राजस्थान में पाए जाने वाले चमगादड़ों की विविधता को संकलित करता आलेख
चमगादड़ स्तनधारी प्राणियों का एक ऐसा समूह जिसे लोग सदैव हेय दृष्टि से ही देखते आये हैं। इन्होंने भी अपने आप को हमसे दूर रखने में कोई कमी नहीं रखी, एक तो उड़ने वाले प्राणी के रूप में विकसित हुए और दूसरे यह मात्र रात के समय सक्रिय रहते हैं। चमगादड़ एकांत प्रेमी होते हैं और अक्सर निर्जन स्थान पर रहते हैं। इन सभी वजहों के कारण हम इनके बारे में कम ही जानते हैं। वहीं इनके जीवन जीने की सैली भी थोड़ी विचित्र है, यह प्राणी अपना मूत्र और विष्ठा का उत्सर्जन वहीं करते है जहाँ यह रहते हैं, जिसकी गंध अक्सर अन्य प्राणी पसंद नहीं करते और इस तरह चमगादड़ अपने आप को अन्य प्राणियों से बचाते हैं और वहीं इंसान भी इन्हें दूर रखने का प्रयास करते हैं।
चमगादड़ को भोजन के आधार पर दो मुख्य भागों में बांटा जा सकता है – फल खाने वाले विशाल फल भक्षी मेगाबैट्स और दूसरे किट खाने वाले छोटे कीटभक्षी माइक्रो-बैट्स। राजस्थान में ३ चमगादड़ फ्रूट बैट प्रजाति की है और बाकि लगभग 18 कीटभक्षी प्रजाति की है। हालांकि कुछ और भी चमगादड़ प्रजातियां राजस्थान में हो सकती है और जंतु वैज्ञानिकों में कई प्रजातियों के राजस्थान में मिलने नहीं मिलने को लेकर कई तरह की बहस भी चल रही है।
राजस्थान में निम्न चमगादड़ प्रजातियां आसानी से मिल जाती है।
मेगाबैट्स:
यह बैट इकोलोकेशन का इस्तेमाल नहीं करते है और फलों को खाकर अपना पेट भरते है। तीन प्रजातियों की फ्रूट बैट हमारे यहाँ मिलती है।
1. इंडियन फ्लाइइंग फॉक्स (Pteropus medius)
अधिकांशतया बरगद के विशाल वृक्षों पर कॉलोनी बनाकर रहते है। यह एक विशाल चमगादड़ है जिनके हाथों के साथ पंखों का फैलाव 890mm तक हो सकता है। यह अक्सर विशाल बरगद के वृक्षों पर मिलते है। बरगद, गूलर आदि फलों को खाने वाले यह चमगादड़ अपनी विष्ठा से बीजों को फैलाने में एक महत्ती भूमिका निभाते हैं।
यह चमगादड़ इंडियन फ्लाइंग फॉक्स की तुलना में आधे आकार की फ्रूट बैट है। जिनके पंखों का फैलाव 480 mm तक होता है। दिन के समय यह केले, घने पत्ते वाले पेड़ों में छिप कर रहती है। राजस्थान में इसका प्रसार व्यापक है परन्तु राज्य में इसे 1980 में पहली बार देखा गया।
3. लेसचेनॉल्ट का रुसेट (Rousettus leschenaultii)
इस फ्रूट बैट का आकर 560 mm तक होता है। अक्सर यह चमगादड़ गुफाओं अथवा इमारतों में मिलती है। झालावाड़ के गागरोन के किले और जालोर के स्वर्णगिरि के किले पर इसके बड़े समूह देखे जा सकते है।
माइक्रोबैट्स:
राजस्थान में अनेक कीटभक्षी चमगादड़ मिलती है।
A. राइनोपोमा (माउस-टेल्ड बैट)
राजस्थान में अनेक स्थानों पर राइनोपोमा चमगादड़ मिल जाती है। यह एक चूहे के समान दिखने वाली चमगादड़ है जिसके एक लम्बी पूंछ होती है। राजस्थान में इनकी दो प्रजातियां पाई जाती है
4. लेसर माउस-टेल्ड बैट (Rhinopoma hardwickii)
5. ग्रेटर माउस-टेल्ड बैट (Rhinopoma microphyllum)
R. hardwikii की पूंछ इनके फोरआर्म से लम्बी होती है। इनके नाक के पास दोनों और फुले हुए नथुने होते है इन भिन्नताओं के अलावा इसमे और R. microphyllum में कोई अंतर नहीं है।
