टाइगर गोल्ड : श्री वाल्मीक थॉपर की रणथम्भौर के बाघों पर एक नई पुस्तक

टाइगर गोल्ड : श्री वाल्मीक थॉपर की रणथम्भौर के बाघों पर एक नई पुस्तक

 

श्री वाल्मीक थॉपर ने दुर्लभ बाघ व्यवहार दर्शाने वाले छाया चित्रों के संग्रह के साथ अनोखी पुस्तक का प्रकाशन किया है. इस पुस्तक में बाघों के आपसी टकराव, शिकार, बच्चों के लालन पालन, प्रणय, बघेरे, भालू, लकड़बग्घा आदि के साथ बाघ के आपसी व्यवहार, आदि सभी विषयों पर अद्भुत छायांकन और लेखन से जानकारी साझा की है.

इस पुस्तक को हाथ में लेने के बाद इसके 336 पृष्ठों को एक बार में देखे बिना छोड़ पाना लगभग नामुमकिन है. मैंने भी इसके बनने में सहयोग दिया हैं अतः मुझे भी पुस्तक के मुख पृष्ठ पर स्थान मिला है, अतः इस पुस्तक को पहली बार देखना मेरे लिए एक गर्व और सुखद अहसास का क्षण रहा है . यह पुस्तक मुख्यतया श्री थॉपर के रणथम्भौर में दो लम्बे प्रवासों के दौरान प्राप्त हुए छाया चित्रों एवं अनेक बाघों के द्वारा प्रदर्शित किये गए व्यवहार की जानकारी पर आधारित है .  इस दौरान मुझे भी अधिकांश बार उनके साथ पार्क में जाने का मौका मिला था .

पुस्तक में मूलतः चार्जर (T120) नामक बाघ द्वारा प्रदर्शित किये गए व्यवहार को अत्यंत सूक्ष्मता से छायांकन किया गया एवं उतनी ही गहराई से श्री थॉपर द्वारा अपने दीर्घ अनुभव के माध्यम से उनका गहन विश्लेषण किया है. श्री थॉपर की पत्नी श्रीमती संजना कपूर ने भी इस दौरान लिए अनेकों छायाचित्र लिए जिनसे रिक्त स्थानों को सम्पूर्णता मिली है . असल में इन दो प्रवासों के 40 -50  दिनों तक उनके साथ रहने वाले सभी लोग एक टीम के रूप में कार्य करने लगे. जैसे अनोखे सामर्थ्य के धनी श्री सलीम अली के वन भ्रमण के लम्बे अनुभव और बाघों के व्यवहार को समझने वाले गाइड के तौर पर कुशल संयोजन किया है . शेरबाग होटल के दीर्घ अनुभवी ड्राइवर श्री श्याम ने अपनी मक्खन ड्राइविंग से उन दिनों की तप्ती धुप को  भी सहज बनाये रखा .

इस पुस्तक में भारत के जाने माने अन्य वन्यजीव छायाकारो ने भी अपने छाया चित्र इस पुस्तक के लिए श्री थापर को सहर्ष भेंट किये है . जिनमे है – श्री आदित्य सिंह , श्री कैरव इंजीनियर, श्री चन्द्रभाल सिंह, श्री जयंत शर्मा, श्री हर्षा नरसिम्हामूर्ति, श्री अरिजीत बनर्जी,  श्री उदयवीर सिंह, श्री अभिनव धर,श्री अभिषेक चौधरी आदि हैं. यह सभी पार्क में जाने का लम्बा अनुभव रखते हैं .

श्री थॉपर के अनुसार यह पुस्तक अपने इष्ट मित्रों और परिजनों के लिए ही प्रकाशित की गयी है शायद इसका  मतलब है यह बाजार, अमेज़ॉन और फ्लिपकार्ट पर यह उपलब्ध नहीं होगी. क्योंकि अभी तक श्री थापर का मानना है की मार्केटिंग आदि अत्यंत कष्ट पूर्ण कार्य है .
श्री थॉपर ने इस पुस्तक का नाम दिया है टाइगर गोल्ड यानी वह पुस्तक जिसमें बाघों ने अपने व्यवहार का सर्वोच्च
प्रदर्शन किया है और श्री थॉपर ने भी अपनी अर्धशती के लम्बे अनुभव के साथ इसका बखूबी संकलन किया है . अपने 70 वें जन्म वर्ष में उनका यह उत्साह अनुकरणीय है . आप यह पुस्तक मेरे व्यक्तिगत संग्रह में देखने के लिए सादर आमंत्रित हैं .

