स्वरूपाराम, एक ऐसा वन रक्षक जिसने न सिर्फ जंगल की आग बुझाकर वन्यजीवों की जान बचाई है बल्कि अपनी जान पर खेल कर अपने साथियों की भी रक्षा करी…
रेतीले धोरों की धरती बाड़मेर के एक छोटे से गांव खोखसर में जन्मे “स्वरूपाराम गोदारा” आज वनरक्षक (फॉरेस्ट गार्ड) के रूप में वन-विभाग में भर्ती होकर वन पर्यावरण व जीव जंतुओं के प्रति समर्पित भाव से कार्य कर रहे हैं। खोखसर, वह गांव है जहाँ से जाबाज़ प्रतिभावान “श्री खेताराम सियाग” आते हैं जिन्होंने रियो ओलंपिक में भारत का प्रतिनिधित्व किया था। ये ऐसा क्षेत्र है जहाँ से स्वरूपराम गोदारा एकमात्र व्यक्ति हैं जो वन विभाग में कार्य कर रहे हैं और वर्तमान में ये अपने गांव ही नही बल्कि उस क्षेत्र के सभी युवा व आमजन के लिए एक प्रेरणा का केंद्र बने हुए हैं। आज उसी का परिणाम हैं कि उस क्षेत्र के सेंकडो युवा वनरक्षक भर्ती प्रतियोगी परीक्षा के लिए तैयारी भी कर रहे हैं।
स्वरूपाराम गोदारा का जन्म 8 जुलाई 1993 को बाड़मेर जिले की गिड़ा तहसील के खोखसर गांव में एक किसान परिवार में हुआ। खोखसर गांव जैसलमेर, बाड़मेर व जोधपुर की सीमा पर बसा हुआ एकमात्र गांव है जो इन तीनों जिलों का केंद्र बिंदु है। इनकी प्रारंभिक शिक्षा गांव में व उच्च शिक्षा हीरा की ढाणी बाड़मेर में हुई। इनकी विशेषतया कबड्डी में काफी रुचि थी और विद्यालय से ये कई बार जिला स्तर पर कबड्डी खेल चुके हैं। पढाई के दौरान ही इनकी “टीपू देवी” से शादी हो गई थी और आज इनके दो जुड़वा बच्चे भी हैं। बच्चों के बारे में इनके मन में एक सपना हैं कि ये पढ़ लिख कर वन्यजीव संरक्षण के महत्व को समझे और इसी क्षेत्र में आगे बढ़े। स्वरूपाराम की पत्नी टीपू देवी एक ग्रहणी महिला हैं तथा वह अपने घर परिवार को संभालने हेतु गांव में ही रहती हैं। टीपू बाई अशिक्षित जरूर हैं लेकिन वे अपने परिवार के सभी लोगों व बच्चों को स्वरूपाराम के कार्यक्षेत्र को एक कहानी के रूप में सुनाती रहती हैं।
राजस्थान वन विभाग द्वारा निकाली गई वनरक्षक भर्ती परीक्षा 2015 में इनका चयन हुआ और 13 अप्रैल 2016 को इन्होंने पहली बार माउंट आबू वन्यजीव अभयारण्य में ज्वाइन किया। यहां जॉइन करने के तीन महीने बाद ही इनका चयन सीमा सुरक्षा बल में हो गया था लेकिन प्रकृति व वन्यजीवों के मोह ने इनको वहां से जाने की इजाजत नही दी। ये वनविभाग के साथियों के साथ घुल मिल गए थे और इनमें वन्य क्षेत्र में कार्य करने की रुचि भी बढ़ गयी थी। अभी पांच माह पूर्व ही इनका स्थानांतरण वन मण्डल उपवन संरक्षक बाड़मेर के अधीन हो गया है।
वन में गश्त करते हुए
माउंट आबू अभयारण्य में काम करने के दौरान इन्होने बहुत ही सराहनीय कार्य किये है जिसमें सबसे मुख्य है “उपवन संरक्षक” की जान बचाना। यह बात है कोरोनाकाल की जब नगरपालिका द्वारा वन्य क्षेत्र में साफ-सफाई के लिए अभियान चलाया गया था। इस अभियान के लिए मजदूर भी नगरपालिका की तरफ से ही थे तथा उनकी देखभाल व निगरानी का जिम्मा वन- विभाग कर्मियों का था। स्वच्छता अभियान चल ही रहा था कि, एक दिन स्वरूपाराम सहित उपवन संरक्षक महोदय (श्री बालाजी करी) और एक नेचर गाइड वन में ट्रेकिंग के लिए निकले। ये