्षित क्षेत्र के अंदर स्थानान्तरण किया जा सकता है।

सन्दर्भ:

Bhardwaj, G.S., Selvi, G., Agasti, S., Kari, B., Singh, H., Kumar, A., Gupta, R. & Reddy, G.V. (2021). The spacing pattern of reintroduced tigers in human-dominated Sariska Tiger Reserve, 5(1), 1-14

लेखक:

Meenu Dhakad (L) has worked with Tiger Watch as a conservation biologist after completing her Master’s degree in the conservation of biodiversity. She is passionately involved with conservation education, research, and community in the Ranthambhore to conserve wildlife. She has been part of various research projects of Rajasthan Forest Department.

Dr. Gobind Sagar Bhardwaj (R), IFS is APCCF and Nodal officer (FCA) in Rajasthan. He has done his doctorate on birds of Sitamata WLS. He served in the different ecosystems of the state like Desert, tiger reserves like Ranthambhore and Sariska, and protected areas of south Rajasthan and as a professor in WII India. He is also a commission member of the IUCN SSC Bustard Specialist Group.

 

 

क्यों राजस्थान के विभिन्न क्षेत्रों में अधिक से अधिक बाघों के लिए घर बनाना चाहिए और उनमें ज़िम्मेदारी के साथ बाघों को स्थापित करना चाहिए?

क्यों राजस्थान के विभिन्न क्षेत्रों में अधिक से अधिक बाघों के लिए घर बनाना चाहिए और उनमें ज़िम्मेदारी के साथ बाघों को स्थापित करना चाहिए?

वर्तमान में संरक्षित क्षेत्रों (अभयारण्य / राष्ट्रीय उद्यान) को बाघ अभ्यारण्य में परिवर्तित करने की लगातार मांग हो रही है। वह क्षेत्र भले ही बाघों के लिए उपयुक्त हो या नहीं , लेकिन गैर-सरकारी संगठन, स्थानीय पर्यावरण कार्यकर्ता और राजनेता अपने आसपास के पार्क को टाइगर रिज़र्व घोषित करवाने को  एक बड़ी उपलब्धि के रूप में लेते हैं। परन्तु सिर्फ कागज़ों में संरक्षण के स्तर को बदलना आसान हैं, लेकिन इतना मात्र पर्याप्त नहीं है, बल्कि किसी भी क्षेत्र में बाघों को बनाए रखना, उनके लिए अनुकूल हैबिटैट बनाना, वह भी इस भीड़ भरे देश में एक बड़ी ज़िम्मेदारी है और यह आसान भी नहीं हैं।

वर्तमान में राजस्थान में रणथंभौर ही एक अकेला स्वस्थ बाघ रिज़र्व है जहाँ अच्छी मात्रा में बाघ रहते हैं। अक्सर राजस्थान के अन्य हिस्सों से  बाघों की मांग रणथंभौर से जुड़े लोगो को चिंतित कर देती हैं। रणथंभौर ‘समर्थकों’ के मध्य यह विचार बन रहा हैं की सरिस्का एवं मुकन्दरा  आदि जैसे अन्य संरक्षित क्षेत्र बाघों के लिए असुरक्षित हैं। यह लोग मानते हैं की रणथंभौर के अलावा, राज्य के अन्य सभी क्षेत्र बाघों के लिए नरक के सामान हैं।

दूसरी ओर, उन क्षेत्रों से जुड़े लोग मानते हैं कि रणथंभौर में पर्यटन लॉबीस्ट, बाघों को राज्य के अन्य क्षेत्रों में भेजने का विरोध करते हैं, ताकि बाघ पर्यटन पर अपना एकाधिकार बनाए रख सकें।

मुझे लगता है कि दोनों तरफ के लोग कहीं बाघ संरक्षण के मूल आधार से विचलित हो रहे हैं। मेरी राय में, हमें राजस्थान में बाघों के लिए हर संभव और अधिक से अधिक उपयुक्त क्षेत्र विकसित करने चाहिए। यह रणथंभौर के बाघों की दीर्घकालिक सुरक्षा के लिए आवश्यक है। इस महामारी के युग में यह कल्पना करना मुश्किल नहीं है एक अकेली आबादी किसी भी अनजान बीमारी की चपेट में आ सकती है और कुछ ही दिनों में यह पूर्ण तय समाप्त भी हो सकती हैं। आजकल कई सारे बैंक खाते रखना, होने संभावित वाली लूट के खिलाफ एक सुरक्षित रणनीति है, एक कालातीत मुहावरा आपने अवश्य सुना होंगे की अपने सभी अंडे एक टोकरी में नहीं डालने चाहिए, इस संदर्भ में यह पूरी तरह से उपयुक्त है।

इतिहास में ऐसे कई उदाहरण हैं, जब किसी एक प्राणी की बड़ी आबादी मात्र कुछ ही हफ्तों में ही विलुप्त हो गयी। किसी ने बहुत ही सावधानीपूर्वक इस तरह के विलोपन की जानकारी एकत्रित की है, जिसे आप यहां देख सकते हैं-

यह पूरी तरह गलत नहीं हैं की MHTR – कोटा, सरिस्का, रामगढ़ विषधारी -बूँदी, कुंभलगढ़ आदि आज भी अत्यंत असुरक्षित स्थान हैं एवं बाघों के लिए अत्यंत जोखिम भरे हैं। फिर हम क्यों नहीं कोई सुरक्षित रणनीति बना पा रहे हैं, इसके दो मुख्य कारण हैं-

