पत्थर इकट्ठा करने वाला रहस्यमय ककरगड़ा सांप    

 पत्थर इकट्ठा करने वाला रहस्यमय ककरगड़ा सांप    

सवाई माधोपुर – करौली ज़िलों के आस पास के लोग एक रहस्यमय सांप के बारे में अक्सर चर्चा करते है, जिसे वे ककरगड़ा के नाम से जानते है।  उनके अनुसार यह सांप अपने बिलों के आस पास कंकर इकट्ठे करता है।

इन पत्थर के छोटे छोटे टुकड़ों को वह करीने से अपने बिल के मुहाने के आगे सहेज कर रखता हैं। स्थानीय लोग इसे अत्यंत ज़हरीला सांप मानते है, और साथ ही कहते हैं की यह मात्र रात्रि में निकलता है। निरंतर ककरगड़ा की चर्चा होने के कारण, यह सब के लिए एक पहेली बनता जा रहा था। कभी कभी लगाता था, जैसे वह करैत की बात कर रहे है, क्योंकि उनके अनुसार ककरगड़ा मात्र रात्रि में ही सक्रिय होता है। इन सब बातो से इस सांप का रहस्य और भी गहराता जा रहा था।
राजस्थान में सांपों के बारे में अनेक किंवदन्तियाँ और अंधविश्वास से जुड़ी कई कहानियां आम हैं, परन्तु उनकी बातों से ककरगड़ा का वर्णन पूरी तरह गलत नहीं लग रहा था। गांव के बुजुर्ग और जवान सभी इस प्रकार के सांप देखने की चर्चा करते रहे है।गांव के लोगों के अनुसार इस सांप के बिल अक्सर ही मिल जाते हैं।

Little Indian field mouse (Mus booduga) द्वारा बनाया गया बिल (फोटो : श्री धर्म सिंह गुर्जर)

वर्ष 2007, में पाली- चम्बल गांव से फ़ोन आया की उनके घर के पास ककरगड़ा ने एक बिल बना रखा हैं, यह हमारे लिए एक अवसर था। टाइगर वॉच संस्था ने एक इंटर्न श्री प्रीतेश पानके को यह जिम्मा दिया की वह इस रहस्य से पर्दा हटाने में मदद करें। श्री पानके को पूरी रात्रि जाग कर गहन नजर रखते हुए उस बिल के पास बैठना था। श्री पानके वर्तमान में भारतीय वायु सेना में कार्यरत है। पूर्ण सजग श्री पानके पूरी तैयारी कर के उस बिल से थोड़ी दूर अपना कैमरा लेकर बैठ गए की अब इस रहस्य से पर्दा हटाना ही है।

श्री पानके के अनुसार पहली रात्रि में उन्होंने कोई भी गतिविधि नहीं देखी, लगने लगा मानो यह एक व्यर्थ प्रयास होने जा रहा हैं। दूसरी रात्रि भी लगभग ख़तम होने को आयी, अब उन्हें नींद भी आ रही थी, परन्तु अभी उनकी जिज्ञासा ख़तम नहीं हुई थी, साथ ही यह भय भी था कहीं करैत जैसा सांप नींद में काट नहीं ले, बार बार में वे कुर्सी से नीचे लटकते अपने पांव ऊपर करते रहे। सुबह के पांच बज चुके थे, अचानक बिल के पास एक हलचल हुई और एक छोटा चूहा तेजी से बिल से निकल कर बाहर की और भागा। खोदा पहाड़ निकला चूहा की कहावत को चरितार्थ करता हुआ यह प्राणी कई रहस्यों से पर्दा हटाते हुए, उसी कुछ समय में कई बार अंदर बाहर आया गया, उसकी तेज गति के कारण श्री पानके मात्र एक छाया चित्र ही ले पाए।खैर श्री पानके के प्रयास से यह तय हो गया की ककरगड़ा कोई सांप नहीं बल्कि एक चूहा है।

भारतीय प्राणी सर्वेक्षण विभाग के एक वरिष्ठ वैज्ञानिक ने इसे प्राथमिक तौर पर Little Indian field mouse (Mus booduga) के नाम से पहचाना हैं। यद्यपि उनके अनुसार flat-haired mouse (Mus platythrix) भी हो सकता है एवं इसको प्रमाणिक तौर पर पहचनाने के लिए चूहे को पकड़ कर उसका परिक्षण करना पड़ेगा। एक अन्य शोध पत्र के अनुसार यह पाया गया हैं की Little Indian field mouse (Mus booduga) अपने बिल के मुंह पर मिटटी के ढेले लगा कर रखता हैं। यह ढेले बिल में बच्चे मौजूद रहने पर संख्या में अधिक वह आकर में बड़े हो सकते हैं।  इसलिए यह माना गया है की उनका सम्बन्ध सुरक्षा से हैं। यद्यपि इस मामले में मिट्टी के ढेलो की बजाय पत्थर के कंकर थे। शायद सरीसृप इस तरह के बिल के पास जब रेंगते हुए चलते हैं तो पत्थर सरक कर उनके मुँह को ही बंद कर देते हैं अथवा बिल के अंदर जाने का छोटा रास्ता कंकरो के ढेर में ही खो जाता हैं।

Little Indian field mouse (Mus booduga) का छायाचित्र (फोटो : श्री प्रितेश पानके)

