“सरिस्का टाइगर रिजर्व में “भामर मधुमक्खी” द्वारा छत्ता बनाने के लिए बरगद कुल के बड़े एवं पुराने पेड़ों को प्राथमिकता दिया जाना पुराने पेड़ों की महत्वता पर प्रकाश डालती है।”
हमारी प्रकृति में विभिन्न प्रकार के जीव “परागणकर्ता (पोलिनेटर)” की भूमिका निभाते हैं जो न सिर्फ पर-परागण (Cross pollination) को बढ़ावा देते हैं बल्कि आनुवंशिक विविधता को बढ़ाने, नई प्रजातियों के बनने और पारिस्थितिकी तंत्र में स्थिरता लाने में भी योगदान देते हैं। यह परागण, सहजीविता पर आधारित पारिस्थितिक तंत्र प्रक्रिया का एक ऐसा उदाहरण है जो उष्णकटिबंधीय स्थानों पर रहने वाले मानव समुदायों को एक सीधी सेवा प्रदान करता है और इसीलिए सभी परागणकर्ता पारिस्थितिकी तंत्र के लिए महत्वपूर्ण हैं। परन्तु, परागणकर्ताओं की बहुतायत, विविधता और स्वास्थ्य को मानव गतिविधियों जैसे मानवजनित जलवायु परिवर्तन, निवास स्थान के विनाश और पर्यावरण प्रदूषकों से खतरा है।
ऐसी ही एक परागणकर्ता है, “बड़ी मधुमक्खी” जिसका वैज्ञानिक नाम “एपिस डोरसाटा (Apis dorsata)” है और राजस्थान में इसे “भामर” नाम से जाना जाता है। भामर, एशिया भर के उष्णकटिबंधीय वर्षावनों और कृषि क्षेत्रों में एक महत्वपूर्ण शहद उत्पादक है। हालांकि पिछले कुछ वर्षों में उष्णकटिबंधीय वनों का विखंडन बहुत तेजी से हुआ है, फिर भी ऐतिहासिक रूप से मधुमक्खियों पर निवास स्थान के विखंडन के प्रभावों पर बहुत कम अध्ययन किये गए हैं और जो किये गए हैं वो सिर्फ नवोष्ण-कटिबंधीय क्षेत्रों पर आधारित हैं।
भामर, एशिया भर के उष्णकटिबंधीय वर्षावनों और कृषि क्षेत्रों में एक महत्वपूर्ण शहद उत्पादक है (फोटो: डॉ. धर्मेंद्र खांडल)
हाल ही में राजस्थान के वन अधिकारी श्री गोविन्द सागर भरद्वाज एवं साथियों द्वारा अलवर जिले में स्थित “सरिस्का बाघ परियोजना” में भामर “Apis dorsata” के छत्तों के स्वरूप एवं वितरण पर एक अध्ययन किया है, जो की “Indian Forester” में प्रकाशित हुआ है, इसमें भामर द्वारा पसंदीदा पौधे व वृक्ष प्रजातियों की पहचान और विखंडित एवं घने वन क्षेत्रों में बामर के छत्तों की बहुतायत की तुलना भी की गई (Bhardwaj et al 2020)।
भारत एक उष्णकटिबंधीय देश है जो विविध पारिस्थितिक तंत्रों से युक्त है जिनमें विभिन्न प्रकार की वनस्पति प्रजातियां पायी जाती हैं तथा विभिन्न मधुमक्खी प्रजातियों के लिए अनुकूल निवास स्थान प्रदान करती है। इन सभी प्रजातियों के बीच, भामर मूल रूप से एक जंगली मधुमक्खी प्रजाति हैं क्योंकि यह वन क्षेत्रों में अपना छत्ता बनाती हैं। यह एपिस जीनस में सबसे बड़ी मधुमक्खियों में से एक है जिसकी कुल लंबाई 17 से 20 मिमी तक होती है। यह बड़े एवं घने पेड़ों की शाखाओं, चट्टानों और पानी के टैंकों जैसी मानव निर्मित संरचनाओं पर बड़े आकार के छत्तों का निर्माण करते हैं।
भामर चट्टानों की दरारों के पास भी छत्तों का निर्माण करते हैं (फोटो: डॉ. गोविन्द सागर भारद्वाज)
भामर, दक्षिण और दक्षिणी-पूर्वी एशिया के अधिकांश हिस्सों में पायी जाती है। एशिया में उष्णकटिबंधीय वर्षा वनों और कृषि क्षेत्रों में एक जंगली परागणकर्ता और शहद उत्पादक के रूप में इसकी भूमिका व्यापक रूप से सराहनीय मानी जाती है। यह एक संगठित रक्षा प्रतिक्रिया या हमला करने के लिए जानी जाती है तथा इसकी एक कॉलोनी हर साल लगभग 100-200 किमी दूरी तक प्रवास करती है, और इनका प्रवास सूखे और बरसात के मौसम पर निर्भर करता है। इनकी प्रत्येक कॉलोनी में आमतौर पर एक रानी, कई नर और हज़ारों कार्यकर्ता मधुमक्खियां होती हैं। यह अपने छत्तों का निर्माण एकल या फिर कई बार एक ही बड़े पेड़ पर 10- 25 छत्तों तक निर्माण करते हैं तथा छत्ते जमीन से लगभग 6 मीटर तक की ऊंचाई तक होते है।
इस अध्ययन के शोधकर्ताओं ने अगस्त 2018 में भामर कॉलोनियों के लिए सरिस्का बाघ परियोजना क्षेत्र का सर्वेक्षण किया। हर क्षेत्र सम्बंधित चौकी के फ्रंटलाइन स्टाफ (बीट ऑफिसर) के अनुभव के आधार पर भामर कॉलोनियों को खोजा गया तथा उनकी गणना की गई। जिन पेड़ों पर भामर कॉलोनियां पायी गई उन सभी की परिधि का माप दर्ज किया गया, नामों की सूचि बनायी गई, कॉलोनियों की तस्वीर ली गई तथा जीपीएस लिया गया। कॉलोनी के आवास सम्बंधित अन्य सूचनाएं भी दर्ज की गई।
भामर कई बार एक ही बड़े पेड़ पर 10- 25 छत्तों तक का निर्माण करते हैं(फोटो: डॉ. धर्मेंद्र खांडल)
अध्ययन के लेखकों ने सम्पूर्ण सरिस्का क्षेत्र का सर्वेक्षण कर कुल 242 भामर कॉलोनियां पाई जिनमें से 161 कॉलोनियां पेड़ों पर, 78 चट्टानों, 2 झाड़ियों और 3 मानव निर्मित इमारतों पर बानी हुई थी। दर्ज की गई सभी सूचनाओं की समीक्षा से ज्ञात हुआ की सबसे अधिक 102 कॉलोनियां बरगद कुल के पेड़ों पर बनाई जाती हैं तथा इनमें से 80.12% कॉलोनियां 100 सेमी से अधिक परिधि वाले पेड़ों पर देखी गई। बरगद कुल के पेड़ों पर अधिक कॉलोनियां बनाने का कारण इन पेड़ों का बड़ा आकार हो सकता है। परन्तु यदि पेड़ का बड़ा आकार और उसके तने की परिधि ही मायने रखती है तो ढाक (Butea monosperma) के पेड़ की औसतन परिधि सालार (Boswellia serrata) के पेड़ से ज्यादा होती है। अब क्योंकि ढाक सरिस्का क्षेत्र में बहुतायत में मौजूद है, परिणामस्वरूप ढाक के प्रत्येक पेड़ पर छत्ता मिलना चाइये था, परन्तु सालार पेड़ पर अधिक कुल 14 छत्ते पाए गए और ढाक पर सिर्फ 3 छत्ते ही देखे गए। ऐसा इसलिए हो सकता है क्योंकि ढाक का पेड़ ग्रामीणों द्वारा मवेशियों को खिलाये की वजह से लगातार कांटा जाता है तथा भामर के लिए यह शांतिपूर्वक स्थान नहीं है।