लम्पी गायों के लिए एक अत्यंत घातक रोग : क्या करे? कैसे बचाये अपने पशु धन को ?  

लम्पी गायों के लिए एक अत्यंत घातक रोग : क्या करे? कैसे बचाये अपने पशु धन को ?  

लम्पी स्किन डिजीज यानि गुमड़दार त्वचा रोग जो मवेशियों का एक संक्रामक वायरल रोग है, जो अक्सर एपिज़ूटिक रूप में होता है। एपिज़ूटिक यानि किसी पशु प्रजाति में  व्यापक रूप से कोई बीमारी का प्रसार।
आज कल राजस्थान में इसका अनियंत्रित फैलाव हो रहा हैं . इस रोग में त्वचा पर गांठे बनती है, जो जानवर के पूरे शरीर को ढक लेती है।

इसके प्रमुख प्रभावों में पाइरेक्सिया (तेज बुखार), एनोरेक्सिया (कमजोरी एवं वजन काम होना), डिस्गैलेक्टिया (दुग्ध उत्पादन में कमी वह अनिमितता) और निमोनिया (फेफड़ो में संक्रमण) शामिल हैं; कभी कभी घाव मुंह और ऊपरी श्वसन नली में भी पाए जाते हैं।

रोग की गंभीरता मवेशियों की नस्लों पर भिन्न तरह से असर दिखती है। इस रोग से ग्रस्त मवेशी कई महीनों तक गंभीर दुर्बलता का सामना करते हैं। इस से होने वाले घाव त्वचा को स्थायी रूप से नुकसान पहुंचाते हैं।

अब तक इस रोग के फैलने का तरीका स्पष्ट रूप से ज्ञात नहीं है। माना जाता हैं की कीट इसके फैलने के मुख्य वजह हैं।

यह रोग उप-सहारा अफ्रीका तक ही सीमित रहा है, परन्तु हाल ही में मिस्र और इज़राइल में एपिज़ूटिक रूप से प्रकट हुआ था। रेगिस्तान से लेकर सम शीतोष्ण घास के मैदानों और सिंचित भूमि तक  के जीवों में संचरण पाया गया है।
राजस्थान में वन्य जीवन में भी इसका प्रसार देखा गया है -जिनमें एक चिंकारा एंटीलोप है जो राजस्थान के मरुस्थली भाग में प्रभावित हुआ है, परन्तु बाघ एवं अन्य मांसाहारी प्राणियों में अभी तक किसी प्रकार का कोई प्रभाव परिलक्षित नहीं हुआ है I
विभिन्न एंटीलोप एवं डियर प्रजाति के प्राणियों पर नजर रखना आवश्यक होगा I

बचाव ही उपचार है 


* ज्यादातर देसी गौवंश को प्रभावित कर रही हैं
*जब मक्खी या मच्छर संक्रमित पशु को काट कर स्वस्थ पशु को काटती हैं तो संक्रमण फैलता है या फिर
स्वस्थ पशु के  बीमार पशु के संपर्क में आने से भी ये रोग फेल सकता है ( कोरोना की तरह वायरस जनित रोग है)
* इनक्यूबेशन(संक्रमण लगने के बाद बीमारी के लक्षण दिखाई देने तक का समय) पीरियड 4से14 दिन तक का हो सकता हैं

बीमारी के मुख्य लक्षण:-
– शुरुवाती दिनों में तेज बुखार रहता है।
कुछ पशुओं में फेफडो पर असर भी हो सकता है,जिससे स्वास लेने में कठिनाई होती है ।
-शरीर पर बादाम / नीम की गुटली के आकार की कठोर गांठे निकल आती हैं।
-इन गांठों के फूटने पर घाव पड़ जाते हैं
– कुछ पशु लंगड़ा कर चलते है एवम  पैरो में सूजन भी हो सकती  हैं
-मुंह से लार व नाक से पानी भी गिर सकता हैं
-पशु को भूख कम लगती हैं
उत्पादन कम हो जाता हैं
-मादा पशुओं में गर्भपात भी हो सकता हैं

 