Little Indian field mouse (Mus booduga) चूहे मात्र एक छोटे मुँह वाले बिल बनाते हैं जिस कारण इनको हाइपोक्सिक और ह्यपरकपनीक (hypoxic and hypercapnic) स्थितियों में रह सकते हैं।  इसका मतलब हैं कम ऑक्सीजन एवं रक्त में अधिक कार्बन डाइऑक्साइड की स्थिति में भी रह पाना।
खैर, इस तरह श्री पानके ने दो रात की मेहनत कर एक सांप के मिथक से पर्दा हटा दिया।  परन्तु यह सम्भव है की कोई भी सांप इन चूहों के बिल को इस्तेमाल कर सकता हैं, क्योंकि सांप अपने लिए बिल बनाते नहीं हैं, वे दूसरों के बनाये हुए बिलों को ही इस्तेमाल करते हैं। इस तरह यह कहना गलत नहीं है कि ककरगड़ा के बिल में सांप नहीं होते, परन्तु ऐसे बिल बनाने वाला एक चूहा है।

कवर:
Little Indian field mouse (Mus booduga) द्वारा बनाया गया बिल :  फोटो : श्री प्रितेश पानके
राजस्थान के खोये हुए तीन चमगादड़ प्रजातियों की कहानी  

राजस्थान के खोये हुए तीन चमगादड़ प्रजातियों की कहानी  

पिछले लगभग 150 वर्षों से राजस्थान राज्य में चमगादड़ की तीन प्रजातियां को देखा नहीं जा सका हैं। अनेकों सर्वे, खोज यात्रा, अध्ययन के बाद भी आज तक इन तीनो प्रजातियों का कोई अता पता नहीं लगा है। राजस्थान की जैव-विविधता पर कार्य करने वाले शोधकर्ता इनके विलोपन पर  अत्यंत चिंता जाहिर कर चुके है। यह तीनों है – लेसर माउस-ईयर बैट (Myotis blythii) Tomes, 1857,  लार्ज बारबास्टेल (Barbastella darjelingensis) Hodgson, in Horsfield, 1855 और सेरोटिन बैट  (Eptesicus serotinus pachyomus) Tomes, 1857.

आप को जान कर आश्चर्य होगा की ऐसा माना जाता है की इन चमगादड़ प्रजातियां में से दो तो मात्र राजस्थान से ही खोजी गयी थी, – लेसर माउस-ईयर बैट (Myotis blythii) और सेरोटिन बैट  (Eptesicus serotinus pachyomus) दोनों को पहली स्वतंत्रता की लड़ाई वाले वर्ष यानी 1857 में पहली बार वर्णित किया गया था।

इतने लंबे समय तक इनका कोई सबूत क्यों नहीं मिला? यह ठीक से जानने के लिए प्रत्येक प्रजाति को पृथक रूप से अध्ययन करते है।

1. लेसर माउस-ईयर बैट (Myotis blythii) Tomes, 1857 

चमगादड़ की इस प्रजाति का विवरण  इंग्लैंड में रहने वाले किसान रॉबर्ट फिशर टॉम्स, सन 1857 में किया था, जिनकी प्राणी विज्ञानी में गहरी रुचि थी। उनका यह विवरण ब्रिटिश संग्रहालय में संरक्षित एक नमूने पर आधारित था और उन्होंने स्वयं ने इस चमगादड़ का नमूना एकत्र नहीं किया था। उन्होंने तब इसे नाम दिया था – Vespertilio blythii. टोम्स (1857) ने अपने वर्णन में लिखा था कि ब्रिटिश संग्रहालय में इस नमूने पर एक लेबल लगा था जिस पर लिखा था-  भारत के  नसीनाबाद नामक जगह से, मिस्टर वारविक, 1848 । आगे टॉमस ने लिखा कि , “मेरा मानना है कि यह कैप्टन बॉयज़ द्वारा एकत्रित किया गया हैं”।

तो नमूने पर लिखे नाम मिस्टर वारविक को टॉम्स ने संग्रहकर्ता क्यों नहीं माना?

मिस्टर वारविक की पृष्ठभूमि खोजने पर इसका जवाब मिलता हैं-  “मिस्टर वारविक”  उस समय लंदन के एक जूलॉजिकल गार्डन के लिए प्राणी संग्रहकर्ता थे। वारविक उस समय विभिन्न जानवरों को मंगवाया करते थे। जैसे कि 1836 में मिस्र से जिराफ, पांच शुतुरमुर्ग, अठारह न्यूमिडियन क्रेन, एक ऊंट और पांच जेरोबा लाए गए थे। वारविक विभिन्न संग्रहालयों को प्राणियों के नमूने भी बेचा करते थे, जैसे कि क्यूबा नाइट जार को 1849 में डर्बी संग्रहालय को उन्होंने बेचा था।  अतः प्रतीत होता हैं की  वह इस चमगादड़ के  मूल संग्रहकर्ता  नहीं थे,  इसी कारण ने टॉम्स (1857) को यह अनुमान लगाने के लिए प्रेरित किया कि शायद किसी अन्य संग्रहकर्ता ने इसे एकत्रित किया है।

पर अब एक और प्रश्न उठता है की टॉम्स ने यह अनुमान क्यों लगाया कि मूल संग्रहकर्ता कैप्टन बॉयज़ हो सकते हैं।

