पार्थीनियम: शुष्क प्रदेश के लिए एक अभिश्राप
“पार्थीनियम ” आज राजस्थान की दूसरी सबसे अधिक आक्रामक तरीके से फैलने वाली एक खरपतवार है जो यहाँ के आवासों, स्थानीय वनस्पत्तियों और वन्यजीवों के लिए मुश्किल का सबब बनती जा रही है …
जलवायु परिवर्तन के कारण कहीं सूखा तो कहीं बाढ़, कभी तेज गर्मी तो कभी सर्दी और इसके द्वारा न जाने कितनी अन्य मुसीबतों से आज पूरा विश्व गुजर रहा है। ऐसे में राजस्थान जैसे शुष्क प्रदेश लगातार जलसंकट का सामना कर रहे है कई खरपतवार वनस्पतियाँ इस संकट की घडी में पर्यावरण की मुश्किलों को और बढ़ा रही है जैसे की “पार्थीनियम “।
पार्थीनियम, राजस्थान की दूसरी सबसे खराब खरपतवार है जो की राज्य के अधिकांश इलाकों में आक्रामक तरीके से फैल चुकी है। यह राजस्थान के पारिस्थितिक तंत्र की मूल निवासी नहीं हैं तथा राजस्थान तो क्या पूरे भारत में इसके विस्तार को सिमित रखने वाले पौधे एवं प्राणी नहीं है क्योंकि यह एक आक्रामक प्रजाति (Invasive species) है। आक्रामक प्रजाति वे पौधे, प्राणी एवं सूक्ष्मजीव होते है जो जाने-अनजाने में मानव गतिविधियों द्वारा अपने प्राकृतिक पारिस्थितिक तंत्र से बाहर के क्षेत्र में पहुंच जाते है और फिर बहुत ही आक्रामक तरीके से फैलते है क्योंकि उनको नियंत्रित रखने वाली प्रजातियां वहां नहीं होती है।
आज सिर्फ राजस्थान ही नहीं बल्कि पूरे भारत का लगभग 65 प्रतिशत भू-भाग पार्थीनियम की चपेट में है। परन्तु प्रश्न ये उठता है कि, अगर ये यहाँ की मूल निवासी नहीं हैं तो यहाँ आयी कैसे?
तो बात है सन 1945 की जब अमेरिका ने जापान के हिरोशिमा और नागासाकी नामक शहर पर दुनिया का पहला परमाणु बम गिराया था। इस हमले के बाद दुनिया के तमाम देशों ने अमेरिका की आलोचना की तथा दुनिया के सामने अपनी छवि सुधारने के लिए सन 1956 में अमेरिका ने पब्लिक लॉ 480 (PL-480) स्कीम की शुरुआत की। इस स्कीम के अंतर्गत अमेरिका ने विश्व के आर्थिक रूप से गरीब व जरूरतमंद देशों को खाद्य सामग्री उपलब्ध कराने का वादा किया तथा भारत भी उन देशों में से एक था। परन्तु इस स्कीम के तहत जो गेंहू आयात हुआ उसके साथ कई प्रकार की अनचाही वनस्पतिक प्रजातियां भी भारत में आ गयी और उनमें से एक थी “पार्थीनियम “। आज देखते ही देखते यह खरपतवार पूरे भारत सहित 40 अन्य देशों में फ़ैल चुकी है तथा इसके प्रकोप और प्रभावों को देखते हुए IUCN द्वारा इसे दुनिया की 100 सबसे आक्रामक प्रजातियों में से एक माना गया है।
पार्थीनियम को “गाजर घास” एवं “कांग्रेस घास” भी कहा जाता है तथा इसका वैज्ञानिक नाम “Parthenium hysterophorus” है। उत्तरी अमेरिका मूल का यह पौधा Asteraceae परिवार का सदस्य है। एक से डेढ़ मीटर लम्बे इस पौधे पर गाजर जैसी पत्तियां और सफ़ेद रंग के छोटे-छोटे फूल आते है।
