पुस्तक समीक्षा: राजस्थान के बाघों का संसार

पुस्तक समीक्षा: राजस्थान के बाघों का संसार

पुस्तक का सारांश

“राजस्थान के बाघों का संसार” अरावली और विंध्यांचल की अद्भुत जैव विविधता और पारिस्थितिकी पर केंद्रित एक अनूठी कृति है। यह पुस्तक न केवल बाघों के संरक्षण के महत्वपूर्ण आयामों को सामने लाती है, बल्कि उन पहाड़ी क्षेत्रों में मौजूद वनस्पति, जीव-जंतुओं और स्थानीय पारिस्थितिकी तंत्र को भी विस्तार से समझाती है। इस पुस्तक के लेखक प्रवीण सिंह, मीनू धाकड़, धर्म सिंह गुर्जर और डॉ. धर्मेंद्र खांडल ने अपने अनुभव के आधार पर इस अद्वितीय पुस्तक को तैयार किया है।

विशेषताएं और सामग्री

विषयवस्तु की विविधता
पुस्तक में 13 अध्यायों के माध्यम से बाघों का महत्व, राजस्थान के प्रमुख टाइगर रिजर्व (जैसे रणथंभौर, मुकुंदरा, रामगढ़-विशधारी, धौलपुर-करौली), जैव विविधता, पारिस्थितिकी, संरक्षण जीवविज्ञान, सतत विकास, मानव-पारिस्थितिकी संघर्ष, विकास और अन्यान्य विषयों को समेटा गया है।

जैव विविधता का गहन विश्लेषण
पुस्तक अरावली-विंध्यांचल क्षेत्र की विशेष वनस्पति (जैसे धोक, पलाश, खैर) और जीव-जंतुओं का वैज्ञानिक विवरण प्रस्तुत करती है। यह क्षेत्र, भारत के शुष्क क्षेत्रों में होने के बावजूद, असाधारण जैव विविधता का घर है।

संरक्षण और सामुदायिक भागीदारी
इसमें टाइगर वॉच संस्था द्वारा किए गए संरक्षण कार्यों और स्थानीय समुदायों की भूमिका का विवरण मिलता है। संस्था के प्रयासों से न केवल वन्यजीव संरक्षण हुआ, बल्कि स्थानीय लोगों के लिए रोजगार और शिक्षा के अवसर भी सृजित हुए।

वैज्ञानिक भाषा और स्थानीयता का सम्मिलन
इस पुस्तक में वैज्ञानिक तथ्यों को सुलभ भाषा में प्रस्तुत किया गया है, जिससे यह शैक्षणिक संस्थाओं, छात्रों और आमजन के लिए भी उपयोगी बनती है। साथ ही, इसमें स्थानीय शब्दावली और कहानियों का समावेश इसे और भी रोचक बनाता है।

प्रेरक कथाएं
पुस्तक में खेजड़ली और अमृता देवी जैसी प्रेरणादायक गाथाओं का वर्णन है, जो राजस्थान की सांस्कृतिक विरासत और पर्यावरण-संवेदनशीलता को उजागर करती हैं।

उपयोगिता

“राजस्थान के बाघों का संसार” पुस्तक न केवल वन्यजीव प्रेमियों और शोधार्थियों के लिए अमूल्य है, बल्कि छात्रों, शिक्षकों और राजस्थान के बाघ क्षेत्र में काम कर रहे प्रकृति मार्गदर्शकों (नेचर गाइड्स) के लिए भी एक महत्त्वपूर्ण संसाधन है। इस पुस्तक का लेखन शैली स्पष्ट, प्रवाहपूर्ण और वैज्ञानिक तथ्यों से परिपूर्ण है, जो इसे विद्यार्थियों और शिक्षकों के लिए समझने योग्य और प्रेरक बनाती है।

यह पुस्तक स्कूल के बच्चों और शिक्षकों के बीच जागरूकता पैदा करने के उद्देश्य से तैयार की गई है। साथ ही, बाघों के परिदृश्य में कार्यरत नेचर गाइड्स भी इससे लाभान्वित हो सकते हैं। पुस्तक में वैज्ञानिक तथ्यों को सहज भाषा में प्रस्तुत किया गया है, जिससे कठिन अवधारणाएं भी सरलता से समझाई जाती हैं। स्थानीय शब्दावली और सांस्कृतिक संदर्भों का समावेश इसे और भी रोचक बनाता है।

अतः, यह पुस्तक किसी भी व्यक्ति के लिए उपयोगी है, जो राजस्थान की जैव विविधता और पारिस्थितिकी में रुचि रखता है। यह पाठक वर्ग को न केवल अरावली-विंध्यांचल के अद्वितीय पारिस्थितिकी तंत्र की सराहना करने में मदद करेगी, बल्कि इसके संरक्षण के प्रति प्रेरित भी करेगी।

