राजस्थान की वन्यजीवों से टक्कर लेने वाली गाय की नस्ल : ‘नारी’

राजस्थान की वन्यजीवों से टक्कर लेने वाली गाय की नस्ल : ‘नारी’

 

राजस्थान में गाय की एक नस्ल मिलती है जिसे कहते है ‘नारी’, शायद यह नाम इसकी नाहर (Tiger) जैसी फितरत होने के कारण पड़ा है। सिरोही के माउंट आबू  क्षेत्र की तलहटी में मिलने वाली यह माध्यम आकर की गाय अपने पतले लम्बे सींगों से बघेरों से भीड़ जाती है। अक्सर जंगल में बघेरो से उन्हें अपने बछड़ो  को बचाते हुए देखा जाता है अथवा कई बार अपने मालिक को वन्यजीव से मुठभेड़ में फंसा देख, यह वन्य जीव पर टूट पड़ती है। यदि इन पर वन्य जीव हमला करते है तो यह आवाज निकाल कर अन्य गायों को अपने पास बुला लेती है, जबकि सामान्य तय अन्य गायों की नस्लें दूर भाग जाती है।

फोटो :- अंजू चोहान

नेशनल ब्यूरो ऑफ़ एनिमल जेनेटिक रिसोर्सेज, करनाल, हरियाणा (NBAGR) ने इसे कुछ समय पहले ही इसे एक अलग मवेशी की नस्ल के रूप में मान्यता दी है। इस नस्ल का विस्तार- राजस्थान के सिरोही, पाली एवं गुजरात के  बनासकांठा, साबरकांठा आदि क्षेत्रों में है। यह नस्ल लम्बी दुरी तय कर चराई के लिए ले जाने के लिए उपयुक्त है।

सफ़ेद और स्लेटी रंग की यह गाय स्वभाव में अत्यन्त गर्म होती है एवं इसके सींग बाहर की और मुड़े होते है, एवं यह कृष्ण मृग (Blackbuck) की भांति घूमे हुए होते है । इनके आँखों की पलकों के बाल सामान्यत सफ़ेद होते है। यह 5-9 लीटर तक दूध दे सकती है, वहीँ इनके नर (बैल) माल वाहन के लिए भी उपयुक्त होते है। कहते है यह गाय अत्यंत बुदिमान नस्ल है जो पहाड़ो के रास्तों में सहजता से चरने चली जाती है एवं कम चराई में अच्छा  दूध देती है।  यह बिमारियों एवं अन्य व्याधियों से भी कम ही ग्रसित होती है साथ ही इनका कम लागत में पालन पोषण संभव है। यदि आप वन्य जीवो से प्रभावित क्षेत्र में रहते है तो यह गाय पलना उपयुक्त होगा।

आज भी हमारी जैव विविधता में कई अनछुए हर्फ़ है, इन्हे संरक्षित रखना हमारी जिम्मेदारी है

 

लेखक:

Dr. Dharmendra Khandal (L) has worked as a conservation biologist with Tiger Watch – a non-profit organisation based in Ranthambhore, for the last 16 years. He spearheads all anti-poaching, community-based conservation and exploration interventions for the organisation.

Mr. Rajdeep SIngh Sandhu (R)  :-is a lecturer of political science. He is interested in history, plant ecology and horticulture.

वेडर्स ऑफ द इंडियन सबकॉन्टीनैन्ट: भारतीय उपमहाद्वीप के परिप्रक्ष में एक बेहतरीन सन्दर्भ ग्रन्थ

वेडर्स ऑफ द इंडियन सबकॉन्टीनैन्ट: भारतीय उपमहाद्वीप के परिप्रक्ष में एक बेहतरीन सन्दर्भ ग्रन्थ

जलाशयों के किनारे-किनारे, जल रेखा व कीचड़युक्त आवास को पसंद करने वाले पक्षियों को ‘‘वेडर्स’’ नाम से जाना जाता है। इस वर्ग के पक्षी तैरते नहीं हैं बल्कि पानी के किनारे-किनारे या कुछ दूर पानी या कीचड़ में चलते हुये ही भोजन ढूंढते हैं। इस वर्ग के कुछ पक्षी पानी के अन्दर उगे पौधों की पत्तियों या दूसरी तैरती हुई वस्तुओं पर भी चलकर अपना भोजन ढंूढ लेते हैं। इस वर्ग में स्नाइप, जकाना, ऑयस्टरकैचर, प्लोवर, लैपविंग, वुडकॉक, गौडविट करलेव, विमब्रेल, रैडशैंक, ग्रीनशैंक, सेन्डपाइपर, टैटलर, टर्नस्टोन, डॉविचर, सैन्डरलिंग, स्टिन्ट, रफ, आइबिसबिल, स्टिल्ट, एवोसेट, फैलारोप, थिक-नी, करसर एवं प्रेटिनकॉल शामिल हैं।

इस वर्ग के अनेक पक्षियों को सही-सही पहचानना कई वर्ष तक पक्षी अवलोकन करने के बाद भी कठिन लगता है। प्रायः कई पक्षियों के अच्छे क्लोज अप फोटो खींच लेने के बाद फोटो को तसल्लीपूर्वक देखने पर भी पहचान में संशय बना रहता है। वेडर वर्ग के देशान्तर गमन कर सर्दी में हमारे जलाशयों पर पहुंचने वाले पक्षियों को भी पहचानने में कठिनाई बनी रहती है।

इस कठिनाई को दूर करने का सराहनीय प्रयास भारत के जाने-माने पक्षीविद   श्री हरकीरत सिंह संघा ने किया है। विशेष बात यह है कि श्री संघा राजस्थान के निवासी हैं। उन्होने जो स्तुतियोग्य पुस्तक प्रकाशित की है उसका विवरण निम्न है:-

पुस्तक का नाम  :-  वेडर्स ऑफ द इंडियन सब-कॉन्टीनेन्ट ( Waders of the Indian subcontinent )
भाषा                :- अंग्रेजी
पृष्ठ संख्या         :-  XVI + 520
प्रकाशन वर्ष      :- 2021
प्रकाशक           :- लेखक स्वयं (विष्व प्रकृति निधि-भारत के आंषिक सहयोग से)
मूल्य                 :-3500.00 रूपये
मंगाने का पता     :- श्री हरकीरत सिंह संघा, बी-27, गौतम मार्ग, हनुमान नगर,
जयपुर-302021, भारत

इस संदर्भ ग्रन्थ में 84 प्रजातियो के वेडर वर्ग के पक्षियों का विस्तृत विवरण प्रस्तुत किया है। प्रत्येक प्रजाति के स्थानीय नाम, पुराने नाम, वितरण, फील्ड में  पहचानने हेतु विशेष गुणों की जानकारी, शारीरिक नाप, आवास, स्वभाव, भोजन, प्रजनन, गमन, संरक्षण स्थिति आदि की विस्तृत, आद्यतन एवं प्रमाणिक जानकारी प्रस्तुत की गई है। पुस्तक में 450 रंगीन फोटो, 540 पेन्टिंग, उपमहाद्वीप में वितरण को स्पष्टता से प्रदर्शित करने वाले रंगीन मैप आदि प्रचुरता से दिये गये हैं। इतनी सामग्री को एक ही जगह सहज उपलब्धता से हम फील्ड में वेडर्स को अच्छी तरह पहचान सकते हैं। इस पुस्तक की छपाई अच्छी है एवं कागज भी उत्तम क्वालिटी का प्रयोग किया गया है। कवर पेज आकर्षक व विषय को सार्थक करता है। कुल मिलाकर यह ग्रन्थ गागर में सागर है।

यह पुस्तक भारत, बांगलादेश, भूटान, मालद्वीप, नेपाल, पाकिस्तान, श्रीलंका एवं चांगोस, जो कि भारतीय उपमहाद्वीप के देश हैं, सभी के लिये समान रूप से उपयोगी है।

यह पुस्तक पठनीय व संग्रहणीय है। इसे सहजता से फील्ड में उपयोग किया जा सकता है। यह पुस्तक हर पक्षी अवलोकक के लिये बहुत ही उपयोगी फील्ड गाइड तो है ही, शोधार्थियों व अध्यापकों हेतु भी अत्यंत उपयोगी संदर्भ है।

कार्वी: राजस्थान के फूलों की रानी

कार्वी: राजस्थान के फूलों की रानी

कर्वी (Storbilanthescallosa) दक्षिणी अरावली की कम ज्ञात झाड़ीदार पौधों की प्रजाति है। यह पश्चिमी घाट और सतपुड़ा पहाड़ियों में एक प्रसिद्ध प्रजाति है, लेकिन राजस्थान के मूल निवासियों से ज्यादा परिचित नहीं है। यह अद्भुत प्रजाति आठ साल में एक बार खिलती है। पश्चिमी घाट में, इसका अंतिम फूल 2016 में देखा गया था और अगला फूल आठ साल के अंतराल के बाद 2024 में होगा।

