स्थानीय रूप से “खड़मोर” कहलाये जाने वाला, लेसर फ्लोरिकन (Sypheotides indica) भारतीय उपमहाद्वीप की स्थानिक तथा एक लुप्तप्राय प्रजाति है। प्रजनन काल में नर लेसर फ्लोरिकन की छलांग, इस बस्टर्ड की विशिष्ट विशेषता है। नरों द्वारा यह प्रदर्शन अन्य नरों को उसके क्षेत्र में घुसने से रोकने तथा संभोग के लिए मादाओं को बुलाने में मदद करता है।
(Photo: Nirav Bhatt)
प्रजनन काल में प्रत्येक नर अपना इलाका बनाता है परन्तु अगर अन्य नर द्वारा इलाके में दखलंदाजी की जाए तो दो नरों के बीच में लड़ाई भी हो जाती है।
लड़ाई के लिए दोनों नर अपनी पूंछ और कलगी के पंखों को ऊपर की ओर उठाते हुए, एक दूसरे के सामने चक्कर लगाते हैं और पंखों की एक झड़ी के साथ एक-दूसरे पर हमला कर देते हैं।
लड़ाई के दौरान ये एक दूसरे पर अपनी चोंच और पंजों से लगातार तेजी से वार करते हैं। जैसे ही किसी एक नर को दूसरा नर धक्का दे कर पीछे खदेड़ देता है, तो लड़ाई समाप्त हो जाती है।
विजेता नर उस इलाके का मालिक बनता है तथा उस क्षेत्र सीमा में आने वाली सभी मादाये भी उसी नर की होती हैं।
इस प्रकार की लड़ाइयां मुख्यरूप से उस समय देखी जाती हैं जब क्षेत्र व सीमाओं का चुनाव किया जा रहा होता है। एक बार इलाकों का बटवारा हो जाता है तो नर आमतौर पर अपने इलाके में ही रहते हैं।
अक्सर रात के समय फूलों के आसपास तितलियों जैसे दिखने वाले कुछ कीट मंडराते हुए देखने को मिलते हैं जिन्हें “मॉथ” कहा जाता है। दरसल तितलियाँ, मॉथ से विकसित हुई हैं और एक ही वर्ग के सदस्य होने के कारण ये काफी समान होते हैं। परन्तु मॉथ केवल रात में ही सक्रिय रहते हैं। मॉथ कुल में कई वर्ग पाए जाते हैं जिनमें से एक है “हॉक मॉथ” जो आकार में काफी बड़े होते हैं तथा इनका नाम इनके तेजी व फुर्ती से उड़ने और फूलों का रस पीते समय एक ही स्थान पर तेजी से पंख चलाते हुए मंडराने (hovering) के कारण रखा गया है। राजस्थान में अभी तक सभी मॉथ प्रजातियों का कोई गहन दस्तावेज नहीं है, परन्तु अरावली पर्वत श्रेणी व उसके आसपास मॉथ की कुल 56 प्रजातियां दर्ज की गई है। हाल ही में अजमेर जिले में चार मॉथ प्रजातियां देखी गयी और ये प्रजातियां किसी भी सूची में शामिल नहीं हैं। राजस्थान में मॉथ प्रजतियों के ऊपर गहन शोध की आवश्यकता है
राजस्थान स्थित मरुभूमि राष्ट्रीय उद्यान के एक फोरेस्टर ने रेड सेंड बोआ (Eryx johnii) और सांडा छिपकली (Saara hardwickii) के मध्य एक रोचक व्यवहार देखा…
सांडा का शिकार करने के लिए बोआ उसके बिल के द्वार पर घात लगा कर बैठ जाता है, ताकि जब भी सांडा बाहर आएगी उस पर हमला कर दिया जाए। सांडा अपना बिल अपने आकार के अनुसार बनाती है तथा ऐसे में यदि कभी बोआ बिल में घुस भी जाए तो सांडा पकड़ने व निगल पाने जितनी जगह नहीं मिल पाती है, इसीलिए यह बिल के बाहर ही इंतज़ार करता है। कभी-कभी ऐसा भी होता है की सांडा बिल के बाहर ही होती है तब भी बोआ बिल के बाहर बैठ इंतज़ार करता है, क्योंकि सांडा छिपकली खतरा महसूस होने पर अपने बिल की ओर लौटती है। चाहे आसपास कितने भी बिल हो और उसका बिल कितना भी दूर ही क्यों न हो पर वह जाएगी सिर्फ अपने ही बिल में।