नोट: इस पुस्तक की प्रति प्राप्त करने के लिए आप हमें tigerwatchtiger@gmail.com पर लिख सकते हैं या लेखकों से सीधे संपर्क कर सकते हैं।

Colour Vision: A Unique Experience for Every Creature

Colour Vision: A Unique Experience for Every Creature

Tigers and deer do not see the world the way we do. Each species has developed color vision suited to its environment. Our eyes are equipped with a unique system to detect and process light, made possible through the combination of our eyes and brain. Different animal groups have developed their vision based on their needs. Predatory animals, such as tigers and leopards, rely more on the movement of their prey and therefore do not require a wide range of colors. They have binocular vision, which helps them gauge depth and distance accurately. On the other hand, prey animals, such as deer and rabbits, need to survey a larger area to detect predators. Hence, their eyes are positioned on the sides of their heads, allowing them to have a wider field of view.

The ability to perceive colours depends on light-sensitive cells in the eye called photoreceptors. These are mainly of two types: rod cells, which help in low-light vision and detect brightness, and cone cells, which assist in recognizing colours and details. Humans have three types of cone cells, providing trichromatic vision, allowing us to perceive blue, green, and red colours, resulting in a broad colour spectrum. In contrast, tigers have only two types of cone cells, enabling them to see only blue and green colours distinctly. Red and orange appear as dull brown or faded shades to them. Tigers rely more on motion and contrast, which aids them in hunting at night and during twilight. Similarly, deer also have dichromatic vision but can see blue and yellow hues more effectively. Red and orange appear as shades of brown or grey to them. Consequently, deer cannot distinctly see a tiger’s orange fur, allowing the tiger to blend seamlessly into the forest.

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Some creatures, such as birds, have tetrachromatic vision, enabling them to perceive UV light, while mantis shrimp possess hyperspectral vision with 16 types of photoreceptors, allowing them to see UV, infrared, and polarized light. Humans cannot see infrared and UV light as our eye lenses filter out UV rays. However, some reports suggest that individuals who have undergone lens surgery may develop the ability to perceive UV light.

Birds have developed several adaptations to protect their eyes from UV radiation. The lenses and corneas of their eyes are capable of filtering UV light, preventing intense UV rays from directly reaching the retina. Additionally, their eyes contain special types of oil-filled colored droplets that help filter harmful wavelengths of light and enhance color recognition. Some birds also use their eyelids and third eyelid (nictitating membrane) for UV protection, which not only helps in retaining moisture and shielding from dust but also reduces the impact of UV light on their eyes.

how does a human and a bird sees the same thing differently

Choosing the right clothing colours is crucial if you want to attract less attention from animals in the jungle. Bright green, white, black, blue, and purple are more visible to animals, while brown, khaki, and grey blend well with the natural surroundings. Orange appears dull brown to deer and other mammals but can be highly attractive to birds. Therefore, to avoid drawing the attention of birds, it is best to avoid red, orange, and yellow colours.

Each species experiences colour vision differently. Tigers and deer do not perceive colours as we do, but movement and brightness play a more vital role in their vision. Wearing brown, khaki, and grey clothing is the best way to blend into the jungle environment.

Colour Vision: A Unique Experience for Every Creature

रंग दृष्टि: प्रत्येक जीव के लिए अलग-अलग अनुभव

बाघ और हिरण को दुनिया वैसे नहीं दिखती जैसे हमें दिखती है। प्रत्येक प्रजाति ने अपने पर्यावरण के अनुकूल रंग दृष्टि विकसित की है। हमारी आँखें प्रकाश को पहचानने और प्रोसेस करने की अनूठी प्रणाली से लैस होती हैं। यह प्रणाली हमारी आँखों और मस्तिष्क के संयोजन से संभव होती है। विभिन्न प्राणी समूह अपनी ज़रूरतों के अनुरूप अपनी दृष्टि विकसित करते हैं। शिकारी प्राणी, जैसे बाघ और बघेरे, अपने शिकार की हलचल पर अधिक निर्भर होते हैं, इसलिए इन्हें विस्तृत रंग श्रेणी देखने की आवश्यकता नहीं होती। इनके पास बायनोक्यूलर दृष्टि होती है, जिससे वे गहराई और दूरी का सही अंदाजा लगा सकते हैं। वहीं, शिकार प्राणी, जैसे हिरण और खरगोश, शिकारियों से बचने के लिए अधिक क्षेत्र देखने की आवश्यकता होती है, इसलिए उनकी आँखें सिर के दोनों ओर स्थित होती हैं, जिससे वे व्यापक दृष्टि प्राप्त कर सकते हैं।

