राजस्थान के सुनहरे रेतीले धोरों पर मिलने वाला एक सुनहरा बिच्छू जो मात्र यहीं पाया जाता हैं …………………………………..
राजस्थान के रेगिस्तान में ऐसे तो कई तरह के भू-भाग है, परन्तु सबसे प्रमुख तौर पर जो जेहन में आता है वह है सुनहरे रेत के टीले या धोरे। इन धोरो पर एक खास तरह का बिच्छू रहता है- जिसका नाम है- बूथाकस अग्रवाली (Buthacus agarwali)। मेरे लिए यह इस लिए महत्वपूर्ण है क्योंकि मेरे एक साथी श्री अमोद जामब्रे ने 2010 में इसकी खोज की थी। यहाँ खोज से मतलब है, पहली बार जंतु जगत के सामने इस प्रजाति के अस्तित्व के बारे में जानकारी रखी थी। उन्हें यह बिच्छू उनके मित्र श्री ईशान अग्रवाल ने ही संगृहीत करके दिया था जो राजस्सथान के जैसलमेर जिले के सगरो गांव से मिला था।श्री अमोद ने इसे अपने इसी मित्र के उपनाम से नाम भी दिया – अग्रवाली।
राजस्थान के कठोर वातावरण को दर्शाते हुए एक सटीक कविता है |
लू री लपटा लावा लेवे |
धोरा में तू किकर जीवै ?
कियाँ रेत में तू खावै पीवै ?
(एक अज्ञात राजस्थानी कवि की रचना)
खोज कर्ता :- श्री अमोद जामब्रे
यह बिच्छू आपको राजस्थान के मुलायम रेत वाले धोरों पर ही मिलेगा, इन धोरों पर लगभग उसी रंग के यह मध्यम आकार के बिच्छू शाम को सूरज ढलते ही सक्रिय हो जाते है और अपने लिए भोजन तलाशते है। पूरे दिन यहां तापमान 50 डिग्री सेल्सियस तक पहुँच जाता हैं अतः इन्हें छुप कर रहना पड़ता हैं। इनकी एक विशेषता यह है की यह धोरों के सबसे मुलायम रेत वाले हिस्से पर रहता है।त्वरित रूप से अपने आगे के तीनो पांवों की जोड़ियों से रेत निकालते हुए अपने चतुर्थ पांव की जोड़ी से मिट्टी को तेजी से बाहर निकालता है (जैसे अक्सर कोई ततैया करता है) और एक छोटा सा कोटर बना कर छुप कर बैठ जाता है। और तब तक इंतज़ार करता है, जब तक कोई शिकार नहीं आ जाये जिसे वह अपना भोजन बना सके । यदि यह अधिक धोरों पर अधिक विचरण कर अपना शिकार खोजेगा तो खुद का भी इसे किसी शिकारी द्वारा पकड़े जाने का खतरा रहेगा। दिन उगते ही यह एक कोटर को और गहरा करके रेत में समा जाता हैं।
अमोद अपने आलेख में लिखते हैं की यह जीनस बूथाकस अफ्रीका में मिलता हैं परन्तु इस खोज के साथ यह जीनस भारत में पहली बार पाया गया हैं। साथ ही यह प्रजाति राजस्थान की एक एंडेमिक या स्थानिक प्रजाति हैं जो मात्र राजस्थान में ही मिलती हैं।
Citation:
Amod Zambre and R Lourenço (Feb 2011), A NEW SPECIES OF BUTHACUS BIRULA, 1908 (SCORPIONES, BUTHIDAE) FROM INDIA, 115 Boletín de la Sociedad Entomológica Aragonesa, nº 46 (2010) : 115 -119.
