शिकार के अलग अलग तरीके है और इनमें छुपे ज्ञान से, हम बाघों को बचाने के अद्धभूत तरीके ढूंढ सकते हैं, एक वाक्या राजस्थान के विख्यात शिकारी केसरी सिंह जी द्वारा दर्ज किया गया है, जो नरभक्षी और घुमन्तु बाघों को पकड़ने में सहायक हो सकता है।
कर्नल केसरी सिंह राजस्थान के एक माहिर शिकारी थे, जिन्होंने ग्वालियर और जयपुर रियासतों के शिकार खानो के लिए वर्षो तक कार्य किया। उस समय की परिस्थितियाँ अलग हुआ करती थी, बाघ – बघेरों के शिकार को राज्यों के कानून एवं समाज द्वारा मान्यता प्राप्त थी। अतः शिकार की घटनाओं आज के परिपेक्ष्य में भी हेय नजर से देखना ठीक नहीं होगा। केसरी सिंह जी ने कई पुस्तके लिखी है, जिनमें बाघ शिकार के साथ उसके व्यवहार की अनेक बारीकियों का सूक्ष्मता से वर्णन किया है। आज के समय भी उनके द्वारा दर्ज की गयी घटनाये, बाघ संरक्षण में उपयोगी हो सकता है।
उनकी एक पुस्तक – “हिंट्स ऑन टाइगर शूटिंग” 1965 में एक वर्तान्त बांध बरेठा (भरतपुर) से शामिल है, की किस प्रकार वहां उनके एक मित्र ने घबराये हुए दौड़ते बाघ को कुछ क्षण एक स्थान पर रोके रखा, ताकि वह उसका आसानी से शिकार कर सके।
भरतपुर महाराज किशन सिंह जी
केसरी सिंह जी लिखते है कि, भरतपुर महाराज किशन सिंह जी, उनके मेयो कॉलेज, अजमेर के ज़माने से मित्र हुआ करते थे। किशन सिंह जी किसी भी समस्या के लिए हर समय त्वरित रूप से नए हल ईजाद कर लिया करते थे। केसरी सिंह जी लिखते है यदि बरेठा का वह शिकार का वाक्या खुद उन्होंने ने नहीं देखा होता तो शायद वह इस तरह के शिकार के तरीके पर भरोसा ही नहीं करते। किशन सिंह जी राजस्थान के प्रसिद्ध राजनेता श्री विश्वेन्द्र सिंह के दादा एवं नव जवान राजनेता श्री अनिरुद्ध सिंह के परदादा थे। किशन सिंह जी अपने ज़माने के समाज सुधारक के रूप में जाने जाते है। बरेठा को वर्तमान में एक वन्य जीव अभ्यारण्य का दर्जा प्राप्त है जिसे बांध बरेठा नाम से जाना जाता है, एवं इन दिनों में इसलिए चर्चा में रहा था क्योंकि राम मंदिर निर्माण के लिए इस्तेमाल होने वाले पत्थरो के लिए इसके एक बड़े हिस्से को राजस्थान सरकार ने अभ्यारण्य से अलग किया था।
बांध बरेठा वन्यजीव अभयारण्य (फोटो: डॉ सत्य प्रकाश मेहरा)
उस ज़माने में शिकार का एक सबसे अधिक प्रचलित तरीका था – हांका लगाना। हांके में अनेको लोग बाघ के पीछे तेज शोर और हल्ला करते हुए U आकर में उसे घेरते हुए चलते है, और डरा हुआ बाघ एक निश्चित स्थान से दौड़ते हुए गुजरता है, जहाँ पहले से मचान पर तैयार बैठा शिकारी, उसका शिकार कर लेता है। मचान हालाँकि छुपे हुए स्थान पर होता है और उसके सामने एक खुला मैदान रखा जाता है। परन्तु कई बार बाघ इतना तेजी से निकलता है की यदि उस क्षण में शिकारी गोली नहीं चला पाए तो पुनः उतनी ही तैयारी फिर से करनी पड़ती है, जो एक लम्बी प्रक्रिया है।
बांध बरेठा वन्यजीव अभयारण्य (फोटो: डॉ सत्य प्रकाश मेहरा)
वे लिखते है कि, बरेठा में जैसे ही बाघ हांका लगने के बाद खुले मैदान में मचान के पास आया वह अपने पांव से कुछ निकलने की कोशिश कर रहा था। यह क्षण मचान पर बैठे लोगो के लिए आसानी से शिकार के लिए समय दे गया और उन्होंने ने बन्दुक से एक सधा हुआ निशाना मार उसे ख़तम कर दिया।
मक्खी एवं कीट आदि पकड़ने के लिए इस्तेमाल होने वाला फ्लाईपेपर
किशन सिंह जी जानकारी लेने पर उन्होंने बताया की किस प्रकार उन्होंने फ्लाईपेपर – मक्खी एवं कीट आदि पकड़ने के लिए इस्तेमाल होने वाले एक तरफ से चिपकने वाले पदार्थ से सने कागज को रास्ते पर बिखेर दिया था, ताकि जब बाघ उसपर से चले तो उसके पांव में वे कागज के टुकड़े चिपक जाये। और जैसे ही वह इनसे अपना पीछ छुड़ाने के लिए रुके, फिर आसान शिकार बना सकते है।
यह तरीका खास परिस्थिति में घुमन्तु एवं मानव भक्षीबाघ को पकड़ने में लिया जा सकता है, एवं गोली की जगह बेहोश करने वाली दवा का इस्तेमाल किया जा सकता है। क्योंकि गोली की बजाय दवा वाला इंजेक्शन धीमी गति से चलती हां एवं सही निशाना भी अत्यंत आवश्यक है।
लेखक:
Dr. Dharmendra Khandal (L) has worked as a conservation biologist with Tiger Watch – a non-profit organisation based in Ranthambhore, for the last 16 years. He spearheads all anti-poaching, community-based conservation and exploration interventions for the organisation.
Mr. Ishan Dhar (R) is a researcher of political science in a think tank. He has been associated with Tiger Watch’s conservation interventions in his capacity as a member of the board of directors.
