आम की बारहमासी फल देने वाली राजस्थान की एक किस्म – ‘सदाबहार’ 

आम की बारहमासी फल देने वाली राजस्थान की एक किस्म – ‘सदाबहार’ 

 

क्या कोई यह  विश्‍वास करेगा की राजस्थान के एक किसान ने  आम की एक ऐसी नई किस्म विकसित की हैं जो वर्ष में तीन बार फल देती है।   राजस्थान के  कोटा शहर के पास गिरधरपुरा गांव के  रहने वाले किसान श्री किशन सुमन ने 20 वर्ष की कड़ी मेहनत कर आमों यह एक अनूठी किस्म  विकसित की है  जिसे “सदाबहार” नाम दिया गया है।

वह बड़े गर्व से कहते है की ग्रीष्म, वर्षा एवं शीत ऋतुओ में हमारी आम की यह किस्म  फल देती है।  श्री किशन अतीत  के मुश्किल समय को याद करते है | पहले हमारा परिवार मात्र पारम्परिक कृषि पर आधारित था | जिसमें गेहू एवं चावल आदि की फसले उगाकर जीवन यापन करते थे | परन्तु जितनी मेहनत उसमे लगायी जाती थी उतना लाभ प्राप्त नहीं होता था ।  अत: पारम्परिक खेती को छोड़ कर उनका परिवार सब्ज़ियों की खेती करने लगा परन्तु इसके लिए जितनी मात्रा में कीटनाशकों का उपयोग किया जाता था | उससे मन को बहुत ख़राब लगता था एवं एक अपराध भाव पैदा होता था की हम लोगों को मानो जहर ही खिला रहे है । अत: उन्होंने फूलों की खेती शुरू कर दी।  जिनमें गुलाब के फूलों की  खेती भी शामिल थी  और यहाँ से श्री किशन की शोध यात्रा आरम्भ होती है । गुलाब पर कई प्रकार की कलमें  चढ़ा कर उन्होंने एक पौधें पर कई रंग के पुष्प प्राप्त किये |

 

अब उन्हें लगने लगा की फलदार वृक्षों पर भी मेहनत की जा सकती है फिर उन्होंने बाजार से कई प्रकार के आमों के फल लाना शुरू किया और उगाकर के उनके पौधें लगाने शुरू किये ।  उन्होंने पाया की आमों की अलग – अलग  किस्म के स्वाद में तो अंतर है  ही परन्तु इनमें एक और अंतर है  वह हैं उनके  पुष्प एवं फलो के लगने के समय में भी । श्री किशन ने पाया की जब विभिन्न आमों  के पौधों की किस्मों की कलमों को एक साथ लगाया गया तो पाया की एक आम के पेड़ के एक हिस्से में कुछ फल बड़े हो चुके है, और किसी हिस्से में अभी भी छोटे है और किसी हिस्से में अभी बोर भी आये हुए थे ।

इस तरह धीरे – धीरे कई वर्षो के प्रयोगों के बाद  सदाबहार किस्म का विकास हुआ।  यह विकसित किस्म वर्ष में तीन बार फसल देती है। यानी इस पर वर्ष भर आम के फल लगे रहते है।  श्री किशन ने कोटा के कृषि अनुसन्धान केंद्र  को अपनी बात बताई परन्तु उन्होंने इस प्रयास के प्रति उदासीनता का भाव रखा ।

परन्तु राष्ट्रीय नव प्रवर्तन प्रतिष्ठान भारत ( National Innovation Foundation  – India – NIF) के सुंडा राम जी ( सीकर निवासी ) ने श्री किशन   को एक अनोखा अवसर दिलाने में मदद की उन्होंने NIF की मदद से इस किस्म को राष्ट्रपति भवन में प्रदर्शित करने के लिए उन्हें वहां भेजा । उन्हें वहां अत्यंत सम्मान एवं पहचान मिली ।  इस “सदाबहार” आम एवं श्री किशन को देश विदेश के लोग जानने लगे। देश के विभिन्न हिस्सों से श्री किशन को इस किस्म के पौधों के लिए आर्डर आ ने लगे । साथ ही   भा . कृ . अनु . प . केंद्रीय उपोषण बागवानी संसथान ( ICAR- Central Institute for subtropical Horticulture) के वैज्ञानिको के साथ संपर्क किया गया एवं इस नस्ल को एक नई नेसल होने का दर्जा मिला साथ ही उन्होंने ही इसे एक नाम दिया  – ‘सदाबहार’ है।  यह आम अत्यंत स्वादिष्ट है एवं  इनमें में  पूर्णतः घुले हुए ठोस पदार्थ (Total dissolved solids – TSS ) 16 % मानी गयी है , TSS का मतलब होता है, इसके  मीठास कार्बोहाइड्रेट, कार्बनिक अम्ल , प्रोटीन , वसा एवं खनिज  की मात्रा कितनी है | सदाबहार आमों की TSS मात्रा अच्छी मानी गयी है |

श्री किशन जी मुस्कुराते हुए कहते है की कृषि अनुसन्धान केंद्र का सहयोग न सही, परन्तु मेरी पत्नी सुगना देवी और ईश्वर साथ देने में कोई कमी भी नहीं छोड़ी है। आज श्री किशन आशान्वित हैं की इस आम को जनता ने पहचान लिया हैं एवं इस की सफलता को अब कोई रोक नहीं पायेगा।  आप भी श्री किशन से आम का पौधा मंगवा सकते हैं।

राज्यों  की बायोजियोग्राफी के आधार पर हुई आंवल-बांवल की ऐतिहासिक संधि

राज्यों की बायोजियोग्राफी के आधार पर हुई आंवल-बांवल की ऐतिहासिक संधि

 

सन 1453 में , एक दूसरे के धुर विरोधी, मेवाड़ के महाराणा कुम्भा और मारवाड़ के राव जोधा को एक जाजम पर बैठा कर बात तो करा दी गई, परन्तु तय होना बाकि था, कि मेवाड़ और मारवाड़ की सीमा कहाँ तक होगी। इन दोनों राज्यों के मध्य पिछले दो दशक से अधिक समय से शत्रुतापूर्ण सम्बन्ध कायम थे जिससे दोनों पक्षों को जन-धन की भारी हानी हो रही थी व प्रजा त्रस्त थी|

इस मध्यस्तता की जिम्मेदारी दोनों राजघरानों से सम्बन्ध रखने वाली महारानी हंसाबाई पर थी, जो राणा कुम्भा की दादी थी एवं राव जोधा की बुआ थी। दोनों राजघरानों में विवाद का कारण मण्डोर (मारवाड़) के राव रणमल (हंसाबाई के भाई जो राव जोधा के पिता) द्वारा मेवाड़ की आन्तरिक राजनीति में हस्तक्षेप था जिसकी परिणती राव रणमल की हत्या व मारवाड़ की राजधानी मण्डोर पर मेवाड़ द्वारा कब्जा करने के रूप में होती है।

आंवल (Cassia auriculata)                               फोटो :- प्रेम गिरी गोस्वामी