बीमारी के लक्षण दिखते ही अपने बीमार पशु को स्वस्थ पशुओं से अलग कर तुरंत नजदीक के पशु चिकित्सा केंद्र से संपर्क कर उचित इलाज करावे ।
* यदि नजदीक कोई पशु चिकित्सा कर्मी नही हो तो बुखार उतारने की मेलोनेक्स प्लस गोली दो दो  गोलीबड़े गौवंश के लिए आधी आधी गोली छोटो बछड़ों के लिए रोटी के साथ  दिन में दो बार पांच दिन तक ।
–  शरीर  में आगे संक्रमण रोकने के लिए सुल्फाडिमिडिन + ट्राई मेथोप्रिम की दो दो गोली बड़े पशु को व आधी आधी छोटे पशु को सावधानी से दिन में दो बार पांच दिन तक देवें।
यदि पशु दो दिन तक चारा पानी नहीं करें तो तुरंत पशु चिकित्सक /चिकित्सा कर्मी से संपर्क कर उचित इलाज करावे,जिसमे कि वो लोग  एंटीबायोटिक,एंटी पायरेटिक, मल्टीविटामिन आदि इंजेक्शन लगा कर बीमारी को बिगड़ने से रोकने की कोशिश करते हैं इनमे मुख्य  ये दवाइयां भी दी जा सकती हैं:-

 Inj.Beekom L 10ml im
For three days
Tab.Melonex plus 1 twice daily for 3days
Inj.Fortivir 30ml im (if needed)

यदि घाव हो तो घाव को लाल दवा के  घोल से धोकर  टॉपीक्योर स्प्रे या अन्य उपलब्ध रोगाणु नाशक दवा  सुबह शाम लगना चाहिए।
आटे पानी का घोल बनाकर जबरदस्ती नाल नही देवे,कई बार नाल का पानी स्वास नली में जाकर दूसरी जानलेवा समस्या पैदा कर सकता है।
बीमार पशु को बाहर ज्यादा दूर नहीं जाने दे,,दिन में चार पांच बार बाजरे की रोटी,,आंवला,हल्दी तेल का लड्डू बना कर दिया जा सकता है,,

* यदि आस पास लंपी बीमारी नहीं देखी गई हो तो स्वस्थ गौवंश के  बचाव हेतु उपलब्ध लंपी वैक्सीन वैक्सीन जरूर करावे,,बीमारी के लक्षण आने का इंतजार नही करें।
साथ ही यदि लंपी का टीका आपके क्षेत्र में उपलब्ध नहीं हो पाया हो तो बकरी प्रजाति के माता रोग से बचाव का टीका (गोट पॉक्स) की वैक्सीन 3से5 एमएल (सब/ कट) पशु चिकित्सा कर्मी से मंगवाकर लगवाए ताकि कुछ हद तक बीमारी के प्रकोप को कम किया जा सकेगा ।
ये भी ध्यान रहे कि टीका लगाने के बाद भी इम्यूनिटी (बीमारी से लड़ने की प्रतिरोधक क्षमता) बनाने में 15से 25 दिन लग सकते हैं,इसलिए सभी सावधानियां निरंतर जारी रखें।

बीमारी ग्रस्त  पशुओ की अच्छी देख रेख की जाय तो बिना इलाज भी ज्यादातर पशु ठीक हो सकते हैं
लंपी स्किन डिजीज में मृत्यु दर केवल  05% से 10%ही है  परंतु क्षेत्र में संक्रमण होने की स्तिथि में बचाव के उपाय नही करने पर संक्रमित होने की दर 80% होती हैं

**पशु पालकों से अपील :- अपने स्वस्थ पशुओं का वर्षा ऋतु में होने वाले अन्य जानलेवा बीमारियां जैसे इफेमेरल फेवर (3डे शिकनेस), गल घोंटू(HS),लंगड़ा बुखार(BQ) आदि से बचाए ।
HS एवम BQ रोग का टीका पशु पालन विभाग के केंद्रों में उपलब्ध हैं, अपने पशु को  नजदीक के पशु चिकित्सा केंद्र ले जाकर टीकाकरण अवस्य करवाए।
– अपने पशु बाड़ो को साफ सुधरा रखे,,जिससे कि मक्खी मच्छर आकर्षित नहीं होंगे.
– गौवंश को  नीम के पत्तो व फेटकरी के 1%घोल के पानी को उबाल कर वापस ठंडा कर  स्वस्थ पशु को सुबह नहलाये शाम को नही ।
– फिनाईल का 5% घोल बनाकर पशु के ऊपर पोछा फेरे ताकि मक्खी मच्छर दूर रहेंगे।
**लंपी बीमारी से ग्रस्त गौवंश का दूध गर्म करके काम में ले सकते हैं,,ये बीमारी इंशानो में कभी नही फैलती।