सवाई माधोपुर – करौली ज़िलों के आस पास के लोग एक रहस्यमय सांप के बारे में अक्सर चर्चा करते है, जिसे वे ककरगड़ा के नाम से जानते है। उनके अनुसार यह सांप अपने बिलों के आस पास कंकर इकट्ठे करता है।
इन पत्थर के छोटे छोटे टुकड़ों को वह करीने से अपने बिल के मुहाने के आगे सहेज कर रखता हैं। स्थानीय लोग इसे अत्यंत ज़हरीला सांप मानते है, और साथ ही कहते हैं की यह मात्र रात्रि में निकलता है। निरंतर ककरगड़ा की चर्चा होने के कारण, यह सब के लिए एक पहेली बनता जा रहा था। कभी कभी लगाता था, जैसे वह करैत की बात कर रहे है, क्योंकि उनके अनुसार ककरगड़ा मात्र रात्रि में ही सक्रिय होता है। इन सब बातो से इस सांप का रहस्य और भी गहराता जा रहा था।
राजस्थान में सांपों के बारे में अनेक किंवदन्तियाँ और अंधविश्वास से जुड़ी कई कहानियां आम हैं, परन्तु उनकी बातों से ककरगड़ा का वर्णन पूरी तरह गलत नहीं लग रहा था। गांव के बुजुर्ग और जवान सभी इस प्रकार के सांप देखने की चर्चा करते रहे है।गांव के लोगों के अनुसार इस सांप के बिल अक्सर ही मिल जाते हैं।
Little Indian field mouse (Mus booduga) द्वारा बनाया गया बिल (फोटो : श्री धर्म सिंह गुर्जर)
वर्ष 2007, में पाली- चम्बल गांव से फ़ोन आया की उनके घर के पास ककरगड़ा ने एक बिल बना रखा हैं, यह हमारे लिए एक अवसर था। टाइगर वॉच संस्था ने एक इंटर्न श्री प्रीतेश पानके को यह जिम्मा दिया की वह इस रहस्य से पर्दा हटाने में मदद करें। श्री पानके को पूरी रात्रि जाग कर गहन नजर रखते हुए उस बिल के पास बैठना था। श्री पानके वर्तमान में भारतीय वायु सेना में कार्यरत है। पूर्ण सजग श्री पानके पूरी तैयारी कर के उस बिल से थोड़ी दूर अपना कैमरा लेकर बैठ गए की अब इस रहस्य से पर्दा हटाना ही है।
श्री पानके के अनुसार पहली रात्रि में उन्होंने कोई भी गतिविधि नहीं देखी, लगने लगा मानो यह एक व्यर्थ प्रयास होने जा रहा हैं। दूसरी रात्रि भी लगभग ख़तम होने को आयी, अब उन्हें नींद भी आ रही थी, परन्तु अभी उनकी जिज्ञासा ख़तम नहीं हुई थी, साथ ही यह भय भी था कहीं करैत जैसा सांप नींद में काट नहीं ले, बार बार में वे कुर्सी से नीचे लटकते अपने पांव ऊपर करते रहे। सुबह के पांच बज चुके थे, अचानक बिल के पास एक हलचल हुई और एक छोटा चूहा तेजी से बिल से निकल कर बाहर की और भागा। खोदा पहाड़ निकला चूहा की कहावत को चरितार्थ करता हुआ यह प्राणी कई रहस्यों से पर्दा हटाते हुए, उसी कुछ समय में कई बार अंदर बाहर आया गया, उसकी तेज गति के कारण श्री पानके मात्र एक छाया चित्र ही ले पाए।खैर श्री पानके के प्रयास से यह तय हो गया की ककरगड़ा कोई सांप नहीं बल्कि एक चूहा है।
भारतीय प्राणी सर्वेक्षण विभाग के एक वरिष्ठ वैज्ञानिक ने इसे प्राथमिक तौर पर Little Indian field mouse (Mus booduga) के नाम से पहचाना हैं। यद्यपि उनके अनुसार flat-haired mouse (Mus platythrix) भी हो सकता है एवं इसको प्रमाणिक तौर पर पहचनाने के लिए चूहे को पकड़ कर उसका परिक्षण करना पड़ेगा। एक अन्य शोध पत्र के अनुसार यह पाया गया हैं की Little Indian field mouse (Mus booduga) अपने बिल के मुंह पर मिटटी के ढेले लगा कर रखता हैं। यह ढेले बिल में बच्चे मौजूद रहने पर संख्या में अधिक वह आकर में बड़े हो सकते हैं। इसलिए यह माना गया है की उनका सम्बन्ध सुरक्षा से हैं। यद्यपि इस मामले में मिट्टी के ढेलो की बजाय पत्थर के कंकर थे। शायद सरीसृप इस तरह के बिल के पास जब रेंगते हुए चलते हैं तो पत्थर सरक कर उनके मुँह को ही बंद कर देते हैं अथवा बिल के अंदर जाने का छोटा रास्ता कंकरो के ढेर में ही खो जाता हैं।