खैर नई पीढ़ी ने गिले-शिकवे बिसार कर तय किया की और मनमुटाव अब किसी के हक़ में नहीं है।सोजत- पाली में यह संधि हुई थी जिसे आंवल-बांवल की संधि कहा जाता है। दादी हंसाबाई ने परामर्श दिया कि अब मेवाड़ और मारवाड़ की सीमा, यहाँ की भूमि स्वयं तय करेगी। यह वाक्य किसी को समझ नहीं आया परन्तु वो बोली – जिधर आंवल के पौधे है वह मेवाड़ होगा और जिधर बांवल के पेड़ है, वह मारवाड़ होगा। पेड़-पौघों का वितरण वहां की जलवायु स्थितियां और भूगर्भिक विशेषताएं से जुड़ा होता हैं एवं इनमें समान जीवन रणनीतियां और अनुकूलन देखने को मिलता है।

यानि जमीन की तासीर यह तय करती है की वहां कौनसे पेड़-पौधे उगेंगे और पेड़-पौधे तय करते है की वहां कोनसे पशु-पक्षी रहेंगे। भौगोलिक परिस्थिति, स्थानीय जलवायु, पेड़-पौधे आदि सभी मिलकर यह प्रभाव डालते है, की वहां के लोग किस प्रकार के पेशे को अपने जीवन का मुख्य आधार बनाएंगे जैसे शिकार आधारित समाज बनेगे, या कृषक अथवा पशुपालन पर जीवन यापन करेगा।

आंवल (Cassia auriculata)        फोटो :- राकेश वर्मा

यह बंटवारा मारवाड एवं मेवाड (गोडवाड़ परगना) के मध्य परम्परागत सीमा रेखा के रूप में करीब 400 वर्षों तक कायम रहा। 18वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में महाराज विजय सिंह (मारवाङ) ने गोडवाड़ परगने का मारवाङ में विलय करके, मारवाड़ व मेवाड़ की सीमा को वानस्पतिक आधार के अतिरिक भू-आकृतिक आधार ( प्राकृतिक सीमा रेखा मे अरावली पर्वतमाला) प्रदान किया।
इस आंवल – बांवल की संधि में वर्णित आंवल व बांवल शब्द किन दो वनस्पति प्रजातियों को इंगित करते हैं. यह एक महत्वपूर्ण प्रश्न है। इसमे भी आंवल शब्द से अधिक कठिन बांवल शब्द की लक्षित प्रजाति को चिन्हित करना है।
सामान्यतः जो लोग स्वयं गोडवाड परगने के भूगोल व जैव विविधता से प्रत्यक्ष रूप से परिचित नही है वे आंवल शब्द का अर्थ आंवले के पेड़ से लेते है जोकि भ्रामक है। क्यों की गोडवाड़ क्षेत्र की प्राकृतिक वनस्पति में आँवला (Emblica officinalis) शामिल नहीं है गोडवाड परगने में आंवल नामक एक झाड़ी बहुतायत में पायी जाती है। इस झाड़ी पर पीले रंग के फूल खिलते है व इसका वानस्पतिक नाम ‘केसिया ओरिकुलाटा’ (Cassia auriculata) है |

बांवल ( Vachellia jacquemontii )           फोटो :- प्रेम गिरी गोस्वामी

पहले इस झाड़ी का प्रयोग चमड़ा साफ करने (टेनिन नामक तत्त्व होने के कारण) हेतु चमड़ा उद्योग मे बहुतायत में होता था व इसकी सहज उपलब्धता ने गोडवाड क्षेत्र में चर्म शोधन को कुटिर उद्योग के रूप में स्थापित होने में सहायता दी थी। इस उपयोग के कारण अंग्रेजी भाषा में आंवल की झाड़ी को Tanner’s cassia भी कहते हैं। (चर्मकार की झाड़ी) | अत: स्पष्ट है आंवल-बांवल की संधि में वर्णित आंवल, ‘आंवल की झाड़ी’ (Cassia auriculata) ही है नाकि आँवला (Emblica officinalis).
अब हम इस संधि में वर्णित दूसरी प्रजाति यानि कि ‘बांवल’ की सटीक पहचान पर चर्चा करते है चूंकि संधि के द्वारा जिस क्षेत्रों में बांवल प्रजाती पायी जाती थी वह क्षेत्र मारवाड को आवण्टित किया गया था अतः यह स्पष्ट हो जाता है कि ‘बांवल’ उस समय मारवाड़ क्षेत्र की प्राकृतिक वनस्पति (बिना मानवीय हस्तक्षेप के पनपने वाली) का महत्वपूर्ण हिस्सा थी। वर्तमान में इस क्षेत्र (पाली जिले का शुष्क भाग) बांवल नाम से तीन प्रजातियों को संबोधित किया जाता है, प्रथम अंग्रेजी बावलियों (prosopis juliflora), द्वितीय देशी बावलियों / बबूल (Acacia nilotice) व तीसरी भू बावली ( Acacia jacquemontii)
चूंकि अंग्रेजी बबूल (जूलीफ्लोरा) सर्वप्रथम 20 वी शताब्दी में ही राजस्थान में लाया गया था अत: आंवल – बांवल की संधि में उल्लेखित ‘बांवल’ से इसका निश्चित ही साम्य नहीं है। इसी प्रकार देशी बबूल\कीकर का प्रयोग स्पष्ट सीमा रेखा के रूप में किया जाना इस लिए उचित प्रतीत नहीं होता क्योंकि वर्तमान में यह पाली जिले के मारवाड़ व गोडवाङ दोनों अंचलों में समान रूप से पाया जाता है व सम्भवतया इसका वितरण प्रारूप उस समय (1433ई.) मे भी लगभग यही रहा होगा।
अत: अब बचता है, भू – बावल| भू बावल का वितरण प्रारूप वर्तमान में गोड़वाङ व मारवाड़ को सीमा विभाजन से पूरी तरह से मेल खाता है। जिस प्रकार आंवल की झाड़ी गोड़वाड़ परगने के बाहर मारवाड़ में नहीं पायी जाती है उसी प्रकार भू – बावल भी गोड़वाड़ में नही पायी जाती जबकि मारवाड़ में बहुतायत में उपलब्ध है। उपर्युक्त कारणों से लेखकराणों का यह मानना है कि आंवल – बांवल की संधि में उल्लेखित आंवल व बांवल शब्द का संकेत Cassia auriculata ( आंवल की झाड़ी) व Vachellia jacquemontii (भू- बावल) की ओर हैं|
इस चर्चा से जुड़ा हुआ एक अन्य रोचक प्रसंग यह भी है कि जिन फ्रेंच वनस्पति अन्वेषणकर्ता विक्टर जेकमोण्ट (Victor Jacquemont) के नाम पर भू- बावल का वानस्पतिक(jacquemontii) नाम रखा गया है उन्हें उनकी मात्र चार दिवसीय” (1-4 मार्च 1832) राजस्थान यात्रा के दौरान मेवाड राज्य की राजधानी उदयपुर में प्रवेश की अनुमति महाराणा द्वारा प्रदान नहीं की गयी थी। जेकमोण्ट व महारणा’ दोनों ही भविष्य में होने वाले घटनाक्रम (जेकमोण्ट के नाम पर भू-बावल का नामकरण) से निश्चित रूप से अनभिज्ञ रहे होंगे। यह तथ्य भी ध्यान देने योग्य है कि विक्टर जेकमोण्ट को राजस्थान का प्रथम आधुनिक वनस्पति अन्वेषण कर्ता माना जाता है।

यह संधि दर्शाती हैं कि किस प्रकार लोगों को अपने परिवेश कि गहरी समझ थी जो उन्हें उचित निर्णय लेने में सहयोग करती थी।

 

लेखक:

Dr. Dharmendra Khandal (L) has worked as a conservation biologist with Tiger Watch – a non-profit organisation based in Ranthambhore, for the last 16 years. He spearheads all anti-poaching, community-based conservation and exploration interventions for the organisation.

