वन रक्षक 3: रेस्क्यू क्वीन: अंजू चौहान
अंजू, एक वन रक्षक की बेटी जिसे पूरा सिरोही जिला रेस्क्यू क्वीन के नाम से जानता है और जिसने अपनी सकारात्मक सोच और परिश्रम से जिले के कई थैलेसीमिया से पीड़ित बच्चों की जान बचाई…
सिरोही जिले में वन विभाग में वनरक्षक के पद पर कार्यरत अंजू चौहान आज वन,वनस्पति व वन्यजीवों के लिए सजगतापूर्वक कार्य कर रही हैं। एक महिला होकर वन्य क्षेत्र में वन्यजीवों के संरक्षण और मुश्किलों में फसे जीवों का रेस्क्यू करने के कारण आज वह केवल नारी समाज ही नही बल्कि वह पुरुषों के लिए भी प्रेरणा का केंद्र बनी हुई हैं। आमजन को वन, वनस्पति एवं वन्यजीवों के महत्व के बारे में समझाना, विद्यालयों में जाकर बालक बालिकाओं में जागरूकता लाना आदि इनकी कार्यशैली का प्रमुख रूप से हिस्सा रही है। ये अपने अनुभव को साथियों में बांटना व उनसे अनुभव को प्राप्त करने को बेहतर समझती हैं क्योंकि अपने कार्य क्षेत्र में विचारों की सहमति व अनुभव एक मजबूत जड़ के रूप में विराजमान हैं।
अंजू चौहान का जन्म 19 मई 1985 को सिरोही जिले के पिंडवाड़ा कस्बे के एक किसान परिवार में हुआ था। इनके पिता श्री अचलाराम मेघवाल वर्तमान में सहायक वनपाल नाका इंचार्ज मोरस के पद पर कार्यरत हैं। ये चार भाई बहनों में सबसे बड़ी थी। इनकी प्रारंभिक व उच्च माध्यमिक शिक्षा पिंडवाड़ा से हुई और इन्होंने स्नातक तक की पढ़ाई राजकीय महाविद्यालय सिरोही से की। स्नातक के दौरान वर्ष 2004 में ही इनकी श्री भूराराम परिहार जो वर्तमान में राजस्थान पुलिस में सिपाही के पद पर कार्यरत हैं के साथ शादी हो गयी। परन्तु अंजू ने अपनी पढ़ाई जारी रखी तथा पिंडवाड़ा क्षेत्र में महाविद्यालय में प्रथम आने वाली ये मेघवाल समाज की एकमात्र व प्रथम लड़की थी। बाद में इनको महाविद्यालय द्वारा सम्मानित भी किया गया और स्नातकोत्तर की पढ़ाई के बाद इन्होंने बीएड किया और शिक्षक बनने के लिए प्रतियोगी परीक्षा के लिए तैयारी शुरू की। अंजू हमेशा से ही अपने पिताजी को देख कर प्रेरित होती थी और उनको भी खाखी वर्दी वाली नौकरी ही करनी थी परन्तु अपनी शादी के बाद अंजू पारिवारिक परिस्थितियों में व्यस्त हो गयी। कुछ वर्षों बाद अंजू के मन में फिर से आगे पढ़ने व नौकरी करने की चाह जाएगी और इसमें उनके पति ने उनका बहुत साथ दिया तथा अंजू को समझाया भी की अपने बचपन के सपने “वर्दी वाली नौकरी” को सच करों। अंजू ने 2016 में वनरक्षक भर्ती परीक्षा पास की और 2 मई 2016 को वन विभाग नर्सरी सिरोही में इनको नियुक्ति मिल गई। वन विभाग में वनरक्षक के पद पर नियुक्ति मिलने के बाद वन व वन्यजीवों के प्रति कार्य करने के लिए इनके हौसले व जुनून बढ़ते चले गए और वर्तमान में अंजू चौधरी नाका व रेंज पिंडवाड़ा (सिरोही) में कार्यरत हैं।
आज अंजू दो बच्चों की माँ है जिनकी उम्र 15 व 14 साल हैं और अपने परिवार की देखरेख के साथ-साथ अंजू अपने कार्य क्षेत्र में भी कुशलतापूर्वक कार्य कर रही हैं।