B. टैफोज़स (टॉम्ब बैट)
इस वंश की 4 प्रजातियां राजस्थान में मानी जाती है। इस जीनस की चमगादड़ को टॉम्ब बैट कहा जाता है, अक्सर पुरानी इमारतों में रहती है अथवा गुफाओं के खुले हिस्से को पसंद करती है। यानी अधिक गहरी और अधिक अँधेरी जगह में कम रहती है।
इन में से नुडीवेन्ट्रिस बैट के शरीर पर अत्यंत छोटे और पतले बाल होते है एवं इसके ऊपरी भाग पर एक तिहाई हिस्से पर बाल नहीं होते है यानि इसका रम्प वाला हिस्सा नग्न होता है। यह सूर्यास्त से आधे घंटे पहले सक्रिय हो जाती है, तेजी से उड़ती है और उड़ते हुए कीड़ों को शिकारी पक्षी की भांति पकड़ती है। वहीं लोन्गिमैनस की आगे की आर्म अधिक लम्बी होती है और मुँह के नीचे बाल रहित गले के पास एक अर्ध गोलाकार गूलर सैक होता है। मेलनोपोगों के नर में गले पर काली दाढ़ी होती है।
C. हिप्पोसिडरोस (राउन्डलीफ बैट)
10. फुलवस लीफ-नोज़ड़ बैट (Hipposideros fulvus)
11. इंडियन राउन्डलीफ बैट (Hipposideros lankadiva)
इनके नाक पर मिलने वाले विभिन्न आकारों के कारण इन्हे सामूहिक रूप से राउंड लीफ चमगादड़ कहा जाता है। इसमें अभी तक दो प्रजातियों के चमगादड़ राज्य में मिले हैं। फुलवस प्रजाति आकर में छोटी और लंकादिवा आकर में बड़ी होती है। लंकादिवा अक्सर नम क्षेत्र में मिलती है और राज्य में मात्र करौली जिले में ही देखी गयी है, जो इस आलेख के लेखक ने ही पहली बार रिकॉर्ड की है। फुलवस राज्य में जैसलमेर से लेकर धौलपुर तक सभी हिस्सों में मिल जाती है। यद्यपि यह भी कुछ नमी वाले स्थानों को पसंद करती है और राइनोपोमा चमगादड़ के साथ भी रह लेती है।
एक वेस्पर्टिलिओनिडे परिवार की बैट है, वेस्पर का अर्थ है ‘शाम’; उन्हें “शाम के चमगादड़” कहा जाता है। इसमें २ प्रजाति राजस्थान में मिलती है। हीथी सबसे अधिक मिलने वाली बैट है जो अकसर भवनों की सीधी दीवारों पर चिपकी रहती है। इन की मादा चमगादड़ में शुक्राणु संग्रहित करने की क्षमता होती है जो ओव्यूलेशन के समय इस्तेमाल होते है। कुहली आकर में छोटी होती है और ब्रीडिंग के समय इनके अंदरूनी हिस्से का रंग और अधिक पीला हो जाता है।
E. टैडारिडा (फ्री-टेल्ड बैट)
इस जीनस में मुक्त पूंछ वाले चमगादड़ों की 2 प्रजातियों राजस्थान में मिलती हैं।
यह सबसे तेजी से उड़ने वाले बैट है जो १५० कम प्रतिघंटा की स्पीड से उड़ सकती है। इसको तेजी से उडने में इसकी पूंछ और उस से लगी झिल्ली काम आती है। इनकी पूँछ आमतौर पर आराम करते समय ही दिखाई देती है। इनकी उपास्थि (cartilage) का एक विशेष छल्ला पूंछ कशेरुकाओं को ऊपर या नीचे स्लाइड करती है साथ ही पूंछ के पास की झिल्ली भी मांसपेशियों द्वारा आगे पीछे खींचने के काम आती है। aegyptiaca प्रजाति अधिकांश राजस्थान में सामान्य तौर पर मिल जाती है परन्तु plicata मात्र माउंट आबू से 1980 में श्री सिन्हा द्वारा रिपोर्टेड है। यह तेजी से आवाज करने में भी माहिर है।
F. राइनोलोफस (हॉर्सशू बैट)
16. ब्लीदस हॉर्सशू बैट (Rhinolophus lepidus)