  1. एक स्थान से बाघ पकड़ कर नए स्थानों पर छोड़ना शायद सबसे आसान काम हैं परन्तु उन स्थानों को विकसित एवं सुरक्षित आवास में तब्दील करने में बहुत अधिक धन और निवेश की आवश्यकता होती है, और साथ ही हम यह स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं हैं, इसके बाद उस निवेश को पुनः कैसे प्राप्त किया जायेगा, इसीलिए अभी तक सरकारें बाघों के संरक्षण को एक बोझ की तरह समझती हैं।
  2. आमतौर पर बाघों का परिचय जल्दबाजी में लिए जाने वाले राजनीतिक फैसले होते हैं और जब सरकार बदलती है तो सब ठंडा हो जाता है।

हम सब जानते हैं की MHTR के मामले में, 4 बाघ छोड़े गये थे, लेकिन असल में मात्र  2 बाघों को ही स्थानांतरित किया गया था। दो बाघ अपने आप पहुंच गए। MT3 (T98) अपने आप उस सटीक जगह पर पहुंचा जहां वाल्मिक थापर और डॉ। जीवी रेड्डी की टीम ने MHTR में बाघों को लाने का फैसला किया था। उसे रणथम्भौर से वहाँ पहुँचने में मात्र एक महीना लगा। इसी तरह, MT1 (T91) ने  पहले ही रणथंभौर को छोड़ दिया और रामगढ़ विषधारी वन्यजीव अभ्यारण्य की ओर बढ़ गया था और यहां तक कि वह इसे भी पार कर भीलवाड़ा जिले में पहुंच गया था और एक बार तो उसने MHTR तक पहुंचने की कोशिश भी की थी, लेकिन रस्ते के अवरोध के कारण वह MHTR से कुछ ही किलोमीटर दूर रह गया था।

एक लम्बे समय तक T91 का रामगढ विषधारी में  रुके रहना शायद यह भ्रम देता हैं की यह एक सुरक्षित ठिकाना हैं, वास्तव में यह पूरी तरह सही नहीं हैं क्योंकि उसे रोके रखने के लिए कई तरह के प्रयास किये गये थे, जैसे उसे तय समय पर, तय स्थान पर खाना देना, यह असल में उसे पकड़ने की रणनीति का एक हिस्सा था। रामगढ़ विषधारी के समर्थक अक्सर यह कसक दिल में रखते हैं की बाघ को यहाँ से पकड़ कर कोटा क्यों छोड़ा गया? क्योंकि आज भी रामगढ़ विषधारी पूरी तरह सुरक्षित नहीं एवं इतिहास की घटनाओ ने भी सिद्ध किया हैं की सामाजिक स्टार पर बाघों के अनुकूल माहौल बनाना अभी बाकि हैं, मात्र एक दो वन्यप्रेमीयो के अखबारों के बयान रामगढ़ विषधारी को बाघों के लिए मुफीद नहीं बनाता।

रणथंभौर ने निश्चित रूप से T83 और T106 नमक दो मादा बाघों को स्थानांतरित किया था । लाइटनिंग अथवा T83 लगातार बाहर जा रही थी और शेरपुर / खव्वा गांव के निवासी के लिए कई तरह की समस्या पैदा कर रही थी, वे निरंतर यह मांग कर रहे थे, कि उसे एक सुरक्षित क्षेत्र में स्थानांतरित कर दिया जाए और इसी तरह T106 भी उसकी माँ और दो अन्य बहनों के बीच रणथम्भौर के एक कोने में अपर्याप्त स्थान में रह रही थी।  मैं यहां यह साबित करने की कोशिश कर रहा हूं, MHTR में बाघों को छोड़ना, आंशिक रूप से एक प्राकृतिक घटना थी और आंशिक रूप से रणथम्भौर के लिए एक तनाव मुक्त करने का जरिया भी।

MHTR में छोड़े गये बाघों का चयन तकनीकी रूप से बहुत सही था और यह किसी भी तरह से रणथम्भौर के लिए भार नहीं था, जैसे सरिस्का के समय  WII के जीवविज्ञानी और अधिक दबाव वाले वन अधिकारियों ने  गलत बाघों का चयन किया था – जिसमें कोई भाई-बहन था, कोई बाघ ऐसे थे जिन्होंने अपनी टेरिटरी स्थापित करली थी अथवा पर्यटन क्षेत्र को प्रभावित करने वाले बाघ।

सरिस्का के समय अत्यंत गलत बाघों का चयन किया गया, जिससे बाघो के परिवारों को भी नुकसान पहुंचा। T12 का चयन यह भलीभांति  साबित करता है। सरिस्का के लिए हर समय रणथम्भौर में आसानी से मिलने, दिखने वाले बाघों का चयन किया गया और इससे निश्चित रूप से रणथम्भौर में पर्यटन से जुड़े लोगों में आक्रोश भी रहा। यह प्रयास पुनः भी किया गया, जब T65  का चयन सरिस्का के लिए किया गया, जो T73  मादा के साथ उसके 4 शावको का पिता हैं। खैर इस बार श्री अयान साधु – WII के वैज्ञानिक ने इसे समर्थन नहीं किया वरना पूर्व फील्ड डायरेक्टर उसे सरिस्का भेजने पर तुले हुए थे।