साथ-साथ आसपास के कचरे का संग्रहण करते हुए आगे बढ़ रहे थे और वन में स्थित अगलेश्वर महादेव मन्दिर पर पहुंच गए। इस मंदिर पर साधु के भेष में एक बाबा रहते थे तो वह साधु बाबा इनसे पूछने लगे कि आप आगे कहां जा रहें हैं ? इन्होने उत्तर दिया कि हम वन विभाग वाले हैं और गश्त के लिए आए हैं। जैसे ही ये नीचे की ओर गए तो वहाँ पर 4-5 साधु और बैठे थे जो अनैतिक गतिविधियां कर रहे थे। तभी पीछे से जो बाबा पहले मिले थे वो भी वहीं आ गए। उपवन संरक्षक साहब ने उनको रोका कि “यह प्रतिबंधित क्षेत्र है और यहाँ नगरपालिका द्वारा साफ सफाई का अभियान चला रहा है और आप इस तरह से यहाँ गंदगी फैला रहे हो, यह उचित नहीं है”। यह बात सुनते ही साधू लोग लड़ाई पर उतारू हो गए और उन्होंने लाठी-डंडे उठा लिए और हमला कर दिया। मुठभेड़ के दौरान स्वरूपाराम के सिर में चोट भी आई लेकिन उन्होंने कोशिश कर के हमलावरों से लाठी छीन ली। परन्तु उनके पास एक कुल्हाड़ी और थी जैसे ही वो कुल्हाड़ी लेकर उपवन संरक्षक की तरफ दौड़े, तो स्वरूपाराम बीच में आ गए और कहा कि “मुझे मार लो पर मेरे बॉस (उप वनसंरक्षक) को कुछ नही होना चाहिए”। यह बात सुन कर भी वह साधु नहीं रुका और जैसे ही वह स्वरूपाराम को मारने के लिए आगे बढ़ा तो स्वरूपाराम ने कुल्हाड़ी को पकड़ लिया और हिम्मत दिखाते हुए उपवन संरक्षक साहब व नेचर गाइड को ऊपर भेजा। जब तक वे ऊपर नही पहुँचे तब तक स्वरूपाराम ने कुल्हाड़ी को रोके रखा। उप वनसंरक्षक के वहां से सुरक्षित निकलते ही स्वरूपाराम भी फुर्ती से वहाँ से निकल लिए।
लगभग सभी संरक्षित वन क्षेत्रों में धार्मिक स्थल स्थित हैं जो की लगातार वन कर्मियों के लिए मुश्किल बने हुए हैं क्योंकि यहाँ पर साधू के रूप में लोग रहने लग जाते हैं जो अनैतिक गतिविधियों को अंजाम देते हैं और इन स्थानों पर आने वाले दर्शनार्थियों की वजह से जंगल में कचरा भी फैलता है।
वरिष्ठ अधिकारियों के साथ गश्त पर स्वरूपाराम
स्वरूपाराम बताते हैं कि माउंट आबू वन्यजीव क्षेत्र में आग लगने की गंभीर समस्या है, गर्मियों के मौसम में अक्सर वहां आग लगती रहती है जिससे न सिर्फ पेड़ों बल्कि वन में रहने वाले जीवों को बहुत नुक्सान पहुँचता है। स्वरूपाराम के अनुसार यहाँ आग लगने के कुछ मुख्य कारण हैं; आबू पर्वत के चारों ओर व ऊपर के भाग में बहु संख्या में आदिवासी गरासिया जनजाति निवास करती है। यह लोग जंगलों में ही रह कर अपना जीवन यापन करते हैं। पौराणिक मान्यताओं और परंपराओं के अनुसार जब इनके घर, परिवार व समाज में कोई उत्सव या उत्साह का माहौल होता है तो यह लोग जंगल में आग लगाते हैं जिसको “मगरा जलाना” कहते हैं। इस खुशी के माहौल में यह लोग वनों में रहते हुए भी इस प्रकृति के महत्व को नहीं समझ पाते हैं। ऐसी घटनाओं से जीव-जंतुओं व पेड़ पौधों का नुकसान होता हैं और यह वन विभाग के लिए एक गंभीर चिंता का विषय हैं। आदिवासियों के अलावा यहां बांस के थूरों की बहुतायता है और गर्मी में बांस में घर्षण के कारण भी यहाँ आग लग जाती हैं।
एक बार इसी आदिवासी समुदाय की लापरवाही के कारण वन में आग लगा दी गयी और आग इतनी जबरदस्त थी कि, वह धीरे-धीरे करीब 500 हेक्टेयर वन्य क्षेत्र में फैल गई। पिछले तीस वर्षों में ऐसी भयावह आग कभी नहीं देखी थी और इस आग को लेकर स्थानीय लोग भी डरे हुए थे।