शुरुआत में जब अंजू की सिरोही नर्सरी में ड्यूटी लगी वहाँ सांपो की अधिकता थी, इधर-उधर कार्य के लिए आते-जाते सांप देखने को मिल जाते थे और कभी कभार पौधों में सांप आ जाता था तो सब डरते थे। उसको पकड़ने के लिए बाहर से किसी व्यक्ति को बुलाना पड़ता था। रोज़ -रोज़ ऐसी गतिविधि देख कर धीरे-धीरे अंजू ने खुद से ही साहस जुटाना शुरू किया और सांपो का रेस्क्यू करना शुरू किया। इससे पहले इन्होने रेस्क्यू देखे थे लेकिन मन में हिम्मत नहीं हो पाती थी लेकिन आज अंजू इस कार्य को सफलतापूर्वक करती हैं।
अभी कुछ दिनों पहले ही एक सुखि हौद में एक कोबरा घुस गया था और लोगों ने उसे देखा तो वह पिछले 10 दिन से परेशान था बाहर आने के लिए रास्ता ढूंढ रहा था, जैसे ही अंजू को सूचना मिली वह वहाँ पहुँची और नीचे उतरकर उसका रेस्क्यू किया और उसे जंगल में छोड़ दिया।
पहले तो अंजू सिर्फ रेस्क्यू ही किया करती थी परन्तु साँपों की सही पहचान बहुत ही जरुरी है। एक बार अंजू ने रसल वाइपर जो की अत्यंत जेह्रीला सांप होता है को अजगर का बच्चा समझ लिया था और उसको पकड़ने की कोशिश की, परन्तु उसकी पूँछ पर हाथ लगाते ही अंजू को वह अलग लगा और उन्होंने उसे पुरे ध्यान से रेस्क्यू किया। रेस्क्यू के बाद अंजू ने साँपों के बारे में जान ने वाले एक व्यक्ति से सलाह ली और जाना की वह सांप रसल वाइपर था और जो की बहुत ही जेह्रीला होता है एवं इसके काटने से जल्दी मौत हो जाती है। इस घटना के बाद से ही अंजू को लगा की उनको साँपों की पहचान के बारे में भी सीखना चाहिए तथा धीरे-धीरे अंजू ने जानकारी जुटाना शुरू किया व साँपों की पहचान भी करने लगी।
पिछले पांच वर्षों में अंजू लगभग 2000 साँपों को रेस्क्यू कर चुकी हैं इसके अलावा गोह, नीलगाय व मगरमछ जैसे अन्य जीवों का रेस्क्यू भी करती हैं। हर रोज इन्हें सिरोही जिले के कई गाँवों में रेस्क्यू के लिए बुलाया जाता है जिसके कारण इन्हें आमजन भी भलीभाति जानते हैं तथा सिरोही में इन्हें “रेस्क्यू क्वीन (Rescue Queen)” के नाम से जाना जाता है।
रेस्क्यू करना कोई आसान कार्य नहीं है क्योंकि हर बार सांप की प्रजाति, उसका व्यवहार और परिस्थितियां अलग-अलग होती हैं और हर रेस्क्यू अपने आप में एक नई चुनौती होता है। एक बार अंजू को एक बार रात के समय अंजू को सूचना मिली की एक कमरे में कोबरा अंदर घुस गया और उस कमरे अंदर तीन बच्चे थे। अंजू वहां पर पहुची तो परिवार वाले घबरा रहे थे तथा बच्चों को बाहर नही निकाल पा रहे थे क्योंकि वो खुद भी डरे हुए थे। अंजू, हिम्मत के साथ एक टॉर्च लेकर कमरे में गई और कमरे की लाइट को जलाया, लाइट जलते ही कोबरा रसोई में घुस गया। अंजू ने सबसे पहले बच्चो को निकाला फिर रसोई में जाकर सांप को रेस्क्यू किया और उसको एक बैग में डालकर ऊपर से रस्सी से बांधकर जंगल मे ले जा कर छोड़ दिया। अंजू बताती हैं की “यह एक ऐसा रेस्क्यू था जब मुझे खुद भी लगा की तीन बच्चों की जान की जिम्मेदारी मेरे ऊपर है परन्तु मैं जितने शांत दिमाग से कार्य करुँगी वही सही होगा”।
