नाथू बावरिया की चार पीढ़ियों के संघर्ष 

नाथू बावरिया की चार पीढ़ियों के संघर्ष 

कर्नल केसरी सिंह ने अपनी एक पुस्तक में रणथम्भोर के एक स्थानीय व्यक्ति नाथू बावरिया का जिक्र किया है, जो उन्हें बाघ खोजने और भिन्न प्रकार के वन्य प्राणियों और पक्षियों  के मांस से होने वाले अलग अलग फायदों के बारे में बताता था। यह किसी बावरिया के बाघ और रणथम्भोर से जुड़ाव का पहला वाकया है, जो कहीं लिखा गया है।  उसके बारे में लिखते हुए केसरी सिंह ने नाथू की बावरिया जाती के रणथम्भोर से जुड़े लम्बे इतिहास और वन्य जीव के बारे में उनकी गहरी समझ का भी बखान किया है।

शायद केसरी सिंह की मदद से ही नाथू बावरिया का एक पुत्र मुकन उस समय वन विभाग में वनरक्षक का कार्य करने लगा था। शायद रणथम्भोर क्षेत्र का अब तक का अकेला बावरिया था, जो सरकार से सीधा जुड़ कर मुख्यधारा में आगया था। हालाँकि वह हिस्सा टोंक जिले में जहाँ मुकन पदस्थापित था। खैर किसी बंधन में काम नहीं करने की आदत और एक स्थानीय व्यक्ति के झांसे में आकर मुकन ने यह नौकरी से हट गया था । असल में मुकन को कुछ रुपये देकर एक स्थानीय ऊँची जाती के व्यक्ति  कजोड़ सिंह ने सरकारी कागजो में हेर फेर  करवा कर उस से नौकरी हड़प  ली थी।  हालाँकि इस नौकरी के दौरान मुकन अपने नाम के आगे पिता की जाती बावरिया की जगह मोग्या लगाने लगा था, जिसके पीछे एक कारण था।

सामुदायिक विवाह समारोह में मस्ती करते हुए मुकन मोगिया (फोटो: डॉ धर्मेंद्र खांडल)

वैसे तो मोग्या और बावरिया एक ही समाज है, परन्तु इन दोनो नामों के इस्तेमाल के पीछे कई राज और दर्द की दास्ताने है, जो बस इन्ही समाज के लोगो के दिलों में ही दफ़न है।  इन्होने भिन्न जाती के नामो का इस्तेमाल सरकार की रुख देख करअलग अल्लाह समय में भिन्न ढंग से किया है कभी बावरिया – मोग्या बन गए और कभी मोग्या फिर से बावरिया बन गए।

इस समाज की नयी पीढ़ी ने अपने नाम के आगे मोग्या लिखना शुरू कर दिया ताकि अंग्रेजो के एक  पक्षपातपूर्ण कानून से बच सके।  अंग्रेजो के एक कठोर कानून – जरायम पेशा कनून (Criminal Tribes Act – 1871) के तहत 127 जातीय पर कई प्रकार के प्रतिबन्ध लगा रखे थे। अंग्रेजो के  इस काले कानून के दायरे में आने वाली इन जातियों में उस समय  लगभग 1 करोड 30 लाख (13 million) आते होंगे। इस कानून के तहत इन जाती के पुरुषों को हर सप्ताह नजदीक के  पुलिस थाने में जाकर उपस्थिति दर्ज करवानी पड़ती थी और बिना बताये तय क्षेत्र से बाहर पाए जाने पर कड़ी कानूनन कारवाई हुआ करती थी।

भारत जाती और सम्प्रदायों में बंटा हुआ एक विलक्षण देश है। हर व्यक्ति आज भी इन्ही बटवारो के दायरों में सिमटा हुआ है।  हर किसी जाती से कई ऊँची जातियां है और इतनी ही उनसे छोटी जातियां है। वर्तमान में जाती वह समूह है जिस का सीधा सम्बन्ध जन्म से है, यानि की वह किस समूह या परिवार में पैदा हुआ है।  यह व्यवस्ता कभी कर्मों से जुडी रही होगी, परन्तु सदियों से तो जाती का सीधा सम्बन्ध जन्म से ही माना जाता है।

मुकन और उनका परिवार (फोटो: डॉ धर्मेंद्र खांडल)

जरायम पेशा कनून (Criminal Tribes Act – 1871) के अंतरगत राजस्थान से १२ जातियों को प्रतिबंधित सूचि में रखा गया था -मीणा, भील, बावरिया, कंजर, सांसी, बंजारा, बागरिया, नट, नलक, मुलतांनी, भाट एवं मोगिया।

अब आप सोच रहे होंगे की जब मोगिया शामिल है तो बावरिया से मोगिया बनने में क्या लाभ?