राजस्थान देश का विशालतम राज्य है, जहाँ हर वर्ष हज़ारों लोग सर्प दंश से मारे जाते है। सांपो के बारे में कुछ लोग अज्ञानतावश और कई लोग अपने स्वार्थ के लिए भ्रामक जानकारियां फैला रहे हैं।
पास के एक गांव से मुझे किसी जानकार का फ़ोन आया कि, किसी को सांप ने हाथ में काटा है, मुझे लगा जरूर कोई महिला होगी, क्योंकि महिलाये ही हाथ से अधिकांश काम करती है, पांव में सांप काटता तो पुरुष होने की अधिक सम्भावना रहती है, जो इधर-उधर घूमते फिरते हैं। गांव वाला बोला हाँ महिला ही है और उसे एक देवता के लेकर आये हैं, परन्तु आराम नहीं आया, आप कुछ करो। मेरा सहज सुझाव था, आप डॉक्टर के लेकर जाओ। गांव वाला बोला, यह बहुत मुश्किल है, क्योंकि लोग मानेगे नहीं। अक्सर विभिन्न देवताओं के स्थानों पर सांप काटे के इलाज के लिए सर्प दंश से पीड़ित लोगों को लेकर आते है। यह एक आम परिदृश्य है, जो राजस्थान के सभी जिलों में देखने को मिल जाता है। कुछ दिनों बाद महिला अपने दूध मुहे बालक को छोड़ कर परलोक सिधार गयी।
सॉ स्केल वाईपर Saw-scaled viper (Echis carinatus): इसे स्थानीय भाषा में फुरसा, फोपसिया, अथवा बांडी नाम से जाना जाता है। रक्तसंचार प्रणाली पर असर डालने वाला विष छोड़ते है। शरीर से शल्कों को रगड़ कर आवाज पैदा करता है। (Photo: Dr. Dharmendra Khandal)
राजस्थान में सांपो के इलाज से जुड़े अनेक लोक देवता है जैसे – गोगाजी, देलवारजी, हरबूजी, रामदेवजी, तेजाजी, कारिशदेवजी आदि, इन देवताओं में स्थानीय लोगों की अटूट आस्था है। इन देवता में आस्था ने लोगों को सांप काटने के बाद मानसिक रूप से सबल भी किया है। इन देवताओं का यदि इतिहास देखे तो पता चलता है कि, यह योद्धा रहे हैं, जो स्थानीय युद्ध वीरता से लड़ते हुए वीरगति को प्राप्त हो गये थे। इनके स्थलों पर जिस प्रकार के वाद्य यंत्र आदि बजाये जाते हैं, वह किसी युद्ध के माहौल में बजाये जाने वाले ध्वनि यंत्रो की भांति होते है। सर्प दंश से पीड़ित को जब उत्सावर्धक माहौल मिलता है वह प्लेसिबो इफ़ेक्ट से अपने आप को कुछ हद तक समस्या से उबार लेता है। प्लेसिबो इफ़ेक्ट का मतलब है मानसिक रूप से अपने आप को मजबूत कर बिना दवा और इलाज के अपने कष्ट से लड़ना अथवा कष्ट को नगण्य मानना। इसके लिए इन देव स्थलों पर अनोखा माहौल होता है जहाँ अनेको लोग आप के कष्ट में शामिल होते हैं और उत्तेजक धुन पर लोग नाच गा रहे होते हैं। पीड़ित व्यक्ति को देवताओं के स्थलों पर जाने से जीवित रहने की आशा तो मिलती है, परन्तु यह पर्याप्त नहीं, उसे उचित इलाज मिलना आवश्यक है।
इंडियन कोबरा Indian cobra (Naja naja) : नाग भारतीय मिथको का सबसे अधिक विषमयकारी प्राणी जिसे देवताओं के गले की शोभा बढ़ाने का दर्जा दिया गया है। अत्यंत विषैला परन्तु उतना ही शर्मीला सरीसृप अक्सर अपने सिर के आस पास की त्वचा को फन के रूप में फैला कर और फुफकार कर अपने दुश्मन को दूर रखने की चेष्टा करता है। इस का विष हेमो और न्यूरो टॉक्सिक दोनों प्रकार के गुणों से युक्त होता है। (Photo: Dr. Dharmendra Khandal)
असल में सांपो के काटने के बाद उसका सही इलाज होना ही कोई आधी सदी पूर्व से शुरू हुआ है। एन्टीवेनॉम का चलन और उसका निर्माण का इतिहास कोई अधिक लंबा नहीं है, इसी कारण भारत की विशाल अनपढ़ जनसंख्या अपने पारम्परिक तरीके से दूर नहीं हो पायी। हज़ारों वर्षो तक इन देवस्थलों पर पीड़ितों को मानसिक तोर पर सबल बनाकर सांप काटे का इलाज होता रहा है।
रसल्स वाईपर Russell’s viper (Daboia russelii) : चित्ती नाम से जाना जाने वाला बेहद खूबसूरत परन्तु अत्यंत गुसैल सांप, भारत में सबसे अधिक लोगो की मृत्यु का कारण बनता है। इसके विष दन्त बहुत अधिक लम्बे और मजबूत होते है, जो काफी गहराई तक विष छोड़ते है एवं इनके विष की मात्रा भी सिर के बड़े होने के कारण अधिक होती है। (Photo: Dr. Dharmendra Khandal)
इन स्थलों पर पीड़ित के बचने के कई कारण थे -कई बार सर्प दंश में विष की मात्रा थोड़ी छोड़ पाता है, कई बार तो सर्प काटने के बाद भी अपना विष छोड़ता नहीं जिसे ड्राई बाईट कहते है, कई बार केवल सांप की फुफकार आदि से व्यक्ति डर जाता है, अनेक बार विषहीन सर्प ही काट लेता है, राजस्थान में 40 सांपो की प्रजातियों में 35 तो विषहीन ही है। इस तरह के मामलो में जब व्यक्ति बच जाते है, तो आस्था के इन स्थलों में और अधिक विश्वास बढ़ता चला जाता है। इन सभी मसलों को गहराई से बिना समझे लोग झाड़ फूंक में लगे रहते हैं और इन देवताओं के स्थलों के संचालक, लोगों को भर्मित कर, अपना उल्लू सीधा करते रहते हैं, और साथ ही ऐसे लोग सही इलाज से भी लोगो को दूर रखते हैं।
यह तय मान के चलिए की यदि किसी विषैले सांप ने काटा है तो एंटीवेनम के अलावा कोई इलाज नहीं है। आपको ऐसे कई उदहारण मिलेंगे जिसमें व्यक्ति देवता के स्थान पर पहुंचे है और मारे गए, उसके बाद देवता के पुजारी बिना जिम्मेदारी लिए पीड़ित और उसके परिवार को ही लापरवाह बता कर उसी की गलती सिद्ध कर देते हैं।
करैत common krait (Bungarus caeruleus) : पूरणतया रात्रिचर सांप अत्यंत विषैला होता है। इसके अत्यंत छोटे विषदंत लोगो को काटने पर दर्द नहीं होने देते एवं इसका न्यूरोटोएक्सिक विष निद्रा में सोते हुए व्यक्ति की मृत्यु का कारण बन जाता है। इसी सांप से मिलती जुलती प्रजाति का एक और सांप राजस्थान के मरुस्थली क्षेत्रो पाया जाता है जिसे पीवणा नाम से भी जाना जाता है। तंत्रिका तंत्र पर असर डालने के कारण इस सर्प का विष व्यक्ति को और गहरी नींद में ले जाता है। (Photo: Dr. Dharmendra Khandal)
सांपो के सही इलाज का विचार भी भारतीय उपमहाद्वीप की ही देन है, वर्ष 1870, में सर्जन मेजर एडवर्ड निकोल्सोन ने मद्रास मेडिकल जर्नल में एक बर्मा देश के सपेरे के बारे में आलेख प्रकाशित किया की किस प्रकार वह अपने आपको सर्प दंश करवाकर भविस्य में होने वाले सांपो के दंशो से सुरक्षित रखता था। इस तरह के उल्लेख भारतीय मिथको में पढ़ने को भी मिलते रहे है। खैर इसी तरह के कई और शुरुआती पर्यवेक्षण आधार बने एक विशेष शोध के कारण 1896 में पहली बार एक फ्रेंच चिक्तिसक अल्बर्ट कालमेट्टे ने पहले मोनोक्लेड कोबरा सर्प दंश के टीके का निर्माण किया। इन्होने इस टीके का निर्माण वियतनाम में बाढ़ ग्रस्त इलाके में फसे अनेक लोगो के सर्प दंश से मारे जाने के बाद किया था।
100 वर्ष से अधिक पहले विकशित हुए इस इलाज को कई वर्षो तक कोई अधिक मान्यता नहीं मिली परन्तु 1950 के आस पास जाकर ही लोगो ने इसे स्वीकारा एवं पिछले कुछ दशकों से ही इसकी उपलब्धता बढ़ी है। यद्दपि आज भी देश में एंटीवेनम की कमी है।
देश में होने वाले कई सर्प मेला में अनेको सांपो को अवैध रूप से प्रदर्शित किया जाता है एवं सांपो के प्रति वैज्ञानिक सोच की बजाय अन्धविश्वास को जारी रखा जाता है। (Photo: Dr. Dharmendra Khandal)
राजस्थान में कितने लोग सर्प दंश से प्रभावित होते है ?