राजनीतिक रूप से प्रेरित या तर्कहीन अवैज्ञानिक रूप से बाघों की अनुचित हैं। जैसे रामगढ़ विषधारी-बूँदी से पहले कुंभलगढ़ में बाघों को लाने का कोई औचित्य नहीं है।

बूँदी के जंगल रणथम्भौर की बाघों की एक बड़ी आबादी के करीब हैं और उनके बीच टुटा फूटा एक गलियारा भी मौजूद है। यदपि कुम्भलगढ़ भी एक अच्छा निवास स्थान है, लेकिन यह रणथम्भौर के बाघों की मुख्य आबादी से तुलनात्मक रूप से दूर है, लेकिन रामगढ़ और MHTR  के विकास को प्राथमिकता देने के बाद, कुंभलगढ़ को बाघों के लिए भी विकसित किया जाना चाहिए ।

अतः अन्य क्षेत्रों में बाघों को छोड़ा जाना अत्यंत आवश्यक है ताकि हम अपने बाघों को आजकल फैलने वाली महामारियों से बचा सके । दूसरा हम रणथम्भौर को बाघों की बढ़ती आबादी के दबाव से मुक्त रख सकें। परन्तु सही बाघ का चयन आवश्यक है और सबसे महत्वपूर्ण बात यह है  कि नये क्षेत्रों को सुरक्षित बनाना और उनके लिए एक दीर्घकालिक संरक्षण रणनीति बनाना हैं । अप्राकृतिक कारणों से बाघों को मरते देखना बहुत दर्दनाक होता है।

 

 

 

क्यों राजस्थान के विभिन्न क्षेत्रों में अधिक से अधिक बाघों के लिए घर बनाना चाहिए और उनमें ज़िम्मेदारी के साथ बाघों को स्थापित करना चाहिए?

Why more and more tigers should be introduced to different areas in Rajasthan

There is a persistent demand for converting Protected Areas (sanctuaries/ national park) into tiger reserves in India is a new trend. The area may not be suitable for tigers or habitat is degraded but NGOs, local environmental activists and politicians take the conversion issue as an achievement. Elevating conservation status just into papers is not enough but to sustain tiger’s in any areas, in this over crowded country is a big responsibility.

Rajasthan has a lone, but healthy tiger population in Ranthambhore. Each demand for tigers from other parts of Rajasthan raises eyebrows in Ranthambhore (including people who may not necessarily live in Ranthambhore, since some Ranthambhore tigers popular with tourists have fan followings across the globe). There is a common belief among the Ranthambhore ‘supporters’, that we should not give tigers to other protected areas like Sariska, MHTR etc. because they are not safe and therefore not good habitats for tigers. In their words, besides Ranthambhore, all other areas in the state are hell for tigers. On the other hand, there are also many people who believe that there are lobbyists in Ranthambhore resisting the introduction of tigers to other areas in the state, only so that they can maintain their monopoly on tiger tourism in Rajasthan. I think both beliefs are misinformed and wrong. In my opinion, we should develop all possible and suitable areas in Rajasthan for tigers. This is essential to the long-term safety of Ranthambhore tigers. It is not difficult to imagine, especially in the pandemic era, just how vulnerable a lone population is to disease and how it can be wiped out within a few days if things go wrong. Keeping multiple bank accounts is a safe strategy against loot and I think the timeless warning of ‘not putting all your eggs in one basket’ is perfectly apt in this context.

There are many historical examples of when even the large size of an animal population hasn’t prevented it from diminishing in a few weeks. Check here (http://end-times-prophecy.org/animal-deaths-birds-fish-end-times.html) someone has meticulously gathered lots of information. While most of us agree on this, we still harbour doubts that the areas are not safe homes for introduced tigers and that if we do take a risk to introduce tigers to MHTR, Sariska, RBS- Bundi, Kumbhalgarh etc. their chances of perishing increase manyfold.

This line of thought is not entirely unreasonable, because the authorities are not making a fool proof strategy for a couple of reasons- 1. All such programs need high fund investment, and we are not ready to accept that there should be a clear-cut money recovery plan, so that governments do not consider the introduction of tigers a burden on their funds. 2. Usually tiger introductions are hasty political decisions and when the government changes programs, all goes cold.

In the case of MHTR, 4 tigers have been introduced, but  only 2 tigers were actually relocated. Two tigers reached on their own. MT3 (T98) arrived on his own bang on the exact spot where Valmik Thapar and Dr. GV Reddy’s team decided to introduce tigers in MHTR. He took a month to reach there from Ranthambhore. Similarly, MT1 (T91) left Ranthambhore and moved towards the Ramgarh Bishdhari Wildlife Sanctuary and even crossed RBS and reached Bhilwara district and he was trying to reach MHTR, but remained only  a few kilometres away from the place. You may not be aware that he turned back because we were luring him to localize him in a particular spot in RBS, so he could be captured and introduced in MHTR. Ranthambhore definitely relocated T83 and T106.  T83 was continuously going out and causing problems for the Sherpur/ Khawa villagers, they were demanding that she should be shifted  to a safe area and similarly T106 was  also squeezed among her mother and two other sisters in Sultanpur. What I am trying to prove here is that this introduction was partly a natural phenomenon and partly a stress buster for Ranthambhore too.

