राजस्थान वन विभाग के लेखकों द्वारा वन एवं वन्यजीवों संबंधी साहित्य सृजन में योगदान

राजस्थान वन विभाग के लेखकों द्वारा वन एवं वन्यजीवों संबंधी साहित्य सृजन में योगदान

राजस्थान मे वानिकी साहित्य सृजन के तीन बडे स्त्रोत है – वन अधिकारीयों द्वारा  स्वतंत्र लेखन, विभागीय स्तर पर दस्तावेजीकरण एवं वन विभाग के बाहर के अध्येताओं द्वारा लेखन। वन विभाग राजस्थान में कार्य योजनाऐं (Working plans), वन्य जीव प्रबन्ध योजनाऐं (Wildlife management plans), विभागीय कार्य निर्देशिकायें, तकनीकी निर्देशिकायें, प्रशासनिक प्रतिवेदन, वन सांख्यिकी प्रतिवेदन (Forest statistics),  ब्रोशर, पुस्तकें, लघु पुस्तिकायें, न्यूज लेटर, पत्रिकाएं, सामाजिक-आर्थिक सवेंक्षण (Socio-economic surveys) आदि तैयार की जाती है। या प्रकाशित की जाती है। इन दस्तावेजों/वानिकी साहित्य से विभिन्न सूचनाओं, योजनाओं एवं तकनीकों की जानकारी प्राप्त की जा सकती है।

वन विभाग मुख्य रूप से वन एवं वन्यजीवों के प्रबन्धन एवं विकास कार्यों के संपादन से संबंध रखता है लेकिन अपनी आवश्यकताओं को ध्यान में रखकर अनुसंधान एवं सर्वेक्षण कार्य भी संपादित करता है। वन कर्मी अपने अनुभव, अनुसंधान एवं सर्वेक्षण कार्यों को कई बार अनुसंधान पत्रों एवं पुस्तकाकार रूप में प्रकाशित करते रहे है। यह कार्य राज्य सेवा के दौरान या सेवानिवृति के बाद भी किया जाता है। प्रस्तुत लेख मे वर्ष 1947 से 2019 तक 73 वर्षों में राजस्थान वन विभाग के अधिकारीयों-कर्मचारीयों द्वारा लिखित, प्रकाशित  एवं संपादित पुस्तक/ पुस्तिकाओं का विवरण प्रस्तुत किया गया है जो नीचे सारणी में प्रस्तुत हैः

सारणी 1: राजस्थान के कार्मिकों द्वारा लिखित पुस्तकों की सूची
क्र.सं.लेखकवन/विभाग में अंतिम पद/ वर्तमान पदलिखित पुस्तक मय प्रकाशन वर्षभाषा
1श्री वी.डी.शर्मा’ (श्री राजपाल सिंह के साथ प्रथम लेखक के रूप में सहलेखन किया)प्रधान मुख्य वन संरक्षकWild Wonders of Rajasthan (1998)अंग्रेजी
2डॉ. डी. एन. पान्डे*प्रधान मुख्य वन संरक्षक1000 Indian Wildlife Quiz (1991)अंग्रेजी
अरावली के वन्यवृक्ष (1994)हिन्दी
Beyond vanishing woods (1996)अंग्रेजी
साझा वन प्रबन्धनःजल और वन प्रबंध में लोग ज्ञान की साझेदारी (1998)हिन्दी
Ethnoforestry: Local knowledge for sustainable forestry and livelihood security (1998)अंग्रेजी
वन का विराट रूप: वन के उपयोग, दुरूपयोग और सदुपयोग का संयोग (1999) (श्री आर.सी.एल.मीणा के साथ द्वितीय सहलेखक के रूप में लेखन)हिन्दी
3श्री पी.एस.चैहान* (श्री डी.डी.ओझा के साथ द्वितीय सहलेखक के रूप में लेखन)प्रधान मुख्य वन संरक्षकमरूस्थलीय परितंत्र में वानिकी एवं वन्यजीव (1996)हिन्दी
4श्री सम्पतसिंह*उप वन संरक्षकराजस्थान की वनस्पति (1977)हिन्दी
5श्री आर.सी.एल. मीणा*मुख्य वन संरक्षकअरावली की समस्यायें एवं समाधान (2003)हिन्दी
जल से वन: पारंपरिक जल प्रबंध से वानिकी विकास (2001)हिन्दी
वन का विराट रूप: वन के उपयोग, दुरूपयोग और सदुपयोग का संयोग (1999) (श्री डी.एन. पाण्डे के साथ प्रथम सह लेखक के रूप में लेखन)हिन्दी
6श्री एस.के.वर्मा*प्रधान मुख्य वन संरक्षकराजस्थान का वन्यजीवन (1991)हिन्दी
Reviving wetlands: Issues and Challenges (1998)अंग्रेजी
7श्री अभिजीत घोष*प्रधान मुख्य वन संरक्षकसही विधि से कैसे करें पौधारोपण? (2005)हिन्दी
8श्री एस.के.जैन* (डी.के.वेद, जी.ए.किन्हाल,के.रविकुमार, एस.के.जैन, आर. विजय शंकर एवं आर. सुमती के संयुक्त संपादकत्व में प्रकाशित)मुख्य वन संरक्षकConservation, Assessment and Management prioritization for the medicinal plants of Rajasthan (2007)अंग्रेजी
9श्री कैलाश सांखला*मुख्य वन्यजीव प्रतिपालकNational Parks (1969)अंग्रेजी
Wild Beauty (1973)अंग्रेजी
Tiger (1978)अंग्रेजी
The story of Indian Tiger (1978)अंग्रेजी
Garden of God (1990)अंग्रेजी
Return of Tiger (1993)अंग्रेजी
10डॉ.. जी.एस. भारद्वाज*अतिरिक्त प्रधान मुख्य वन संरक्षकTracking Tigers in Ranthambhoreअंग्रेजी
11यू.एम.सहाय*प्रधान मुख्य वन संरक्षकTennis the menace: 1000 Tennis quiz (1998)अंग्रेजी
12श्री पी.आर सियाग*वन संरक्षकAfforestaiton Manual (1998)अंग्रेजी
13श्री एस. एस चौधरीप्रधान मुख्य वन संरक्षकRanthambhore beyond tigers (2000)अंग्रेजी
14श्री फतह सिंह राठौड*उप वन संरक्षकWith tigers in the wild (1983) (श्री तेजवरी सिंह एवं श्री वाल्मिक थापर के साथ प्रथम लेखक के रूप में लेखन)अंग्रेजी
Wild Tiger of Ranthambhore (श्री वाल्मिक थापर के साथ द्वितीय लेखक के रूप में लेखन)अंग्रेजी
Tiger Portrait of Predators (श्री वाल्मिक थापर एवं श्री जी. सिजलर के साथ तृतीय लेखक के रूप में लेखन)अंग्रेजी
15श्री वी. एस. सक्सेना*मुख्य वन संरक्षकAfforestation as a tool for environmental improvement (1990)अंग्रेजी
Tree nurseries and planting practices (1993)अंग्रेजी
Useful trees, shrubs and grasses (1993)अंग्रेजी
16श्री एच.वी. भाटिया**उप वन संरक्षकराजस्थान की आन-बान-शान (2011)हिन्दी
पुण्यात्मा दानी वृक्ष (प्रकाशन वर्ष अंकित नहीं)हिन्दी
17डॉ. सतीश कुमार शर्मा**सहायक वन संरक्षकOrnithobotany of Indian weaver birds (1995)अंग्रेजी
लोकप्राणि-विज्ञान (1998)हिन्दी
वन्यजीव प्रबन्ध (2006)हिन्दी
Orchids of Desert and Semi-arid Biogeographic  zones of India (2011)अंग्रेजी
वन्य प्राणी प्रबन्ध एवं पशु चिकित्सक (2013)हिन्दी
Faunal and floral endemism in Rajasthan (2014)अंग्रेजी
Traditional techniques used to protect farm and forests in India(2016)अंग्रेजी
वन विकास एवं परिस्थितिकी (2018)हिन्दी
वन पौधशाला-स्थापना एवं प्रबन्धन (2019)हिन्दी
वन पुनरूद्भवन एवं जैव विविधता संरक्षण (2019)हिन्दी
18डॉ. भगवान सिंह नाथवत**सहायक वन संरक्षकवन-वन्यजीव अपराध अन्वेषण (2006)हिन्दी
पर्यावरण कानून बोध (2010)हिन्दी
19डॉ. रामलाल विश्नोई**उप वन संरक्षकसामाजिक वानिकी से समृद्धि (1987)हिन्दी
भीलवाडा जिले में वन विकास (1997)हिन्दी
Prespective on social forestry (2001)अंग्रेजी
20श्री भागवत कुन्दन***वनपालरूँखड़ा बावसी नी कथा (1990)हिन्दी
21डॉ. सूरज जिद्दी***जन सम्पर्क अधिकारीरणथम्भौर का इतिहास (1997)हिन्दी
Bharatpur (1986)अंग्रेजी
वनः बदलते सन्दर्भ में (1985)हिन्दी
Museum and art galleries of Rajasthan (1998)अंग्रेजी
Step well and Rajasthan (1998)अंग्रेजी
मानव स्वास्थ्य (2003)हिन्दी
अजब गजब राजस्थान के संग्रहालय (2005)हिन्दी
राजस्थान के जन्तुआलय (2005)हिन्दी
राजस्थान के मनोहारी वन्यजीव अभयारण्य (2005)हिन्दी
राष्ट्रीय उद्यान एवं अभयारण्यहिन्दी
कचरा प्रबन्ध (2009)हिन्दी
वनमित्र योजना (2010)हिन्दी
A guide to the Wildlife parks of Rajasthan (1998)अंग्रेजी
22श्री संजीव जैन***क्षेत्रीय वन अधिकारीविद्यालयों में बनावें ईको क्लब (2005)हिन्दी
प्रकृति प्रश्नोत्तरी (2003)हिन्दी
23डॉ. राकेश शर्मा***क्षेत्रीय वन अधिकारीसाझा वन प्रबन्ध (2002)हिन्दी
पर्यावरण प्रशासन एवं मानव पारिस्थितिकी (2007)हिन्दी
पर्यावरण प्रदूषण नियंत्रण (2012)हिन्दी
राजस्थान फोरेस्ट लॉ कम्पेडियम   (2012)हिन्दी
24श्री दौलत सिंह शक्तावत**उप वन संरक्षकMy encounters with the big cat and other adventures in Ranthabhore (2018)अंग्रेजी
25श्री सुनयन शर्मा*उप वन संरक्षकSariska (2015)अंग्रेजी