दक्षिणी अरावली के सिरोही जिले में माउंट आबू वन्यजीव अभयारण्य कर्वी स्क्रब के लिए प्रसिद्ध है। यह अद्भुत झाड़ीदार प्रजाति माउंट आबू की ऊपरी पहुंच के पहाड़ी ढलानों तक ही सीमित है। यह इस खूबसूरत पहाड़ी के निचले क्षेत्र और निचली ढलानों में अनुपस्थित है। माउंट आबू के अलावा जोधपुर से भी कर्वी की खबर है। लेकिन यह बहुत ही असामान्य है कि जोधपुर में उच्च वर्षा क्षेत्र की एक प्रजाति देखी जाती है। दक्षिणी राजस्थान के फुलवारी-की-नल और सीतामाता वन्यजीव अभयारण्यों के कई हिस्सों में कर्वी के बड़े और निरंतर पैच देखे जा सकते हैं। यह प्रजाति उदयपुर और राजसमंद जिलों के संगम पर जरगा पहाड़ियों और कुभलगढ़ पहाड़ियों में भी पाई जाती है। कर्वी के छोटे-छोटे पैच जर्गा हिल्स में नया जरगा और जूना जर्ग मंदिरों के आसपास देखे जा सकते हैं। माउंट आबू के बाद, जरगा हिल्स राजस्थान की दूसरी सबसे ऊंची पहाड़ी है।

कर्वी एक सीधा झाड़ी है, ऊंचाई में 1.75 मीटर तक बढ़ता है। इस प्रजाति की पत्तियाँ अण्डाकार, बड़े आकार की, दाँतेदार किनारों वाली होती हैं। पत्तियों में 8-16 जोड़ी नसें होती हैं जो दूर से स्पष्ट दिखाई देती हैं। चमकीले नीले फूल पत्तियों की धुरी में विकसित होते हैं जो न केवल तितलियों और मधुमक्खियों को बल्कि मनुष्यों को भी आकर्षित करते हैं।

कर्वी स्ट्रोबिलैन्थेस से संबंधित है, फूल वाले पौधे परिवार एसेंथेसी के जीनस से संबंधित है। इस जीनस की लगभग 350 प्रजातियाँ विश्व में पाई जाती हैं और लगभग 46 प्रजातियाँ भारत में पाई जाती हैं। राजस्थान में, इस जीनस की केवल दो प्रजातियों को जाना जाता है, अर्थात् स्ट्रोबिलेंथेस्कैलोसा और स्ट्रोबिलेंथेशालबर्गि। इनमें से अधिकांश प्रजातियां एक असामान्य फूल व्यवहार दिखाती हैं, जो 1 से 16 साल के खिलने वाले चक्रों में भिन्न होती हैं। स्ट्रोबिलांथेसकुंथियाना या नीलकुरिंजी, जिसका 12 साल का फूल चक्र होता है, दक्षिण भारत के पश्चिमी घाट, विशेष रूप से नीलगिरी पहाड़ियों का प्रसिद्ध पौधा है। हर 12 साल में एक बार नीलकुरिंजी खिलता है। पिछले 182 वर्षों की अवधि के दौरान, यह केवल 16 बार ही खिल पाया है। यह वर्ष 1838, 1850, 1862, 1874, 1886, 1898, 1910, 1922, 1934, 1946, 1958, 1970, 1982, 1994, 2006 और 2018 में खिल चुका है। अगला फूल 2030 में दिखाई देगा। रंग का फूल इसलिए नाम नीलकुरिंजी। जब यह बड़े पैमाने पर खिलता है, तो नीलगिरि पहाड़ियाँ ‘नीले रंग’ की हो जाती हैं, इसलिए नीलगिरि पहाड़ियों को उनका नाम ‘नीलगिरी’ (नील = नीला, गिरि = पहाड़ी) मिला। नीलगिरी में जब नीलकुरिंजी खिलता है, तो इस फूल वाले कुंभ को देखने के लिए बड़ी संख्या में पर्यटक वहां पहुंचते हैं। इस प्रकार, नीलकुरिंजी-केंद्रित पर्यावरण-पर्यटन नीलगिरी में रोजगार के अवसर पैदा कर रहा है।

कर्वी (स्ट्रोबिलांथेस्कलोसा) को “राजस्थान का नीलकुरिंजी” कहा जा सकता है। इसका आठ साल का खिलने वाला चक्र है। यह आठ साल में एक बार खिलता है। यानी इस प्रजाति में एक सदी में सिर्फ 12 बार ही फूल आते हैं। एक साथ बड़े पैमाने पर फूल आने के बाद, सभी पौधे एक साथ मर जाते हैं जैसे ‘सामूहिक आत्महत्या’ फैशन में। इस प्रकार, कर्वी हमारे राज्य का एक मोनोकार्पिक पौधा है। कर्वी लंबे अंतराल में खिलने वाला फूल है, इसलिए इसके फूलों को प्लीटेसियल कहा जाता है, यानी वे लंबे अंतराल में एक बार खिलते हैं। अपने जीवन के पहले वर्ष के दौरान बीज के अंकुरण के बाद, कर्वी को आम तौर पर विकसित होने में सात साल लगते हैं और अपने आठ साल में खिल जाते हैं; इसके बाद जीवन में एक बार बड़े पैमाने पर फूल आने के बाद, झाड़ियाँ अंततः मर जाती हैं। गर्मियों के दौरान, कर्वी झाड़ियाँ सूखी, पत्ती रहित और बेजान जैसी दिखती हैं, लेकिन मानसून की शुरुआत के बाद उनमें हरे पत्ते आ जाते हैं। इनकी पत्तियाँ बड़े आकार की होती हैं और पौधे बहुत कम दूरी पर बहुत निकट से उगते हैं और वन तल पर घना झुरमुट बनाते हैं। उनके जीवन के बीज अंकुरण वर्ष से लेकर सातवें वर्ष तक वर्षा ऋतु में केवल टहनियों के बढ़ने से पत्ते बनते हैं लेकिन आठवें वर्ष के मानसून के दौरान उनके व्यवहार में एक शक्ति परिवर्तन देखा जाता है। पत्तियों के अलावा, वे फूल भी पैदा करना शुरू कर देते हैं। अब बड़े पैमाने पर फूल अगस्त के मध्य से सितंबर के अंत तक देखे जा सकते हैं, लेकिन ढलानों के विभिन्न ऊंचाई पर मार्च तक छोटे पॉकेट में फूल देखे जा सकते हैं। पत्तियों के निर्वासन में स्पाइक्स में बड़े आकार के, दिखावटी, नीले फूल विकसित होते हैं। फूल परागकणों और अमृत से भरपूर होते हैं जो बड़ी संख्या में तितलियों, मधुमक्खियों, पक्षियों और अन्य जीवों की प्रजातियों की एक विस्तृत श्रृंखला को आकर्षित करते हैं।

आमतौर पर एक एकल कर्वी फूल का जीवनकाल 15 से 20 दिनों के बीच रहता है। फूल आने के बाद बड़े पैमाने पर फल लगते हैं। फल ठंड और गर्म मौसम में पकते हैं और अगले साल तक सूख जाते हैं। कर्वी के पौधों में बड़े पैमाने पर बुवाई देखी जाती है। इस व्यवहार को मास्टिंग कहा जाता है। पिछले सात वर्षों की पूरी संग्रहीत खाद्य सामग्री का उपयोग फूल, फल और बीज पैदा करने के लिए किया जाता है। अब पौधे पूरी तरह से समाप्त हो गए हैं। बीजों के परिपक्व होने के बाद, उनके अंदर के फल उन्हें बनाए रखते हैं। चूंकि, फलों में अभी भी बीज मौजूद होते हैं, इसलिए उन्हें प्रकृति की अनियमितताओं से अधिकतम सुरक्षा मिलती है। सूखे मेवे अपने मृत पौधों पर अगले मानसून की प्रतीक्षा करते हैं। अगले साल के मानसून की शुरुआत के साथ, फलों की पहली बारिश होती है और सूखे मेवे नमी को अवशोषित करते हैं और एक पॉप के साथ खुलते हैं। पहाड़ी, जहां कर्वी उगते हैं, सूखे बीज की फली के फटने की तेज आवाज से भर जाते हैं, जो विस्फोटक रूप से उनके बीजों को बिखरने के लिए खोलते हैं। अब जल्द ही नए पौधे अंकुरित होते हैं और जंगल के गीले फर्श में अपनी जड़ें जमा लेते हैं। इस प्रकार, कर्वी की पूरी मृत पीढ़ी को नई पीढ़ी द्वारा तुरंत बदल दिया जाता है। नमी और तापमान के कारण पुरानी पीढ़ी के मृत पौधे सड़ने लगते हैं। जल्द ही वे अपने ‘बच्चों’ के लिए खाद बन जाते हैं।