The selection of these tigers was technically very correct and  was not at all like the haphazard  Sariska introduction, where a time crunched WII biologist  and over pressurized forest officials selected the wrong tigers for introduction-  such as siblings, resident tigers or tigers from the centre of the park. Erroneous tiger selection not only disrupted sightings etc in Ranthambhore, but also damaged tiger families. The  selection of T12 proves this. They always selected easily accessible tigers in Ranthambhore and this definitely scared those involved in tourism in Ranthambhore among  others.

Politically motivated or irrational demands for tigers  are also harmful. There is no point in introducing tigers to Kumbhalgarh before RBS- Bundi. The forests of Bundi  are not only suitable, but are also very close  to the bulk population of RTR and a more or less safe corridor also exists between them. Kumbhalgarh is good habitat,  but it is comparatively far from the source population in RTR,  but after prioritizing  the development of RBS & MHTR, Kumbhalgarh can also be developed for tigers.

So, introducing  tigers to other areas is necessary because it is always good to keep your eggs in many baskets. Second it is essential to introduce tigers to other areas so we can keep Ranthambhore pressure free. Selection of the right tiger is essential and the most important thing is to secure the areas of introduction and make a long term conservation strategy that is fool proof. It is always very painful to see tigers die due to unnatural reasons.

 

रामगढ विषधारी अभयारण्य–राजस्थान के बाघों का अनौपचारिक आशियाना

रामगढ विषधारी अभयारण्य–राजस्थान के बाघों का अनौपचारिक आशियाना

हमेशा से बाघों के अनुकूल रहा, राजस्थान का एक ऐसा क्षेत्र जो बाघ पर्यावास बनने को तैयार है लेकिन सरकारी अटकलों और तैयारियों  कि कमी के कारण आधिकारिक तौर पर बाघों से वंचित है।

रामगढ़ विषधारी अभयारण्य राज्य के बूंदी जिले में 304 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में विस्तृत एक जलपूर्ण वन क्षेत्र है। राज्य ने इसे 20 मई 1982 को राजस्थान वन्य प्राणी और पक्षी संरक्षण अधिनियम, 1951 की धारा 5 के अंतर्गत अभयारण्य घोषित किया। रामगढ़, रणथंभोर टाइगर रिजर्व के दक्षिण कि ओर एक पहाड़ों से घिरा वन क्षेत्र है जो कि मेज नदी द्वारा दो असमान भागों में विभाजित होता है। मेज नदी इस वन क्षेत्र के कई जलश्रोत को जलपूर्ण कर इस वन क्षेत्र कि जीवन रेखा के रूप में काम करती है। रणथंभोर से जुड़ा होने के कारण यह बफर ज़ोन का भी काम करता है जिसकी वजह से रणथंभोर से निकले हुए बाघ अक्सर यहाँ पहुँच जाते है।

रामगढ़ का इतिहास:

रामगढ़ का इतिहास, वन्यजीवों से लेकर इंसानों के खूनी गाथाओं से भरा हुआ है।अधिकांश राजपूत शासक एक दूसरे के राज्यों में मेहमान के तौर पर शिकार, विशेष रूप से स्वयं के राज्यों में अनुपलब्ध जीवों के शिकार के लिए आमंत्रित करते रहते थे। अक्सर ये शिकार यात्राएँ उनके बीच घनिष्ठ संबंधों, विवाह, दोस्ती और साझा हित से जुड़ी रियासतों, के अस्तित्व को प्रतिबिंबित और प्रबलित करते थे।

बाघों की बड़ी आबादी कि वजह से, बूंदी बाघों के शिकार के लिए एक लोकप्रिय स्थान था। जबकि आम तौर पर बाघों का  शिकार राज्यों द्वारा अपने आपसी संबंधों को मजबूत करने में मददगार साबित होता था, बूंदी के मामले में यह उसके विपरीत साबित हुआ है। ब्रिटिश एजेंट जेम्स टोड के ऐनल्ज़ एण्ड एंटीकुईटीस के अनुसार यहाँ अहेरिया (वसंत के समय का शिकार) का त्यौहार मेवाड़ के महारनाओं के लिए तीन बार घातक साबित हुआ (Hughes, 2013)। 1531 में एक शिकार के दौरान बूंदी के राव सूरजमल और मेवाड़ के महाराणा रतन सिंह के बीच एक झगड़े का उल्लेख है जिसमें दोनों महाराज एक दूसरे को मार डालते हैं। टोड के अनुसार महाराणा रतन सिंह द्वारा चोरी से हाड़ा महाराज सुरजमल कि बहन से विवाह करने के कारण बदले कि भावना में शिकार के दौरान झगड़े में एक दूसरे को मार डालते हैं। ऐसी ही एक घटना 1773 में दोहराई गई जब बूंदी के राव राजा अजीत सिंह ने मेवाड़ के महाराणा अरसी सिंह को शिकार के दौरान ही मार डाला। टोड के अनुसार महाराणा कि मौत मेवाड़ के रईसों द्वारा प्रभावित था जिन्हें महाराज अरसी स्वीकार नहीं थे (Crooke, 2018)।