विश्व स्वास्थ्य संघठन (World Health Organization -WHO ) के अनुसार विश्व में 81,000–138,000 लोग सर्प दंश से मारे जाते है और इनसे तीन गुणा लोग स्थायी तौर पर अपने अंगो से विकलांग हो जाते हैं।
मिलियन डेथ स्टडी (MDS) भारत सरकार के द्वारा किया गया ऐसा अध्ययन है, जिसमें अल्पायु में मृत्यु के कारणों पर आंकड़े संगृहीत किये गए थे। यह अनूठा अध्ययन वर्ष 1998-2014 के मध्य संपन्न किया गया। इसी अध्ययन के अनुसार वर्ष 2001 to 2014 के मध्य 14 वर्षो में भारत देश में लगभग 808,000 लोगो की जान सर्प दंश से गयी। यानी एक वर्ष में भारत में 58000 लोग सर्प दंश से मारे जाते है। जिनमें से 94% लोग ग्रामीण इलाको में और उनमेसे 77% अस्पताल नहीं पहुंचे थे।
सर्प दंश से मारे जाने वालों की संख्या के हिसाब से भारत के अन्य राज्यों की तुलना में राजस्थान का शीर्ष से पांचवा स्थान है जो कि, एक अत्यंत चिंता का विषय है। इस अध्ययन के अनुसार 14 वर्षो में राजस्थान में 52,100 लोगों की मृत्यु हुई जिसका प्रतिवर्ष हुई मृत्यु का औसत 3722 होता है।
सांपो को इन मेलो में अनेक प्रकार से सांपो परेशान किया जाता है, एवं कुछ व्यक्ति अपने सांप पकडने के कौशल को देवीय शक्ति के रूप में प्रदर्शित करते है। (Photo: Dr. Dharmendra Khandal)
सूरवीरा एवं साथियो 2020 द्वारा प्रकाशित आलेख ”Trends in snakebite deaths in India from 2000 to 2019 in a nationally representative mortality study ” – (https://elifesciences.org/articles/54076) के अनुसार भारत में होने वाले सर्प दंशो में रसल्लस वाईपर (Daboia russelii) द्वारा 43%, करैत द्वारा (Bungarus species) द्वारा 18%, कोबरा द्वारा (Naja species) 12% एवं सर्प प्रजाति की पहचान नहीं हो पायी 21%, अन्य सांप की प्रजातिया ने 6 % लोगो की मृत्यु के कारण बने। इन्होने प्रकाशित शोध एवं अन्य तथ्यों के आधार पर कई प्रकार के अन्य आंकड़े भी जुटाए और पाया की 59 % पुरुषो एवं 41 % महिलाओं की मृत्यु हुई। इनके अनुसार सबसे अधिक जून से सितम्बर के मध्य 48 % सर्पदंश से मारे गए जबकि जनवरी फरवरी में सबसे कम 9 % लोगो को ही सांपो ने द्वारा मारे गए।
चिरंजी लाल के पुत्र ने अपने मृत पिता का चित्र हाथ में लिए उन्हें याद करते है और बताते है की किस प्रकार उनके पिता सर्प दंश से मारे गए जबकि वह सांप के काटे का इलाज भी करते थे। यह अनोखी विडंबना है की जो सर्प दंश का इलाज करता था, उसे सांप की वजह से अपनी जान गवानी पड़ी। (Photo: Dr. Dharmendra Khandal)
बचाव और प्राथमिक चिकित्सा आदि:
सर्प दंश से बचने के लिए प्रस्तावित प्राथमिक चिकित्सा के उपायों में अत्यंत भ्रम की स्थिति है, आपको भली प्रकार याद होगा की सर्प दंश के पश्च्यात अक्सर लोग कहते थे, उस स्थान पर “X” अथवा “+” के निशान के चीरे लगाए एवं रक्त के श्राव को होने दे। यह प्राथमिक चिकित्सा की पुस्तिकाओं में भी छपा हुआ मिल जाता है। परन्तु यह तरीका अत्यंत घातक होसकता है एवं पीड़ित अति रक्त स्त्राव से अपनी जान गवां सकता है। अनेक बॉलीवुड फिल्मो में आपने देखा होगा की एक हीरो चाकू से चीरा लगाकर मुँह से विष चूस कर हेरोइन की जान बचा लेता है। यह अत्यंत गलत उपाय है।
इनको रसल्स वाईपर ने काटा, तत्काल घर के लोग इन्हे देवता के यहाँ लेगये, परन्तु पहले मंदिर के मना करने के बाद दूसरे मंदिर में ले गये और बहुमूल्य समय को नष्ट करदिया। इनके द्वारा की गयी देरी के कारण इनके घाव ठीक होने में कुछ माह का टाइम लगा। (Photo: Dr. Dharmendra Khandal)
हमें सर्प दंश वाले स्थान पर किसी भी प्रकार का चीरा नहीं लगाना चाहिए – सर्प के विष दो प्रकार के होते है – हेमोटोक्सिक एवं न्यूरोटॉक्सि। दोनों वाईपर प्रजाति के सर्पो में हेमोटोक्सिक विष विद्यमान है एवं यह जब काटते है तो परिसंचरण तंत्र या वाहिकातंत्र बुरी तरह प्रभावित होता है और परिणाम स्वरुप नाक, मुँह, मूत्रमार्ग एवं सर्प द्वारा काटे जाने वाले स्थान पर रक्त का स्त्राव शुरू होजाता है। इस स्थिति में यदि किसी प्रकार का चीरा लगाकर और रक्त निकलने का प्रयास किया जाए तो बिना चिक्तिसक की मदद के रक्त प्रवाह रुकना बहुत दूभर कार्य होजाता है। इस तरह व्यक्ति की मृत्यु विष से पूर्व अति रक्तप्रवाह से ही हो जाती है। अतः याद रखे कभी चीरा नहीं लगाये।
सर्प दंश से पीड़ित महिला को देव स्थान की तेज गति से दौड़ते हुए परिक्रमा दिलवाते स्थानीय लोग, इस से रक्त चाप बढ़जाता है जो हानिकारक है। (Photo: Dr. Dharmendra Khandal)
पीड़ित महिला को बेहोशी से जगाने के लिए लोग नारे जयकारे लगते रहते है, कभी थपियाते और हिलाते रहते है। (Photo: Dr. Dharmendra Khandal)
दूसरा प्रचलित प्राथमिक चिकित्सा का तरीका है , सर्प के काटे स्थान से थोड़ा ऊपर ताकत के साथ एक रस्सी या कपडे का बंध बांधना। यह तरीका भी पुरानी प्राथमिक चिकित्सा की पुस्तकों में आम तोर पर पढ़ने को मिलता है परन्तु यह तरीका भी पीड़ित के लिए घातक होसकता है। क्योंकि शरीर के एक ही हिस्से में विष का संग्रहण होजाता है और यह उस अंग के लिए अत्यंत घातक होसकता है। रक्त प्रवाह के सम्पूर्ण रुकने से वैसे भी उस अंग को हानि पहुँच सकती है।
इस बालक को सोते हुए सॉ स्केल्ड वाईपर ने मुँह पर काटने के बाद इन्हे देवता के यहाँ लेजाया गया। कई दिन परेशान होने के बाद धीरे धीरे यद्पि बालक ठीक होगया, परन्तु उसके कोनसे शारीरिक अंगो पर विष का लम्बे समय तक प्रभाव रहेगा कोई नहीं जानता। (Photo: Dr. Dharmendra Khandal)
वर्तमान ज्ञान के अनुसार यह अत्यंत प्रचलित प्राथमिक उपचार के दोनों तरीके ही पूर्णतया हानिकारक हो सकते है। तो फिर क्या किया जाए ?