एक बार सांडा छिपकली, बोआ के सामने आजाये तो वो उस पर हमला कर, उसके शरीर पर अपनी पूँछ लपेट कर सांडा को जकड लेता है। बोआ एक विषहीन सांप है इसलिए वह अपने शिकार को दम घोंट के मारने की कोशिश करता है।
फिर धीरे-धीरे उसे ज़िंदा निगल जाता है। सांडा की पूँछ पर कांटे होते हैं और इसीलिए बोआ इसे मुँह की तरफ से ही जकड़ता व निगलता है। सांडा को निगल लेने के बाद यदि किसी कारण से बोआ को उसे वापिस उगलना पड़े तो सांडा के कांटे बोआ के लिए मुश्किल भी बन जाते हैं।
सियार (Golden Jackal) जिसे राजस्थानी स्थानीय भाषा में “गेदुआ” कहा जाता है अपने आहार के अनुसार अवसरवादी होते हैं , प्रायः मरे हुए जानवरों को तो खाते ही हैं लेकिन कभी मौका मिले तो छोटे जानवरों का शिकार भी कर लेते हैं। इनका आहार बहुत विविध होता है जिसमें ये कई प्रकार के जीवों जैसे चिंकारा, खरगोश और तीतर-बटेर जैसे ज़मीनी पक्षियों के साथ-साथ गावों के आसपास रहकर बकरियों, भेड़ों और बछड़ों जैसे छोटे पशुधन का शिकार कर भी खा जाते हैं। ये जोड़ों में रहते हैं लेकिन कई बार जब अवयस्क बच्चे भी साथ होते हैं तो एक छोटा समूह भी बन जाता है। यह साथ में भोजन करते हैं परन्तु कई बार दूसरे समूह के सदस्य पास आने पर अपने भोजन को बचाने के लिए उनसे लड़ाई भी हो जाती है।ऐसी ही
एक घटना मैंने भी देखी…
उस दिन मैं हमेशा की तरह गिद्ध देखने के लिए निकला और कुछ दुरी पर मैंने देखा की कुछ गिद्ध और 5-6 अवयस्क सियार जो कि एक मृत गाय के शव को खा रहे थे।
थोड़ा ही समय बीता था कि कुछ वयस्क सियार वहां आ गए और मुख्य संघर्ष शुरू हो गया।
कुछ समय के भीतर व्यस्क सियारों ने सभी गिद्धों को वहां से उड़ा दिया, परन्तु अवयस्क सियार अपने भोजन को बचाने के लिए संघर्ष करने लगे। कुछ समय संघर्ष चला परन्तु अवयस्क सियार हार गए और उन्हें वहां से जाना पड़ा।
ये तस्वीरें उनमें से कुछ हैं, जो मूल रूप से भोजन के लिए लड़ाई और अवयस्क सियारों के ऊपर वयस्कों के प्रभुत्व को दर्शा रही हैं।
हिरणों के बड़े-बड़े, शाखाओं वाले सींगों को ऐंटलर्स कहा जाता है जो हर वर्ष गिरते हैं और फिर से नए उगते हैं। नए उगने वाले सींगों के ऊपर एक मखमली परत पायी जाती है जो सींगों को बढ़ने के लिए पोषण देती है। यह परत एक प्रकार की त्वचा है, जिसमें रक्त वाहिकाएं और नसे भरपूर होती हैं।
PC: Dr. Dharmendra Khandal
ऐंटलर्स के पूरी तरह से विकसित हो जाने के बाद ये परत सूखने तथा धीरे-धीरे हटने लगती और इस परत को ट्री-पाई (Rufous treepie) बहुत चाव से खाते हैं क्योंकि ये ट्री-पाई जैसे पक्षी जिनको प्रोटीन की आवश्यकता होती है के लिए एक अच्छा प्रोटीन युक्त भोजन श्रोत होती है।
गोह छिपकली की एक अनजाने शिकार के कारण हुई आकस्मिक मौत …