उस समय स्थिति ऐसी बन गई कि आग बुझाने के लिए वन विभाग को हेलीकॉप्टर उपयोग में लेना पड़ा, परन्तु वह प्रयास कारगर साबित नहीं हो पाया। क्योंकि हेलीकॉप्टर पानी भर कर जब तक ऊपर पहुंचता था तब तक 15 मिनट का समय लग जाता था और आग काफी तेजी के साथ आगे बढ़ रही थी। उस भयानक स्थिति को देखते हुए वायुसेना के जवान भी सहायता के लिए बुलाए गए और उपवन संरक्षक ने लोहे के पंजे मंगवाए और जिसकी सहायता से सभी कर्मियों ने झाड़ियों व वृक्षों को आग से दूर करना शुरू किया, लम्बी झाड़ियों को कुल्हाड़ी से काटकर आग से दूर किया और लगातार 17 दिन के प्रयास के बाद आग पर काबू हो पाया।
इसके बाद स्वरूपाराम ने जंगल में आग बुझाने के लिए कई तरीके सुझाये और नए रास्तों का पता लगाया जिनका आग के समय में इस्तेमाल किया जा सकता है।
जंगल में लगी आग को बुझाते हुए स्वरूपाराम
स्वरूपाराम बताते हैं कि विभाग में वन्य प्रबंधन सबसे बड़ी चुनौती है जैसे आग की घटनाएं, शिकारियों की घटनाएं व जंगल में बाहर से घूमने का बहाना लेकर कुछ असामाजिक तत्वों के जमावड़ा आदि प्रमुख़ हैं। इनकी निगरानी के लिए उच्च अधिकारियों के मार्गदर्शन व ग्रामीणों के सहयोग से समाधान निकालना पड़ता है। स्थानीय ग्रामीण लोगों के सहयोग से ही घने जंगल, दुर्गम पहाड़ी, रास्ता खोजना व अवैध गतिविधियों के बारे में जानकारी मिलती रहती हैं।
माउंट आबू एक घना जंगल है और यहां भालुओं की आबादी भी अच्छी है और उनके लिए प्रयाप्त भोजन भी है। वन्यजीव गणना के मुताबिक माउंट आबू के संरक्षित क्षेत्र के जंगलों में लगभग 300 से अधिक भालू हैं। यहां अक्सर सड़क के किनारे भालू को घूमते हुए देखा जा सकता है और कभी कभार भालू आबादी क्षेत्र में भी घुस जाते हैं। एक बार भालू जंगल से बाहर निकल कर गाँव गुफानुमा के आबादी क्षेत्र में आ गया और एक घर में अंदर घुस गया। आसपास के लोगों के द्वारा विभाग के पास सूचना पहुंची और स्वरूपाराम एवं टीम ने मौके पर पहुँचकर उसे देखा तो वह न तो आगे जा पा रहा है और न ही पीछे आ पा रहा था। तभी स्वरूपाराम ने सूझबूझ से काम लेते हुए पिंजरा मंगवाया और उसे सही सलामत रेस्क्यू करके जंगल मे ले जाकर छोड़ दिया।
वन क्षेत्र में कार्य करने के दौरान कई बार अवैध शिकार की घटनाएं सामने आती हैं और इस प्रकार की घटनाओ में स्वरूपाराम ने बड़ी ही हिम्मत और सतर्कता से कार्य करते हुए शिकारियों को भी पकड़ा है। एक बार ड्यूटी के दौरान आबू क्षेत्र के ज्ञान सरोवर के पास स्वरूपाराम गश्त कर रहे थे, तभी उन्होंने देखा कि एक शिकारी ने भालू को पकड़ने के लिए तार का फंदा लगा रखा था और उसी जगह के आसपास भालू के बाल, अंग व नाखून बिखरे हुए थे। स्वरूपाराम व उनके साथियों ने शिकारी को खोजना शुरू कर दिया। काफी कोशिशों के बाद आसपास के ग्रामीण लोगों द्वारा मालूम हुआ की यह शिकारी और कोई नहीं बल्कि सोमाराम था जो योगी समाज का व्यक्ति था और लगातार शिकार की घटनाओं में शामिल रहता था तथा कभी पकड़ा नहीं जाता था। सारी सुचना मिलते ही स्वरूपाराम व उनकी टीम ने शिकारी