इसका सीधा जवाब है की टोम्स ने उस समय के मशहूर संग्रहकर्ता कैप्टन बॉयज़ जो विभिन्न नमूनों  को संग्रह करते थे  “नसीराबाद” इलाके से जोड़ा, और यह मान लिया कि नमूना लेबल पर “नसीनाबाद” का मतलब नसीराबाद हैं, जो राजस्थान का एक कस्बा हैं। यह संभव है कि उन्होंने माना की  “नसीनाबाद” एक टाइपोलॉजिकल त्रुटि थी।

अब हम देखते हैं की कैप्टन बॉयज की पृष्ठभूमि क्या रही थी ? कैप्टन बॉयज़, ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी की फ़ौज में एक अधिकारी थे और साथ ही नमूनों का एक जाना माना संग्रहकर्ता। राजस्थान में अजमेर जिले के नसीराबाद एक प्रमुख सैन्य शहर रहा है। शायद वे नसीराबाद में रहे हो।

नसीराबाद, राजस्थान के साथ कैप्टन बॉयज़ के जुड़ाव ने इस प्रजाति के इलाके के बारे में एक धारणा को कायम रखा, भले ही टोम्स (1857) ने स्पष्ट रूप से कभी भी ऐसा कोई दावा नहीं किया की यह प्रजाति राजस्थान (तब का राजपुताना) से सम्बन्ध रखती हैं। उन्होंने भी संग्रहकर्ता के लिए शायद शब्द का इस्तेमाल किया था।

असल में जेर्डन (1867) ने सबसे पहले इसका उल्लेख किया था किनमूना  नसीराबादराजपुताना से कैप्टन बॉयज़ द्वारा खोजा गया था। जेर्डन (1867) ने टॉम्स की अटकलों को तथ्य के रूप में बताया।

हालाँकि, ब्रिटिश भारत में “नसीराबाद” नाम के कई शहर थे। नसीराबाद राजस्थान के अलावा पाकिस्तान, भारत के अन्य राज्य जैसे उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड में भी हैं और कैप्टन बॉयज राजस्थान से अधिक तो हिमालयन क्षेत्र में अधिक सक्रिय रहे थे।  यह भी ध्यान दिया जाना चाहिए कि टॉम्स (1857) द्वारा इस चमगादड़ का विवरण लिखने से तीन साल पहले ही कैप्टेन बॉयज की मृत्यु हो गई थी और टॉम्स के विवरण की पुष्टि या खंडन करने के कोई नहीं था।

जेर्डन के मोहर लगाने के पश्चात अधिकांश चमगादड़ विशेषज्ञ यही मानते रहे की लेसर माउस-ईयर बैट (Myotis blythii) राजस्थान में मिली थी।

  1. सेरोटिन बैट  (Eptesicus serotinus pachyomus), Tomes, 1857टॉम्स (1857) ने उसी शोधपत्र में, एक और चमगादड़ की प्रजाति (तब Scotophilus pachyomus) के लिए  विवरण दिया था, वह भी ब्रिटिश संग्रहालय में संरक्षित एक नमूने पर आधारित था। टोम्स (1857) के अनुसार, उसका संग्रहकर्ता  “कैप्टन बॉयज” और संग्रह का स्थान भारत था। इसमें कहीं भी राजपूताना का उल्लेख नहीं था।

    कथित तौर पर राजपूताना या राजस्थान से इस प्रजाति को सबसे पहले जोड़ा  Wroughton (1918)  ने। उन्होंने बॉम्बे नेचुरल हिस्ट्री सोसाइटी के भारतीय स्तनपायी सर्वेक्षण रिपोर्ट में लिखा की इस चमगादड़ की “टाइप लोकैलिटी: राजपुताना: बॉयज़” हैं। संभवत उन्होंने कैप्टन बॉयज़ के नसीराबाद से सम्बन्ध के कारण इस नमूने को भी राजपुताना का ही मान लिया गया था।

    इसके बाद सभी ने मान लिया की सेरोटिन बैट  (Eptesicus serotinus pachyomus) की यह राजस्थान में मिलने वाली एक प्रजाति हैं जैसे की  एलरमैन और मॉरिसन-स्कॉट (1951), सिन्हा (1980), श्रीनिवासुलु और श्रीनिवासुलु (2012), श्रीनिवासुलु एट अल। (2013) ।

हालाँकि, यह कहना पड़ेगा की  बेट्स एंड हैरिसन (1997) ने राजस्थान को इस प्रजाति के वितरण क्षेत्र में शामिल किया था, लेकिन साथ ही यह  चेतावनी भी दी थी की, “राजस्थान: कोई निश्चित इलाका नहीं। बेट्स एंड हैरिसन (1997) ने इस चमगादड़ के वितरण मानचित्र पर राजस्थान में किसी भी इलाके को चिह्नित नहीं किया।

 

  1. लार्ज बारबास्टेल (Barbastella darjelingensis) Hodgson, in Horsfield, 1855राजस्थान में लार्ज बारबास्टेल (Barbastella darjelingensis) नामक चमगादड़ की प्रजाति का प्रथम उल्लेख  Wroughton (1918), द्वारा प्रदान किया गया है। Wroughton (1918) ने ब्रिटिश संग्रहालय में जमा एक नमूने के कारण इस प्रजाति के वितरण में “राजपुताना” को शामिल किया था, लेकिन इस नमूने के लिए संग्रहकर्ता ने राजपूताना का उल्लेख ही नहीं किया था । फिर क्या वजह थी की Wroughton ने राजपूताना नाम का उल्लेख किया ?

