बोखा बाघ अब इतिहास का एक किस्सा भर लगता है, पर यह वह बाघ था जिसने डूंगरपुर राज्य में किये गए हजारो शिकारों को भुला दिया और राज्य को संरक्षण की मिशाल का अग्रणी बना दिया। 

हम में से अधिकांश लोग भलीभांति परिचित है, की किस प्रकार सरिस्का में 2001 -04 तक शिकारियों द्वारा तेजी से सारे बाघों का सफाया कर दिया गया था, परन्तु तत्कालीन सरकार द्वारा सरिस्का में पुनः बाघ स्थापन किये गए, यहाँ रणथम्भौर से लेकर बाघों को छोड़ा गया I यद्पि सरिस्का के पर्यावास में अधिक सुधार नहीं हो पाया एवं यहाँ बाघों की स्थिति में अभी भी कोई बड़ा बदलाव नहीं आ पाया ।

यद्पि इसे बाघों के पुनः स्थापित करने की प्रक्रिया को विश्व की पहली बाघ स्थानांतरण  प्रक्रिया के रूप में देखा गया परन्तु इतिहास के पन्नो को देखे तो पता लगेगा की यह कार्य वर्षो पूर्व डूंगरपुर स्वतंत्र राज्य ने 1928 में ही कर दिखाया था ।

डूंगरपुर राज्य शिकार के साथ वन्यजीव संरक्षण में सदैव अग्रणी भी रहा है, पर जब वर्ष 1918  में राज प्रमुख महारावल बिजय सिंह की अचानक मृत्यु हो गयी तो, वहां ब्रिटिश राज्य द्वारा स्थापित अंग्रेज अधिकारी डोनाल्ड फील्ड ने अपनी मर्जी से 2-3 वर्षो में सारे बाघों का शिकार कर दिया। नव स्थापित महारवाल लक्ष्मण सिंह अपनी बाल्यावस्था में थे। जब महारवाल लक्ष्मण सिंह जब बड़े हुए तो, उन्होंने तय किया की राज्य में पुनः बाघों को स्थापित किया जाये ।

डूंगरपुर के जूना महल की दीवारों पर बने बाघ शिकार के भित्तिचित्र (फोटो: डॉ. धर्मेंद्र खांडल)

वर्ष 1928, में दो बाघों को ग्वालियर से पकड़ कर रेल मार्ग से गुजरात लाया गया एवं तदुपरांत उन्हें सड़क मार्ग से डूंगरपुर लाया गया। इन दो बाघों में एक नर बाघ था जिसे ‘बोखा’ कहा गया एवं मादा को ‘बोखी’।

बोखा बाघ: जिसे ग्वालियर से डूंगरपुर लाया गया एवं प्रथम विस्थापित बाघ हो कर नए क्षेत्र में कुनबा बढ़ने का गौरव प्राप्त हुआ (फोटो: डॉ. धर्मेंद्र खांडल)

शायद इन बाघों को दूर तक पिंजरे में लाने के दौरान उन्होंने अपनी मुख्य कैनाइन दांत पिंजरे को तोड़ने में गिरा दिए होंगे, तथा बाद में यह बाघ बोखा एवं बोखी कहलाये यद्पि इसका विवरण नहीं मिलता है। इन दोनों को सफलतापूर्वक डूंगरपुर के समृद्ध वनों में छोड़ा गया साथ ही बाद में इसी क्रम में और बाघों को भी राज्य में लाया  गया ।

प्रमाण मिलते है की, केवल बाघ ही नहीं लाये गए बल्कि डूंगरपुर राज्य ने उनके संरक्षण के लिए समुचित प्रयास भी किये, जिनमें उनकी निरंतर मॉनिटरिंग, उनके जल आपूर्ति के लिए जल कुंड (वाटर होल) का निर्माण एवं बाघों द्वारा पालतू पशु मरने पर मुआवजा देने का प्रावधान भी किया गया ।

इन सभी प्रयासों का परिणाम भी सुखद निकला एवं राज्य में 7 वर्ष में यह बाघो की संख्या 20  तक पहुँच गए। कहते है बोखी बाघिन ने 3 बार बच्चे दिए जिनमें कुल मिलाकर 10 शावकों पैदा हुए। सन्दर्भ बताते है की यह प्रयोग अत्यंत सफल हुआ एवं 1930 से 1937 के मध्य वहां लगभग 3 दर्जन बाघ शवको का जन्म हुआ। इसी प्रकार राज्य ने 1948 तक 25 बाघों की संख्या को बनाये रखा ।

बोखा बाघ की समाधी (फोटो: डॉ. धर्मेंद्र खांडल)

यद्पि आज डूंगरपुर में कोई बाघ नहीं है परन्तु सिखने ले लिए वहां बहुत कुछ है। प्रयास करे हम हमारे इतिहास से सीखे एवं उसका सम्मान करे ।

सन्दर्भ:

  • Singh, P, Reddy, G.V. (2016) Lost Tigers Plundered Forests: A report tracing the decline of the tiger across the state of Rajasthan (1900 to present). WWF-India, New Delhi.
  • Divyabhanusinh, 2018  pers comm.
  • Mahesh Purohit 2019 pers  Comm.