जानिये कैसे गूगल से पौधों की सरल पहचान बने खतरा ए जान?
क्या आपने कभी सोचा है कि हमारे चारों ओर कितने प्रकार के पेड़-पौधे और जीव-जंतु पाए जाते हैं? सोचिये अगर इन सभी के भिन्न-भिन्न नाम ही न होते तो? इन्हें अलग-अलग समूहों में बांटा ही न गया होता तो?… यह स्थिति सोच कर ही कितनी कठिनाई महसूस होती है? इस कठिनाई को हल करने के लिए ही विभिन्न वैज्ञानिकों ने इस पृथ्वी पर पाए जाने वाले सभी पौधों व् प्राणियों को विभिन्न समूहों में बांटा व उनका नामकरण किया है। जैविक जगत में अज्ञात जीवों को समझने, पहचानने तथा उनको समानता व असमानता के आधार पर विभिन्न समूहों में बांटने को “वर्गिकी (Taxonomy) या वर्गीकरण विज्ञान” कहते हैं। वर्गिकी, जीव जगत की एक ऐसी महत्वपूर्ण शाखा हैं जिसमें यदि कोई वैज्ञानिक किसी विशेष प्रजाति पर शोध के दौरान यदि उसकी पहचान ही गलत कर दे, तो उसका पूरा शोध कार्य गलत व व्यर्थ हो सकता है। यदि इस प्रकार की गलती दवा विज्ञान में हो जाए तो पूरे समाज और विज्ञान के लिए घातक साबित हो सकती है।
हाल ही में हमें “The End of Botany” नामक एक आलेख पढ़ने का मौका मिला, जिसे क्रिसी एवं साथियों (2020) ने लिखा है। इस आलेख के लेखकों का कहना है की “आजकल वैज्ञानिक आम पौधों को पहचानने में असमर्थ होते जा रहे हैं और लगातार वनस्पति विज्ञान के छात्रों, शिक्षकों, पाठ्यक्रमों, विश्वविद्यालयों में प्रकृति विज्ञान के विभागों की और हर्बेरियमों की पौधे पहचान क्षमता में गिरावट आ रही है। ये गिरावट सिर्फ और सिर्फ वनस्पति विज्ञान की क्षमताओं की गिरावट को उजागर करती हैं। हम अच्छी तरह से जानते हैं की पौधे हमारे जीवन का आधार हैं, एवं उनकी सही पहचान बहुत जरूरी है फिर भी हम इस संकट तक कैसे पहुंचे? इसके क्या कारण हैं? हम इस हालात को कैसे सुधार सकते हैं?” Crisci et al. (2020) ने जो भी लिखा वो बिलकुल सही और चिंताजनक है। दिन प्रतिदिन वनस्पतियों की सही पहचान करना एक कठिन कार्य बनता जा रहा है और राजस्थान भी इस स्थिति से अछूता नहीं है।
भारत की आज़ादी से पहले (वर्ष 1947 से पहले) और 1970 तक पौधों को पहचानने के लिए हम केवल Hooker et al. (1872-1897) एवं Brandis (1874) द्वारा लिखित पुस्तकों का ही इस्तेमाल करते थे क्योंकि उस समय राजस्थान की वनस्पतियों के लिए कोई एक विशेष “सटीक फ़्लोरा” उपलब्ध नहीं था। यदि कोई जानकारी उपलब्ध भी थी तो विभिन्न शोधपत्रों के रूप बिखरी हुई थी। परन्तु आज़ादी के बाद रामदेव (1969), भंडारी (1978) और शर्मा व त्यागी (1979) राजस्थान के अग्रणी वर्गीकरण वैज्ञानिक (Taxonomist) के रूप में उभरे तथा उन्होंने राज्य के क्षेत्रीय “फ़्लोरा” बनाने की पहल की। उन्होंने राजस्थान राज्य की वनस्पति सम्पदा जानने हेतु हर्बेरियम भी विकसित किये। इन शुरूआती प्रयासों के बाद कई फ़्लोरा अस्तित्व में आये जिनमें से कुछ महत्वपूर्ण फ़्लोरा निम्नलिखित हैं:
Sr. no.
Period
Name of flora published (year of publication )
Author(s)
Coverage
1
1947-1980
Contribution to the flora of Udaipur (1969)
K.D. Ramdev
South- East Rajasthan
Flora of the Indian Desert (1978)
M.M. Bhandari
Jaisalmer, Jodhpur and Bikaner districts
Flora of North- East Rajasthan (1979)
S. Sharma &B. Tiagi
North – East Rajasthan
2
1981-2000
Flora of Banswara (1983)
V. Singh
Banswara district
Flora of Tonk (1983)
B.V. Shetty & R. P. Pandey
Tonk district
Flora of Rajasthan, Vol. I,II,III (1987,1991,1993)
B.V. Shetty & V. Singh
Whole Rajasthan
Flora of Rajasthan(Series – Inferae ) (1989)
K.K. Sharma & S. Sharma
Whole Rajasthan
Illustrated flora of Keoladeo National Park , Bharatpur , Rajasthan (1996)
Prasad et al.