** अधिक जानकारी के लिए नजदीक के पशु चिकित्सा केंद्र/ पशु पालन विभाग के कंट्रोल रूम से या मेरे से ( डॉ.श्रवणसिंह राठौड़ 9829116064)भी संपर्क किया जा सकता है

भींग: एक निर्भीक बीटल

भींग: एक निर्भीक बीटल

भीं भीं भीं ””””’ की निरंतर आवाज करते हुए यह भारी भरकम बीटल निर्भीक तौर पर दिन में उड़ते हुए दिख जाते हैं।स्टेरनोसरा क्रिसिस (Sternocera chrysis) को राजस्थान में भींग कहा जाता हैं।  इनका ऊपरी खोल या एलेंट्रा भूरे रंग का होता हैं परन्तु प्रोनोटुं एक हरे चमकीले रंग का होता हैं, यह एक ज्वेल बीटल हैं जो अद्भुत चमकीले रंग के लिए जाने जाते हैं। यह रंग इन्हें अपने शत्रुओं के लिए अदृश्य बनाने में मददगार होते हैं।  रंग हालाँकि आकर्षण के लिए होता हैं परन्तु इनकी अनोखी चमक जीवों को चौंधिया देती हैं और यह अपने शत्रुओं से अपना बचाव कर पाते हैं।

बीटल एक प्रकार के कीट हैं,  जिनके कठोर पंखों के जोड़े को विंग-केस या एलीट्रा कहा जाता है, जो इन्हें अन्य कीड़ों से अलग करता है। यह उड़ने की बजाय अंदर के मुलायम पंख अथवा शरीर की रक्षा में काम आते हैं।  बीटल की लगभग 400,000 वर्णित प्रजातियों हैं यह सम्पूर्ण ज्ञात कीटों का लगभग 40% और सभी ज्ञात प्राणियों का 25% हैं।

पुराने ज़माने में राजस्थान में छोटी लड़कियां इनके चमकीले खोल का इस्तेमाल अपनी गुड़ियों को सजाने में करती थी, यह खोल अक्सर इनके मरने के बाद इधर – उधर गिरे हुए मिल जाते थे।
बारिश के समाप्त होने के दिनों में जब सूरज सर पर हो तब यह उड़ते हुए जमीं पर उतरते हैं और जमीन में अंडे देते हैं, यह उस पेड़ के नजदीक अंडे डालते हैं जो इनके लार्वों को भोजन प्रदान कर सके। कैसिया फिस्टुला या अमलताश के पेड़ इनके होस्ट प्लांट माने जाते हैं। अमलताश के पेड़ों के नीचे यह अपने पीछे के भाग से कई बार अंडे देता हैं एवं इन के लार्वों की वजह से यह पेड़ मारे भी जाते हैं, अथवा कमजोर हो जाते हैं। क्योंकि यह पेड़ो की मुख्य जड़ो को खोखला कर उसको नुकसान पहुंचाते हैं।

यदपि भींग को प्रकृति में हानिकारक कीट के रूप में देखने की आवश्यकता नहीं हैं, इसकी अपनी एक भूमिका हैं जो यह निभाते हैं, और वह हैं पेड़ों के संख्या को नियंत्रित करना।

मरुस्थल से घिरे छप्पन्न के पहाड़ : Siwana Hills 

मरुस्थल से घिरे छप्पन्न के पहाड़ : Siwana Hills 

राजस्थान के मरुस्थल की कठोरता की पराकाष्ठा इन  छप्पन्न के पहाड़ों में देखने को मिलती हैं।यह ऊँचे तपते पहाड़ एक वीर सेनानायक की कर्म स्थली हुआ करता था।

उनके लिए कहते हैं की

आठ पहर चौबीस घडी, घुडले ऊपर वास I
सैल अणि सूं सेकतो, बाटी दुर्गादास II

जी हाँ वे थे वीर दुर्गादास जिन्होंने अरावली के उबड़-खाबड़ इलाके में घुड़सवारी करते हुए दिन और रात काटे! अपने भाले की नोक से आटे की बाटी बनाकर भूख मिटाई, इस तरह अत्यंत कष्ट पूर्ण स्थिति में रह कर अपने क्षेत्र की रक्षा की थी।