*भारतीय वन सेवा का अधिकारी, **राजस्थान वन सेवा को अधिकारी, ***अन्य स्तर के अधिकारी – कर्मचारी, 1-वर्ष 2019 तक सेवा निवृत हो चुके कार्मिक, 2- वर्तमान में भी विभाग में कार्यरत कार्मिक

सारणी 1 से स्पष्ट है कि राजस्थान के वन कार्मिकों ने राज्य से सम्बन्धित वानिकी साहित्य के सृजन हेतु आजादी के बाद यानी 1947 के बाद ही स्वतंत्र लेखन किया है। 1947 से 2019 तक 26 वन विभाग लेखकों ने कुल 70 पुस्तकें प्रकाशित की जिनमें 37 हिन्दी भाषा में एवं 33 अंग्रेजी में लिखी गई। भारतीय वन सेवा के 17 अधिकारीयों ने एवं राजस्थान वन सेवा के 5 अधिकारीयों ने अपनी लेखनी चलाई। श्री कैलाश सांखला (1973 से 1993) ने मुख्यतया बाघ (Tiger-Panthera tigris) पर मोनोग्राफ तर्ज पर विश्व प्रसिद्ध पुस्तकें लिखीं। उन्होंने बाघ के रहस्यमय जीवन का जो दिग्दर्शन कराया वह अनूठा है। श्री वी,डी, शर्मा (1998) द्वारा अपने सेवाकाल के प्रेक्षणों को बेजोड़ रूप में पुस्ताकाकार प्रस्तुत किया गया। उनकी पुस्तक ’’वाइल्ड वन्डर्स ऑफ़ राजस्थान” में विषय व छायाचित्रों की विविधता देखने लायक है। डॉ. जी.एस.भारद्वाज (1978), श्री फतह सिंह राठौड़ (1983,2000), श्री तेजवीर सिंह (1983) एवं श्री सुनयन शर्मा (2015) ने अपने लेखन कौशल द्वारा श्री सांखला की बाघ संरक्षण संबंधी लेखन विरासत को और आगे बढाया है। श्री आर.सी.एल.मीणा (1999,2001,2003) ने ग्रामीण परिवेश से जुडे पर्यावरणीय एवं वानिकी मुद्दों को छूआ है। डॉ. डी. एन. पाण्डे (1991, 94, 96, 98, 99) ने पारम्परिक देशज ज्ञान व लोक वानिकी की अहमियत को रेखंकित कर इसके उपयोग को बढावा देकर वन समृद्धि लाने पर जोर दिया है। श्री वी.एस.सक्सेना (1990, 93) ने पौधशाला एवं वृक्षारोपण विषयों पर लिखा है। श्री एस.के.वर्मा (1991, 98) ने वन्यजीवन की विविधतापूर्ण झाँकी प्रस्तुत की है एवं नमक्षेत्र की समस्याओं व संरक्षण उपायों को प्रकट किया है। श्री पी.एस.चैहान (1996) ने थार मरूस्थल की समस्याओं व जुड़े मुद्दों पर प्रकाश डाला है एवं विषम क्षेत्र की परिस्थितियों में वानिकी एवं वन्यजीवन संरक्षण-प्रबन्धन प्रद्धतियों का लेखा-जोखा प्रस्तुत किया है।