इनके अलावा 34 कॉलोनियां चट्टानों पर भी देखी गई। अध्ययन के दौरान एक बरगद का पेड़ ऐसा भी देखा गया जिसकी परिधि 425 सेंटीमीटर की थी और उसपर 15 भामर कॉलोनियां बानी हुई थी। घने वन क्षेत्र में प्रति वर्ग किलोमीटर में 0.25 कॉलोनियां और विखंडित वन क्षेत्र में 0.15 कॉलोनियां दर्ज की गई।
भामर के 80% छत्तों का एक मीटर से अधिक परिधि वाले पेड़ों पर पाया जाना, वनों में बड़े पेड़ों की भूमिका व महत्वता को दर्शाता है और ये केवल तभी संभव है जब ऐसे परिदृश्यों को संरक्षण दिया जाता है।
मधुमक्खी कॉलोनियों की स्थिति का आकलन करने के लिए अतीत में बहुत कम अध्ययन किए गए हैं, और ऐसे में वर्तमान अध्ययन से निकली किसी भी जानकारी की तुलना व टिप्पणी करने की गुंजाइश बहुत कम है। हालांकि इस डेटा को आधार मान कर मानवजनित हस्तक्षेप और जलवायु परिवर्तन के कारण आने वाली चुनौतियों के संबंध में मधुमक्खियों पर गहन अध्ययन एवं उनकी स्थिति की निगरानी की जा सकती है। जैसे बाघ परियोजना क्षेत्र के लिए बाघ को संकेतक माना जाता है वैसे ही मधुमक्खियों के छत्तों की स्थिति को वन पारिस्थितिक तंत्र के स्वास्थ्य का सूचक माना जा सकता है।
सन्दर्भ:
Bhardwaj, G.S., Selvi, G., Agasti, S., Singh, H., Kumar, A. and Reddy, G.V. 2020. A survey on demonstrating pattern of Apis dorsata colonization in Sariska Tiger Reserve, Rajasthan. Indian Forester, 146 (8) : 682-587, 2020 DOI: 10.36808/if/2020/v146i8/154146
हाल ही में एक अध्ययन से खुलासा, कि राजस्थान के कई जिलों में उपस्थित है दुनियाँ की सबसे छोटी बिल्ली …
दुनियाँ की सबसे छोटी बिल्ली रस्टी-स्पोटेड कैट (Prionailurus rubiginosus), का वितरण क्षेत्र अन्य बिल्ली प्रजातियों की अपेक्षाकृत सीमित है। यह बिल्ली भारत, नेपाल एवं श्रीलंका में पायी जाती है। मनुष्यों की बढ़ती आबादी तथा जंगलों के विनाश व खंडन के कारण आज यह खतरे के निकट (Near Threatened) है। भारत में इसकी उपस्थिति राजस्थान के अलावा गुजरात, हरियाणा उत्तर प्रदेश, जम्मू-कश्मीर, तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश, कर्नाटक, ओडिशा, महाराष्ट्र और मध्य प्रदेश से दर्ज की गयी है। राजस्थान में इसकी वितरण सीमा को समझना महत्वपूर्ण है क्योंकि भारत में यह राज्य इसकी वितरण सीमा का पश्चिमी छोर है। वर्ष 2020 से पहले इसे राजस्थान के कुल 34 जिलों में से केवल पांच से दर्ज किया गया था। राजस्थान के दक्षिणी छोर पर स्थित उदयपुर जिले में 1994 में रस्टी-स्पॉटेड कैट की प्रथम उपस्थिति दर्ज की गयी थी। इसके बाद कुल 86,205 वर्ग किमी क्षेत्र में फैले चार और जिलों; अलवर, सवाई माधोपुर, बूंदी और भरतपुर से इसे दर्ज किया गया है और शेष जिलों में इसकी उपस्थिति के बारे में कुछ भी ज्ञात नहीं था।
वैज्ञानिकों और प्रकृतिवादियों के लिए बहुत ही ख़ुशी की बात यह है की हाल ही में रस्टी-स्पॉटेड कैट के वर्तमान वितरण क्षेत्र पर एक अध्ययन किया है, जो की “Journal of Threatened Taxa” में प्रकाशित हुआ है, इसमें यह देखा गया है, कि पिछले 20 वर्षों (2000 से 2020) में रस्टी-स्पॉटेड कैट की राजस्थान में उपस्थिति कहाँ-कहाँ रही है (Sharma and Dhakad 2020)?
रस्टी-स्पॉटेड कैट, आकार में बिल्ली कुल कि सबसे छोटी सदस्य है। इनके भूरे फर पर कत्थई-भूरे-लाल रंग के धब्बे और बादामी रंग की लकीरें होती है। इसकी आँखों के ऊपर चार काली रेखाएं होती हैं जिनमें से दो गर्दन के ऊपर तक फैली होती हैं। सिर के दोनों तरफ छः गहरे रंग कि धारियाँ होती हैं जो गालों और माथे तक फैली जाती हैं। इसकी ठुड्डी, गला, पैरों का अंदरूनी भाग और पेट मुख्यतः सफ़ेद होते हैं जिस पर छोटे भूरे धब्बे होते हैं। इसके पंजे और पूंछ एक समान लाल भूरे रंग के होते हैं। यह लगभग 35 से 48 सेंटीमीटर तक लम्बी होती है तथा इसका वज़न 1.5 किलो तक हो सकता है।
मनुष्यों की बढ़ती जनसंख्या और वनों के कटाव एवं विखंडन के कारण रस्टी-स्पॉटेड कैट की स्थिति प्रभावित हुई है। वर्ष 2016 में इसे IUCN की रेड लिस्ट में खतरे के निकट (Near Threatened) श्रेणी में रखा गया। इस बिल्ली प्रजाति के वितरण क्षेत्र व अन्य पहलुओं पर अध्ययन बहुत ही सीमित है। इसी प्रयास में, राजस्थान में इसकी उपस्थिति जानने हेतु इस अध्ययन के लेखकों ने राज्य से पिछले 20 वर्षों की सभी सूचनाएं; प्रत्यक्ष अवलोकन, सड़क दुर्घटना में मारे गए, विपदा में फंसे बचाये बिलौटे तथा कैमरा ट्रैप में दर्ज हुए प्राणियों के चित्र एकत्रित करने का प्रयास किया, तथा इन सभी सूचनाओं को नक़्शे पर दर्शाया और वितरण क्षेत्र एवं सीमा का मूल्यांकन भी किया।