जब कर्वी फूल, सीतामाता अभयारण्य में भागीबाउरी से सीतामाता मंदिर तक और फुलवारी-की-नल अभयारण्य में लुहारी से सोनाघाटी तक, ट्रेकिंग को गुस्सा आता है। माउंट आबू अभयारण्य की ऊपरी पहुंच के सभी ट्रेकिंग मार्ग कर्वी के खिलने पर सुरम्य हो जाते हैं। कर्वी के फूलों के वर्षों के दौरान विशेष रूप से नया जरगा और जूना जर्गटेम्पल्स के पास जरगा पहाड़ियों की यात्रा एक जीवन भर की उपलब्धि है।

राज्य में कर्वी के खिलने के प्रामाणिक रिकॉर्ड गायब हैं। राज्य के विभिन्न हिस्सों में कर्वी के खिलने के रिकॉर्ड को बनाए रखना स्थानीय विश्वविद्यालयों और वन विभाग का कर्तव्य है। वन अधिकारियों को सलाह दी जाती है कि जब वे मैदान में हों तो प्रकृति की इस अद्भुत घटना का अनुभव करें। एक वन अधिकारी अपनी सेवा अवधि में मुश्किल से चार खिलते चक्र देख सकता है। कृपया कर्वी के अगले खिलने वाले मौसम की उपेक्षा न करें।

रणथम्भौर में अनाथ बाघ शावकों का संरक्षण

रणथम्भौर में अनाथ बाघ शावकों का संरक्षण

बाघिन के  मर जाने पर उसके बच्चों को पिता के रहते हुए भी अनाथ मान लिया जाता था और उनके बचने की सम्भावना को बहुत ही निम्न माना जाता था। ऐसे में रणथम्भौर के वन प्रबंधकों ने कठिन और चुनौतियों से भरी परिस्थितियों का सामना करते हुए उन शावकों का संरक्षण किया…

9 फरवरी 2011 की उस सुबह, सूरज पहली किरण के साथ ही, कचीदा चौकी के वन रक्षको की एक टीम कचीदा घाटी के लिए निकल पड़ी, क्योंकि रात भर से घाटी की निवासी बाघिन (T5) की दर्द से करहाने आवाज़े आ रही थी। घबराते और डरते हुए वन रक्षक एक बांध की ओर बढे और देखा कि, बाघिन चट्टान पर मरी पड़ी हुई थी। पीछे 3 महीने के दो शावकों को छोड़कर बाघिन T5 की बिमारी के कारण मौत हो गई थी। बाघ के शावक बेहद संवेदनशील होते हैं और इसीलिए बाघिनें अपने बच्चों के लिए बहुत समर्पित और गंभीर होती हैं। वो अपने शावकों की सुरक्षा और पालन-पोषण के लिए पूरे दो साल समर्पित करती हैं; इस बीच वो कई बार अपने क्षेत्र में प्रवेश करने वाले अन्य बाघों से लड़ाई भी कर लेती है तो कई बार गभीर रूप से घायल भी हो जाती है। साथ ही बाघ के शावक शिकार करने की कला जैसे की अपने शिकार का पीछा करना, चकमा देना, पकड़ बनाना और संभावित खतरों से बचना लगभग हर ज्ञान के लिए पूरी तरह से अपनी माँ पर निर्भर रहते हैं।

रणथम्भौर में पिछले सात सालों में ये चौथी दफा था जब किसी बाघिन की मौत हो गई और वह पीछे अपने शावकों को छोड़ गई थी। आमतौर पर, ऐसे मामलों में पहला विचार मन में यही आता है कि, शावकों को बचाने और जीवित रखने के लिए उन्हें पकड़ कर किसी सुरक्षित स्थान जैसे एक बाड़े (enclosure) में स्थानांतरित कर दिया जाए। लेकिन शावकों को इंसानों के इतने करीब रख के पालने से उनका जंगली स्वभाव बिलकुल खत्म हो जाता है।

हालांकि, रणथम्भौर में अनाथ शावकों के चार मामलों में, वन प्रबंधकों ने एक सहज तरीका अपनाया। यह प्रक्रिया बेहद कठिन और चुनौतियों से भरी थी, लेकिन इससे बाघों के व्यवहार पर कुछ अनोखे और आश्चर्यजनक अवलोकन मिले और इन सभी मामलों में रणथंभौर वन विभाग के कर्मचारियों का प्रयास निश्चित रूप से काबिल-ए-तारीफ है।

बाघिन T5 के तीन महीने के दो अनाथ शावक (फोटो: देश बंधु वैद्य)

बाघिनों का गर्भकाल केवल 90 से 110 दिनों का ही होता है और गर्भ का उभार अंतिम दिनों में ही दिखाई देता है ताकि बाघिन गर्भावस्था के दौरान भी ‘शिकार करने योग्य’ बनी रहे और न ही उस पर अतिरिक्त वजन का बोझ हो। लेकिन इस छोटे गर्भकाल का अर्थ यह भी है कि, शावकों का जन्म पूर्ण विकसित रूप में नहीं होता है, और उनमें कुछ विकास उनका जन्म के बाद होता हैं। वहीं शाकाहारी जीवों जैसे कि, हिरणों में, गर्भकाल की अवधि लंबी होती है तथा गर्भावस्था का एक स्पष्ट उभार उनकी जीवन शैली में कोई बाधा नहीं डालता है। लेकिन एक बार जब वे जन्म देते हैं, तो उनके बच्चे (fawn) पल भर में चलने लगते हैं। इसके विपरीत, बाघ के शावक बिलकुल असहाय, बहरे (उनके कान बंद होते हैं) और अंधे (पलकें कसकर बंद) पैदा होते हैं। इसीलिए, वे बहुत कमजोर और हर चीज के लिए पूरी तरह से अपनी मां पर निर्भर होते हैं। शुरूआती महीनों में बाघिन अपना अधिकतर समय शावकों की देख भाल में लगाती है और जैसे-जैसे शावक बड़े होते है यह समय कम होने लगता है।

अब कल्पना कीजिए क्या होगा जब, ऐसे ध्यान रखने वाली माँ की मृत्यु हो जाए और असहाय शावक पीछे अकेले छूट जाए।

परन्तु यह पहली बार नहीं था, रणथम्भौर में पहले भी अनाथ शावकों को जंगल में ही देखरेख कर उन्हें बड़ा किया जा चुका था। वर्ष 2002 में, एक बाघिन की अचानक मौत ने दो शावकों को अनाथ कर दिया था। ऐसे में रणथंभौर के प्रबंधकों ने उन्हें चिड़ियाघर भेजने के बजाय जंगल में ही उनकी देखभाल करने का फैसला किया। लेकिन उस समय कैमरा ट्रैप उपलब्ध नहीं होने के कारण वन विभाग अपनी सफलता को साबित नहीं कर सका। खैर जो भी हो, यह वन्यजीव प्रबंधन में एक नए अध्याय की शुरुआत थी।

अब, आधुनिक निगरानी तकनीकों और उपकरणों की उपलब्धता के साथ, अनाथ शावकों की इन-सीटू (in-situ) देखभाल के लिए किए गए प्रयासों को सही ढंग से दर्ज किया गया था। निम्नलिखित चार मामले रणथंभौर के अनूठे प्रयोग में आने वाली चुनौतियों और उससे मिलने वाली सफलताओं एवं व्यवहार संबंधी नई जानकारी को उजागर करते हैं। आइये जानते हैं इनके बारे में।

क्वालजी क्षेत्र के नर मादा शावक

1 सितंबर 2008 को, बाघिन T15 मृत पाई गई थी; और शरीर पूरी तरह से सड़ जाने के कारण मौत का कारण पता लगाना पाना बहुत मुश्किल था। वह अपने पीछे 7 महीने के दो शावकों, एक नर (T36) और एक मादा (T37) को छोड़ गई थी। इस घटना के बाद शावक गायब हो गए और वन रक्षकों द्वारा गहन खोज और प्रयासों के बावजूद भी कोई सफलता नहीं मिली। एक हफ्ता बीतते ही दौलत सिंह (एसीएफ) को पता चला कि, बाघिन कभी-कभी अपने शावकों के साथ इंडाला पठार पर भी जाती थी। टीम ने तुरंत इंडाला क्षेत्र में खोज करी और कुछ घंटों में ही, कई पगमार्क पाए गए। तुरंत एक भैंस के बछड़े के शव की व्यवस्था की गई क्योंकि शावक किसी जानवर को मारने के लिए बहुत छोटे थे और कैमरा ट्रैप तस्वीरों से पता चला कि, दोनों शावक रात में शव को खाने आए थे। इंडाला में कुछ दिन बिताने के बाद, शावक अपनी माँ के पसंदीदा क्षेत्र में लौट आए और वे वन विभाग द्वारा दिए गए भोजन पर ही जीवित रह रहे थे।
फिर लगभग 2 महीने बाद, शावक फिर से गायब हो गए, लेकिन इस बार एक उप-व्यस्क बाघिन, T18 की वजह से, जो खाली क्षेत्र पर कब्जा करने के लिए वहां आ गई थी।

