रणथम्भौर से गायब हुए बाघों का रहस्य

रणथम्भौर से गायब हुए बाघों का रहस्य

राजस्थान के मुख्य वन्यजीव संरक्षक ने रणथम्भौर से 25 बाघों के लापता होने की जांच के लिए एक जांच समिति का गठन किया है। प्रारंभिक निष्कर्षों के अनुसार, ये बाघ दो चरणों में गायब हुए: 2024 से पहले 11 बाघों का पता नहीं चला था, और पिछले 12 महीनों में 14 बाघ गायब हो गए। जांच शुरू होने के बाद, अधिकारियों ने रिपोर्ट किया कि इनमें से 10 बाघों को खोज लिया गया है जबकि 15 अभी भी लापता हैं।

तो, बाकी 15 बाघों का क्या हुआ?

टाइगर वॉच के विस्तृत डेटाबेस पर आधारित यह लेख इन लापता बाघों के प्रोफाइल और अंतिम ज्ञात रिकॉर्ड का विश्लेषण करता है, ताकि उनके गायब होने के संभावित कारणों को उजागर किया जा सके।

बाघों की जानकारी और गायब होने के संभावित कारण

बाघ IDलिंगअंतिम रिपोर्टेडजन्म वर्षउम्र (गायब होने के समय)गायब होने का संभावित कारण
T3नर03-08-2022200418-19 वर्षवृद्धावस्था के कारण मरा हो सकता है
T13मादा17-05-2023200519-20 वर्षवृद्धावस्था के कारण मरा हो सकता है
T38नर04-12-2022200814-15 वर्षवृद्धावस्था के कारण मरा हो सकता है
T41मादा15-06-2024200717-18 वर्षवृद्धावस्था के कारण मरा हो सकता है
T48मादा12-09-2022200715-16 वर्षवृद्धावस्था के कारण मरा हो सकता है
T54मादाअक्टूबर-22201113-14 वर्षउम्र के कारण प्रमुख बाघ द्वारा बाहर किया गया
T63मादाजुलाई-23201113-14 वर्षउम्र और प्रतिस्पर्धा के कारण मरा हो सकता है
T74नर14-06-2023201212-13 वर्षप्रमुख बाघ T121 और T112 द्वारा बाहर किया गया
T79मादा16-06-2023201311-12 वर्षसंदिग्ध मृत्यु; पार्क के बाहर रहती थी
T99मादा26-07-202420169 वर्षगर्भावस्था में जटिलताएं, फरवरी 2024 में गर्भपात
T128नर05-07-202320204 वर्षक्षेत्रीय संघर्ष / मानव संघर्ष के कारण मरा हो सकता है
T131नर30-11-202220194 वर्षक्षेत्रीय संघर्ष / मानव संघर्ष के कारण मरा हो सकता है
T138मादा20-06-202220203 वर्षक्षेत्रीय संघर्ष / मानव संघर्ष के कारण मरा हो सकता है
T139नर17-07-202420214 वर्षक्षेत्रीय संघर्ष / मानव संघर्ष के कारण मरा हो सकता है
T2401नर04-05-202420223 वर्षक्षेत्रीय संघर्ष / मानव संघर्ष के कारण मरा हो सकता है

निरीक्षण और तार्किक अनुमान

यह 15 बाघ अब तक गायब हैं, और उनके गायब होने के संभावित कारण निम्नलिखित हो सकते हैं:

  • वृद्ध बाघ: इन बाघों में से पांच—T3, T13, T38, T41, और T48—15 साल से ऊपर के हैं, जिनकी उम्र 19-20 साल तक पहुंच चुकी है।
  • दूसरे दो, T54 और T63, 13-14 साल के हैं और संभवतः अपने प्राकृतिक रूप से जीवन के अंतिम दौर के करीब हैं।
  • मादा बाघ T99 को फरवरी 2024 में गर्भावस्था में जटिलताएं आई थीं, जिससे उनका गर्भपात हो गया था। उन्हें व्यापक चिकित्सा देखभाल दी गई थी और वे जीवित रही थीं। हाल ही में रिपोर्ट आई थी कि वे फिर से गर्भवती हो सकती हैं, हालांकि यह पुष्टि नहीं हो पाई है। संभव है कि इसी प्रकार की जटिलताएं फिर से उत्पन्न हुई हों, जिसके कारण उनका वर्तमान स्थिति समझी जा सकती है।