रंग देखने की क्षमता आँख में मौजूद प्रकाश-संवेदनशील कोशिकाओं (फोटोरिसेप्टर्स) पर निर्भर करती है। ये मुख्यतः दो प्रकार के होते हैं: रॉड कोशिकाएँ, जो कम रोशनी में देखने और चमक का पता लगाने में सहायक होती हैं, और शंकु (कॉन) कोशिकाएँ, जो रंग और सूक्ष्मता को पहचानने में सहायक होती हैं। मनुष्यों में तीन प्रकार के शंकु होते हैं, जो त्रिवर्णी दृष्टि (Trichromatic vision) प्रदान करते हैं। हम नीले, हरे और लाल रंगों को पहचान सकते हैं, जिससे हमें रंगों की विस्तृत श्रेणी दिखती है। दूसरी ओर, बाघों की आँखों में केवल दो प्रकार के शंकु होते हैं, जिससे वे केवल नीले और हरे रंग को स्पष्ट देख सकते हैं। लाल और नारंगी रंग उन्हें धुंधले भूरे या फीके दिखाई देते हैं। बाघ गति और कंट्रास्ट पर अधिक निर्भर रहते हैं, जिससे रात और शाम के समय शिकार करने में उन्हें सहायता मिलती है। हिरणों की दृष्टि भी द्विवर्णी होती है, लेकिन वे नीले और पीले रंग को बेहतर तरीके से देख सकते हैं। लाल और नारंगी रंग उनके लिए भूरे या धूसर जैसे दिखते हैं। इसलिए, हिरण बाघ के नारंगी फर को स्पष्ट रूप से नहीं देख पाते, जिससे बाघ जंगल में आसानी से घुलमिल जाते हैं। 

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कुछ जीव, जैसे पक्षी, चतुर्वर्णी (Tetrachromatic) दृष्टि रखते हैं, जिससे वे UV प्रकाश भी देख सकते हैं, जबकि मेंटिस श्रिम्प 16-वर्णी (Hyper-spectral) दृष्टि रखते हैं और UV, इन्फ्रारेड और ध्रुवीकृत प्रकाश भी देख सकते हैं। मनुष्य इन्फ्रारेड और UV नहीं देख सकते क्योंकि हमारी आँखों के लेंस UV को फ़िल्टर कर देते हैं। हालांकि, कुछ लोगों को लेंस सर्जरी के बाद UV देखने की क्षमता विकसित होने की रिपोर्ट मिली है।

पक्षी अपनी आँखों को UV प्रकाश से सुरक्षित रखने के लिए कई अनुकूलन विकसित कर चुके हैं। उनकी आँखों के लेंस और कॉर्निया UV प्रकाश को फ़िल्टर करने में सक्षम होते हैं, जिससे अधिक तीव्र UV किरणें सीधे रेटिना तक नहीं पहुँचतीं। इसके अलावा, उनकी आँखों में विशेष प्रकार के तेलयुक्त रंगीन ड्रॉपलेट्स (oil droplets) पाए जाते हैं, जो हानिकारक प्रकाश तरंगदैर्ध्य को फ़िल्टर करने और रंगों को बेहतर तरीके से पहचानने में मदद करते हैं। कुछ पक्षी अपनी पलकें और तीसरी पलक (nictitating membrane) का भी उपयोग UV किरणों से सुरक्षा के लिए करते हैं, जो उनकी आँखों को नमी देने और धूल से बचाने के साथ-साथ UV प्रकाश के प्रभाव को भी कम कर सकती है। 

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जंगल में किस रंग के कपड़े पहने ?

यदि आप जंगल में जानवरों को कम आकर्षित करना चाहते हैं, तो सही रंगों के कपड़े पहनना महत्वपूर्ण है। चमकीला हरा, सफेद, काला, नीला और बैंगनी रंग जानवरों को स्पष्ट दिख सकते हैं, जबकि भूरा, खाकी और ग्रे रंग प्राकृतिक वातावरण में अच्छी तरह से घुलमिल जाते हैं। नारंगी रंग हिरण और अन्य स्तनधारियों के लिए हल्के भूरे जैसा दिखता है, लेकिन पक्षियों के लिए यह आकर्षक हो सकता है। इसलिए, पक्षियों को कम परेशान किया जाए इसके लिए लाल, नारंगी और पीले रंग से बचना चाहिए।

हर प्राणी का रंग दृष्टि का अनुभव अलग होता है। बाघ और हिरण रंगों को हमारी तरह नहीं देख सकते, लेकिन उनके लिए गति और चमक अधिक महत्वपूर्ण होती है। जंगल में घुलमिल जाने के लिए भूरे, खाकी और ग्रे रंग के कपड़े पहनना सबसे उपयुक्त रहता है।

जंगल में घुलमिल जाने के लिए भूरे, खाकी और ग्रे रंग सबसे उपयुक्त होते हैं
रणथंभोर में बाघ संरक्षण की वर्तमान चुनौतियां