Ramgarh Hunting Lodge: बूंदी के महाराज रामसिंह द्वारा मेज नदी के किनारे शिकार के महल का निर्माण करवाया गया था।ब्रिटिश एजेंट जेम्सटोड के अनुसार राजा राम को शिकार का जुनून उन्हें अपने पिता से विरासत में मिला, और यहां तक कि इस ग्यारह वर्ष कि उम्र में उन्हें अपने पहले शिकार करने पर बूंदी के रईसों से नजर और बधाई मिली। (फोटो: प्रवीण कुमार)

महारजाओं के शिकार के साथ ही यहाँ बेहिसाब वन्यजीवों का भी शिकार हुआ है। जेम्स टॉड ने अपने ऐनल्ज़ में ही बताया है कि बूंदी के शासक राव राजा बिशन सिंह (मृत्यु 1821) ने 100 से अधिक शेर और कई बाघ मारे थे। बेशक शिकार के लिए ऐसा जुनून उस एक शेर के जितना ही खतरनाक साबित हो सकता है जिसका शिकार किया जाता था, और ऐसा हुआ भी जब अपने किसी शिकार अभियानों में से एक के दौरानएक शेर द्वारा राजा पर हमला किया गया जिसके परिणामस्वरूप महाराज ने एक अंग को खो दिया और जीवन भर के लिए अपंग होकर रह गए (Crooke, 2018)। इन बेहिसाब शिकारों के कारण 1830 तक यहाँ से शेर विलुप्त हो चुके थे (Singh & Reddy, 2016)I

रुडयार्ड किपलिंग अपने 1890 के दशक के बूंदी दौरे के बारे में बताते हैं कि जब अंग्रेज बूंदी आए तो उन्हे सुख महल में ठहराया गया जहां उन्होंने अपनी पुस्तक “किम” के कुछ अंश पूरा किया। उसी दौरान उन्होंने बूंदी के डिस्पेंसरी का दौरा किया, तो उन्होंने एक रजिस्टर पाया (ऑपरेशन बुक) जिसमें अस्पताल में आने वाले लोगों की बीमारियों को अंग्रेजी में सूचीबद्ध किया गया था। उनमें से एक सप्ताह में अक्सर तीन-चार मामले, शेर के काटने के होते थे, जिसे सूची में “लायन बाइट” के तौर पर सूचित किया गया था। जुलोजिकल सटीकता देखने पर उन्होंने इसमें बाघ के काटने की संभावना पाई (Kipling,1899)।

1899-90 में राज्य के बहुत से वन्यजीव, विशेष रूप से चीतल और सांभर जैसी प्रजातियां, एक गंभीर सूखे के कारण मारे गए। हालांकि, आने वाले वर्षों में शिकार पर रोक लगने के बाद, वन्यजीवों की आबादी वापस आ गई। 1960 के दशक में भी, बूंदी में 50 साल पहले जंगलों में पाई जाने वाली सभी प्रजातियों का उचित प्रतिनिधित्व था। लेकिन, 1920 से बूंदी ने बाघों के शिकार के आगंतुकों का स्वागत करना शुरू किया जिससे राज्य ने शिकार का उच्च स्तर अनुभव किया। इस समय तक तत्कालीन शासक, महराओ राजा रघुबीर सिंह, पहले ही लगभग 100 बाघों को मार चुके थे। इस छोटे से राज्य में हर साल औसतन सात बाघ मारे जाते थे। हालांकि पूर्व नियमों के अनुसार बाघिनों के शिकार को हतोत्साहित किया गया था, लेकिन कुछ निजी रिकॉर्डों को देखते हुए, ऐसा प्रतीत होता है कि या तो नियम 1930 के दशक से बदल गए थे या उनका पालन नहीं हो रहा था। हालांकि, शिकार और पर्यावास में परिवर्तन के बावजूद यहाँ 1941 में 75 बाघ थे (Playne, et al.,1922)I

1945 में बाघ शिकार के नियमों में ढील दी गई और कई लोग शिकार के शाही खेल में भाग लेने के लिए शामिल होने लगे। 1950 के दशक में, एक बाघिन ने फूल सागर के आसपास के जंगल में दो शावकों को जन्म दिया। उसी अवधि के आसपास फूल सागर पैलेस में आमंत्रित लोगों के साथ क्रिसमस की शिकार पार्टियां लोकप्रिय हो गईं और 1950 के दशक के अंत से बाघों का अवैध शिकार भी शुरू हुआ। 1952 में, लॉर्ड माउंटबेटन ने बूंदी में दो बाघों का शिकार किया; एक फूल सागर में और दूसरा रामगढ़ में। 1955 और 1965 के बीच, महाराव राजा बहादुर सिंह ने अकेले बूंदी के जंगलों में 27 बाघों का शिकार किया। यहाँ के जंगलों में 1957 से 1967 के बीच नौ बाघों का शिकार अवैध शिकारियों द्वारा किया गया। 1960 के दशक तक बाघ काफी सीमित क्षेत्रों तक ही पाए जाते थे। हालांकि, ये बाघ और बाघ-शिकारियों के लिए बदलते समय थे क्यूँकि वन विभाग ने बाघों के शिकार पर प्रतिबंध लगा दिया था (Singh & Reddy, 2016)I