फोटो: बाघिन T99 के गर्भपात के दौरान लिया गया चित्र

  • बाघ T74, जो 12 साल से अधिक उम्र की है, को डोमिनेंट बाघ T121 और T112 द्वारा उनके क्षेत्र से बाहर किया जा सकता है।
  • बाघिन T79 अजीब परिस्थितियों में गायब हो गई, जिसके बाद वन विभाग ने उसकी खोज शुरू की और उसकी दो शावकों को पाया। वह रणथम्भौर के बाहर कंडुली  नदी क्षेत्र में रहती थी, और ऐसी चुनौतीपूर्ण परिस्थितियों में उसका अब तक जीवित रहना आश्चर्यजनक था।
  • सबसे महत्वपूर्ण नुकसान पांच युवा नर बाघों का है, जो रणथम्भौर के प्रमुख बाघों के मध्य प्रतिस्पर्धा का शिकार हो गए। वन्य जीवन में, नर बाघों को क्षेत्रीय संघर्षों का सामना करना पड़ता है, जो अक्सर घातक मुठभेड़ों की ओर ले जाता है, जिनमें केवल सबसे मजबूत जीवित रहते हैं। वन विभाग के विस्तृत विश्लेषण के अनुसार, युवा नर  बाघों जैसे T128, T131, T139, और T2401 को अक्सर अप्रयुक्त क्षेत्रों की तलाश करते हुए देखा गया था।प्रमुख बाघों के साथ क्षेत्रीय संघर्ष उनकी गायब होने का एक संभावित कारण हो सकता है।
  • बाघिन (T138) का गायब होना चिंता का विषय है, तथा 15 लापता बाघों में से इस अल्प-वयस्क बाघिन की अनुपस्थिति विशेष रूप से चिंताजनक है।
  • प्राकृतिक प्रतिस्पर्धा के अतिरिक्त, मानव से संबंधित संघर्ष को भी ध्यान में रखना चाहिए। ये युवा बाघ स्थानीय समुदायों के साथ संघर्षों का शिकार भी हो सकते हैं, जैसे कि जहर देना या अन्य मानव जनित खतरों का सामना करना। क्षेत्र में पहले के घटनाएं, जैसे कि T114 और उसकी शावक, और T57 की जहर से मौत, मानव-बाघ संघर्ष के जोखिम को स्पष्ट रूप से दर्शाती हैं।

सारांश

रणथम्भोर से बाघों के गायब होने के कारणों में बढ़ती आयु, स्वास्थ्य समस्याएं, क्षेत्रीय संघर्ष और अन्य मानवजनित कारण शामिल हो सकते  हैं। उम्रदराज बाघ, जैसे T3, T13, T38, T41, और T48, अपनी उम्र के कारण स्वाभाविक रूप से मरे हो सकते हैं। बाघ सामान्यतः 15 साल तक जीवित रहते हैं, और उसके बाद उनका जीवित रहना मुश्किल हो जाता है। 15 साल की उम्र के बाद, उन्हें स्वास्थ्य और क्षेत्रीय संघर्षों का सामना करना पड़ता है, जिससे उनके जीवित रहने की संभावना घट जाती है।

T54, T63, T74, और T79 जैसे बाघ, जो अपनी उम्र के कारण कमजोर हो चुके थे, शायद युवा और प्रमुख बाघों से अपने क्षेत्रों की रक्षा करने में असमर्थ भी। इस कारण उनके जीवन का संकट में पड़ना स्वाभाविक है, खासकर जब वे पार्क के बाहरी इलाकों में रह रहे होते हैं, जैसे कि T54 जो तालरा रेंज के बाहरी इलाके में रहता था।

जब परिपक्व बाघिन T63, जिसने पहले तीन बार शावकों को जन्म दिया था और खंडार घाटी में पार्क के केंद्र में रहती थी, को औदी खो क्षेत्र में वन अधिकारी द्वारा लगभग मृत घोषित कर दिया गया था, तो अधिकारियों ने उसे शिकार भी उपलब्ध कराया था, यहाँ तक कि एक समय कहा गया कि वह जीवित नहीं बचेगी। अउ समय यह बाघिन अत्यंत दुर्बल अवस्था में मिली थी।

सबसे महत्वपूर्ण नुकसान युवा चार नर एवं एक मादा बाघ (T128, T131, T139, T2401 और T138) का है, जिनका सामना डोमिनेंट बाघों से क्षेत्रीय संघर्षों में हुआ। ये युवा बाघ अक्सर नए क्षेत्रों की तलाश में रहते है, और ऐसे संघर्षों के कारण उनकी मौत हो सकती है।

हालांकि, मानव जनित कारणों पर भी विचार करना जरूरी है। इन युवा बाघों ने स्थानीय समुदायों से भी खतरों का सामना किया हो सकता है, जैसे कि जहर देना या अन्य मानव जनित खतरों से मुठभेड़।

अंततः, बाघिन T99, जो गर्भावस्था की जटिलताओं से जूझ रही थी, शायद इन समस्याओं के कारण गायब हो गईं।