यह क्षेत्र था, मारवाड़ का यानि जोधपुर और इसके आस पास का। इस वीर ने मुगलों के सबसे मुश्किल शासक औरंगजेब के बगावती बेटे – अकबर (यही नाम उसके दादा का भी था) को सहारा देकर मुगलों से सीधी टक्कर ली थी। अकबर के बेटे और बेटी को सुरक्षित जगह रख कर वीर दुर्गादास स्वयं निरंतर युद्धरत रहे।  जहाँ इन बच्चों को रखा गया था, वह स्थान था- बाड़मेर के सिवाना क्षेत्र की ऊंची पहाड़ियां, जिन्हें छपन्न के पहाड़ों के नाम से जाना जाता है। कहते हैं 56 पहाड़ियों के समूह के कारण इनका नाम छप्पन के पहाड़ रखा गया था, कोई यह भी कहता हैं छप्पन गांवों के कारण इस क्षेत्र को छप्पन के पहाड़ कहा जाने लगा।  मुख्यतया 24 -25 किलोमीटर लंबी दो पहाड़ी श्रंखलाओं से बना हैं यह, परन्तु असल में यह अनेकों छोटे छोटे पर्वतों का समूह हैं। अतः इसे सिवाना रिंग काम्प्लेक्स भी कहा जाता हैं।

वीर दुर्गादास द्वारा निर्मित दुर्गद्वार, जहाँ वह औरंगेज़ब के पौत्र और पौत्री को रखते थे।

पश्चिमी राजस्थान में स्थित यह सिवाना रिंग काम्प्लेक्स अरावली रेंज के पश्चिम में फैले नियो-प्रोटेरोज़ोइक मालाणी इग्नेस का हिस्सा हैं। नियो-प्रोटेरोज़ोइक मालाणी इग्नेस 20,000 वर्ग किमी क्षेत्र में फैला है। सिवाना क्षेत्र आजकल भूगर्भ शास्त्रियों की नजर में है क्योंकि यहाँ रेयर अर्थ एलिमेंट (REE) मिलने की अपार सम्भावना है।

सिवाना रिंग कॉम्प्लेक्स (SRC) बाईमोडल प्रकार के ज्वालामुखी से बने है जिनमें बेसाल्टिक और रयोलिटिक लावा प्रवाहित हुआ था, जो प्लूटोनिक चट्टानों के विभिन्न चरणों जैसे पेराल्कलाइन ग्रेनाइट, माइक्रो ग्रेनाइट, फेल्साइट और एप्लाइट डाइक द्वारा बने हैं, जो कि रेयर अर्थ एलिमेंट  की महत्वपूर्ण बहुतायत की विशेषता है। रेयर अर्थ एलिमेंट यानि दुर्लभ-पृथ्वी तत्व (REE), जिसे दुर्लभ-पृथ्वी धातु भी कहा जाता है जैसे लैंथेनाइड, येट्रियम और स्कैंडियम आदि। इन तत्वों का उपयोग हाइब्रिड और इलेक्ट्रिक वाहनों के इलेक्ट्रिक मोटर्स, विंड टर्बाइन में जनरेटर, हार्ड डिस्क ड्राइव, पोर्टेबल इलेक्ट्रॉनिक्स, माइक्रोफोन, स्पीकर में किया जाता है। यह विशेषता कभी इस क्षेत्र के लिए मुश्किल का सबब भी बन सकता हैं क्योंकि मानव जरूरतें बढ़ती ही जा रही हैं और जिसके लिए खनन करना पड़ेगा।

कौन सोच सकता है कि बाड़मेर का यह जैव विविध हिस्सा, जो थार मरुस्थल से घिरा है उसका अपना एक अनोखा पारिस्थितिक तंत्र भी है, जिसे लोग मिनी माउंट आबू कहने लगे। यद्यपि माउंट आबू जैसा सुहाना मौसम और उतना हरा भरा स्थान नहीं हैं यह, परन्तु बाड़मेर के मरुस्थल क्षेत्र में इस प्रकार के वन से युक्त कोई अन्य स्थान भी नहीं हैं। लोग मानते हैं की 1960 तक यहाँ गाहे-बगाहे बाघ  (टाइगर) भी आ जाया करता था। आज के वक़्त यद्यपि कोई बड़ा स्तनधारी यहाँ निवास नहीं करता परन्तु आस पास नेवले, मरू लोमड़ी एवं मरू बिल्ली अवस्य है। कभी कभार जसवंतपुरा की पहाड़ियों से बघेरा अथवा भालू भी यहाँ आ जाता हैं। विभिन्न प्रकार के शिकारी पक्षी एवं अन्य पक्षी इन पहाड़ियों में निवास करते है। जिनमें – बोनेलीज ईगल, शार्ट टॉड स्नेक ईगल,  लग्गर फाल्कन, वाइट चीकड़ बुलबुल, आदि देखी जा सकती है।