कहते है मेवाड़ रियासत ने  बावरिया समाज के ही चुनिंदा लोगो को मोग्या नाम का ख़िताब दिया था।  क्योंकि कुछ बावरिया लोगो ने  मेवाड़ रियासत को भीलो और स्थानीय मीना लोगो के उत्पात से रक्षा में सहायता की थी, अतः मोगिया को हर समय शासन के नजदीक माना गया था। जॉर्ज व्हिट्टी गएर (George Whitty Gayer) 1909  की पुस्तक  Lectures on some criminal tribes of India and religious mendicants  के अनुसार मेवाड़ शासन ने स्थनीय आदिवासियों के उत्पात को शांत करने वाले वफादार बावरिया समूह को कोरल (coral) यानि मूंगा का दर्जा दिया, जो एक एक हिरे मोती की भांति एक महंगा पदार्थ है और वह बावरिया लोग मोंगिया कहलाने लगे और बाद में मोगिया कहलाये।  परन्तु आज भी मोगिया और बावरिया शब्द के इस्तेमाल करने वाले दोनों समूहों में शादी विवाह और अन्य तरह के व्यव्हार मौजूद है।

मुकन का पुत्र भजन मोगिया (दाएं), एक सुधारित बाघ शिकारी

संयुक्त राष्ट्र की एक शाखा Committee on the Elimination of Racial Discrimination (CERD) की सलाह पर भारत ने आजादी के कुछ वर्ष पश्च्यात इन 127 जातियों को उस जरायम पेशा अनुसूची से तो विमुक्त कर दिया और अब इन्हे विमुक्त जातियों (Denotified Tribes) के रूप में जाना जाता है जो बिलकुल वैसा ही है जैसे आप चिपके हुए स्टीकर के ऊपरी तह को खुरच कर निकल देते हो परन्तु निचे अभी भीकुछ चिपका हुआ हिस्सा रह जाता हो।

मुकन मोगिया के परिवार का टाइगर वॉच संस्था से अनूठा जुड़ाव है। संस्था की एंटी-पोचिंग यूनिट में मुकन के एक पुत्र गोविन्द मोगिया  ने खूब सेवाये दी है,  साथ ही इसी संस्था ने मुकन के एक पुत्र कालू को बघेरे के शिकार के लिए पुलिस को पकड़वाया भी है । वहीँ संस्था ने सूड़ केमि नमक संस्थान की मदद से  मुकन के 15 पोत्रो को अच्छी शिक्षा भी दिलवाई है, जो आज भी जारी है। इन्ही बच्चो में से एक बड़ा लड़के ने एक बार कहाँ की उसे यदि कुछ रुपये मिले तो वह अपनी जाती का नाम मोगिया से बावरिया करवाना चाहता है।  लगा शायद यह आत्मसमान के लिए किया जाने वाला एक प्रयास है,  परन्तु उसने बतया की मोगिया पिछड़े वर्ग (OBC) में आते है जबकि बावरिया अनुसूचित जाती  (SC) में शामिल है।  और मुफ्त राशन, शिक्षा एवं नोकरियो में प्राथमिकता के लिए अनुसूचित जाती में जाना ज्यादा लाभप्रद है।  उसने अपने स्तर पर  एक सरकारी अधिकारी  को  2500 रुपये की रिश्वत देकर अपने परदादा की जाती पुनः हासिल करली। शायद बावरिया कहलाना उसका हक़ भी था और अब अधिकांश बच्चे मोगिया से पुनः बावरिया लिखने लगे है।

गांव में लोग बावरिया और मोगिया में भेद नहीं करते परन्तु सरकार अभी भी इनमें अंतर करती है। पिछले दिनों टाइगर वॉच में आये Anthropological Survey of India के लोगो ने मोगिया  समाज पर एक अलग जाती के रूप में अध्ययन कर न शुरू किया है जो अब तक वह नहीं  कर पाए थे।

भजन के पुत्र दिलकुश बावरिया। नाथू बावरिया के बाद चौथी पीढ़ी, और औपचारिक शिक्षा प्राप्त करने वाली पहली पीढ़ी (फोटो: डॉ धर्मेंद्र खांडल)

मोगिया समाज के बच्चो के छात्रावास के 15 वर्ष के अनुभव में यह कई बार सामने आया ऊँची आजाती के लोग ही नहीं इन्हे दलित समाज (बैरवा आदि) के लोग भी इन्हे हेय दृष्टि से देखते है और इस से बढ़ कर यह भी देखने को मिला की किस प्रकार इसी मोगिया समाज के छात्रों ने भी कुछ अन्य समाजो (कालबेलिया और भोपा) के छात्रों के साथ खाने पिने और रहने से मना कर दिया की वह उनसे छोटे और अछूत है।

आज देश में 352 घुमंतू और 198 विमुक्त जातीय है जिनकी जनसँख्या 10 -11 करोड़ है और यह अपनी परम्परा से जुड़े रहने के लिए संघर्ष कर रहे है। सरकार इन्हे मुख्यधारा में लाने के अनेक प्रयास भी कर रही है, परन्तु इस संसाधन हीन देश में सब आसानी से नहीं मिलने वाला।