रणथंभोर में बाघ संरक्षण की वर्तमान चुनौतियां

राजस्थान में बाघ संरक्षण में रणथंभोर एक महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहा है और यहीं से राज्य के अन्य क्षेत्रों के लिए बाघों को भेजा जा रहा है। अक्सर यह देखा गया है की राजनीतिक दबाव के कारण नए स्थापित रिजर्वों में भेजे जाने वाले बाघों का चयन जल्दबाजी में अवैज्ञानिक तरीके से किया जाता रहा है, जिससे रणथंभोर के बाघों की आबादी पर गहरा नकारात्मक प्रभाव पड़ रहा है। यह लेख रणथंभोर में बाघों की आबादी से जुड़ी मुश्किलों और चुनौतियों पर प्रकाश डालता है, साथ ही यह आलेख स्पष्ट करता है की किस प्रकार कुछ वर्षों में किये गए बाघों के अन्यत्र स्थानांतरण ने रणथंभोर को किस प्रकार मुश्किल में डाला है।

यहाँ मुख्यतः निम्न प्रश्नों पर टिप्पणी की गई है:

  • रणथंभोर के बाघों में अक्सर नर अपना जीवनकाल पूरा नहीं कर पाते और समय से पहले ही अपना क्षेत्र खो देते हैं, जबकि मादा अधिक समय तक जीवित रहती हैं, कुछ तो 19 वर्ष की आयु भी पार कर जाती हैं। इसके पीछे क्या कारण रहते है? यदि स्थान की कमी मात्र एक कारण होता तो यह प्रभाव दोनों पर देखने को मिलना चाहिए था?
  • रणथंभोर में बाघों की वर्तमान जनसंख्या के आंकड़े क्या हैं? और रणथंभोर की बाघ आबादी में कितने नर और मादा हैं?
  • बढ़ते मानव-बाघ संघर्ष के पीछे क्या कारण हैं?

1.   वयस्क नर-मादा अनुपात में असंतुलन

वर्तमान में, रणथंभोर (डिवीजन I) की बाघ आबादी 46 (वयस्क) हैं – इनमें 23 नर और 23 मादा है। हालांकि, 23 में से केवल 18 मादा ही प्रजनन योग्य हैं। जबकि पाँच बाघिनें (T08, T39, T59, T69, और T84) 15 वर्ष से अधिक या समकक्ष आयु अथवा बीमार हैं और उनके आगे प्रजनन करने की संभावना अत्यंत क्षीण है। हालाँकि अभी 23 नर में से कोई भी नर 11 वर्ष से अधिक का नहीं हुआ है, जो नरों के बीच उच्च संघर्ष दर का कारण है। वयस्क नर समय से पहले ही उनकी टेरिटरी से भगा दिए जा रहे है।

रणथंभोर में 46 वयस्क बाघों के अलावा 15 शावक भी हैं। इसके अतिरिक्त, कैलादेवी क्षेत्र (रणथंभोर के डिवीजन II) में 4 बाघ हैं, जिससे रणथंभोर बाघ अभयारण्य में बाघों की कुल आबादी 65 हो गई है। हालांकि, रणथंभोर में कुछ लोगों की माने तो 88 बाघ है, परन्तु यह दावे गलत हैं। एक समय यह संख्या निश्चित रूप से 81 तक पहुँच गई थी, लेकिन कई बाघ प्राकृतिक कारणों से समय से पहले मर गए और अनेक बाघ इधर उधर भेज दिए गए। आजकल शावकों को भी गिनती में शामिल किया जाने लगा है, जिससे बाघों की बढ़ी हुई संख्या सामने आती है। हालाँकि छोटे शावकों को गिनती में शामिल करना एक सही तरीका नहीं है। अक्सर वन अधिकारियों द्वारा इन बढ़े हुए आंकड़ों को मीडिया में बढ़ावा दिया जाता रहा है। इसका उद्देस्य असल में रणथंभोर से बाघों के स्थानांतरण को विरोध का सामना नहीं करना पड़े इसलिए किया जा रहा है।

2.   बाघों के स्थानांतरण के परिणाम: बिगड़ा हुआ लिंग अनुपात, परिणाम स्वरूप मानव-बाघ एवं बाघ-बाघ संघर्ष में बढ़ोतरी।

अब तक 11 बाघिनों (T1, T18, T44, T51, T52, T83, T102, T106, T119, T134, और T2301) और 5 नर बाघों (T10, T12, T75, T110, और T113) को रणथंभोर से दूसरे रिजर्व में स्थानांतरित किया जा चुका है। मादा-से-नर के इस 2:1 स्थानांतरण अनुपात ने रणथंभोर में नर-मादा के अनुपात को पूरी तरह असंतुलित कर दिया है। पारिस्थितिकी जरूरत के अनुरूप बनाए जाने के बजाय,  राजनीतिक प्रभाव में स्थापित किए गए नए रिजर्व एवं बिना इकोलॉजिकल सुधार के बाघों के स्थानांतरण के कारण अनेक स्थानांतरित बाघों (T10, T12, T44, T75, T83, T102, और T106) की मृत्यु दर्ज की गयी, साथ ही उनको प्रजनन सफलता की कमी और मानव-वन्यजीव संघर्षों का सामना करना पड़ा है। रणथंभोर के भीतर गुढ़ा और कचिदा जैसे प्रमुख क्षेत्र अब बाघों के हटाए जाने के कारण खाली पड़े हैं, जिससे आबादी का सामाजिक ढांचा बाधित हो रहा है क्योंकि इन जगह से अनेक बार रेजिडेंट बाघों को उठाया गया है। जैसे स्थानांतरित बाघिन T102 का क्षेत्र तीन वर्षों से अधिक समय से खाली पड़ा है। इसी तरह, नर T12 के स्थानांतरित होने के बाद, उसकी मादा  साथी T13 पार्क छोड़कर चली गयी और अंततः उसके दो शावक मारे गए। यह सभी कारण प्रदर्शित करते है कि बाघों के संरक्षण में अवैज्ञानिक तरीके अपनाए गए है।