विभाग ने खोज कर पता लगाया कि, नर शावक लकारदा क्षेत्र (रणथम्भौर का मध्य भाग) में मौजूद है। कुछ दिनों के बाद वह और आगे उत्तर में अनंतपुरा क्षेत्र में चला गया और अब तक वह पार्क के पूर्वी भाग से उत्तरी भाग में पहुंच चुका था। एक माँ की सुरक्षा न होने के कारण, उसे एक बार फिर से पार्क की पश्चिमी सीमा की ओर धकेल दिया गया।

दूसरी ओर, मादा शावक दक्षिण की तरफ चली गई। वह पार्क के दक्षिणी छोर पर चंबल के बीहड़ों की ओर पहुंच गई थी, लेकिन वापस लौटकर सवाई मानसिंह अभयारण्य में जोजेश्वर क्षेत्र में बस गई।

नर शावक अपना क्षेत्र स्थापित करने की तलाश में घूम ही रहा था कि, 21 मार्च 2009 को, वह एक खेत में घुस गया और स्थानीय लोगों ने उसे घेर लिया। दौलत सिंह और उनकी टीम ने उसको बचाया और रेडियो कॉलर लगाकर सवाई मानसिंह अभयारण्य के आंतरी क्षेत्र में उसे छोड़ दिया, क्योंकि वहां से एक मादा बाघ के पगमार्क की सूचना मिली थी। बाद में वह आंतरी से जुड़े हुए क्वालजी नामक क्षेत्र में चला गया।

बाघ T36 का रेस्क्यू ऑपरेशन (फोटो: डॉ धर्मेंद्र खांडल)

जून में, वह उस क्षेत्र की बाघिन के आमने-सामने आया, जो उसकी बहन T37 निकली! और फिर भाई-बहन की वह जोड़ी सवाई मानसिंह अभयारण्य के निवासी बन गए। हालांकि ऐसा अनुमान था कि, उप-वयस्क बाघ मानसून के दौरान वहां से चले जाएंगे, परन्तु वे रुके रहे और T36 ने क्वालजी को अपने क्षेत्र के रूप में कब्जे में ले लिया।

वर्ष 2010 में, एक अन्य नर बाघ, T42 क्वालजी पहुंचा और दुर्भाग्य से, एक लड़ाई में 20 अक्टूबर 2010 को, उप-वयस्क बाघ T36 ने दो साल और नौ महीने की उम्र में ही अपनी जान गंवा दी। उसकी मृत्यु के बाद, T42 T37 के साथ क्वालजी क्षेत्र में बस गया। समय के साथ यह जोड़ी पर्यटकों के बीच काफी लोकप्रिय भी हुई।

18 मार्च 2013 को बाघिन T37 के बीमार होने की सूचना मिली और शाम तक वह मृत पायी गई। जांच (Autopsy) से पता चला कि, उसके शरीर में बहुत अधिक चर्बी जमा थी और दिल के दौरे से उसकी मृत्यु हो गई।
हालांकि दोनों शावकों की दुखद मृत्यु हो गई, परन्तु वे वयस्कता तक पहुंच गए थे, जो कि, यह साबित करता है कि उचित देखभाल की जाए तो अनाथ शावक भी जीवित रह सकते हैं।

बेरदा वन क्षेत्र के शावक

4 अप्रैल 2009 को, 17-18 महीने की उम्र के दो उप-वयस्क शावकों को छोड़कर बाघिन T4 की मृत्यु हो गई। शावकों के लिए यह एक महत्वपूर्ण उम्र होती है, क्योंकि इस उम्र में ही उन्हें अपनी माँ से अधिकांश कलाएँ सीखनी होती है। इस बार भी इन दो शावकों में से एक नर (T40) और एक मादा (T41) थी। T15 के शावकों से लिए गए अनुभव से वन विभाग को भरोसा था कि, वे इन्हें भी पाल लेंगे। बेरदा क्षेत्र में पर्याप्त पानी और प्रचुर मात्रा में शिकार दो शावकों के लिए वरदान साबित हुआ। कुछ साल बाद वर्ष 2013 में T41 ने एक मादा शावक को जन्म दिया और रिकॉर्ड के अनुसार, वह पहली अनाथ बाघिन थी जिसने प्रजनन किया था। वहीं नर T40 पार्क से बाहर चला गया और जून 2010 के बाद से उसकी कोई खबर नहीं।

कचीदा क्षेत्र के शावक और उनका पिता

अब वापस कहानी पर आते हैं जहां बाघिन T5 की मौत तीन महीने के दो शावकों (B1 और B2) को छोड़कर हुई थी। विभाग का विचार था कि, शावक बहुत छोटे हैं और ऐसे में उन्हें सरिस्का भेज देना ही उचित होगा, जहां उन्हें एक बाड़े में पाला जाएगा। हालांकि, कुछ समय तक शावकों का कोई पता नहीं चला। लेकिन अंत में, एक वीडियो कैमरा ट्रैप से शावकों के उस स्थान पर आने की फुटेज प्राप्त की, जहां विभाग द्वारा उनके लिए भोजन और पानी रखा गया था। उन्होंने खाया, पिया और फिर गायब हो गए।

पार्क प्रबंधकों ने शावकों को पालने का फैसला किया परन्तु इस परिस्थिति में शावकों के लिए भोजन, पानी और सुरक्षा महत्वपूर्ण पहलु थे। भोजन और पानी का प्रबंध तो किया जा सकता था, लेकिन रणथभौर के घने जंगल में जहाँ कई अन्य जंगली जानवर भी मौजूद हैं सुरक्षा का वादा और पुष्टि नहीं दी जा सकती थी।
फिर एक दिन कचीदा रोड पर एक साथ दोनों शावकों और एक नर बाघ के पगमार्क मिले। और कैमरा ट्रैप की तस्वीरों ने पूरी कहानी का खुलासा किया जिसने बाघों के व्यवहार अध्ययन में एक नया अध्याय जोड़ दिया। तस्वीरों में एक शावक नर बाघ T25 के सामने चलते हुए देखा गया, जिसके बाद दूसरा शावक चल रहा था। यह एक असाधारण खोज थी कि, नर बाघ, जिसके क्षेत्र में शावक रह रहे थे, उनकी रक्षा कर रहा था। जहां अब तक यह माना जाता था कि, शावकों के पालन-पोषण में नर की कोई भूमिका नहीं होती है T25 के इस व्यवहार ने नर बाघों की अपनी संतानों की सुरक्षा और भलाई सुनिश्चित करने में महत्वपूर्ण भूमिका की ओर ध्यान आकर्षित किया। इन शावकों के पालन के दौरान किए गए प्रेक्षणों से पता चला कि, बाघों के व्यवहार को समझ पाना इतना आसान नहीं है और संतान के अस्तित्व में पिता की भूमिका भी अत्यंत महत्वपूर्ण होती है।

इन बढ़ते शावकों की जरूरतों को पूरा करने के लिए लगातार प्रयाप्त मात्रा में भोजन उपलब्ध कराये जाना बहुत जरुरी था और वो भी ऐसे कि, किसी दूसरे शिकारियों का ध्यान आकर्षित न हो। इसीलिए भोजन की मात्रा और देने की विधि समय-समय पर बदली जाती थी। विभाग द्वारा वैकल्पिक भोजन प्रदान कर, शावकों को शिकार करने के कौशल विकसित करने के लिए प्रोत्साहित किया गया। जिसमें शुरुआत में, वो बहुत अनाड़ी और बड़ी मुश्किल से अजीब तरीके से शिकार को मारते थे और उस समय तो बकरी भी शावकों पर हमला करने का साहस करती थी। हालांकि, शावकों ने तेजी से सीखा और जल्द ही वन्यजीवों को मारने में माहिर हो गए। इन शावकों के पालन-पोषण के दौरान, यह भी देखा गया कि, उनका पिता T25 उन्हें अपने द्वारा किए गए शिकारों को खाने के लिए ले जाता था।

चूंकि अब इस क्षेत्र पर किसी भी बाघिन का कब्जा नहीं था, T17 झीलों के आसपास रहने वाली बाघिन ने अपने क्षेत्र का विस्तार करना शुरू कर दिया, और खतरनाक रूप से उस क्षेत्र के करीब आ गई जहां अनाथ शावक रह रहे थे। ऐसे में एक वीडियो फुटेज सामने आया जिसमें बाघ T25, बाघिन T17 को डरा रहा था, क्योंकि वह शावकों का पीछा कर रही थी, और T25 स्पष्ट रूप से उसे शावकों से दूर रहने की चेतावनी दे रहा था। B1 और B2 वास्तव में भाग्यशाली थे कि, उन्हें अन्य बाघों से बचाने के लिए T25 जैसा पिता मिला।

नर बाघ T25 (मध्य में) अपने शावकों को बाघिन T17 से बचाते हुए | (फोटो: देश बंधु वैद्य)