परन्तु दूसरी तरफ लगता है इस देश से अधिक सुविधा वाला देश और कौन सा होगा जहाँ कोई 2500 रुपये में जाती बदलवा सकते है।

नाथू बावरिया की नई पीढ़िया परपरागत ज्ञान भुला कर किताबी शिक्षा हासिल कर चुके है और कजोड़ जैसी चतुराई सीख कर प्रमाणपत्र भी हासिल कर लिया है। आज यह किसी और कजोड़ से बेवकूफ नहीं बनगे बल्कि सरकार को चक्कर खिला देंगे।

इन असली आदिवासियों के बारे में यह आलेख सत्य और तथ्य पर आधारित है।

लेखक:

Dr. Dharmendra Khandal (L) has worked as a conservation biologist with Tiger Watch – a non-profit organisation based in Ranthambhore, for the last 16 years. He spearheads all anti-poaching, community-based conservation and exploration interventions for the organisation.

Mr. Ishan Dhar (R) is a researcher of political science in a think tank. He has been associated with Tiger Watch’s conservation interventions in his capacity as a member of the board of directors.

 

Of Quails and Controversies

Of Quails and Controversies

The Rajasthan rock bush quail is believed to be endemic to the state. It was discovered by a British Army officer in Nasirabad near Ajmer. The quail is actually a subspecies of the rock bush quail (Perdicula argoondah (Sykes 1832). The officer in question was Colonel Richard Meinertzhagen (3rd March 1878 – 17th June 1967),  who was a British army and intelligence officer, as well as a budding ornithologist. Col. Meinertzhagen procured a specimen in 1926, and passed it on to another English ornithologist, Hugh Whistler, a specialist in quails and francolins.

A Rajasthan rock bush quail (Perdicula argoondah meinertzhageni) (Photo: Dr. Dharmendra Khandal)

While Col. Meinertzhagen, the discoverer of the rock bush quail in Rajasthan, was indeed a decorated military officer, his name has also been sullied as a result of a much darker history. Perhaps never have so many research papers been written on the accusations against any one individual, let alone an ornithologist. His actions continue to haunt us to this day, many decades after his death. Historically, Col. Meitnertzhagen may not have been the only colonial officer to have oppressed the common people of India and Africa for his own sadistic pleasure, perhaps he was not the only one to have murdered his own wife to cover up his crimes , but he was probably one of the few naturalists to steal multiple specimens from natural history museums (many from the Natural History Museum in London!), and then have them recorded as his own discoveries. Alan Knox, Pamela Rasmussen, Robert P. Prys-Jones and John Critchley researched these allegations. Their hard earned evidence was based on a vast collection of 20 thousand bird specimens presented to the Natural History Museum by Col. Meinertzhagen, on which he also published several research papers.

A covey of rock bush quails. (Photo: Dr. Dharmendra Khandal)

However, no question of any kind has been raised regarding this particular quail discovered by Col. Meinertzhagen in Rajasthan so far. That being said, not nearly enough research has been done on this subspecies. We hope that the new generation of ornithologists sheds some more light on this subspecies. It is often asked just how many species of birds are endemic to Rajasthan.That is, birds that only occur within the boundaries of the state of Rajasthan. Ornithologists say that in reality there is not even one. Nevertheless, the principal distribution area for 6-7 subspecies is Rajasthan, but they are also distributed in neighbouring states. It is an altogether different matter that some experts outright deny classification of these as subspecies, they believe that some diversity in  species occurs on a geographical basis.

Col. Richard Meinertzhagen

When Hugh Whistler received the specimen from Nasirabad in 1937, he found it to be a different variety from the rock bush quail found in the Deccan region, and wrote in a mere two line description, that its colour is much lighter than the quail found in the Deccan,  and that in the male, the ‘ black bars’ found on the lower part of its body were far narrower, ‘making the lower plumage less heavy in appearance’.

Col. Richard Meinertzhagen with a kori bustard shot in Kenya in 1915.

Whistler further elaborated that it was found in Southeastern Punjab, the United Provinces (now Uttar Pradesh), around Jabalpur( Madhya Pradesh), Central India, Rajputana (now Rajasthan) and Kutch (Gujarat). It is unclear how this distribution area was established, since the short description is based on only one specimen. Today, no new subspecies can be established based on just a short two-line description. Hugh Whistler also successfully proposed the Mysore rock bush quail as a new subspecies, on the basis of a specimen sent by the famous Indian ornithologist Salim Ali in 1940. Times have changed and perhaps more light can be shed on these conundrums through DNA analysis.

A drawing of a pair of rock bush quails (Perdicula argoondah) ( male and female ) by Col. William Henry Sykes, who first described the species in 1832.

And let’s not forget that true to form, Col. Meinertzhagen is the same individual who stole a specimen of forest owl from another scientist’s collection, and fraudulently reported it to be his own find from Gujarat, leaving many ornithologists confused for days. Perhaps there is more to the story of the Rajasthan rock bush quail. We have raised enough questions, it is now your turn to unearth the truth.