को गिरफ्तार करने के लिए एक गुप्त योजना बनाई। योजना के मुताबिक स्वरूपाराम भेस बदलकर शिकारी के घर एक ग्राहक बनकर गए। शिकारी के घर पर एक महिला मौजूद थी जिससे स्वरूपाराम भालू के कुछ अंगों की जरूरत व उनको खरीदने की इच्छा के बारे में बताया। उस महिला ने कहा कि “अभी घर पर कोई नहीं है मेरा बेटा अभी बाहर है उसको आने दो मैं आपको दे दूंगी”। स्वरूपाराम ने मोबाइल नंबर ले लिए और उसको कॉल करके ग्राहक की तरह बात करी। सामने ग्राहक देख शिकारी भी पैसों के प्रलोभन में आ गया और सौदा पक्का कर दिया। फिर सौदा होने की जगह पर विभाग की पूरी टीम ने छापा मारा और शिकारी सोमाराम और उसके बेटे को पकड़ लिया। गिरफ्तार होने के बाद उसने कई राज भी खोलें और उसके बाद ऐसा सबक लिया कि उसने शिकार करने का धंधा ही छोड़ दिया।
स्वरूपा राम बताते हैं कि माउंट आबू अभ्यारण्य का पूरा क्षेत्र पिकनिक स्पॉट के लिए प्रसिद्ध है देश-विदेश के सैलानी यहाँ पर आते-जाते रहते हैं। सैलानियों को लेकर भी वन प्रबंधन काफ़ी चिंतित रहता हैं क्योंकि कुछ ऐसी किस्म के लोग भी यहाँ आते हैं जिनको वन संपदा व वन्यजीवों के महत्व से कोई मतलब नहीं होता बल्कि ये लोग सिर्फ मौज मस्ती के लिए घूमने यहाँ आते हैं। वन्य क्षेत्र में कचरा फैलाना, शराब पीना ऐसी अनैतिक गतिविधियों से परेशान होकर स्वरूपाराम उनको समझाते भी है परन्तु लोगों के बर्ताव में कोई फर्क नहीं आया। और जब
ऐसी गतिविधियां बढ़ने लगी तो विभाग वालों ने कैमरा लगाना शुरू कर दिया जिसके बाद कोई भी वन में अवैध रूप से आता था तो उन्हें पकड़ कर कार्रवाई करी जाने लगी।
स्वरूपराम समझते हैं कि आज जिस तरह से अवांछित मानवीय गतिविधियों के कारण पर्यावरण ख़राब हो रहा है उसके लिए जंगलों को सख्ती से बचाने और बनाए रखने की बहुत बड़ी जरूरत है। केवल ऐसा करने से हम सभी जीवों के भविष्य को बचा सकते हैं। दुनियाभर के वैज्ञानिक, पर्यावरण विशेषज्ञ, आदि वन संरक्षण की आवश्यकता पर ज़ोर दे रहे हैं। सरकारों ने जंगली प्रजातियों की रक्षा के लिए अभयारण्य बनाए हैं। वन संरक्षण जैसे महत्वपूर्ण काम संभवतः ‘वृक्षारोपण’ सप्ताह देखकर किया नहीं जा सकता। इसके लिए वास्तव में महत्वपूर्ण योजनाओं की तर्ज पर काम करने की आवश्यकता है। यह भी एक या दो सप्ताह या महीनों के लिए नहीं बल्कि सालों के लिए तभी तो पृथ्वी का जीवन उसके पर्यावरण और हरियाली की सुरक्षा संभव हो सकती है।
प्रस्तावित कर्ता: श्री बालाजी करी (उप-वन संरक्षक उदयपुर (उत्तर), डॉ सतीश कुमार शर्मा (सेवा निवृत सहायक वन संरक्षक उदयपुर)
लेखक:
Shivprakash Gurjar (L) is a Post Graduate in Sociology, he has an interest in wildlife conservation and use to write about various conservation issues.
Meenu Dhakad (R) has worked with Tiger Watch as a conservation biologist after completing her Master’s degree in the conservation of biodiversity. She is passionately involved with conservation education, research, and community in the Ranthambhore to conserve wildlife. She has been part of various research projects of Rajasthan Forest Department.