3.   युवा नर बाघों की अधिक संख्या से संघर्ष बढ़ रहे हैं

रणथंभोर में आज के समय जो 23 नर हैं, उनमें सबसे अधिक उम्र का मात्र एक बाघ है, जो 10-11 साल का है।  इन 23 बाघों में से 20 बाघ छह साल से कम उम्र के हैं, जो दर्शाता है कि इनके मध्य संघर्ष बढ़ने की संभावना है और यह सब भी संघर्ष का ही नतीजा प्रतीत हो रहा है। इन बाघों के बीच क्षेत्रीय संघर्ष के कारण बाघ अपनी उम्र से पहले ही टेरिटरी छोड़ रहे है।

कुछ को नए क्षेत्रों की तलाश में बाहरी क्षेत्रों में जाने के लिए मजबूर होना पड़ता है। रणथंभोर में विषम लिंग अनुपात के बारे में पता होने के बावजूद, पिछले साल तीन बाघिनों को अन्य क्षेत्रों में स्थानांतरित कर दिया गया था। संतुलन बहाल करने और संघर्ष को कम करने के लिए नर बाघों की अधिक संख्या को नियंत्रित करने की आवश्यकता है और मादाओं के स्थानन्तरित करने पर रोक की ओर अधिक बल देना चाहिए।

4.   रणथंभोर में बाघिनों की दीर्घायु के कारण

रणथंभोर में मादाएँ अक्सर लंबे समय तक जीवित रहती हैं, कुछ की आयु 19 वर्ष से अधिक पहुंची है। यह दीर्घायु आंशिक रूप से पार्क अधिकारियों द्वारा किए गए हस्तक्षेपों के कारण है, जो अक्सर स्वास्थ्य चुनौतियों या शिकार की कठिनाइयों का सामना करने वाले बाघिनों को शिकार उपलब्ध करवाकर के उनकी सहायता करते हैं। हालाँकि ये उपाय उनके कठिन समय के दौरान जीवित रहने को सुनिश्चित करते हैं, परन्तु वे उन्हें जंगल की प्राकृतिक प्रतिकूलताओं से बचाकर कृत्रिम रूप से उनके जीवनकाल को भी बढ़ाते हैं। इसमें सबसे बड़े कारण हमारे मीडिया बंधु होते है अथवा बाघ प्रेम प्रदर्शित करने वाले सोशल मीडिया के बाघ प्रेमी जो इसके लिए अक्सर कई तरह से दबाव बनाते है। दूसरा कारण है की बाघिनें पार्क के भीतर अधिक आसानी से दिखाई देती हैं, अक्सर अधिकारियों को अधिक दिखाई देती है और वे उनके प्रति नरम दृष्टिकोण अपनाते हैं ओर उन्हें बुढ़ापा आने तक भी मरने नहीं देते है।

इसके अलावा, युवा बाघिनों को अन्य रिजर्व में स्थानांतरित करने से रणथंभोर में मादाओं की संख्या में और कमी आई है। परिणामस्वरूप, शेष बाघिनों, जिनमें से कई बड़ी उम्र की हैं को शिकार, पानी और सुरक्षित क्षेत्रों जैसे संसाधनों के लिए कम प्रतिस्पर्धा का सामना करना पड़ता है ओर वे आधी उम्र तक जिंदा रहती है।

हालाँकि, प्रजनन क्षमता वाली कम उम्र की मादा बाघिनों के स्थानांतरण के साथ, सीमित प्रजनन क्षमता वाली वृद्ध मादा बाघिनों की उपस्थिति इस भ्रामक धारणा को और मजबूत करती है कि पार्क में संतुलित या अधिक मादा आबादी है। यह क्षेत्र में बाघ आबादी की दीर्घकालिक स्थिरता को कमजोर करता है।

5.   क्या रणथंभोर से बाघों के स्थानांतरण को पूरी तरह से रोक दिया जाना चाहिए?