KNP Bharatpur
3
2001-2020
The flora of Rajasthan (2002)
N. Sharma
Hadoti zone
Flora of Rajasthan (South and South- East Rajasthan ) (2007)
Y. D. Tiagi & N.C. Arey
South and South- East Rajasthan
Orchids of Desert and Semi – arid Biogeographic zones of India (2011)
S.K. Sharma
Orchids of whole Rajasthan (including parts of adjacent states )
Flora of South – Central Rajasthan (2011)
B. L. Yadav & K.L. Meena
South- Central Rajasthan
ऊपर दी गयी सारणी यह दर्शाती है कि 21वी शताब्दी में हमने राजस्थान से संबंधित एन्जियोस्पर्मिक फ्लोरा की बहुत कम पुस्तकें प्रकाशित की हैं। हमारे वरिष्ठ वनस्पति वर्गीकरण वैज्ञानिक जो विभिन्न विश्वविद्यालयों के वनस्पति विज्ञान विभागों से सम्बंधित थे जैसे श्री के. डी. रामदेव, डॉ. शिवा शर्मा, प्रोफेसर बी. त्यागी, प्रोफेसर एम. एम. भंडारी और प्रोफेसर वाई. डी. त्यागी जो हमारे बीच नहीं रहे। इन विद्वानों के समय में, फील्ड स्टडीज के लिए नियमित बाहर जाना, हर्बेरियम बनाना, अन्य राज्यों के दौरे करना, सूक्ष्मदर्शी निरिक्षण आदि अध्यन्न गतिविधियों का नियमित हिस्सा थे। उस समय पौधों की पहचान करने के लिए पुस्तकालय या बाजार में शायद ही कोई रंगीन चित्रों वाली फील्ड गाइड उपलब्ध थी, और तो और इंटरनेट व् गूगल जैसी सुविधाएं भी उपलब्ध नहीं थीं। पौधों की पहचान करने का एकमात्र तरीका था बिना चित्रों वाले फ़्लोरा। ऐसे में यदि किसी छात्र को कोई नया पौधा मिलता था तो शिक्षकों द्वारा उसे निर्देशित किया जाता था, कि वह स्वयं फ़्लोरा का निरिक्षण कर, पौधे को पहचानने कि कोशिश करे। क्योंकि विकल्प कम थे अतः छात्र अलग-अलग फ़्लोरा का प्रयोग कर पौधे को पहचानने की कोशिश करते थे। इस प्रकार का वातावरण एक छात्र को “एक्टिव टैक्सोनोमिस्ट” बनाने के लिए बहुत ही सहायक हुआ करता था। जब छात्र फ़्लोरा कि मदद से किसी पौधे की स्वयं पहचान करते थे, तो उनमें पौधों के वर्गीकरण के लिए एक विशेष रूचि विकसित होती थी।
इस सभी के प्रभाव का नतीजा जानने हेतु यहाँ एक उदाहरण देना उचित होगा और इस उदहारण के रूप में श्री रूप सिंह को याद करना उचित होगा। “श्री रूप सिंह”, राजस्थान विश्वविद्यालय के वनस्पति विज्ञान विभाग (Botany Department) में हर्बेरियम को सँभालते थे। श्री रूप सिंह एक प्रशिक्षित वर्गीकरण वैज्ञानिक नहीं थे परन्तु फिर भी उन्होंने डॉ. शिव शर्मा को एक हर्बेरियम बनाने में अदभुत योगदान दिया था। डॉ. शिव शर्मा द्वारा लाये गए सभी पौधों का हर्बेरियम बनाने कि पूरी प्रक्रिया जैसे; नमूनों को सुखाना, हर्बेरियम शीट पर चिपकाना, लेबलिंग, वर्ग और प्रजाति फ़ोल्डर में रखना, तथा उनको अलमारी में क्रमानुसार रखने का कार्य श्री रूप सिंह किया करते थे। वे बहुत बारीकी से पौधों का अवलोकन कर उनकी पहचान करते थे, तथा उन्होंने डॉ शिव शर्मा से एन्जियोस्पर्मिक वर्गीकरण विज्ञान (Angiospermic Taxonomy) के विभिन्न पहलुओं को बड़े मनोयोग से सीखा। जल्द ही उन्होंने वनस्पति वर्गीकरण कि एक अद्भुत समझ विकसित कर ली तथा उनकी पहचान करने की क्षमता बहुत विश्वसनीय और सटीक थी। श्री रूप सिंह के उदहारण को देखकर, एक सवाल उठ सकता है कि आखिर वह पौधों की पहचान में इतने अच्छे कैसे थे? इसका उत्तर यह है कि वह पौधों का स्वयं निरीक्षण करते थे और उन्होंने कभी भी “बनी बनाई पहचान प्रक्रिया” पर विश्वास नहीं किया। यदि एक फ़्लोरा उनको संतोषजनक परिणाम नहीं देता था, तो वह अन्य फ़्लोरा का उपयोग शुरू कर देते थे, और तब तक वे ऐसा करते जब तक कि उनको एक सही पहचान नहीं मिल जाती थी। हम इस आदत को “सक्रिय पहचान प्रक्रिया” कह सकते हैं। इस प्रकार, एक सक्रिय वनस्पति वर्गीकरण वैज्ञानिक बनने के लिए, छात्रों को पौधों कि सक्रिय पहचान की आदत विकसित करनी चाहिए।
परन्तु आजकल स्थिति बिलकुल विपरीत है। लोगों के पास बाहर जाने का समय नहीं होता है और यदि कोई चले भी जाए तो हमेशा जल्दी में ही रहते हैं। यहां तक कि कई तो स्वयं एक अज्ञात पौधे की पहचान करने के लिए चंद मिनट भी खर्च नहीं करना चाहते हैं। उन्हें पहचान के लिए एक सीधी, सरल बानी बनाई सुविधा चाहिए। इंटरनेट, गूगल, मोबाइल में विभिन्न व्हाट्सऐप ग्रुप्स आदि ऐसे तरीके हैं जिसमें लोग अपने अज्ञात पौधों की तस्वीरें भेजते हैं और कुछ सेकंड के भीतर पहचान उनके हाथों में आ जाती है। हालांकि, इस तरह के तरीकों का उपयोग करके, पहचान जल्दी संभव है लेकिन ऐसे लोग कभी भी “श्री रूप सिंह” नहीं बन सकते हैं। दिन प्रतिदिन लोग पौधों की सुविधाजनक पहचान के आदी होते जा रहे हैं। आज “passive identification” और “passive taxonomy” का यह चलन हर जगह वर्गीकरण विज्ञान के पुराने तरीकों की जगह ले रहा है। अब पौधे की पहचान आसान हो रही है, लेकिन राज्य के विभिन्न विश्वविद्यालयों के वनस्पति विज्ञान विभागों में नए वनस्पति वर्गीकरण वैज्ञानिक विकसित नहीं हो रहे हैं। वन विभागों और आयुर्वेद विभागों में भी यही स्थिति है। एक समय था जब डॉ. सी. एम. माथुर और श्री. वी. एस. सक्सेना जैसे वन अधिकारी राजस्थान के वन विभाग में थे, जो वन वनस्पति वर्गीकरण विज्ञान के विद्वान थे। इसी प्रकार से, डॉ. महेश शर्मा, डॉ. आर. सी. भूतिया और कुछ अन्य लोग आयुर्वेद विभाग में पौधों की पहचान के मशाल वाहक थे, लेकिन उनकी सेवानिवृत्ति के बाद, अब बस एक खालीपन है।
हमें अब देर हो रही है। हमारे राज्य में नई पीढ़ी का शायद ही कोई विश्वसनीय और प्रमुख एन्जियोस्पर्मिक टैक्सोनोमिस्ट उपलब्ध है। समान स्थिति प्राणी वर्गीकरण विज्ञान के क्षेत्र में भी है। राजस्थान में कई विश्वविद्यालय और कॉलेज हैं, लेकिन पारंपरिक प्लांट टैक्सोनॉमी वहां ज्यादा पसंद नहीं कि जाती है। “सक्रिय वर्गीकरण विज्ञान” को पुनर्जीवित करने का अभी भी समय है नहीं तो बाद में बहुत देर हो जाएगी। यह हर विश्वविद्यालय के वनस्पति विज्ञान विभागों एवं वन और आयुर्वेद विभागों का एक नैतिक कर्तव्य है।
सन्दर्भ:
Cover Photo- PC: Dr. Dharmendra Khandal
Bhandari , M.M. (1978) : Flora of the Indian desert. (Revised 1990)
Brandis , D. (1874) : The forest flora of the North – West and Central India. London.