राजस्थान के हिल स्टेशन – माउंट आबू में भालू अक्सर कचरे के ढेरो के आसपास भोजन ढूंढते देखे जाते हैं परिणामस्वरूप उनके व्यवहार में बदलाव आ रहा है।
कुछ दिनों पहले मैंने माउंट आबू में एक विचलित करने वाला दृश्य देखा, जिसमें चार भालू कचरे के ढेर में गाय एवं भैंस के साथ भोजन ढूंढ रहे थे। खैर अचानक से आई 2-3 पर्यटकों की गाड़ी से वो भाग गए परन्तु एक भालू निर्भय होकर अपना भोजन ढूंढ़ता ही रहा। यह दृश्य अब यहाँ एक साधारण बात हैं।
गाय भैंस के मध्य कचरे से खाना तलाशता एक भालूI (फोटो: श्री धीरज माली)
राजस्थान का हिल स्टेशन – माउंट आबू, भालूओं के लिए एक अनुकूल पर्यावास हैं, लेकिन कई वर्षों से प्लास्टिक और गन्दगी के अम्बार से यहाँ की वादियों का मानो दम घुट रहा है। जगह-जगह बिखरा हुआ कचरा, यहाँ के वन्यजीवों और पक्षियों के व्यवहार को तेजी से बदल रहा हैं। कचरे के ढेरों में आसानी से मिलने वाला खाना खाने के लिए, यह मानव आबादी की ओर चले आते हैं एवं प्रतिकूल भोजन का सेवन करते हैं। कहते हैं, माउंट आबू में कचरा निस्तारण प्रणाली का कोई सार्थक प्रबंध इसलिए नहीं है, क्योंकि यहाँ के जनप्रतिनिधियों ने इसे विकसित ही नहीं होने दिया। क्योंकि कचरे से यहाँ के प्रभावशाली लोगों के व्यक्तिगत हित जुड़े हुए हैं। यहाँ कचरा निस्तारण के लिए इनके द्वारा एक बहुत बड़े समूह को रखा गया हैं, जो मात्र साबुत शराब की बोतले और रीसायकल होने योग्य प्लास्टिक ही इकठ्ठा कर रहे है। प्लास्टिक और शराब की साबुत बोतलों से हो रही मोटी कमाई के फेर में जिम्मेदार लोग मौन धारण करके बैठे है अथवा मात्र इतने ही शामिल हैं के अपना मतलब सिद्ध कर सके। इसका खामियाजा माउंट आबू की प्रतिष्ठा एवं वन्यजीव भुगत रहे है। लम्बे समय से यह सिलसिला जारी है लेकिन अब तक कोई पुख्ता प्रबंधन नजर नहीं आ रहे हैं।
पर्यटकों द्वारा रात में भालुओं के करीब तक जाने व् उनको खाना डालने से उनके व्यवहार में बदलाव आना तय है (फोटो: डॉ. दिलीप अरोड़ा)
वन विभाग की माने तो माउंट आबू वाइल्डलाइफ सैंक्चुअरी में दो सौ से भी अधिक भालू मौजूद हैं। इसके अलावा तेंदुए, सांभर, हनी बेजर सहित कई सारे दुर्लभ वन्यजीव भी यहाँ पर है लेकिन बढ़ते मनुष्यों के हस्तक्षेप ने वन्यजीवों के लिए खतरा पैदा कर दिया है। यहाँ पर भालुओं के मनुष्यों पर हमले भी बढ़ रहे है। देखना हैं कब तक विभाग, सरकार और यहाँ के स्थानीय लोग इन मुद्दों से मुँह मोड़ के रहते हैं।
माउंट आबू वन्यजीव अभयारण्य देश की सबसे पुरानी पर्वत श्रृंखलाओं में से एक, अरावली पर गुरु शिखर चोटी सहित एक बड़े पठार को आच्छादित करता हुआ रेगिस्तानी राज्य राजस्थान के सबसे अधिक देखे जाने वाले हिल स्टेशनों में से एक है…
राजस्थान के सिरोही जिले में स्थित “आबू क्षेत्र” की जैव विविधता की विश्व एवं राष्ट्रीय स्तर पर एक अलग ही पहचान है। सन् 1960 में आबू क्षेत्र के लगभग 114 वर्ग कि.मी. क्षेत्र को अभयारण्य के रूप में चिह्नित् किया गया था। आबू के नगरीय क्षेत्र की बढ़ती हुई मानव आबादी तथा पर्यटक संख्या की चुनौती से निपटने के लिए सन् 2008 में नये क्षेत्रों को भी आधिकारिक रूप से अभयारण्य में शामिल किया गया तथा ईको-सेन्सिटिव जोन (पर्यावरण संवेदनशील क्षेत्र) की अधिसूचना जारी की गई। वर्तमान में माउण्ट आबू वन्यजीव अभयारण्य का कुल क्षेत्रफल 326 वर्ग कि.मी. के लगभग है। आगामी कुछ वर्षों में मुख्य अभयारण्य क्षेत्र को सुरक्षित करने की दृष्टि से आबू पर्वत के चारों ओर के तलहटी क्षेत्र के कुछ भाग को हरित पट्टिका के रूप में विकसित किया जाने का लक्ष्य भी है।