    डॉब्सन (1878) द्वारा ब्रिटिश संग्रहालय के नमूनों पर एक कैटलॉग प्रकाशित किया गया उसके से पता चलता है कि ब्रिटिश संग्रहालय में एक साथ Barbastella darjelingensis  के दो नमूने रखे हुए थे।  एक वह नमूना जिसके आधार पर B.H. Hodgson ने लार्ज बारबास्टेल (Barbastella darjelingensis) की खोज की थी एवं दूसरा नमूना जो कैप्टेन बॉयज ने जमा कराया था। कैप्टेन बॉयज ने कभी नहीं कहा की यह नसीराबाद (राजपूताना) से प्राप्त किया गया था। डोबसन (1878) ने भी इस प्रजाति के वितरण में राजपूताना का उल्लेख नहीं किया, बल्कि माना की “भारत में (दार्जिलिंग, खासी पहाड़ियाँ, सिख, मसूरी, शिमला);यारकंद” आदि में इसका वितरण हैं ।

    Wroughton (1918)  ने कैप्टन बॉयज और नसीराबाद या राजपुताना (राजस्थान) के बीच कथित जुड़ाव को मानते हुए इसे भी राजपूताना में शामिल कर लिया, जैसा कि टोम्स (1857) द्वारा वर्णित दो प्रजातियों के साथ हुआ था।

    इसके बाद एलरमैन एंड मॉरिसन-स्कॉट (1951), सिन्हा (1980), श्रीनिवासुलु एट अल (2013) आदि सभी ने इसे राजस्थान की प्रजाति माना।
    हालांकि, सिन्हा (1980) को संदेह था अतः उन्होंने ने ब्रिटिश संग्रहालय के जे.ई. हिल से परामर्श किया और लिखा की:  जे.ई. हिल (बी.एम.) द्वारा सूचित किया गया है, ब्रिटिश संग्रहालय का नमूना संभवतः नसीराबाद का है, लेकिन “भारत” के रूप में लेबल किया गया है।

    बेट्स एंड हैरिसन (1997) ने अपने पाठ में इस प्रजाति के वितरण क्षेत्र में राजस्थान का उल्लेख नहीं किया, न ही उन्होंने इस प्रजाति के लिए अपने वितरण मानचित्र पर राजस्थान में किसी भी इलाके को चिह्नित किया।

सूक्ष्मता से देखने पर पता लगता है सभी वैज्ञानिकों ने कैप्टन बॉयज़ को नसीराबाद, राजपुताना से जोड़ कर देखा या नसीराबाद को कैप्टन बॉयज से।

परन्तु कैप्टन बॉयज़ के जीवन से स्पष्ट है कि वह राजपूताना के अलावा उत्तर भारत में भी सक्रिय रहे थे। 1843 में, उन्होंने कुमाऊं (उत्तराखंड) के आयुक्त  के सहायक के रूप में कार्य किया और दूसरे एंग्लो-सिख युद्ध में भी शामिल रहे थे। अंततः 21 मार्च 1854 को अल्मोड़ा (उत्तराखंड) में बॉयज़ की मृत्यु हो गई थी।

प्राणी नमूने एकत्र करने में कैप्टन बॉयज़ का अत्यंत कुशल थे इसी वजह से उन्हें सर्वसम्मति से 1842 में बंगाल की एशियाटिक सोसाइटी का सदस्य भी चुना गया था।   बॉयज़ ने आगरा से एक घोंघा (उत्तर प्रदेश), अल्मोड़ा (उत्तराखंड) से एक ततैया, सिंध (अब पाकिस्तान) और फिरोजपुर (भारतीय पंजाब) के बीच एक स्थान से एक पक्षी, राजस्थान के जयपुर से एक कैरकल आदि भी एकत्रित किये थे।

जार्डिन (1852) ने लंदन में कैप्टेन बॉयज के पक्षी संग्रह की नीलामी के बारे में लिखा हैं की, “पक्षियों के 500 – 600 प्रजातियां के नमूने उनके भारत के ऊपरी गंगा प्रांतों में उनके कई वर्षों के निवास का परिणाम हैं। उनमें से कुछ बहुत दुर्लभ हैं। एशियाटिक सोसाइटी ऑफ बंगाल ने उन्हें “तिब्बत दर्रे” (भारत-तिब्बत सीमा क्षेत्रों) में भूवैज्ञानिक अभियानों के लिए वित्तीय सहायता भी प्रदान की थी।

इस प्रकार यह स्पष्ट है कि कैप्टेन बॉयज के प्रयास केवल राजपुताना तक ही सीमित नहीं थे और उन्होंने हिमालय में काफी समय बिताया। संयोग से, हिमालय वह जगह है जहाँ यह तीनों चमगादड़ मिलती हैं।

इस प्रकार कह सकते हैं की राजस्थान में इन तीनों प्रजातियों के होने का कोई ठोस सबूत नहीं है, तो उन्हें राजस्थान सूची से हटा दिया जाना चाहिए।

References

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Dr. Dharmendra Khandal (L) has worked as a conservation biologist with Tiger Watch – a non-profit organisation based in Ranthambhore, for the last 16 years. He spearheads all anti-poaching, community-based conservation and exploration interventions for the organisation.

Mr. Ishan Dhar (R) is a researcher of political science in a think tank. He has been associated with Tiger Watch’s conservation interventions in his capacity as a member of the board of directors.