Crisci , J.V. , L. Katinas , M.J. Apodaca & P.C. Hode (2020): The end of Botany. Trends in plants science. XX (XX) : 1-4.
Hooker, J.D. et al. (1872-1897) : The flora of British India. Vol. 1-7. London (Repr. Ed. 1954-1956, Kent).
Prasad V. P., D. Mason , J.P. Marburger & C.R. Ajitkumar (1996) : Illustrated flora of Keoladeo Nation Park , Bharatpur.
Ramdev , K. D. (1969) : Contribution to the flora of Udaipur .
Sharma K.K. & S. Sharma (1989) : Flora of Rajasthan (Series- Inferae) .
Sharma N. (2002) : The flora of Rajasthan
Sharma , S. K. (2011) : Orchids of Desert and Semi- arid Biogeographic Zones of India.
Sharma ,S. &B. Tiagi (1979) : Flora of North – East Rajasthan.
Shetty , B. V. & R.P. Pandey (1983) : Flora of Tonk.
Shetty B.V. & V. Singh (1987,1991,1993) : Flora of Rajasthan , Vol. I , II & III .
Singh , V. (1983) : Flora of Banswara .
Tiagi , Y.D. & N.C. Arey (2007) Flora of Rajasthan (South & South- East Rajasthan )
Yadav , B.L. & K.L. Meena (2011) : Flora of South – Central Rajasthan. Scientific Publishers , Jodhpur .
राजस्थान के शुष्क वातावरण में पाए जाने वाला वृक्ष “इंद्रधौक” जो राज्य के बहुत ही सिमित वन क्षेत्रों में पाया जाता है, जंगली सिल्क के कीट के जीवन चक्र में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है…
राजस्थान जैसे शुष्क राज्य के वनस्पतिक संसार में वंश एनोगिसस (Genus Anogeissus) का एक बहुत बड़ा महत्व है, क्योंकि इसकी सभी प्रजातियां शुष्क और अर्ध-शुष्क क्षेत्रों में मजबूत लकड़ी, ईंधन, पशुओं के लिए चारा तथा विभिन्न प्रकार के औषधीय पदार्थ उपलब्ध करवाती हैं। जीनस एनोगिसस, वनस्पतिक जगत के कॉम्ब्रीटेसी कुल (Family Combretaceae) का सदस्य है, तथा भारत में यह मुख्य रूप से समूह 5- उष्णकटिबंधीय शुष्क पर्णपाती वन का एक घटक है। यह वंश पांच महत्वपूर्ण बहुउद्देशीय प्रजातियों का एक समूह है, जिनके नाम हैं Anogeissus acuminata, Anogeissus pendula, Anogeissus latifolia, Anogeissus sericea var. sericea and Anogeissus sericea var. nummularia। दक्षिणी राजस्थान में उदयपुर शहर राज्य का एकमात्र ऐसा स्थान है जहाँ सभी पाँच प्रजातियों व् उप प्रजातियों को एक साथ देखा जा सकता है। सज्जनगढ़ अभयारण्य राज्य का एकमात्र अभयारण्य है जहाँ Anogeissus sericea var. nummularia को छोड़कर शेष चार प्रजातियों व् उप-प्रजातियों को एक साथ देखा जा सकता है।
Anogeissus sericea var. sericea, इस जीनस की एक महत्वपूर्ण प्रजाति है जिसे सामान्य भाषा में “इंद्रधौक” भी कहा जाता है। इसे Anogeissus rotundifolia के नाम से अलग स्पीशीज का दर्जा भी दिया गया है, यदपि सभी वनस्पति विशेषज्ञ अभी तक पूर्णतया सहमत नहीं है। इस प्रजाति के वृक्ष 15 मीटर से अधिक लम्बे होने के कारण यह राज्य में पायी जाने वाली धौक की सभी प्रजातियों से लम्बी बढ़ने वाली प्रजाति है। यह एक सदाबहार प्रजाति है जिसके कारण यह उच्च वर्षमान व् मिट्टी की मोटी सतह वाले क्षेत्रों में ही पायी जाती है। परन्तु राज्य में इसका बहुत ही सिमित वितरण है तथा सर्वश्रेष्ठ नमूने फुलवारी वन्यजीव अभयारण्य और उसके आसपास देखे जा सकते हैं। राजस्थान जैसे शुष्क राज्य के लिए यह बहुत ही विशेष वृक्ष है। गर्मियों के मौसम में मवेशियों में लिए चारे की कमी होने के कारण लोग इसकी टहनियों को काट कर चारा प्राप्त करते हैं, तथा इसकी पत्तियां मवेशियों के लिए एक बहुत ही पोषक चारा होती हैं। काटे जाने के बाद इसकी टहनियाँ और अच्छे से फूट कर पहले से भी घनी हो जाती हैं तथा पूरा वृक्ष बहुत ही घाना हो जाता है। इसकी पत्तियों पर छोटे-छोटे रोए होते है जो पानी की कमी के मौसम में पानी के खर्च को बचाते हैं।
Anogeissus sericea var. sericea (Photo: Dr. Dharmendra Khandal)