a) Microgecko persicus, b) Psammophis schokari, c) Ophiomorus tridactylus, d)Chamaeleo zeylanicus, आदि सिवाना की तलहटी में आसानी से मिल जाते है।

छपन्न की इन पहाड़ियों में एक प्रसिद्ध शिव मंदिर है- हल्देश्वर महादेव, जिसके यहाँ से मानसून में एक झरना भी बहता है, जो अच्छी बारिश होने पर दिवाली के समय तक बहता है। बाड़मेर के इस शुष्क इलाके में शायद सबसे अधिक प्रकार के वृक्षों की प्रजातियां यहीं मिलती होगी। धोक (Anogeissus pendula),  इंद्र धोक (Anogeissus rotundifolia), पलाश (Butea monosperma), कुमठा (Acacia senegal), सेमल (Bombax ceiba), बरगद (Ficus bengalensis), गुंदी(Cordia gharaf), और कई प्रकार की ग्रेविया Grewia झाड़िया जैसे – विलोसा (Vilosa), jarkhed (Grewia flavescens), टेनक्स (Grewia tenax) आदि शामिल है।

मॉर्निंग ग्लोरी (Ipomoea nil) के खिले हुए फूल हल्देश्वर महादेव के रास्ते को अत्यंत सुन्दर बना देते है |

नाग (Naja naja), ग्लॉसी बेलिड रेसर (Platyceps ventromaculatus),, सिंध करैत (Bungarus sindanus), थ्रेड स्नेक (Myriopholis sp.), सोचुरेक्स सॉ स्केल्ड वाईपर (Echis carinatus sochureki), एफ्रो एशियाई सैंड स्नेक (Psammophis schokari), आदि सर्प आसानी से मिल जाते हैं। मेरी दो यात्राओं के दौरान मुझे अनेक महत्वपूर्ण सरिसर्प यहाँ मिले जिनमें सबसे अधिक उल्लेखनीय हैं – पर्शियन ड्वार्फ गेक्को (Microgecko persicus) जो एक अत्यंत खूबसूरत छोटी छिपकली हैं।  शायद यह भारत की सबसे छोटी गेक्को समूह की छिपकली होगी। इन पहाड़ी की तलहटी को ऊँचे रेत के धोरों ने घेर के रखा हैं, इन धोरों के और पहाड़ों के मिलन स्थल पर केमिलिओन या गिरगिट(Chamaeleo zeylanicus) का मिलना भी अद्भुत हैं। मिटटी में छुपने वाली स्किंक प्रजाति की छिपकली दूध गिंदोलो (Ophiomorus tridactylus) तलहटी  के धोरो  पर मिल जाती है।

बारिश के मौसम में ब्लू टाइगर नमक तितली देखने को मिल जाती हैं।

इन पहाड़ियों के भ्रमण का सबसे अधिक सुगम तरीका हैं सिवाना से पीपलूण गांव जाकर हल्देश्वर महादेव मंदिर तक जाने का मार्ग। पीपलूण तक आप अपने वाहन से जा सकते हैं एवं वहां से पैदल मार्ग शुरू होता हैं। मार्ग के रास्ते में वीर दुर्गादास राठौड़ के द्वारा बनवाया गया उस समय का एक विशाल द्वार भी आता हैं, मार्ग कठिन है और मंदिर तक जाने में एक स्वस्थ व्यक्ति को २-३ घंटे तक का समय लग जाते हैं और आने में भी इतना ही समय लग जाता हैं। नाग और वाइपर से भरे इन पहाड़ों को दिन के उजाले में तय करना ही सही तरीका हैं।
महादेव का मंदिर होने के कारण श्रावण माह में अत्यंत भक्त श्रद्धालु मिल जाते हैं परन्तु मानसून के अन्य महीने में कम ही लोग यहाँ आते हैं।  अत्यंत शुष्क पहाड़ियों पर धोक जैसा वृक्ष भी दरारों और पहाड़ियों के कोनों में छुप कर उगता हैं। खुले में मात्र कुमठा ही रह पाता हैं।
राजस्थान के पश्चिमी छोर पर इस तरह का नखलिस्तान कब तक बचा रहेगा यह हमारी जरूरतें तय करेगी।