यह समीक्षा यह रेखांकित करती है कि रणथम्भौर में बाघों की स्थिति को लेकर लगातार निगरानी और सक्रिय उपायों की आवश्यकता है, ताकि हम इन खतरों को समझ सकें और अधिक प्रभावी रणनीतियाँ तैयार कर सकें, जिससे इस सुंदर प्रजाति का दीर्घकालिक संरक्षण सुनिश्चित हो सके।

नाथू बावरिया की चार पीढ़ियों के संघर्ष 

नाथू बावरिया की चार पीढ़ियों के संघर्ष 

कर्नल केसरी सिंह ने अपनी एक पुस्तक में रणथम्भोर के एक स्थानीय व्यक्ति नाथू बावरिया का जिक्र किया है, जो उन्हें बाघ खोजने और भिन्न प्रकार के वन्य प्राणियों और पक्षियों  के मांस से होने वाले अलग अलग फायदों के बारे में बताता था। यह किसी बावरिया के बाघ और रणथम्भोर से जुड़ाव का पहला वाकया है, जो कहीं लिखा गया है।  उसके बारे में लिखते हुए केसरी सिंह ने नाथू की बावरिया जाती के रणथम्भोर से जुड़े लम्बे इतिहास और वन्य जीव के बारे में उनकी गहरी समझ का भी बखान किया है।

शायद केसरी सिंह की मदद से ही नाथू बावरिया का एक पुत्र मुकन उस समय वन विभाग में वनरक्षक का कार्य करने लगा था। शायद रणथम्भोर क्षेत्र का अब तक का अकेला बावरिया था, जो सरकार से सीधा जुड़ कर मुख्यधारा में आगया था। हालाँकि वह हिस्सा टोंक जिले में जहाँ मुकन पदस्थापित था। खैर किसी बंधन में काम नहीं करने की आदत और एक स्थानीय व्यक्ति के झांसे में आकर मुकन ने यह नौकरी से हट गया था । असल में मुकन को कुछ रुपये देकर एक स्थानीय ऊँची जाती के व्यक्ति  कजोड़ सिंह ने सरकारी कागजो में हेर फेर  करवा कर उस से नौकरी हड़प  ली थी।  हालाँकि इस नौकरी के दौरान मुकन अपने नाम के आगे पिता की जाती बावरिया की जगह मोग्या लगाने लगा था, जिसके पीछे एक कारण था।

सामुदायिक विवाह समारोह में मस्ती करते हुए मुकन मोगिया (फोटो: डॉ धर्मेंद्र खांडल)

वैसे तो मोग्या और बावरिया एक ही समाज है, परन्तु इन दोनो नामों के इस्तेमाल के पीछे कई राज और दर्द की दास्ताने है, जो बस इन्ही समाज के लोगो के दिलों में ही दफ़न है।  इन्होने भिन्न जाती के नामो का इस्तेमाल सरकार की रुख देख करअलग अल्लाह समय में भिन्न ढंग से किया है कभी बावरिया – मोग्या बन गए और कभी मोग्या फिर से बावरिया बन गए।

इस समाज की नयी पीढ़ी ने अपने नाम के आगे मोग्या लिखना शुरू कर दिया ताकि अंग्रेजो के एक  पक्षपातपूर्ण कानून से बच सके।  अंग्रेजो के एक कठोर कानून – जरायम पेशा कनून (Criminal Tribes Act – 1871) के तहत 127 जातीय पर कई प्रकार के प्रतिबन्ध लगा रखे थे। अंग्रेजो के  इस काले कानून के दायरे में आने वाली इन जातियों में उस समय  लगभग 1 करोड 30 लाख (13 million) आते होंगे। इस कानून के तहत इन जाती के पुरुषों को हर सप्ताह नजदीक के  पुलिस थाने में जाकर उपस्थिति दर्ज करवानी पड़ती थी और बिना बताये तय क्षेत्र से बाहर पाए जाने पर कड़ी कानूनन कारवाई हुआ करती थी।

भारत जाती और सम्प्रदायों में बंटा हुआ एक विलक्षण देश है। हर व्यक्ति आज भी इन्ही बटवारो के दायरों में सिमटा हुआ है।  हर किसी जाती से कई ऊँची जातियां है और इतनी ही उनसे छोटी जातियां है। वर्तमान में जाती वह समूह है जिस का सीधा सम्बन्ध जन्म से है, यानि की वह किस समूह या परिवार में पैदा हुआ है।  यह व्यवस्ता कभी कर्मों से जुडी रही होगी, परन्तु सदियों से तो जाती का सीधा सम्बन्ध जन्म से ही माना जाता है।

मुकन और उनका परिवार (फोटो: डॉ धर्मेंद्र खांडल)

जरायम पेशा कनून (Criminal Tribes Act – 1871) के अंतरगत राजस्थान से १२ जातियों को प्रतिबंधित सूचि में रखा गया था -मीणा, भील, बावरिया, कंजर, सांसी, बंजारा, बागरिया, नट, नलक, मुलतांनी, भाट एवं मोगिया।

अब आप सोच रहे होंगे की जब मोगिया शामिल है तो बावरिया से मोगिया बनने में क्या लाभ?