वर्षा ऋतू में कभी-कभी इसकी पत्तियाँ आधी खायी हुयी सी दिखती हैं क्योंकि जंगली सिल्क का कीट इसपर अपने अंडे देते हैं तथा उसके कैटेरपिल्लर इसकी पत्तियों को खाते हैं। जीवन चक्र के अगले चरण में अक्टूबर माह तक वाइल्ड सिल्क के ककून बनने लगते हैं तो आसानी से 1.5 इंच लम्बे व् 1 इंच चौड़े ककूनों को वृक्ष पर लटके हुए देखा जा सकता है तथा कभी-कभी ये ककून फल जैसे भी प्रतीत होते है। यह ककून पूरी सर्दियों में ज्यो-के-त्यों लटके रहते हैं तथा अगली गर्मी के बाद जब फिर से वर्षा होगी तब व्यस्क शलम (moth) बन कर बाहर निकल जाते हैं। ककून बन कर लटके रहना इस शलम का जीवित रहने का तरीका है जिसमे इंद्रधोक एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। साथ ही इस प्रजाति के वृक्ष गोंद बनाते है जिनका विभिन्न प्रकार की दवाइयां बनाने में इस्तेमाल होता है। इसकी लकड़ी बहुत ही मजबूत होने के कारण खेती-बाड़ी के उपकरण बनाने के लिए उपयोग में ली जाती है।
राजस्थान में इंद्रधौक का वितरण
राजस्थान में इंद्रधौक का वितरण बहुत ही सिमित है तथा ज्ञात स्थानों को नीचे सूची में दिया गया है:
क्रमांक
जिला
स्थान
संदर्भ
1
उदयपुर
सज्जनगढ़ वन्यजीव अभयारण्य, फुलवारी वन्यजीव अभयारण्य
ऊपर दी गयी तालिका से यह स्पष्ट है कि Anogeissus sericea var. sericea अब तक केवल राजस्थान के सात जिलों में ही पायी गयी है। इसकी अधिकतम सघनता माउंट आबू और उदयपुर जिले की चार तहसीलों गोगुन्दा, कोटरा, झाड़ोल एवं गिर्वा तक सीमित है। चूंकि यह प्रजाति बहुत ही प्रतिबंधित क्षेत्र में मौजूद है और वृक्षों की संख्या भी बहुत ज्यादा नहीं है इसलिए इस प्रजाति को संरक्षित किया जाना चाहिए। वन विभाग को इस प्रजाति के पौधे पौधशालाओं में उगाने चाहिए और उन्हें वन क्षेत्रों में लगाया जाना चाहिए। ताकि राजस्थान में इस प्रजाति को संरक्षित किया जा सके।
संदर्भ:
Cover photo credit : Dr. Dharmendra Khandal
Aftab, G., F. Banu and S.K. Sharma (2016): Status and distribution of various species of Genus Anogeissus in protected areas of southern Rajasthan, India. International Journal of Current Research, 8 (3): 27228-27230.
Sharma, S.K. (2007): Study of Biodiversity and ethnobiology of Phulwari Wildlife Sanctuary, Udaipur (Rajasthan). Ph. D. Thesis, MLSU, Udaipur
Shetty, B.V. & V. Singh (1987): Flora of Rajasthan, vol. I, BSI.
जानिये राजस्थान के दुर्लभ नारंगी रंग के चमगादड़ों के बारे में जिन्हे चिड़िया के घोंसलों में रहना पसंद है…
राजस्थान चमगादडों की विविधता से एक धनी राज्य है। यहाँ थार रेगिस्तान से लेकर अरावली पर्वतमाला क्षेत्र एवं पूर्व दिशा में स्थित विन्ध्याचल पर्वत एवं उपजाऊ मैदान में चमगादडों की अच्छी विविधता पायी जाती है। यों तो हर चमगादड अपने में सुन्दर भी है, उपयोगी भी और विशेष भी; लेकिन पेन्टेड चमगादड़ (Painted Bat) का रंग देखने लायक होता है। ये चमगादड़ कैरीवोला वंश का होता हैं । सर्वप्रथम इस वंश की खोज वर्ष 1842 में हुई थी। भारत में इस वंश की तीन प्रजातियाँ ज्ञात हैं- Kerivoula hardwickii,Kerivoula papillosa तथा Painted Bat or Painted woody Bat, “Kerivoula picta“। इन तीनों में से अंतिम प्रजाति केरीवोला पिक्टा (Kerivoula picta) राजस्थान में पाई जाती है जिसकी खूबसूरती वाकई लाजवाब है। मानों काले व नारंगी – लाल रंग से किसी ने बहुत ही सुन्दर पेन्टिंग बना दी हो। यह सुन्दरता डैनों पर तो देखने लायक ही होती है।
Schreber द्वारा वर्ष 1774 में बनाया गया पेंटेड चमगादड़ “Kerivoula picta” का चित्रण (Source : Die Säugthiere in Abbildungen nach der Natur, mit Beschreibungen)
राजस्थान में इस चमगादड को पहली बार जुलाई 15, 1984 को अलवर जिले की मुण्डावर तहसील में अलवर बहरोड रोड के समीप स्थित किशोरपुरा गाँव में वन विभाग के एक वृक्षारोपण क्षेत्र में देखा गया था। राजस्थान में यह इस चमगादड़ का गत 36 वर्ष में एकमात्र उपस्थिति रिकार्ड दर्ज है। किशोरपुरा में यह चमगादड़ बया पक्षी के लटकते अधूरे घोंसलों में लटकती हुई लेखक द्वारा दर्ज की गई थी। इसकी उपस्थति का यह रिकोर्ड बॉम्बे नेचुरल हिस्ट्री सोसायटी के जर्नल के वर्ष 1987 के अंक में दर्ज है। तत्कालीन सर्वे में इसे किशोरपुरा में तीन बार देखा गया जिसका विवरण निम्न हैः
क्र. सं.