Mr. Rajdeep Singh Sandu (R)  :-is a lecturer of political science. He is interested in history, plant ecology and horticulture.

राजस्थान की वन्यजीवों से टक्कर लेने वाली गाय की नस्ल : ‘नारी’

राजस्थान की वन्यजीवों से टक्कर लेने वाली गाय की नस्ल : ‘नारी’

 

राजस्थान में गाय की एक नस्ल मिलती है जिसे कहते है ‘नारी’, शायद यह नाम इसकी नाहर (Tiger) जैसी फितरत होने के कारण पड़ा है। सिरोही के माउंट आबू  क्षेत्र की तलहटी में मिलने वाली यह माध्यम आकर की गाय अपने पतले लम्बे सींगों से बघेरों से भीड़ जाती है। अक्सर जंगल में बघेरो से उन्हें अपने बछड़ो  को बचाते हुए देखा जाता है अथवा कई बार अपने मालिक को वन्यजीव से मुठभेड़ में फंसा देख, यह वन्य जीव पर टूट पड़ती है। यदि इन पर वन्य जीव हमला करते है तो यह आवाज निकाल कर अन्य गायों को अपने पास बुला लेती है, जबकि सामान्य तय अन्य गायों की नस्लें दूर भाग जाती है।

फोटो :- अंजू चोहान

नेशनल ब्यूरो ऑफ़ एनिमल जेनेटिक रिसोर्सेज, करनाल, हरियाणा (NBAGR) ने इसे कुछ समय पहले ही इसे एक अलग मवेशी की नस्ल के रूप में मान्यता दी है। इस नस्ल का विस्तार- राजस्थान के सिरोही, पाली एवं गुजरात के  बनासकांठा, साबरकांठा आदि क्षेत्रों में है। यह नस्ल लम्बी दुरी तय कर चराई के लिए ले जाने के लिए उपयुक्त है।

सफ़ेद और स्लेटी रंग की यह गाय स्वभाव में अत्यन्त गर्म होती है एवं इसके सींग बाहर की और मुड़े होते है, एवं यह कृष्ण मृग (Blackbuck) की भांति घूमे हुए होते है । इनके आँखों की पलकों के बाल सामान्यत सफ़ेद होते है। यह 5-9 लीटर तक दूध दे सकती है, वहीँ इनके नर (बैल) माल वाहन के लिए भी उपयुक्त होते है। कहते है यह गाय अत्यंत बुदिमान नस्ल है जो पहाड़ो के रास्तों में सहजता से चरने चली जाती है एवं कम चराई में अच्छा  दूध देती है।  यह बिमारियों एवं अन्य व्याधियों से भी कम ही ग्रसित होती है साथ ही इनका कम लागत में पालन पोषण संभव है। यदि आप वन्य जीवो से प्रभावित क्षेत्र में रहते है तो यह गाय पलना उपयुक्त होगा।

आज भी हमारी जैव विविधता में कई अनछुए हर्फ़ है, इन्हे संरक्षित रखना हमारी जिम्मेदारी है

 

लेखक:

Dr. Dharmendra Khandal (L) has worked as a conservation biologist with Tiger Watch – a non-profit organisation based in Ranthambhore, for the last 16 years. He spearheads all anti-poaching, community-based conservation and exploration interventions for the organisation.

Mr. Rajdeep SIngh Sandhu (R)  :-is a lecturer of political science. He is interested in history, plant ecology and horticulture.

वेडर्स ऑफ द इंडियन सबकॉन्टीनैन्ट: भारतीय उपमहाद्वीप के परिप्रक्ष में एक बेहतरीन सन्दर्भ ग्रन्थ

वेडर्स ऑफ द इंडियन सबकॉन्टीनैन्ट: भारतीय उपमहाद्वीप के परिप्रक्ष में एक बेहतरीन सन्दर्भ ग्रन्थ

जलाशयों के किनारे-किनारे, जल रेखा व कीचड़युक्त आवास को पसंद करने वाले पक्षियों को ‘‘वेडर्स’’ नाम से जाना जाता है। इस वर्ग के पक्षी तैरते नहीं हैं बल्कि पानी के किनारे-किनारे या कुछ दूर पानी या कीचड़ में चलते हुये ही भोजन ढूंढते हैं। इस वर्ग के कुछ पक्षी पानी के अन्दर उगे पौधों की पत्तियों या दूसरी तैरती हुई वस्तुओं पर भी चलकर अपना भोजन ढंूढ लेते हैं। इस वर्ग में स्नाइप, जकाना, ऑयस्टरकैचर, प्लोवर, लैपविंग, वुडकॉक, गौडविट करलेव, विमब्रेल, रैडशैंक, ग्रीनशैंक, सेन्डपाइपर, टैटलर, टर्नस्टोन, डॉविचर, सैन्डरलिंग, स्टिन्ट, रफ, आइबिसबिल, स्टिल्ट, एवोसेट, फैलारोप, थिक-नी, करसर एवं प्रेटिनकॉल शामिल हैं।

इस वर्ग के अनेक पक्षियों को सही-सही पहचानना कई वर्ष तक पक्षी अवलोकन करने के बाद भी कठिन लगता है। प्रायः कई पक्षियों के अच्छे क्लोज अप फोटो खींच लेने के बाद फोटो को तसल्लीपूर्वक देखने पर भी पहचान में संशय बना रहता है। वेडर वर्ग के देशान्तर गमन कर सर्दी में हमारे जलाशयों पर पहुंचने वाले पक्षियों को भी पहचानने में कठिनाई बनी रहती है।

इस कठिनाई को दूर करने का सराहनीय प्रयास भारत के जाने-माने पक्षीविद   श्री हरकीरत सिंह संघा ने किया है। विशेष बात यह है कि श्री संघा राजस्थान के निवासी हैं। उन्होने जो स्तुतियोग्य पुस्तक प्रकाशित की है उसका विवरण निम्न है:-