अध्ययन के लेखकों ने वर्ष 2000 से शुरू होकर मार्च 2020 तक 30 अलग-अलग स्थानों से कुल 51 सूचनाएं एकत्रित की। अध्ययन द्वारा संगृहीत आंकड़ों के संकलन से पता चलता है कि रस्टी-स्पॉटेड कैट राजस्थान के दस और जिलों; अजमेर, सिरोही, कोटा, धौलपुर, करौली, चित्तौड़गढ़, जयपुर, बांसवाड़ा, प्रतापगढ़ और पाली में भी उपस्थित है, तथा इसकी वितरण सीमा 71,586 वर्ग किमी क्षेत्र तक है जो मुख्यरूप से अरावली एवं विंध्यन पर्वतमाला तथा पूर्वी राजस्थान के अर्ध-शुष्क क्षेत्र हैं। इसे विभिन्न प्रकार के आवासों में देखा गया जैसे कि कांटेदार और शुष्क पर्णपाती वन, मानव बस्तियों के बाहरी इलाकों में, कंदरा क्षेत्र (ravines), बगीचे, वनों के निकट स्थित कृषि क्षेत्र एवं मानव आबादियों के पास स्थित वन कुंजों, सागवान वन और अर्ध-सदाबहार चौड़ी पत्ती के पहाड़ी वन क्षेत्र।
राजस्थान में रस्टी-स्पोटेड कैट का वितरण क्षेत्र
सभी सूचनाओं की समीक्षा करने पर यह ज्ञात होता है कि रस्टी स्पॉटेड कैट अरावली पर्वत श्रृंखला में व्यापक रूप से वितरित है। यदि हम ऊंचाई के दृष्टिकोण से बात करते हैं, तो इसे अरावली हिल्स के सबसे ऊंचे स्थान “माउंट आबू” तक वितरित है।
सभी सूचनाओं कि समीक्षा से यह भी पता चलता है कि यह बिल्ली पूर्णरूप से निशाचर है क्योंकि इसे मुख्यतः अँधेरे के समय देर शाम और शुरुआती सुबह में ही देखा गया है। वर्षा ऋतु में इसे कई बार वन क्षेत्रों कि दिवार एवं पैरापेट दीवार पर भी बैठा देखा गया है, जिसमें से एक बार तो इसे और तेंदुए को लगभग 50 मीटर कि दूरी पर एक साथ बैठे देखा गया है। एक अवसर पर, बिल्ली को रौंज (Acacia leucophloea) के वृक्ष पर देखा गया और पेड़ के कांटे होने के बावजूद भी बिल्ली को एक शाखा पर आराम से बैठे देखा गया था। इन अवलोकनों से बिल्ली के अर्ध-वृक्षीय स्वभाव के बारे में पता चलता है।
अध्ययन में अरावली पर्वतमाला के पश्चिमी भाग से कोई भी रिकॉर्ड नहीं मिला जो कि राजस्थान का थार मरुस्थलीय भाग है। थार में बिल्ली की अनुपस्थिति के लिए उच्च तापमान और आवास प्रकार में अंतर को मुख्य कारण प्रतीत होते हैं। इसके अलावा अरावली के पूर्व में आने वाले कुछ जिलों जैसे कि दौसा, टोंक, राजसमंद, भीलवाड़ा, बारां और झालावाड़ में शुष्क पर्णपाती वन होते हुए भी कोई रिकॉर्ड नहीं मिला है। इन जिलों में उपयुक्त आवासों में कैमरा ट्रैप विधि को अपनाने की जरुरत है ताकि इस प्रजाति की उपस्थिति सम्बन्धी ठोस जानकारी मिल सके।
सड़क दुर्घटना में मारी गई रस्टी-स्पोटेड कैट की तस्वीर (फोटो: श्री नीरव भट्ट)
अध्यन्न के दौरान छह बार बिलौटे देखे गए। वयस्क बिल्लियां 45 बार दर्ज की गयी जिनमें 41 जीवित तथा चार सड़क दुर्घटना में मृत पायी गई। विशेष रूप से रात के समय, बिल्ली को सड़क के आसपास विचरण करते हुए देखा गया, सडकों पर विचरण करने से इस बिल्ली के वाहनों के चपेट में आने का खतरा बढ़ जाता है। रस्टी-स्पोटेड कैट को सड़क दुर्घटना में शिकार होने से रोकने के लिए महत्वपूर्ण निवारक उपायों की आवश्यकता है। जैसे कि पैट्रोलिंग स्टाफ को सड़क पर मरे (Roadkill) एवं आसपास निस्तारित किए गए मवेशियों के शवों की जांच करने और जंगलों से गुजरने वाली सड़कों से उनको हटवाने का उचित प्रावधान किया जाना चाहिए। इस प्रजाति के संरक्षण हेतु सडकों के किनारे स्थित होटलों और रेस्तरां में उचित अपशिष्ट निपटान प्रणाली, सडकों पर उचित अंतराल पर अंडरपास की व्यवस्था, सड़कों से दूर पानी की सुविधा, और ड्राइवरों के लिए गति संकेतों, द्वारा न केवल रस्टी-स्पोटेड कैट को दुर्घटनाओं से बचा सकते हैं बल्कि सड़कों को पार करने वाली कई अन्य प्रजातियों को भी बचाया जा सकता है।
राजस्थान में रस्टी-स्पोटेड कैट अभी भी कम ज्ञात प्रजाति है। वन विभाग को इस बिल्ली की सही पहचान करने के लिए वन कर्मचारियों को प्रशिक्षित करने और गणना के आंकड़ों को शामिल करने की पहल करनी चाहिए। इस प्रजाति की स्थिति जानने के लिए राज्य के अन्य जिलों में गहन कैमरा ट्रैप अध्ययन की आवश्यकता है। रस्टी-स्पॉटेड कैट के दीर्घकालीन बचाव हेतु वन संरक्षण सबसे जरूरी है। राजस्थान में रस्टी-स्पॉटेड कैट की संख्या निर्धारण हेतु संरक्षित क्षेत्रों के बाहर इसके सर्वेक्षण की पुरजोर अनुशंषा करते हैं।
सन्दर्भ:
Cover photo credits: Dr. Dharmendra Khandal
Sharma, S.K. & M. Dhakad (2020). The Rusty-spotted Cat Prionailurus rubiginosus (I. Geoffroy Saint-Hillaire, 1831) (Mammalia: Carnivora: Felidae) in Rajasthan, India – a compilation of two decades. Journal of Threatened Taxa 12(16): 17213–17221. https://doi.org/10.11609/jott.6064.12.16.17213-17221
लेखक:
Ms. Meenu Dhakad (L): She has worked with Tiger Watch as a conservation biologist after completing her Master’s degree in the conservation of biodiversity. She is passionately involved with conservation education, research, and community in the Ranthambhore to conserve wildlife. She has been part of various research projects of the Rajasthan Forest Department.
Dr. Satish Kumar Sharma (R): An expert on Rajasthan Biodiversity, he retired as Assistant Conservator of Forests, with a Doctorate in the ecology of the Baya (weaver bird) and the diversity of Phulwari ki Nal Sanctuary. He has authored 600 research papers & popular articles and 10 books on nature.
