कर्नल केसरी सिंह ने अपनी एक पुस्तक में रणथम्भोर के एक स्थानीय व्यक्ति नाथू बावरिया का जिक्र किया है, जो उन्हें बाघ खोजने और भिन्न प्रकार के वन्य प्राणियों और पक्षियों  के मांस से होने वाले अलग अलग फायदों के बारे में बताता था। यह किसी बावरिया के बाघ और रणथम्भोर से जुड़ाव का पहला वाकया है, जो कहीं लिखा गया है।  उसके बारे में लिखते हुए केसरी सिंह ने नाथू की बावरिया जाती के रणथम्भोर से जुड़े लम्बे इतिहास और वन्य जीव के बारे में उनकी गहरी समझ का भी बखान किया है।

शायद केसरी सिंह की मदद से ही नाथू बावरिया का एक पुत्र मुकन उस समय वन विभाग में वनरक्षक का कार्य करने लगा था। शायद रणथम्भोर क्षेत्र का अब तक का अकेला बावरिया था, जो सरकार से सीधा जुड़ कर मुख्यधारा में आगया था। हालाँकि वह हिस्सा टोंक जिले में जहाँ मुकन पदस्थापित था। खैर किसी बंधन में काम नहीं करने की आदत और एक स्थानीय व्यक्ति के झांसे में आकर मुकन ने यह नौकरी से हट गया था । असल में मुकन को कुछ रुपये देकर एक स्थानीय ऊँची जाती के व्यक्ति  कजोड़ सिंह ने सरकारी कागजो में हेर फेर  करवा कर उस से नौकरी हड़प  ली थी।  हालाँकि इस नौकरी के दौरान मुकन अपने नाम के आगे पिता की जाती बावरिया की जगह मोग्या लगाने लगा था, जिसके पीछे एक कारण था।

सामुदायिक विवाह समारोह में मस्ती करते हुए मुकन मोगिया (फोटो: डॉ धर्मेंद्र खांडल)

वैसे तो मोग्या और बावरिया एक ही समाज है, परन्तु इन दोनो नामों के इस्तेमाल के पीछे कई राज और दर्द की दास्ताने है, जो बस इन्ही समाज के लोगो के दिलों में ही दफ़न है।  इन्होने भिन्न जाती के नामो का इस्तेमाल सरकार की रुख देख करअलग अल्लाह समय में भिन्न ढंग से किया है कभी बावरिया – मोग्या बन गए और कभी मोग्या फिर से बावरिया बन गए।

इस समाज की नयी पीढ़ी ने अपने नाम के आगे मोग्या लिखना शुरू कर दिया ताकि अंग्रेजो के एक  पक्षपातपूर्ण कानून से बच सके।  अंग्रेजो के एक कठोर कानून – जरायम पेशा कनून (Criminal Tribes Act – 1871) के तहत 127 जातीय पर कई प्रकार के प्रतिबन्ध लगा रखे थे। अंग्रेजो के  इस काले कानून के दायरे में आने वाली इन जातियों में उस समय  लगभग 1 करोड 30 लाख (13 million) आते होंगे। इस कानून के तहत इन जाती के पुरुषों को हर सप्ताह नजदीक के  पुलिस थाने में जाकर उपस्थिति दर्ज करवानी पड़ती थी और बिना बताये तय क्षेत्र से बाहर पाए जाने पर कड़ी कानूनन कारवाई हुआ करती थी।

भारत जाती और सम्प्रदायों में बंटा हुआ एक विलक्षण देश है। हर व्यक्ति आज भी इन्ही बटवारो के दायरों में सिमटा हुआ है।  हर किसी जाती से कई ऊँची जातियां है और इतनी ही उनसे छोटी जातियां है। वर्तमान में जाती वह समूह है जिस का सीधा सम्बन्ध जन्म से है, यानि की वह किस समूह या परिवार में पैदा हुआ है।  यह व्यवस्ता कभी कर्मों से जुडी रही होगी, परन्तु सदियों से तो जाती का सीधा सम्बन्ध जन्म से ही माना जाता है।

मुकन और उनका परिवार (फोटो: डॉ धर्मेंद्र खांडल)

जरायम पेशा कनून (Criminal Tribes Act – 1871) के अंतरगत राजस्थान से १२ जातियों को प्रतिबंधित सूचि में रखा गया था -मीणा, भील, बावरिया, कंजर, सांसी, बंजारा, बागरिया, नट, नलक, मुलतांनी, भाट एवं मोगिया।

अब आप सोच रहे होंगे की जब मोगिया शामिल है तो बावरिया से मोगिया बनने में क्या लाभ?

कहते है मेवाड़ रियासत ने  बावरिया समाज के ही चुनिंदा लोगो को मोग्या नाम का ख़िताब दिया था।  क्योंकि कुछ बावरिया लोगो ने  मेवाड़ रियासत को भीलो और स्थानीय मीना लोगो के उत्पात से रक्षा में सहायता की थी, अतः मोगिया को हर समय शासन के नजदीक माना गया था। जॉर्ज व्हिट्टी गएर (George Whitty Gayer) 1909  की पुस्तक  Lectures on some criminal tribes of India and religious mendicants  के अनुसार मेवाड़ शासन ने स्थनीय आदिवासियों के उत्पात को शांत करने वाले वफादार बावरिया समूह को कोरल (coral) यानि मूंगा का दर्जा दिया, जो एक एक हिरे मोती की भांति एक महंगा पदार्थ है और वह बावरिया लोग मोंगिया कहलाने लगे और बाद में मोगिया कहलाये।  परन्तु आज भी मोगिया और बावरिया शब्द के इस्तेमाल करने वाले दोनों समूहों में शादी विवाह और अन्य तरह के व्यव्हार मौजूद है।