राजस्थान के खोये हुए तीन चमगादड़ प्रजातियों की कहानी  

A Chiropteran Conundrum: The Story of the Three Lost Bats of Rajasthan  

For the last 150 years, three bat species have not been observed in  Rajasthan. Field surveys , expeditions ,studies, have all returned empty handed. No trace of these three species has been found till date. Researchers working on the biodiversity of Rajasthan have expressed great concern over their purported extinction. The three species causing such a flutter in the scientific community are the Lesser Mouse-Eared Bat ( Myotis blythii) Tomes, 1857, the Large Barbastelle ( Barbastella darjelingensis) Hodgson, in Horsfield, 1855 and the Serotine Bat ( Eptesicus serotinus pachyomus) Tomes, 1857.

You will be even more surprised to know that it is believed that two of these bat species were first discovered in Rajasthan, namely the Lesser Mouse-Eared Bat ( Myotis blythii) and the Serotine Bat ( Eptesicus serotinus pachyomus). Both were first described during the year of the First War of Indian Independence, i.e. 1857

If that is indeed the case, why has there been absolutely no evidence of their occurrence for so long ? To get to the bottom of this bewildering mystery,  published literature on each species was studied closely and analysed separately.

1. Lesser mouse-eared bat ( Myotis blythii) Tomes, 1857

This species of bat was described in 1857 by Robert Fisher Tomes , a farmer living in England , who had a keen interest in zoology. His description was based on a specimen preserved in the British Museum and it is pertinent to remember that he did not collect the specimen himself. He then named it Vespertilio blythii . Tomes ( 1857) wrote in his description that the specimen in the British Museum had a label on it – ““Hab. India, Nassenabad, from Mr. Warwick, 1848”  . Tomes (1857) further wrote that , ” I believe collected by  Captain Boys”.

So why didn’t Tomes(1857)  consider Mr. Warwick to be the collector of the specimen ?

An examination of  Mr Warwick’s background gives us the answer –  John Edington Warwick was  a ‘naturalist’ for the Royal Surrey Zoological Gardens in  London (Walworth). The gardens procured animals from at least three continents during Warwick’s tenure. Warwick seems to have only occasionally procured animals from overseas personally , such as a giraffe , five ostriches , eighteen Numidian cranes , one camel and five jerboas  from  Egypt in one notable instance in 1836 .  Specimens from Warwick’s expansive collection at the garden were also sold  to  museums upon expiry , for example, a Cuban nightjar was sold to the Derby Museum in 1849 . Warwick therefore appears not to have been the collector of this bat ,which led Tomes (1857) to speculate that someone else may have collected it in India.

However, another question arises, why did Tomes(1857)  speculate that the original collectors might be  Captain Boys?

The  answer appears to be that Tomes(1857) quite possibly linked the then famous collector of specimens, Captain Boys, to  “Nasirabad” , and assumed that “Nassenabad” on the specimen label meant Nasirabad , a town in Rajasthan. It is possible that he assumed that “Nassenabad” was nothing more than a typological error.

Now let us look into  Captain Boys. Captain W.J.E Boys was a cavalry officer in the British East India Company as well as a well-known collector of specimens. Nasirabad in the Ajmer district of Rajasthan has a rather long history as a cantonment town .

Captain Boy’s purported association with Nasirabad , Rajasthan has led to assumptions about the type locality of this species , even though Tomes ( 1857) never claimed that the species was from Rajasthan (then Rajputana) nor that the collector was Captain Boys.

T.C.  Jerdon ( 1867) was the first to claim that the specimen was discovered by Captain Boys in Nasirabad ,Rajasthan. Jerdon (1867) wrote, “The bat was found by Captain Boys in Nusserabad, Rajputana”. Jerdon ( 1867) therefore first assumed that ‘Nassenabad’ was ‘Nasirabad’ , second, that ‘Nusserabad’ was in Rajasthan, and perpetuated what was clearly a conjecture by Tomes(1857) regarding the collector as fact.

However , there were many localities in British India named “Nasirabad”. Apart from Rajasthan, there is also a Nasirabad in Pakistan , and multiple states in today’s India like Uttar Pradesh and Uttarakhand. In addition, Captain Boys was also very active in the Himalayan regions . It should also be noted that Captain Boys had died three years before Tomes ( 1857) wrote the description of the bat, and therefore could not have confirmed nor disproved Tomes(1857) description.

After Jerdon’s (1867)  perpetuation of assumptions , most bat experts have believed that the lesser mouse-eared bat ( Myotis blythii) was first discovered in Rajasthan.

 

  1. The Serotine Bat (Eptesicus serotinus pachyomus ), Tomes , 1857Tomes ( 1857) , in the same paper, also described another bat species (then Scotophilus pachyomus) ,  based on a specimen in the British Museum. According to Tomes ( 1857) , the collector of this specimen was “Captain Boys” and the place of specimen collection was “India”. There was no mention of Rajputana.

    Wroughton (1918) was the first  to claim that this species occurred in  Rajputana or Rajasthan and was first discovered there . He wrote the following  in the Bombay Natural History Society’s Indian Mammal Survey report,  “Type Locality: Rajputana: Boys”. Perhaps because of the purported connection between Captain Boys and  Nasirabad, Wroughton (1918) also assumed that the type locality was Rajputana.