“सर्दियों के मेहमान प्राचीन युग गिद्ध “ग्रिफॉन”, जिनके आगमन से लगता है…गिद्धों की संख्या में वृद्धि हो रही है।”
राजस्थान में, अचानक जब सर्दियों में गिद्ध देखने को मिलते हैं तो अक्सर लोग ये अनुमान लगाते हैं कि यहाँ गिद्धों की आबादी में बढ़ोतरी हो रही है। परन्तु वास्तव में इनमें से अधिक्तर तो हमारे सर्दियों के मेहमान होते हैं अतः प्रवास कर यहाँ आते हैं। इन प्रवासी गिद्धों के समूहों में मुख्यतः ग्रिफ़ॉन कुल की दो प्रजातियां यूरेशियन ग्रिफ़ॉन और हिमालयन ग्रिफ़ॉन देखने को मिलती है जिनके बारे में हम इस आलेख में जानेंगे…
“ग्रिफ़ॉन (Griffon)”, यह नाम ग्रीक भाषा के शब्द “Gryphos” से लिया गया है जिसका अर्थ होता है “हुक जैसी नाक वाला प्राणी” और यह स्पष्ट रूप से गिद्धों कि हुक के आकार वाली चोंच कि ओर इशारा करता है। साथ ही पौराणिक कहानियों में ग्रिफ़ॉन एक ऐसा प्राणी माना गया है जिसका सिर एवं पंख ईगल के तथा शरीर, टाँगे और पूँछ शेर कि होती है। आज विश्व में दो प्रकार के ग्रिफॉन पाए जाते हैं यूरेशियन ग्रिफ़ॉन और हिमालयन ग्रिफ़ॉन और इन्हें प्राचीन युग गिद्ध (Old World Vultures) भी कहा जाता है।
हिमालयन ग्रिफ़ॉन, भारतीय उपमहाद्वीप के हिमालय में पाया जाने वाला सबसे बड़े आकार का पक्षी है (फोटो: श्री रजत चोरडिया)
यूरेशियन ग्रिफ़ॉन (Eurasian Griffon) जिसे “Gyps fulvus” नाम से भी जाना जाता है, एक बड़े आकार का गिद्ध है जिसके पंखों का विस्तार लगभग 300 सेमी तक होता है। यानि एक 6 फ़ीट का आदमी अपने दोनों हाथों को फैलाये तो उसके हाथों के विस्तार से भी बड़ा इसके पंखों का विस्तार है। विभिन्न प्रजातियों के समूह में इसे आसानी से पहचाना जा सकता क्योंकि इसका शरीर मुख्यरूप से तीन रंगों का होता है जिसमें सिर व गर्दन सफ़ेद, शरीर हल्के भूरे रंग और पंख गहरे रंग के होते हैं। और सबसे ख़ास इसकी गर्दन पर सफेद पंखों का एक मफलर जैसा कॉलर होता है। इस गिद्ध की वितरण सीमा बहुत बड़ी है, यह मध्य पूर्व, उत्तरी अफ्रीका और यूरोप, भारत से पुर्तगाल और स्पेन में पाए जाते हैं परन्तु राजस्थान में ये किस ओर से आते है यह स्पष्ट नहीं हो पाया है क्योंकि अभी तक इनको रेडियो टैगिंग कर इनके प्रवास मार्ग का अध्यन्न नहीं किया गया है। पक्षी विशेषज्ञ डॉ दाऊ लाल के अनुसार राजस्थान में यूरेशियन ग्रिफ़ॉन कज़ाकिस्तान, अफगानिस्तान और बलुचिस्तान से आते हैं अर्थात इनका प्रवास मार्ग मध्य-पूर्व से दक्षिणी एशिया की ओर है। इस मार्ग को यूरेशियन ग्रिफॉन के अलावा अन्य प्रजातियां भी इस्तेमाल करती हैं।
वहीँ दूसरी ओर हिमालयन ग्रिफ़ॉन (Gyps himalayensis) भारतीय उपमहाद्वीप के हिमालय में पाया जाने वाला सबसे बड़े आकार का पक्षी है तथा यह दो सबसे बड़े प्राचीन युग गिद्धों (Old World Vultures) में से एक है। यह प्रजाति मुख्यरूप से हिमालय पर्वत श्रृंखला में पायी जाती है और इसी से इसका नाम हिमालयन ग्रिफ़ॉन रखा गया है। एक व्यस्क हिमालयन ग्रिफ़ॉन को उसके बड़े आकार, हल्के भूरे रंग के शरीर और गहरे व लगभग काले रंग के पंखों व पूंछ के कारण आसानी से यूरेशियन ग्रिफ़ॉन से अलग की किया जा सकता है परन्तु इसकी गर्दन का कॉलर मफलर जैसा नहीं बल्कि हल्के-भूरे लम्बे नोंकदार पंखों के गुच्छे जैसा होता है। यह मध्य एशिया के ऊपरी इलाकों के मूल-निवासी है, जो पश्चिम में कज़ाकिस्तान और अफगानिस्तान से लेकर पूर्व में पश्चिमी चीन, नेपाल, भूटान और मंगोलिया तक वितरित हैं तथा सर्दियों में उत्तरी भारत से दक्षिणी की ओर प्रवास करते हैं और इसी दौरान ये राजस्थान आते हैं। यदि हम हिमालय पर्वत श्रृंखला को देखे तो उसे चार भागों में बांटा जा सकता है; पाकिस्तान (POK), जम्मू कश्मीर, नेपाल और तिब्बत। राजस्थान में आने वाली हिमालयन ग्रिफ़ॉन कि आबादी पकिस्तान व् जम्मू कश्मीर से आती है, जबकि नेपाल वाली आबादी मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश और हिमांचल प्रदेश जाती है तथा तिब्बत कि आबादी चीन कि ओर प्रवास करती है।
राजस्थान में इन दोनों गिद्ध प्रजातियों को देखने का सबसे अच्छा स्थान है “जोड़बीड़” जहाँ ये एक साथ हजारों की तादाद में एकत्रित होते हैं यहाँ इन्हें आसानी से मृत जानवरों का मांस खाते और खेजड़ी व पीलू के पेड़ों पर बैठे देखा जा सकता है। जोड़बीड़ के अलावा इन्हें जैसलमेर में लाठी नामक स्थान पर भी देखा जा सकता है।
यूरेशियन ग्रिफ़ॉन
हिमालयन ग्रिफ़ॉन
आकार
95-105 सेमी
115-125 सेमी
पंख विस्तार
270-300 सेमी
270-300 सेमी
निरूपण
सिर व गर्दन सफ़ेद और गर्दन के आधार पर सफेद पंखों की एक कॉलर होती है।
शरीर हल्के भूरे रंग और पंख गहरे रंग के होते हैं।
चोंच व आँखे पीली तथा टाँगे व पंजे सलेटी ग्रे रंग के होते हैं और पूँछ काली होती है।
सिर हल्का पीला तथा गर्दन पर हल्के भूरे नोंकदार पंखों की एक कॉलर होती है।
शरीर मुख्यतः क्रीम और काला होता है। पृष्ठ भाग हल्का भूरा तो वहीँ पूंछ के पंख काले रंग के होते हैं।
छोटी पीली चोंच काफी मजबूत और सिरे से हुक जैसी होती है। टाँगे भूरे रंग के पंखों से ढकी होती हैं तथा पैर हरे-ग्रे से सफ़ेद तक होते हैं।
किशोर
किशोरों को आसानी से पहचाना जा सकता है क्योंकि व्यस्क होने तक उनकी कॉलर भूरे रंग की रहती है।
किशोर गहरे चॉकलेटी-काले रंग के होते हैं। सिर पूरी तरह से सफ़ेद और गर्दन पर गहरे चॉकलेटी पंखों की एक कॉलर होती है। अप्पर-विंग कोवेर्ट्स (Upperwing coverts) पर हल्के भूरे रंग की लकीरें (streakings) होती हैं। इनके अंडर विंग कोवेर्ट्स (Underwing coverts) पर दो सफ़ेद बैंड होते हैं और इन बैंड के कारण ही इसे सामान देखने वाले सिनेरियस वल्चर के किशोर से अलग पहचाना जा सकता है।
यूरेशियन ग्रिफ़ॉन (फोटो: श्री रजत चोरडिया)
यूरेशियन ग्रिफ़ॉन, एक बड़े आकार का गिद्ध है जिसके पंखों का विस्तार लगभग 300 सेमी तक होता है। (फोटो: श्री रजत चोरडिया)