Little Indian field mouse (Mus booduga) का छायाचित्र (फोटो : श्री प्रितेश पानके)
Little Indian field mouse (Mus booduga) चूहे मात्र एक छोटे मुँह वाले बिल बनाते हैं जिस कारण इनको हाइपोक्सिक और ह्यपरकपनीक (hypoxic and hypercapnic) स्थितियों में रह सकते हैं। इसका मतलब हैं कम ऑक्सीजन एवं रक्त में अधिक कार्बन डाइऑक्साइड की स्थिति में भी रह पाना।
खैर, इस तरह श्री पानके ने दो रात की मेहनत कर एक सांप के मिथक से पर्दा हटा दिया। परन्तु यह सम्भव है की कोई भी सांप इन चूहों के बिल को इस्तेमाल कर सकता हैं, क्योंकि सांप अपने लिए बिल बनाते नहीं हैं, वे दूसरों के बनाये हुए बिलों को ही इस्तेमाल करते हैं। इस तरह यह कहना गलत नहीं है कि ककरगड़ा के बिल में सांप नहीं होते, परन्तु ऐसे बिल बनाने वाला एक चूहा है।
कवर: Little Indian field mouse (Mus booduga) द्वारा बनाया गया बिल : फोटो : श्री प्रितेश पानके
लोगो का सांपों के प्रति दो प्रकार से व्यवहार देखा गया है, कुछ लोग इनसे अत्यंत लगाव रखते हैं और हर मौके पर सांपों की चर्चा करते हुए नहीं थकते हैं, और दूसरे वे जो केंचुओं जैसे दिखने वाले निरीह ब्लाइंड स्नेक तक को भी, जहरीले सांप मान कर मारते रहते हैं। केंचुए जैसे दिखने वाले ‘ब्लाइंड स्नेक’ सांप जो अक्सर आपके घरों के बाथरूमों के ड्रेनेज वाले नालों से निकलते हैं, उनको हम दो समूह में बाँट सकते हैं एक सामान्य तौर पर मिलने वाला ब्लाइंड स्नेक हैं, दूसरा पतला होने के कारण स्लेंडर ब्लाइंड स्नेक जिसका ही एक अन्य नाम हैं – थ्रेड स्नेक।
Myriopholis blanfordi (Blanford’s worm snake , the Sindh thread snake) photo by Dhamrendra Khandal & Vivek Sharma
ये दोनों ही इतनी छोटे आकर के हैं की इन्हें मात्र प्रशिक्षित लोग ही इन्हें सही तरह से पहचान सकते हैं। पिछले दिनों राजस्थान में मिलने वाले थ्रेड स्नैक्स पर एक सर्प विशेषज्ञ श्री विवेक शर्मा द्वारा एक अध्ययन किया गया। उन्होंने राजस्थान में 4000 किलोमीटर की एक दुष्कर यात्रा की जिसका उद्देश्य था, उपेक्षित सांपों पर शोध कार्य करना जैसे थ्रेड स्नेक आदि को उनके विभिन्न परिवेशों में देखना- जिनमें रेगिस्तान, उजाड़, खुले वन, मानव विकसित एवं परिवर्तित पारिस्थितिक तंत्र इत्यादि शामिल थे। यह प्रयास वह एक लम्बे शोध अध्ययन के पूर्व में उसकी ज़रूरत को देखने लिए कर रहे थे ताकि अपने शोध के उद्देश्य निर्धारित कर सके। जबलपुर, मध्य प्रदेश के रहने वाले श्री विवेक शर्मा, सांपों की टेक्सोनोमी एवं उनकी पहचान में माहिर हैं। टैक्सोनॉमी पृथ्वी पर सभी जीवित जीवों को वर्गीकृत (छँटाई और वर्गीकृत) करने के लिए उपयोग की जाने वाली एक प्रणाली है। उन्होंने भारतीय सांपों को नए स्थानों पर खोजने एवं सांपों की एकदम नयी प्रजातियों की खोज पर कई राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय शोधपत्र प्रकाशित किये हैं।
अक्सर किसी भी प्राणी की प्रजाति का सही नाम जान लेना एक अत्यंत दुष्कर कार्य हैं। यह काम हमारे लिए आसान करते हैं टैक्सनॉमिस्ट (Taxonomist)। टैक्सनॉमिस्ट जीवित प्राणियों को वर्गीकृत करने का कार्य करते हैं। टेक्सोनोमी “जीवन” के लिए एक पुस्तकालय की तरह है, जिसमें पूरी दीवारें अलमारियों में विभाजित हैं, फिर अलमारियों के भीतर अलग अलग खाने, फिर उसके भीतर किताबें, और अंत में प्रत्येक प्रजाति के लिए एकल पन्ना।