सांप रेस्क्यू के बारे में अंजू को उच्च अधिकारियों द्वारा ट्रेनिग भी दी गई है। ट्रेनिंग के बाद इनको लगा कि क्यों न एक टीम गठित हो जिसमें और लड़कियों को भी साँपों का रेस्क्यू सिखाया जाए, तो अंजू ने अपने साथियों को भी इसके बारे में अवगत कराया। जिसके बाद अंजू के पास चार महिलाओं के कॉल आए तथा अंजू ने अपना अनुभव उनके साथ साझा किया व उनको प्रेरित किया। आज वो महिलायें पूर्ण सुरक्षा के साथ सफलतापूर्वक स्नेक रेस्क्यू कर लेती हैं और यह अंजू के जीवन की सबसे बड़ी उपलब्धियों में से एक हैं कि आज यह पांच महिलायें पूरे राजस्थान में स्नेक रेस्क्यू वुमन के नाम से जानी जाती हैं।
साँपों के साथ-साथ अंजू कई अन्य प्रकार के वन्यजीवों का रेस्क्यू भी कर चुकी हैं। एक बार एक नीलगाय का बच्चा साधारण गायों के साथ चर रहा था और शाम को उन्ही गायों के साथ गाँव में चला गया और वह जाकर रास्ता भूल गया। गाँव के लोगो ने उसे हिरन समझ कर उसको पकड़ने कि कोशिश कि और उसके पीछे भागने लग गए। परिस्थिति ऐसी थी कि भरी सड़क पर नीलगाय का बच्चा भाग रहा है और उसके पीछे ग्रामीण लोग। तभी कुछ लोगों ने अंजू को फ़ोन कर के रेस्क्यू के लिए बुलाया। जब अंजू मौके पर पहुंची तब तक वह बच्चा एक घर में घुस गया था। उस घर के सभी लोग घर के बाहर खड़े हुए थे और नीलगाय का बच्चा एक कमरे में दौड़-दौड़ कर तोड़-फोड़ मचा रहा था। अंजू ने घर के अंदर जाकर हालात का जायजा लिया और अपनी टीम के साथ नीलगाय के बच्चे को रेस्क्यू किया। ऐसे ही एक बार रिलीज करने जाते समय एक मगरमच्छ का मुँह खुल गया था, और उसे कोई भी बाँध नहीं पा रहा था, उस परस्थिति में रात को दो बजे अंजू को बुलाया गया और फिर उन्होंने जाकर मगरमछ का मुँह बाँधा और उसको सुरक्षित स्थान पर छोड़ दिया। एक बार अंजू ने तालाब के पास के पेलिकन को लड़खड़ाते हुए देखा, पास में जाकर पता किया तो किसी कुत्ते ने उसके पैर को जख्मी कर दिया था और वह पक्षी चल नही पा रहा था। ऐसे में अंजू ने उसको रेस्क्यू किया। ऐसे ही एक बार आइबिस पक्षी के पैर में कोई धागा फंस गया था तो उसको भी रेस्क्यू कर के सुरक्षित स्थान पर छोड़ा।
अंजू बताती हैं कि “मैंने फील्ड कार्य को आसान करने के लिए वाहन चलाना सीखा हैं और अब रेस्क्यू किट गाड़ी में रखती हूं जैसे ही सूचना मिलती हैं, मैं पूर्ण उपकरण के साथ वहां पहुँच जाती हूं और घायल वन्यजीव को उनके अनुकूल आवास में छोड़ देती हूं, उसके साथ उनकी देखभाल व ज्यादा घायल होने पर सम्बन्धित स्टाफ से सलाह व मदद भी लेती हूं”।
जीवन में मुश्किलें तो हैं परन्तु अंजू हिम्मत के साथ हर परिस्थिति का सामना करती हैं। अंजू के बड़े बेटे को थैलीसीमिया नामक बीमारी हैं। थैलेसीमिया, एक तरह का रक्त विकार है इसमें बच्चे के शरीर में लाल रक्त कोशिकाओं का उत्पादन सही तरीके से नहीं हो पाता है और इन कोशिकाओं की आयु भी बहुत कम हो जाती है। इस कारण इन बच्चों को हर 21 दिन बाद कम से कम एक यूनिट खून की जरूरत होती है। जब अंजू का बेटा चार वर्ष का था धीरे-धीरे उसकी तबियत ख़राब रहने लगी तथा उसका विकास भी अन्य बच्चों जैसे नहीं हो पा रहा था और सभी प्रकार की जांच करवाने के बाद अंजू को मालूम हुआ की उनका बेटा इस बीमारी से ग्रस्त है। उस समय सिरोही में इस बीमारी की न तो जानकारी थी न इलाज था और न ही इसको जानने के लिए जागरूकता थी, ऐसे में अंजू ने सोचा की “मेरे बच्चे के अलावा इस बीमारी से पीड़ित कई और भी बच्चे होंगे जो इलाज के लिए बाहर जाते होंगे”। फिर इन्होने