इन दोनों गिद्ध प्रजातियों की खोज एवं वर्गिकी में इतिहास के रोचक पहलु छुपे हैं। जब हम यूरेशियन ग्रिफ़ॉन के बारे में पढ़ते हैं तो इसके वैज्ञानिक नाम के साथ दो वैज्ञानिकों कार्ल लुडविग वॉन हैब्लिट्ज़ (Carl Ludwig von Hablitz) और जोहान फ्रेडरिक गमेलिन (Johann Friedrich Gmelin) का नाम देखने को मिलता है। हैब्लिट्ज़ एक रूसी वनस्पति वैज्ञानिक थे जिन्होंने वर्ष 1783 में द्विपद नामकरण पद्धति का अनुसरण करते हुए यूरेशियन ग्रिफ़ॉन को Gyps fulvus नाम दिया। परन्तु हैब्लिट्ज़ ने केवल एक वाक्य में इसका विवरण दिया था जिससे इस गिद्ध के बारे में ज्यादा जानकारी नहीं मिलती थी। इसके पश्चात वर्ष 1788 में एक जर्मन प्रकृतिविद गमेलिन ने यूरेशियन ग्रिफ़ॉन का सबसे पहला विस्तृत वर्णन दिया, जिसे उन्होंने कार्ल लिनिअस (Carl Linnaeus) द्वारा लिखित पुस्तक Systema Naturae के 13 वें संस्करण में प्रकाशित किया गया। कुछ पुस्तकों कि समीक्षा करने पर यह भी पाया जाता है कि व्यापक विस्तार होने के कारण एक समय पर इसकी दो उप-प्रजातियां मानी जाती थी; G.f. fulvus को रुसी वनस्पति वैज्ञानिक हैब्लिट्ज़ ने वर्ष 1783 में पर्शिया से दर्ज की और G.f. fulvescens को वर्ष 1869 में ऐ ओ ह्यूम (A O Hume) ने भारत से दर्ज की। ह्यूम, भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस पार्टी के संस्थापक थे तथा इन्हें “Father of Indian Ornithology” के नाम से भी जाना जाता है। ह्यूम ने वर्ष 1869 में जहाँ एक ओर यूरेशियन ग्रिफॉन की एक उपप्रजाति दर्ज की वहीं दूसरी ओर उसी वर्ष गिद्ध की एक नयी प्रजाति “हिमालयन ग्रिफ़ॉन” को भी खोजा।
ब्रिटिश पक्षीविज्ञान संघ के अध्यक्ष “Lord Lilford” द्वारा बनाया गया तथा उनकी पुस्तक “Colored figures of The Birds of The British Islands” में प्रकाशित यूरेशियन ग्रिफॉन का चित्र
जिसके बारे में ह्यूम, अपनी पुस्तक “My Scrapbook” में बताते हैं कि वे वर्ष 1867 में धर्मशाला के पास पिकनिक मनाने गए हुए थे, तब पहली बार उन्होंने इस पक्षी को एक ऊँची चट्टान पर बैठे हुए देखा। उन्हें लगा की चट्टान ज्यादा ऊँची नहीं है तथा एक पत्थर फेक कर उसे उड़ाया जाए ताकि उसकी पहचान की जा सके। परन्तु जब नीचे से पत्थर फेका गया तो वह चट्टान कि आधी ऊंचाई तक भी नहीं पहुंचा। ह्यूम को चट्टान की ऊंचाई और उस तक पहुँचने की कठिनाई का एहसास हो चूका था। परन्तु उन्होंने हार नहीं मानी और दो पहाड़ी लोगों को बुलाया, जिनके साथ वे चट्टान के ऊपर पहुंचे। इंसानों को देख गिद्ध तो उड़ गया परन्तु वहां एक चूज़ा था, जिसे देख ह्यूम ने अगले वर्ष का इंतज़ार करना शुरू कर दिया। अगले वर्ष 1868 वहां दो घोंसले मिले और साथ ही गिद्ध भी दिखाई दिया। उस गिद्ध को देख ह्यूम को ये विचार आया की यह गिद्ध कुछ अलग है, तथा पक्षी विशेषज्ञ Blyth और Jerdon ने हमें भारतीय गिद्धों की केवल तीन प्रजातियां (Gyps fulvus, Gyps indicus, Gyps bengalensis) बतायी हैं जबकि चार होनी चाइये। इसके पश्चात ह्यूम ने इस गिद्ध को और ध्यानपूर्वक तरीके से जाँचा और एक नयी प्रजाति के रूप में स्थापित किया तथा वर्ष 1869 में द्विपद नामकरण पद्धति के अनुसार “Gyps himalayensis” नाम दिया।
प्रजनन (Breeding):
यूरेशियन ग्रिफ़ॉन और हिमालयन ग्रिफ़ॉन, दोनों प्रजातियां लगभग 4 से 5 साल की उम्र में प्रजनन के लायक हो जाती हैं और ये पूरी तरह से मोनोगैमस (monogamous) होती हैं अर्थात नर व मादा की जोड़ी आजीवन साथ रहती है। यूरेशियन ग्रिफ़ॉन, प्रजनन काल में घोंसले की चट्टानों के आसपास एक विशेष उड़ान का प्रदर्शन करते हैं जिसमें साथी जोड़ी एक-दूसरे के पीछे रहकर आसमान में गोल-गोल चक्कर लगाते हैं। दोनों साथी एक दूसरे के इतने करीब रहते हैं कि नीचे से देखने पर ऐसा लगता हैं जैसे एक ही गिद्ध उड़ रहा है। यह आमतौर पर चट्टानों के खोखले भागों में, चट्टानों के किनारे या गुफाओं में 40 से 50 के समूहों में घोंसले बनाते व प्रजनन करते हैं। परन्तु पाकिस्तान (POK), टर्की और अफगानिस्तान में पायी जाने वाली आबादी पेड़ों पर घोंसले बनाती हैं और यही कारण है कि राजस्थान में इनको पेड़ों पर बैठे देखा जा सकता है। जनवरी से फरवरी के बीच मादा एक अंडा देती है जिसे लगभग डेढ़ से दो महीनों (45 से 60 दिनों) तक इन्क्यूबेट किया जाता है। अंडा देने के समय से लेकर जब तक चूज़ा अपनी उड़ान नहीं भर लेता मादा एक पल के लिए भी अपने घोंसले को अकेला नहीं छोड़ती है परिणामस्वरूप, नर गिद्ध को मादा व चूज़े के लिए भोजन व्यवस्था करनी पड़ती है। अण्डों से बाहर आने के बाद नर व मादा मिलकर चूज़े का लगभग 113 से 159 दिनों तक ख़याल रखते हैं। यूरेशियन ग्रिफ़ॉन से बिलकुल विपरीत हिमालयन ग्रिफ़ॉन में किसी भी प्रकार का प्रणय प्रदर्शन (courtship display) या विशेष प्रकार की उड़ान नहीं देखी जाती है परन्तु इनमें प्रजनन काल में मादाओं की छाती के पास एक हल्के लाल रंग आभा देखी जाती है।
हिमालयन ग्रिफ़ॉन, आमतौर पर घोंसले वाली जगह पर ही प्रजनन करते हैं, लेकिन कभी भी जमीन पर नहीं। यह आमतौर पर साल-दर-साल एक ही घोंसले के स्थान पर लौटते हैं। यह चट्टानों के खोखले भागों में, चट्टानों के किनारे या गुफाओं में छोटे समूहों में घोंसले बनाते व प्रजनन करते हैं। अन्य गिद्धों की तुलना में, वयस्क हिमालयन ग्रिफ़ॉन कम मिलनसार होते हैं, इसीलिए ये अकेले या फिर 5 से 6 घोंसलों की कॉलोनी में रहना पसंद करते हैं। घोंसले बनाने में नर व मादा दोनों बराबर भूमिका निभाते हैं। अक्सर ऐसा भी देखा गया है कि कई बार यह पुराने घोंसले की मरम्मत करके उनको भी इस्तेमाल कर लेते हैं। आमतौर पर दिसंबर से मार्च तक घोंसले बनाए या मरम्मत किए जाते हैं। प्रत्येक मादा द्वारा जनवरी से अप्रैल के बीच केवल एक ही अंडा दिया जाता है। फरवरी से मई के बीच नर व मादा बारी-बारी से अंडे को सेते है और जुलाई से सितंबर तक चूजों का लालन-पालन किया जाता है। शुरूआती दिनों में ये अपने पेट से एक गाढ़ा, सफ़ेद तरल पदार्थ निकालते है, जो चूजों के लिए प्राथमिक खाद्य स्रोत के रूप में कार्य करता है, और फिर बाद में इनको मांस के छोटे टुकड़े खिलाना शुरू किया जाता है। कुल मिलकर, देखा जाए तो दोनों नर और मादा सामान जिम्मेदारियां निभाते हैं।