कहते है मेवाड़ रियासत ने  बावरिया समाज के ही चुनिंदा लोगो को मोग्या नाम का ख़िताब दिया था।  क्योंकि कुछ बावरिया लोगो ने  मेवाड़ रियासत को भीलो और स्थानीय मीना लोगो के उत्पात से रक्षा में सहायता की थी, अतः मोगिया को हर समय शासन के नजदीक माना गया था। जॉर्ज व्हिट्टी गएर (George Whitty Gayer) 1909  की पुस्तक  Lectures on some criminal tribes of India and religious mendicants  के अनुसार मेवाड़ शासन ने स्थनीय आदिवासियों के उत्पात को शांत करने वाले वफादार बावरिया समूह को कोरल (coral) यानि मूंगा का दर्जा दिया, जो एक एक हिरे मोती की भांति एक महंगा पदार्थ है और वह बावरिया लोग मोंगिया कहलाने लगे और बाद में मोगिया कहलाये।  परन्तु आज भी मोगिया और बावरिया शब्द के इस्तेमाल करने वाले दोनों समूहों में शादी विवाह और अन्य तरह के व्यव्हार मौजूद है।

मुकन का पुत्र भजन मोगिया (दाएं), एक सुधारित बाघ शिकारी

संयुक्त राष्ट्र की एक शाखा Committee on the Elimination of Racial Discrimination (CERD) की सलाह पर भारत ने आजादी के कुछ वर्ष पश्च्यात इन 127 जातियों को उस जरायम पेशा अनुसूची से तो विमुक्त कर दिया और अब इन्हे विमुक्त जातियों (Denotified Tribes) के रूप में जाना जाता है जो बिलकुल वैसा ही है जैसे आप चिपके हुए स्टीकर के ऊपरी तह को खुरच कर निकल देते हो परन्तु निचे अभी भीकुछ चिपका हुआ हिस्सा रह जाता हो।

मुकन मोगिया के परिवार का टाइगर वॉच संस्था से अनूठा जुड़ाव है। संस्था की एंटी-पोचिंग यूनिट में मुकन के एक पुत्र गोविन्द मोगिया  ने खूब सेवाये दी है,  साथ ही इसी संस्था ने मुकन के एक पुत्र कालू को बघेरे के शिकार के लिए पुलिस को पकड़वाया भी है । वहीँ संस्था ने सूड़ केमि नमक संस्थान की मदद से  मुकन के 15 पोत्रो को अच्छी शिक्षा भी दिलवाई है, जो आज भी जारी है। इन्ही बच्चो में से एक बड़ा लड़के ने एक बार कहाँ की उसे यदि कुछ रुपये मिले तो वह अपनी जाती का नाम मोगिया से बावरिया करवाना चाहता है।  लगा शायद यह आत्मसमान के लिए किया जाने वाला एक प्रयास है,  परन्तु उसने बतया की मोगिया पिछड़े वर्ग (OBC) में आते है जबकि बावरिया अनुसूचित जाती  (SC) में शामिल है।  और मुफ्त राशन, शिक्षा एवं नोकरियो में प्राथमिकता के लिए अनुसूचित जाती में जाना ज्यादा लाभप्रद है।  उसने अपने स्तर पर  एक सरकारी अधिकारी  को  2500 रुपये की रिश्वत देकर अपने परदादा की जाती पुनः हासिल करली। शायद बावरिया कहलाना उसका हक़ भी था और अब अधिकांश बच्चे मोगिया से पुनः बावरिया लिखने लगे है।

गांव में लोग बावरिया और मोगिया में भेद नहीं करते परन्तु सरकार अभी भी इनमें अंतर करती है। पिछले दिनों टाइगर वॉच में आये Anthropological Survey of India के लोगो ने मोगिया  समाज पर एक अलग जाती के रूप में अध्ययन कर न शुरू किया है जो अब तक वह नहीं  कर पाए थे।

भजन के पुत्र दिलकुश बावरिया। नाथू बावरिया के बाद चौथी पीढ़ी, और औपचारिक शिक्षा प्राप्त करने वाली पहली पीढ़ी (फोटो: डॉ धर्मेंद्र खांडल)