पुस्तक का नाम  :-  वेडर्स ऑफ द इंडियन सब-कॉन्टीनेन्ट ( Waders of the Indian subcontinent )
भाषा                :- अंग्रेजी
पृष्ठ संख्या         :-  XVI + 520
प्रकाशन वर्ष      :- 2021
प्रकाशक           :- लेखक स्वयं (विष्व प्रकृति निधि-भारत के आंषिक सहयोग से)
मूल्य                 :-3500.00 रूपये
मंगाने का पता     :- श्री हरकीरत सिंह संघा, बी-27, गौतम मार्ग, हनुमान नगर,
जयपुर-302021, भारत

इस संदर्भ ग्रन्थ में 84 प्रजातियो के वेडर वर्ग के पक्षियों का विस्तृत विवरण प्रस्तुत किया है। प्रत्येक प्रजाति के स्थानीय नाम, पुराने नाम, वितरण, फील्ड में  पहचानने हेतु विशेष गुणों की जानकारी, शारीरिक नाप, आवास, स्वभाव, भोजन, प्रजनन, गमन, संरक्षण स्थिति आदि की विस्तृत, आद्यतन एवं प्रमाणिक जानकारी प्रस्तुत की गई है। पुस्तक में 450 रंगीन फोटो, 540 पेन्टिंग, उपमहाद्वीप में वितरण को स्पष्टता से प्रदर्शित करने वाले रंगीन मैप आदि प्रचुरता से दिये गये हैं। इतनी सामग्री को एक ही जगह सहज उपलब्धता से हम फील्ड में वेडर्स को अच्छी तरह पहचान सकते हैं। इस पुस्तक की छपाई अच्छी है एवं कागज भी उत्तम क्वालिटी का प्रयोग किया गया है। कवर पेज आकर्षक व विषय को सार्थक करता है। कुल मिलाकर यह ग्रन्थ गागर में सागर है।

यह पुस्तक भारत, बांगलादेश, भूटान, मालद्वीप, नेपाल, पाकिस्तान, श्रीलंका एवं चांगोस, जो कि भारतीय उपमहाद्वीप के देश हैं, सभी के लिये समान रूप से उपयोगी है।

यह पुस्तक पठनीय व संग्रहणीय है। इसे सहजता से फील्ड में उपयोग किया जा सकता है। यह पुस्तक हर पक्षी अवलोकक के लिये बहुत ही उपयोगी फील्ड गाइड तो है ही, शोधार्थियों व अध्यापकों हेतु भी अत्यंत उपयोगी संदर्भ है।

कार्वी: राजस्थान के फूलों की रानी

कार्वी: राजस्थान के फूलों की रानी

कर्वी (Storbilanthescallosa) दक्षिणी अरावली की कम ज्ञात झाड़ीदार पौधों की प्रजाति है। यह पश्चिमी घाट और सतपुड़ा पहाड़ियों में एक प्रसिद्ध प्रजाति है, लेकिन राजस्थान के मूल निवासियों से ज्यादा परिचित नहीं है। यह अद्भुत प्रजाति आठ साल में एक बार खिलती है। पश्चिमी घाट में, इसका अंतिम फूल 2016 में देखा गया था और अगला फूल आठ साल के अंतराल के बाद 2024 में होगा।

दक्षिणी अरावली के सिरोही जिले में माउंट आबू वन्यजीव अभयारण्य कर्वी स्क्रब के लिए प्रसिद्ध है। यह अद्भुत झाड़ीदार प्रजाति माउंट आबू की ऊपरी पहुंच के पहाड़ी ढलानों तक ही सीमित है। यह इस खूबसूरत पहाड़ी के निचले क्षेत्र और निचली ढलानों में अनुपस्थित है। माउंट आबू के अलावा जोधपुर से भी कर्वी की खबर है। लेकिन यह बहुत ही असामान्य है कि जोधपुर में उच्च वर्षा क्षेत्र की एक प्रजाति देखी जाती है। दक्षिणी राजस्थान के फुलवारी-की-नल और सीतामाता वन्यजीव अभयारण्यों के कई हिस्सों में कर्वी के बड़े और निरंतर पैच देखे जा सकते हैं। यह प्रजाति उदयपुर और राजसमंद जिलों के संगम पर जरगा पहाड़ियों और कुभलगढ़ पहाड़ियों में भी पाई जाती है। कर्वी के छोटे-छोटे पैच जर्गा हिल्स में नया जरगा और जूना जर्ग मंदिरों के आसपास देखे जा सकते हैं। माउंट आबू के बाद, जरगा हिल्स राजस्थान की दूसरी सबसे ऊंची पहाड़ी है।

कर्वी एक सीधा झाड़ी है, ऊंचाई में 1.75 मीटर तक बढ़ता है। इस प्रजाति की पत्तियाँ अण्डाकार, बड़े आकार की, दाँतेदार किनारों वाली होती हैं। पत्तियों में 8-16 जोड़ी नसें होती हैं जो दूर से स्पष्ट दिखाई देती हैं। चमकीले नीले फूल पत्तियों की धुरी में विकसित होते हैं जो न केवल तितलियों और मधुमक्खियों को बल्कि मनुष्यों को भी आकर्षित करते हैं।

कर्वी स्ट्रोबिलैन्थेस से संबंधित है, फूल वाले पौधे परिवार एसेंथेसी के जीनस से संबंधित है। इस जीनस की लगभग 350 प्रजातियाँ विश्व में पाई जाती हैं और लगभग 46 प्रजातियाँ भारत में पाई जाती हैं। राजस्थान में, इस जीनस की केवल दो प्रजातियों को जाना जाता है, अर्थात् स्ट्रोबिलेंथेस्कैलोसा और स्ट्रोबिलेंथेशालबर्गि। इनमें से अधिकांश प्रजातियां एक असामान्य फूल व्यवहार दिखाती हैं, जो 1 से 16 साल के खिलने वाले चक्रों में भिन्न होती हैं। स्ट्रोबिलांथेसकुंथियाना या नीलकुरिंजी, जिसका 12 साल का फूल चक्र होता है, दक्षिण भारत के पश्चिमी घाट, विशेष रूप से नीलगिरी पहाड़ियों का प्रसिद्ध पौधा है। हर 12 साल में एक बार नीलकुरिंजी खिलता है। पिछले 182 वर्षों की अवधि के दौरान, यह केवल 16 बार ही खिल पाया है। यह वर्ष 1838, 1850, 1862, 1874, 1886, 1898, 1910, 1922, 1934, 1946, 1958, 1970, 1982, 1994, 2006 और 2018 में खिल चुका है। अगला फूल 2030 में दिखाई देगा। रंग का फूल इसलिए नाम नीलकुरिंजी। जब यह बड़े पैमाने पर खिलता है, तो नीलगिरि पहाड़ियाँ ‘नीले रंग’ की हो जाती हैं, इसलिए नीलगिरि पहाड़ियों को उनका नाम ‘नीलगिरी’ (नील = नीला, गिरि = पहाड़ी) मिला। नीलगिरी में जब नीलकुरिंजी खिलता है, तो इस फूल वाले कुंभ को देखने के लिए बड़ी संख्या में पर्यटक वहां पहुंचते हैं। इस प्रकार, नीलकुरिंजी-केंद्रित पर्यावरण-पर्यटन नीलगिरी में रोजगार के अवसर पैदा कर रहा है।