राजस्थान का एक सुनहरा  बिच्छू : बूथाकस अग्रवाली (Buthacus agarwali)

राजस्थान का एक सुनहरा बिच्छू : बूथाकस अग्रवाली (Buthacus agarwali)

राजस्थान के सुनहरे रेतीले धोरों पर मिलने वाला  एक सुनहरा बिच्छू जो मात्र यहीं पाया जाता हैं …………………………………..

राजस्थान के रेगिस्तान में ऐसे तो कई तरह के भू-भाग है, परन्तु सबसे प्रमुख तौर पर  जो जेहन में आता है वह है सुनहरे रेत के टीले या धोरे। इन धोरो पर एक खास तरह का बिच्छू रहता है- जिसका नाम है- बूथाकस अग्रवाली (Buthacus agarwali)। मेरे लिए यह इस लिए महत्वपूर्ण है क्योंकि मेरे एक साथी श्री अमोद जामब्रे ने 2010 में इसकी खोज की थी। यहाँ खोज से मतलब है, पहली बार जंतु जगत के सामने इस प्रजाति के अस्तित्व के बारे में जानकारी रखी थी। उन्हें यह बिच्छू उनके मित्र श्री ईशान अग्रवाल ने ही संगृहीत करके दिया था जो राजस्सथान के जैसलमेर जिले के सगरो गांव से मिला था।श्री अमोद ने इसे अपने इसी मित्र के उपनाम से नाम भी दिया – अग्रवाली।

राजस्थान  के  कठोर वातावरण को दर्शाते  हुए  एक सटीक कविता है |

लू री लपटा लावा लेवे |
धोरा में तू किकर जीवै ?
कियाँ रेत में तू खावै पीवै ?
(एक अज्ञात राजस्थानी कवि की रचना)

खोज कर्ता :- श्री अमोद जामब्रे

यह बिच्छू आपको राजस्थान के मुलायम रेत वाले धोरों पर ही मिलेगा, इन धोरों पर लगभग उसी रंग के यह मध्यम आकार के बिच्छू शाम को सूरज ढलते ही सक्रिय हो जाते है और अपने लिए भोजन तलाशते है। पूरे दिन यहां तापमान 50 डिग्री सेल्सियस तक पहुँच जाता हैं अतः इन्हें छुप कर रहना पड़ता हैं। इनकी एक विशेषता यह है  की यह धोरों के सबसे मुलायम रेत वाले हिस्से पर रहता है।त्वरित रूप से अपने आगे के तीनो पांवों की जोड़ियों से रेत निकालते हुए अपने चतुर्थ पांव की जोड़ी से मिट्टी को तेजी से बाहर निकालता है (जैसे अक्सर कोई ततैया करता है) और एक छोटा सा कोटर बना कर छुप कर बैठ जाता है।   और तब तक इंतज़ार करता है, जब तक कोई शिकार नहीं आ जाये जिसे वह अपना भोजन बना सके । यदि यह अधिक धोरों पर अधिक विचरण कर अपना शिकार खोजेगा तो खुद का भी इसे किसी शिकारी द्वारा पकड़े जाने का खतरा रहेगा। दिन उगते ही यह एक कोटर को और गहरा करके रेत में समा जाता हैं।

अमोद अपने आलेख में लिखते हैं की यह जीनस बूथाकस अफ्रीका में मिलता हैं परन्तु इस खोज के साथ यह जीनस भारत में पहली बार पाया गया हैं। साथ ही यह प्रजाति राजस्थान की एक एंडेमिक या स्थानिक प्रजाति हैं जो मात्र राजस्थान में ही मिलती हैं।

Citation:
Amod Zambre and  R Lourenço (Feb 2011), A NEW SPECIES OF BUTHACUS BIRULA, 1908 (SCORPIONES, BUTHIDAE) FROM INDIA,   115 Boletín de la Sociedad Entomológica Aragonesa, nº 46 (2010) : 115 -119.