    Following Wroughton(1918), many assumed that  ( Eptesicus serotinus pachyomus) occurred in Rajasthan such as Ellerman and Morrison-Scott ( 1951), Sinha ( 1980), Srinivasulu and Srinivasulu ( 2012), Srinivasulu et al. ( 2013) .

However , it must be said that although Bates and Harrison ( 1997) included Rajasthan in the distribution area for this species , they added a disclaimer , ” Rajasthan: No definite area”. The distribution map  they provided for this bat also did not mark any specific locality in Rajasthan.

 

  1. Large Barbastelle (Barbastella darjelingensis) Hodgson, in Horsfield, 1855

Wroughton (1918),  was the first to claim that the  Large Barbastelle ( Barbastella darjelingensis) occurred in Rajasthan. Wroughton (1918) included “Rajputana” in the distribution of this species due to a specimen deposited in the British Museum , but once again, the  museum did not mention Rajputana as the locality for this specimen. How then did Wroughton (1918) claim that the specimen was sourced in Rajasthan?

In theCatalogue of the Chiroptera in the Collection of the British Museum  authored by Dobson ( 1878), it is apparent that the British Museum simultaneously held two specimens of Barbastella darjelingensis . The first specimen was the type specimen on the basis of which B.H. Hodgson described the Large Barbastelle ( Barbastella darjelingensis) and the other  was deposited by Captain Boys. However here too no specific locality in India is provided for this specimen. Dobson ( 1878) also did not mention Rajputana in his account of the  distribution of this species , but considered its distribution to be “India (Darjeeling , Khasi Hills , Sikh , Mussoorie , Shimla) ; Yarkand” etc.

Therefore it is highly likely that Wroughton (1918) relied on  the alleged association between Captain Boys and Nasirabad or Rajputana (Rajasthan) to include  Rajputana in the extent of occurrence for this species as well , as was the case with the two species described by Tomes ( 1857) .

Subsequently, Ellerman and Morrison-Scott ( 1951), Sinha ( 1980), Srinivasulu et al ( 2013) etc. all considered this  species to be found in Rajasthan.
However , Sinha ( 1980) was presumably skeptical and therefore consulted J.E. Hill  of the British Museum who like Wroughton(1918) before him, appears to have made the same alleged association between Captain Boys and Nasirabad or Rajputana (Rajasthan): “as informed by J.E. Hill (B.M.) the specimen from the British Museum is probably from Nasirabad but labelled as “India””.

Bates and Harrison ( 1997) did not include Rajasthan in the distribution  of this species in their account , nor was any locality in Rajasthan  marked on their distribution map for this species.

 

It is evident  that almost all authors have linked Captain Boys to Nasirabad , Rajputana or Nasirabad to Captain Boys.

However  it is clear from an examination of  the life of Captain Boys that he was very active in North India and not just Rajputana. In 1843 , he served as an assistant to the Commissioner of Kumaon (Uttarakhand) and also fought in the Second Anglo-Sikh War. Boys eventually died on 21 March 1854 in Almora (Uttarakhand).

Captain Boys was extremely prolific in collecting animal specimens, due to which he was also unanimously elected a member of the Asiatic Society of Bengal in 1842 . The specimens collected by Boys are diverse, for example, he collected a snail from Agra (Uttar Pradesh) , a wasp from Almora (Uttarakhand), a bird from a place in between Sindh (now Pakistan) and Ferozepur (Indian Punjab), a caracal from Jaipur in Rajasthan and so on.

In Jardine (1852),  the auction of  Captain Boys’ collection of bird specimens in London is described , ” The specimens of 500-600 species of birds are the result of their many years of residence in the Upper Ganges provinces of India”. The Asiatic Society of Bengal also provided him financial support for geological expeditions to the “Thibet Passes”.

It is thus clear that  Captain Boys was by no means confined to just Rajputana and  spent a considerable amount of time in the Himalayas where he also collected numerous specimens. Incidentally , the Himalayas are where these three bats are known to occur today.

Thus it can be said that  until there is concrete evidence of the occurrence of these three species in Rajasthan ,  they should be removed from all lists of chiroptera  in the state.

References

Bates, P.J.J. & D.L. Harrison (1997). Bats of the Indian Subcontinent. Harrison Zoological Museum Publication, Seven oaks, Kent 258 pp.

Dobson, G.E. (1878). Catalogue of the Chiroptera in the Collection of the British Museum. Taylor & Francis, London, 550 pp. https://doi. org/10.5962/bhl.title.55341

Ellerman, J.R. & T.C.S. Morrison-Scott (1951). Checklist of Palaearcticand Indian Mammals 1758 to 1946. British Museum (Natural History), London, 810 pp.

Khandal, D., I. Dhar, D.L. Bohra & S.S. Talmale (2022). Natural history notes on three bat species. Journal of Threatened Taxa 14(8): 21501–21507

Tomes R.F. (1857). Description of four undescribed species of Bats. Proceedings of the Zoological Society of London 25: 50–54. https:// doi.org/10.1111/j.1096-3642.1857.tb01197.x

Jerdon, T.C. (1867). 59. Vespertilio Blythi: p. 45. In: The Mammals of India: A Natural History of all the Animals Known to Inhabit Continental India. Thomason College Press, Roorkee, 320 pp. https://doi.org/10.5962/bhl.title.54173

Wroughton, R.C. (1918). Summary of the Results from the Indian Mammal Survey of the Bombay Natural History Society. Journal of the Bombay Natural History Society 5(4): 547–596.