नहीं, बाघों के स्थानांतरण को पूरी तरह से रोकना समाधान नहीं है। रणथंभोर की बाघ आबादी राज्य और उसके बाहर के अन्य पार्कों के विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। हालाँकि, ऐसे स्थानांतरण के लिए धैर्य, सावधानीपूर्वक योजना और सूचित निर्णय की आवश्यकता होती है ताकि यह सुनिश्चित हो सके कि स्रोत आबादी को खतरे में डाले बिना (स्रोत और प्राप्तकर्ता) दोनों क्षेत्रों को लाभ हो।

रणथंभोर में वर्तमान में 15 शावक वयस्कता के करीब हैं, जो भविष्य के स्थानांतरण की संभावना प्रदान करते हैं। हालाँकि, इस स्तर पर मादा बाघिनों को और हटाने से आबादी की स्थिरता गंभीर रूप से बाधित हो सकती है। अन्य अभयारण्यों की जरूरतों को रणथंभोर की बाघ आबादी के दीर्घकालिक स्वास्थ्य और स्थिरता के साथ संतुलित करना महत्वपूर्ण है।

सुझाव

1.  बाघिनों के स्थानांतरण पर तुरंत रोक लगाएं

रणथंभोर की आबादी को और अधिक अस्थिर होने से बचाने के लिए बाघिनों के स्थानांतरण को रोका जाना चाहिए। यदि स्थानांतरण आवश्यक है, तो  कुछ नर बाघों को स्थानांतरित करने से क्षेत्रीय टकराव कम होगा और महत्वपूर्ण मादा आबादी सुरक्षित रहेगी।

2.  आनुवंशिक विविधता के लिए अन्य राज्य का सहयोग करें एवं उनसे मदद

राजनीतिक रूप से समान विचारधारा के राज्यों जैसे मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र से नए बाघ मांगे जा सकते है।  उनसे बाघों के आदान-प्रदान का अवसर ढूँढने पर बल देना चाहिए। इससे राजस्थान की बाघ आबादी में नई आनुवंशिक विविधता का संचार होगा और इसकी दीर्घकालिक व्यवहार्यता मजबूत होगी।

3.  डिवीजन II के विकास पर ध्यान केंद्रित करें

नए रिजर्व बनाने के बजाय, संसाधनों को रणथंभोर के डिवीजन II के विकास के लिए आवंटित किया जाना चाहिए। स्रोत आबादी को मजबूत करना पूरे राजस्थान में बाघ संरक्षण प्रयासों को बनाए रखने के लिए महत्वपूर्ण है।

4.  विचारशील स्थानांतरण रणनीतियों को अपनाएं

बाघ SBT 2303 के हालिया स्थानांतरण उल्लेखनीय कदम है, यह कोर आबादी को प्रभावित किए बिना भटकते बाघों को स्थानांतरित करने का एक उत्कृष्ट उदाहरण है। कड़ी निगरानी और विशेषज्ञ परामर्श द्वारा समर्थित इसी तरह के स्थानांतरण को बढ़ावा देना चाहिए ।

5.  स्थानांतरण पर एक साल का स्थगन लागू करें

स्थानांतरण पर अस्थायी रोक बाघों की निगरानी और अध्ययन में सहायता करेगा और साथ ही स्थानांतरण के लिए संभावित उम्मीदवारों पहचान में भी लाभकारी होगा। यह विराम सुनिश्चित करने में मदद करेगा कि भविष्य के स्थानांतरण विज्ञान-संचालित और न्यूनतम विघटनकारी हों।

पारिस्थितिकी नोट्स 1: प्राकृतिक रूप से मरे बाघों का शव क्यों नहीं मिलता?

पारिस्थितिकी नोट्स 1: प्राकृतिक रूप से मरे बाघों का शव क्यों नहीं मिलता?

आज कल जब भी बाघ अभयारण्य से कोई बाघ गायब होते है तो मीडिया के लोग और वन्य जीव प्रेमी वन अधिकारियों को एक कटघरे में खड़ा कर देते है की मृत बाघ का शव क्यों नहीं मिला? यह जवाब आसान नहीं है परन्तु हमें समझाना होगा की – अक्सर दो तरह के बाघ गायब होते है – बूढ़े अथवा आपसी लड़ाई में घायल हुए अन्य बाघ।  हालाँकि देखे तो बाघों का पूरा जीवन ही संघर्ष मय होता और कोई भी बाघ वनों में 15 वर्ष से अधिक उम्र आसानी से प्राप्त नहीं कर सकता, क्योंकि उसकी जैविक गतिविधियां जैसे प्रजनन आदि सिमित होने लगती है।  ऐसे में उन्हें अपने साथी बाघ का सहयोग भी नहीं मिल पाता और आपसी संघर्ष अधिकांशतया नए नए वयस्कता हासिल किये हुए बाघों में अधिक होती है। हालांकि दोनों ही तरह के बाघ अभयारण्य से बाहर भी निकल जाते है।