ऐसे बच्चे ढूंढने शुरू किए और सिरोही जिले में करीब 7-8 ऐसे बच्चे मिले जो इस बीमारी से पीड़ित थे। तब फिर अंजू ने सोचा कि क्यूँ न वो जिले में ही कुछ ऐसी व्यवस्था शुरू करें जिससे इन बच्चों को इलाज के लिए बाहर न भटकना पड़े। अंजू ने प्रयास भी किया और इस बीमारी को लेकर वो कई बार उस वक्त के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत से भी मिली और इन सभी बच्चों को उन्होंने बीपीएल में सम्मिलित करवाया ताकि उनकों मुफ्त में इलाज मिल सके परन्तु सिरोही जिले में अभी तक इसका इलाज नहीं है। इस परिस्थिति में आबूरोड में संकल्प इंडिया फाउंडेशन द्वारा अंजू ने एक सेंटर स्थापित करवाया है जिसमें ये अपनी मासिक तनख्वाह का कुछ भाग अनुदान करती हैं। प्रत्येक 2 माह में आसपास रक्त दान शिविर लगवाकर ये थैलीसीमिया से पीड़ित बच्चों के लिए रक्त की व्यवस्था करवाते हैं। वर्तमान में सिरोही में ऐसे 35 बच्चे हैं जो इस बीमारी से पीड़ित है तथा इन सभी बच्चों को 50 यूनिट ब्लड की जरूरत होती हैं। और सबसे ख़ुशी कि बात यह है कि अंजू और उनकी टीम के द्वारा इतना रक्त एकत्रित किया जाता है कि आजतक किसी भी बच्चे को यहां से निराश होकर नही लौटना पड़ा हैं। रक्त दान शिविर में आसपास के लोग बढ़ चढ़ कर हिस्सा लेते हैं और अंजू खुद भी रक्तदान करती हैं तथा यहाँ के लोग उन्हें प्यार से “ब्लड क्वीन व मदर टेरेसा” के नाम से पुकारते हैं। इन सब के बाद अंजू ने अपना “देहदान” भी किया हुआ है यानि उनके गुजरने के बाद उनके शरीर के जो भी अंग किसी जरूरतमंद के काम आये उनको दान कर रखा हैं।
अंजू बताती हैं कि “सामान्य रूप से हमारी दिनचर्या सुबह से शाम तक घने जंगलों में घूमना,पेड़ पौधों की अवैध कटाई की निगरानी करना,जीव जंतुओं की देखभाल व समय-समय पर गश्त करना आदि मुख्य रूप से हैं”। एक बार गश्त के दौरान अंजू को ट्रैक्टर-ट्रॉली के टायर के निशान जंगल की ओर जाते मिले, तो वह वहीँ रुकी और ट्रैक्टर -ट्रॉली के वापस आने का इंतजार करने लगी और जैसे ही पत्थरों से भरा ट्रैक्टर वापस आ रहा था, अंजू ने साहस दिखाते हुए उसको रुकवाकर ट्रैक्टर में से चाबी निकाल ली व फोटोग्राफ ले लिया ट्रैक्टर ट्रॉली के साथ दो पुरुष थे। अंजू ने तुरन्त नजदीकी नाका इंचार्ज को पूरी व्यवस्था के साथ बुलाया व उन ट्रैक्टर वालों पर कानूनी कार्यवाही करवाई करी। उसके बाद उनके हितैषी नेता व जनप्रतिनिधियों के कॉल भी आते हैं लेकिन अंजू व उनकी टीम का मकसद यही हैं कि जो गलत है वो चाहे कितना ही राजनीतिक या प्रशासनिक दबाब बनाये ये डरते नहीं हैं। और जब ईमानदारी से किसी कार्य मे शामिल हैं सिफारिश कर्ता कोई भी हो वो कोई मायने नही रखता, ऐसा अंजू खुद मानती हैं। कभी कभार गांवों की महिलाएं भी जंगल में ईंधन के लिए लकड़ी लेने आ जाती हैं। आजकल ये बहुत कम हैं क्योंकि प्रधानमंत्री उज्ज्वला योजना के तहत गैस कनेक्शन मिलने के बाद से अवैध कटाई बहुत कम होती हैं। परन्तु अगर कोई आ भी जाती है तो ये उनको वनों के महत्व के बारे में समझाते हैं तथा इनकों न काटने कि सलाह देते हैं।