श्री सम्पतसिंह (1977) ने राजस्थान के विभिन्न महत्वपूर्ण पौधों की जानकारी प्रस्तुत की है। श्री अभिजीत घोष (2005), डॉ. भगवान सिंह नाथावत (2006, 2010), डॉ. सूरज जिद्दी (1977 से 2010) एवं श्री संजीव जैन (2005) ने वानिकी से सम्बन्धित अलग-अलग विषयों पर सरल भाषा में सचित्र पुस्तिकायें प्रकाशित की हैं। डॉ. जिद्दी द्वारा लिखित विभिन्न पुस्तिकायें बच्चों हेतु बहुत उपयोगी हैं जो विद्यालय – महाविद्यालयों के छात्र-छात्राओं के लिये बहुत ज्ञान वर्धक हैं एवं एक हद तक वानिकी क्षेत्र के बाल साहित्य की कमी पूरी करती हैं। श्री यू.एम.सहाय (1996) ने टेनिस खेल संबंधी प्रश्नोत्तरी पर पुस्तक लिखी है। हालांकि इस पुस्तक का वन से संबंध नहीं है तथापि वनाधिकारी की लेखन कुशलता का प्रमाण है। वानिकी से संबंधित प्रश्नोत्तरी डॉ. डी.एन.पान्डे (1991) एवं श्री संजीव जैन (2003) ने पुस्तककार प्रस्तुत की हैं। डॉ. राकेश शर्मा (2002,07,12) ने वानिकी के क्षेत्र में जनता की भागीदारी, प्रशासनिक पहलुओं एवं नियामवली जैसे विषयों पर प्रकाश डाला है। श्री एस.के.जैन (2007) ने राज्य के औषधीय पौधों पर हुई कैम्प कार्यशाला (Camp Workshop)  के आधार पर तैयार रेड डेटा बुक के संपादन में भाग लिया है। डॉ. सतीश कुमार शर्मा (1995 से 2019) ने राजस्थान की जैव विविधता, तथा वन एवं वन्यजीवों के वनवासियों से संबंध की झलक के साथ- साथ संरक्षित क्षेत्रों एवं चिडियाघरों में वन्यप्राणी संरक्षण-संवर्धन एवं प्रबन्धन विषयों पर सविस्तार प्रकाश डाला है। श्री एच.वी. भाटिया (2011) ने रजवाडों के समय एवं आजादी के तुरन्त बाद की वानिकी पर प्रकाश डाला है। उन्होंने जन – जागरण हेतु भी कलम चलाई है। श्री भागवत कुन्दन (1990) ने डूंगरपुर- बांसवाडा की स्थानीय वागडी बोली में वनों-वृक्षों की महिमा को काव्य रूप में प्रस्तुत कर वन संरक्षण हेतु जनजागृत में योगदान दिया है। जब वे राजकीय सेवा में थे, उन्होंने अपने काव्य को आमजन के समक्ष गेय रूप में भी प्रस्तुत कर जागरण अभियान चलाया। लेखक ने 1986 में उनके काव्य पाठ स्वयं सुने हैं।

वन कार्मिकों के लेखन में एक बात सामने आई है, वह है उनके द्वारा अनुभवों एवं संस्मरणों का भी वैज्ञानिकता के साथ प्रस्तुतिकरण। फील्ड में निरन्तर होने वाले प्रेक्षणों एवं अनुभवों से हम अच्छे निष्कर्ष निकाल सकते हैं तथा नये सिरे से ऐसी चीजों पर अनुसंधान की ज्यादा जरूरत नहीं होती।

आजादी के बाद राजस्थान वन विभाग में श्री सी.एम. माथुर पहले ऐसे वन अधिकारी हुऐ हैं जिन्होने 1971 मे पीएच.डी. की उपाधि प्राप्त की। इसके बाद वनअधिकारीयों में पीएच.डी. उपाधि लेने की प्रवृति प्रारंभ हुई और वन अनुसंधान को गति मिलने लगी। श्री कैलाश सांखला ने 1970 के आसपास फील्ड में प्रेक्षण लेकर उसे आधार बना कर वैज्ञानिक लेखन की नींव प्रारंभ की। राजस्थान में वैज्ञानिक प्रेक्षण-लेखन को आधार मानकर पुस्तकें लिखने का युग डॉ. सी.एम. माथुर एवं श्री कैलाश सांखला जैसे वन अधिकारियों ने प्रारंभ किया। उनके बाद यह प्रवृति और बढती गयी। माथुर – सांखला के लेखन युग से प्रारंभ कर अगले 45 सालों में 26 वनकर्मी पुस्तक -लेखक के रूप में अपना नाम दर्ज करा चुके हैं।

वन कार्मिकों के लेखन में विविधता है। वन, वन्यजीव, पर्यावरण, जैव विविधता आदि विषयों पर अत्याधिक लेखन हुआ है लेकिन अभी वन – इतिहास (थ्वतमेज भ्पेजवतल) एवं आत्मकथा लेखन का कार्य किसी ने नहीं किया है। राजकीय स्तर पर हाँलांकि “विरासत” नामक पुस्तक में इतिहास लेखन की तरफ कदम उठाया गया हैं लेकित यह शुरूआत भर है। आने वाले समय में इन क्षेत्रों में भी लेखन होगा, ऐसी आशा है।

Cover photo Credit: Mr. Abhikram Shekhawat

 

 

 

 

Passive Plant Taxonomy With Special Reference To Rajasthan

Passive Plant Taxonomy With Special Reference To Rajasthan

Know how the simple identification of plants from Google poses a threat?

Plant Taxonomy is one of the very important branches of the Botany which helps us in classification , identification  and authentication  of an unknown plant species. It provides us important tools to place, search and understand a species properly. If someone is doing a research work on a particular species, but identification is erroneous, then whole research work would be futile and senseless. Especially, if some research work is based on a particular single species and identification of same is mistaken, we can easily think of the hazards. Particularly, in medicology, wrong species identification may prove disastrous to self, society and science.

Recently, we got a chance to read a beautiful and provoking article, titled “The End of Botany” published by Crisci et al. (2020). Authors of this article say “Biologist unable to recognize common plants and a decline in botany students, faculty, courses, university departments and herbaria highlight the current erosion of botany. How did we reach this crisis, knowing that plants form the basis for life ? What are causes? What can we do to reverse it?” What Crisci et al. (2020) wrote is absolutely correct and alarming. Day by day correct plant identification is becoming a difficult task and Rajasthan is also not unaffected from this situation.

Before independence (i.e. 1947) and till 1970 our dependency was more or less on the floras of Hooker et al. (1872-1897) and Brandis (1874) as that time specific floras for geographical limits of erstwhile Rajasthan (Rajputana) were not available. Various information in the form of published papers related to flora of Rajasthan were scattered and a real “compact flora” for the state or any part of the state was not available. Ramdev (1969), Bhandari (1978) and Shamra and Tiagi (1979) were the state’s pioneer post-independence taxonomists and they took a lead to produce regional floras of the state. They also developed the herbaria for the state. After these initial efforts, many floras came into existence. Few important landmark Angiospermic floras of Rajasthan are as follows:

Sr. no.PeriodName of flora published (year of publication )Author(s)Coverage
11947-1980 Contribution to the flora of Udaipur (1969)K.D. RamdevSouth- East Rajasthan
Flora of the Indian Desert (1978)M.M. BhandariJaisalmer, Jodhpur and Bikaner districts
Flora of North- East Rajasthan (1979)S. Sharma &B. TiagiNorth – East Rajasthan
21981-2000Flora of Banswara (1983)V. SinghBanswara district
Flora of Tonk (1983)B.V. Shetty & R. P. PandeyTonk district
Flora of Rajasthan, Vol. I,II,III (1987,1991,1993)B.V. Shetty & V. SinghWhole Rajasthan
 Flora of Rajasthan(Series – Inferae ) (1989)K.K. Sharma & S. SharmaWhole Rajasthan
Illustrated flora of Keoladeo National Park , Bharatpur , Rajasthan (1996)Prasad et al.KNP Bharatpur
32001-2020The flora of Rajasthan (2002)N. SharmaHadoti zone
Flora of Rajasthan (South and South- East Rajasthan ) (2007)Y. D. Tiagi & N.C. AreySouth and South- East Rajasthan
Orchids of Desert and Semi – arid Biogeographic zones of India (2011)S.K. SharmaOrchids of whole Rajasthan (including parts of adjacent states )
Flora of South – Central Rajasthan (2011)B. L. Yadav & K.L. MeenaSouth- Central Rajasthan