आबू पर्वत की स्थलाकृति
आबू पर्वत 24°31″-24°43″ उत्तरी अक्षांश व 72°38″-72°53″ पूर्वी देशांतर के मध्य, अरावली के दक्षिण-पश्चिमी भाग में मध्य भारत के उच्चतम शिखर (गुरु शिखर, 1,722 मी.) युक्त पृथक पहाड़ी के रूप में स्थित है। आबू की व्युत्पत्ति संस्कृत व वैदिक नीत अर्बुद अर्थात् उबाल शब्द से हुई है। इसका उल्लेख बुद्धि प्रदाता पर्वत के रूप में भी किया गया है। समुद्र तल से 1219 मी. पर स्थित यह पर्वत लगभग 19 कि.मी. लम्बाई व 5-8 कि.मी. चौड़ाई वाला मनोरम पठारी विस्तार है।
माउंट आबू वन्यजीव अभयारण्य मानचित्र
आबू पर्वत का इतिहास
विष्णु पुराण में मरुभूमि के रुप में वर्णित अर्बुद प्रदेश अर्थात् अर्बुदांचल या आबू पर्वत (माउण्ट आबू), राजस्थान के हृदय-हार अरावली के दक्षिण-पश्चिम में मुख्य पर्वतमाला से पृथक, मरूधरा में स्वर्ग का आभास देता भू-भाग है। यह देवी-देवताओं एवं ऋषि-मुनियों के पावन व दिव्य चरित्रों से सुवासित, तथा देवासुर संग्राम व् साधु-संतों के कई चमत्कारों के किस्से-कहानियों से भरपूर दिव्य क्षेत्र है। इसे कर्नल जेम्स टॉड ने ‘‘भारत का ओलम्पस” कह कर भी सम्बोधित किया। अनेक सन्दर्भ लेखों में अर्बुदांचल क्षेत्र की पौराणिक व वैज्ञानिक महत्ता का विवरण भी मिलता है। अपनी प्राकृतिक व ऐतिहासिक समृद्धि के लिए विख्यात यह स्थान सभी प्रकृति प्रेमी व जिज्ञासु जनमानस के लिए आकर्षण का केन्द्र है।
सन् 1940 बॉम्बे से छुट्टियां बिताने आए तत्कालीन अंग्रेज अधिकारी प्रकृतिविद् चार्ल्स मेक्कान ने अपने लेख में अर्बुदांचल का ‘‘मरुभूमि का शाद्वल प्रदेश” के रूप में उल्लेख करते हुए इसकी महत्वता का विवरण इस प्रकार किया “प्रकृतिविद् हेतु यह भूमि अनेक प्रकार के पेङ-पौधों व जीव-जंतुओं से समृद्ध है, पुरातत्ववेत्ताओं के लिए यह क्षेत्र अनेक शोध विषयों का स्रोत है, फोटोग्राफर व कलाकारों के लिए मनोरम स्थल है, बाहर से आने वाले पर्वतारोहियों हेतु अनेक सपाट चट्टानें तथा चट्टानों की कन्दराऐं है।
सिरोही राज्य के गजट (1906) में मेजर के. डी. इरस्कीन ने आबू पर्वत की प्राकृतिक स्वरूप एवं भौगोलिक विशेषताओं का वर्णन करते हुए यहाँ लिखा की “इसकी पश्चिम व उत्तर दिशाएं अत्यन्त ढलाव युक्त है तथा पूर्वी व दक्षिण दिशाओं के बाहरी छोर में गहरी घाटियों युक्त पर्वत-स्कंध को देखा जा सकता है। कोई भी यात्री ऊपर की और चढते हुए इसकी मनमोहक छँटाओ से प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकता, विशेषकर आबू पर्वत की चोटियों का निर्माण करती हुई सायनिटिक पत्थरों के विशालकाय शिलाखण्ड”
टोल्मी के भारतीय मानचित्र (सन् 150) me इस क्षेत्र को ‘‘एपोकोपी माउण्ट”अर्थात् पृथक पहाङी के रूप में दर्शाया। मेगस्थनीज ने भी 300 ई.पू. आबू पर्वत का उल्लेख किया जिसका उद्धरण प्लीनी (सन् 23-79) के प्राकृतिक इतिहास में ‘‘मोन्स केपिटेलिया” अर्थात् मृत्यु दंड का पर्वत के रूप में किया गया।
आबू पर्वत का मनोरम दृश्य
आबू पर्वत की जलवायु