राइनोलोफस जीनस में हॉर्सशू बैट की कई प्रजातियों आती है। असल में इन चमगादड़ों की नाक के चारों ओर त्वचा का एक गोलाकार आवरण होता है जो घोड़े की नाल की तरह होता है।अधिकांश कीटभक्षी चमगादड़ों की तरह, उनकी आंखें छोटी होती हैं और उनकी दृष्टि का क्षेत्र अक्सर उनकी नाक की पत्ती तक सीमित होता है। राजस्थान में एडवर्ड ब्लाइथ द्वारा खोजी गयी एक बैट मिलती है। यह नाम गुफा में मिलने वाली छोटी बैट है।
G. लयरोडेर्मा (फ़ाल्स वैम्पायर बैट)
17. ग्रेटर फ़ाल्स वैम्पायर बैट (Lyroderma lyra)
यह अपेक्षाकृत बड़े चमगादड़ हैं, जिनके बड़ी आंखें और बहुत बड़े कान और एक उभरी हुई नाक पर एक पत्ती समान संरचना होती है। उनके पिछले पैरों या यूरोपेटागियम के बीच एक चौड़ी झिल्ली होती है, लेकिन कोई पूंछ नहीं होती। इनका पुराना नाम मेगाडरमा था। इन्हें फाल्स वैम्पायर बैट कहते है। यह वैम्पायर जैसे लगते है परन्तु असल में यह अन्य प्राणियों का रक्त नहीं पीते है। राजस्थान में इसकी एक ही lyra नामक प्रजाति मिलती है।
H. पिपिस्टरेलस
18. केलार्ट पिपिस्ट्रेल (Pipistrellus ceylonicus)
19. लीस्ट पिपिस्ट्रेल (Pipistrellus tenuis)
जीनस का नाम इतालवी शब्द पिपिस्ट्रेलो से लिया गया है, जिसका अर्थ है “चमगादड़”। यह अत्यंत छोटे चमगादड़ है। जिनमें २ चमगादड़ राजस्थान से शामिल किये गए है। यह वजन में मात्र ३-८ ग्राम तक के है। इनकी पहचान बाह्य आकर से कम ही हो सकती है परंतु वैज्ञानिक इनकी आवाज , डीएनए, एवं स्कल की बनावट से इनका पता लग सकते है। केलार्ट पिपिस्ट्रेल (Pipistrellus ceylonicus) को अब तक मात्र माउंट आबू, सिरोही से रिकॉर्ड किया गया है। लीस्ट पिपिस्ट्रेल (Pipistrellus tenuis) को गुढ़ा, लिहोरा, नावा, नागौर, (बिस्वास और घोस 1968) जोधपुर, नागौर, जयपुर, टोंक, पाली, सिरोही (सिन्हा 1980) आदि से रिकॉर्ड किया है। यद्यपि यह राजस्थान में विस्तृत रूप से मिलती है।
I. स्कोटोजोस
20. डॉर्मर पिपिस्ट्रेल (Scotozous dormeri)
इस जीनस में मात्र एकमात्र प्रजाति है, यह है -डॉर्मर पिपिस्ट्रेल (स्कॉटोज़स डॉर्मरी) प्रजाति। वितरण: जोधपुर, डूंगरपुर, बांसवाड़ा, भरतपुर (सिन्हा, 1980)
J. असेलिआ
21. ट्राइडेंट लीफ़-नोज़्ड बैट (Asellia tridens)
यह चमगादड़ गर्म क्षेत्रों में मिलती है। इसकी महत्वपूर्ण खोज राजस्थान से मात्र १० वर्ष पूर्व में की गयी है और साथ में पहली बार यह चमगादड़ भारत की सूची में भी शामिल हुई है। राजस्थान के दो जंतु वैज्ञानिक डॉ के आर सेनेचा एवं डॉ सुमित डूकिया ने मिलकर इसकी खोज जैसलमेर से 2013 में की है। इस खोज के बाद शायद इसे पुनः कभी नहीं देखा गया है। इसके नाक की पत्ती नुमा संरचना त्रिशूल के आकर की होती है यानी इसके तीन भाग होते हैं; बाहरी दो हिस्से कुंद हैं, जबकि केंद्रीय हिस्सा नुकीला होता है।
संकलित चमगादड़ों की सूची के अलावा भी कई और चमगादड़ों का राजस्थान के वैज्ञानिक साहित्य में वर्णन है परन्तु उनके रिकॉर्ड त्रुटि पूर्ण लगते है। अतः इन २१ चमगादड़ों को ही राजस्थान का माना जाना चाहिए, यह मेरा मत है।
‘’प्रकृति की पुकार” पुस्तक एक अनुठी कृति है जो राजस्थान प्रशासनिक सेवा से जुड़े डॉ. सूरज सिंह नेगी एवम उनकी पत्नी वनस्थली विधापीठ में एसोसिएट प्रोफेसर डॉ. मीना सिरोला द्वारा सम्पादित की गयी है यह पुस्तक एक अनुठी मुहीम से सृजित हुआ प्रतीफल है जैसा कि नाम से विदित है कि प्रकृति अपने कष्टो से आहत होकर जो की अपने पुत्र मानव को सहयता के लिए पुकार रही है |