Myriopholis macrorhyncha (Beaked-thread snake , Long-nosed worm snake or Hook-snouted worm snake) photo by Dhamrendra Khandal & Vivek Sharma
विवेक शर्मा ने अचानक एक दिन मुझे फोन किया की आप यदि सिंध थ्रेड स्नेक (Myriopholis blanfordi) को देखना चाहते हैं और आज के दिन समय निकाल सकते हैं तो राजस्थान के अजमेर जिले में आ जाये। जब में वहां पहुंचा तो उन्होंने बताया की एक स्थान पर निर्माण कार्य चल रहा है और यहाँ कुछ अच्छी संभावनाएं हैं, विवेक बोले हम इस स्थान पर कुछ सिंध थ्रेड स्नेक पहले ही देख चुके हैं और स्थानीय सज्जनों ने भी ऐसे किसी गुलाबी रेंगने वाले “कीड़े” को कभी कभार देखने की बात की है। कुछ समय में खुदाई करने वाले मजदूरों ने एक सांप को उठा कर दूर किया, जिसको विवेक शर्मा ने सावधानीपूर्वक अवलोकन कर पाया की यह सिंध थ्रेड स्नेक ही हैं, इसे देखना मेरे लिए एक अवसर जैसा था। साथ ही उसने कहा की इसके खोजकर्ता के बाद और आजादी के पहले यहां काम कर रहे विदेशी जीव वैज्ञानिकों के बाद से इसे किसी ने ठीक से पहचानने का कार्य स्वतंत्र भारत में अभी तक किसी ने नहीं किया हैं।
उसने बताया की कुछ लोग दावा करेंगे की उन्होंने इसे देखा हैं परन्तु थार मरुस्थल में एक और थ्रेड स्नेक प्रजाति मिलती हैं जिसे इसकी सहोदर प्रजाति (sibling species) कह सकते है। यानी दो या दो से अधिक प्रजातियां जो दिखने में लगभग समान हैं, फिर भी आपस में प्रजनन नहीं करती हो उन्हें सहोदर या गुप्त प्रजाति कहा जाता है। यह प्रोटोजोआ से लेकर हाथियों तक के सभी जीवों में देखा गया है। अपनी संरचनात्मक समानता को बनाए रखते हुए, ऐसी प्रजातियों सूक्ष्म शारीरिक और व्यवहारिक रूप से निसंदेह अलग भी होती हैं। ऐसी प्रजातियों के प्रजनन व्यवहार, फेरोमोन, मौसमी, या अन्य विशेषताओं में अंतर होते हैं जो इन प्रजातियों की अलग पहचान बनाए रखते हैं।
मैंने श्री विवेक से पूछा तो क्या थार में थ्रेड स्नेक की कोई अन्य प्रजाति भी मिलती हैं ?
विवेक बोले बिलकुल मिलती हैं। और देखना आपको में एक बार मेरी यात्रा के दौरान फिर बुलाऊंगा। यही हुआ, कुछ दिनों बाद विवेक ने कहा आप जोधपुर आये आपको नया थ्रेड स्नेक देखने को मिलेगा।उसी तरह रोड के पास देखा अन्य प्रजाति का बीकड थ्रेड स्नेक (Myriopholis macrorhyncha)। देखने में बिलकुल सिंध थ्रेड के समान परन्तु मुँह के सामने ध्यान से देखने पर आपको मुँह आगे चोंच की तरह निकला हुआ हिस्सा (रोस्ट्राल), जो इसे सिंध थ्रेड स्नेक से अलग प्रजाति बनाता हैं।
जब और अधिक अंतर जानने का प्रयास किया तो विवेक बोले यह काम सांप पर काम करने वालो का हैं जो इतने छोटे सांपों को मात्र सूक्ष्मदर्शी से ही पहचान सकते हैं, मोटे तौर पर आप इतना ध्यान रखे की जो गुलाबी रंग का अधिक चमकदार हैं स्नेक हैं वह थ्रेड स्नेक या स्लेंडर ब्लाइंड स्नेक हैं, और गहरे भूरे रंग के ब्लाइंड स्नेक हैं। साथ ही बताया की किस प्रकार थ्रेड स्नेक के कपाल और ऊपरी जबड़े स्थिर होते हैं और ऊपरी जबड़े में कोई दांत नहीं होते है। निचले जबड़े में बहुत लम्बी चतुष्कोणीय हड्डी, एक छोटी यौगिक हड्डी और अपेक्षाकृत बड़ी दांतेदार हड्डी होती है।जबकि ब्लाइंड स्नेक में ऊपरी जबड़े में दांत होते हैं। ब्लाइंड स्नैक्स में निचले जबड़े की जोड़-तोड़ अन्य सर्पों की तरह खुलते नहीं हैं जो उसे अपने मुँह से छोटे शिकार करने के लिए बाध्य करते हैं। इसलिए कहते हैं यह सांप प्रजाति अपने शिकार को टुकड़े टुकड़े कर के खाते हैं, अन्य सर्पों की भाँति उन्हें निगलते नहीं हैं। खैर यह व्यवहार भी किसी प्रयोगशाला में ही देखा जा सकता है.