Reference:

Authors:

Dr. Dharmendra Khandal (L) has worked as a conservation biologist with Tiger Watch – a non-profit organisation based in Ranthambhore, for the last 16 years. He spearheads all anti-poaching, community-based conservation and exploration interventions for the organisation.

Mr. Ishan Dhar (R) is a researcher of political science in a think tank. He has been associated with Tiger Watch’s conservation interventions in his capacity as a member of the board of directors.

 

Cover Photo: Col. Richard Meinertzhagen in 1922, and rock bush quails drawn by Col. William Henry Sykes.

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Of Quails and Controversies

राजस्थान का एक खास बटेर और एक विवादित ब्रिटिश खोजकर्ता 

राजस्थान में बटेर की खास उप प्रजाति मिलती है और कहा जाता है यह राजस्थान की एक स्थानिक या एंडेमिक उप प्रजाति है। जिसे राजस्थान रॉक बुश क्वेल के नाम से जाना जाता है । यह अजमेर के पास नसीराबाद से एक अंग्रेज अफसर द्वारा खोजी गयी थी,  जो असल में रॉक बुश क्वेल  (Perdicula argoondah (Sykes 1832)) की ही एक उप-प्रजाति है। इस अंग्रेज अफसर का नाम था – कर्नल रिचर्ड मैनेरतज़हेगेन (3 March 1878 – 17 June 1967) जो एक ब्रिटिश सेना के अफसर, ख़ुफ़िया विभाग के अधिकारी एवं पक्षीविद थे।

इन्होने 1926  में इसे पकड़ा और इंग्लैण्ड के एक अन्य पक्षीविद हुग व्हिस्टलर को पहचानने के लिए दिया,  जो एक बटेर एवं फ्रैंकोलिन जैसे पक्षियों के विशेषज्ञ थे।

राजस्थान के रॉक बुश क्वेल (Perdicula argoondah meinertzhageni) (Photo: Dr. Dharmendra Khandal)

राजस्थान के रॉक बुश क्वेल के खोजकर्ता कर्नल मैनेरतज़हेगेन एक ऐसा नाम था जिसके सीने पर पदको की क्षृंखलाए थी, परन्तु चेहरे पर बेईमानियों के काले धब्बे। किसी एक इंसान पर लगे इल्जामो पर कभी शायद इतने शोध पत्र नहीं लिखे होंगे जितने इन महाशय पर लिखे गये है और इनके कृत्य आज भी इनकी मृत्यु के कई दशकों बाद भी सामने आते रहते है। हालाँकि यह अपने आनंद के लिए भारत और अफ्रीका की आम जनता पर जुल्म करने वाले वह इतिहास के अकेले फौजी अफसर नहीं थे, अपनी पत्नी की हत्या कर उस मामले को दबा देने वाले  दुनिया के एक मात्र हत्यारे पति भी नहीं थे, परन्तु विश्व के अनेको नेचुरल हिस्ट्री म्यूजियम से प्राणियों के नमूने चुराकर अपने नाम से दर्ज करवाने वाले शायद वह गिने चुने प्रकृतिविद में से एक थे। किसी मृत व्यक्ति पर इतने लांछन शायद सभ्य समाज की परम्परा के विरुद्ध है परन्तु एलन क्नॉक्स (Alan Knox), पामेला रासमुसेन (Pamela Rasmussen),  जॉन क्रीटचलै (John Critchley) जैसे लोगो ने यह सब इल्जाम उन के द्वारा ब्रिटिश म्यूजियम में जमा करवाए गए २० हजार से अधिक पक्षी नमूनों पर कड़ी मेहनत कर एकत्रित किये गए प्रमाण पर आधारित है जिन पर इन्होने विश्लेषणात्मक शोध पत्र भी प्रकाशित किये है। यह शोध पत्र हमें ताकीद कराते  है की जीवन में सत्य से बढ़ कर कुछ नहीं।

रॉक बुश क्वेल का समूह (Photo: Dr. Dharmendra Khandal)

यदपि इनके द्वारा राजस्थान से खोजे गए इस विशेष बटेर पर अभी तक किसी भी प्रकार का कोई प्रश्न नहीं उठा है। परन्तु इस उपप्रजाति पर किसी ने पर्याप्त शोध भी नहीं की है।  आशा है  नव पक्षी वैज्ञानिक इस पर नए सिरे से प्रकाश डालेंगे। अक्सर यह प्रश्न पूछा जाता है की राजस्थान में कितने प्रकार के स्थानिक (एंडेमिक) पक्षी है? यानी जो मात्र राजस्थान राज्य की सीमा में ही मिलते हो।  पक्षी विशेषज्ञ कहते है की असल में एक भी नहीं है। परन्तु फिर भी 6 -7  उप-प्रजातियों का मुख्य क्षेत्र राजस्थान है, परन्तु आस पास के राज्य में भी इनका वितरण है। यह अलग बात है की इन उपप्रजातियों को ही कुछ विशेषज्ञ सिरे से नकारते है, उनका का मानना है की प्रजातियों में थोड़ी विविधता भौगोलिक आधार पर आ ही जाती है।