आप जानते है की बाघ सर्वोच्च शिकारी प्राणी है जिसने जीवन पर्यन्त शिकार से ही अपना पेट पालन किया है।  शिकार करना एक अत्यंत दुष्कर कार्य है जिसके लिए कई प्रकार के जतन करने पड़ते है और पूरा जीवन शारीरिक क्षमता और बौद्धिक कुशलता पर निर्भर करता है।  एक बाघ 15 -16 वर्ष के अपने जीवन काल में 600 -800 जीवों (चितल के आकार के) को अपना भोजन बनता है, क्योंकि उन्हें 40 -50 प्राणी हर वर्ष भोजन के रूप में चाहिए। शिकार के सम्बन्ध में हर समय चौकना रहना और प्रयासरत रहना ही बाघ के जीवन का मूल आधार है- इसके लिए ही वह प्रशिक्षित है और इसके लिए ही वह विकसित हुए है। उनके शरीर की बनावट, लचक और ताकत एवं साथ ही उसके दिमाग की फितरत और मानसिक दृढ़ता का उद्देश्य मात्र बड़े से बड़ा प्राणी और अधिक से अधिक प्राणियों के शिकार के अनुरूप ही बने है।

दूसरी तरफ बाघ एक टेरीटोरियल प्राणी है जिसे अपने क्षेत्र की रक्षा करनी है जिससे उसे निर्बाध रूप से पर्याप्त भोजन मिल सके और साथ ही आसानी से अन्य जरूरत भी पूरी होती रहे।   टेरिटरी बनाने के लिए वह निरन्तर दूसरे बाघों से द्वन्द्व करता रहता है। इसी प्रकार मादा और नर का साथ पाने के लिए भी संघर्ष ही एक मात्र रास्ता है। मादा बाघ के लिए, चुनौती बढ़ जाती है क्योंकि उसे अपने शावकों को अन्य बाघों से बचाना होता है। क्षेत्र को सुरक्षित और संरक्षित करने में विफलता के गंभीर परिणाम हो सकते हैं, जिससे भुखमरी, चोट या यहां तक कि मृत्यु भी हो सकती है।

मौत के 48 घंटे बाद मिले शव की यह हालत है; यह उसी स्थान पर दूसरे बाघ से संघर्ष के बाद मारा गया था। अगर यह घायल होता तो छिपकर मारा जाता।

क्षेत्रीय संघर्षों (टेर्रीटोरैल फाइट)  के कारण विस्थापित हुए वृद्ध और युवा बाघों के लिए और भी अधिक खतरनाक स्थिति तब पैदा होती है जब वे घनी आबादी वाले गांवों के पास जाते हैं। यहां, उन्हें मवेशियों और अन्य पशुओं के रूप में आसान शिकार का सामना करना पड़ता है, लेकिन ग्रामीणों के साथ संघर्ष का जोखिम बहुत अधिक रहता है।

साथ ही बाघ के जीवन में भोजन के लिए द्वन्द्व तो है ही और अन्य द्वन्द्व भी है जैसे – टेरिटरी के लिए द्वन्द्व, साथी हासिल करने के लिए जंग और खुद की और अपने परिवार की रक्षा के लिए जंग यह सभी सतत प्रक्रियाएं है।

इस प्रकार, बाघ का जीवन भोजन, क्षेत्र, संभोग और सुरक्षा के लिए संघर्षों से भरा होता है। जीवित रहने के लिए, बाघ मृत्यु दर और संभावित खतरों के बारे में तीव्र जागरूकता विकसित करता है। वह समझता है कि अगर वह कमजोर हो गया, तो प्रतियोगी उसे मार देंगे, जैसा कि उसने दूसरों को किया है। बाघ जैसे जैसे कमजोर और वृद्ध होता है वह डर और भय वश अपने आप को अन्य बाघों से अलग- थलग कर लेता है, अपने विचरण को संयमित कर लेता है – खुले में घूमने की बजाय छुप कर रहने लगता है। अक्सर यह  दो बाघों की टेरिटरी के मध्य सबसे  एकांत स्थान का चयन करते है।  अपनी जरूरतों को संकुचित करते है।  टेरिटरी की रक्षा नहीं करते, बच्चे का लालन पालन आदि से निवृत्त हो ही जाते है।  परन्तु कभी न कभी यह किसी मजबूत और उस क्षेत्र के मुख्य बाघ के द्वारा मार भी दिए जाते है या रुग्ण अवस्था में किसी गुफा या कटीली झाडी के मध्य जा कर यह अपनी अंतिम साँस लेते है। अतः इनका अंतिम समय में दिखना अत्यंत मुश्किल हो जाता है।

यहाँ आप बाघ के शव को तेज़ी से सड़ते हुए देख सकते हैं। माना जा रहा है कि यह शव सिर्फ़ 5-6 दिन पुराना है और जंगली सूअरों और दूसरे जानवरों द्वारा सड़ने और खा जाने के कारण इसका वज़न सिर्फ़ 18-20 किलोग्राम रह गया है।