विशेषज्ञ दो प्रकार की रणनीत से चलने की सलाह देते है —- बचाव और उचित इलाज। बचाव –
सबसे अधिक महत्वपूर्ण है सर्प दंश से बचना, सांप आपके घरो के आस पास अधिक नहीं पनपे इसकेलिए उनके साफ सफाई रखे, अक्सर चूहों आदि को खाने के लिए ही सांप आपके घर के नजदीक आते है। कबाड़ आदि रखे स्थानों को साफ सुथरा रखे।
रात्रि में इधर उधर जानेके लिए प्रकाश की उचित व्यवस्ता रखे। रात्रि विचरण के लिए अच्छी टोर्च को अपनी जिंदगी का हिस्सा बनाये।
सांपो की प्रजातियों को पहचानना सीखे ताकि आप उनके व्यव्हार को समझ सके।
सांपो के साथ उचित दुरी बनाये एवं सावधानी बरते, अनेको बार लापरवाही के कारण सांप पकड़ने वाले प्रशिक्षित व्यक्ति भी सर्पदंश के शिकार बन जाते है।
प्राथमिक चिकित्सा एवं इलाज :
बांधना एवं काटना नहीं करे , जिसका जिक्र हम शुरू में कर चुके है। परन्तु सांप के काटे हुए स्थान पर एक साफ कपडा लपेटे , जिसे आप हलके दबाव के साथ बंध सकते है, परन्तु तेज ताकत के साथ कदापि नहीं।
पीड़ित व्यक्ति को शांत रखे एवं उसका होंसला बढ़ाते रहे।
व्यक्ति को बिना दौड़ाये / भगाये चिकित्शालय तक पहुंचाए, इसके लिए वाहन का इस्तेमाल करे। यदि वाहन उप्लंध नहीं हो तो दुपहिया वाहन का इस्तेमाल करे एवं दो जनो के बीच में पीड़ित को बैठा कर अस्पताल लेकर जाना चाहिए ।
अस्पताल में यदि किसी को जानते है तो उनको पीड़ित के पहुंचने से पहले सूचित कर दे, ताकि वह बिना समय गवाए पहले ही संशाधनो की व्यवस्था कर सके।
अधिक सांप पाये जाने वाले क्षेत्र में रहने वाले लोग आस पास के अस्पताल के बारे में जानकारी रखे क्या वाहन एवं सर्प दंश से सम्बंधित इलाज उपलब्ध है।
एंटीवेनम का इस्तेमाल मात्र प्रशिक्षित डॉक्टर ही कर सकता अतः अपने पास इनका अनावस्यक संग्रहण नहीं करे एवं स्वयं इसका इस्तेमाल तो कदापि नहीं करे।
सर्प दंश में जिस एंटीवेनम- पॉलीवालेन्ट स्नेक एंटीवेनम का भारत में इस्तेमाल किया जाता है वह भारत के चार प्रमुख विषैले सांपो के विष के लिए प्रभावी है परन्तु फिर भी सांप की प्रजाति अगर पहचान सकते है तो इलाज आसान होता है। अतः उसे पहचान ने का प्रयास करे एवं डॉक्टर को ठीक से वर्णित करे।
कई बार डॉक्टर को भी सांप के काटे के इलाज का अनुभव नहीं होता है, अतः आस पास के सर्प विशेषज्ञ से मदद लेकर उन्हें अनुभवी डॉक्टर से राय मशविरा करवाया जा सकता है।
अक्सर निजी अस्पताल सांप के काटे का इलाज करते है परन्तु जिले के मुख्य सरकारी अस्पताल में यह पूर्णतया मुफ्त है, चूँकि एंटीवेनम की दवा को लाइफ सेविंग ड्रग की श्रेणी में रखा गया है, अतः वह इनका पर्याप्त स्टॉक भी रखना उनके लिए अनिवार्य है । एंटीवेनम की दवा महंगी होती है अतः आम जनता सरकार की योजना का लाभ भी इन्ही सरकारी अस्पतालों में ही उठा सकती है।
सांप के देवता के मंदिर में आये चढ़ावे आदि को समेटते प्रबंधक और पुजारी (Photo: Dr. Dharmendra Khandal)
इस प्रकार राजस्थान के विशाल भू भाग जहाँ अधिकांश जनता ग्रामीण इलाकों में रहती है, सर्प दंश से प्रभावित होसकती है। आवस्यकता है इसके बाद उचित इलाज लेने की। सांप हमारे पर्यवरण के महत्वपूर्ण घटक है इन्हे बचाना भी आवश्यक है। आप थोड़ी सावधानी से सर्प दंश से बच सकते है इनके शिकार आप नहीं आपका शत्रु चूहा है। असावधानी वश आपका इनसे प्रभावित होसकते है। अंधविश्वास से दूर रहे सही वैज्ञानिक जानकारी के आधार पर निर्णय लेकर अपनी और अपने मित्रो की जान बचाये एवं सांप की भी जान बचाये।
क्या आप इस बात पर विश्वास करेंगे कि, जैसे हम मनुष्य दूध के लिए गाय एवं बकरियों को पालते हैं वैसे ही चीटियां भी विशेष प्रकार के पोषक रस के लिए कुछ कीड़ों को पालती व उनकी देखभाल करती हैं ?