Sinha Y.P. (1980). The bats of Rajasthan: taxonomy and zoogeography. Records of the Zoological Survey of India 76 (1–4): 7–63.

Srinivasulu, C. & B. Srinivasulu (2012). South Asian Mammals, Their diversity, Distribution, and Status. Springer, New York, 468 pp. https://doi.org/10.1007/978-1-4614-3449-8_2

Srinivasulu, C., B. Srinivasulu & Y.P. Sinha (2013). Chapter 21. Chiropteran Fauna of Rajasthan: Taxonomy, Distribution and Status, pp. 505–548. In: Sharma, B.K., S. Kulshreshtha & A.R. Rahmani (eds.). Faunal Heritage of Rajasthan, India: General Background and Ecology of Vertebrates. Springer Science+Business Media, New York, 661 pp. https://doi.org/10.1007/978-1-4614-0800-0_21

Strickland, H.E. & C. Strickland (1852). Illustrations of Ornithology: Pericrocotus Erythropogius, JERDON. In: Jardine, W. Contributions to Ornithology 1848–1852 Vol 1. Samuel Higley, London, 162 pp.

 

Dr. Dharmendra Khandal (L) has worked as a conservation biologist with Tiger Watch – a non-profit organisation based in Ranthambhore, for the last 16 years. He spearheads all anti-poaching, community-based conservation and exploration interventions for the organisation.

Mr. Ishan Dhar (R) is a researcher of political science in a think tank. He has been associated with Tiger Watch’s conservation interventions in his capacity as a member of the board of directors.

 

 

राजस्थान के धागे जैसे पतले थ्रेड स्नैक्स (Thread snake)

राजस्थान के धागे जैसे पतले थ्रेड स्नैक्स (Thread snake)

लोगो का सांपों के प्रति दो प्रकार से व्यवहार देखा गया है, कुछ लोग इनसे अत्यंत लगाव रखते हैं और हर मौके पर सांपों की चर्चा करते हुए नहीं थकते हैं, और दूसरे वे जो केंचुओं जैसे दिखने वाले निरीह ब्लाइंड स्नेक तक को भी, जहरीले सांप मान कर मारते रहते हैं।  केंचुए जैसे दिखने वाले ‘ब्लाइंड स्नेक’ सांप जो अक्सर आपके घरों के बाथरूमों के ड्रेनेज वाले नालों से निकलते हैं, उनको हम दो समूह में बाँट सकते हैं एक सामान्य तौर पर मिलने वाला ब्लाइंड स्नेक हैं, दूसरा पतला होने के कारण स्लेंडर ब्लाइंड स्नेक जिसका ही एक अन्य नाम हैं – थ्रेड स्नेक।

Myriopholis blanfordi (Blanford’s worm snake , the Sindh thread snake) photo by Dhamrendra Khandal & Vivek Sharma

ये दोनों ही इतनी छोटे आकर के हैं की इन्हें मात्र प्रशिक्षित लोग ही इन्हें सही तरह से पहचान सकते हैं।  पिछले दिनों राजस्थान में मिलने वाले थ्रेड स्नैक्स पर एक सर्प विशेषज्ञ श्री विवेक शर्मा  द्वारा एक अध्ययन किया गया। उन्होंने राजस्थान में 4000 किलोमीटर की एक दुष्कर यात्रा की जिसका उद्देश्य था, उपेक्षित सांपों पर शोध कार्य करना जैसे थ्रेड स्नेक आदि को उनके विभिन्न परिवेशों में देखना- जिनमें रेगिस्तान, उजाड़, खुले वन, मानव विकसित एवं परिवर्तित पारिस्थितिक तंत्र इत्यादि शामिल थे। यह प्रयास वह एक लम्बे शोध अध्ययन के पूर्व में उसकी ज़रूरत को देखने लिए कर रहे थे ताकि अपने शोध के उद्देश्य निर्धारित कर सके।  जबलपुर, मध्य प्रदेश के रहने वाले श्री विवेक शर्मा, सांपों की टेक्सोनोमी एवं उनकी पहचान में माहिर हैं। टैक्सोनॉमी पृथ्वी पर सभी जीवित जीवों को वर्गीकृत (छँटाई और वर्गीकृत) करने के लिए उपयोग की जाने वाली एक प्रणाली है। उन्होंने भारतीय सांपों को नए स्थानों पर खोजने एवं सांपों की एकदम नयी प्रजातियों की खोज पर कई राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय शोधपत्र प्रकाशित किये हैं।

अक्सर किसी भी प्राणी की प्रजाति का सही नाम जान लेना एक अत्यंत दुष्कर कार्य हैं। यह काम हमारे लिए आसान करते हैं टैक्सनॉमिस्ट (Taxonomist)।  टैक्सनॉमिस्ट जीवित प्राणियों को वर्गीकृत करने का कार्य करते हैं। टेक्सोनोमी “जीवन” के लिए एक पुस्तकालय की तरह है, जिसमें पूरी दीवारें अलमारियों में विभाजित हैं, फिर अलमारियों के भीतर अलग अलग खाने, फिर उसके भीतर किताबें, और अंत में प्रत्येक प्रजाति के लिए एकल पन्ना।

Myriopholis macrorhyncha (Beaked-thread snake , Long-nosed worm snake or Hook-snouted worm snake) photo by Dhamrendra Khandal & Vivek Sharma