मोगिया समाज के बच्चो के छात्रावास के 15 वर्ष के अनुभव में यह कई बार सामने आया ऊँची आजाती के लोग ही नहीं इन्हे दलित समाज (बैरवा आदि) के लोग भी इन्हे हेय दृष्टि से देखते है और इस से बढ़ कर यह भी देखने को मिला की किस प्रकार इसी मोगिया समाज के छात्रों ने भी कुछ अन्य समाजो (कालबेलिया और भोपा) के छात्रों के साथ खाने पिने और रहने से मना कर दिया की वह उनसे छोटे और अछूत है।

आज देश में 352 घुमंतू और 198 विमुक्त जातीय है जिनकी जनसँख्या 10 -11 करोड़ है और यह अपनी परम्परा से जुड़े रहने के लिए संघर्ष कर रहे है। सरकार इन्हे मुख्यधारा में लाने के अनेक प्रयास भी कर रही है, परन्तु इस संसाधन हीन देश में सब आसानी से नहीं मिलने वाला।

परन्तु दूसरी तरफ लगता है इस देश से अधिक सुविधा वाला देश और कौन सा होगा जहाँ कोई 2500 रुपये में जाती बदलवा सकते है।

नाथू बावरिया की नई पीढ़िया परपरागत ज्ञान भुला कर किताबी शिक्षा हासिल कर चुके है और कजोड़ जैसी चतुराई सीख कर प्रमाणपत्र भी हासिल कर लिया है। आज यह किसी और कजोड़ से बेवकूफ नहीं बनगे बल्कि सरकार को चक्कर खिला देंगे।

इन असली आदिवासियों के बारे में यह आलेख सत्य और तथ्य पर आधारित है।

लेखक:

Dr. Dharmendra Khandal (L) has worked as a conservation biologist with Tiger Watch – a non-profit organisation based in Ranthambhore, for the last 16 years. He spearheads all anti-poaching, community-based conservation and exploration interventions for the organisation.

Mr. Ishan Dhar (R) is a researcher of political science in a think tank. He has been associated with Tiger Watch’s conservation interventions in his capacity as a member of the board of directors.

 

वन रक्षक 1:    जुनून और जज़्बे की मिसाल: अभिषेक सिंह शेखावत

वन रक्षक 1: जुनून और जज़्बे की मिसाल: अभिषेक सिंह शेखावत

अभिषेक एक सक्षम एवं संपन्न परिवार में जन्म लेने के बावजूद, अपने लिए प्रकृति एवं वन्यजीव संरक्षण जैसे कठोर एवं श्रमशील कार्य के निचले पायदान को चुना और आज वन क्षेत्र में शिकारियों की रोकथाम, वन्यजीवों के संरक्षण और प्रबन्धन में वनकर्मी के रूप में योगदान दे रहे हैं।

एक संपन्न परिवार से आनेवाले “श्री अभिषेक सिंह शेखावत” को हमेशा से ही प्रकृति एवं वन्यजीव संरक्षण के प्रति कार्य करने का जुनून था, जिसके चलते उन्होंने वनरक्षक (फारेस्ट गार्ड) से भर्ती होकर इस क्षेत्र में प्रवेश किया। इनके पिताजी भारतीय पुलिस सेवा में पुलिस अध्यक्ष के पद पर कार्यरत हैं तथा उनके न चाहते हुए भी अभिषेक ने इस कार्य क्षेत्र को ही नहीं बल्कि सरकारी सेवा के निचले पायदान को चुना। आज, 7 साल तक वनरक्षक के रूप में कार्य करने के बाद, 22 जनवरी 2021 को ये सहायक वनपाल के पद पर पदोन्नत हुए हैं। हालांकि इनकी पदोन्नति से भी ये अपने पिताजी को खुश नही कर पाए। परन्तु फिर भी, एक उम्मीद की किरण, निरन्तर कर्मठ व प्रगतिशील व्यक्तित्व इन्हें अपनी कर्मभूमि के प्रति ईमानदार व व्यवस्थित रहने के लिए हौसला बढ़ाता रहा हैं। वन क्षेत्र में अवैध खनन व शिकारियों की रोकथाम, वन्यजीवों के संरक्षण और प्रबन्धन में इनका उल्लेखनीय योगदान रहा है। ये अपनी कार्यशैली व कुशलता के दम पर अपने साथियों को सकारात्मक रूप से प्रेरित रखने में भी अहम भूमिका निभा रहे हैं।