कर्वी (स्ट्रोबिलांथेस्कलोसा) को “राजस्थान का नीलकुरिंजी” कहा जा सकता है। इसका आठ साल का खिलने वाला चक्र है। यह आठ साल में एक बार खिलता है। यानी इस प्रजाति में एक सदी में सिर्फ 12 बार ही फूल आते हैं। एक साथ बड़े पैमाने पर फूल आने के बाद, सभी पौधे एक साथ मर जाते हैं जैसे ‘सामूहिक आत्महत्या’ फैशन में। इस प्रकार, कर्वी हमारे राज्य का एक मोनोकार्पिक पौधा है। कर्वी लंबे अंतराल में खिलने वाला फूल है, इसलिए इसके फूलों को प्लीटेसियल कहा जाता है, यानी वे लंबे अंतराल में एक बार खिलते हैं। अपने जीवन के पहले वर्ष के दौरान बीज के अंकुरण के बाद, कर्वी को आम तौर पर विकसित होने में सात साल लगते हैं और अपने आठ साल में खिल जाते हैं; इसके बाद जीवन में एक बार बड़े पैमाने पर फूल आने के बाद, झाड़ियाँ अंततः मर जाती हैं। गर्मियों के दौरान, कर्वी झाड़ियाँ सूखी, पत्ती रहित और बेजान जैसी दिखती हैं, लेकिन मानसून की शुरुआत के बाद उनमें हरे पत्ते आ जाते हैं। इनकी पत्तियाँ बड़े आकार की होती हैं और पौधे बहुत कम दूरी पर बहुत निकट से उगते हैं और वन तल पर घना झुरमुट बनाते हैं। उनके जीवन के बीज अंकुरण वर्ष से लेकर सातवें वर्ष तक वर्षा ऋतु में केवल टहनियों के बढ़ने से पत्ते बनते हैं लेकिन आठवें वर्ष के मानसून के दौरान उनके व्यवहार में एक शक्ति परिवर्तन देखा जाता है। पत्तियों के अलावा, वे फूल भी पैदा करना शुरू कर देते हैं। अब बड़े पैमाने पर फूल अगस्त के मध्य से सितंबर के अंत तक देखे जा सकते हैं, लेकिन ढलानों के विभिन्न ऊंचाई पर मार्च तक छोटे पॉकेट में फूल देखे जा सकते हैं। पत्तियों के निर्वासन में स्पाइक्स में बड़े आकार के, दिखावटी, नीले फूल विकसित होते हैं। फूल परागकणों और अमृत से भरपूर होते हैं जो बड़ी संख्या में तितलियों, मधुमक्खियों, पक्षियों और अन्य जीवों की प्रजातियों की एक विस्तृत श्रृंखला को आकर्षित करते हैं।

आमतौर पर एक एकल कर्वी फूल का जीवनकाल 15 से 20 दिनों के बीच रहता है। फूल आने के बाद बड़े पैमाने पर फल लगते हैं। फल ठंड और गर्म मौसम में पकते हैं और अगले साल तक सूख जाते हैं। कर्वी के पौधों में बड़े पैमाने पर बुवाई देखी जाती है। इस व्यवहार को मास्टिंग कहा जाता है। पिछले सात वर्षों की पूरी संग्रहीत खाद्य सामग्री का उपयोग फूल, फल और बीज पैदा करने के लिए किया जाता है। अब पौधे पूरी तरह से समाप्त हो गए हैं। बीजों के परिपक्व होने के बाद, उनके अंदर के फल उन्हें बनाए रखते हैं। चूंकि, फलों में अभी भी बीज मौजूद होते हैं, इसलिए उन्हें प्रकृति की अनियमितताओं से अधिकतम सुरक्षा मिलती है। सूखे मेवे अपने मृत पौधों पर अगले मानसून की प्रतीक्षा करते हैं। अगले साल के मानसून की शुरुआत के साथ, फलों की पहली बारिश होती है और सूखे मेवे नमी को अवशोषित करते हैं और एक पॉप के साथ खुलते हैं। पहाड़ी, जहां कर्वी उगते हैं, सूखे बीज की फली के फटने की तेज आवाज से भर जाते हैं, जो विस्फोटक रूप से उनके बीजों को बिखरने के लिए खोलते हैं। अब जल्द ही नए पौधे अंकुरित होते हैं और जंगल के गीले फर्श में अपनी जड़ें जमा लेते हैं। इस प्रकार, कर्वी की पूरी मृत पीढ़ी को नई पीढ़ी द्वारा तुरंत बदल दिया जाता है। नमी और तापमान के कारण पुरानी पीढ़ी के मृत पौधे सड़ने लगते हैं। जल्द ही वे अपने ‘बच्चों’ के लिए खाद बन जाते हैं।

जब कर्वी फूल, सीतामाता अभयारण्य में भागीबाउरी से सीतामाता मंदिर तक और फुलवारी-की-नल अभयारण्य में लुहारी से सोनाघाटी तक, ट्रेकिंग को गुस्सा आता है। माउंट आबू अभयारण्य की ऊपरी पहुंच के सभी ट्रेकिंग मार्ग कर्वी के खिलने पर सुरम्य हो जाते हैं। कर्वी के फूलों के वर्षों के दौरान विशेष रूप से नया जरगा और जूना जर्गटेम्पल्स के पास जरगा पहाड़ियों की यात्रा एक जीवन भर की उपलब्धि है।

राज्य में कर्वी के खिलने के प्रामाणिक रिकॉर्ड गायब हैं। राज्य के विभिन्न हिस्सों में कर्वी के खिलने के रिकॉर्ड को बनाए रखना स्थानीय विश्वविद्यालयों और वन विभाग का कर्तव्य है। वन अधिकारियों को सलाह दी जाती है कि जब वे मैदान में हों तो प्रकृति की इस अद्भुत घटना का अनुभव करें। एक वन अधिकारी अपनी सेवा अवधि में मुश्किल से चार खिलते चक्र देख सकता है। कृपया कर्वी के अगले खिलने वाले मौसम की उपेक्षा न करें।

रणथम्भौर में अनाथ बाघ शावकों का संरक्षण

रणथम्भौर में अनाथ बाघ शावकों का संरक्षण

बाघिन के  मर जाने पर उसके बच्चों को पिता के रहते हुए भी अनाथ मान लिया जाता था और उनके बचने की सम्भावना को बहुत ही निम्न माना जाता था। ऐसे में रणथम्भौर के वन प्रबंधकों ने कठिन और चुनौतियों से भरी परिस्थितियों का सामना करते हुए उन शावकों का संरक्षण किया…