इस पुस्तक में 118 पत्रों को प्रकाशित किया गया है | जिन्हें लेखन से जोड़े विभिन्न लोगो ने “पाती अपनो को मुहीम” के तहत संकलित किया गया है | “पाती अपनो को मुहीम” एक ऐसा कार्यक्रम है जिसमे पत्र / पाती लेखन के विलुप्त होती परम्परा को जीवित रखने का प्रयास किया जा रहा है | आधुनिक दौर में जब लोग व्हाट्सएप, ईमेल, मैसेंजर आदि माध्यमो से सुचना प्रेषित करते है जिनमे भावनाओ से दूर मात्र सन्देश प्रेषित करना रह गया है | यह मुहीम डॉ. सूरज सिंह नेगी एवम उनकी पत्नी डॉ. मीना सिरोला द्वारा ही शुरू की गयी है |
प्रकृति की पुकार 336 पेज की पुस्तक है जिसमे मुख्यत: राजस्थान के लोगो ने प्रकृति बनकर मानव के लिए पत्र लिखे है परन्तु साथ ही मध्य प्रदेश , दिल्ली , उतराखंड , हरियाणा आदि से आये पत्रों को सम्मिलित किया गया है इन पत्रों में वनों के कटान , नदियों के प्रदुषण , हवा में घुलते धुएं के जहर ,विलुप्त होते प्राणियों,कंक्रीट के जंगल, शहरो एवं कस्बो के नजदीक खड़े हो रहे है प्लास्टिक व कचरे के ढेर पर जहां चिंता जाहिर की गयी है वही इनसे पैदा हुए मानव जीवन पर खतरे को उल्लेखित किया गया है यह पुस्तक पर्यावरण जागरूकता का एक बहुत बड़ा माध्यम बन सकती है इस पुस्तक से लोगो में जहां पर्यावरण के प्रति जागरूकता पैदा की जा सकती है वही लोगो को पर्यावरण संरक्षण में शामिल किया जा सकता है | इस पुस्तक में लोगो के पत्रों में प्रकृति संरक्षण के उपायों पर चर्चा कम हुई है |
आशा है प्रक्रति संरक्षण के उपायों पर और अधिक सार्थक लेखन संभव हो सके | यह पुस्तक साहित्यागार जयपुर के द्वारा प्रकाशित की गई है जिसकी कीमत 500 रूपये है | आशा है कि आप सभी इस पुस्तक को पढने का प्रयास करेंगे |
Since ancient times, the cow has held a special place in Hindu culture, yet expounding on the virtues of this sanctity is often interpreted as a sign of rigid orthodoxy today. However, if you have even the slightest understanding of how ecosystems function, a gaushala in the district of Karauli named the Thekra Gaushala Dham might give you some ideas that might be deemed “out of the box”. For instance, I discovered how a jungle once ravaged by mining could be restored without plantation drives and the like.
Caption 1: Day-long struggles between vultures and jackals make this place unique.
The grazing area of this gaushala is 1790 bighas in size , and it was once decreasing on account of encroachment and of course being heavily damaged as a consequence of illegal mining. Thus complete chaos ensued in the gaushala’s name. Eventually, one fine day a gentleman named Sh. Munna Singh reversed the encroachment on the land with the support of local communities, and also had the illegal mining stopped for good.