कुछ खास पेड़ों (अमलताश, जूलीफ्लोरा आदि ) के कोमल तनो पर आप बड़ी चीटियों को देखेंगे जो खास तरह के कीड़ो का ध्यान रखती है यह है प्लांट होप्पर्स एवं स्केल इंसेक्ट्स, आप पाएंगे कि, वे चींटे प्लांट होप्पर्स के अंडों व उनके समहू की रक्षा और निगरानी कर रही होती हैं। एक माहिर ग्वाले की भांति यह चींटिया इधर-उधर खोए और भटके हुए कीड़ों को वापस लेकर भी आ रही होती हैं। इन प्लांट होप्पर्स नामक कीड़े एक मीठे रस का स्त्राव करती है जो इन चीटियों के लिए बने बनाये भोजन का एक स्रोत होता है। और इस प्रकार ये कीड़े इन चींटियों के लिए छोटी गाय की तरह काम करते हैं।
यह चींटियों और प्लांट होप्पर्स एवं स्केल इंसेक्ट्स के मध्य विकसित हुई सहजीविता है, जिसमें, कीड़े चींटियों को रस देते हैं और बदले में चींटियां उन्हें विभिन्न प्रकार के खतरों से सुरक्षा प्रदान करती हैं।
वास्तव में प्लांट होप्पर्स एवं स्केल इंसेक्ट्स पेड़ पौधों का रस चूसते रहते ह। पौधों के रस में शर्करा की अत्यधिक मात्रा जमा रहती है जबकि अन्य पोषक तत्व उतनी मात्रा में नहीं होते हैं। लेकिन इन कीड़ों को अन्य पोषक तत्वों की आवश्यकता पूर्ति तक वह रस चूसते रहते है, एवं अतरिक्त शर्करा को चींटियों के लिए बूंदों के रूप में बाहर निकालते हैं।
दिलचस्प बात यह है कि, ये रस की बूंदें चींटियों को बहुत सटीक रूप से दी जाती हैं। जब चींटी धीरे से अपने एंटीना को कीड़े के शरीर पर फिराती है मनो दूध निकलने के लिए मालकिन गाय को स्नेह से दुलार रही हो। कीड़े रस की बून्द को तब तक पकड़ कर रखते हैं जब तक चींटी उसे पूरा ग्रहण नहीं करले। चींटियाँ इस रस को भोजन के रूप में इस्तेमाल करती हैं और नाइट्रोजन के लिए उन कीड़ों को खाती है जो उनकी गायों के लिए खतरा है।
तो अब चीटियों को मीठा रस और कीड़ों को सुरक्षा मिलती हैं।
तो आने वाले मानसून के महीनों में, आप सड़क किनारे उगी वनस्पतियों के आसपास इनको आसानी से देख सकते हैं। और जब आप किसी पेड़ या कीट के चारों ओर चीटियों की कतार को दौड़ते हुए देखें तो आपको पता होना चाहिए कि, यह बिना किसी उद्देश्य के नहीं है। ये मेहनती चींटियाँ अपनी ही दुनिया में व्यस्त हैं, और आप उनकी गतिविधि को देखकर आनंद ले सकते हैं!
बाघिन के मर जाने पर उसके बच्चों को पिता के रहते हुए भी अनाथ मान लिया जाता था और उनके बचने की सम्भावना को बहुत ही निम्न माना जाता था। ऐसे में रणथम्भौर के वन प्रबंधकों ने कठिन और चुनौतियों से भरी परिस्थितियों का सामना करते हुए उन शावकों का संरक्षण किया…
9 फरवरी 2011 की उस सुबह, सूरज पहली किरण के साथ ही, कचीदा चौकी के वन रक्षको की एक टीम कचीदा घाटी के लिए निकल पड़ी, क्योंकि रात भर से घाटी की निवासी बाघिन (T5) की दर्द से करहाने आवाज़े आ रही थी। घबराते और डरते हुए वन रक्षक एक बांध की ओर बढे और देखा कि, बाघिन चट्टान पर मरी पड़ी हुई थी। पीछे 3 महीने के दो शावकों को छोड़कर बाघिन T5 की बिमारी के कारण मौत हो गई थी। बाघ के शावक बेहद संवेदनशील होते हैं और इसीलिए बाघिनें अपने बच्चों के लिए बहुत समर्पित और गंभीर होती हैं। वो अपने शावकों की सुरक्षा और पालन-पोषण के लिए पूरे दो साल समर्पित करती हैं; इस बीच वो कई बार अपने क्षेत्र में प्रवेश करने वाले अन्य बाघों से लड़ाई भी कर लेती है तो कई बार गभीर रूप से घायल भी हो जाती है। साथ ही बाघ के शावक शिकार करने की कला जैसे की अपने शिकार का पीछा करना, चकमा देना, पकड़ बनाना और संभावित खतरों से बचना लगभग हर ज्ञान के लिए पूरी तरह से अपनी माँ पर निर्भर रहते हैं।
रणथम्भौर में पिछले सात सालों में ये चौथी दफा था जब किसी बाघिन की मौत हो गई और वह पीछे अपने शावकों को छोड़ गई थी। आमतौर पर, ऐसे मामलों में पहला विचार मन में यही आता है कि, शावकों को बचाने और जीवित रखने के लिए उन्हें पकड़ कर किसी सुरक्षित स्थान जैसे एक बाड़े (enclosure) में स्थानांतरित कर दिया जाए। लेकिन शावकों को इंसानों के इतने करीब रख के पालने से उनका जंगली स्वभाव बिलकुल खत्म हो जाता है।
हालांकि, रणथम्भौर में अनाथ शावकों के चार मामलों में, वन प्रबंधकों ने एक सहज तरीका अपनाया। यह प्रक्रिया बेहद कठिन और चुनौतियों से भरी थी, लेकिन इससे बाघों के व्यवहार पर कुछ अनोखे और आश्चर्यजनक अवलोकन मिले और इन सभी मामलों में रणथंभौर वन विभाग के कर्मचारियों का प्रयास निश्चित रूप से काबिल-ए-तारीफ है।
बाघिन T5 के तीन महीने के दो अनाथ शावक (फोटो: देश बंधु वैद्य)
बाघिनों का गर्भकाल केवल 90 से 110 दिनों का ही होता है और गर्भ का उभार अंतिम दिनों में ही दिखाई देता है ताकि बाघिन गर्भावस्था के दौरान भी ‘शिकार करने योग्य’ बनी रहे और न ही उस पर अतिरिक्त वजन का बोझ हो। लेकिन इस छोटे गर्भकाल का अर्थ यह भी है कि, शावकों का जन्म पूर्ण विकसित रूप में नहीं होता है, और उनमें कुछ विकास उनका जन्म के बाद होता हैं। वहीं शाकाहारी जीवों जैसे कि, हिरणों में, गर्भकाल की अवधि लंबी होती है तथा गर्भावस्था का एक स्पष्ट उभार उनकी जीवन शैली में कोई बाधा नहीं डालता है। लेकिन एक बार जब वे जन्म देते हैं, तो उनके बच्चे (fawn) पल भर में चलने लगते हैं। इसके विपरीत, बाघ के शावक बिलकुल असहाय, बहरे (उनके कान बंद होते हैं) और अंधे (पलकें कसकर बंद) पैदा होते हैं। इसीलिए, वे बहुत कमजोर और हर चीज के लिए पूरी तरह से अपनी मां पर निर्भर होते हैं। शुरूआती महीनों में बाघिन अपना अधिकतर समय शावकों की देख भाल में लगाती है और जैसे-जैसे शावक बड़े होते है यह समय कम होने लगता है।