चूंकि मांसाहारी जानवर शाकाहारी जानवरों की तुलना में तेजी से सड़ते हैं, इसलिए मृत बाघों या अन्य मांसाहारियों के अवशेषों को ढूंढना विशेष रूप से चुनौतीपूर्ण हो सकता है। बाघों में उच्च मांसपेशी घनत्व और कम शरीर वसा होता है, जो मांसपेशियों के ऊतकों की प्रकृति के कारण अधिक तेज़ी से टूटता है, जिसमें महत्वपूर्ण मात्रा में पानी और प्रोटीन होता है। मांसपेशियों के ऊतक बैक्टीरिया और एंजाइमेटिक गतिविधि के प्रति अधिक संवेदनशील होते हैं, जो अपघटन को तेज करता है। इसके विपरीत, शाकाहारी जानवरों में आमतौर पर अधिक शरीर में वसा और संयोजी ऊतक होते हैं। वसा, मांसपेशियों के विपरीत, अपनी कम पानी की मात्रा और माइक्रोबियल टूटने के प्रतिरोध के कारण अधिक धीरे-धीरे विघटित होती है।

इसके अतिरिक्त, शाकाहारी जीवों के पाचन तंत्र और आहार एक अलग माइक्रोबायोम बनाते हैं जो मांसाहारियों की तुलना में मृत्यु के बाद क्षय प्रक्रिया को धीमा कर सकता है। बाघों के उच्च प्रोटीन आहार में बैक्टीरिया और एंजाइम होते हैं जो मृत्यु के बाद अपघटन को तेज करते हैं। हालांकि, शाकाहारी जीवों में ऐसे बैक्टीरिया होते हैं जो पौधों की सामग्री को किण्वित करते हैं, जिससे अपघटन प्रक्रिया धीमी हो जाती है।

बाघ जैसे शिकारी प्राणियों के साथ विभिन्न प्रकार के कीड़े और सूक्ष्मजीव साहचर्य के रूप में रहते है जैसे फलेश फ्लाई जो इनके आस पास मंडराते हुए देखी जा सकती है। बाघ जैसे मांसाहारियों की गंध एवं उनका निरंतर किसी शिकार के संपर्क में रहना इन प्राकृतिक अपघटक कीटों एवं सूक्ष्मजीवों को आकर्षित करता है। बाघ की मृत्यु के बाद यही अपघटक इनका स्वयं का ही अपघटन को तेज कर देते हैं। साथ ही बाघ जैसे मांसाहारी प्राणी की आंत में बैक्टीरिया का अधिक लोड होता है जो मांस को पचने में अधिक माहिर होते हैं। जब बाघ स्वयं मर जाता है, तो ये बैक्टीरिया तेजी से गुणात्मक रूप से बढ़ते है, शाकाहारी प्राणियों की तुलना में ऊतकों को तेजी से तोड़ते हैं, जिनमें पौधों की सामग्री को पचाने के लिए अनुकूलित सूक्ष्मजीव होते हैं। इसीलिए जब आप बाघ बघेरे के शव को देखते है तो पाएंगे की इनकी खाल तुरंत सड़ने लगती है जबकि की किसी शाकाहारी प्राणी की खाल शरीर से चिपक कर सुख जाती है। बाघ आदि के शव की खाल से बाल तुरंत झड़ने लगता है जबकि शाकाहारी प्राणी की त्वचा से बाल चिपके रहते है।

सार्कोफेगा बरकेया, एक मांसाहारी मक्खी है जो लगातार बाघों और अन्य जानवरों पर अंडे देने के अवसरों की तलाश करती है। जब उसे कोई मृत जानवर मिलता है, तो वह तुरंत अपने अंडे जमा करके अपघटन प्रक्रिया शुरू कर देती है, जिससे लार्वा निकलते हैं जो शव को खाते हैं।

अक्सर यह भी माना जाता है, की अनेक प्रकार के स्कैवेंजर जैसे लकड़बग्घा एवं सियार आदि इन्हें खाने नहीं आएंगे परन्तु जंगली सूअर भी उतना ही सक्षम स्कैवेंजर है और वह निर्भीक रूप से इनके शरीर को सड़ने के साथ ही कुछ समय बाद खाने लगता है। बस यही सब कारण है हमें बूढ़े बाघ मरने के बाद आसानी से नहीं मिलते। रणथम्भोर में पिछले दो दशकों के मैंने पाया की मात्र दो बाघ ही उम्र दराज हो कर मृत अवस्था में मिले थे- बाकि बाघ अप्रकार्तिक रूप से मारे जाने के बाद ही उनका शव बरामद हुआ है। यह दो बाघ भी इंसानों द्वारा पोषित थे जैसे मछली बाघिन (T16) एवं बिग डैडी (T2)। इन सभी कारणों की वजह से मृत बाघ वनों में आसानी से नहीं मिलते है।