वर्तमान में 28 वर्षीय, अभिषेक सिंह का जन्म सीकर जिले की रामगढ़ तहसील के खोटिया गांव में हुआ तथा इनकी प्रारंभिक शिक्षा बाड़ी धौलपुर एवं उच्च माध्यमिक शिक्षा जयपुर से हुई और अलवर से इन्होने बीएससी नर्सिंग की शिक्षा प्राप्त की है। इन्हे हमेशा से ही पर्यटन, वन भृमण, प्रकृति एवं वन्यजीवों के प्रति रुचि रही है। वर्ष 2003 में जब इनके पिताजी अलवर में पुलिस उपाधीक्षक थे, तब ये अक्सर अपने दोस्तों के साथ सरिस्का अभ्यारण में घूमने जाया करते थे और तब से ही इनके मन में एक चाह थी कि मैं भी किसी तरह प्रकृति के नजदीक रह कर इसके संरक्षण के लिए कार्य करू।

अपनी पढ़ाई पूरी करने के बाद वर्ष 2011 में इन्होने वनरक्षक के लिए आवेदन किया तथा चयनित भी हुए। ट्रेनिंग के दौरान इन्होने वन्यजीव कानून व वन्य सुरक्षा में प्रथम स्थान प्राप्त किया तथा गर्व की अनुभूति के साथ इन्होने उमरी तिराहा पांडुपोल (सरिस्का) वनरक्षक के रूप में अपना पद संभाला।

वन क्षेत्र के भीतर अवैध चरवाहों को रोकते हुए अभिषेक

अभिषेक बताते हैं की “उस समय वहां के उप-वनसंरक्षक को लगा कि एक पुलिस अधिकारी का बेटा जंगल में काम नही कर पाएगा और उन्होंने मेरे पिताजी से बातकर मुझे ऑफिस में लगाने की बात कही, लेकिन मैंने साफ मना कर दिया। फिर एक बार यूँ हुआ उप-वनसंरक्षक और मैं साथ में रेंज का दौरा करने गए, तो कुछ पशु चरवाहों और उप-वनसंरक्षक में आपस मे कहासुनी हो गई। परन्तु मैंने हौसला दिखाते हुए 29 भैसों व उनके चरवाहों को वहां से भगा दिया। यह देख न सिर्फ उप-वनसंरक्षक प्रभावित हुए बल्कि मेरे जुनून व हौसलों की असल पहचान भी हुई।”

वर्तमान में अभिषेक सरिस्का बाघ परियोजना, बफर रेंज अलवर नाका प्रताप बंध व बीट डडीकर में सहायक वनपाल के पद पर तैनात हैं।

इतने वर्षों की अपनी कार्यसेवा के दौरान कई बार अभिषेक ने न सिर्फ मुश्किल बल्कि खतरनाक कार्यवाहियों में भी बड़ी सूझ-बुझ से भूमिका निभाई है।

नबम्बर 2018 में, वन विभाग कर्मियों ने नीलगाय का शिकार करने वाले कुछ शिकारियों को पकड़ा था। परन्तु पूछताछ के दौरान अपराधियों ने बताया की उन्होंने एक बाघिन का शिकार भी किया था तथा उनके कुछ साथी पडोसी जिले में छिपे हुए थे। उन शिकारियों को पकड़ने के लिए उप-वनसंरक्षक द्वारा 8 विश्वस्त लोगों की टीम गठित की गई जिसमें अभिषेक भी थे। अभिषेक और उनके एक साथी तहकीकात के लिए पडोसी जिले में गए और इस दौरान उनके सामने कई प्रकार की मुश्किलें आई जैसे की कुछ लोग उनकी सूचनाएं अपराधियों तक पहुचाने लगे। वे शिकारी एक जाति विशेष की बहुलता वाले क्षेत्र से आते थे, जो राजस्थान के सबसे संवेदनशील इलाकों मे शामिल था, और उस क्षेत्र में मुखबिरी करना अभिषेक के लिए एक चुनौतीपुर्ण कार्य था। ऐसे में अभिषेक और उनका साथी साधारण वेषभूषा में वहां के स्थानीय व्यक्ति की तरह दुकानों व चाय की थडियों पर बैठकर जानकारी जुटाने लगे। उन्होंने स्थानीय पुलिस की सहायता से उस जगह की छानभीन कर अपराधियों के अड्डों का पता तो लगा लिया था। परन्तु उस जगह पर छापा मारना आसान नहीं था क्योंकि काफी संख्या में ग्रामीण इकट्ठे हो सकते थे और हमला भी कर सकते थे। ऐसे में स्थानीय पुलिस टीम की मदद से उन अपराधियों को पकड़ लिया गया। वर्तमान में उन अपराधियों पर कानूनी कार्यवाही चल रही है तथा न्याय व्यवस्था इस प्रकार के अपराधों के लिए गंभीर रूप से कार्य कर रही है।