9 फरवरी 2011 की उस सुबह, सूरज पहली किरण के साथ ही, कचीदा चौकी के वन रक्षको की एक टीम कचीदा घाटी के लिए निकल पड़ी, क्योंकि रात भर से घाटी की निवासी बाघिन (T5) की दर्द से करहाने आवाज़े आ रही थी। घबराते और डरते हुए वन रक्षक एक बांध की ओर बढे और देखा कि, बाघिन चट्टान पर मरी पड़ी हुई थी। पीछे 3 महीने के दो शावकों को छोड़कर बाघिन T5 की बिमारी के कारण मौत हो गई थी। बाघ के शावक बेहद संवेदनशील होते हैं और इसीलिए बाघिनें अपने बच्चों के लिए बहुत समर्पित और गंभीर होती हैं। वो अपने शावकों की सुरक्षा और पालन-पोषण के लिए पूरे दो साल समर्पित करती हैं; इस बीच वो कई बार अपने क्षेत्र में प्रवेश करने वाले अन्य बाघों से लड़ाई भी कर लेती है तो कई बार गभीर रूप से घायल भी हो जाती है। साथ ही बाघ के शावक शिकार करने की कला जैसे की अपने शिकार का पीछा करना, चकमा देना, पकड़ बनाना और संभावित खतरों से बचना लगभग हर ज्ञान के लिए पूरी तरह से अपनी माँ पर निर्भर रहते हैं।

रणथम्भौर में पिछले सात सालों में ये चौथी दफा था जब किसी बाघिन की मौत हो गई और वह पीछे अपने शावकों को छोड़ गई थी। आमतौर पर, ऐसे मामलों में पहला विचार मन में यही आता है कि, शावकों को बचाने और जीवित रखने के लिए उन्हें पकड़ कर किसी सुरक्षित स्थान जैसे एक बाड़े (enclosure) में स्थानांतरित कर दिया जाए। लेकिन शावकों को इंसानों के इतने करीब रख के पालने से उनका जंगली स्वभाव बिलकुल खत्म हो जाता है।

हालांकि, रणथम्भौर में अनाथ शावकों के चार मामलों में, वन प्रबंधकों ने एक सहज तरीका अपनाया। यह प्रक्रिया बेहद कठिन और चुनौतियों से भरी थी, लेकिन इससे बाघों के व्यवहार पर कुछ अनोखे और आश्चर्यजनक अवलोकन मिले और इन सभी मामलों में रणथंभौर वन विभाग के कर्मचारियों का प्रयास निश्चित रूप से काबिल-ए-तारीफ है।

बाघिन T5 के तीन महीने के दो अनाथ शावक (फोटो: देश बंधु वैद्य)

बाघिनों का गर्भकाल केवल 90 से 110 दिनों का ही होता है और गर्भ का उभार अंतिम दिनों में ही दिखाई देता है ताकि बाघिन गर्भावस्था के दौरान भी ‘शिकार करने योग्य’ बनी रहे और न ही उस पर अतिरिक्त वजन का बोझ हो। लेकिन इस छोटे गर्भकाल का अर्थ यह भी है कि, शावकों का जन्म पूर्ण विकसित रूप में नहीं होता है, और उनमें कुछ विकास उनका जन्म के बाद होता हैं। वहीं शाकाहारी जीवों जैसे कि, हिरणों में, गर्भकाल की अवधि लंबी होती है तथा गर्भावस्था का एक स्पष्ट उभार उनकी जीवन शैली में कोई बाधा नहीं डालता है। लेकिन एक बार जब वे जन्म देते हैं, तो उनके बच्चे (fawn) पल भर में चलने लगते हैं। इसके विपरीत, बाघ के शावक बिलकुल असहाय, बहरे (उनके कान बंद होते हैं) और अंधे (पलकें कसकर बंद) पैदा होते हैं। इसीलिए, वे बहुत कमजोर और हर चीज के लिए पूरी तरह से अपनी मां पर निर्भर होते हैं। शुरूआती महीनों में बाघिन अपना अधिकतर समय शावकों की देख भाल में लगाती है और जैसे-जैसे शावक बड़े होते है यह समय कम होने लगता है।

अब कल्पना कीजिए क्या होगा जब, ऐसे ध्यान रखने वाली माँ की मृत्यु हो जाए और असहाय शावक पीछे अकेले छूट जाए।

परन्तु यह पहली बार नहीं था, रणथम्भौर में पहले भी अनाथ शावकों को जंगल में ही देखरेख कर उन्हें बड़ा किया जा चुका था। वर्ष 2002 में, एक बाघिन की अचानक मौत ने दो शावकों को अनाथ कर दिया था। ऐसे में रणथंभौर के प्रबंधकों ने उन्हें चिड़ियाघर भेजने के बजाय जंगल में ही उनकी देखभाल करने का फैसला किया। लेकिन उस समय कैमरा ट्रैप उपलब्ध नहीं होने के कारण वन विभाग अपनी सफलता को साबित नहीं कर सका। खैर जो भी हो, यह वन्यजीव प्रबंधन में एक नए अध्याय की शुरुआत थी।

अब, आधुनिक निगरानी तकनीकों और उपकरणों की उपलब्धता के साथ, अनाथ शावकों की इन-सीटू (in-situ) देखभाल के लिए किए गए प्रयासों को सही ढंग से दर्ज किया गया था। निम्नलिखित चार मामले रणथंभौर के अनूठे प्रयोग में आने वाली चुनौतियों और उससे मिलने वाली सफलताओं एवं व्यवहार संबंधी नई जानकारी को उजागर करते हैं। आइये जानते हैं इनके बारे में।

क्वालजी क्षेत्र के नर मादा शावक

1 सितंबर 2008 को, बाघिन T15 मृत पाई गई थी; और शरीर पूरी तरह से सड़ जाने के कारण मौत का कारण पता लगाना पाना बहुत मुश्किल था। वह अपने पीछे 7 महीने के दो शावकों, एक नर (T36) और एक मादा (T37) को छोड़ गई थी। इस घटना के बाद शावक गायब हो गए और वन रक्षकों द्वारा गहन खोज और प्रयासों के बावजूद भी कोई सफलता नहीं मिली। एक हफ्ता बीतते ही दौलत सिंह (एसीएफ) को पता चला कि, बाघिन कभी-कभी अपने शावकों के साथ इंडाला पठार पर भी जाती थी। टीम ने तुरंत इंडाला क्षेत्र में खोज करी और कुछ घंटों में ही, कई पगमार्क पाए गए। तुरंत एक भैंस के बछड़े के शव की व्यवस्था की गई क्योंकि शावक किसी जानवर को मारने के लिए बहुत छोटे थे और कैमरा ट्रैप तस्वीरों से पता चला कि, दोनों शावक रात में शव को खाने आए थे। इंडाला में कुछ दिन बिताने के बाद, शावक अपनी माँ के पसंदीदा क्षेत्र में लौट आए और वे वन विभाग द्वारा दिए गए भोजन पर ही जीवित रह रहे थे।
फिर लगभग 2 महीने बाद, शावक फिर से गायब हो गए, लेकिन इस बार एक उप-व्यस्क बाघिन, T18 की वजह से, जो खाली क्षेत्र पर कब्जा करने के लिए वहां आ गई थी।

विभाग ने खोज कर पता लगाया कि, नर शावक लकारदा क्षेत्र (रणथम्भौर का मध्य भाग) में मौजूद है। कुछ दिनों के बाद वह और आगे उत्तर में अनंतपुरा क्षेत्र में चला गया और अब तक वह पार्क के पूर्वी भाग से उत्तरी भाग में पहुंच चुका था। एक माँ की सुरक्षा न होने के कारण, उसे एक बार फिर से पार्क की पश्चिमी सीमा की ओर धकेल दिया गया।