1982 में अभयारण्य घोषित होने के साथ इस क्षेत्र कि सुरक्षा और बढ़ी। इस क्षेत्र के बाघों में विशेष रुचि रखने वाले वन रक्षक लड्डू राम के अनुसार, 1983 में रामगढ़ और शिकार्बुरज ब्लॉक के बीच तीन बाघ थे, और 1986 में छह। 1990 में, उनका मानना है कि पूरे इलाके में 11 बाघ थे, जो बिजोलिया, बांद्रा पोल, मांडू और झारपीर में फैले थे- ये सभी रामगढ़ रेंज में हैं (Singh & Reddy, 2016)I

1985 में, लोहारपुरा घाटी में एक बाघ को अवैध रूप से मार दिया गया था। इसके बाद 1991 को एक और ऐसी घटना हुई जब पिपलिया मणिकचौथ में गोरधन की पहाड़ी पर एक और बाघ की मौत हो गई। तत्कालीन उप वन संरक्षक के एल सैनी और रेंज ऑफिसर पूरण मल जाट द्वारा, 23 – 24 जनवरी को शिकारी रंगलाल मीणा को बाघ के शिकार के संदेह में गिरफ्तार किया गया। हालांकि रंगलाल मीणा मोतीपुरा गाँव का एक माना हुआ शिकारी था, लेकिन उक्त शिकार में वह शामिल ना था। उस रेंज के तत्कालीन गार्ड भूरा मीणा कि रंगलाल से आपसी मतभेद के कारण अत्यधिक प्रतारणा के कारण मौत हो गई। हिरासत में मौत होने के कारण इस क्षेत्र में एक उग्र आंदोलन शुरू हुआ। इस आंदोलन का नेतृत्व किया वहाँ के विधायक राम नारायण मीणा ने। आंदोलन में लोगों ने रेंज ऑफिस जला दिया, गार्ड्स को बाहर निकाल दिया, और लगभग डेढ़ साल तक फॉरेस्ट गार्ड्स को अभयारण्य में प्रवेश न करने दिया। अभयारण्य अधिकारियों द्वारा पर्यवेक्षण और सक्रिय प्रबंधन के अभाव में वन्यजीवों की सुरक्षा बुरी तरह से विफल रही।

अभयारण्य कि सुरक्षा में वर्ष 2000 में सहायक वन संरक्षक मुकेश सैनी के नेतृत्व में बढ़ी। प्रारम्भिक अड़चनों के बाद उन्होंने अपनी सूज-बूझ से विधायक राम नारायण मीणा का समर्थन हासिल किया और अभयारण्य में  कोयला बनाने पर रोक लगवाई। इनके बाद उप वन संरक्षक श्रुति शर्मा ने अभयारण्य में कैम्प करके स्वयं कि निगरानी में कई विकास कार्य करवाए।

रामगढ़ के वन:

यहाँ के जंगलों को चैंपियन और सेठ वन वर्गीकरण 1968 के अनुसार उष्णकटिबंधीय शुष्क पर्णपाती वन श्रेणी में वर्गीकृत किया जा सकता है। जलवायु स्थिति से परे, एडैफिक और बायोटिक कारक मुख्य रूप से इन वनों की संरचना, वितरण और गुणवत्ता का निर्धारण करते हैं। यहाँ के वन खंडों को पूर्णतया धोक (Anogeissus pendula) के वन, धोक के मिश्रित वन, धोक कि झाड़ियाँ, खैर (Acacia catechu) के वन, उष्णकटिबंधीय शुष्क मिश्रित वन, उष्णकटिबंधीय नम मिश्रित वन,घास के मैदान, आदि के रूप में पहचाना जा सकता है (Nawar, 2015)I

धोक के वन में लगभग 80%, Anogeissus pendula पाया जाता है जो कि यहाँ के पहाड़ी क्षेत्रों में अधिक है, Grewia flavescens यहाँ धोक का एक सामान्य सहयोगी है। धोक के मिश्रित वनों में धोक, अन्य पर्णपाती प्रजातियों, जैसे कडाया (Sterculia urens), सालर (Boswellia serrata), पलाश (Butea monosperma), खैर (Acacia catechu), आदि के साथ पाया जाता है। धोक इन वनों कि भी प्रमुख प्रजाति है, सालर और कडाया ढलानों पर मौजूद हैं, जबकि पलाश घाटी क्षेत्रों में आता है। इन जंगलों में Grewia flavescens, Capparis decidua, Cassia tora, Calotropis procera आदि जैसी झाड़ी प्रजातियां भी शामिल है।

यहाँ शुष्क मिश्रित वनों के कुछ पैच भी मौजूद है जिसमें चुरेल (Holoptelea integrifolia), गुर्जन (Lannea coromandelica), पलाश, कड़ाया, धोक के साथ शामिल हैं। बबूल (Acacia nilotica) अवस्था परिवर्तन कालिक क्षेत्रों में और असमान सतहों पर पाया जाता है। नम मिश्रित वनों में Syzygium cumini, Ficus racemosa, Diospyros melanoxylon, Phoenix sylvestris,Flacourtia indica, Mallotus philippensis, Terminalia bellirica and Mangifera indica आदि पाए जाते हैं।  इस तरह के जंगल पानी की धाराओं, झीलों और जलाशयों के आसपास के घाटी क्षेत्रों में आम हैं। जलीय वनस्पतियों में नेलुम्बो न्यूसीफेरा, निमफेया नौचली, अजोला पिनाटा, ट्रापा नटंस, इपोमिया एक्वाटिक, यूट्रीकुलरिया औरिया आदि शामिल हैं।