समय के साथ-साथ अभिषेक ने नई-नई चीजे सीखने में बहुत रुचि दिखाई है जैसे की उन्होंने श्री गोविन्द सागर भारद्वाज के साथ रह कर बर्ड-वॉचिंग व पक्षियों की पहचान के बारे में सीखा।

टाइगर ट्रैकिंग के लिए इनकी 15-15 दिन डयूटी लगती हैं जिसमें कई बार इनका टाइगर से आमना-सामना भी हुआ है। एक रात अभिषेक अपने साथियों के साथ बोलेरो केम्पर गाड़ी से गश्त कर रहे थे, तभी एक जगह खाना खाने के लिए उन्होंने गाड़ी रोकी। उनके साथियों ने गाड़ी से नीचे उतर एक साथ बैठकर खाना खाने को कहा परन्तु अभिषेक बोले की कैम्पर में बैठकर खाना खाते हैं। वो जगह कुछ ऐसी थी कि एक तरफ दुर्गम पहाड़ व दूसरी तरफ एक नाला था और सामने एक तंग घाटी थी। तभी अँधेरे में लगभग 15 फिट की दूरी पर एक मानव जैसी आकृति प्रतीत हुई और जैसे ही टॉर्च जलाई तो सामने टाइगर नजर आया। पूरी टीम ने ईश्वर को धन्यवाद किया की अगर गाड़ी से नीचे उतर गए होते तो कितनी बड़ी दुर्घटना हो गई होती। टाइगर ट्रैकिंग का एक वाक्य ऐसा भी हुआ जब अभिषेक व उनके साथी अनजाने में टाइगर के बिलकुल नज़दीक पहुंच गए और टाइगर गुर्राने लगा। तभी उन्होंने जल्दबाजी में एक पेड़ में चढ़ कर अपनी जान बचाई।

अभिषेक ने जंगल के सीमावर्ती क्षेत्रों में अवैध खनन को रोकने के लिए भी प्रयास किये हैं। जैसे एक बार गस्त के दौरान उन्होंने अवैध खनन वाले एक व्यक्ति को ट्रॉली में पत्थर भरकर ले जाते हुए देखा व रोकने की कोशिश भी की। ट्रैक्टर तेज गति से जाने लगा तो उन्होंने ने भागते हुए ट्रॉली के पीछे लटक गए,  ट्रैक्टर तेज गति में था, अतः अभिषेक ट्रॉली से लिपटकर घिसटते चले गए। लेकिन उस आदमी ने ट्रेक्टर नही रोका बाद में जैसे तैसे कूदकर उन्होंने अपनी जान बचाई। अभिषेक बताते हैं कि “ऐसे मौकों पर जब हम अवैध खनन माफिया के संसाधनों का पीछा करते हैं या जब्त करते हैं तो अधिकाँश ऐसे लोगों को दबंगों या राजनीतिक व्यक्त्वि विशेष का संरक्षण होता हैं। ऐसे में कई बार अपशब्द व धमकियां भी सुनने को मिलती हैं तब मन मे एक पीड़ा होती हैं कि हमारे पास ऐसे आदेश नही हैं कि हम अवैध कार्य करने वाले व इनको संरक्षण देने वालो को खुद सजा सुना सके।”

आवारा कुत्तों द्वारा हमले में अपनी माँ को खो चुके नीलगाय के इन छोटे बच्चों को अभिषेक ने बचाया व इनका ध्यान भी रखा

अभिषेक के अनुसार संरक्षण क्षेत्र की सबसे बड़ी समस्या है वन क्षेत्रों के आसपास रह रही आबादी जो कई बार एक साथ इक्कट्ठे होकर लड़ाई करने के लिए आ जाते हैं। एक बार अभिषेक अपने साथियों के साथ विस्थापित परिवारों से मिलने गए तो वहां पर एक जाति विशेष की बहुलता वाला क्षेत्र था। वे लोग विस्थापित परिवारों के साथ भी दुर्व्यवहार करते थे और पेड़ों का कटाव भी कर रहे थे। जब वन अभिषेक एवं साथियों ने उन लोगों को रोकने की कोशिश की तो उन्होंने पत्थर फेकना शुरू कर दिया। ऐसे में वन कर्मियों के पास न तो कोई संसाधन थे और न ही प्रयाप्त टीम।