The above table indicates that in present century, we have published less number of Angiospermic floras related to Rajasthan. Our old generation of “University Taxonomist” namely Sh. K.D. Ramdev, Dr. Shiva Sharma, Prof. B Tiagi, Prof. M.M. Bhandari and Prof. Y.D. Tiagi had left us, leaving a massive vacuum in the field of taxonomy of Rajasthan. Prof. N.C. Arey has also retired. During the days of above plant taxonomists, regular outings for field studies, herbarium preparation, outstate botanical tours, morphological micro- scopic studies etc. were the routine part of day to day activities. At that time, there were hardly any coloured field guides available in the library or market to identify the plants. Neither internet  nor Google facilities were available. The only method to identify the plants was non- illustrated descriptive floras. Easy and readily available plant identifying sources were hardly available. If any student use to get a plant new to him/ her , he /she used to instructed by the teachers to use the flora their own to identify the plant. Since options were less and  compulsions were more , hence M.Sc. and Ph.D. students used to refer different floras for cross checking also. This type of atmosphere was very helpful to make a student “active taxonomist”. When student involves in “active identification” of a plant with the help of floras, he used to develop a special  and real taste for plant taxonomy. We would like to give an example of Sh. Roop Singh, the thence herbarium keeper of the Deptt. Of Botany , University of Rajasthan, Jaipur . Dr. Shiv Sharma had developed a beautiful herbarium with the help of Sh. Roop Singh. Sh. Roop Singh was not a qualified taxonomist but the plant material, brought by Dr. Shiv Sharma from the field were used to process by him. Drying, pasting on herbarium sheet, labeling, placing in Genus and Species folder, then storing in the pigeon hole almirah, etc. activities were regularly done by him.  He actively and minutely used to observe the plant specimen to help in identification. He learnt various aspects of Angiospermic taxonomy from Dr. Shiv Sharma. Soon he developed a wonderful taste for taxonomy. He was quite smooth to use the floras and to refer the Index Kewensis for correct identification and nomenclature. His identification ability was most reliable and par excellence. Seeing the case of Sh. Roop Singh, one can raise a question- why he was so thorough in plant identification? The answer is, he used to observe the plant material himself and he never believed in “ready-made identification process”. If one flora is not giving satisfactory results, then he used to start probing the next flora and so on, till he got a correct identification. we would like to call this habit “active plant identification”. Thus, to become an active plant taxonomist, students should have to develop a habit of active plant identification.

In present days, the situation is reverse. Most of people are seem always in hurry. Generally, people have no time to go in the field. Even, many do not want to spent few minutes to identify an unknown plant on their own. They like a ready-made identification facility. Internet, Google , mobile groups etc. are such fora where people send their pictures of unknown plants and sometimes within few seconds identification reaches in their hands. Though, using such methods, identification is possible quickly but people never become “Roop Singh”. Day by day people are becoming addict of “ready made identification” of the plants.  This culture of “passive identification” and “passive taxonomy” is replacing old trends of taxonomy every where. Now plant identification becoming easy but new plant taxonomists are not developing in the botany departments of various Universities of the state. The same situation is in Forest Department and Ayurveda Department. There was a time when Dr. C.M. Mathur and Sh. V.S. Saxena like forest officers were there in the Forest Department, Rajasthan who were experts of forest taxonomy. Similarly, Dr. Mahesh Sharma, Dr. R.C. Bhutiya, and few others were torch bearers of plant identification in the department of Ayurveda, but after their retirement, a vacuum is there.

We are getting late now. We hardly have any reliable and leading angiospermic taxonomist from the new generation in our state. The same situation is in the field of animal taxonomy. We have a good network of Universities and colleges in the state but traditional plant taxonomy is not a much-liked subject there. It’s the right time to revive “active taxonomy” in the state before it dies completely. This is a moral duty of every University and Forest and Ayurveda Departments as well.

References :

  • Cover Photo- PC: Dr. Dharmendra Khandal
  • Bhandari , M.M. (1978) : Flora of the Indian desert. (Revised 1990)
  • Brandis , D. (1874) : The forest flora of the North – West and Central India. London.
  • Crisci , J.V. , L. Katinas , M.J. Apodaca & P.C. Hode (2020): The end of Botany. Trends in plants science. XX (XX) : 1-4.
  • Hooker, J.D. et al. (1872-1897) : The flora of British India. Vol. 1-7. London (Repr. Ed. 1954-1956, Kent).
  • Prasad V. P., D. Mason , J.P. Marburger & C.R. Ajitkumar (1996) : Illustrated flora of Keoladeo Nation Park , Bharatpur.
  • Ramdev , K. D. (1969) : Contribution to the flora of Udaipur .
  • Sharma K.K. & S. Sharma (1989) : Flora of Rajasthan (Series- Inferae) .
  • Sharma N. (2002) : The flora of Rajasthan
  • Sharma , S. K. (2011) : Orchids of Desert and Semi- arid Biogeographic Zones of India.
  • Sharma ,S. &B. Tiagi (1979) : Flora of North – East Rajasthan.
  • Shetty , B. V.  & R.P. Pandey (1983) : Flora of Tonk.
  • Shetty B.V. & V. Singh (1987,1991,1993) : Flora of Rajasthan , Vol. I , II & III .
  • Singh , V. (1983) : Flora of Banswara .
  • Tiagi , Y.D. & N.C. Arey (2007) Flora of Rajasthan (South & South- East Rajasthan )
  • Yadav , B.L. & K.L. Meena (2011) : Flora of South – Central Rajasthan. Scientific Publishers , Jodhpur .
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Passive Plant Taxonomy With Special Reference To Rajasthan

पैसिव प्लांट टैक्सोनॉमी: राजस्थान के विशेष सन्दर्भ में

जानिये कैसे गूगल से पौधों की सरल पहचान बने खतरा ए जान?

क्या आपने कभी सोचा है कि हमारे चारों ओर कितने प्रकार के पेड़-पौधे और जीव-जंतु पाए जाते हैं? सोचिये अगर इन सभी के भिन्न-भिन्न नाम ही न होते तो? इन्हें अलग-अलग समूहों में बांटा ही न गया होता तो?… यह स्थिति सोच कर ही कितनी कठिनाई महसूस होती है? इस कठिनाई को हल करने के लिए ही विभिन्न वैज्ञानिकों ने इस पृथ्वी पर पाए जाने वाले सभी पौधों व् प्राणियों को विभिन्न समूहों में बांटा व उनका नामकरण किया है। जैविक जगत में अज्ञात जीवों को समझने, पहचानने तथा उनको समानता व असमानता के आधार पर विभिन्न समूहों में बांटने को “वर्गिकी (Taxonomy) या वर्गीकरण विज्ञान” कहते हैं। वर्गिकी, जीव जगत की एक ऐसी महत्वपूर्ण शाखा हैं जिसमें यदि कोई वैज्ञानिक किसी विशेष प्रजाति पर शोध के दौरान यदि उसकी पहचान ही गलत कर दे, तो उसका पूरा शोध कार्य गलत व व्यर्थ हो सकता है। यदि इस प्रकार की गलती दवा विज्ञान में हो जाए तो पूरे समाज और विज्ञान के लिए घातक साबित हो सकती है।