रामगढ़ के वन्यजीव:

रामगढ़ विषधारी वन्यजीव अभयारण्य रणथंभौर टाइगर रिजर्व के लिए सॅटॅलाइट क्षेत्र के रूप में विस्तारित होने की क्षमता रखता है। यह अभयारण्य रणथंभौर टाइगर रिजर्व से निकले हुए बाघों का पसंदीदा क्षेत्र है। बाघ के अलावा यहाँ मांसाहारी जीवों में बघेरा, भेड़िया, लकड़बग्धा, सियार, लोमड़ी, सियागोश, रस्टी स्पॉटेड कैट, और जंगल कैट आदि पाए जाते हैं।

मानसून के दौरान, अभ्यारण्य में पानी व्यापक होता है जिसके कारण वन्यजीव असुविधाजनक आर्द्रभूमि से बचने हेतु ऊंचाई वाले क्षेत्रों में पलायन करते हैं। अक्टूबर और नवंबर के बाद वे नीचे घाटियों की ओर बढ़ना शुरू करते हैं और बाद में नदियों और नालों वाले क्षेत्रों में। मई और जून के शुष्क और गर्म महीनों के दौरान लगभग सभी जानवर सीमित वाटर हॉलस के पास ही पाए जाते हैं। (फोटो: डॉ. धर्मेंद्र खांडल)

शाकाहारी जीवों में हनुमान लंगूर, चीतल, सांभर, चिंकारा, नीलगाय, और खरगोश अच्छी संख्या में हैं और सभी मौसमों में आसानी से देखे जा सकते हैं। सर्वाहारी स्थानपाई जीवों में यहाँ भालू, जंगली सूअर, और इंडियन सॅमाल सिविट पाए जाते हैं। यहाँ नेवले की दो प्रजातियाँ इंडियन ग्रे मोंगूस एवं रडी मोंगूस, चींटीखोर, और साही भी पाए जाते हैं।

वन्यजीव गणना के दौरान रामगढ़ महल के पास जलश्रोतों पर भालू, बघेरा हनुमान लंगूर इत्यादि आसानी से एवं अच्छी संख्या में देखने को मील जाते हैं (फोटो: डॉ. धर्मेंद्र खांडल)

अभयारण्य में स्थितः रामगढ़ गाँव कई प्रजातियों के सांपों के लिए जाना जाता है, संभवतः इसी कारण इसको विषधारी अभयारण्य कहा जाता है। है। यहाँ पक्षियों किभी काफी विविधता मौजूद हैं जिनमें कई प्रकार के शिकारी पक्षी जैसे भारतीय गिद्ध, बोनेलीज़ ईगल,आदि, विभिन्न प्रजातियों के पैराकीट, ओरिएण्टल व्हाइट आई, गोल्डन ओरिओल, पर्पल सनबर्ड, हरियल, पपीहा, नवरंग, कोयल, येलो थ्रोटेड स्पैरो, सरकीर मालकोहा, बुलबुल, फ्लाई कैचर्स इत्यादि शामिल हैं।

1899-90 में राज्य के बहुत से वन्यजीव, विशेष रूप से चीतल और सांभर जैसी प्रजातियां, एक गंभीर सूखे के कारण मारे गए। हालांकि, आने वाले वर्षों में शिकार पर रोक लगने के बाद, वन्यजीवों की आबादी वापस आ गई। 1960 के दशक में भी, बूंदी में 50 साल पहले जंगलों में पाई जाने वाली सभी प्रजातियों का उचित प्रतिनिधित्व था। (फोटो: डॉ. धर्मेंद्र खांडल)

रामगढ़, रणथंभोर और बाघ:

रामगढ़-विषधारी और रणथंभौर के बीच मौजूदा वन कनेक्टिविटी, हालांकि कमजोर है, लेकिन फिर भी बाघों को इस पारंपरिक मार्ग से पलायन करने में काफी हद तक सहायक है। यह मार्ग बूंदी के उत्तरी हिस्सों में तलवास और अंतर्दा के जंगलों से गुजरता है। 2007 के आसपास, एक युवा क्षणस्थायी बाघ, युवराज, द्वारा रणथंभौर से बूंदी की दिशा में जाने का प्रयास किया गया लेकिन अपने गंतव्य तक पहुँचने से पहले ही सखावडा के पास बच्चू, मूल्या और सक्रमा नाम के तीन शिकारी भाइयों द्वारा उसका शिकार कर दिया गया। अगस्त 2013 में, एक और युवा क्षणस्थायी बाघ, T-62 कि मौजूदगी को तलवास के पास कैमरा ट्रैप द्वारा स्थापित किया गया था। अटकलें यह है कि बाघ रामगढ़-विषधारी वन्यजीव अभयारण्य में पशुधन शिकार पर 2015 की शुरुआत तक रहा और फिर रणथंभौर की दिशा में वापस यात्रा किया।

2017 में भी  एक बाघ, T-91 रणथम्भोर से निकल कर रामगढ़ विषधारी अभयारण्य में पहुँच गया जिसको लगभग पाँच महीने कि निगरानी के बाद 3 अप्रैल 2018 को मुकंदरा टाइगर रिज़र्व में शिफ्ट किया गया। इसके बाद भी यहाँ 2 बाघों की उपस्थिति दर्ज हुई जिनमें से एक युवा नर T-115 चम्बल के किनारे व दूसरा बाघ T-110 जो कि पहले भी यहाँ अपना इलाका बना चुका है।