अचानक से दस दिनों के लिए शावक गायब हो गए। विभाग ने तुरंत उनकों खोजना शुरू किया और हर उस इलाके को खोजै गया जहाँ उन्हें ः२५ के साथ देखा गया था परन्तु कोई निशान नहीं मिला।

फिर एक दिन, एक गार्ड ने अधिकारियों को सूचित किया कि, उसने एक पहाड़ी पर कुछ हिलते हुए देखा है। जब खोज दल लगभग आधा ऊपर चढ़ गया, तो उन्हें एक ऐसी जगह पता चली जो दो चट्टानों के बीच एक गहरी दरार थी और एक गुफा बनाती थी और वह इतनी संकरी थी कि उसमें केवल शावक ही घुस सकते थे। दरार के निचले हिस्से में एक अर्ध-गोलाकार चबूतरा सा था। शावक इसी दरार में रह रहे थे, बाहर आकर चबूतरे पर एक-दूसरे का पीछा करते और खेलते। दरार के पास, ऊपर की ओर लटकी हुई चट्टान थी, जिससे एक जल धारा बहती थी और तेज गर्मियों के दौरान भी वहां पानी का एक छोटा सा भरा रहता। उन छोटे शावकों ने इस शानदार घर की खोज कैसे की यह बात अपने आप में ही एक रहस्य है।

जैसे-जैसे शावक बड़े हुए, उन्हें धीरे-धीरे और बहुत सावधानी से विभाग द्वारा दिए जाने वाले शिकार की आदत छुड़वाई। धीरे-धीरे, उन्होंने अपने आप वन्यजीवों का शिकार करना शुरू कर दिया। हालांकि, बाघिन T17 का लगातार दबाव बना हुआ था, और वह इन शावकों के प्रति असहिष्णु हो रही थी। जिसके चलते, दोनों शावकों ने पार्क की बाहरी सीमा में अपना क्षेत्र बना लिया। उन्होंने क्षेत्र को दो इलाकों में बाँट लिया, और एक ऐसा क्षेत्र के बीच में रखा जहां वे अक्सर मिलते और साथ समय बिताते थे। परन्तु वे पार्क की सीमा के पास रहने वाले स्थानीय लोगों के साथ संघर्ष में आ सकते थे, इसलिए अधिकारियों द्वारा उन्हें सरिस्का भेजने का निर्णय लिया गया। वर्ष 2013 की सर्दियों में उन्हें सरिस्का भेज दिया गया था और उनमें से एक ने शावकों को भी जन्म दिया, जो इस कहानी की सफलता में और सकारात्मकता भर देती है।

सरिस्का में शावक B2। सरिस्का में स्थानांतरित होने के बाद शावकों को जन्म देने के बाद यह तस्वीर क्लिक की गई थी। फोटो: भुवनेश सुथार

झीलों की रानी और उसके तीन शावक

बाघिन T17 उर्फ़ लेडी ऑफ़ थे लेक्स (Lady of the Lakes) ने राजबाग झील के पास तीन शावकों को जन्म दिया था। जब बारिश का मौसम शुरू हुआ तो उसे अपने शावकों को उस जगह से ले जाना पड़ा, और वह झील के किनारे के इलाके को छोड़ कर काचिदा से आगे भदलाव नामक स्थान पर चली गई। वर्ष 2013 की सर्दियों में वह किसी अन्य बाघ के साथ लड़ाई में बुरी तरह घायल पाई गई थी। यह देख विभाग कर्मियों द्वारा उसका इलाज किया गया; उसके घाव गहरे थे जिनमें कीड़े पड़े हुए थे। उसे शिकार भी दिया गया ताकि वो खुद से शिकार करने की कोशिश में अपने घावों को और न बढ़ा ले। चोट लगे होने के बावजूद, अगले ही दिन वह नर बाघ T25 से लड़ती हुई पाई गई। और शायद तीन बढ़ते शावकों की जरूरतों को पूरा करने का दबाव पहली बार मां बनने वाली बाघिन के लिए मुश्किल साबित हो रहा था। फिर अप्रैल 2013 में, भदलाव इलाके में 10 महीने के तीन शावकों (2 नर और एक मादा) को छोड़कर, वह लापता हो गई। संयोग से ये शावक भी उसी क्षेत्र में थे जहां T5 के शावक थे। कई लोगों को उम्मीद थी कि, उनकी देखरेख भी T25 कर लेगा। भले ही वे उसके साथ B1 और B2 की तरह देखे नहीं गए थे, लेकिन यह स्पष्ट था कि, T25 ने इन अनाथ शावकों को सुरक्षा प्रदान की थी।

एक जंगल में अनाथ शावकों का भविष्य बड़ा ही अनिश्चित सा होता है। मां के बिना, कमजोर और असहाय शावकों के लिए जंगल एक क्रूर स्थान होता है जहाँ अन्य सभी जानवर व बाघ उनके दुश्मन होते हैं। लेकिन इस निराशाजनक स्थिति में भी वन प्रबंधकों के प्रयास और नियति रणथंभौर के इन अनाथ बच्चों के पक्ष में ही रही है।

(मूल अंग्रेजी आलेख का हिंदी अनुवाद मीनू धाकड़ द्वारा)

Cover photo credit: Dr. Dharmendra Khandal

अंग्रेजी आलेख “Foster Cubs” का हिंदी अनुवाद जो सर्वप्रथम दिसंबर 2018 में Saevus magazine में प्रकाशित हुआ था।

अंग्रेजी आलेख पढ़ने के लिए क्लिक करें: https://www.saevus.in/foster-cubs/

सरिस्का की समग्र सफलता का रास्ता और कितना लम्बा?

सरिस्का की समग्र सफलता का रास्ता और कितना लम्बा?

क्या सरिस्का में बाघों की संख्या में हुई वृद्धि इसकी समग्र सफलता का एक पैमाना हो सकती है ? या फिर अभी भी सरिस्का को एक सतत पारिस्थितिक तंत्र बनने के लिए काफी लम्बा सफर तय करना है ?

हाल ही में सरिस्का बाघ अभयारण्य में कई बाघिनों के शावकों के जन्म के कारण वन्यजीव प्रेमियों और संरक्षकों में ख़ुशी की एक लहर है क्योंकि, बाघों की एक छोटी आबादी को रणथम्भौर से सरिस्का लाये जानें के लगभग एक दशक के बाद ये वृद्धि देखने को मिली है। पिछले पांच वर्षों में बाघों की प्रजनन दर में लगातार वृद्धि देखी गई है, जो दर्शाती है कि, बाघों और उनके शावकों के लिए सरिस्का का पर्यावरण अनुकूल होता जा रहा है। लेकिन इस सफलता पर अभी भी कई सवाल मंडरा रहे हैं जैसे कि, क्या बाघों की ये बढ़ती आबादी वहां लाये गए बाघों के सफल विस्थापन का एक पैमाना हो सकती है?

क्योंकि यह वृद्धि अकेले इस कार्यक्रम की स्थिरता को तय करने के लिए निर्णायक नहीं हो सकती है। इसी क्रम में भरद्वाज एवं साथियों द्वारा, सरिस्का में बाघों द्वारा किये गए शिकारों के पैटर्न के अध्ययन से मालूम होता है कि, अभी सरिस्का को एक आत्मनिर्भर पारिस्थितिक तंत्र बनने के लिए काफी लम्बा रास्ता तय करना है (Bhardwaj et al 2020)।

बाघ जैसे शिकारी के जीवित रहने का सीधा संबंध उसके आवास, अन्य प्रतियोगी प्रजातियों की उपस्थिति और उसके आहार की गुणवत्ता एवं मात्रा से होता है और यदि आवास में पर्याप्त मात्रा में शिकार उपलब्ध न हो खासतौर से बड़ी शाकाहारी प्रजातियां तो बाघों का जीवित रहना और प्रजनन कर पाना नामुमकिन हो जाएगा। इसीलिए, आहार के प्रकार और मात्रा की जानकारी हमेशा से बाघ और तेंदुए जैसे माँसाहारी जीवों की पारिस्थितिकी के अध्ययन के बुनियादी चरणों में से एक रहा है तथा इससे ही एक पारिस्थितिक वैज्ञानिक को शिकारी एवं आहार प्रजाति के सम्बन्ध समझने में मदद मिलती है।

वर्ष 2004 में, अवैध शिकार के चलते सरिस्का में बाघों की पूरी तरह आबादी ख़त्म सी हो गयी थी उसके बाद 2008 में रणथम्भौर राष्ट्रीय उद्यान से सरिस्का टाइगर रिज़र्व में बाघों का विस्थापन किया गया और सरिस्का में कुल 21 बाघ हैं। (फोटो: श्री भुवनेश सुथार)