मुकन का पुत्र भजन मोगिया (दाएं), एक सुधारित बाघ शिकारी

संयुक्त राष्ट्र की एक शाखा Committee on the Elimination of Racial Discrimination (CERD) की सलाह पर भारत ने आजादी के कुछ वर्ष पश्च्यात इन 127 जातियों को उस जरायम पेशा अनुसूची से तो विमुक्त कर दिया और अब इन्हे विमुक्त जातियों (Denotified Tribes) के रूप में जाना जाता है जो बिलकुल वैसा ही है जैसे आप चिपके हुए स्टीकर के ऊपरी तह को खुरच कर निकल देते हो परन्तु निचे अभी भीकुछ चिपका हुआ हिस्सा रह जाता हो।

मुकन मोगिया के परिवार का टाइगर वॉच संस्था से अनूठा जुड़ाव है। संस्था की एंटी-पोचिंग यूनिट में मुकन के एक पुत्र गोविन्द मोगिया  ने खूब सेवाये दी है,  साथ ही इसी संस्था ने मुकन के एक पुत्र कालू को बघेरे के शिकार के लिए पुलिस को पकड़वाया भी है । वहीँ संस्था ने सूड़ केमि नमक संस्थान की मदद से  मुकन के 15 पोत्रो को अच्छी शिक्षा भी दिलवाई है, जो आज भी जारी है। इन्ही बच्चो में से एक बड़ा लड़के ने एक बार कहाँ की उसे यदि कुछ रुपये मिले तो वह अपनी जाती का नाम मोगिया से बावरिया करवाना चाहता है।  लगा शायद यह आत्मसमान के लिए किया जाने वाला एक प्रयास है,  परन्तु उसने बतया की मोगिया पिछड़े वर्ग (OBC) में आते है जबकि बावरिया अनुसूचित जाती  (SC) में शामिल है।  और मुफ्त राशन, शिक्षा एवं नोकरियो में प्राथमिकता के लिए अनुसूचित जाती में जाना ज्यादा लाभप्रद है।  उसने अपने स्तर पर  एक सरकारी अधिकारी  को  2500 रुपये की रिश्वत देकर अपने परदादा की जाती पुनः हासिल करली। शायद बावरिया कहलाना उसका हक़ भी था और अब अधिकांश बच्चे मोगिया से पुनः बावरिया लिखने लगे है।

गांव में लोग बावरिया और मोगिया में भेद नहीं करते परन्तु सरकार अभी भी इनमें अंतर करती है। पिछले दिनों टाइगर वॉच में आये Anthropological Survey of India के लोगो ने मोगिया  समाज पर एक अलग जाती के रूप में अध्ययन कर न शुरू किया है जो अब तक वह नहीं  कर पाए थे।

भजन के पुत्र दिलकुश बावरिया। नाथू बावरिया के बाद चौथी पीढ़ी, और औपचारिक शिक्षा प्राप्त करने वाली पहली पीढ़ी (फोटो: डॉ धर्मेंद्र खांडल)

मोगिया समाज के बच्चो के छात्रावास के 15 वर्ष के अनुभव में यह कई बार सामने आया ऊँची आजाती के लोग ही नहीं इन्हे दलित समाज (बैरवा आदि) के लोग भी इन्हे हेय दृष्टि से देखते है और इस से बढ़ कर यह भी देखने को मिला की किस प्रकार इसी मोगिया समाज के छात्रों ने भी कुछ अन्य समाजो (कालबेलिया और भोपा) के छात्रों के साथ खाने पिने और रहने से मना कर दिया की वह उनसे छोटे और अछूत है।

आज देश में 352 घुमंतू और 198 विमुक्त जातीय है जिनकी जनसँख्या 10 -11 करोड़ है और यह अपनी परम्परा से जुड़े रहने के लिए संघर्ष कर रहे है। सरकार इन्हे मुख्यधारा में लाने के अनेक प्रयास भी कर रही है, परन्तु इस संसाधन हीन देश में सब आसानी से नहीं मिलने वाला।

परन्तु दूसरी तरफ लगता है इस देश से अधिक सुविधा वाला देश और कौन सा होगा जहाँ कोई 2500 रुपये में जाती बदलवा सकते है।

नाथू बावरिया की नई पीढ़िया परपरागत ज्ञान भुला कर किताबी शिक्षा हासिल कर चुके है और कजोड़ जैसी चतुराई सीख कर प्रमाणपत्र भी हासिल कर लिया है। आज यह किसी और कजोड़ से बेवकूफ नहीं बनगे बल्कि सरकार को चक्कर खिला देंगे।

इन असली आदिवासियों के बारे में यह आलेख सत्य और तथ्य पर आधारित है।

लेखक:

Dr. Dharmendra Khandal (L) has worked as a conservation biologist with Tiger Watch – a non-profit organisation based in Ranthambhore, for the last 16 years. He spearheads all anti-poaching, community-based conservation and exploration interventions for the organisation.

Mr. Ishan Dhar (R) is a researcher of political science in a think tank. He has been associated with Tiger Watch’s conservation interventions in his capacity as a member of the board of directors.