आहार व्यवहार (Feeding Behaviour):
गिद्ध केवल मृत जानवरों का मांस खाते हैं। ग्रिफ़ॉन गिद्धों में गंध लेने की शक्ति कम होती है इसीलिए अपने भोजन को खोजने के लिए ये पूरी तरह से अपनी तेज दृष्टि पर निर्भर रहते हैं। जब एक गिद्ध को कोई मारा हुआ जानवर मिल जाता है, तो दूसरे गिद्ध उसको नीचे जाते देख अन्य गिद्ध भी नीचे उतर जाते हैं। यूरेशियन ग्रिफ़ॉन की चोंच बाकि गिद्धों जितनी मजबूत नहीं होती है इसीलिए ये मृत जानवरों की कठोर चमड़ी को फाड़ने में असमर्थ होते हैं, तथा ये दूसरी गिद्ध प्रजातियों द्वारा शव को खोलने या फिर सूरज कि गर्मी द्वारा चमड़ी के फटने का इंतज़ार करते हैं। यह बड़े समूहों में अन्य गिद्ध प्रजातियों के साथ मिलकर खाना खा लेते हैं। वहीँ दूसरी और हिमालयन ग्रिफ़ॉन अपने बड़े आकार के कारण अन्य गिद्धों के साथ भोजन करते समय ये अपना वर्चस्व स्थापित रखते हैं तथा अन्य गिद्ध भी इनसे दूर रहते हैं। इन गिद्धों के मुर्दाखोर होने के कारण ही तो आज इनकी आबादी विभिन्न प्रकार के खतरों का सामना कर रही है।
ग्रिफ़ॉन बड़े समूहों में अन्य गिद्ध प्रजातियों के साथ मिलकर खाना कहते हैं। (फोटो: श्री रजत चोरडिया)
खतरे (Threats):
गिद्ध मृत जानवरों को खाकर हमारे पर्यावरण को साफ़-सुथरा रखते हैं साथ ही पारिस्थितिक तंत्र में भोज्य श्रृंखला को भी बनाये रखते हैं। एक समय था जब भारत में गिद्धों कि बड़ी आबादी पायी जाती थी परन्तु पशुओं को दिये जाने वाली दर्द निवारक दवाई डाइक्लोफिनॅक (Diclofenac) है के कारण भारत से गिद्धों कि आबादी का एक बड़ा हिस्सा (97%- 99%) खतम हो गया। परिणामस्वरूप आज हिमालयन ग्रिफ़ॉन IUCN की रेड डाटा बुक के अनुसार खतरे में (Near Threatened) है। वहीं दूसरी ओर क्योंकि यूरेशियन ग्रिफॉन भारत में प्रवासी प्रजाति है उनकी आबादी पर ज्यादा बुरा असर नहीं पड़ा। परन्तु स्पेन में डाइक्लोफिनॅक जैसी ही एक दवाई फ्लूनिक्सिन (Flunixin) के कारण यूरेशियन ग्रिफॉन वहां खत्म होने वाली पहली गिद्ध प्रजाति थी।
डाइक्लोफिनॅक के बंद होने के बाद अब ketoprofen और aceclofenac नामक दवाइयां गिद्धों के लिए हानिकारक हैं। (फोटो: श्री रजत चोरडिया)
भारत सरकार द्वारा डाइक्लोफिनॅक की बिक्री व् इस्तेमाल पूरी तरह से बंद करवा दिया गया है परन्तु इसके अलावा भी गिद्धों पर कई और खतरे भी हैं जिनमें से सबसे मुख्य है भोजन की उपलब्धता।
शहरी इलाकों में कचरा निस्तारण विधियों (Solid waste management) के चलते गिद्धों को प्रयाप्त भोजन नहीं मिल पाता है जिसके कारण वे एक स्थान से दूसरे स्थान भोजन के लिए घूमते हैं तथा उनकी आबादी पर नकारात्मक प्रभाव भी पड़ते हैं। ऐसा ही कुछ हुआ है जोधपुर स्थित “केरु डंप” के पास, जहाँ प्रतिवर्ष सर्दियों में हिमालयन ग्रिफ़ॉन और यूरेशियन ग्रिफॉन एक बड़ी संख्या में आया करते थे। परन्तु वर्ष 2008 में, नगरपालिका अपशिष्ट प्रबंधन विभाग द्वारा केरू डंपिंग क्षेत्र, में मृत पशुओं के शवों का प्रक्रमण संयंत्र शुरू किया। इसके चलते अब शवों को सीधे मशीन में डालकर एक पाउडर के रूप में परिवर्तित कर दिया जाता है, जो कृषि और मछलियों के भोजन के रूप में उपयोग में लिया जाता है। परिणामस्वरूप वहां आने वाले प्रवासी गिद्ध अब बीकानेर में जोड़बीड़ की ओर आने लगे हैं।
कचरा निस्तारण विधियों के अलावा दूसरी समस्या है “कचरे के ढेरों में आग लगाई जाना” और इसका उदाहरण है उदयपुर का डंपिंग क्षेत्र, जहाँ बड़ी तादाद में घरेलु व बूचड़खानों का कचरा डाला जाता था। पर्याप्त मात्रा में भोजन मिलने के कारण वहां गिद्धों की विभिन्न प्रजातियां पाई जाती थी। परन्तु फिर वहां नियमितरूप से कचरा जलाने की प्रकिया शुरू की गयी, जिसके चलते वहां हर समय प्लास्टिक का हानिकारक धुँआ रहने लगा और धीरे-धीरे वहां से गिद्ध पूरी तरह से चले गए है। आज वहां हालत कुछ ऐसे है की हर समय कहीं न कहीं धुंआ उठता ही रहता है तथा गिद्ध तो क्या वहां अन्य पक्षी भी मुश्किल से दिखाई देते हैं।
इन डंपिंग क्षेत्रों के आसपास आवारा कुत्तों की बढ़ती आबादी भी गिद्धों के लिए एक बड़ा खतरा बन रही है। डंपिंग क्षेत्रों के आसपास कुत्ते, गिद्धों के साथ न सिर्फ भोजन के लिए प्रतिस्पर्धा करते हैं, बल्कि कई बार गिद्धों के ऊपर हमला भी कर देते हैं। भोजन की कमी और आवारा कुत्तों की आबादी में वृद्धि ने गिद्धों को पलायन के लिए मजबूर किया है। डंपिंग क्षेत्र के आसपास बिजली की तारों से करंट लग जाने के कारण भी गिद्धों की कई बार मौत हो जाती है।
इसके अलावा अभी भी कुछ दवाइयां ऐसी हैं जो गिद्धों के हानिकारक हैं। डॉ बोहरा के अनुसार डाइक्लोफिनॅक के बंद होने के बाद अब बाज़ार में ketoprofen और aceclofenac नामक दवाइयां बिकती हैं तथा इन दवाइयों का भी गिद्धों के ऊपर जानलेवा प्रभाव पड़ता है।
इस समय की आवश्यकता यह है की गिद्धों के संरक्षण के लिए कड़े कदम उठाये जाए जिसमे विशेष रूप से उनके लिए भोजन की उपलब्धता की ओर ध्यान दिया जाना चाइये।
सन्दर्भ:
Saran, R. 2017. Population monitoring and annual population fluctuation of migratory and resident species of vultures in and around Jodhpur, Rajasthan. Journal of Asia-Pacific Biodiversity 10 (2017) 342e348
Khatri, P.C. 2012. The increase in the population of Eurasian Griffon vulture (gyps fulvus) at Jorbeer, Bikaner: carcass dump as key habitats for winter migration in the griffon vultures. International Journal of Geology, Earth and Environmental Sciences. Vol. 2 (2)
Chhangani, A.K. and Mohnot, S.M. 2008. Demography of migratory vultures in and around Jodhpur, India. Vulture News 58
Saran, R.P. and Purohit, A. 2012. Eco-transformation and electrocution. A major concern for the decline in vulture population in and around Jodhpur. Volume 3(2): 111-118
Grimmett, R., Inskipp, C. and Inskipp, T. 2014. Birds of Indian Subcontinent.