आज सरिस्का में कई बाघों को रेडियो कॉलर लगाया हुआ है क्योंकि, वर्ष 2004 में, अवैध शिकार के चलते सरिस्का में बाघों की पूरी तरह आबादी ख़त्म सी हो गयी थी उसके बाद 2008 में राष्ट्रीय बाघ सरंक्षण प्राधिकरण (National Tiger Conservation Authority (NTCA) द्वारा एक निर्णय लिया गया कि सरिस्का में वापस से बाघों को लाया जाएगा। उस निर्णय के चलते अलग-अलग चरणों में रणथम्भौर से कुल 5 बाघ (2 नर व 3 मादाएं) सरिस्का लाए गए थे। बाघों की इस छोटी आबादी को सरिस्का लाने का केवल एक यही उद्देश्य था, इनका प्रजनन करवा कर सरिस्का में फिर से बाघों की आबादी को बढ़ाना और यह निर्णय काफी हद्द तक सही भी साबित हुआ क्योंकि आज सरिस्का में कुल 21 बाघ हैं।

इन सभी बाघों की रेडियो कॉलर और कैमरा ट्रैप की सहायता से निगरानी की जाती है जिससे बाघों के इलाकों के क्षेत्रफल, उनके विचरण स्थान एवं पैटर्न और आपसी व्यवहार से सम्बंधित कई आकड़े प्राप्त होते हैं। तथा इन सभी आंकड़ों को सुरक्षित ढंग से समय-समय पर विश्लेषण किया जाता है ताकि बदलती परिस्थितियों के साथ नीतियों में भी उचित बदलाव किये जा सके।

रेडियो कॉलर की सहायता से मानव-मांसाहारी संघर्षों और आहार पैटर्न को भी समझा जा सकता है। (फोटो: श्री भुवनेश सुथार)

हालांकि बाघों की आहार पैटर्न का अनुमान मल विश्लेषण और शिकार से लगाया जा सकता है, परन्तु यह अध्यन पूरी तरह से बाघों द्वारा किये गए शिकारों पर आधारित है। इस अध्ययन में, जून 2016 से नवंबर 2018 तक, मुख्य रूप से बाघों की मॉनिटरिंग टीमों और बीट गार्ड द्वारा सरिस्का में बाघों और तेंदुए द्वारा किये गए शिकारों की विविधता और अन्य आंकड़ों का विश्लेषण कर बाघों के आहार पैटर्न और अभयारण्य में मवेशियों की उपस्थिति के रूप में मानवजनित दबाव का पता लगाया गया है।

क्योंकि आज सरिस्का में बाघों की आबादी निरंतर बढ़ तो रही है परन्तु अभयारण्य गंभीर रूप से मानवीय दबाव भी झेल रहा है क्योंकि सरिस्का के अंदर और आसपास कुल 175 गाँव स्थित हैं जिनमें से 26 गाँव (पहले 29 , तीन गाँवों के स्थानांतरण हो गया) क्रिटिकल टाइगर हैबिटेट (कोर क्षेत्र/Core Area) में हैं, और बाकी 146 गाँव वन क्षेत्र की सीमा से सटे व नज़दीक हैं इन 175 गाँवों में लगभग 14254 परिवार (2254 परिवार कोर क्षेत्र में और 12000 परिवार बाहरी सीमा) रहते हैं। मानव आबादी के साथ-साथ यहाँ भैंस, गाय, बकरी और भेड़ सहित कुल 30000 मवेशी (10000 अंदर और 20000 बाहरी सीमा पर) रहते हैं और इस प्रकार यह क्षेत्र गंभीर रूप से मानवीय दबाव में है।

सरिस्का के अंदर और आसपास कुल 175 गाँव स्थित हैं। (फोटो: डॉ धर्मेंद्र खांडल)

इसी कर्म में, मौजूदा अध्ययन के शोधकर्ताओं ने पुरे ढाई वर्ष (जून 2016 से नवंबर 2018) तक सभी 11 बाघों (उस समय मौजूद 11 वयस्क, 5 उप-व्यस्क और 1 शावक) की गतिविधियों (Movement Pattern), शिकार विविधता और स्थानों का अवलोकन किया। जिसमें स्थानांतरित किये गए रेडियो कॉलर्ड बाघों की निगरानी को प्राथमिकता दी गई तथा अन्य बाघों की निगरानी उनके पगचिन्हों और कैमरा ट्रैपिंग के आधार पर की गई।

बाघों की निगरानी करने के लिए कई समूह कार्यरत है। प्रत्येक समूह में दो व्यक्ति होते हैं, एक वन रक्षक और दूसरा स्थानीय ग्रामीण है जिसे रेडियो कॉलर, जी पी एस और पगमार्क द्वारा बाघों की निगरानी में प्रशिक्षित किया गया है। इन निगरानी दलों द्वारा बाघों की गतिविधि का स्थान व पैटर्न और शिकार की प्रजाति की जानकारी दर्ज की जाती और कण्ट्रोल रूम में भेजी जाती थी। शिकार की बहुतायत जानने के लिए लाइन ट्रांससेक्ट विधि का इस्तेमाल किया गया।

मांसाहारी जीवों की बदलती पारिस्थितिकी:

इस अध्ययन में बाघों और तेंदुओं द्वारा कुल 737 शिकार दर्ज किये गए, जिसमें से 500 (67.84 %) शिकार बाघों द्वारा और 227 (30.80 %) शिकार तेंदुओं द्वारा किये गए थे। बाकि 10 शिकारों की पहचान स्पष्ट नहीं हो पायी क्योंकि अधिकतम भाग खाया जा चूका था। शिकारों के सभी आंकड़ों के विश्लेषण के दौरान इनके आहार संबंधी प्राथमिकताओं में भारी परिवर्तन देखे गए हैं। क्योंकि, यदि शिकारों की विविधता को देखे तो, दर्ज किये गए सभी (n=737) शिकारों में से सबसे अधिक संख्या भैस 330 (44.48%) और उसके बाद गाय 163 (22.12%) की पायी गई। इसके अलावा सांभर 85 (11.53%), बकरी 81 (10.99%), चीतल 27 (3.66%), नीलगाय 18 (2.44%) और अज्ञात शिकार 11 (1.49%) रहे। इन सभी आंकड़ों में से यदि हम सिर्फ मवेशियों (भैंस, गाय, बकरी, भेड़, ऊंट और गधे) के शिकारों को देखे तो कुल 581 (78.83%) शिकार मवेशियों के थे।

बाघों द्वारा किये गए शिकार मुख्यरूप से मानव दबाव से रहित क्षेत्रों (Undisturbed areas) में देखे गए। कुल 500 शिकारों में से 77% मवेशी (livestock) थे जिसमें विशेषरूप से भैस (58%) शामिल थी तथा वन्यजीव शिकारों में सांभर (13.6%), चीतल (3.6%), नीलगाय (2.4%) और जंगली सुअर (1%) थे।

पशुपालन, सरिस्का के आसपास रहने वाले इन गांव वालों का मुख्या व्यवसाय है। (फोटो: डॉ धर्मेंद्र खांडल)

वैज्ञानिकों द्वारा यह माना जाता है कि, बाघ अपने शिकार को अवसरवादी रूप से मारता है यानी आसानी से मिलने वाले शिकार को पहले मारा जाएगा। ऐसे में सरिस्का जैसे क्षेत्र में मानवजनित दबाव (Anthropogenic disturbance) का हिसाब लगाने के लिए, मवेशी शिकारों (Livestock prey) के साथ वन्यजीव शिकारों (Natural Prey) के अनुपात को “अप्रत्यक्ष सूचक (Indirect index)” माना जा सकता है। ऐसे में सभी बाघों के लिए यह अनुपात 3.34 देखा गया क्योंकि, बाघों ने कुल 385 मवेशियों का शिकार किया जबकि वन्यजीव शिकार केवल 115 ही मारे गए और यह अनुपात रिज़र्व में मवेशियों की बहुतायत को दर्शाता है जो रिज़र्व के लिए अच्छा नहीं है।

यह अनुपात सबसे अधिक ST6 (17) और सबसे कम ST5 (0.8) एवं ST8 (1) के लिए पाया गया और इसका कारण यह है कि, दोनों बाघों के इलाके में वन्यजीव आहार का घनत्व अच्छा देखा गया है।

Sankar et al. द्वारा वर्ष 2010 में किए गए एक अध्ययन में पाया गया की सरिस्का में सांभर बाघों द्वारा खाये जाने वाला सबसे प्रमुख शिकार है और लगभग 45.2% शिकार सांभर के ही पाए गए तथा मवेशी (भैस और गाय) केवल 10.4% ही। इसके बाद एक अन्य अध्ययन में, सबसे अधिक सांभर (41.7%) और मवेशी (19.4%) दर्ज किया गया (Mondal et al 2012)। इसी तरह रणथम्भौर, जो आवास और वन प्रकार में सरिस्का जैसा ही है में देखा गया कि, बाघों द्वारा सबसे अधिक शिकार (54.54%) सांभर के ही किए जाते हैं और मवेशियों के 12.5%।