आबू पर्वत पर तुलनात्मक रूप से तलहटी की अपेक्षा ऊँचाई वाले क्षेत्र में मौसम ठण्डा व मनभावन रहता है। यहाँ औसत वार्षिक तापमान 20℃ तथा सबसे शुष्क माह का औसत तापमान 26℃ रहता है। ग्रीष्म ऋतु में तापमान 24℃ से 34℃ के मध्य रहता है, मई माह में औसतन 31℃ तापमान देखा गया हैं जब कि शीत ऋतु में तापमान 18℃ से -2℃ रहता है, जनवरी माह में न्यूनतम तापमान 9℃ रहता है। वर्षाकाल जून के तीसरे सप्ताह से सितम्बर माह के अन्त तक रहता है। सामान्यतः अक्तूबर से मई माह तक मौसम सूखा रहता है। आबू पर्वत पर औसत वर्षा 1,639 मि.मी. होती है। यहाँ सबसे अधिकतम वर्षा सन् 1944 में 4,017 मि.मी तथा सबसे न्यूनतम वर्षा सन् 1939 में मात्र 502 मि.मी. रिकार्ड की गयी। वर्ष 1898, 1900-02 व 1938-39 में इस पर्वतीय क्षेत्र को गम्भीर अकाल का भी सामना करना पड़ा। यहाँ में औसतन 8.6 कि.मी. प्रति घण्टे की गति से हवाएँ चलती है जिसकी अधिकतम गति जून-जुलाई माह में 12.8 कि.मी. प्रति घण्टा हो जाती है। शीत ऋतु में हवाएँ सामान्यतः शांत रहती है।
आबू पर्वत का पठारी क्षेत्र
आबू पर्वत के वन
आबू पर्वत अपनी प्राकृतिक, भौगोलिक स्थलाकृति एवं जलवायु विशिष्टताओं के कारण राजस्थान में वनस्पतिक विविधता से समृद्ध क्षेत्र है। आबू पर्वत के वनों को सन 1936 में एच जी चैम्पियन द्वारा दक्षिण उप-उष्णकटीबन्धीय नम पहाड़ी वन समूह (7 अ ) में बॉम्बे उप-उष्णकटिबंधीय सदाबहार वन (C 3) में वर्गीकृत किया गया। तत्पश्चात अनेक विशेषज्ञों द्वारा इसके वनों का विस्तृत अध्ययन किया गया। आई. यू. सी. एन. के आवासीय वर्गीकरण (संस्करण 3.1) के अनुसार आबू पर्वत पर मुख्यतः आठ प्रकार के आवासों को देखा जा सकता है। इनमें काष्ठ वन, झाड़ वन, नम भूमि/जलीय, पथरीली भूमि, कंदराएं व भूमिगत आवास, कृत्रिम स्थलीय, कृत्रिम जलीय, पुरःस्थापित वनस्पति सम्मिलित है।
आबू क्षेत्र में पाए जाने वाला सिल्वर फ़र्न
यहाँ गहरी घाटियों तथा सघन वनस्पति युक्त ठंडे क्षेत्रों में अर्द्ध सदाबहार वन के खण्ड भी दिखाई देते हैं। शुष्क तथा पूर्णतः वनस्पति रहित व उजड़े क्षेत्रों में कटीले झाड़ वन दिखाई देते हैं। सड़क किनारे छायादार क्षेत्र, नम घास के मैदान, खेत व पोखरों के आस-पास झाड़ियों की अधिकता है। आबू पर्वत क्षेत्र में लगभग एक हजार वनस्पति प्रजातियां पाई जाती हैं जिनकी 40 प्रतिशत समानता पश्चिमी हिमालयी और 30 प्रतिशत समानता पश्चिमी घाट की वनस्पति प्रजातियों से मिलती है। कुछ मुख्य वनस्पति प्रजातियां जो ध्यानाकर्षण करती है – आर्किड, बकाइन, बिच्छु बूटी, सफेद और गुलाबी गुलाब, करौंदा, चम्पा, चमेली की प्रजातियाँ और सात वर्ष में खिलने वाले नीले फूलों से युक्त कारा बहुतायत में पाये जाते हैं। आम, जामुन, कचनार, ऑक, विलोज और यूकेलिप्ट यहाँ स्थापित प्रजातियों में शामिल है।
यूफोर्बिआ (Euphorbia) की झाड़ियां
आबू पर्वत की जन्तु विविधता
आबू पर्वत के सन्दर्भ में कई लेख संकेत करते हैं कि यहाँ कभी शेर (सन् 1872) और बाघ (1970 के दशक) की उपस्थिति हुआ करती थी। वर्तमान में आबू क्षेत्र में 35 स्तनधारी से अधिक प्रजातियां मिलती है जिनमें तेंदुआ, भालू खाद्य श्रृंखला की उच्चतम प्रजातियां है। सम्पूर्ण आबू पर्वत क्षेत्र में लगभग 290 पक्षी प्रजातियां है जिनमें हरी मुनिया, सिलेटी मुर्गा, लाल चौखरी, भारतीय हंसियाचोंच-चरखी, सिपाही बुलबुल, ललछौंह-पेट चरखी आदि आकर्षण की केन्द्र हैं। आबू क्षेत्र में लगभग 40 हर्पेटोफोना की प्रजातियां तथा 50 से अधिक तितली प्रजातियों की उपस्थिति देखी गई है।