दिनांक
बया के घौंसले की अवस्था
घोंसले किस प्रजाति के वृक्ष पर था
घोंसले में कुल किनते चमगादड पाये गये
1
5-7-1984
अधूरा (हैल्मेट अवस्था)
खेजडी
1
2
1-8-1984
अधूरा (हैल्मेट अवस्था)
खेजडी
4
3
4-8-1984
अधूरा (हैल्मेट अवस्था)
खेजडी
1
पेन्टेड चमगादड प्राणी कुल वैस्परटिलिनोइडीज (Vespertilionidae) की सदस्य है। इसके शरीर की लम्बाई 3.1 से 5.7 सेमी., पूँछ की लम्बाई 3.2 से 5.5 सेमी., फैले हुये पंखों की चौडाई 18-30 सेमी., अगली भुजा की लम्बाई 2.7 से 4.5 सेमी. तथा वजन 5.0 ग्राम होता है। इसके मुँह में विभिन्न तरह के 38 दांत होते हैं। जाँघों व पूँछ को जोडती हुई पतली चमडी की बनी जिल्ली होती है जो एक टोकरीनुमा जाल सा बनाती है जिसकी मदद से यह चमगादड कीटों को पकडने का कार्य करती है। इस चमगादड के शरीर पर लम्बे, नर्म, सघन व घुँघराले बालों की उपस्थिति होती है। इसकी थूथन के आस- पास के बाल अपेक्षाकृत अधिक लम्बे होते हैं। इसके कान कीपाकार व बाल रहित होते हैं। कानों में उपस्थित विशेष रचना ’’ट्रगस (Tragus)” लम्बा, होता है। मादा एक बार में एक शिशु को जन्म देती है। इस चमगादड के रंग बेहद भड़कीले होते हैं। पंखों, पूँछ, पेट, पिछली व अगली भुजाओं, सिर तथा अंगुलियों के सहारे – सहारे गहरा नारंगी या लाल रंग विद्यमान होता है तथा अंगुलियों की हड्डियों पर बनी नारंगी-लाल पट्टी से हट कर तीसरी व चौथी, चौथी व पाँचवी अंगुली व भुजा के बीच गहरे काले रंग के बडे- बडे तिकौनाकार से धब्बे विद्यमान होते हैं। इस तरह एक पंख पर तीन बडे धब्बे बने होते हैं। कई बार कुछ अतिरिक्त छोटे धब्बे भी मिल सकते हैं। नारंगी – लाल व काले रंग का यह संयोजन लेकर जब यह चमगादड सूखे पत्तों में छुपकर, दिन में उल्टी लटक कर विश्राम करती व सोती है तो यह अदृश्य सी स्थिति में बनी रहती है तथा यह पहचाने जाने से भी बची रहती है। इस तरह इस “कैमोफ्लेज” रंग के विन्यास से यह छोटा स्तनधारी प्राणी सुरक्षा प्राप्त करता है। अधिक आयु के नरों में रंग अधिक प्रखर होते हैं।
बया पक्षी के आधे बने हुए घोंसलों की कालोनी जिन्हे अक्सर पेन्टेड चमगादड द्वारा इस्तेमाल किया जाता है (फोटो: मीनू धाकड़)
नारंगी चमगादड़ एक रात्रिचर प्राणी है जो उडते कीटों को पकड कर उनका सफाया करता है। अन्य कीटाहारी चमगादडों की तरह रात्रि में यह अपने “जैविक राडार तन्त्र” का उपयोग कर उडते कीटों की दिशा व दूरी का पता लगा कर अन्धेरे में ही उन्हें पकड लेती है। रात्रि में यह कुछ विलम्ब से शिकार पर निकलने वाला जीव है। यह चमगादड भूमि के अधिक पास रहते हुये गोल- गोल उडान भरते हुये अपना शिकार पकडती है। यह प्रायः 1-2 घन्टे ही शिकार अभियान पर रहती है फिर विश्राम स्थल (Roost) पर लौट आती है तथा शेष रात्रि व अगला पूरा दिन वहीं रहती है।
दो आधा निर्मित घोंसलों (हेलमेट चरण) का क्लोजअप। हेलमेट की छत का निचली सतह (ceiling) का उपयोग चमगादड़ द्वारा लटकने के लिए किया जाता है (फोटो: मीनू धाकड़)
दिन में यह चमगादड बया पक्षी (Baya Weaver bird) व शक्कर खोरा (Sunbird) जैसे पक्षियों के लटकते घौंसलों में छुपी सोयी रहती है। केले के सूखे पत्तों, वृक्षों के खोखलों व छतों की दरारों व छेदों में भी ये दिन मे विश्राम कर लेती है। यह चमगादड़ दिन के विश्राम स्थल में अकेले या परिवार (नर, मादा व बच्चे) के साथ छुप कर सोती रहती है। इनके छुपाव स्थल पर छेडने पर भी ये सुस्ती दिखाते हुये प्रायः वहीं बने रहते हैं। हाँ, कई दिन एक जगह नहीं रहते। थोडे- थोडे दिनों के अन्तराल पर ये अपनी सोने की जगह में परिवर्तन करते रहते हैं।
आई. यू. सी. एन. द्वारा इसे कम खतरे की श्रेणी (LC) में शामिल किया गया है। यह एक अपेक्षाकृत कम मिलने वाली चमगादड है जो दक्षिण- पूर्व एशिया में वितरित है। यह चमगादड भारत, चीन, बांग्लादेश, इंडोनेशिया, सुमात्रा, जावा, बाली, मौलूक्का द्वीप, ब्रुनेई, कंबोडिया, मलेशिया, नेपाल, श्रीलंका, थाइलैण्ड एक वियतनाम में वितरित है। भारत में यह राजस्थान, केरल, आंध्रप्रदेश, कर्नाटक, तमिलनाडु, महाराष्ट्र, गोवा, बंगाल, सिक्किम, असम व उडिसा से ज्ञात है।
सन्दर्भः
Cover Image: Prater, S.H. 1971. The Book of Indian Animals. BNHS.
Menon, V. (2014): Indian mammals – A field guide.
Prater, S.H. (1980): The Book of Indian Animals. Bombay Natural History Society.
Sharma, S.K. (1987): Painted bats and nests of Baya Weaver Bird. JBNHS 83:196.
Sharma, S.K. (1991): Plant life and weaver birds. Ph.D. Thesis. University of Rajasthan Jaipur
Sharma, S.K. (1995): Ornithobotany of Indian weaver birds. Himanshu Publications, Udaipur and Delhi.