समय के साथ-साथ अभिषेक ने नई-नई चीजे सीखने में बहुत रुचि दिखाई है जैसे की उन्होंने श्री गोविन्द सागर भारद्वाज के साथ रह कर बर्ड-वॉचिंग व पक्षियों की पहचान के बारे में सीखा। जंगल में काम करते हुए अभिषेक ने सांप रेस्क्यू करना भी सीख लिया तथा बारिश के मौसम में अब कई बार ग्रामीण लोग उन्हें सांप रेस्क्यू करने के लिए बुलाते हैं। अभिषेक का जंगल के आसपास रहने वाले लोगों को वन व वन्यजीवों के लिए जागरूक भी करते हैं जैसे की वे समय-समय पर विस्थापित परिवारों से मिलने जाते थे और उनसे समाज की मुख्य धारा, शिक्षा व स्वास्थ्य के बारे में चर्चा करते हैं। कई बार जब आसपास के गांवों से महिलाएं जंगल में लकड़ियां लेने आती हैं तो उनको वनों की विशेषता के बारे में बताकर, पेड़ न काटने की शपथ दिलवाकर भेज देते हैं और इसके चलते आज उस क्षेत्र में पेडों की अवैध कटाई बिल्कुल बन्द हो गई हैं तथा वर्तमान में वहाँ हमेशा टाइगर की मूवमेंट रहता हैं।

अभिषेक के पिताजी चाहे कितने भी सख्त बने परन्तु उनको भी अपने बेटे व उसकी कार्यशैली को लेकर काफी चिंता रहती है जिसके चलते वर्ष 2018 की शुरुआत में उनके पिताजी के प्रभाव से उनका तबादला गांव के पास ही एक नाके पर हो गया ताकि वो घर के पास रहे। लेकिन प्रकर्ति के प्रति उनका जुनून और हौसले के चलते उन्होंने पिताजी से बिना पूछे ही अपना ट्रांसफर पुनः सरिस्का में करवा लिया। ये देख सभी को अचम्भा भी हुआ क्योंकि रणथम्भौर और सरिस्का में खुद की इच्छा से कोई भी नही आना चाहता।

एक बार सरिस्का बाघ रिसर्व के सीसीएफ ने वनरक्षकों का मनोबल बढ़ाने के लिए “मैं हु वनरक्षक” नामक पोस्टर बनवाये थे और जिसके ऊपर अभिषेक की फोटो छापी गई थी। चाहे आम नागरिक हो या वनकर्मी सभी ने पोस्टर की सराहना की थी। जब उनके पिताजी को पोस्टर के बारे में मालूम चला तो वो काफी खुश हुए और उस वक्त उनकी खुशी से अभिषेक को दोगुनी खुशी मिली।

अभिषेक के अनुसार वन्यजीव संरक्षण क्षेत्र में कुछ ऐसी जटिल समस्याए हैं जो हमारे लिए सबसे बड़ी बाधा हैं जैसे; एक बीट में केवल एक ही वनरक्षक रहता हैं, वन चौकियां दुर्गम स्थान पर होती हैं जहाँ चिकित्सा,बिजली व पानी जैसी मूलभूत सुविधाओं का अभाव व नेटवर्क की समस्या  रहती हैं। कई बार शिकारियों से भी आमना सामना होता हैं और ऐसे में केवल एक डंडे के अलावा उनके पास कोई हथियार नही होता। साथ ही कम वेतन भी इनके मनोबल को कमजोर करता है। क्योंकि एक वनरक्षक की शैक्षणिक व शारिरिक योग्यता पुलिस सिपाही की भर्ती मापदण्ड के समान हैं तथा इनका कार्य भी 24 घण्टे का रहता हैं लेकिन जो सुविधाएं पुलिस सिपाही को मिलती है जैसे हथियार, 2400 ग्रेड,वर्दी भत्ता व जोखिम भत्ता आदि ये सुविधा वनकर्मियों को नही मिल पाती हैं। यह कुछ मूलभूत आवश्यकताएं हैं जो सभी को चाइये परन्तु प्रकृति व वन्यजीव संरक्षण के प्रति इनके हौसलों की उड़ान कभी कमजोर नही हो सकती।

अभिषेक बताते हैं की “अभी तक के इन कार्यों में हमेशा पिताजी मेरा साथ देते रहे हैं अतः मैं समझता हूं कि मेरे इस कार्य से खुश जरूर हुए होंगे या फिर उन्हें कुछ तो मेरे प्रति सुकून मिला होगा। तथा वे मेरे पिताजी ही हैं जो मुझे हमेशा सकारात्मक, कर्मठ व साहसी रहने की प्रेरणा देते हैं।”

नाम प्रस्तावित कर्ता: डॉ गोविन्द सागर भरद्वाज

लेखक:

Shivprakash Gurjar (L) is a Post Graduate in Sociology, he has an interest in wildlife conservation and use to write about various conservation issues.

Meenu Dhakad (R) has worked with Tiger Watch as a conservation biologist after completing her Master’s degree in the conservation of biodiversity. She is passionately involved with conservation education, research, and community in the Ranthambhore to conserve wildlife. She has been part of various research projects of Rajasthan Forest Department.