2000 cows were given shelter in the Gaushala and due to the untiring efforts of this gentleman, arrangements for sufficient fodder and water were also made.Just as an ecosystem is nourished with manure and earthworms, in almost the same way, 2000 cows continued to fertilize the mining-afflicted soil with nutrients day and night in this vast area.
Caption 2: Migratory Eurasian Griffons
This area is now a safe ecosystem. I first had the opportunity to visit this area when a man-eating tiger from Ranthambhore called T-104 moved towards human habitation and stayed at this gaushala for a week from where the Forest Department moved it to a safer location with the help of the Village Wildlife Volunteers of Tiger Watch. The Village Wildlife Volunteers used to monitor the tiger in this area.
This ecosystem has improved even further with time, and today it is home to over 35 individuals of endemic vulture species and over 200 migratory vultures have been sighted this year. The interactions between these vultures and jackals is worth observing. There is very slight anthropogenic manipulation in the sense that the dead cows of the gaushala become an easy source of food for the vultures and jackals living here.
Caption 3: All the vultures give the jackals a tough fight.
Caption 4: Morning and evening sunlight is very important for the vultures in autumn. Perhaps the light falls straight on the inner wings.
If the Forest Department wishes, it can declare this place a protected area for vultures, so that this endangered group may have another safe haven. For this move, intense attention will have to be paid to the veterinary medicines used in the gaushala and the surrounding areas. Such a campaign can only be taken forward with the cooperation of local people.
Caption 5 : Limitations of food exacerbate conflict.
You can visit this place yourself with the consent of the gaushala management . It is 30 kms from Karauli on the Dholpur road. The gaushala managers are very sensitive towards the vultures, so you must observe the rules set by them.
Caption 6: Sh. Munna Singh, the gentleman responsible for this restored ecosystem.
विज्ञान से सरोकार रखने वाले लोग प्रकृति में जब भी घूमते हैं या अवलोकन करते हैं तो वे प्रेक्षण लेते रहते हैं। ये प्रेक्षण वीडियों, सेल्फी, फोटो, आंकडों, संस्मरण, नोट, चित्र या आरेख के रूप में या किसी भी अन्य रूप में हो सकते हैं।
जो लोग गंभीर अध्ययन – अनुसंधान करना चाहते हैं, वे गिने-चुने कुछ प्रेक्षणों तक सिमित नहीं रहते बल्कि प्रयास कर एक ही विषय पर पर्याप्त प्रेक्षण लेने की कोशिश करते हैं। जितने प्रेक्षण अधिक होते हैं, निष्कर्ष उतने ही सही निकलते हैं। कम प्रेक्षणों का भी अपना एक महत्तव है। कई बार तो एक प्रेक्षण भी महत्वपूर्ण हो जाता है लेकिन जहाँ तक संभव हो पर्याप्त प्रेक्षण लेने का प्रयास करना चाहिये। कई बार घटनायें इतनी दुर्लभ रहती हैं कि हमें एक ही विषय पर अधिक प्रेक्षण नहीं मिल पाते । ऐसी स्थिति में एक प्रेक्षण भी महत्तवपूर्ण हो जाता है।