बाघ, T-91 रणथम्भोर से निकलकर रामगढ़ विषधारी अभयारण्य में पहुँच गया जिसको लगभग पाँच महीने कि निगरानी के बाद 3 अप्रैल 2018 को मुकंदरा टाइगर रिज़र्व में शिफ्ट किया गया। (फोटो: डॉ. धर्मेंद्र खांडल)

बाघों द्वारा इस पारंपरिक मार्ग के उपयोग को देखते हुए, जब रणथंभोर में बाघों कि आबादी बड़ी तो बाघ विशेषज्ञ वाल्मीक थापर और वर्तमान प्रधान मुख्य वन संरक्षक (वन सेना प्रमुख) डॉ जी.वी रेड्डी ने रामगढ़ विषधारी अभयारण्य को रणथंभोर के तीसरे डिवीजन के रूप में विकसित करने कि परियोजना पर विचार किया। जिसका प्रस्ताव वाई के साहू के निर्देशन में धर्मेन्द्र खांडल ने तैयार किया।

रणथंभोर के बफर एरिया को, जो कि इन्दरगढ़ के वनों से लेकर रामगढ़ अभ्यारण्य तक को पहले टाइगर रिजर्व के खंड के रूप विकसित करने पर बल दिया गया। प्रस्तावित किया गया कि पूर्ण रूप से विकसित होने के पश्चात रामगढ़ को स्वतंत्र टाइगर रिजर्व घोषित किया जाए। इस प्रस्ताव के पीछे का तर्क था कि रणथंभोर के हिस्सा होने पर विभाग द्वारा संचालित रणथंभौर बाघ संरक्षण फाउंडेशन (RTCF) कि धनराशि को रामगढ़ के विकास के लिए उपयोग किया जा सकेगा।

रामगढ़ का रणथंभोर के तीसरे खंड के रूप में विकसित होने से, डॉ धर्मेन्द्र खांडल के अनुसार, सबसे बड़ा फायदा यह होगा कि बाघों के स्थानांतरण में आने वाली वैधानिक अड़चनें समाप्त हो जाएंगी। आमतौर पर बाघों को एक रिजर्व से दूसरे तक पहुंचाने में कई वैधानिक समस्याएं आती हैं जैसे कि राष्ट्रीय बाघ संरक्षण प्राधिकरण द्वारा स्वीकृति लेना आदि। रणथंभोर का हिस्सा होने से बाघों को आसानी से बिना किसी विलंब के बाघों कि बढ़ती आबादी को रामगढ़ स्थानांतरित किया जा सकेगा।

आज रामगढ़ पुन: अपने गौरवशाली अतीत की ओर अग्रसर हो रहा है। NTCA द्वारा यहाँ रणथम्भौर से 2 बाघों को पुनर्वासित करने की मंजूरी पहले ही दी जा चुकी है। शिफ्टिंग के प्रथम चरण में आने वाली बाधाओं को दूर करने के लिए यहाँ सुरक्षा की दृष्टी से वन्यजीव विभाग ने अतिरिक्त वनकर्मियों को तैनात करने के साथ ही जिन विचरण मार्गो से पूर्व में ‘युवराज’ नाम का बाघ, T-62, T-91 रणथम्भौर से निकलकर रामगढ़ तक पहुंचे थे, को भी दुरुस्त करने का कार्य किया गया है।वन्यजीव संरक्षण में वर्षों से प्रयासरत बूंदी जिले के विट्ठल सनाढ्य,  पृथ्वी सिंह राजावत, ओम प्रकाश “कुकी” आदि जैसे वरिष्ठ संरक्षणवादी, एन.टी.सी.ए. की मन्जूरी के बाद आशा में हैं कि फिर से रामगढ़ में बाघों की दहाड़ गुंजायमान होगी।

 

सन्दर्भ:
  1. Hughes, J. (2013). Animal Kingdoms: Hunting, the Environment, and Power in the Indian Princely States. Permanent Black, Ranikhet.
  2. Crooke, William. (Ed.). (2018). Annals and Antiquities of Rajasthan, v. 3 of 3 by James Tod. eBook, Public domain in the USA. http://www.gutenberg.org/ebooks/57376
  3. Singh, P., Reddy, G.V. (2016). Lost Tigers Plundered Forests: A report tracing the decline of the tiger across the state of Rajasthan (1900 to present), WWF-India, New Delhi.
  4. Rudyard Kipling. (1899).“The Comedy of Errors and the Exploitation of Boondi,” in From Sea to Sea; Letters of Travel, vol. 1 (New York: Doubleday & McClure Company), 151.
  5. Playne, S., Solomon, R.V., Bond, J.V. and Wright, A. (1922). Indian States: A Biographical, Historical and Administrative Survey. Asian Educational Services, New Delhi.
  6. Nawar, K. (2015). Floristic and Ethnobotanical Studies ofRamgarh Vishdhari Wild Life Sanctuary ofBundi (Rajasthan). A THESISSubmitted for The Award of Ph.D. Degreein The Faculty of Science ofUNIVERSITY OF KOTA, KOTA., pg. 64.