अरावली, थार रेगिस्तान को उत्तरी राजस्थान तक सीमित रखे और विशाल जैव-विविधता को सँजोती पर्वत श्रृंखला हिमालय से भी पुरानी मानी जाती है। इसके 800 किलोमीटर के विस्तार क्षेत्र में 20 वन्यजीव अभयारण्य समाये हुए हैं, आइए इसकी विविधता कि एक छोटी यात्रा पर चलते है…
संसार की सबसे प्राचीनतम पर्वत श्रखलाओ में से एक अरावली, भारत के चार राज्यों गुजरात, राजस्थान, हरियाणा एवं दिल्ली तक प्रसारित है। अरावली का अधिकतम विस्तार राजस्थान में ही है। तो इसके प्राकृतिक वैभव को जानने के लिए, आइये चलते है दक्षिणी राजस्थान के मामेर से उत्तर दिशा के आमेर तक।
मामेर, गुजरात राज्य की उत्तरी सीमा के पास बसे धार्मिक नगरों खेड़ब्रम्हा एवं अम्बाजी के पास स्थित है। यहाँ अरावली की वन सम्पदा देखते ही बनती है। प्रसिद्ध फुलवारी वन्यजीव अभयारण्य यहाँ से शुरू होकर उत्तर दिशा तक विस्तारित है। तो वहीँ मामेर की पश्चिमी दिशा की ओर से माउन्ट आबू अभयारण्य पहुंचा जा सकता है, जो राजस्थान का एकमात्र “हिल स्टेशन” है। फुलवारी, अरावली का एक मात्र ऐसा अभयारण्य है जहाँ धोकडा यानि एनोजीसस पेंडुला (Anogeissus pendula) प्राकृतिक रूप से नहीं पाया जाता। अभयारण्यों में यही अकेला ऐसा अभयारण्य है जहाँ राजस्थान के सुन्दर बांस वन पाए जाते हैं।
अरावली पर्वत श्रृंखला के ऊँचे पहाड़ (फोटो: डॉ धर्मेंद्र खांडल)
इस क्षेत्र में आगे चलते है तो रास्ते में वाकल नदी आती है, यह नदी कोटड़ा के बाद गुजरात में प्रवेश कर साबरमती से मिल जाती है। वाकल नदी को पार कर डेढ़मारिया व लादन वनखंडो के सघन वनों को देखते हुए रामकुंडा पंहुचा जा सकता है। यहाँ एक सूंदर मंदिर एवं एक झरना भी है जो वर्षा ऋतु में दर्शनीय हो जाता है। यहीं एक कुंड में संरक्षित बड़ी-बड़ी मछलिया भी देखने को मिलती है।
इसी क्षेत्र में पानरवा नामक स्थान के पास सोमघाटा स्थित है जिस से होकर किसी समय में अंग्रेज़ रेजीडेंट, खैरवाड़ा, बावलवाड़ा होकर पानरवा के विश्राम स्थल में ठहरकर कोटड़ा छावनी पहुंचते थे। पानरवा से मानपुर होकर कोल्यारी के रास्ते कमलनाथ के पास से झाड़ोल पंहुचा जा सकता है। यह क्षेत्र “भोमट” के नाम से जाना जाता है। झाड़ोल के बहुत पास का क्षेत्र ” झालावाड़ ” कहलाता है। अरावली के इस क्षेत्र में चट्टानों पर केले की वन्य प्रजाति (Ensete superbum) उगती है। झाड़ोल के पास स्थित मादडी नामक गांव में राज्य का सबसे विशाल बरगद का पेड़ स्थित है तथा यहीं मादडी वनखंड में राज्य का सबसे बड़ा ” बॉहिनिया वेहलाई ” (Bauhinia vahlii) कुञ्ज भी विध्यमान है।
उत्तर की तरफ बढ़ने पर जूड़ा, देवला, गोगुंदा आदि गांव आते हैं। फुलवारी की तरह, यहां भी मिश्रित सघन वन पाए जाते हैं तथा इस क्षेत्र में अरावली की पहाड़ियों पर मिट्टी की परत उपस्थित होने के कारण उत्तर व मध्य अरावली के मुकाबले यहाँ अधिक सघनता व जैव विविधता वाले वन पाए जाते हैं। इस क्षेत्र के “नाल वन” जो दो सामानांतर पर्वत श्रंखला के बीच नमी वाले क्षेत्र में बनते हैं दर्शनीय होते हैं। नाल सांडोल, केवड़ा की नाल, खोखरिया की नाल, फुलवारी की नाल, सरली की नाल, गुजरी की नाल आदि इस क्षेत्र की प्रसिद्ध नाल हैं। जिनके “रिपेरियन वन” (नदी या नालों के किनारे के वन) सदाबहार प्रजातियों जैसे आम, Syzygium heyneanum (जंगली जामुन), चमेली, मोगरा, लता शीशम, Toona ciliata, salix, Ficus racemosa, Ficus hispida, Hiptage benghalensis (अमेती), कंदीय पौधे, ऑर्किड, फर्न, ब्रयोफिट्स आदि से भरे रहते हैं।
अरावली, विशाल जैव-विविधता को सँजोती पर्वत श्रृंखला (फोटो: डॉ धर्मेंद्र खांडल)
अरावली के दक्षिणी भाग में Flying squirrel, Three-striped palm squirrel, Green whip snake, Laudankia vine snake, Forsten’s cat snake, Black headed snake, Slender racer, Red spurfowl, Grey jungle fowl (जंगली मुर्गा), Red whiskered bubul, Scimitar babbler (माऊंट आबू), White throated babbler आदि जैसे विशिष्ट प्राणी निवास करते है। राज्य की सबसे बड़ी मकड़ी “जायन्ट वुड स्पाइडर” यहाँ फुलवारी, कमलनाथ, कुम्भलगढ़ व सीतामाता में देखने को मिलती है तथा राज्य का सबसे बड़ा शलभ “मून मॉथ ” वर्षा में यहाँ जगह-जगह देखने को मिलता है। कभी बार्किंग डीयर भी यहाँ पाए जाते थे। सज्जनगढ़ व इसके आसपास भारत की सबसे छोटी बिल्ली “रस्टी स्पॉटेड कैट” भी देखने को मिलती है।