कर्नल रिचर्ड मैनेरतज़हेगेन

हुग व्हिस्टलर को जब नसीराबाद से बटेर का नमूना मिला तो उन्होंने 1937 में इसे डेक्कन क्षेत्र में मिलने वाले रॉक बुश क्वेल से इसे अलग किस्म का पाया और मात्र दो लाइन के विवरण में लिखा की इसका रंग डेक्कन क्षेत्र में मिलने वाले बटेर से काफी हल्का है और निचले भाग में मिलने वाली धारिया भी हलके रंग की है एवं नजदीक है। यह विवरण मात्र एक नर पक्षी के नमूने के आधार पर ही लिखा गया था।

1915 में केन्या में कोरी बस्टर्ड के शिकार के साथ कर्नल रिचर्ड मैनेरतज़हेगेन

उन्होंने इसके वितरण के बारे में लिखा है की यह पंजाब, यूनाइटेड प्रोविंस (उस समय का उत्तेर प्रदेश का नाम), मध्य भारत का उत्तरी हिस्सा, राजपुताना एवं कच्छ में मिलता है।  यह स्पष्ट नहीं है की उन्होंने इसके वितरण किस प्रकार जुटाया क्योंकि विवरण तो मात्र एक ही नमूने पर आधारित है। खैर आज इस तरह के छोटे से दो लाइनों के विवरण के आधार पर कोई अलग उपप्रजाति स्थापित नहीं की जासकती है। हुग व्हिस्टलर ने 1940  में भारत के पक्षीविद  सलीम अली के द्वारा भेजे गए एक और रॉक बुश क्वेल को मैसूर रॉक बुश क्वेल का नाम देकर उस भी एक नयी उप-प्रजाति के रूप में स्थापित किया था। खैर अब जमाना बदल गया है और डीएनए जैसी तकनीक से इन सवालो पर शायद और अधिक प्रकाश डाला जा सकता है।

कर्नल विलियम हेनरी साइक्स द्वारा रॉक बुश बटेर (पेर्डिकुला अर्गूंडा) (नर और मादा) की एक जोड़ी का एक चित्र, जिन्होंने पहली बार 1832 में इस प्रजाति का वर्णन किया था।

खैर DNA न सही आप भी इंटरनेट पर उपलब्ध फोटोज के आधार तीनो उप प्रजातियों में अंतर ढूंढे का प्रयास तो कर ही सकते है।

और ध्यान रहे मैनेरतज़हेगेन वही व्यक्ति है जिन्होंने फारेस्ट आउलट के एक नमूने को किसी और वैज्ञानिक के संग्रह से चुरा कर गुजरात का बता दिया था और कई पक्षीविद काफी दिनों तक भृमित रहे थे। होसकता है राजस्थान के बटेर में भी कोई और ही कहानी छुपी हो। प्रश्न आपके सामने है उत्तर खिजिये।

सन्दर्भ:
लेखक:

Dr. Dharmendra Khandal (L) has worked as a conservation biologist with Tiger Watch – a non-profit organisation based in Ranthambhore, for the last 16 years. He spearheads all anti-poaching, community-based conservation and exploration interventions for the organisation.

Mr. Ishan Dhar (R) is a researcher of political science in a think tank. He has been associated with Tiger Watch’s conservation interventions in his capacity as a member of the board of directors.

 

Cover photo caption: 1922 में कर्नल रिचर्ड मैनेरतज़हेगेन, और कर्नल विलियम हेनरी साइक्स द्वारा बनाया गया रॉक बुश बटेर का चित्र।

The Mewar Bhil Corps & Antiquated Treatments for Snakebites

The Mewar Bhil Corps & Antiquated Treatments for Snakebites

Today,  to stay away from antiquated first aid treatments for snakebites is repeated ad infinitum (and with good reason). The mainstays of these purported treatments involved tying tourniquets above the bites, and making incisions with knives to ‘bleed’ the venom out. But where did these treatments come from? Who first recommended these methods?

The man responsible was Joseph Ewart, a British surgeon. Ewart had been in the employ of the British East India Company since 1854. Ewart was attached by the company to the Mewar Bhil Corps. The Mewar Bhil Corps is a police corps first established by the East India Company along with Mewar State in southern Rajasthan. The corps were raised to maintain peace in what was then an inaccessible area, and to bring Bhil youth into the ‘mainstream’. Since the year 1841, this corps has consistently worked in southern Rajasthan, and still exists today as a paramilitary force under the Rajasthan Police.

An illustration of a Russell’s viper (Daboia russelii) from The Poisonous Snakes of India. Along with cobras and kraits, the Russell’s viper is responsible for the lion’s share of snakebite fatalities in India.