अब कल्पना कीजिए क्या होगा जब, ऐसे ध्यान रखने वाली माँ की मृत्यु हो जाए और असहाय शावक पीछे अकेले छूट जाए।
परन्तु यह पहली बार नहीं था, रणथम्भौर में पहले भी अनाथ शावकों को जंगल में ही देखरेख कर उन्हें बड़ा किया जा चुका था। वर्ष 2002 में, एक बाघिन की अचानक मौत ने दो शावकों को अनाथ कर दिया था। ऐसे में रणथंभौर के प्रबंधकों ने उन्हें चिड़ियाघर भेजने के बजाय जंगल में ही उनकी देखभाल करने का फैसला किया। लेकिन उस समय कैमरा ट्रैप उपलब्ध नहीं होने के कारण वन विभाग अपनी सफलता को साबित नहीं कर सका। खैर जो भी हो, यह वन्यजीव प्रबंधन में एक नए अध्याय की शुरुआत थी।
अब, आधुनिक निगरानी तकनीकों और उपकरणों की उपलब्धता के साथ, अनाथ शावकों की इन-सीटू (in-situ) देखभाल के लिए किए गए प्रयासों को सही ढंग से दर्ज किया गया था। निम्नलिखित चार मामले रणथंभौर के अनूठे प्रयोग में आने वाली चुनौतियों और उससे मिलने वाली सफलताओं एवं व्यवहार संबंधी नई जानकारी को उजागर करते हैं। आइये जानते हैं इनके बारे में।
क्वालजी क्षेत्र के नर मादा शावक
1 सितंबर 2008 को, बाघिन T15 मृत पाई गई थी; और शरीर पूरी तरह से सड़ जाने के कारण मौत का कारण पता लगाना पाना बहुत मुश्किल था। वह अपने पीछे 7 महीने के दो शावकों, एक नर (T36) और एक मादा (T37) को छोड़ गई थी। इस घटना के बाद शावक गायब हो गए और वन रक्षकों द्वारा गहन खोज और प्रयासों के बावजूद भी कोई सफलता नहीं मिली। एक हफ्ता बीतते ही दौलत सिंह (एसीएफ) को पता चला कि, बाघिन कभी-कभी अपने शावकों के साथ इंडाला पठार पर भी जाती थी। टीम ने तुरंत इंडाला क्षेत्र में खोज करी और कुछ घंटों में ही, कई पगमार्क पाए गए। तुरंत एक भैंस के बछड़े के शव की व्यवस्था की गई क्योंकि शावक किसी जानवर को मारने के लिए बहुत छोटे थे और कैमरा ट्रैप तस्वीरों से पता चला कि, दोनों शावक रात में शव को खाने आए थे। इंडाला में कुछ दिन बिताने के बाद, शावक अपनी माँ के पसंदीदा क्षेत्र में लौट आए और वे वन विभाग द्वारा दिए गए भोजन पर ही जीवित रह रहे थे।
फिर लगभग 2 महीने बाद, शावक फिर से गायब हो गए, लेकिन इस बार एक उप-व्यस्क बाघिन, T18 की वजह से, जो खाली क्षेत्र पर कब्जा करने के लिए वहां आ गई थी।
विभाग ने खोज कर पता लगाया कि, नर शावक लकारदा क्षेत्र (रणथम्भौर का मध्य भाग) में मौजूद है। कुछ दिनों के बाद वह और आगे उत्तर में अनंतपुरा क्षेत्र में चला गया और अब तक वह पार्क के पूर्वी भाग से उत्तरी भाग में पहुंच चुका था। एक माँ की सुरक्षा न होने के कारण, उसे एक बार फिर से पार्क की पश्चिमी सीमा की ओर धकेल दिया गया।
दूसरी ओर, मादा शावक दक्षिण की तरफ चली गई। वह पार्क के दक्षिणी छोर पर चंबल के बीहड़ों की ओर पहुंच गई थी, लेकिन वापस लौटकर सवाई मानसिंह अभयारण्य में जोजेश्वर क्षेत्र में बस गई।
नर शावक अपना क्षेत्र स्थापित करने की तलाश में घूम ही रहा था कि, 21 मार्च 2009 को, वह एक खेत में घुस गया और स्थानीय लोगों ने उसे घेर लिया। दौलत सिंह और उनकी टीम ने उसको बचाया और रेडियो कॉलर लगाकर सवाई मानसिंह अभयारण्य के आंतरी क्षेत्र में उसे छोड़ दिया, क्योंकि वहां से एक मादा बाघ के पगमार्क की सूचना मिली थी। बाद में वह आंतरी से जुड़े हुए क्वालजी नामक क्षेत्र में चला गया।
बाघ T36 का रेस्क्यू ऑपरेशन (फोटो: डॉ धर्मेंद्र खांडल)
जून में, वह उस क्षेत्र की बाघिन के आमने-सामने आया, जो उसकी बहन T37 निकली! और फिर भाई-बहन की वह जोड़ी सवाई मानसिंह अभयारण्य के निवासी बन गए। हालांकि ऐसा अनुमान था कि, उप-वयस्क बाघ मानसून के दौरान वहां से चले जाएंगे, परन्तु वे रुके रहे और T36 ने क्वालजी को अपने क्षेत्र के रूप में कब्जे में ले लिया।
वर्ष 2010 में, एक अन्य नर बाघ, T42 क्वालजी पहुंचा और दुर्भाग्य से, एक लड़ाई में 20 अक्टूबर 2010 को, उप-वयस्क बाघ T36 ने दो साल और नौ महीने की उम्र में ही अपनी जान गंवा दी। उसकी मृत्यु के बाद, T42 T37 के साथ क्वालजी क्षेत्र में बस गया। समय के साथ यह जोड़ी पर्यटकों के बीच काफी लोकप्रिय भी हुई।
18 मार्च 2013 को बाघिन T37 के बीमार होने की सूचना मिली और शाम तक वह मृत पायी गई। जांच (Autopsy) से पता चला कि, उसके शरीर में बहुत अधिक चर्बी जमा थी और दिल के दौरे से उसकी मृत्यु हो गई।
हालांकि दोनों शावकों की दुखद मृत्यु हो गई, परन्तु वे वयस्कता तक पहुंच गए थे, जो कि, यह साबित करता है कि उचित देखभाल की जाए तो अनाथ शावक भी जीवित रह सकते हैं।
बेरदा वन क्षेत्र के शावक