देवला के बहुत पास पिंडवाडा रोड पर सेई नामक बाँध पड़ता है, जिसे “इम्पोटेंड बर्ड एरिया” होने का गौरव प्राप्त है। राजस्थान के 31 मान्य आई.बी.ए में से 12 स्थान; जयसमंद झील व अभयारण्य, कुंभलगढ़, माऊंट आबू, फुलवारी, सरेसी बाँध, सेई बाँध, उदयपुर झील संकुल एवं बाघदड़ा आदि, दक्षिण राजस्थान में अरावली क्षेत्र व उसके आसपास विध्यमान हैं।
आइये देश के सागवान वनों की उत्तर व पश्चिम की अंतिम सीमा, सागेटी, चित्रवास व रीछवाडा की ओर बढ़ते हैं। इस क्षेत्र से पश्चिम में जाने पर पाली जिले की सीमा आ जाती है। यहाँ सुमेरपुर से होकर सादडी, घाणेराव आदि जगह का भू – भाग “गोडवाड़” के नाम से जाना जाता है। गोडवाड़ में अरावली व थार का मिलन होने से एक मेगा इकोटोन बनता है जो अरावली के पश्चिम ढाल से समान्तर आगे बढ़ता चलता है।
कुंभलगढ़ अभयारण्य, सागवान वितरण क्षेत्र के अंतिम बिंदु से प्रारम्भ होता है जो देसूरी की नाल को लांघते ही रावली-टॉडगढ़ अभयारण्य के जंगलों से मिल जाता है। इस क्षेत्र में जरगा व कुम्भलगढ़ के ऊंचे पर्वत शिखर देखने को मिलते हैं। जरगा, माउंट आबू के बाद सबसे ऊंचा स्थल है। इस क्षेत्र की आबोहवा गर्मी में सुहानी बनी रहती है। गोगुन्दा व आसपास के क्षेत्र में गर्मी की रातें काफी शीतल व सुहावनी रहती है। इस क्षेत्र में दीवारों, चट्टानों व वृक्षों पर लाइकेन मिलती हैं। जरगा में नया जरगा नामक स्थान पश्चिमी ढाल पर व जूना जरगा पूर्वी ढाल पर दर्शनीय मंदिर है एवं पवित्र वृक्ष कुज भी है। कुंभलगढ़ व जरगा में ऊंचाई के कारण अनेकों विशिष्ट पौधे पाए जाते हैं। यहाँ Toona ciliate, Salix, Salix tetrandra, Trema orientalis, Trema politoria, Ceasalpinia decapetala, Sauromatum pedatum आदि देखने को मिलते हैं। जरगा पहाड़ियों को पूर्वी बनास का उद्गम स्थल माना जाता है। जरगा के आसपास बनास के किनारे विशिष्ट फर्नो का अच्छा जमाव देखा जाता है। वेरो का मठ के आस पास मार्केंशिआ नामक ब्रायोफाइट देखा गया है। कुंभलगढ़ में ऐतिहासिक व धार्मिक महत्त्व के अनेकों स्थान है तथा कुछ स्थान जैसे कुंभलगढ़ किला, रणकपुर मंदिर , मुछाला महावीर, पशुराम महादेव आदि मुख्य दर्शनीय स्थान है।
आगे चलते है रावली-टॉडगढ़ अभयारण्य की ओर। इतिहासकार कर्नल टॉड के नाम से जुडी रावली-टॉडगढ़ अभयारण्य वन्यजीवों से भरपूर है। यहाँ आते-आते वन शुष्क पर्णपाती हो जाते है तथा पहाड़ पथरीले नजर आते है। यहाँ धोकड़ की क्लाइमैक्स आबादी को देखा जा सकता है। यह अभयारण्य ग्रे जंगल फ़ाउल की उतरी वितरण सीमा का अंतिम छोर है।
उतर दिशा में आगे बढ़ने पर राजसमन्द एवं अजमेर के बीच पहाड़ियां शुष्क होने लगती है। धोकड़े के जंगलो में डांसर व थूर का मिश्रण साफ़ दीखता है और सघनता विरलता में बदल जाती है। इसी भाग में सौखालिया क्षेत्र विद्यमान है जो गोडवान (Great Indian bustard) के लिए विख्यात है। कभी – कभार खड़मोर (Lesser florican) भी यहाँ देखने को मिलता है। यहाँ छितरे हुए गूगल के पेड़ मिलते हैं जो एक रेड डेटा प्रजाति है। इस भाग में आगे बढ़ने पर नाग पहाड़ आता है जो की काफी ऊँचा है, जहाँ कभी सघन वन एवं अच्छी जैव विविधता पायी जाती थी।
हमारी यात्रा के अंतिम पड़ाव में जयपुर के पहाड़ आते हैं और यहीं पर स्थित है, आमेर। झालाना व नाहरगढ़ अभयारण्य में अधिक सघनता व जैव विविधता वाले वन हैं। कभी यहाँ बाघ तथा अन्य खूंखार प्राणियों की बहुतायत हुआ करती थी। यहाँ White-naped tit और Northern goshawk जैसे विशिष्ट पक्षियों को आसानी से देखा जा सकता है। यहाँ से पास ही में स्थित है सांभर झील। सांभर झील, घना के बाद दूसरा रामसर स्थल है तथा हर वर्ष बहुत प्रजातियों के प्रवासी पक्षी यहाँ आते हैं । रामसागर और मानसागर इस क्षेत्र के प्रसिद्ध जलाशय हैं जो जलीय जीव सम्पदा के खजाने हैं। कभी रामगढ भी यहाँ का प्रसिद्ध जलाशय हुआ करता था परन्तु मानवीय हस्तक्षेपों के चलते वह सूख गया।
हम रुकते हैं, अभी आमेर में लेकिन अरावली को तो और आगे जाना है, आगे दिल्ली तक!!
फूलों से लदे पलाश के पेड़, यह आभास देते हैं मानो वन में अग्नि दहक रही है I इनके लाल केसरी रंगों के फूलों से हम सब वाकिफ हैं, परन्तु क्या आप जानते है पीले फूलों वाले पलाश के बारे में ?