The Bhil youth recruited into the corps are very intrepid and expeditious. Their work ethic is also notable, historically, when a lathi (long stick serving the purpose of a baton) charge was ordered to disperse a mob or riot, the personnel took the order to heart, and accordingly marked their men. They then enthusiastically chased their targets with their lathis held aloft, and pursued them all the way to their homes, at times even after delivering a sound beating. Therefore, whenever they were given their orders, they were explicitly told what to do, as well as what not to do. Historically, the Mewar Bhil Corps made significant contributions in pacifying bandit-affected areas –  the notorious Mir Khan was caught by them.

The insignia of the Mewar Bhil Corps, now a paramilitary unit under the Rajasthan Police.

In the part of Rajasthan where this corps is located, there is also a dense jungle, which today constitutes the Phulwari ki Naal Wildlife Sanctuary. As a result, their personnel regularly fell victim to snakebites. Their British officers worried in turn. At the time they weren’t aware of the different kinds of snakes found in India, let alone how to recognize, and avoid them.

The Poisonous Snakes of India was first circulated among British officers in India, only to be republished and brought back into public consciousness by Himalayan Books in 1985 with unforeseen consequences.

This is precisely why Joseph Ewart was attached to the corps. During his time with the corps, he observed many snakebite cases, which he studied along with hypothesizing purported treatments. He did whatever little he could without antivenom, on the basis of his personal experiences. He eventually wrote a book titled The Poisonous Snakes of India, published in 1878, in which there are also uncannily accurate illustrations to help readers identify venomous snakes. Ewart also expounded on various purported treatments for snakebites in the book.

A life size illustration of a saw-scaled viper (Echis carinatus) from The Poisonous Snakes of India.

When first published, only a 1000 copies of the book were printed and distributed to British officers in India. Since there are only a few surviving copies, they have now become prized collectors’ items for Raj nostalgists. A surviving copy of the book is currently worth INR 1 lac.

Times have proven the purported first aid methods mentioned in the book to not only be dangerous to snakebite victims, but also fatal  i.e. making an incision on the bite site and bloodletting, cauterising the bite site with a hot iron bar and burning hot embers, tying tourniquets etc. (None of these measures work, and are NOT to be implemented in the event of a snakebite, please read more  –https://rajasthanbiodiversity.org/snakebite-challenges-in-rajasthan/). It is equally important to remember that this book was written before the invention of antivenom.

An illustration of a spectacled cobra (Naja naja) from The Poisonous Snakes of India.

In all likelihood, this book would have faded into obscurity, had it not been republished by Himalayan Books in 1985, and this otherwise beautiful book came back into circulation in India, along with all its antiquated information. The simultaneous resurgence of old, dangerous and redundant first aid methods for snakebites is no coincidence, and highly problematic. While this book is certainly of great relevance to historians and collectors, when dealing with a snakebite, it is best to consign Ewart’s prescribed methods to their rightful place in the annals of history.

Authors:

Dr. Dharmendra Khandal (L) has worked as a conservation biologist with Tiger Watch – a non-profit organisation based in Ranthambhore, for the last 16 years. He spearheads all anti-poaching, community-based conservation and exploration interventions for the organisation.

Mr. Ishan Dhar (R) is a researcher of political science in a think tank. He has been associated with Tiger Watch’s conservation interventions in his capacity as a member of the board of directors.

 

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The Mewar Bhil Corps & Antiquated Treatments for Snakebites

मेवाड़ भील कॉर्प्स और सर्पदंश के इलाज की प्रथम पुस्तक 

आजकल अक्सर सांप के काटे जाने पर पुराने ज़माने में सुझाये गये प्राथमिक उपचारों से दूर रहने के लिए कहा जाता है। जिनमें चीरा लगाना या पूरी ताकत से कटे स्थान से ऊपर एक बंध बांधना प्रमुख थे। यह पुराने तरीके के प्राथमिक उपचार कहाँ से आये ? कौन ऐसा व्यक्ति था जिसने यह तरीके सुझाये जो अब मान्यता खो चुके है ?

इन सुझावों के पीछे एक अत्यंत कर्मठ ब्रिटिश सर्जन जोसफ एवर्ट थे । जो ईस्ट इंडिया कंपनी के बुलावे पर 1854 में भारत में कार्य करने लगे।  यह मेवाड़ भील कॉर्प्स का हिस्सा थे। असल में मेवाड़ भील कॉर्प्स राजस्थान के दक्षिणी हिस्से में ईस्ट इंडिया कंपनी द्वारा स्थापित की गयी एक पुलिस कोर है। अंग्रेजो के शासन काल में इस दुर्गम इलाके में शांति बनाये रखने और भील युवाओं को मुख्यधारा  में लाने के लिए इस कोर की स्थापना की गयी थी। वर्ष 1841, से यह कोर निरंतर इस इलाके में कार्य कर रही है एवं अभी भी यह कोर राजस्थान पुलिस का हिस्सा है। आज भी इसमें 773 जवान कार्य रत है। खैरवाड़ा और कोटड़ा नामक स्थानों पर इनकी 8 कंपनीया स्थित है।