प्रेक्षण अलिखित या लिखित हो सकते हैं। अच्छा रहे प्रेक्षण लिखित ही रहने ताकि उनकी सत्यता पर आँच न आये। प्रकृति प्रेमियों के पास एक छोटी डायरी व एक पैन हमेशा पास रहना चाहिये ताकि प्रेक्षण को संपूर्णता में सही-सही अंकित किया जा सके। जब प्रेक्षण अच्छी संख्या में उपलब्घ जावें तो, उन्हें एक लेख के रूप में किसी न्यूजलेटर या जर्नल में प्रकाशित करना चाहिये। यदि जर्नल पीयर व्यू प्रकृति का है तो उत्तम। पीयर व्यू प्रकृति का नहीं होने वाले जर्नलों में लेखक या अनुसंधानकर्ता (प्रेक्षण संग्रहकर्ता) द्वारा की गई गलतियों का निवाराण ढंग से नहीं हो पाता है । यदि जर्नल पीयर व्यू प्रकृति का है तो प्रकाशन से पूर्व लेख रिव्यू करने वाले 1-3 विषय विशेषज्ञों के पास जाता हैं तथा लेख की तकनीकी गलतियों से लेकर व्याकरण तक की त्रुटियाँ ठीक की जाती हैं तब जाकर लेख प्रकाशित होता है। पीयर व्यू नहीं करने वाले जर्नल में अध्ययनकर्ता की गलती को हांलाकि संम्पादक ठीक करने का प्रयास करते हैं फिर भी कई बार आपेक्षित सुधार नहीं हो पाता है तथा कुछ त्रुटियाँ रह जाती हैं।
वैसे देखा जाये तो जो प्रेक्षण एक लेख के रूप में वैज्ञानिक साहित्य में प्रकाशित हो जाते हैं वे ही वैज्ञानिक रेकार्ड बनते हैं तथा आगे अनुसंधानकर्ता या लेखक उनको सन्दर्भ के रूप में अपने लेखों में जगह देते हैं। लेकिन जो प्रेक्षण, तथ्य, फोटो आदि जर्नलों में प्रकाशित नहीं हो पाते, वे वैज्ञानिक साहित्य का हिस्सा बनने से वंचित रह जाते हैं। यदि कोई प्रेक्षण, तथ्य या फोटो किसी स्थानीय अखबार में भी प्रकाशित होते हैं तो भी वे विज्ञान का सन्दर्भ नहीं बन पाते हैं।
आजकल कई अच्छे एवं होनहार प्रकृति प्रेमी छायाकार, प्रकृति प्रेक्षक, प्रकृति अन्वेषक तरह-तरह की वनस्पति व प्राणि प्रजातियों को ढूंढते रहते हैं तथा उनसे हम सभी से अवगत कराने हेतु अखबारों में समाचार प्रकाशित करते हैं व कुछ फेसबुक पर व विभिन्न ग्रुपों में अपनी सामग्री साझा करते रहते हैं। कभी-कभी तो बहुत ही अचरज जनक चीजे व बिल्कुल नये तथ्य भी सामने आते है। चूँकि इनमें उचित ढंग से वैज्ञानिक दस्तावेजीकरण का अभाव रहता है अतः ये अद्भुत चीजे समय के साथ अक्सर खो जाती हैं तथा स्थानीय कुछ लोगों के अलावा बाहरी दुनियाँ को उन अचरज जनक चीजों का कुछ पता ही नहीं चलता । वैज्ञानिक अन्वेषण – लेखन कार्य करने वाले अद्येताओं के लिए ये अद्भुत तथ्य सन्दर्भ भी नहीं बन पाते हैं। ऐसे ही तथ्य जब कोई दूसरा व्यक्ति ढूंढ कर उचित वैज्ञानिक प्रक्रिया का पालन कर दस्तावेजीकरण कर उन्हें रेकार्ड पर लाता है तो प्रथम व्यक्ति असहज हो जाता है तथा अपने कार्य की ‘‘चोरी’’ होने तक का आरोप लगाता है तथा वह कई बार अपनी असहजता को अनेक माध्यमों पर प्रकट भी करता है। यह असहजता कई बार मोबाईल ग्रुपों में देखने को मिलती है। कई बार तो कटु शब्दों का उपयोग भी लोग कर डालते हैं। इससे ग्रुप सदस्यों का सौहार्द बिगडने की भी नौबत बन जाती है।