Hume, A.O. 1889. The Nests and Eggs of Indian Birds. Vol. 1. 2nd London.
हिरणों के बड़े-बड़े, शाखाओं वाले सींगों को ऐंटलर्स कहा जाता है जो हर वर्ष गिरते हैं और फिर से नए उगते हैं। नए उगने वाले सींगों के ऊपर एक मखमली परत पायी जाती है जो सींगों को बढ़ने के लिए पोषण देती है। यह परत एक प्रकार की त्वचा है, जिसमें रक्त वाहिकाएं और नसे भरपूर होती हैं।
PC: Dr. Dharmendra Khandal
ऐंटलर्स के पूरी तरह से विकसित हो जाने के बाद ये परत सूखने तथा धीरे-धीरे हटने लगती और इस परत को ट्री-पाई (Rufous treepie) बहुत चाव से खाते हैं क्योंकि ये ट्री-पाई जैसे पक्षी जिनको प्रोटीन की आवश्यकता होती है के लिए एक अच्छा प्रोटीन युक्त भोजन श्रोत होती है।
ग्रेटर हूपु लार्क, रेगिस्तान में मिलने वाली एक बड़े आकार की लार्क, जो उड़ते समय बांसुरी सी मधुर आवाज व् खूबसूरत काले-सफ़ेद पंखों के पैटर्न, भोजन खोजते समय प्लोवर जैसी दौड़ और खतरा महसूस होने पर घायल होने के नाटक का प्रदर्शन करती है। इस के व्यवहार को देखने पर लगेगा जैसे आप कोई शानदार नाटक देख रहे हो।
ग्रेटर हूपु लार्क, एक छोटा पेसेराइन पक्षी जिसे राजस्थान की तेज गर्मी में झुलसते रेगिस्तान में रहना पसंद आता है तथा वर्षा ऋतू के आगमन के साथ ही इसका प्रजनन काल शुरू हो जाता है, जिसमें नरों द्वारा एक ख़ास प्रकार की उड़ान का प्रदर्शन किया जाता है नर बांसुरी व् सीटी जैसी आवाज करते हुए धीमी गति में उड़ते हैं और इसी आवाज के कारण इसे “हूपु लार्क” कहा जाता है। इस पक्षी को “लार्ज डेजर्ट लार्क” के नाम से भी जाना जाता है, परन्तु यह एक बेहद चतुर पक्षी होता है जो शिकारी को देखते ही उसे भर्मित करने के लिए घायल होने का नाटक कर ज़मीन पर गिर जाता है। रेगिस्तानी पर्यावास में जब यह ज़मीन पर होता है तो इसे देख पाना मुश्किल है क्योंकि इसके शरीर का रेतीला-भूरा रंग इसे परिवेश में छलावरण करने में मदद करता है, परन्तु जब यह उड़ान भरता है तो इसके पंखों के काले-सफ़ेद रंग के पैटर्न से इसे आसानी से पहचाना जा सकता है। इसके पंखो का यह पैटर्न किसी भी अन्य लार्क प्रजाति से अद्वितीय है। अपनी लम्बी टांगों से तेजी से एक प्लोवर की तरह भागते हुए अपनी छोटी, पतली व् तीखी चोंच से यह मिटटी को खोद कर तो कभी खुरच कर छोटे कीटों को ढूंढ अपना शिकार बनाते हैं।
निरूपण (Description):
ग्रेटर हूपु लार्क, “Alaudidae” परिवार का सदस्य है, इसका वैज्ञानिक नाम Alaemon alaudipes है जो एक ग्रीक भाषा के शब्द alēmōn से लिया गया है तथा इसका अर्थ “घुमक्कड़” होता है। पहले इसे Upupa और Certhilauda जीनस में रखा गया था परन्तु वर्ष 1840 में बाल्टिक जर्मन भूवैज्ञानिक व् जीवाश्म वैज्ञानिक “Alexander Keyserling” और जर्मन जीव वैज्ञानिक “Johann Heinrich Blasius” द्वारा Alaemon जीनस बनाया गया तथा इसे इसमें रखा गया।
ग्रेटर हूपु लार्क का चित्र (Nicolas, H. 1838)
ग्रेटर हूपु लार्क को शुष्क व् अर्ध-शुष्क मरुस्थलीय परिवेश में रहना पसंद होता है। (फोटो: डॉ. धर्मेंद्र खांडल)
यह लार्क आकार में बाकि लार्क प्रजातियों से अपेक्षाकृत बड़ी होती है। शरीर का ऊपरी भाग रेतीला-भूरा और अंदरूनी भाग सफ़ेद-क्रीम होता है। इसके पैर लम्बे व् इसकी चोंच पतली-लम्बी और हल्की सी नीचे की ओर घुमावदार होती है। इसके चेहरे पर चोंच के आधार से होते हुए आँखों के पास से एक काली रेखा निकलती है तथा आँखों पर सफ़ेद भौंहें होती है। छाती के पास कुछ काले धब्बे होते हैं। उड़ते समय इसके सफ़ेद किनारों वाले काले पंखों का पैटर्न और बाहरी काले पंख वाली सफ़ेद पूँछ स्पष्ट दिखाई देता है। नर व् मादा दोनों दिखने में लगभग समान होते हैं, हालांकि मादा, नर की तुलना में छोटी होती हैं और छाती पर काले धब्बे कम होते हैं।
उड़ते समय इसके पंखो पर काले-सफ़ेद रंग का पैटर्न स्पष्ट दिखाई देते है जिसके कारण इसको तुरंत पहचाना जा सकता है। (फोटो: डॉ. धर्मेंद्र खांडल)
वितरण व आवास (Distribution & Habitat):
बहुत ही व्यापक वितरण होने के कारण इसकी कई आबादी पायी जाती हैं जिन्हें चार उप-प्रजाति के रूप में नामित किया गया है, तथा भारत में Eastern greater hoopoe-lark (A. a. doriae) उप-प्रजाति पायी जाती है जो राजस्थान व् गुजरात में ही पायी जाती है। राजस्थान में यह थार रेगिस्तान के रेट के टीलों, शुष्क व् अर्ध-शुष्क छोटी झाड़ियों वाले खुले इलाकों में पायी जाती है। ग्रेटर हूपु लार्क रेगिस्तानी, अत्यंत गर्म व् शुष्क वातावरण में पाया जाता है, और यह 50 डिग्री सेल्सियस तक के तापमान में जीवित रहने में सक्षम है। क्योंकि प्रकृति ने इसे इस वातावरण में रहने के लिए अनुकूलन प्रदान किया है। इसकी लम्बी टाँगे इसके शरीर को गर्म ज़मीन से ऊपर रखती हैं और अधर भाग का सफ़ेद रंग जमीन की गर्मी को वापस प्रतिबिंबित करता है। चीते की तरह इसकी आँखों के पास लम्बी काली रेखा होती है। गर्मियों में कभी-कभी जब सतह का तापमान असहनीय हो जाता है, तो ऐसे में ग्रेटर हूपु लार्क खुद को पानी की कमी होने से बचाने के लिए सांडा छिपकली के बिल में छुप जाती है। छिपकली शाकाहारी होती है इसलिए इसे किसी भी प्रकार का खतरा नहीं होता है।