सिरोही में कुछ संस्थाए कार्य करती हैं जैसे पीपुल्स फ़ॉर एनिमल्स (Peoples For Animals) और जैन समाज का भी एक केंद्र है जो जागरूकता के छोटे-छोटे कार्यक्रम करते रहते हैं और अंजू इन कार्यक्रमों में जाकर न सिर्फ हिस्सा लेती हैं बल्कि सहयोग भी करती हैं। अंजू बताती है कि, पिंडवाड़ा व उसके आसपास के क्षेत्र में 90% भूभाग पर आदिवासी जनजाति “गरासिया समूह” के लोग जंगलों के अंदर ही निवास करते हैं यह लोग धरती को माता की तरह पूजते हैं, ये प्रकर्ति की सुरक्षा करते हैं। इस आदिवासी समूह में एनजीओ के माध्यम से समय-समय मूलभूत सामग्रियों जैसे गर्म कपडे व पाठन सामग्री का वितरण किया जाता हैं। और अंजू खुद भी यही कोशिश करती हैं कि अधिक से अधिक आदिवासी समुदाय के लोगों को फायदा मिले क्योंकि सुरक्षा में सर्वाधिक सहयोग हमें स्थानीय लोगों से ही है जैसे जंगल मे आग की घटना हो जाती हैं तो अकेला आदमी आग नही बुझा सकता तो और भी ऐसी गतिविधि हैं जिनमें ये स्थानीय लोग वन कर्मियों का सहयोग करते हैं।
अंजू समझती हैं कि सार्वजनिक सहकारिता और वन संरक्षण के लिए जागरूकता बहुत आवश्यक है। वन संरक्षण के लिए हम जरूरी कदम उठा सकते हैं जैसे कि बरसात के मौसम में सामुदायिक वानिकी के माध्यम से पौधों को बढ़ावा देना, जंगलों के रोपण और जंगलों के संरक्षण के लिए प्रचार और जागरूकता कार्यक्रम द्वारा वन क्षेत्र में वृद्धि करना। सरकार को गांवों में वन सुरक्षा समितियाँ बनाने, जागरूकता फैलाने और वनों की कटाई को रोकने के लिए काम करना चाहिए। प्रदूषण से लोगों को बचाने के लिए लोगों को जंगलों के संरक्षण के साथ अधिक से अधिक पेड़ लगाने की जरूरत है। अगर इसे ध्यान में नहीं रखा गया तो हम सभी के लिए शुद्ध हवा और पानी प्राप्त करना मुश्किल होगा।
अलग-अलग नेशनल पार्क और वाइल्ड लाइफ सैंक्चुरीज अलग-अलग प्रजाति का संरक्षण कर रही हैं। इंसान को समझना होगा कि मानव जीवन तभी तक बच सकता है जब तक जल, जंगल और जानवर बचेंगे। प्रकृति से छेड़-छाड़ मानव को विनाश की ओर ले जा रहा है। इसलिये प्रकृति से छेड़-छाड़ करना बंद करना होगा और पर्यावरण प्रेमी बनकर उसका संरक्षण करना होगा। इंसान जानवर को महज जानवर न समझे, बल्कि अपना वजूद बनाए रखने का सहारा समझे।
आज अंजू एवं वन्यजींवों के संरक्षण के कार्य के साथ-साथ थैलेसीमिया से ग्रस्त बच्चों के लिए भी कार्य कर रही हैं साथ ही अपने परिवार का भी भलीभांति ख्याल रख रही हैं। हम उनके इस कार्य की सराहना करते हैं और उनको भविष्य में और अच्छा कार्य करने के लिए शुभकामनाएं देते हैं।
प्रस्तावित कर्ता: Dr. GV Reddy, सेवनिर्वित हेड ऑफ़ फारेस्ट फोर्सेज (HOFF)
Shivprakash Gurjar (L) is a Post Graduate in Sociology, he has an interest in wildlife conservation and use to write about various conservation issues.
Meenu Dhakad (R) has worked with Tiger Watch as a conservation biologist after completing her Master’s degree in the conservation of biodiversity. She is passionately involved with conservation education, research, and community in the Ranthambhore to conserve wildlife. She has been part of various research projects of Rajasthan Forest Department.