वे लोग जो अपने नवीन वैज्ञानिक तथ्यों को अखबार या फसेबुक तक सीमित रखते हैं उनको चाहिये की वे अपनी सामग्री को उचित ढंग से दस्तावेजीकरण कर सर्वप्रथम किसी न्यूजलेटर, अनुसंधान जर्नल, रिसर्च प्रोजेक्ट, वैज्ञानिक पुस्तक आदि का हिस्सा बनायें ताकि वह आमजन से लेकर वैज्ञानिक शोध-अध्ययन से जुडी संस्थाओं एवं व्यक्तियों तक पहुंच जाये। निसंदेह अब किसी भी सृजनकर्ता की सामग्री एक वैज्ञानिक रेकार्ड के रूप में दर्ज रहेगी तथा उनका लेख भी उनके नाम से ही दर्ज रहेगा। उचित वैज्ञानिक प्रारूप में प्रकाशित हो जाने के बाद किसी भी जानकारी को यदि मौखिक वार्तालाप, अखबार, फेसबुक आदि का हिस्सा बनाया जाये तो उनके लेख/श्रेय के चोरी होने का खतरा नहीं रहता। ऐसा करने से विज्ञान साहित्य तो सजृन होगा ही, सृजनकर्ता भी ंआंनदित एंव गौरवान्वित अनुभव करेंगे। साथ ही उनके श्रम, समय व धन का सदुपयोग हो सकेगा। मैं यहां यह भी सलाह देना चाहूंगा कि लिखने से पहले उस विषय पर पूर्व प्रकाशित वैज्ञानिक साहित्य को अच्छी तरह पढना व समझना चाहिए ताकि बात-बात में यह कहना की ‘‘यह पहली-पहली बार’’ देखा गया है या इससे पहले ‘‘किसी ने नहीं देखा’’ जैसे शब्दों का प्रयोग नहीं हो ।
राजस्थान के दक्षिणी हिस्से में कई ऑर्किड प्रजातियां पायी जाती हैं . राजस्थान कांटेदार और छोटी पत्तीदार पौधों से भरपूर हैं परन्तु २० से कुछ अधिक ऑर्किड प्रजातियां भी अरावली और विन्ध्यांचल के शुष्क वातावरण में अपने लायक उपयुक्त स्थान बना पाए हैं . यह संख्या कोई अधिक नहीं हैं परन्तु फिर भी शुष्क प्रदेश में इनको देखना एक अनोखा अनुभव हैं . विश्व में ऑर्किड के 25000 से अधिक प्रजातियां देखे गए हैं . भारत में 1250 से अधिक प्रजातियां अब तक दर्ज की गयी हैं, इनमें से 388 प्रजातियां विश्व में मात्र भारत में ही मिलती हैं . राजस्थान में ऑर्किड को प्रकृति में स्वतंत्र रूप से लगे हुए देखना हैं तो – फुलवारी वन्यजीव अभयारण्य, माउंट आबू वन्यजीव अभयारण्य, एवं सीतामाता वन्यजीव अभयारण्य आदि राज्य में सबसे अधिक मुफीद स्थान हैं .
राजस्थान के ऑर्किड पर डॉ. सतीश शर्मा ने एक पुस्तक का लेखन भी किया हैं और कई ऑर्किड प्रजातियों को पहली बार राज्य में पहली बार दर्ज भी किया हैं .
इस वर्षा काल में डॉ. सतीश शर्मा के सानिध्य में कई ऑर्किड देखने का मौका मिला. यह पौधे अत्यंत खूबसूरत और नाजुक थे . एक छोटे समय काल में यह अपने जीवन के सबसे सुन्दर क्षण जब पुष्पित हो को जीवंतता के साथ पूरा करते हैं . यह समय काल मानसून के समय होता हैं अतः थोड़ा कठिन भी होता हैं, इस अवधारणा के विपरीत की राजस्थान एक शुष्क प्रदेश हैं परन्तु वर्षा काल में यह किसी अन्य प्रदेश से इतर नहीं लगता हैं . यह समय अवधि असल में इतनी छोटी होती हैं की इनको देख पाना आसान नहीं होता हैं. मेरे लिए यह सम्भव बनाया डॉ. सतीश शर्मा ने और उनके सानिध्य में राज्य के २ दर्जन ऑर्किड मे से १ दर्जन ऑर्किड में देख पाया .
राजस्थान में तीन प्रकार के ऑर्किड पाए जाते हैं, एपिफैटिक जो पेड़ की शाखा पर उगते हैं, लिथोफाइट जो चट्टानी सतह पर उगते हैं, टेरेस्ट्रियल पौधे जमीन पर उगते हैं
.
1. यूलोफिया हर्बेशिया (Eulophia herbacea) यह राजस्थान में गामडी की नाल एवं खाँचन की नाल-फुलवारी अभयारण्य में मिलता हैं .
2. यूलोफिया ऑक्रीएटा (Eulophia ochreata) घाटोल रेंज के वनक्षेत्र, माउन्ट आबू, सीतामाता अभयारण्यय पट्टामाता (तोरणा प्), तोरणा प्प् (रेंज ओगणा, उदयपुर), फुलवारी की नाल अभयारण्य, कुम्भलगढ अभयारण्य, गौरमघाट (टॉडगढ-रावली अभयारण्य) आदि में मिलता हैं .