इस प्रकार सरिस्का में बाघों के आहार में मवेशी 10.4% (2010) से बढ़कर 19.4% (2012) हो गए। परन्तु इस अध्ययन में यह संख्या 77% पायी गई और बाघों द्वारा मवेशियों के शिकार में वृद्धि की यह खतरनाक दर स्पष्ट रूप से सरिस्का में चराई की तीव्रता में कई गुना वृद्धि का संकेत देती है।

लगातार बढ़ते अलवर शहर के प्रशिद्ध मिल्क केक व्यवसाय के कारण पिछले कुछ वर्षों में पशुपालन और भी बढ़ गया है तथा मवेशियों की इस बढ़ती हुई आबादी के कारण सरिस्का में अवैध चराई और मानवीय दबाव कई गुना बढ़ गया है। (फोटो: श्री भुवनेश सुथार)

सरिस्का में बाघ के बाद तेंदुआ बड़ी बिल्ली प्रजाति है तथा इसके द्वारा भी विभिन्न जीवों के शिकार किये जाते हैं। इसी कर्म में अध्ययन के दौरान तेंदुओं द्वारा कुल 227 शिकार किए गए जिनमें सबसे अधिक बकरियां (33.8%) थी और इसके अलावा गाय (31.1%), भैंस (16.7%), सांभर (7%), चीतल (3.9%) आदि थे तथा ज़्यादातर (76%) शिकार मानवीय बस्तियों के पास मानवजनित दबाव क्षेत्र में थे। साथ ही यह भी देखा गया है कि, सभी शिकारों में से एक बड़ा भाग 84.2% मवेशी शिकार थे।

तेंदुए द्वारा सबसे अधिक यानी 77 बार बकरियों का शिकार किया गया। परन्तु इसका अर्थ यह नहीं है कि, सिर्फ इतनी ही बकरियां मारी गई है बल्कि यह सिर्फ घटनाओं की संख्या है। दरअसल इन 77 घटनाओं में कुल 169 बकरियों का शिकार किया गया है और हर घटना में लगभग 1-12 बकरियां मारी गई थी। तथा भैसों के कुल 37 शिकारों में से 28 तो बछड़े ही थे यानी तेंदुए द्वारा व्यस्क भैसों का शिकार बहुत कम हुआ है।

इस अध्ययन में देखा गया कि, सरिस्का में तेंदुए द्वारा किये गए अधिकाँश शिकार मानव बस्तियों के पास देखे गए जबकि बाघ ने आबादित क्षेत्र से दूर शिकार किये थे। और ये दोनों ही क्षेत्र अलग-अलग होने के कारण इनमें संघर्ष स्थिति नहीं देखी गई। हालांकि बाघ और तेंदुए के देखे गए आहार में बड़े पैमाने पर मवेशी शामिल हैं, परन्तु जहाँ एक ओर बाघ बड़े से मध्यम आकार के पशु (भैंस>गाय>बकरी) पसंद करता है वहीँ दूसरी ओर तेंदुए को छोटे से मध्यम आकार के पशु (बकरी>गाय>भैंस) अधिक पसंद है।

सरिस्का बाघ अभयारण्य (फोटो: श्री भुवनेश सुथार)

बाघ एक अकेला रहने वाला जीव है साथ ही प्रत्येक बाघ को जीवित रहने के लिए आवश्यक भोजन, प्रजनन के लिए साथी और रहने का स्थान बहुत आवश्यक होता है। परन्तु, मानव प्रधान (human dominated) पर्यावास में जहां मवेशियों की उपलब्धता प्राकृतिक शिकार से अधिक होती है, तथा ऐसे में मानवीय दबाव वाले ये क्षेत्र बाघों के लिए कुछ हद्द तक महत्वपूर्ण हो जाते हैं। बाघ जैसे बड़े शिकारियों के लिए भी, जंगल में शिकार करना कोई आसान काम नहीं है और आम तौर पर दस प्रयासों में से एक बार सफलता मिलती है। बाघ अपनी ऊर्जा बनाये रखने के लिए बड़े जानवरों का शिकार करना अधिक पसंद करते हैं। यदि वन क्षेत्र में मानवीय दबाव न हो तो सांभर बाघ का पसंदीदा शिकार होता है लेकिन सरिस्का जैसे मानव-प्रधान क्षेत्र में जहाँ मवेशियों की संख्या अधिक है, बाघ शिकार करने में आसानी होने के कारण मवेशियों का शिकार करना अधिक पसंद करता है।

इस प्रकार, बाघों द्वारा मवेशियों का अधिक शिकार यह दर्शाता है कि, रिजर्व में मवेशियों की संख्या अधिक है जिन्हें अन्य शिकार की तुलना में मारना कहीं अधिक आसान है।

पशुपालन को सरिस्का के आसपास रहने वाले स्थानीय समुदायों में प्राथमिक व्यवसाय के रूप में देखा गया है ऐसे में लगातार बढ़ते अलवर शहर के प्रशिद्ध मिल्क केक व्यवसाय के कारण पिछले कुछ वर्षों में पशुपालन और भी बढ़ गया है। मवेशियों की इस बढ़ती हुई आबादी के कारण सरिस्का में अवैध चराई और मानवीय दबाव कई गुना बढ़ गया है।

एक वन पारिस्थितिक तंत्र की खाद्य श्रृंखला (food chain) में बाघ सभी माँसाहारी जीवों के ऊपर रहता है तथा उसकी आहार की आदतें प्राकृतिक आवास में एक महत्वपूर्ण स्थान रखती हैं और उनकी सामाजिक संरचना, व्यवहार और शिकार प्रजातियों के घनत्व को प्रभावित करने वाले विभिन्न कारकों को निर्धारित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं। ऑडिट-माइंडेड सरकार रिज़र्व से गाँवों को विस्थापित कर मानवीय दबाव को कम किए बिना बाघों की आबादी को बढ़ाना चाहती है। परन्तु बाघों की बढ़ती आबादी से और कुछ नहीं सिर्फ मानव-बाघ संघर्ष की घटनाएं बढ़ेंगी जिससे स्थानीय समुदायों का बाघ संरक्षण में समर्थन कम हो सकता है तथा बाघ संरक्षण व्यवस्था में मुश्किलें भी कड़ी हो सकती है।

सरिस्का में बाघों और उनके आवास को संरक्षित करने के लिए कानून को और सख्ती से लागू कर अवैध चराई पर रोक लगाने की आवश्यकता है। (फोटो: श्री हिमांशु शर्मा)

सरिस्का में वन विभाग के फ्रंटलाइन स्टाफ की बेहद कमी हैं और जो हैं उनमें भी प्रेरणा और प्रतिबद्धता की कमी है जो पिछले एक दशक के दौरान वन अपराध/वन्यजीव मामलों के पंजीकरण में गिरावट की प्रवृत्ति से स्पष्ट है और इन्हीं सबके चलते रिजर्व में मानवजनित दबाव मुख्यरूप से अवैध चराई बहुत अधिक बढ़ गई है।

सरिस्का के कोर और बफर क्षेत्र दोनों में बाघ और तेंदुए द्वारा मवेशियों के बढ़ते शिकार यदि यु ही चलते रहे तो शायद स्थानीय समुदायों में इनकी उपस्थिति के प्रति असहिष्णुता बढ़ सकती है। हालांकि रिज़र्व से गांवों के स्वैच्छिक विस्थापन की प्रक्रिया जारी है, लेकिन पिछले एक दशक से देखी गई बेहद धीमी गति ने आवास को और खराब स्थिति में ला दिया है। तथा अध्ययन के शोधकर्ताओं के सुझाव है कि, सरिस्का में कानून को और सख्ती से लागू कर अवैध चराई पर रोक लगाई जानी चाइये ताकि हानि कि गति को रोका जा सके।

References:

  • Mondal, K., Gupta, S. , Bhattacharjee, S., Qureshi, Q. and K. Sankar. (2012). Prey selection, food habits and dietary overlap between leopard Panthera pardus (Mammalia: Carnivora) and re-introduced tiger Panthera tigris (Mammalia: Carnivora) in a semi-arid forest of Sariska Tiger Reserve, Western India, Italian Journal of Zoology, 79:4, 607-616.
  • Sankar, K., Qureshi, Q., Nigam, P., Malik, PK., Sinha, PR., Mehrotra, RN., Gopal, R., Bhattacharjee, S., Mondal, K. and S. Gupta. 2010. Monitoring of reintroduced tigers in Sariska Tiger Reserve, Western India: Preliminary findings on home range, prey selection and food habits. J. Trop. Conserv. Sci., 3(3): 301-318
  • Bhardwaj, G. S., Selvi, G., Agasti, S., Kari, B., Singh, H., Kumar, A. and Reddy G.V. 2020. Study on kill pattern of re-introduced tigers, demonstrating increased livestock preference in human dominated Sariska tiger reserve, India. SCIREA Journal of Biology. 5(2): 20-39

 

Cover Photo Credit: Mr. Buvnesh Suthar

कार्वी: आठ साल में फूल देने वाला राजस्थान का अनूठा पौधा

कार्वी: आठ साल में फूल देने वाला राजस्थान का अनूठा पौधा

कार्वी, राजस्थान का एक झाड़ीदार पौधा जिसकी फितरत है आठ साल में एक बार फूल देना और फिर मर जाना…