हाल ही में हमें “The End of Botany” नामक एक आलेख पढ़ने का मौका मिला, जिसे क्रिसी एवं साथियों (2020) ने लिखा है। इस आलेख के लेखकों का कहना है की “आजकल वैज्ञानिक आम पौधों को पहचानने में असमर्थ होते जा रहे हैं और लगातार वनस्पति विज्ञान के छात्रों, शिक्षकों, पाठ्यक्रमों, विश्वविद्यालयों में प्रकृति विज्ञान के विभागों की और हर्बेरियमों की पौधे पहचान क्षमता में गिरावट आ रही है। ये गिरावट सिर्फ और सिर्फ वनस्पति विज्ञान की क्षमताओं की गिरावट को उजागर करती हैं। हम अच्छी तरह से जानते हैं की पौधे हमारे जीवन का आधार हैं, एवं उनकी सही पहचान बहुत जरूरी है फिर भी हम इस संकट तक कैसे पहुंचे? इसके क्या कारण हैं? हम इस हालात को कैसे सुधार सकते हैं?”  Crisci et al. (2020) ने जो भी लिखा वो बिलकुल सही और चिंताजनक है। दिन प्रतिदिन वनस्पतियों की सही पहचान करना एक कठिन कार्य बनता जा रहा है और राजस्थान भी इस स्थिति से अछूता नहीं है।

भारत की आज़ादी से पहले (वर्ष 1947 से पहले) और 1970 तक पौधों को पहचानने के लिए हम केवल Hooker et al. (1872-1897) एवं Brandis (1874) द्वारा लिखित पुस्तकों का ही इस्तेमाल करते थे क्योंकि उस समय राजस्थान की वनस्पतियों के लिए कोई एक विशेष “सटीक फ़्लोरा” उपलब्ध नहीं था। यदि कोई जानकारी उपलब्ध भी थी तो विभिन्न शोधपत्रों के रूप बिखरी हुई थी। परन्तु आज़ादी के बाद रामदेव (1969), भंडारी (1978) और शर्मा व त्यागी (1979) राजस्थान के अग्रणी वर्गीकरण वैज्ञानिक (Taxonomist) के रूप में उभरे तथा उन्होंने राज्य के क्षेत्रीय “फ़्लोरा” बनाने की पहल की। उन्होंने राजस्थान राज्य की वनस्पति सम्पदा जानने हेतु हर्बेरियम भी विकसित किये। इन शुरूआती प्रयासों के बाद कई फ़्लोरा अस्तित्व में आये जिनमें से कुछ महत्वपूर्ण फ़्लोरा निम्नलिखित हैं:

Sr. no.PeriodName of flora published (year of publication )Author(s)Coverage
11947-1980 Contribution to the flora of Udaipur (1969)K.D. RamdevSouth- East Rajasthan
Flora of the Indian Desert (1978)M.M. BhandariJaisalmer, Jodhpur and Bikaner districts
Flora of North- East Rajasthan (1979)S. Sharma &B. TiagiNorth – East Rajasthan
21981-2000Flora of Banswara (1983)V. SinghBanswara district
Flora of Tonk (1983)B.V. Shetty & R. P. PandeyTonk district
Flora of Rajasthan, Vol. I,II,III (1987,1991,1993)B.V. Shetty & V. SinghWhole Rajasthan
 Flora of Rajasthan(Series – Inferae ) (1989)K.K. Sharma & S. SharmaWhole Rajasthan
Illustrated flora of Keoladeo National Park , Bharatpur , Rajasthan (1996)Prasad et al.KNP Bharatpur
32001-2020The flora of Rajasthan (2002)N. SharmaHadoti zone
Flora of Rajasthan (South and South- East Rajasthan ) (2007)Y. D. Tiagi & N.C. AreySouth and South- East Rajasthan
Orchids of Desert and Semi – arid Biogeographic zones of India (2011)S.K. SharmaOrchids of whole Rajasthan (including parts of adjacent states )
Flora of South – Central Rajasthan (2011)B. L. Yadav & K.L. MeenaSouth- Central Rajasthan

ऊपर दी गयी सारणी यह दर्शाती है कि 21वी शताब्दी में हमने राजस्थान से संबंधित एन्जियोस्पर्मिक फ्लोरा की बहुत कम पुस्तकें प्रकाशित की हैं। हमारे वरिष्ठ वनस्पति वर्गीकरण वैज्ञानिक जो विभिन्न विश्वविद्यालयों के वनस्पति विज्ञान विभागों से सम्बंधित थे जैसे श्री के. डी. रामदेव, डॉ. शिवा शर्मा, प्रोफेसर बी. त्यागी, प्रोफेसर एम. एम. भंडारी और प्रोफेसर वाई. डी. त्यागी जो हमारे बीच नहीं रहे। इन विद्वानों के समय में, फील्ड स्टडीज के लिए नियमित बाहर जाना, हर्बेरियम बनाना, अन्य राज्यों के दौरे करना, सूक्ष्मदर्शी निरिक्षण आदि अध्यन्न गतिविधियों का नियमित हिस्सा थे। उस समय पौधों की पहचान करने के लिए पुस्तकालय या बाजार में शायद ही कोई रंगीन चित्रों वाली फील्ड गाइड उपलब्ध थी, और तो और इंटरनेट व् गूगल जैसी सुविधाएं भी उपलब्ध नहीं थीं। पौधों की पहचान करने का एकमात्र तरीका था बिना चित्रों वाले फ़्लोरा। ऐसे में यदि किसी छात्र को कोई नया पौधा मिलता था तो शिक्षकों द्वारा उसे निर्देशित किया जाता था, कि वह स्वयं फ़्लोरा का निरिक्षण कर, पौधे को पहचानने कि कोशिश करे। क्योंकि विकल्प कम थे अतः छात्र अलग-अलग फ़्लोरा का प्रयोग कर पौधे को पहचानने की कोशिश करते थे। इस प्रकार का वातावरण एक छात्र को “एक्टिव टैक्सोनोमिस्ट” बनाने के लिए बहुत ही सहायक हुआ करता था। जब छात्र फ़्लोरा कि मदद से किसी पौधे की स्वयं पहचान करते थे, तो उनमें पौधों के वर्गीकरण के लिए एक विशेष रूचि विकसित होती थी।

इस सभी के प्रभाव का नतीजा जानने हेतु यहाँ एक उदाहरण देना उचित होगा और इस उदहारण के रूप में श्री रूप सिंह को याद करना उचित होगा। “श्री रूप सिंह”, राजस्थान विश्वविद्यालय के वनस्पति विज्ञान विभाग (Botany Department) में हर्बेरियम को सँभालते थे। श्री रूप सिंह एक प्रशिक्षित वर्गीकरण वैज्ञानिक नहीं थे परन्तु फिर भी उन्होंने डॉ. शिव शर्मा को एक हर्बेरियम बनाने में अदभुत योगदान दिया था। डॉ. शिव शर्मा द्वारा लाये गए सभी पौधों का हर्बेरियम बनाने कि पूरी प्रक्रिया जैसे; नमूनों को सुखाना, हर्बेरियम शीट पर चिपकाना, लेबलिंग, वर्ग और प्रजाति फ़ोल्डर में रखना, तथा उनको अलमारी में क्रमानुसार रखने का कार्य श्री रूप सिंह किया करते थे। वे बहुत बारीकी से पौधों का अवलोकन कर उनकी पहचान करते थे, तथा उन्होंने डॉ शिव शर्मा से एन्जियोस्पर्मिक वर्गीकरण विज्ञान (Angiospermic Taxonomy) के विभिन्न पहलुओं को बड़े मनोयोग से सीखा। जल्द ही उन्होंने वनस्पति वर्गीकरण कि एक अद्भुत समझ विकसित कर ली तथा उनकी पहचान करने की क्षमता बहुत विश्वसनीय और सटीक थी। श्री रूप सिंह के उदहारण को देखकर, एक सवाल उठ सकता है कि आखिर वह पौधों की पहचान में इतने अच्छे कैसे थे? इसका उत्तर यह है कि वह पौधों का स्वयं निरीक्षण करते थे और उन्होंने कभी भी “बनी बनाई पहचान प्रक्रिया” पर विश्वास नहीं किया। यदि एक फ़्लोरा उनको संतोषजनक परिणाम नहीं देता था, तो वह अन्य फ़्लोरा का उपयोग शुरू कर देते थे, और तब तक वे ऐसा करते जब तक कि उनको एक सही पहचान नहीं मिल जाती थी। हम इस आदत को “सक्रिय पहचान प्रक्रिया” कह सकते हैं। इस प्रकार, एक सक्रिय वनस्पति वर्गीकरण वैज्ञानिक बनने के लिए, छात्रों को पौधों कि सक्रिय पहचान की आदत विकसित करनी चाहिए।