4 अप्रैल 2009 को, 17-18 महीने की उम्र के दो उप-वयस्क शावकों को छोड़कर बाघिन T4 की मृत्यु हो गई। शावकों के लिए यह एक महत्वपूर्ण उम्र होती है, क्योंकि इस उम्र में ही उन्हें अपनी माँ से अधिकांश कलाएँ सीखनी होती है। इस बार भी इन दो शावकों में से एक नर (T40) और एक मादा (T41) थी। T15 के शावकों से लिए गए अनुभव से वन विभाग को भरोसा था कि, वे इन्हें भी पाल लेंगे। बेरदा क्षेत्र में पर्याप्त पानी और प्रचुर मात्रा में शिकार दो शावकों के लिए वरदान साबित हुआ। कुछ साल बाद वर्ष 2013 में T41 ने एक मादा शावक को जन्म दिया और रिकॉर्ड के अनुसार, वह पहली अनाथ बाघिन थी जिसने प्रजनन किया था। वहीं नर T40 पार्क से बाहर चला गया और जून 2010 के बाद से उसकी कोई खबर नहीं।
कचीदा क्षेत्र के शावक और उनका पिता
अब वापस कहानी पर आते हैं जहां बाघिन T5 की मौत तीन महीने के दो शावकों (B1 और B2) को छोड़कर हुई थी। विभाग का विचार था कि, शावक बहुत छोटे हैं और ऐसे में उन्हें सरिस्का भेज देना ही उचित होगा, जहां उन्हें एक बाड़े में पाला जाएगा। हालांकि, कुछ समय तक शावकों का कोई पता नहीं चला। लेकिन अंत में, एक वीडियो कैमरा ट्रैप से शावकों के उस स्थान पर आने की फुटेज प्राप्त की, जहां विभाग द्वारा उनके लिए भोजन और पानी रखा गया था। उन्होंने खाया, पिया और फिर गायब हो गए।
पार्क प्रबंधकों ने शावकों को पालने का फैसला किया परन्तु इस परिस्थिति में शावकों के लिए भोजन, पानी और सुरक्षा महत्वपूर्ण पहलु थे। भोजन और पानी का प्रबंध तो किया जा सकता था, लेकिन रणथभौर के घने जंगल में जहाँ कई अन्य जंगली जानवर भी मौजूद हैं सुरक्षा का वादा और पुष्टि नहीं दी जा सकती थी।
फिर एक दिन कचीदा रोड पर एक साथ दोनों शावकों और एक नर बाघ के पगमार्क मिले। और कैमरा ट्रैप की तस्वीरों ने पूरी कहानी का खुलासा किया जिसने बाघों के व्यवहार अध्ययन में एक नया अध्याय जोड़ दिया। तस्वीरों में एक शावक नर बाघ T25 के सामने चलते हुए देखा गया, जिसके बाद दूसरा शावक चल रहा था। यह एक असाधारण खोज थी कि, नर बाघ, जिसके क्षेत्र में शावक रह रहे थे, उनकी रक्षा कर रहा था। जहां अब तक यह माना जाता था कि, शावकों के पालन-पोषण में नर की कोई भूमिका नहीं होती है T25 के इस व्यवहार ने नर बाघों की अपनी संतानों की सुरक्षा और भलाई सुनिश्चित करने में महत्वपूर्ण भूमिका की ओर ध्यान आकर्षित किया। इन शावकों के पालन के दौरान किए गए प्रेक्षणों से पता चला कि, बाघों के व्यवहार को समझ पाना इतना आसान नहीं है और संतान के अस्तित्व में पिता की भूमिका भी अत्यंत महत्वपूर्ण होती है।
इन बढ़ते शावकों की जरूरतों को पूरा करने के लिए लगातार प्रयाप्त मात्रा में भोजन उपलब्ध कराये जाना बहुत जरुरी था और वो भी ऐसे कि, किसी दूसरे शिकारियों का ध्यान आकर्षित न हो। इसीलिए भोजन की मात्रा और देने की विधि समय-समय पर बदली जाती थी। विभाग द्वारा वैकल्पिक भोजन प्रदान कर, शावकों को शिकार करने के कौशल विकसित करने के लिए प्रोत्साहित किया गया। जिसमें शुरुआत में, वो बहुत अनाड़ी और बड़ी मुश्किल से अजीब तरीके से शिकार को मारते थे और उस समय तो बकरी भी शावकों पर हमला करने का साहस करती थी। हालांकि, शावकों ने तेजी से सीखा और जल्द ही वन्यजीवों को मारने में माहिर हो गए। इन शावकों के पालन-पोषण के दौरान, यह भी देखा गया कि, उनका पिता T25 उन्हें अपने द्वारा किए गए शिकारों को खाने के लिए ले जाता था।
चूंकि अब इस क्षेत्र पर किसी भी बाघिन का कब्जा नहीं था, T17 झीलों के आसपास रहने वाली बाघिन ने अपने क्षेत्र का विस्तार करना शुरू कर दिया, और खतरनाक रूप से उस क्षेत्र के करीब आ गई जहां अनाथ शावक रह रहे थे। ऐसे में एक वीडियो फुटेज सामने आया जिसमें बाघ T25, बाघिन T17 को डरा रहा था, क्योंकि वह शावकों का पीछा कर रही थी, और T25 स्पष्ट रूप से उसे शावकों से दूर रहने की चेतावनी दे रहा था। B1 और B2 वास्तव में भाग्यशाली थे कि, उन्हें अन्य बाघों से बचाने के लिए T25 जैसा पिता मिला।
नर बाघ T25 (मध्य में) अपने शावकों को बाघिन T17 से बचाते हुए | (फोटो: देश बंधु वैद्य)
अचानक से दस दिनों के लिए शावक गायब हो गए। विभाग ने तुरंत उनकों खोजना शुरू किया और हर उस इलाके को खोजै गया जहाँ उन्हें ः२५ के साथ देखा गया था परन्तु कोई निशान नहीं मिला।
फिर एक दिन, एक गार्ड ने अधिकारियों को सूचित किया कि, उसने एक पहाड़ी पर कुछ हिलते हुए देखा है। जब खोज दल लगभग आधा ऊपर चढ़ गया, तो उन्हें एक ऐसी जगह पता चली जो दो चट्टानों के बीच एक गहरी दरार थी और एक गुफा बनाती थी और वह इतनी संकरी थी कि उसमें केवल शावक ही घुस सकते थे। दरार के निचले हिस्से में एक अर्ध-गोलाकार चबूतरा सा था। शावक इसी दरार में रह रहे थे, बाहर आकर चबूतरे पर एक-दूसरे का पीछा करते और खेलते। दरार के पास, ऊपर की ओर लटकी हुई चट्टान थी, जिससे एक जल धारा बहती थी और तेज गर्मियों के दौरान भी वहां पानी का एक छोटा सा भरा रहता। उन छोटे शावकों ने इस शानदार घर की खोज कैसे की यह बात अपने आप में ही एक रहस्य है।