दूसरी ओर, मादा शावक दक्षिण की तरफ चली गई। वह पार्क के दक्षिणी छोर पर चंबल के बीहड़ों की ओर पहुंच गई थी, लेकिन वापस लौटकर सवाई मानसिंह अभयारण्य में जोजेश्वर क्षेत्र में बस गई।

नर शावक अपना क्षेत्र स्थापित करने की तलाश में घूम ही रहा था कि, 21 मार्च 2009 को, वह एक खेत में घुस गया और स्थानीय लोगों ने उसे घेर लिया। दौलत सिंह और उनकी टीम ने उसको बचाया और रेडियो कॉलर लगाकर सवाई मानसिंह अभयारण्य के आंतरी क्षेत्र में उसे छोड़ दिया, क्योंकि वहां से एक मादा बाघ के पगमार्क की सूचना मिली थी। बाद में वह आंतरी से जुड़े हुए क्वालजी नामक क्षेत्र में चला गया।

बाघ T36 का रेस्क्यू ऑपरेशन (फोटो: डॉ धर्मेंद्र खांडल)

जून में, वह उस क्षेत्र की बाघिन के आमने-सामने आया, जो उसकी बहन T37 निकली! और फिर भाई-बहन की वह जोड़ी सवाई मानसिंह अभयारण्य के निवासी बन गए। हालांकि ऐसा अनुमान था कि, उप-वयस्क बाघ मानसून के दौरान वहां से चले जाएंगे, परन्तु वे रुके रहे और T36 ने क्वालजी को अपने क्षेत्र के रूप में कब्जे में ले लिया।

वर्ष 2010 में, एक अन्य नर बाघ, T42 क्वालजी पहुंचा और दुर्भाग्य से, एक लड़ाई में 20 अक्टूबर 2010 को, उप-वयस्क बाघ T36 ने दो साल और नौ महीने की उम्र में ही अपनी जान गंवा दी। उसकी मृत्यु के बाद, T42 T37 के साथ क्वालजी क्षेत्र में बस गया। समय के साथ यह जोड़ी पर्यटकों के बीच काफी लोकप्रिय भी हुई।

18 मार्च 2013 को बाघिन T37 के बीमार होने की सूचना मिली और शाम तक वह मृत पायी गई। जांच (Autopsy) से पता चला कि, उसके शरीर में बहुत अधिक चर्बी जमा थी और दिल के दौरे से उसकी मृत्यु हो गई।
हालांकि दोनों शावकों की दुखद मृत्यु हो गई, परन्तु वे वयस्कता तक पहुंच गए थे, जो कि, यह साबित करता है कि उचित देखभाल की जाए तो अनाथ शावक भी जीवित रह सकते हैं।

बेरदा वन क्षेत्र के शावक

4 अप्रैल 2009 को, 17-18 महीने की उम्र के दो उप-वयस्क शावकों को छोड़कर बाघिन T4 की मृत्यु हो गई। शावकों के लिए यह एक महत्वपूर्ण उम्र होती है, क्योंकि इस उम्र में ही उन्हें अपनी माँ से अधिकांश कलाएँ सीखनी होती है। इस बार भी इन दो शावकों में से एक नर (T40) और एक मादा (T41) थी। T15 के शावकों से लिए गए अनुभव से वन विभाग को भरोसा था कि, वे इन्हें भी पाल लेंगे। बेरदा क्षेत्र में पर्याप्त पानी और प्रचुर मात्रा में शिकार दो शावकों के लिए वरदान साबित हुआ। कुछ साल बाद वर्ष 2013 में T41 ने एक मादा शावक को जन्म दिया और रिकॉर्ड के अनुसार, वह पहली अनाथ बाघिन थी जिसने प्रजनन किया था। वहीं नर T40 पार्क से बाहर चला गया और जून 2010 के बाद से उसकी कोई खबर नहीं।

कचीदा क्षेत्र के शावक और उनका पिता

अब वापस कहानी पर आते हैं जहां बाघिन T5 की मौत तीन महीने के दो शावकों (B1 और B2) को छोड़कर हुई थी। विभाग का विचार था कि, शावक बहुत छोटे हैं और ऐसे में उन्हें सरिस्का भेज देना ही उचित होगा, जहां उन्हें एक बाड़े में पाला जाएगा। हालांकि, कुछ समय तक शावकों का कोई पता नहीं चला। लेकिन अंत में, एक वीडियो कैमरा ट्रैप से शावकों के उस स्थान पर आने की फुटेज प्राप्त की, जहां विभाग द्वारा उनके लिए भोजन और पानी रखा गया था। उन्होंने खाया, पिया और फिर गायब हो गए।

पार्क प्रबंधकों ने शावकों को पालने का फैसला किया परन्तु इस परिस्थिति में शावकों के लिए भोजन, पानी और सुरक्षा महत्वपूर्ण पहलु थे। भोजन और पानी का प्रबंध तो किया जा सकता था, लेकिन रणथभौर के घने जंगल में जहाँ कई अन्य जंगली जानवर भी मौजूद हैं सुरक्षा का वादा और पुष्टि नहीं दी जा सकती थी।
फिर एक दिन कचीदा रोड पर एक साथ दोनों शावकों और एक नर बाघ के पगमार्क मिले। और कैमरा ट्रैप की तस्वीरों ने पूरी कहानी का खुलासा किया जिसने बाघों के व्यवहार अध्ययन में एक नया अध्याय जोड़ दिया। तस्वीरों में एक शावक नर बाघ T25 के सामने चलते हुए देखा गया, जिसके बाद दूसरा शावक चल रहा था। यह एक असाधारण खोज थी कि, नर बाघ, जिसके क्षेत्र में शावक रह रहे थे, उनकी रक्षा कर रहा था। जहां अब तक यह माना जाता था कि, शावकों के पालन-पोषण में नर की कोई भूमिका नहीं होती है T25 के इस व्यवहार ने नर बाघों की अपनी संतानों की सुरक्षा और भलाई सुनिश्चित करने में महत्वपूर्ण भूमिका की ओर ध्यान आकर्षित किया। इन शावकों के पालन के दौरान किए गए प्रेक्षणों से पता चला कि, बाघों के व्यवहार को समझ पाना इतना आसान नहीं है और संतान के अस्तित्व में पिता की भूमिका भी अत्यंत महत्वपूर्ण होती है।