जलवायु परिवर्तन के इस दौर में पार्थीनियम एक ऐसी खरपतवार है जो पूरे पारिस्थितिक तंत्र ख़ासतौर से राजस्थान जैसे शुष्क प्रदेश के लिए एक बड़ा संकट बनती जा रही है। राजस्थान में लगभग सभी इलाके 236 ब्लॉक में से 190 ब्लॉक डार्क ज़ोन में है तथा जलसंकट से ग्रसित है। यहाँ के ज्यादातर क्षेत्र शुष्क व अर्ध शुष्क घास के मैदान, बीहड़, पर्णपाती वन और रेगिस्तान हैं तथा इन सभी आवासों की एक खास बात यह है कि, ये कभी भी वर्ष भर हरियाली से ढके नहीं रहते हैं क्योंकि हरीयाली यहाँ वर्षा जल पर निर्भर करती है ऐसे में पार्थीनियम का अनियंत्रित फैलाव न केवल वनस्पति समुदाय को बल्कि विभिन्न वन्य जीवों को भी अलग-अलग प्रकार से प्रभावित करता है।
इस खरपतवार से निम्न नुकसान होते हैं
- स्थानीय वनस्पतियों के हैबिटैट में प्रसार : राजस्थान जैसे शुष्क एवं अर्द्ध-शुष्क जलवायु वाले प्रदेश में स्थानीय वनस्पतिक अपेक्षाकृत कम घनत्व वाली वनस्पति आवरण पायी जाती है ऐसे में पार्थीनियम विभिन्न तरीकों से स्थानीय वनस्पतियों को आच्छादित कर लेता है एवं उसके स्थान पर स्वयं फैलने लगता है जैसे कि, यह एक शाकीय पौधा है और पास-पास उग कर यह सघन झाड़ियों (Thickets) के रूप में वृद्धि करता है जिसके द्वारा इससे छोटे पौधों को पूरी तरह से प्रकाश नहीं मिल पाता, उनकी वृद्धि नहीं हो पाती और न ही उनके बीज बनने की क्रिया पूरी हो पाती है। फिर धीरे-धीरे वो खत्म हो जाते हैं। इस प्रतिस्पर्धा में छोटे पौधे और विभिन्न घास प्रजातियां सबसे ज्यादा प्रभावित होती हैं। साथ ही इसमें पाए जाने वाले रसायन भी फसलों तथा अन्य वनस्पतियों पर एलेलोपैथिक प्रभाव डाल बीज अंकुरण व वृद्धि को रोकते है।
- संरक्षित वन क्षेत्रों में नुकसान: राजस्थान में पाए जाने वाले सभी वन्यजीव संरक्षित क्षेत्र शुष्क पहाड़ी क्षेत्र है जो न सिर्फ वन्यजीव संरक्षण की दृष्टि से महत्वपूर्ण है बल्कि इस शुष्क प्रदेश के लिए जलग्रहण क्षेत्र भी है क्योंकि वर्षा ऋतु के दिनों में इनसे कई छोटी-छोटी जलधाराएं निकलती है जो आगे जाकर नदियों, तालाबों और बांधों का जल स्तर भी बढ़ाती है। परन्तु अब पार्थीनियम इन संरक्षित क्षेत्रों में भी फैलता जा रहा है तथा बाकि वनस्पतियों को हटा कर दुर्लभ वन्यजीवों के आवास व भोजन को नुकसान पंहुचा रहा है।
- मवेशियों व वन्यजीवों पर प्रभाव: राजस्थान में पानी की कमी के कारण चरागाह भूमि और घास के मैदान भी बहुत सिमित है जिनपर बहुत से मवेशियों के साथ-साथ शाकाहारी वन्यजीव जैसे सांभर, चीतल, चिंकारा, काला हिरन आदि भी निर्भर है और इन भूमियों के अधिकतर हिस्सों में अब पार्थीनियम फैल गया है जिससे न सिर्फ चरागाह भूमियों की उत्पादकता में कमी आ रही बल्कि यह आवास धीरे-धीरे समाप्त हो रहे हैं और इसका सीधा प्रभाव उन जीवों पर पड़ रहा है जो इन आवासों के मुख्य निवासी हैं। साथ ही मवेशियों और अन्य जानवरों के लिए विषैला होता है और यदि कोई प्राणी इसकी हरियाली के प्रति आकर्षित होकर इसे खा ले तो वह बीमार हो जाता है या मर सकता है।