परन्तु आजकल स्थिति बिलकुल विपरीत है। लोगों के पास बाहर जाने का समय नहीं होता है और यदि कोई चले भी जाए तो  हमेशा जल्दी में ही रहते हैं। यहां तक कि कई तो स्वयं एक अज्ञात पौधे की पहचान करने के लिए चंद मिनट भी खर्च नहीं करना चाहते हैं। उन्हें पहचान के लिए एक सीधी, सरल बानी बनाई सुविधा चाहिए। इंटरनेट, गूगल, मोबाइल में विभिन्न व्हाट्सऐप ग्रुप्स आदि ऐसे तरीके हैं जिसमें लोग अपने अज्ञात पौधों की तस्वीरें भेजते हैं और कुछ सेकंड के भीतर पहचान उनके हाथों में आ जाती है। हालांकि, इस तरह के तरीकों का उपयोग करके, पहचान जल्दी संभव है लेकिन ऐसे लोग कभी भी “श्री रूप सिंह” नहीं बन सकते हैं। दिन प्रतिदिन लोग पौधों की सुविधाजनक पहचान के आदी होते जा रहे हैं। आज “passive identification” और “passive taxonomy” का यह चलन हर जगह वर्गीकरण विज्ञान के पुराने तरीकों की जगह ले रहा है। अब पौधे की पहचान आसान हो रही है, लेकिन राज्य के विभिन्न विश्वविद्यालयों के वनस्पति विज्ञान विभागों में नए वनस्पति वर्गीकरण वैज्ञानिक विकसित नहीं हो रहे हैं। वन विभागों और आयुर्वेद विभागों में भी यही स्थिति है। एक समय था जब डॉ. सी. एम. माथुर और श्री. वी. एस. सक्सेना  जैसे वन अधिकारी राजस्थान के वन विभाग में थे, जो वन वनस्पति वर्गीकरण विज्ञान के विद्वान थे। इसी प्रकार से, डॉ. महेश शर्मा, डॉ. आर. सी. भूतिया और कुछ अन्य लोग आयुर्वेद विभाग में पौधों की पहचान के मशाल वाहक थे, लेकिन उनकी सेवानिवृत्ति के बाद, अब बस एक खालीपन है।

हमें अब देर हो रही है। हमारे राज्य में नई पीढ़ी का शायद ही कोई विश्वसनीय और प्रमुख एन्जियोस्पर्मिक टैक्सोनोमिस्ट उपलब्ध है। समान स्थिति प्राणी वर्गीकरण विज्ञान के क्षेत्र में भी है। राजस्थान में कई विश्वविद्यालय और कॉलेज हैं, लेकिन पारंपरिक प्लांट टैक्सोनॉमी वहां ज्यादा पसंद नहीं कि जाती है। “सक्रिय वर्गीकरण विज्ञान” को पुनर्जीवित करने का अभी भी समय है नहीं तो बाद में बहुत देर हो जाएगी। यह हर विश्वविद्यालय के वनस्पति विज्ञान विभागों एवं वन और आयुर्वेद विभागों का एक नैतिक कर्तव्य है।

सन्दर्भ:
  • Cover Photo- PC: Dr. Dharmendra Khandal
  • Bhandari , M.M. (1978) : Flora of the Indian desert. (Revised 1990)
  • Brandis , D. (1874) : The forest flora of the North – West and Central India. London.
  • Crisci , J.V. , L. Katinas , M.J. Apodaca & P.C. Hode (2020): The end of Botany. Trends in plants science. XX (XX) : 1-4.
  • Hooker, J.D. et al. (1872-1897) : The flora of British India. Vol. 1-7. London (Repr. Ed. 1954-1956, Kent).
  • Prasad V. P., D. Mason , J.P. Marburger & C.R. Ajitkumar (1996) : Illustrated flora of Keoladeo Nation Park , Bharatpur.
  • Ramdev , K. D. (1969) : Contribution to the flora of Udaipur .
  • Sharma K.K. & S. Sharma (1989) : Flora of Rajasthan (Series- Inferae) .
  • Sharma N. (2002) : The flora of Rajasthan
  • Sharma , S. K. (2011) : Orchids of Desert and Semi- arid Biogeographic Zones of India.
  • Sharma ,S. &B. Tiagi (1979) : Flora of North – East Rajasthan.
  • Shetty , B. V.  & R.P. Pandey (1983) : Flora of Tonk.
  • Shetty B.V. & V. Singh (1987,1991,1993) : Flora of Rajasthan , Vol. I , II & III .
  • Singh , V. (1983) : Flora of Banswara .
  • Tiagi , Y.D. & N.C. Arey (2007) Flora of Rajasthan (South & South- East Rajasthan )
  • Yadav , B.L. & K.L. Meena (2011) : Flora of South – Central Rajasthan. Scientific Publishers , Jodhpur .

 

राजस्थान में “इंद्रधौक” (Anogeissus sericea Var. sericea) का वितरण

राजस्थान में “इंद्रधौक” (Anogeissus sericea Var. sericea) का वितरण

राजस्थान के शुष्क वातावरण में पाए जाने वाला वृक्ष “इंद्रधौक” जो राज्य के बहुत ही सिमित वन क्षेत्रों में पाया जाता है, जंगली सिल्क के कीट के जीवन चक्र में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है…

राजस्थान जैसे शुष्क राज्य के वनस्पतिक संसार में वंश एनोगिसस (Genus Anogeissus) का एक बहुत बड़ा महत्व है, क्योंकि इसकी सभी प्रजातियां शुष्क और अर्ध-शुष्क क्षेत्रों में मजबूत लकड़ी, ईंधन, पशुओं के लिए चारा तथा विभिन्न प्रकार के औषधीय पदार्थ उपलब्ध करवाती हैं। जीनस एनोगिसस, वनस्पतिक जगत के कॉम्ब्रीटेसी कुल (Family Combretaceae) का सदस्य है, तथा भारत में यह मुख्य रूप से समूह 5- उष्णकटिबंधीय शुष्क पर्णपाती वन का एक घटक है। यह वंश पांच महत्वपूर्ण बहुउद्देशीय प्रजातियों का एक समूह है, जिनके नाम हैं Anogeissus acuminata, Anogeissus pendula, Anogeissus latifolia, Anogeissus sericea var. sericea and Anogeissus sericea var. nummularia। दक्षिणी राजस्थान में उदयपुर शहर राज्य का एकमात्र ऐसा स्थान है जहाँ सभी पाँच प्रजातियों व् उप प्रजातियों को एक साथ देखा जा सकता है। सज्जनगढ़ अभयारण्य राज्य का एकमात्र अभयारण्य है जहाँ Anogeissus sericea var. nummularia को छोड़कर शेष चार प्रजातियों व् उप-प्रजातियों को एक साथ देखा जा सकता है।