जून की गर्मियों में, जुवेनाइल गोरैया की तलाश में मैं अक्सर अपने बगीचे में घूमा करता था। किसी एक रोज़ पानी की टंकी की ओर हलचल ने मेरा ध्यान आकर्षित किया, देखने पर मैने वहां एक जुवेनाइल गोह छिपकली को पाया। उसकी कोमल त्वचा हल्का पीलापन लिए हुए हरे रंग की थी। मेरी मौजूदगी से बेपरवाह उसने मुझे कुछ तसवीरें लेने दी, कुछ देर बाद मैं, उसे धूप सेंकते हुए छोड़ आया।
किशोर गोह (फोटो: श्री धर्म वीर सिंह जोधा)
टंकी की दिवार के पास किशोर गोह (फोटो: श्री धर्म वीर सिंह जोधा)
मैं उसे नियमित रूप से बगीचे में छोटे कीटों को खाते और टंकी की दीवार पर आराम करते हुए देखता था। समय के साथ वह बड़ी और मानव उपस्थिति के प्रति संवेदनशील हो रही थी।
बगीचे में छोटे कीटों को खाते हुए व् धुप सेकती हुई किशोर गोह (फोटो: श्री धर्म वीर सिंह जोधा)
देखते-देखते महीना बीता, जुलाई के आरंभ में मैने पाया कि उसके त्वचा में काफी परिवर्तन हुए हैं। उसकी त्वचा पहले जैसी कोमल न रही, और उसका रंग भी भूरेपन में बदल गया। शारीरिक बदलावों से परे उसकी दिनचर्या में कोई बदलाव ना आया।
व्यस्क गोह (फोटो: श्री धर्म वीर सिंह जोधा)
व्यस्क गोह (फोटो: श्री धर्म वीर सिंह जोधा)
फिर एक दिन मैंने उसे कुछ ऐसा करते देखा जो मैंने पिछले दिनों में कभी नही देखा था। वह गोह, एक एशियाई कॉमन टोड को निगलने की कोशिश कर रही थी। मैं जल्दी से अपना कैमरा लाया और उस पल को फ़ोटो और वीडियो के जरिये कैद करने लगा। वह छिपकली, टोड को पकड़ने में सफल हुई और उसे अपने मुँह में ले, एक बेलपत्र के पेड़ पर चढ़ गई। अपनी तस्वीरों से संतुष्ट मेने उसे जाने दिया।
एशियाई कॉमन टोड को निगलते हुए गोह (फोटो: श्री धर्म वीर सिंह जोधा)
अगले दिन, वह थोड़ा सुस्त दिखाई दी, ऐसा प्रतीत हो रहा मानो उसे लकवा मार गया हो, अंततः शाम को मोसम्मी के पेड़ के नीचे उसका मृत शरीर पाकर में हैरान हो गया। उसकी आकस्मिक मौत का कारण मैं समझ नही पा रहा था। इस संबंध में मैंने श्री अनिल त्रिपाठी से मदद ली, और उन्हें ये पूरा घटनाक्रम बताया। उन्होंने मुझे बताया कि टोड्स की आंखों के ऊपर पैरोटिड ग्रंथियां होती हैं, जब उनपर शिकारियों द्वारा हमला किया जाता है तो वे इन ग्रंथियों के माध्यम से बफ़ोटोक्सिन नामक एक विष का स्राव करते हैं। इसी रक्षा तंत्र के कारण ज्यादातर शिकारी इन पर हमला नहीं करते है। लेकिन मेरे निष्कर्ष के अनुसार किशोर गोह छिपकली को एशियाई कॉमन टॉड के इस रक्षा तंत्र के बारे में नहीं जानती थी। जैसा कि तस्वीरों में देखा जा सकता है छिपकली ने टोड को सिर की तरफ से निगलने की कोशिश की और टॉड ने उसके मुंह के अंदर विष डालना शुरू किया। संभवतः इसके कारण कार्डियक अरेस्ट (cardiac arrest) हुआ और न्यूरल एक्टिविटी (neural activity) में रुकावट आई और फिर अंत में छिपकली की मौत हो गई।
मृत गोह (फोटो: श्री धर्म वीर सिंह जोधा)
नोट: यह फोटो स्टोरी सिर्फ मेरा अवलोकन है न कि वैज्ञानिक मूल्यांकन।