- नमभूमियों को नुकसान: सिर्फ यही नहीं पार्थीनियम अपने पैर हर मुमकिन जगहों पर फैला रहा है जैसे की नमभूमियों के किनारे। राजस्थान में भीषण गर्मी के दिनों में छोटे जल स्रोत सूख जाया करते है और ऐसे में वर्षभर पानी उपलब्ध कराने वाले जल स्रोतों की महत्वता बहुत ही बढ़ जाती है। क्योंकि ये जल स्रोत न सिर्फ जानवरों को पानी उपलब्ध कराते है बल्कि वर्ष के सबसे भीषण गर्मी वाले दिनों में जब कहीं भी कोई घास व हरा चारा नहीं बचता है उस समय इनके किनारे उगने वाले हरे चारे पर कई जीव निर्भर करते है। परन्तु आज पार्थीनियम इन जल स्रोतों के किनारों पर भी उग गया है तथा जानवरों के लिए गर्मी के दिनों में मुश्किल का सबब बन रहा है। राजस्थान जैसे शुष्क प्रदेश जहाँ पहले से ही पानी की कमी के कारण मनुष्य, मवेशी और वन्यजीव मुश्किल में है वहां पार्थीनियम जैसी खरपतवार मुश्किलों को और भी ज्यादा बढ़ा रही है।
- छोटी जैव विविधता को नुकसान: प्रकृति में घास और अन्य पौधों की झाड़ियों में चिड़ियाँ, मकड़ी, शलभ (moth) और कई प्रकार के छोटी जीव रहते हैं परन्तु पार्थेनियम के विस्तार के साथ एक ही प्रकार का आवास बनता जा रहा है जिसके कारण यह कम जैव विविधता को समर्थन करता है।
- आग की घटनाओ को बढ़ाना: क्योंकि यह एक साथ लगातार बड़े-बड़े हिस्सों में फैलता जा रहा है। गर्मी के दिनों में नमी की कमी से यह सूख जाता है और सूखने पर यह एक आसानी से जलनेवाला पदार्थ (Combustible) है तथा जंगल में आग की घटनाओं को बढ़ाता है।
- फसलों और आय पर प्रभाव: आज अधिकतर कृषि क्षेत्रों में भी यह फ़ैल चुका है और जिसके करण खेतों की उत्पादकता और फसलों की पैदावार कम हो रही है क्योंकि यह जरुरी पोषक तत्वों के लिए फसलों के साथ प्रतिस्पर्धा करता है।
- मनुष्यों पर प्रभाव: न सिर्फ वनस्पत्तियों और जीवों के लिए यह हानिकारक है बल्कि यह मनुष्यों के लिए भी बहुत नुकसान दायक है क्योंकि इस पौधे के संपर्क में आने से मनुष्यों में खाज, खुजली, चर्म रोग, दमा, हेफीवर जैसी बीमारियां पैदा होती हैं।
फैलने के कारण व तरीके:
- इसके तेजी से फैलने के पीछे कई कारण है जिसमें सबसे मुख्य है कि, इसका जीवनचक्र 3-4 माह का ही होता है और इसका एक पौधा एक बार में लगभग 10,000 से 25,000 बीज पैदा करता है। यह बीज हल्के होते हैं जो आसानी से हवा और पानी से आसपास के सभी क्षेत्रों में फ़ैल जाते हैं तथा यह वर्षभर प्रतिकूल परिस्तिथतियों एवं कहीं भी उगने व फलने फूलने की क्षमता रखता है।
- वन क्षेत्रों को जब भी सड़क, रेल लाइन और नहरों के निर्माण के लिए खंडित किया जाता है अर्थात जंगल को काटा जाता है तो जंगल का कैनोपी कवर हटने से भूमि खाली होती है और जिसपर प्रकाश भी भरपूर होता है। बस प्रकाश और खाली स्थान मिलते ही ऐसे खरपतवार वहां उग जाते है। साथ ही निर्माण कार्य के दौरान आसपास बने गड्ढों में पानी भर जाने पर भी ये उग जाता है।
- अगर ये नदी या पानी के किनारे पर मौजूद होता है तो बहते हुए पानी के साथ आते-आते इसके बीज पूरे क्षेत्र में फ़ैल जाते है और धीरे-धीरे यह खेतों में भी पहुंच जाता है।
- स्वास्थ्य के ऊपर कई नुकसान होने के कारण कोई भी प्राणी इसे नहीं खाता है जिसके कारण यह बचा हुआ है और तेजी से फ़ैल रहा है।