Anogeissus sericea var. sericea, इस जीनस की एक महत्वपूर्ण प्रजाति है जिसे सामान्य भाषा में “इंद्रधौक” भी कहा जाता है। इसे Anogeissus rotundifolia के नाम से अलग स्पीशीज का दर्जा भी दिया गया है, यदपि सभी वनस्पति विशेषज्ञ अभी तक पूर्णतया सहमत नहीं है। इस प्रजाति के वृक्ष 15 मीटर से अधिक लम्बे होने के कारण यह राज्य में पायी जाने वाली धौक की सभी प्रजातियों से लम्बी बढ़ने वाली प्रजाति है। यह एक सदाबहार प्रजाति है जिसके कारण यह उच्च वर्षमान व् मिट्टी की मोटी सतह वाले क्षेत्रों में ही पायी जाती है। परन्तु राज्य में इसका बहुत ही सिमित वितरण है तथा सर्वश्रेष्ठ नमूने फुलवारी वन्यजीव अभयारण्य और उसके आसपास देखे जा सकते हैं। राजस्थान जैसे शुष्क राज्य के लिए यह बहुत ही विशेष वृक्ष है। गर्मियों के मौसम में मवेशियों में लिए चारे की कमी होने के कारण लोग इसकी टहनियों को काट कर चारा प्राप्त करते हैं, तथा इसकी पत्तियां मवेशियों के लिए एक बहुत ही पोषक चारा होती हैं। काटे जाने के बाद इसकी टहनियाँ और अच्छे से फूट कर पहले से भी घनी हो जाती हैं तथा पूरा वृक्ष बहुत ही घाना हो जाता है। इसकी पत्तियों पर छोटे-छोटे रोए होते है जो पानी की कमी के मौसम में पानी के खर्च को बचाते हैं।

Anogeissus sericea var. sericea (Photo: Dr. Dharmendra Khandal)

वर्षा ऋतू में कभी-कभी इसकी पत्तियाँ आधी खायी हुयी सी दिखती हैं क्योंकि जंगली सिल्क का कीट इसपर अपने अंडे देते हैं तथा उसके कैटेरपिल्लर इसकी पत्तियों को खाते हैं। जीवन चक्र के अगले चरण में अक्टूबर माह तक वाइल्ड सिल्क के ककून बनने लगते हैं तो आसानी से 1.5 इंच लम्बे व् 1 इंच चौड़े ककूनों को वृक्ष पर लटके हुए देखा जा सकता है तथा कभी-कभी ये ककून फल जैसे भी प्रतीत होते है। यह ककून पूरी सर्दियों में ज्यो-के-त्यों लटके रहते हैं तथा अगली गर्मी के बाद जब फिर से वर्षा होगी तब व्यस्क शलम (moth) बन कर बाहर निकल जाते हैं। ककून बन कर लटके रहना इस शलम का जीवित रहने का तरीका है जिसमे इंद्रधोक एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। साथ ही इस प्रजाति के वृक्ष गोंद बनाते है जिनका विभिन्न प्रकार की दवाइयां बनाने में इस्तेमाल होता है। इसकी लकड़ी बहुत ही मजबूत होने के कारण खेती-बाड़ी के उपकरण बनाने के लिए उपयोग में ली जाती है।

 राजस्थान में इंद्रधौक का वितरण

राजस्थान में इंद्रधौक का वितरण बहुत ही सिमित है तथा ज्ञात स्थानों को नीचे सूची में दिया गया है:

क्रमांकजिला  स्थान  संदर्भ
1उदयपुर

 

 

सज्जनगढ़ वन्यजीव अभयारण्य, फुलवारी वन्यजीव अभयारण्य

Sharma, 2007; Aftab at el. 2016
पनारवा, मामेर, नालवा, लथुनी, बांकी रिजर्व फॉरेस्ट, देवास, डोडावाली, पीपलवास, बारी, पलियाखेड़ा, ब्राह्मणों  का खैरवाड़ा, चंदवास, मालपुर, डाकन  कोटरा, वास, ओगना, सालपोर, रूपसागर (केशव नगर, उदयपुर)स्वयं देखा
2सिरोहीमाउंट अबू वन्यजीव अभयारण्यAftab at el. 2016
3अलवरअलवरShetty & Singh, 1987
4सीकरसीकरShetty & Singh, 1987
5बांसवाड़ाकागदी, भापोर नर्सरीस्वयं देखा
6राजसमंदनाथद्वारा, घोड़ाघाटीस्वयं देखा
7जालौरसुंधा माता पहाड़ी, हातिमताई बीड़स्वयं देखा

 

ऊपर दी गयी तालिका से यह स्पष्ट है कि Anogeissus sericea var. sericea अब तक केवल राजस्थान के सात जिलों में ही पायी गयी है। इसकी अधिकतम सघनता माउंट आबू और उदयपुर जिले की चार तहसीलों गोगुन्दा, कोटरा, झाड़ोल एवं गिर्वा तक सीमित है। चूंकि यह प्रजाति बहुत ही प्रतिबंधित क्षेत्र में मौजूद है और वृक्षों की संख्या भी बहुत ज्यादा नहीं है इसलिए इस प्रजाति को संरक्षित किया जाना चाहिए। वन विभाग को इस प्रजाति के पौधे पौधशालाओं में उगाने चाहिए और उन्हें वन क्षेत्रों में लगाया जाना चाहिए। ताकि राजस्थान में इस प्रजाति को संरक्षित किया जा सके।

 संदर्भ:
  1. Cover photo credit : Dr. Dharmendra Khandal
  2. Aftab, G., F. Banu and S.K. Sharma (2016): Status and distribution of various species of Genus Anogeissus in protected areas of southern Rajasthan, India. International Journal of Current Research, 8 (3): 27228-27230.
  3. Sharma, S.K. (2007): Study of Biodiversity and ethnobiology of Phulwari Wildlife Sanctuary, Udaipur (Rajasthan). Ph. D. Thesis, MLSU, Udaipur
  4. Shetty, B.V. & V. Singh (1987): Flora of Rajasthan, vol. I, BSI.

 

 

राजस्थान के दुर्लभ “नारंगी चमगादड़”

राजस्थान के दुर्लभ “नारंगी चमगादड़”

जानिये  राजस्थान के दुर्लभ नारंगी रंग के चमगादड़ों के बारे में जिन्हे चिड़िया के घोंसलों में रहना पसंद है…

राजस्थान चमगादडों की विविधता से एक धनी राज्य है। यहाँ थार रेगिस्तान से लेकर अरावली पर्वतमाला क्षेत्र एवं पूर्व दिशा में स्थित विन्ध्याचल पर्वत एवं उपजाऊ मैदान में चमगादडों की अच्छी विविधता पायी जाती है। यों तो हर चमगादड अपने में सुन्दर भी है, उपयोगी भी और विशेष भी; लेकिन पेन्टेड चमगादड़ (Painted Bat) का रंग देखने लायक होता है। ये चमगादड़ कैरीवोला वंश का होता हैं । सर्वप्रथम इस वंश की खोज वर्ष 1842 में हुई थी। भारत में इस वंश की तीन प्रजातियाँ ज्ञात हैं- Kerivoula hardwickii, Kerivoula papillosa तथा Painted Bat or Painted woody Bat, “Kerivoula picta“।  इन तीनों में से अंतिम प्रजाति केरीवोला पिक्टा (Kerivoula picta) राजस्थान में पाई जाती है जिसकी खूबसूरती वाकई लाजवाब है। मानों काले व नारंगी – लाल रंग से किसी ने बहुत ही सुन्दर पेन्टिंग बना दी हो। यह सुन्दरता डैनों पर तो देखने लायक ही होती है।