द पॉइज़नस स्नेक्स ऑफ़ इंडिया से रसेल वाइपर (Daboia russelii) का एक चित्रण। कोबरा और क्रेट के साथ-साथ, रसेल वाइपर भारत में सर्पदंश से होने वाली मौतों के लिए जिम्मेदार है।

कहते है इस कोर में बड़े कर्मठ भील सिपाही भर्ती है। इस कोर के सिपाहियों का काम करने का अंदाज भी कुछ अलग है, जैसे मानलो आक्रोशित भीड़ को तीतर -बीतर करने के लिए जब लाठी चार्ज का आदेश दिया जाये, तो इस कोर के सिपाही आदेश को एक दम  दिल पर ले लेते है और अपने लक्ष्य के पीछे दौड़ते हुए, उसे घर में भी जा कर मार के ही आते है। इसलिए इनको दिए आदेश में क्या क्या करे के साथ साथ क्या नहीं करे भी बतया जाता है। एक जमाने में दस्यु प्रभावित इस इलाके को शांत करने में इस कोर का बहुत बड़ा योगदान रहा है- जैसे कुख्यात दस्यु मीर खान को इसी कोर ने पकड़ा था।

मेवाड़ भील कॉर्प्स का प्रतीक चिन्ह, जो अब राजस्थान पुलिस के अधीन एक अर्धसैनिक इकाई है।

राजस्थान के जिस हिस्से में यह कोर स्थित है वहां एक घनघोर जंगल भी है, जिसे आज फूलवारी की नाल अभ्यराण्य के नाम से जाना जाता है।  इस घने वन के कारण यह कोर सर्पदंश से अत्यंत प्रभावित थी।  ब्रिटिश लोग इस बात से परेशान थे की क्या किया जाये? उन्हें यह पता नहीं था की भारत में किस प्रकार के सांप पाए जाते है? उनसे कैसे बचना है ? एवं वह कैसे दिखते है?, उन्हें पहचाने कैसे आदि ?

भारत के जहरीले सांपों को पहली बार भारत में ब्रिटिश अधिकारियों के बीच परिचालित किया गया था, जिसे 1985 में हिमालय बुक्स द्वारा फिर से प्रकाशित किया गया था और अप्रत्याशित परिणामों के साथ सार्वजनिक चेतना में वापस लाया गया था।

इसलिए यहाँ जोसफ एवर्ट को पदस्थापित किया गया था।  यहाँ आने के बाद उन्हें अनेको सर्प दंश के मांमले देखने को मिले जिनका उन्होंने इलाज के साथ अध्ययन भी किया। बिना एंटीवेनोम के जो कर पाए वो किया होगा परन्तु अपने अनुभवों के आधार पर इन्होने आजदी की पहली क्रांति के थोड़े दिनों बाद एक पुस्तक – The Poisonous Snakes of India का लेखन किया,  जिसमें विषैले सांपो की पहचान के लिए  अद्भुत चित्र लगाए गये है और उसमें सर्प दंश के पश्च्यात उसके उपचार के उपाय सुझाये गये।

द पॉइज़नस स्नेक्स ऑफ़ इंडिया से सॉ स्केल्ड वाइपर (Echis carinatus) का चित्रण।

यह पुस्तक मात्र एक हजार की संख्या में छपवायी गयी और इसे भारत के सभी ब्रिटिश अफसरों तक पहुंचाई गयी। परन्तु संख्या काम होने के कारण आज यह संग्रहकर्ताओं के लिए एक नायाब पुस्तक बन गयी है। आज यह मूल पुस्तक १ लाख रूपये तक की कीमत रखती है।

आज की दृष्टि से इसमें सुझाये गये उपाय खतरानक हो सकते है जैसे इसमें बतया गया – सर्प दंश के स्थान को काटना एवं रक्त निकालना, लोहे की गर्म सलाख से स्थान को बुरी तरह से जलाना, तपते अंगारे से जलाना, बेहद कसकर बंध बांधना आदि। सनद रहे,  यह वह जमाना था जब सर्प दंश के लिए किसी भी प्रकार के एंटीवेनम का अविष्कार नहीं हुआ था।

द पॉइज़नस स्नेक्स ऑफ़ इंडिया से स्पेक्टैलेड कोबरा (Naja naja) का चित्रण।

यह 1000 पुस्तके कहीं खो जाती परन्तु हिमालयन बुक्स द्वारा 1985 में इस पुस्तक को पुनः प्रकाशित किया गया एवं यह सूंदर पुस्तक अपने पुराने ज्ञान के साथ फिर हमारे बीच आगयी।  इस प्रकार पुराना प्राथमिक उपचार भी हमारे बीच पुनः पुनः प्रकशित होता रहा है।  एवं इस तरह पुराने प्राथमिक उपचार बारम्बार हमारे बीच आते रहे है जो जमाने के साथ बेमानी होगये है। यह पुस्तक अब संग्रहकर्ताओं के लिए उपयोगी है परन्तु सर्प दंश के समय इस पुराने ज्ञान से दूर ही रहे।

आज तक सांपो की प्रजातियों की पहचान पर अनेक पत्र व पुस्तके प्रकाशित हुई पर सर्प दंश पर शायद अभी और अधिक शोध होनी बाकि है तभी तो हमारे देश में हर वर्ष 58000 लोग सांपो के काटने से मारे जाते है।

लेखक:

Dr. Dharmendra Khandal (L) has worked as a conservation biologist with Tiger Watch – a non-profit organisation based in Ranthambhore, for the last 16 years. He spearheads all anti-poaching, community-based conservation and exploration interventions for the organisation.