- हालांकि प्राणी इसे नहीं खाते हैं परन्तु ऐसा देखा गया है कि, गधा इसे बड़े चाव से खाता है और फिर उसके गोबर के साथ इसके बीजों का बिखराव आसपास के सभी क्षेत्र में हो जाता है।
वनस्पति विशेषज्ञ डॉ सतीश कुमार शर्मा के अनुसार इसे निम्न तरीकों से हटाया जा सकता है:
- इस खरपतवार को हटाने का सबसे पहला और बड़ा तरीका यह है कि, इसे छोटे-छोटे क्षेत्रों से हटाने से सफलता नहीं मिलेगी। यानी अगर हम इसे छोटे क्षेत्र से ही हटाते हैं जैसे किसी किसान ने सिर्फ अपने खेत से हटाया या फिर वन विभाग ने सिर्फ एक रेंज से हटाया और आसपास यह मौजूद है तो आसपास के क्षेत्रों से यह वापिस आ जाएगा। इसीलिए इसे छोटे-छोटे हिस्सों में नहीं बल्कि “लैंडस्केप स्तर” पर हटाना होगा। यानी की इसे विस्तृत रूप से हटाना होगा जैसे वन विभाग वाले वनों से हटाए, चरागाह वाले चरागाह से हटाए और नगरपालिका वाले शहरों से हटाए। यानी एक साथ सब जगह से हटाने से ही इसका नियंत्रण होगा।
- इसे हमेशा फूल और फल बनने से पहले हटाना चाहिए नहीं तो बीज सब तरफ फ़ैल जाएगें। इसे हटाते समय काटो या जलाओ मत, नहीं तो यह फिर से उग जाएगा। इसको पूरी जड़ सहित उखाड़ा जाना चाहिए और यह करने का सबसे सही समय होता है बारिश का मौसम।
- इसे पूर्णरूप से हटाने के तीन चरण है; उन्मूलन (Eradication), पुनः रोपण (Regeneration) और जांच (Followup) अर्थात जैसे ही एक क्षेत्र से इसे हटाया जाए साथ के साथ स्थानीय वनस्पति का पुनः रोपण (Regeneration) भी किया जाए ताकि खाली ज़मीन से मिट्टी का कटाव न हो। साथ ही हटाए गए क्षेत्र का समय-समय पर सर्वेक्षण कर जांचना चाहिए कि, कहीं कोई नए पौधे तो नहीं उग गए क्योंकि जो बीज मिट्टी में पड़े रह गए होंगे बारिश में नया पौधा बन सकते हैं। ऐसे में उन नए पौधों को भी हटा देना चाहिए। इन तीन चरण को लगभग चार से पांच वर्ष तक किये जाने पर इसे हटाया जा सकता है।
- पहाड़ी क्षेत्रों में इसे ऊपर से नीचे की तरफ और समतल क्षेत्रों में बीच से बाहरी सीमा की तरफ हटाया जाना चाइये।
- विभिन्न विकास कार्यों के दौरान जंगलों के कटाव के कारण भी यह वन क्षेत्रों में आ जाता है। इसीलिए हमें सबसे पहली कोशिश यही रखनी चाहिए की वनों का खंडन न करें और अन्य विकल्प खोजने की पूरी कोशिश करें। और यदि काटे भी तो स्थानीय पौधों का रोपण कर खाली स्थानों को भर दिया जाए।
राजस्थान में पानी की बढ़ती कमी के इस दौर में पार्थीनियम जैसी खरपतवार को नियंत्रित करने के लिए सभी विभागों को मिलकर कार्य करना होगा। विशेषरूप से संरक्षित क्षेत्रों से इसे हटाने के लिए विभाग को एक मुहीम चलानी चाहिए तथा राज्य सरकार को भी नरेगा जैसी स्कीम के तहत जल स्रोतों और चारागाह भूमियो से इसे हटाने के प्रयास करने चाइये।
साथ ही वन विभाग के सभी कर्मियों को उनके क्षेत्र में पायी जाने वाली खरपतवार की पहचान, उनकी वानिकी और नियंत्रण के बारे में शिक्षित किया जाना चाहिए ताकि वे ऐसी खरपतवार को सफलतापूर्वक तरीके से हटा सके।
Cover photo credit : Dr. Ravikiran Kulloli