3. एपीपैक्टिस वेराट्रीफोलिए (Epipactis veratrifolia) मेनाल क्षेत्र- चित्तौडग़ढ़ में मिलता है .
4. हैबेनेरिया फर्सीफेरा (Habenaria furcifera)फुलवारी की नाल अभयारण्य, कुम्भलगढ अभयारण्य, गोगुन्दा तहसील के वन क्षेत्र एवं घास के बीडे, सीतामाता अभयारण्य आदि
5. हैबेनेरिया लॉन्गीकार्नीकुलेटा (Habenaria longicorniculata) माउन्ट आबू अभयारण्य, गोगुन्दा व झाडोल रेंज के वन क्षेत्र (उदयपुर), कुम्भलगढ अभयारण्य आदि .
6. हैबेनेरिया गिब्सनई (Habenaria gibsonii) माउन्ट आबू अभयारण्य एवं उदयपुर के आस पास के क्षेत्र में मिलता हैं .
7. पैरीस्टाइलिस गुडयेरोइड्स (Peristylus goodyeroides) मात्र फुलवारी की नाल अभयारण्य क्षेत्र में मिला है .
8. पैरीस्टाइलिस कॉन्सट्रिक्ट्स (Peristylus constrictus) सीतामाता एवं फुलवारी की नाल अभयारण्य आदि में मिलता है .
9. पैरीस्टाइलिस लवी (Peristylus lawiI): फुलवारी की नाल अभयारण्य में मिलता है .
10. वैन्डा टैसीलाटा (Vanda tessellata) सांगबारी भूतखोरा, पीपल खूँट, पूना पठार (सभी बाँसवाडा जिले के वन क्षेत्र), फुलवारी की नाल, सीतामाता माउन्ट आबू, शेरगढ अभ्यारण्य बाँरा जिला में सीताबाडी, मुँडियार नाका के जंगल, कुण्डाखोहय प्रतापगढ वन मंडल के वन क्षेत्र आदि .
11. एकैम्पे प्रेमोर्सा (Acampe praemorsa) सीतामाता अभ्यारण्य, फुलवारी की नाल अभ्यारण्य, फलासिया क्षेत्र अन्तर्गत नला गाँव के वन क्षैत्र आदि
कई बार आपने वन्यजीवों के समूहों के बीच सफ़ेद या रंगहीन सदस्य को देखा होगा। जिसका रंग उसके साथियों जैसा न होकर बल्कि सफ़ेद होता है। ऐसे जीवों को हम एल्बिनो कहते हैं। परन्तु सभी रंगहीन जीव एल्बिनो नहीं बल्कि कई बार वे लीयूसिस्टिक (Leucistic) भी होते हैं। ल्यूसिज्म जेनेटिक म्युटेशन (Genetic Mutation) के कारण होने वाली एक असामान्य स्थिति है जिसमें मेलेनिन पिग्मेंट जीव के शरीर में ठीक से जमा नहीं हो पाता है।
जहाँ एक ओर ऐल्बुनिज़्म में जीव में पूरी तरह से रंगहीनता आ जाती है वहीँ दूसरी ओर लीयूसिस्म जीव को पूरी तरह सफ़ेद नहीं करता बल्कि कभी- कभी ये जीव हल्के रंग के भी हो सकते हैं और ऐसा इसीलिए होता है क्योंकि ल्यूसिज्म की स्थिति में जीवों में मेलेनिन पूरी तरह से खत्म नहीं होता है। लीयूसिस्टिक जीवों की आँखें सामान्य रंग की होती हैं जबकि एल्बिनो जीवों की आँखे गुलाबी या लाल होती हैं।
सामान्य लार्ज ग्रे बैब्लर (Photo: Dr. Renu Kohli)
इस कथा चित्र में लीयूसिस्टिक लार्ज ग्रे बैब्लर की तस्वीरें दी गई हैं जिसे जोधपुर में देखा गया था।
(Photo: Mr. Niramay Upadhyay)
और लीयूसिस्टिक रेड वेंटेड बुलबुल की तस्वीरें दी गई हैं जिसे सबलपुरा गाँव, बेदला, उदयपुर में देखा गया था।