जैसे-जैसे शावक बड़े हुए, उन्हें धीरे-धीरे और बहुत सावधानी से विभाग द्वारा दिए जाने वाले शिकार की आदत छुड़वाई। धीरे-धीरे, उन्होंने अपने आप वन्यजीवों का शिकार करना शुरू कर दिया। हालांकि, बाघिन T17 का लगातार दबाव बना हुआ था, और वह इन शावकों के प्रति असहिष्णु हो रही थी। जिसके चलते, दोनों शावकों ने पार्क की बाहरी सीमा में अपना क्षेत्र बना लिया। उन्होंने क्षेत्र को दो इलाकों में बाँट लिया, और एक ऐसा क्षेत्र के बीच में रखा जहां वे अक्सर मिलते और साथ समय बिताते थे। परन्तु वे पार्क की सीमा के पास रहने वाले स्थानीय लोगों के साथ संघर्ष में आ सकते थे, इसलिए अधिकारियों द्वारा उन्हें सरिस्का भेजने का निर्णय लिया गया। वर्ष 2013 की सर्दियों में उन्हें सरिस्का भेज दिया गया था और उनमें से एक ने शावकों को भी जन्म दिया, जो इस कहानी की सफलता में और सकारात्मकता भर देती है।
सरिस्का में शावक B2। सरिस्का में स्थानांतरित होने के बाद शावकों को जन्म देने के बाद यह तस्वीर क्लिक की गई थी। फोटो: भुवनेश सुथार
झीलों की रानी और उसके तीन शावक
बाघिन T17 उर्फ़ लेडी ऑफ़ थे लेक्स (Lady of the Lakes) ने राजबाग झील के पास तीन शावकों को जन्म दिया था। जब बारिश का मौसम शुरू हुआ तो उसे अपने शावकों को उस जगह से ले जाना पड़ा, और वह झील के किनारे के इलाके को छोड़ कर काचिदा से आगे भदलाव नामक स्थान पर चली गई। वर्ष 2013 की सर्दियों में वह किसी अन्य बाघ के साथ लड़ाई में बुरी तरह घायल पाई गई थी। यह देख विभाग कर्मियों द्वारा उसका इलाज किया गया; उसके घाव गहरे थे जिनमें कीड़े पड़े हुए थे। उसे शिकार भी दिया गया ताकि वो खुद से शिकार करने की कोशिश में अपने घावों को और न बढ़ा ले। चोट लगे होने के बावजूद, अगले ही दिन वह नर बाघ T25 से लड़ती हुई पाई गई। और शायद तीन बढ़ते शावकों की जरूरतों को पूरा करने का दबाव पहली बार मां बनने वाली बाघिन के लिए मुश्किल साबित हो रहा था। फिर अप्रैल 2013 में, भदलाव इलाके में 10 महीने के तीन शावकों (2 नर और एक मादा) को छोड़कर, वह लापता हो गई। संयोग से ये शावक भी उसी क्षेत्र में थे जहां T5 के शावक थे। कई लोगों को उम्मीद थी कि, उनकी देखरेख भी T25 कर लेगा। भले ही वे उसके साथ B1 और B2 की तरह देखे नहीं गए थे, लेकिन यह स्पष्ट था कि, T25 ने इन अनाथ शावकों को सुरक्षा प्रदान की थी।
एक जंगल में अनाथ शावकों का भविष्य बड़ा ही अनिश्चित सा होता है। मां के बिना, कमजोर और असहाय शावकों के लिए जंगल एक क्रूर स्थान होता है जहाँ अन्य सभी जानवर व बाघ उनके दुश्मन होते हैं। लेकिन इस निराशाजनक स्थिति में भी वन प्रबंधकों के प्रयास और नियति रणथंभौर के इन अनाथ बच्चों के पक्ष में ही रही है।
(मूल अंग्रेजी आलेख का हिंदी अनुवाद मीनू धाकड़ द्वारा)
Cover photo credit: Dr. Dharmendra Khandal
अंग्रेजी आलेख “Foster Cubs” का हिंदी अनुवाद जो सर्वप्रथम दिसंबर 2018 में Saevus magazine में प्रकाशित हुआ था।
अंग्रेजी आलेख पढ़ने के लिए क्लिक करें: https://www.saevus.in/foster-cubs/
अंटलायन यानि चींटो का सिंह एक मजेदार कीट है, जो अपने जीवन चक्र में अंततः क्या से क्या बन जाता है, और अपने शिकार चींटो को मारने का एक ऐसा घातक तरीका अपनाता है, जिसमें उसकी निर्माण कला और भौगोलिक समझ दोनों ही बखूबी परिलक्षित होती हैं। आपने खुले इलाकों में जमीन पर कीप के आकर के छोटे-छोटे गड्ढे देखे होंगे। इनमें रहने वाले कीट को भी अवस्य देखा होगा।
Photo: Dr. Dharmendra Khandal
शायद इस कीट को कुछ लोगो ने चींटी का शिकार बनाते हुए भी देखा होगा। यह ग्रामीण आँचल में बच्चों के खेल का एक हिस्सा भी हुआ करता है। बड़े बच्चे इस कीप नुमा गड्ढे में चींटी डाल कर उसे अंटलायन से पकड़वाते हैं। खैर यह कितना सही हैं, गलत हैं, इस सवेंदनशील विषय को छोड़ते हैं बात करते हैं इस कीट की जो कीप नुमा गड्ढे में छुपा रहता है।
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अंटलायन एक ऐसा कीट है जिनके बच्चे ज्यादा लोग जानते हैं जबकि इसका वयस्क कीट से बहुत लोग अनभिज्ञ ही रहते हैं। अंटलायन का वयस्क कीट पंखो वाला एक ड्रैगनफ्लाई जैसा दिखने वाला कीट है। जबकि कीप नुमा खड़े में रहनेवाला अंटलायन का ही लार्वा है। यह गड्ढे चीटियों को पकड़ने के साधन हैं।
Photo: Dr. Dharmendra Khandal
लार्वा कीपनुमा खड्ढा उन स्थानों पर बनता हैं जहाँ मिटटी नरम हो एवं चीटियों का रास्ता हो। कई बार यह चींटी द्वारा जमीन से निकाली गयी नरम मिटटी में ही उसे बना देताहै। कई बार यह गाय भेंसो के खुरो से नरम हुए रास्ते की मिटटी में अपना कीप बनता है। कीप का निचला हिस्सा जिस प्रकार संकरा होता है इनके खड़े का आकर भी उसी के अनुसार होता है।
Photo: Dr. Dharmendra Khandal
जब कोई चींटी इस गढ़े में गलती से आ जाये तो उसके लिए फिर से बाहर निकलना बहुत मुश्किल होता हैं एवं इसी बीच अंटलायन का लार्वा उसे अपने तीखे दंशो से मजबूती से पकड़ कर नीचे की तरफ लेजा कर इसे अपना शिकार बना लेता है। इनके लार्वे जिस प्रकार के वयस्क बनते हैं अविश्वनीय लगता है।