ग्रीन मुनिया (Green Avadavat)
आबू पर्वत क्षेत्र की जैवविविधता के संरक्षण में स्थानीय भागीदारी
पर्यटन मानचित्र पर आबू पर्वत की पहचान इसके ऐतिहासिक तथा धार्मिक धरोहर की महत्ता के कारण है। मुख्यतः आबू के पठारी भाग तक सिमित पर्यटन अनेक मायनों में उचित भी है क्योंकी हरे-भरे वन में मानवीय हस्तक्षेप न्यूनतम है। प्राकृतिक पर्यटन की असीमित क्षमताओं से युक्त इस वन्यजीव अभयारण्य का स्थानीय रोज़गार की सम्भावना व अर्थव्यवस्था में अनुपातिक योगदान यहां की जनता के सहयोग से बढ़ाई जा सकती है। इस हेतु स्थानीय जनता का प्रकृति से जुड़ाव एवं संवर्धन के ज्ञान अत्यावश्यक है। वर्तमान में अनेक जागृत जन समूह वन विभाग के सहयोग में तत्पर रहते हैं, परन्तु संरक्षण के अल्पज्ञान के कारण वे अपना पूर्ण योगदान नहीं दे पाते है। कुछ व्यक्ति स्थानीय वानस्पतिक धरोहर का ज्ञान रखतें हैं परन्तु वन विभाग के अतिरिक्त उनके ज्ञान का लाभ सामान्य जन को नहीं मिल पाता है। अन्तर्राष्ट्रीय मत्वपूर्ण पक्षी प्रजाति हरी मुनिया के संरक्षण तथा इसके आवासों की सुरक्षा स्थानीय लोगों के कारण से ही संभव हो पायी। लेखकों द्वारा चयनित स्थलों के वैज्ञानिक अधययन के अनुसार सन 2004 में संख्या चार सौ से भी कम थी जो सन 2020 में दो हज़ार से अधिक हो गयी है। इस पक्षी की महत्वता व स्थानीय जनता में इसके प्रति बढती लोकप्रियता के कारण ज़िला प्रशासन ने इसे सन 2019 के लोकसभा चुनाव में ज़िले का शुभंकर भी बनाया था। अब समय है कि प्रशासन व वन विभाग एक सुनियोजित प्रकार से प्राकृतिक पर्यटन की दिशा में कार्य कर क्षेत्र की सतत विकास की कल्पना को मूर्तरूप दे। इस विकास को पूर्णतः नियंत्रित रूप से विकसित किया जाये जिससे की भारत के प्रकृति पुरुष के सिद्धांत को चरितार्थ कर स्थानीय स्तर पर संयुक्त राष्ट्र के सतत विकास लक्ष्यों में अपना योगदान दिया जा सके।
लेखक:
Dr. Sarita Mehra & Dr. Satya Prakash Mehra (1 & 3) (L to R): Drs. Mehra Couple is the Conservation Biologist involved in the conservation programs in Rajasthan. Both Drs. Mehra restarted their activities at Abu in 2002 which continued with their extensive explorations from 2003-2007 to produce a document on behalf of WWF-India.
Mr. Balaji Kari (2): He is IFS and the present DCF of Mount Abu WLS. He has undertaken several conservation and management measures to overcome the challenges of the Mt Abu WLS. He is actively engaged in the conservation planning of the flagship species along with revising the biodiversity documentation of the Abu Hills.
Mrs. Preeti Sharma (4): Academician by profession, she is involved in the writing of the popular articles on the aspects of eco-cultural aspects and the conservation issues for the common mass. She is compiling the references from the epics and mythological documents which directly deal with the conservation of biodiversity and environmental protection in Indian, in general, and Rajasthan, in specific. Presently, she is Assoc. Professor (Sanskrit) at Shree Vardhman Girls College, Beawar.