आगे विवेक थोड़ा रुक कर बोले “राजस्थान में थ्रेड स्नेक एवं ब्लाइंड स्नेक की कई प्रकार की ज्ञात प्रजातियां पायी जाती हैं एवं कई अज्ञात प्रजातियां होने की भी पूरी सम्भावना हैं।जब समझ नहीं आये तो यह बोले की यह एक थ्रेड स्नेक हैं – सिंध हैं या बीकड पता नहीं। बस आप एक सुधि शोधार्थी की तरह व्यवहार करें।”
राजस्थान में गाय की एक नस्ल मिलती है जिसे कहते है ‘नारी’, शायद यह नाम इसकी नाहर (Tiger) जैसी फितरत होने के कारण पड़ा है। सिरोही के माउंट आबू क्षेत्र की तलहटी में मिलने वाली यह माध्यम आकर की गाय अपने पतले लम्बे सींगों से बघेरों से भीड़ जाती है। अक्सर जंगल में बघेरो से उन्हें अपने बछड़ो को बचाते हुए देखा जाता है अथवा कई बार अपने मालिक को वन्यजीव से मुठभेड़ में फंसा देख, यह वन्य जीव पर टूट पड़ती है। यदि इन पर वन्य जीव हमला करते है तो यह आवाज निकाल कर अन्य गायों को अपने पास बुला लेती है, जबकि सामान्य तय अन्य गायों की नस्लें दूर भाग जाती है।
फोटो :- अंजू चोहान
नेशनल ब्यूरो ऑफ़ एनिमल जेनेटिक रिसोर्सेज, करनाल, हरियाणा (NBAGR) ने इसे कुछ समय पहले ही इसे एक अलग मवेशी की नस्ल के रूप में मान्यता दी है। इस नस्ल का विस्तार- राजस्थान के सिरोही, पाली एवं गुजरात के बनासकांठा, साबरकांठा आदि क्षेत्रों में है। यह नस्ल लम्बी दुरी तय कर चराई के लिए ले जाने के लिए उपयुक्त है।
सफ़ेद और स्लेटी रंग की यह गाय स्वभाव में अत्यन्त गर्म होती है एवं इसके सींग बाहर की और मुड़े होते है, एवं यह कृष्ण मृग (Blackbuck) की भांति घूमे हुए होते है । इनके आँखों की पलकों के बाल सामान्यत सफ़ेद होते है। यह 5-9 लीटर तक दूध दे सकती है, वहीँ इनके नर (बैल) माल वाहन के लिए भी उपयुक्त होते है। कहते है यह गाय अत्यंत बुदिमान नस्ल है जो पहाड़ो के रास्तों में सहजता से चरने चली जाती है एवं कम चराई में अच्छा दूध देती है। यह बिमारियों एवं अन्य व्याधियों से भी कम ही ग्रसित होती है साथ ही इनका कम लागत में पालन पोषण संभव है। यदि आप वन्य जीवो से प्रभावित क्षेत्र में रहते है तो यह गाय पलना उपयुक्त होगा।
आज भी हमारी जैव विविधता में कई अनछुए हर्फ़ है, इन्हे संरक्षित रखना हमारी जिम्मेदारी है
लेखक:
Dr. Dharmendra Khandal (L) has worked as a conservation biologist with Tiger Watch – a non-profit organisation based in Ranthambhore, for the last 16 years. He spearheads all anti-poaching, community-based conservation and exploration interventions for the organisation.
Mr. Rajdeep SIngh Sandhu (R) :-is a lecturer of political science. He is interested in history, plant ecology and horticulture.