Schreber द्वारा वर्ष 1774 में बनाया गया पेंटेड चमगादड़ “Kerivoula picta” का चित्रण (Source : Die Säugthiere in Abbildungen nach der Natur, mit Beschreibungen)

राजस्थान में इस चमगादड को पहली बार जुलाई 15, 1984 को अलवर जिले की मुण्डावर तहसील में अलवर बहरोड रोड के समीप स्थित किशोरपुरा गाँव में वन विभाग के एक वृक्षारोपण क्षेत्र में देखा गया था। राजस्थान में यह इस चमगादड़ का गत 36 वर्ष में एकमात्र उपस्थिति रिकार्ड दर्ज है। किशोरपुरा में यह चमगादड़ बया पक्षी के लटकते अधूरे घोंसलों में लटकती हुई लेखक द्वारा दर्ज की गई थी। इसकी उपस्थति का यह रिकोर्ड बॉम्बे नेचुरल हिस्ट्री सोसायटी के जर्नल के वर्ष 1987 के अंक में दर्ज है। तत्कालीन सर्वे में इसे किशोरपुरा में तीन बार देखा गया जिसका विवरण निम्न हैः

क्र. सं.दिनांकबया के घौंसले की अवस्थाघोंसले किस प्रजाति के वृक्ष पर थाघोंसले में कुल किनते चमगादड पाये गये
15-7-1984अधूरा (हैल्मेट अवस्था)खेजडी1
21-8-1984अधूरा (हैल्मेट अवस्था)खेजडी4
34-8-1984अधूरा (हैल्मेट अवस्था)खेजडी1

पेन्टेड चमगादड प्राणी कुल वैस्परटिलिनोइडीज (Vespertilionidae) की सदस्य है। इसके शरीर की लम्बाई 3.1 से 5.7 सेमी., पूँछ की लम्बाई 3.2 से 5.5 सेमी., फैले हुये पंखों की चौडाई 18-30 सेमी., अगली भुजा की लम्बाई 2.7 से 4.5 सेमी. तथा  वजन 5.0 ग्राम होता है। इसके मुँह में विभिन्न तरह के 38 दांत होते हैं। जाँघों व पूँछ को जोडती हुई पतली चमडी की बनी जिल्ली होती है जो एक टोकरीनुमा जाल सा बनाती है जिसकी मदद से यह चमगादड कीटों को पकडने का कार्य करती है। इस चमगादड के शरीर पर लम्बे, नर्म,  सघन व घुँघराले बालों की उपस्थिति होती है। इसकी थूथन के आस- पास के बाल अपेक्षाकृत अधिक लम्बे होते हैं। इसके कान कीपाकार व बाल रहित होते हैं। कानों में उपस्थित विशेष रचना ’’ट्रगस (Tragus)” लम्बा, होता है। मादा एक बार में एक शिशु को जन्म देती है।  इस चमगादड के रंग बेहद भड़कीले होते हैं। पंखों, पूँछ, पेट, पिछली व अगली भुजाओं, सिर तथा अंगुलियों के सहारे – सहारे गहरा नारंगी या लाल रंग विद्यमान होता है तथा अंगुलियों की हड्डियों पर बनी नारंगी-लाल पट्टी से हट कर तीसरी व चौथी, चौथी व पाँचवी अंगुली व भुजा के बीच गहरे काले रंग के बडे- बडे तिकौनाकार से धब्बे विद्यमान होते हैं। इस तरह एक पंख पर तीन बडे धब्बे बने होते हैं। कई बार कुछ अतिरिक्त छोटे धब्बे भी मिल सकते हैं। नारंगी – लाल व काले रंग का यह संयोजन लेकर जब यह चमगादड सूखे पत्तों में छुपकर, दिन में उल्टी लटक कर विश्राम करती व सोती है तो यह अदृश्य सी स्थिति में बनी रहती है तथा यह पहचाने जाने से भी बची रहती है। इस तरह इस “कैमोफ्लेज” रंग के विन्यास से यह छोटा स्तनधारी प्राणी सुरक्षा प्राप्त करता है। अधिक आयु के नरों में रंग अधिक प्रखर होते हैं।

बया पक्षी के आधे बने हुए घोंसलों की कालोनी जिन्हे अक्सर पेन्टेड चमगादड द्वारा इस्तेमाल किया जाता है (फोटो: मीनू धाकड़)

नारंगी चमगादड़ एक रात्रिचर प्राणी है जो उडते कीटों को पकड कर उनका सफाया करता है। अन्य कीटाहारी चमगादडों की तरह रात्रि में यह अपने “जैविक राडार तन्त्र” का उपयोग कर उडते कीटों की दिशा व दूरी का पता लगा कर अन्धेरे में ही उन्हें पकड लेती है। रात्रि में यह कुछ विलम्ब से शिकार पर निकलने वाला जीव है। यह चमगादड भूमि के अधिक पास रहते हुये गोल- गोल उडान भरते हुये अपना शिकार पकडती है। यह प्रायः 1-2 घन्टे ही शिकार अभियान पर रहती है फिर विश्राम स्थल (Roost) पर लौट आती है तथा शेष रात्रि व अगला पूरा दिन वहीं रहती है।

दो आधा निर्मित घोंसलों (हेलमेट चरण) का क्लोजअप। हेलमेट की छत का निचली सतह (ceiling) का उपयोग चमगादड़ द्वारा लटकने के लिए किया जाता है (फोटो: मीनू धाकड़)

दिन में यह चमगादड बया पक्षी (Baya Weaver bird) व शक्कर खोरा (Sunbird) जैसे पक्षियों के लटकते घौंसलों में छुपी सोयी रहती है। केले के सूखे पत्तों, वृक्षों के खोखलों व छतों की दरारों व छेदों में भी ये दिन मे विश्राम कर लेती है। यह चमगादड़ दिन के विश्राम स्थल में अकेले या परिवार (नर, मादा व बच्चे) के साथ छुप कर सोती रहती है। इनके छुपाव स्थल पर छेडने पर भी ये सुस्ती दिखाते हुये प्रायः वहीं बने रहते हैं। हाँ, कई दिन एक जगह नहीं रहते। थोडे- थोडे दिनों के अन्तराल पर ये अपनी सोने की जगह में परिवर्तन करते रहते हैं।

आई. यू. सी. एन. द्वारा इसे कम खतरे की श्रेणी (LC)  में शामिल किया गया है। यह एक अपेक्षाकृत कम मिलने वाली चमगादड है जो दक्षिण- पूर्व एशिया में वितरित है। यह चमगादड भारत, चीन, बांग्लादेश, इंडोनेशिया, सुमात्रा, जावा, बाली, मौलूक्का द्वीप, ब्रुनेई, कंबोडिया, मलेशिया, नेपाल, श्रीलंका, थाइलैण्ड एक वियतनाम में वितरित है। भारत में यह राजस्थान, केरल, आंध्रप्रदेश, कर्नाटक, तमिलनाडु, महाराष्ट्र, गोवा, बंगाल, सिक्किम, असम व उडिसा से ज्ञात है।

सन्दर्भः
  1. Cover Image: Prater, S.H. 1971. The Book of Indian Animals. BNHS.
  2. Menon, V. (2014): Indian mammals – A field guide.
  3. Prater, S.H. (1980): The Book of Indian Animals. Bombay Natural History Society.
  4. Sharma, S.K. (1987): Painted bats and nests of Baya Weaver Bird. JBNHS 83:196.
  5. Sharma, S.K. (1991): Plant life and weaver birds. Ph.D. Thesis. University of Rajasthan Jaipur
  6. Sharma, S.K. (1995): Ornithobotany of Indian weaver birds. Himanshu Publications, Udaipur and Delhi.