पलाश (Butea monosperma) राजस्थान की बहुत महत्वपूर्ण प्रजातियों में से एक है जो मुख्यतः दक्षिणी अरावली एवं दक्षिणी-पूर्वी अरावली के आसपास दिखाई देती है। यह प्रजाति 5 उष्ण कटिबंधीय शुष्क पर्णपाती वनों का महत्वपूर्ण अंश है तथा भारत में E5 – पलाश वन बनाती है। E5 – पलाश वन मुख्यरूप से चित्तौड़गढ़, अजमेर, पाली, जालोर, टोंक, भीलवाड़ा, बूंदी, झालावाड़, धौलपुर, जयपुर, उदयपुर, बांसवाड़ा, डूंगरपुर, अलवर और राजसमंद जिलों तक सीमित है।
पीले पलाश (Butea monosperma var. lutea) का वृक्ष (फोटो: डॉ. सतीश शर्मा)
राजस्थान में पलाश की तीन प्रजातियां पायी जाती हैं तथा उनकी विविधताएँ नीचे दी गई तालिका में प्रस्तुत की गई हैं:
क्र. सं.
वैज्ञानिक नाम
प्रकृति
स्थानीय नाम
मुख्य वितरण क्षेत्र
फूलों का रंग
1
Butea monosperma
मध्यम आकार का वृक्ष
पलाश, छीला, छोला, खांखरा, ढाक
मुख्य रूप से अरावली और अरावली के पूर्व में
लाल
2
Butea monosperma var. lutea
मध्यम आकार का वृक्ष
पीला खांखरा, ढोल खाखरा
विवरण इस लेख में दिया गया है
पीला
3
Butea superba
काष्ठबेल
पलाश बेल, छोला की बेल
केवल अजमेर से दर्ज (संभवतः वर्तमान में राज्य के किसी भी हिस्से में मौजूद नहीं)
लाल
लाल पलाश (Butea monosperma) का वृक्ष (फोटो: डॉ. धर्मेंद्र खांडल)
लाल पलाश के पुष्प (फोटो: डॉ. धर्मेंद्र खांडल)
Butea monosperma var. lutea राजस्थान में पलाश की दुर्लभ किस्म है जो केवल गिनती योग्य संख्या में मौजूद है। राज्य में इस किस्म के कुछ ज्ञात रिकॉर्ड निम्न हैं:
क्र. सं.
तहसील/जिला
स्थान
वृक्षोंकीसंख्या
भूमिकीस्थिति
1
गिरवा (उदयपुर)
पाई गाँव झाड़ोल रोड
1
राजस्व भूमि
2
गिरवा (उदयपुर)
पीपलवास गाँव के पास, (सड़क के पूर्व के फसल क्षेत्र में)
2
राजस्व भूमि
3
झाड़ोल (उदयपुर)
पारगीया गाँव के पास (पलियाखेड़ा-मादरी रोड पर)
1
राजस्व भूमि
4
झाड़ोल (उदयपुर)
मोहम्मद फलासिया गाँव
2
राजस्व भूमि
5
कोटड़ा (उदयपुर)
फुलवारी वन्यजीव अभयारण्य के पथरापडी नाका के पास
1
राजस्व भूमि
6
कोटड़ा (उदयपुर)
बोरडी गांव के पास फुलवारी वन्यजीव अभयारण्य के वन ब्लॉक में
4
आरक्षित वन
7
कोटड़ा (उदयपुर)
पथरापडी नाका के पूर्व की ओर से आधा किलोमीटर दूर सड़क के पास एक नाले में श्री ननिया के खेत में (फुलवारी वन्यजीव अभयारण्य का बाहरी इलाका)
2
राजस्व भूमि
8
झाड़ोल (उदयपुर)
डोलीगढ़ फला, सेलाना
1
राजस्व भूमि
9
झाड़ोल (उदयपुर)
गोत्रिया फला, सेलाना
1
राजस्व भूमि
10
झाड़ोल (उदयपुर)
चामुंडा माता मंदिर के पास, सेलाना
1
राजस्व भूमि
11
झाड़ोल (उदयपुर)
खोड़ा दर्रा, पलियाखेड़ा
1
आरक्षित वन
12
प्रतापगढ़ (चित्तौड़गढ़)
जोलर
2
झार वन ब्लॉक
13
प्रतापगढ़ (चित्तौड़गढ़)
धरनी
2
वन ब्लॉक
14
प्रतापगढ़ (चित्तौड़गढ़)
चिरवा
2
वन ब्लॉक
15
प्रतापगढ़ (चित्तौड़गढ़)
ग्यासपुर
1
मल्हाड वन खंड
16
आबू रोड
गुजरात-राजस्थान की सीमा, आबू रोड के पास
1
वन भूमि
17
कोटड़ा (उदयपुर)
चक कड़ुवा महुड़ा (फुलवारी वन्यजीव अभयारण्य)
1
देवली वन ब्लॉक
18
कोटड़ा (उदयपुर)
बदली (फुलवारी वन्यजीव अभयारण्य)
1
उमरिया वन ब्लॉक
19
कोटड़ा (उदयपुर)
सामोली (समोली नाका के उत्तर में)
1
राजस्व भूमि
20
बांसवाड़ा जिला
खांडू
1
राजस्व भूमि
21
डूंगरपुर जिला
रेलड़ा
1
राजस्व भूमि
22
डूंगरपुर जिला
महुडी
1
राजस्व भूमि
23
डूंगरपुर जिला
पुरवाड़ा
1
राजस्व भूमि
24
डूंगरपुर जिला
आंतरी रोड सरकन खोपसा गांव, शंकर घाटी
1
सड़क किनारे
25
कोटड़ा (उदयपुर)
अर्जुनपुरा (श्री हुरता का कृषि क्षेत्र)
2
राजस्व भूमि
26
गिरवा (उदयपुर)
गहलोत-का-वास (उबेश्वर रोड)
6
राजस्व भूमि
27
उदयपुर जिला
टीडी -नैनबरा के बीच
1
राजस्व भूमि
28
अलवर जिला
सरिस्का टाइगर रिजर्व
1
वन भूमि
चूंकि पीला पलाश राज्य में दुर्लभ है, इसलिए इसे संरक्षित किया जाना चाहिए। राज्य के कई इलाकों में स्थानीय लोगों द्वारा इसकी छाल पूजा और पारंपरिक चिकित्सा के लिए प्रयोग ली जाती है जो पेड़ों के लिए हानिकारक है। वन विभाग को इसकी रोपाई कर वन क्षेत्रों में इसका रोपण तथा स्थानीय लोगों के बीच इनका वितरण करना चाहिए।