इन बढ़ते शावकों की जरूरतों को पूरा करने के लिए लगातार प्रयाप्त मात्रा में भोजन उपलब्ध कराये जाना बहुत जरुरी था और वो भी ऐसे कि, किसी दूसरे शिकारियों का ध्यान आकर्षित न हो। इसीलिए भोजन की मात्रा और देने की विधि समय-समय पर बदली जाती थी। विभाग द्वारा वैकल्पिक भोजन प्रदान कर, शावकों को शिकार करने के कौशल विकसित करने के लिए प्रोत्साहित किया गया। जिसमें शुरुआत में, वो बहुत अनाड़ी और बड़ी मुश्किल से अजीब तरीके से शिकार को मारते थे और उस समय तो बकरी भी शावकों पर हमला करने का साहस करती थी। हालांकि, शावकों ने तेजी से सीखा और जल्द ही वन्यजीवों को मारने में माहिर हो गए। इन शावकों के पालन-पोषण के दौरान, यह भी देखा गया कि, उनका पिता T25 उन्हें अपने द्वारा किए गए शिकारों को खाने के लिए ले जाता था।

चूंकि अब इस क्षेत्र पर किसी भी बाघिन का कब्जा नहीं था, T17 झीलों के आसपास रहने वाली बाघिन ने अपने क्षेत्र का विस्तार करना शुरू कर दिया, और खतरनाक रूप से उस क्षेत्र के करीब आ गई जहां अनाथ शावक रह रहे थे। ऐसे में एक वीडियो फुटेज सामने आया जिसमें बाघ T25, बाघिन T17 को डरा रहा था, क्योंकि वह शावकों का पीछा कर रही थी, और T25 स्पष्ट रूप से उसे शावकों से दूर रहने की चेतावनी दे रहा था। B1 और B2 वास्तव में भाग्यशाली थे कि, उन्हें अन्य बाघों से बचाने के लिए T25 जैसा पिता मिला।

नर बाघ T25 (मध्य में) अपने शावकों को बाघिन T17 से बचाते हुए | (फोटो: देश बंधु वैद्य)

अचानक से दस दिनों के लिए शावक गायब हो गए। विभाग ने तुरंत उनकों खोजना शुरू किया और हर उस इलाके को खोजै गया जहाँ उन्हें ः२५ के साथ देखा गया था परन्तु कोई निशान नहीं मिला।

फिर एक दिन, एक गार्ड ने अधिकारियों को सूचित किया कि, उसने एक पहाड़ी पर कुछ हिलते हुए देखा है। जब खोज दल लगभग आधा ऊपर चढ़ गया, तो उन्हें एक ऐसी जगह पता चली जो दो चट्टानों के बीच एक गहरी दरार थी और एक गुफा बनाती थी और वह इतनी संकरी थी कि उसमें केवल शावक ही घुस सकते थे। दरार के निचले हिस्से में एक अर्ध-गोलाकार चबूतरा सा था। शावक इसी दरार में रह रहे थे, बाहर आकर चबूतरे पर एक-दूसरे का पीछा करते और खेलते। दरार के पास, ऊपर की ओर लटकी हुई चट्टान थी, जिससे एक जल धारा बहती थी और तेज गर्मियों के दौरान भी वहां पानी का एक छोटा सा भरा रहता। उन छोटे शावकों ने इस शानदार घर की खोज कैसे की यह बात अपने आप में ही एक रहस्य है।

जैसे-जैसे शावक बड़े हुए, उन्हें धीरे-धीरे और बहुत सावधानी से विभाग द्वारा दिए जाने वाले शिकार की आदत छुड़वाई। धीरे-धीरे, उन्होंने अपने आप वन्यजीवों का शिकार करना शुरू कर दिया। हालांकि, बाघिन T17 का लगातार दबाव बना हुआ था, और वह इन शावकों के प्रति असहिष्णु हो रही थी। जिसके चलते, दोनों शावकों ने पार्क की बाहरी सीमा में अपना क्षेत्र बना लिया। उन्होंने क्षेत्र को दो इलाकों में बाँट लिया, और एक ऐसा क्षेत्र के बीच में रखा जहां वे अक्सर मिलते और साथ समय बिताते थे। परन्तु वे पार्क की सीमा के पास रहने वाले स्थानीय लोगों के साथ संघर्ष में आ सकते थे, इसलिए अधिकारियों द्वारा उन्हें सरिस्का भेजने का निर्णय लिया गया। वर्ष 2013 की सर्दियों में उन्हें सरिस्का भेज दिया गया था और उनमें से एक ने शावकों को भी जन्म दिया, जो इस कहानी की सफलता में और सकारात्मकता भर देती है।

सरिस्का में शावक B2। सरिस्का में स्थानांतरित होने के बाद शावकों को जन्म देने के बाद यह तस्वीर क्लिक की गई थी। फोटो: भुवनेश सुथार

झीलों की रानी और उसके तीन शावक

बाघिन T17 उर्फ़ लेडी ऑफ़ थे लेक्स (Lady of the Lakes) ने राजबाग झील के पास तीन शावकों को जन्म दिया था। जब बारिश का मौसम शुरू हुआ तो उसे अपने शावकों को उस जगह से ले जाना पड़ा, और वह झील के किनारे के इलाके को छोड़ कर काचिदा से आगे भदलाव नामक स्थान पर चली गई। वर्ष 2013 की सर्दियों में वह किसी अन्य बाघ के साथ लड़ाई में बुरी तरह घायल पाई गई थी। यह देख विभाग कर्मियों द्वारा उसका इलाज किया गया; उसके घाव गहरे थे जिनमें कीड़े पड़े हुए थे। उसे शिकार भी दिया गया ताकि वो खुद से शिकार करने की कोशिश में अपने घावों को और न बढ़ा ले। चोट लगे होने के बावजूद, अगले ही दिन वह नर बाघ T25 से लड़ती हुई पाई गई। और शायद तीन बढ़ते शावकों की जरूरतों को पूरा करने का दबाव पहली बार मां बनने वाली बाघिन के लिए मुश्किल साबित हो रहा था। फिर अप्रैल 2013 में, भदलाव इलाके में 10 महीने के तीन शावकों (2 नर और एक मादा) को छोड़कर, वह लापता हो गई। संयोग से ये शावक भी उसी क्षेत्र में थे जहां T5 के शावक थे। कई लोगों को उम्मीद थी कि, उनकी देखरेख भी T25 कर लेगा। भले ही वे उसके साथ B1 और B2 की तरह देखे नहीं गए थे, लेकिन यह स्पष्ट था कि, T25 ने इन अनाथ शावकों को सुरक्षा प्रदान की थी।

एक जंगल में अनाथ शावकों का भविष्य बड़ा ही अनिश्चित सा होता है। मां के बिना, कमजोर और असहाय शावकों के लिए जंगल एक क्रूर स्थान होता है जहाँ अन्य सभी जानवर व बाघ उनके दुश्मन होते हैं। लेकिन इस निराशाजनक स्थिति में भी वन प्रबंधकों के प्रयास और नियति रणथंभौर के इन अनाथ बच्चों के पक्ष में ही रही है।

(मूल अंग्रेजी आलेख का हिंदी अनुवाद मीनू धाकड़ द्वारा)

Cover photo credit: Dr. Dharmendra Khandal

अंग्रेजी आलेख “Foster Cubs” का हिंदी अनुवाद जो सर्वप्रथम दिसंबर 2018 में Saevus magazine में प्रकाशित हुआ था।

अंग्रेजी आलेख पढ़ने के लिए क्लिक करें: https://www.saevus.in/foster-cubs/