कार्वी एक झाड़ीदार पौधा है जिसे विज्ञान जगत में “स्ट्रोबाइलैंथस कैलोसा (strobilanthes callosa)” कहा जाता है। भारत में कई स्थानों पर इसे मरुआदोना नाम से भी जाना जाता है। एकेंथेंसी (Acantheceae) कुल के इस पौधे का कुछ वर्ष पहले तक “कार्वीया कैलोसा (Carvia Callosa)” नाम रहा है। यह उधर्व बढ़ने वाला एक झाड़ीदार पौधा है जो पास-पास उगकर एक घना झाड़ीदार जंगल सा बना देता है। इसकी ऊंचाई 1.0 से 1.75 मीटर तक पाई जाती है और पत्तियां 8-20 सेंटीमीटर लंबी एवं 5-10 सेंटीमीटर चौड़ी व् कुछ दीर्घवृत्ताकार सी होती हैं जिनके किनारे दांतेदार होते हैं। पत्तियों में नाड़ियों के 8-16 जोड़े होते हैं जो स्पष्ट नज़र आते हैं। कार्वी में अगस्त से मार्च तक फूल व फल आते हैं। इसपर बड़ी संख्या में बड़े आकार के गहरे नीले रंग के आकर्षक फूल आते हैं और फूलों के गुच्छे पत्तियों की कक्ष में पैदा होते हैं तथा दूर से ही नजर आते हैं।

कार्वी एक झाड़ीदार पौधा है और इसपर बड़ी संख्या में बड़े आकार के गहरे नीले रंग के आकर्षक फूल आते हैं। (फोटो: श्री महेंद्र दान)

भारतीय वनस्पतिक सर्वेक्षण विभाग (Botanical Survey of India) द्वारा प्रकाशित “फ्लोरा ऑफ राजस्थान” के खण्ड-2 के अनुसार राजस्थान में यह पौधा आबू पर्वत एवं जोधपुर में पाया जाता है। इसके अलावा यह महाराष्ट्र, कर्नाटक, मध्यप्रदेश और पश्चिमी घाट की पहाड़ियों में दूर-दूर तक फैला हुआ है तथा मध्यप्रदेश में सतपुड़ा बाघ परियोजना क्षेत्र में इसका अच्छा फैलाव है।

आलेख के लेखक ने अपनी वन विभाग में राजकीय सेवा के दौरान इसे “फुलवारी की नाल, सीता माता एवं कुंभलगढ़ अभयारण्य” में जगह-जगह अच्छी संख्या में देखा है। सीता माता अभयारण्य में भागी बावड़ी से वाल्मीकि आश्रम तक यह खूब नज़र आता है और फुलवारी की नाल में खांचन से लोहारी की तरफ जाने पर “सोना घाटी क्षेत्र में दिखता है। दक्षिणी अरावली में यह प्रजाति अच्छे वन क्षेत्रों में कई जगह विद्यमान है। कमलनाथ, राम कुंडा, लादन, जरगा आदि वन खंडों में यह पायी जाती है। जरगा पर्वत पर बनास नदी के उस पार से नया जरगा मंदिर की तरफ यह झाडी जगह-जगह वितरित है। जब इसमें फूल आ रहे हो उस समय इसको ढूंढना है पहचानना बहुत सरल हो जाता है।

माउंट आबू अभयारण्य में कार्वी के फूलों को देखते हुए पर्यटक (फोटो: श्री महेंद्र दान)

फूल देना और फिर मर जाना है फितरत इसकी…

स्ट्रोबाइलैंथस वंश के पौधों का फूल देने का तरीका सबसे अनूठा है। इनमें 1 से 16 वर्षों के अंतराल पर फूल देने वाली भिन्न-भिन्न प्रजातियां ज्ञात हैं। इस वंश में “कुरंजी या नील कुरंजी (strobilanthes kunthiana)” सबसे प्रसिद्ध है जो हर 12 वर्ष के अंतराल पर सामुहिक पुष्पन करते हैं और फिर सामूहिक ही मृत्यु का वरण कर लेते हैं।

इस प्रजाति में नीलगिरी के पश्चिमी घाट के अन्य भागों में वर्ष 1838,1850,1862,1874,1886,1898,1910,1922,1934,1946,1958,1970,1982,1994, 2006 एवं 2018 में पुष्पन हुआ है अगला पुष्पन अब 2030 में होगा। स्ट्रोबाइलैंथस वेलिचाई में हर साल, स्ट्रोबाइलैंथस क्सपीडेट्स में हर सातवे साल तो राजस्थान में उगने वाले स्ट्रोबाइलैंथस कैलोसा अथवा कार्वी में हर आठवे साल फूल आते हैं।

राजस्थानी कार्वी करता है एक शताब्दी में बारह बार पुष्पन

राजस्थान में पायी जाने वाली प्रजाति स्ट्रोबाइलैंथस कैलोसा आठ साल के अंतराल पर पुष्पन करती है इसके पौधे 7 साल तक बिना फूल पैदा किए बढ़ते रहते है और आठवां वर्ष इनके जीवन चक्र के लिए एक अहम वर्ष होता है। वर्षा प्रारंभ होते ही गर्मी का मारा सूखा-सूखा सा पौधा हरा भरा हो जाता है तथा अगस्त से पुष्पन प्रारंभ करता है। पुष्पन इतनी भारी मात्रा में दूर-दूर तक होता है कि, आप दिनभर झाड़ियों के बीच ही रहना पसंद करते हैं। चारों तरफ बड़े-बड़े फूलों का चटक नीला रंग अद्भुत नजारा पेश करता है ऐसे समय में मधुमक्खियां, तितलियां,भँवरे व अन्य तरह-तरह के कीट-पतंगे व पक्षी फूलों पर मंडराते नजर आते हैं।

पुष्पन का यह क्रम 15-20 दिन तक चलता है तत्पश्चात फल बनने की प्रक्रिया प्रारंभ हो जाती है। वर्षा समाप्ति के बाद भूमि व पौधे के शरीर की नमी  का उपयोग कर फल बढ़ते व पकते रहते हैं और मार्च के आते-आते फल पक कर तैयार हो जाते हैं लेकिन बीज नीचे भूमि पर न गिरकर फलों में ही फंसे रह जाते हैं। (फोटो: श्री महेंद्र दान)

इधर राजस्थान में अप्रैल से गर्मी का मौसम शुरू हो जाता है और 8 साल का जीवन पूर्ण कर कार्वी खड़ा-खड़ा सूख जाता है यानी पौधे का जीवन समाप्त हो जाता है। इस तरह के पौधे को प्लाइटेशियल (plietesials) कहा जाता है। ऐसे पौधे कई साल बढ़वार करते हैं तथा फिर एक साल फूल देकर मर जाते हैं। अरावली में यही व्यवहार बांस का है जो 40 साल के अंतराल पर फूल व बीज देकर दम तोड़ देता है। प्लाइटेशियल पौधे की एक विशेषता और है कि, यह पौधे अधिक मात्रा में बीज पैदा करते हैं यह व्यवहार मास्टिंग (Masting) कहलाता है।

मानसून काल प्रारंभ होने पर वर्षा जल एवं हवा में मौजूद नमी को कार्वी का आद्रताग्राही फल सोख लेता है तथा फूलकर फटता हुआ कैद बीजों को बाहर उड़ेल देता है। बीज बिना इंतजार किए सामूहिक अंकुरण करते हैं और वनतल से विदा हुए बुजुर्ग कार्वी पौधों का स्थान उनके “बच्चे” यानी नए पौधे ले लेते हैं। अब यह नन्हे पौधे अगले 7 साल बढ़ते रहेंगे और अपने पूर्वजों की तरह आठवे साल पुष्पन करेंगे। इस तरह दो शताब्दीयो में कोई 25 बार यानी एक शताब्दी में 12 बार (या तेरह बार) पुष्पन करते हैं।

राजस्थान में सीता माता, फुलवारी, आबू पर्वत एवं कुंभलगढ़ में इस प्रजाति के पुष्पन पर अध्ययन की जरूरत है। इसके 8 साल के चक्रीय पुष्पन को ईको-टूरिज्म से जोड़कर स्थानीय लोगों को रोजगार के अवसर भी उपलब्ध कराए जा सकते हैं।

पौधशालाओं में पौध तैयार करके दक्षिण राजस्थान में इस प्रजाति का विस्तार भी संभव है। कार्वी क्षेत्रों में तैनात वनकर्मी भी इसपर निगरानी रखे तथा पुष्पन वर्ष की जानकारी आमजन को भी दे। वे स्वयं भी इसका आनंद लें क्योंकि राजकीय सेवाकाल में वे चार बार से अधिक इस घटना को नही देख पाएंगे।

 

Cover photo credit : Shri Mahendra Dan