विवेक शर्मा ने अचानक एक दिन मुझे फोन किया की आप यदि सिंध थ्रेड स्नेक (Myriopholis blanfordi) को देखना चाहते हैं और आज के दिन समय निकाल सकते हैं तो राजस्थान के अजमेर जिले में आ जाये।  जब में वहां पहुंचा तो उन्होंने बताया की एक स्थान पर निर्माण कार्य चल रहा है और यहाँ कुछ अच्छी संभावनाएं हैं, विवेक बोले हम इस स्थान पर कुछ सिंध थ्रेड स्नेक पहले ही देख चुके हैं और स्थानीय सज्जनों ने भी ऐसे किसी गुलाबी रेंगने वाले “कीड़े” को कभी कभार देखने की बात की है। कुछ समय में खुदाई करने वाले मजदूरों ने एक सांप को उठा कर दूर किया, जिसको विवेक शर्मा ने सावधानीपूर्वक अवलोकन कर पाया की यह सिंध थ्रेड स्नेक ही हैं, इसे देखना मेरे लिए एक अवसर जैसा था। साथ ही उसने कहा की इसके खोजकर्ता के बाद और आजादी के पहले यहां काम कर रहे विदेशी जीव वैज्ञानिकों के बाद से इसे किसी ने ठीक से पहचानने का कार्य स्वतंत्र भारत में अभी तक किसी ने नहीं किया हैं।

उसने बताया की कुछ लोग दावा करेंगे की उन्होंने इसे देखा हैं परन्तु थार मरुस्थल में एक और थ्रेड स्नेक प्रजाति मिलती हैं जिसे इसकी सहोदर प्रजाति (sibling species) कह सकते है। यानी दो या दो से अधिक प्रजातियां जो दिखने में लगभग समान हैं, फिर भी आपस में प्रजनन नहीं करती हो उन्हें सहोदर या गुप्त प्रजाति कहा जाता है। यह प्रोटोजोआ से लेकर हाथियों तक के सभी जीवों में देखा गया है। अपनी संरचनात्मक समानता को बनाए रखते हुए, ऐसी प्रजातियों सूक्ष्म शारीरिक और व्यवहारिक रूप से निसंदेह अलग भी होती हैं।  ऐसी  प्रजातियों के प्रजनन व्यवहार, फेरोमोन, मौसमी, या अन्य विशेषताओं में अंतर होते हैं जो इन प्रजातियों की अलग पहचान बनाए रखते हैं।

मैंने श्री विवेक से पूछा तो क्या थार में थ्रेड स्नेक की कोई अन्य प्रजाति भी मिलती हैं ?

विवेक बोले बिलकुल मिलती हैं।  और देखना आपको में एक बार मेरी यात्रा के दौरान फिर बुलाऊंगा।  यही हुआ, कुछ दिनों बाद विवेक ने कहा आप जोधपुर आये आपको नया थ्रेड स्नेक देखने को मिलेगा।उसी तरह रोड के पास देखा अन्य प्रजाति का बीकड थ्रेड स्नेक (Myriopholis macrorhyncha)। देखने में बिलकुल सिंध थ्रेड के समान परन्तु मुँह के सामने ध्यान से देखने पर आपको मुँह आगे चोंच की तरह निकला हुआ हिस्सा (रोस्ट्राल), जो इसे सिंध थ्रेड स्नेक से अलग प्रजाति बनाता हैं।

जब और अधिक अंतर जानने का प्रयास किया तो विवेक बोले यह काम सांप पर काम करने वालो का हैं जो इतने छोटे सांपों को मात्र सूक्ष्मदर्शी से ही पहचान सकते हैं, मोटे तौर पर आप इतना ध्यान रखे की जो गुलाबी रंग का अधिक चमकदार हैं स्नेक हैं वह थ्रेड स्नेक या स्लेंडर ब्लाइंड स्नेक हैं, और गहरे भूरे रंग के ब्लाइंड स्नेक हैं। साथ ही बताया की किस प्रकार थ्रेड स्नेक के कपाल और ऊपरी जबड़े स्थिर होते हैं और ऊपरी जबड़े में कोई दांत नहीं होते है। निचले जबड़े में बहुत लम्बी चतुष्कोणीय हड्डी, एक छोटी यौगिक हड्डी और अपेक्षाकृत बड़ी दांतेदार हड्डी होती है।जबकि ब्लाइंड स्नेक में ऊपरी जबड़े में दांत होते हैं। ब्लाइंड स्नैक्स में निचले जबड़े की जोड़-तोड़ अन्य सर्पों की तरह खुलते नहीं हैं जो उसे अपने मुँह से छोटे शिकार करने के लिए बाध्य करते हैं। इसलिए कहते हैं यह सांप प्रजाति अपने शिकार को टुकड़े टुकड़े कर के खाते हैं, अन्य सर्पों की भाँति उन्हें निगलते नहीं हैं। खैर यह व्यवहार भी किसी प्रयोगशाला  में ही देखा जा सकता है.

आगे विवेक थोड़ा रुक कर बोले “राजस्थान में थ्रेड स्नेक एवं ब्लाइंड स्नेक की कई प्रकार की ज्ञात प्रजातियां पायी जाती हैं एवं कई अज्ञात प्रजातियां होने की भी पूरी सम्भावना हैं।जब समझ नहीं आये तो यह बोले की यह एक थ्रेड स्नेक हैं – सिंध हैं या बीकड पता नहीं। बस आप एक सुधि शोधार्थी   की तरह व्यवहार करें।”