व्यवहार एवं पारिस्थितिकी (Behaviour and ecology):
राजस्थान के थार रेगिस्तान में ग्रेटर हूपु लार्क को अकेले या जोडों में भोजन की तलाश करते हुए देखा जा सकता है, जहाँ ये टहलते, दौड़ते व् उछलते-कूदते हुए जमीन को अपनी छोटी चोंच से खोदते हुए विचरण करते हैं। यह छोटे कीटों, छिपकलियों और विभिन्न प्रकार के बीजों को खाते हैं तथा इन्हें कवक (Fungi) को खाते हुए देखा गया है। घोंघों का खोल तोड़ने के लिए, कई बार इसे घोंघों को ऊपर से किसी सख्त सतह पर गिराते या फिर उन्हें लगातार किसी पत्थर पर पीटते हुए भी देखा गया है। जीव विशेषज्ञ डॉ धर्मेंद्र खांडल ने अपने एक आलेख में इसके द्वारा “डेजर्ट मैंटिस (Eremiaphila rotundipennis)” के शिकार किये जाने के एक की घटना की व्याख्या की है।
यह जमीन को खोद कर छोटे कीटों को अपना शिकार बनाते हैं।(फोटो: श्री नीरव भट्ट)
इनका प्रजनन काल मुख्यरूप से पहली बारिश के बाद लगभग मार्च से जुलाई माह तक रहता हैं। कई बार देर से बारिश आने पर अगस्त में भी इनका प्रजनन देखा गया है। प्रजनन काल में नर मादा को आकर्षित करने के लिए एक बहुत सुन्दर उड़ान का प्रदर्शन करते हैं, जिसमें वह धीरे-धीरे पंखों को फड़फड़ाते हुए ऊपर की ओर उड़ान भरते हैं और फिर पंखो को बंद किये नीचे की ओर आते हैं। नर लगभग 15 – 20 फीट तक ऊपर जाते हैं, और फिर बांसुरी व् सीटी जैसी आवाज की एक श्रृंखला के साथ धीरे-धीरे नीचे की ओर आते हैं तथा एक छोटी झाडी पर बैठ जाता है। धीमी गति में उड़ते समय जो बांसुरी व् सीटी जैसी आवाज करने के कारण ही इसे “हूपु लार्क” कहा जाता है।
प्रजनन काल में नर मादा को आकर्षित करने के लिए एक बहुत सुन्दर उड़ान का प्रदर्शन करते हैं। (फोटो: डॉ. धर्मेंद्र खांडल)
इस ख़ास उड़ान में नर धीरे-धीरे पंखों को फड़फड़ाते हुए ऊपर की ओर उड़ान भरते हैं और फिर पंखो को बंद किये नीचे की ओर आते हैं। (फोटो: डॉ. धर्मेंद्र खांडल)
छोटी टहनियों से बना हुआ इसका घोंसला एक कप के आकार का होता है जो छोटी झाड़ी के नीचे व् कभी-कभी ज़मीन पर ही रखा होता है। इसके चूज़े बहुत ही तेजी से बड़े होते हैं तथा उड़ना सीखने से पहले ही इनको इधर-उधर भागते हुए देखा जा सकता है। ज़मीन पर घोंसला व् चूज़ों का चंचल स्वभाव होने के कारण इनको कई प्रकार के शिकारी जीवों जैसे की छिपकली, गीदड़, लोमड़ी, चूहे और सांप का सामना करना पड़ता है। जब भी हूपु लार्क किसी प्रकार के शिकारी को अपने घोंसले की ओर बढ़ते देखती है, तो वह शिकारी को विचलित करने के लिए घायल या चोट का नाटक करती है। घोंसले से थोड़ी दूर पर ये ऐसे फड़फड़ाती है जैसे वह उड़ नहीं सकती, इस परिस्थिति में शिकारी को यह एक आसान शिकार महसूस होती है और शिकारी घोसले को छोड़ इसकी और बढ़ता है। शिकारी को पास आता देख यह कुछ दूर उड़ कर फिर से नीचे गिर जाती है और शिकारी इसको पकड़ पाने के विश्वास में उसकी और बढ़ता रहता है। ऐसा कई बार होता है और जब लार्क शिकारी को घोसले से दूर ले जानें सफल हो जाती है तो तुरंत उड़ कर वापिस घोंसले के पास आ जाती है।
ग्रेटर हूपु लार्क में नर व् मादा दोनों ही चूजों की देख-रेख में बराबर भूमिका निभाते हैं।(फोटो: श्री नीरव भट्ट)
संरक्षण स्थिति (Conservation status):
ग्रेटर हूपु लार्क की वैश्विक आबादी निर्धारित नहीं की गई है परन्तु इसकी आबादी का चलन कम होता दिखाई दे रहा है क्योंकि इसकी पूरी वितरण सीमा में इसके सामान्य से असामान्य होने की सूचनाएं मिली हैं। इसका विस्तार बहुत ही व्यापक है तथा अन्य मापदंडों के अनुसार अभी यह संकटग्रस्त होने की सीमा रेखा से कोसों दूर है। इसीलिए इसे IUCN द्वारा Least Concern श्रेणी में रखा गया है।
तो इस बार वर्षा ऋतू में राजस्थान आइये और इसकी मधुर आवाज व् उड़ान की खूबसूरती को देख पाने की कोशिश कीजिये।
सन्दर्भ:
Nicolas, H. 1838. Nouveau recueil de planches coloriées d’oiseaux. Vol III
Oates, EW (1890). Fauna of British India. Birds. Volume 2. Taylor and Francis, London. pp. 316–318.