Mr. Ishan Dhar (R) is a researcher of political science in a think tank. He has been associated with Tiger Watch’s conservation interventions in his capacity as a member of the board of directors.

 

 

A Lizard on the Battlefield

A Lizard on the Battlefield

During the Indo-Pakistan War of 1971, a small contingent of the Indian Armed Forces (120 soldiers) held a much larger contingent of  the Pakistani Army of approximately 2000-3000 soldiers in one place, till the arrival of the Indian Air Force and fought very bravely till then. The famous bollywood movie Border, is based on this battle. The location of this historic battle is named Longewala.The area is remote,  there is an endless vista of sand and it does not rain for years, where people have no choice but to bathe with soil, and cannot prevent particles of sand from tainting morsels of food to such an extent that new visitors are not even able to chew properly. In the year 1978, a biologist discovered a new species of lizard here.

At first glance, the lizard appears very strange, for it looks like a toad with a tail. If you want to see this curious lizard, then you have to visit  Rajasthan’s Thar desert, to be precise, where the battle of Longewala was fought, albeit it is also found to occur in adjacent areas. Dr. Ishwar Prakash, a  scientist studying mammals from the Zoological Society of India (ZSI), was the first to catch it, and when he gave the first specimen to his herpetologist friend, Dr. R.C. Sharma, he was beside himself with joy. It was a lizard that had never been seen before.  However, one sample was not enough for his research, so Dr. Sharma tried to visit the corner of the desert where it was found.

A toad-headed agama at rest. (Photo: Dr. Dharmendra Khandal)

It was a difficult period, and only men serving in the Indian Armed Forces could easily access this remote area.Dr. Sharma got an opportunity to avail of a helicopter of the Border Security Force (BSF) which agreed to take him there,  but unfortunately the ZSI did not give him official leave. Dr Sharma decided to go to Longewala on personal leave, and after sourcing enough samples from there, he gave the lizard the binomial name – Phrynocephalus laungwalaensis.  Dr. Sharma did not mention Dr. Ishwar Prakash in this research publication by mistake. I had the privilege of meeting both Dr. Ishwar Prakash and Dr. R.C .Sharma (both have passed away since), and I had heard this story in their own words.

The unforgiving Thar desert. The toad-headed agama is endemic to the Thar. (Photo: Dr. Dharmendra Khandal)

However, Dr. Sharma overlooked some attributes of this lizard, and in 1992, a herpetologist named Arnold placed the lizard in a new genus Bufoniceps instead of Phrynocephalus. In fact, the genus Bufoniceps was created by studying this lizard. It is now known as Bufoniceps laungwalaensis. Thus,  there was not only a new species in Dr. Sharma’s hands, but a new genus, which could have proven to be a bigger discovery.

On all fours, and ready to run on the sand. (Photo: Dr. Dharmendra Khandal)

Dr. Sharma mistakenly used two spellings for its binomial name – “laungwalansis” and “laungwalaensis“. The addition of an ‘E’  became a subject of discussion for taxonomists. The norm would be to accept the first spelling, but the second spelling was correct on the basis of grammar. Eventually the second spelling was adopted, and it is now known as Bufoniceps laungwalaensis. However in vernacular terms, it is known as the  “Rajasthan Toad-Headed Lizard” or the “Longewala Toad- Headed Lizard”.

It is a diurnal lizard from the agama family. It can be seen running with astonishing speed on the desert sand, but when it senses danger, this small agama lizard measuring upto 29 to 69 millimeters, either runs and does not stop for a distance of 100 to 125 meters or else it creates a strange tremor in its body and disappears by hiding itself in the sand. It is not found anywhere other than Jaisalmer in Rajasthan, but  is also believed to occur in the desert across the border in Pakistan. Thus, this species is endemic to the Thar desert. However, this lizard’s habitat has definitely suffered due to unnecessary plantations in the desert.

Authors:

Dr. Dharmendra Khandal (L) has worked as a conservation biologist with Tiger Watch – a non-profit organisation based in Ranthambhore, for the last 16 years. He spearheads all anti-poaching, community-based conservation and exploration interventions for the organisation.

Mr. Ishan Dhar (R) is a researcher of political science in a think tank. He has been associated with Tiger Watch’s conservation interventions in his capacity as a member of the board of directors.

 

Cover Photo Caption & Credit: The reason for which this lizard has the descriptor ‘toad-headed’ in it’s vernacular name (Dr. Dharmendra Khandal)

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