टॉडगढ़ रावली वन्यजीव अभ्यारण्य

टॉडगढ़ रावली वन्यजीव अभ्यारण्य

 

यह जगह अनोखी है, हर कोना प्रकृति के रंग से रंगा हुआ और इतिहास की गाथाओं से लबरेज़। यह बात उस स्थान से जुड़ी है जिसका नाम है – टॉडगढ़ रावली वन्यजीव अभ्यारण्य। यह राजस्थान के दो महत्वपूर्ण पारिस्थितिकी तंत्रो के मिलन स्थान पर फैला हुआ है – एक तरफ थार का मरुस्थल है तो दूसरी तरफ विश्व की एक प्राचीनतम पर्वतमाला -अरावली। वर्ष 1983 में स्थापित इस लम्बवत अभ्यारण्य का राजस्थान के तीन जिलों में प्रसार है – अजमेर, पाली एवं राजसमंद। अरावली मेवाड़ और मारवाड़ क्षेत्रों के मध्य अवरोध के रूप में स्थित है जिसे स्थानीय भाषा में आड़े आना कहते है यानी “आड़ा वाला” जिसे ही कालांतर में अरावली कहा जाने लगा।

टॉडगढ़ से दिखनेवाला अरावली के प्रसार एक दृश्य

इतिहास की कई कहानियां की चर्चा अधिक नहीं होती, परन्तु जरुरी नहीं की उनका महत्व कम हो – जैसे दक्षिणी छोर का हिस्सा – दीवर- जहाँ महाराणा प्रताप ने अकबर की सेना को परास्त किया एवं अपने खोये राज्य का अधिकांश हिस्सा पुनः प्राप्त किया। दीवर के रास्ते के एक तरफ राजस्थान का एक अत्यंत खूबसूरत राष्ट्रीय उद्यान – कुम्भलगढ़ है तो दूसरी यह अनोखा वन्यजीव अभ्यारण टॉडगढ़ रावली है, इन दोनों के मध्य स्थित है दिवेर की नाल (गोर्ज)। वानस्पतिक तौर पर विविधता से भरे इस घुमावदार नाल (गोर्ज) में बघेरे राज करते है। अक्सर यह कुम्भलगढ़ की दीवार पर सुस्ताते मिल जाते है। टॉडगढ़ रावली वन्यजीव अभ्यारण्य एवं कुम्भलगढ़ दोनों इन दोनों को मिलाकर अरावली राष्ट्रीय उद्यान की स्थापना प्रस्तावित है कभी शायद सरकार बाघों से फुर्सत पाकर इन उपेक्षित पड़े क्षेत्रों पर भी मेहरबान होगी।

भील बेरी झरना

इसी तरह मध्य हिस्से के ऊँचे स्थान पर बसा टॉडगढ़ कस्बा जिसके नाम पर इस अभ्यारण्य को नाम मिला स्थित है, यहाँ का इतिहास भी कुछ कम नहीं है। अजमेर जिले के अंतिम छोर में अरावली पर्वत श्रृंखला में टॉडगढ़ बसा हुआ है, जि‍सके चारो और एवं आस पास पहाड़ियां एवं वन्य अभ्यारण्य है। टॉडगढ़ को राजस्थान का मिनी माउंट आबू भी कहते हैं, क्योंकि यहां की जलवायु माउंट आबू से काफी मिलती है व माउंट आबू की भांति इसकी ऊंचाई  भी समुद्र तल से काफी अधिक हैं। टॉडगढ़ का पुराना नाम बरसा वाडा था। जिसे बरसा नाम के गुर्जर जाति के व्यक्ति ने बसाया था। टॉडगढ़ के आसपास रहने वाले लोग स्वतंत्र विचारधारा  हुआ करते थे एवं मेवाड़ एवं अजमेर के शासक भी इनसे बिना वजह नहीं टकराते थे। लेफ्टिनेंट कर्नल जेम्स टॉड ने इस क्षेत्र को नियंत्रण में लेने के लिए स्थानीय राज्य का सहयोग किया ओर इस स्थान का नाम टॉडगढ़ पड़ा ।  वर्ष 1818 में जेम्स टॉड को राजस्थान के मेवाड़ राज्य के राजनीतिक प्रतिनिधि के तौर पर पद स्थापित किया गया।  टॉडगढ़ के आसपास का क्षेत्र मेर जनजाति द्वारा अधिवासित होने के कारण मेरवाड़ा नाम से जाना जाता है।

टेल्ड जे तितली।

पांच वर्ष के थोड़े अंतराल के पश्चात (1823 में) उन्हें स्वास्थ्य कारणों से ब्रिटेन वापिस जाना पड़ा, परन्तु युद्ध और राजनीतिक दांव पेंच के माहिर टॉड ने राजपुताना के इतिहास पर  अनेक शोध पूर्ण जानकारियों का संकलन किया जो वर्ष 1829 में  Annals and Antiquities of Rajast’han or the Central and Western Rajpoot States of India के नाम से प्रकाशित हुआ।  यहीं वह दस्तावेज है जहाँ सबसे पहले राजस्थान शब्द का इस्तेमाल हुआ परन्तु टॉड ने Rajasthan को Rajast’han के रूप में लिखा था।

थार मरुस्थल की शुष्क एवं गर्म हवाओं को दक्षिण राजस्थान जाने से रोकने में यह अभ्यारण्य सबसे अधिक प्रभावी भूमिका अदा करता है। वर्षा काल में यहाँ कई नाले ओर झरने बहने लगते है, परन्तु भागोरा फॉरेस्ट ब्लॉक का 55 मीटर ऊँचा झरना भील बेरी  देखते ही बनता है, जो शायद राजस्थान के अरावली में स्थित सर्वाधिक ऊँचे झरनों में शुमार होता है।अभ्यारण्य में अरावली की प्रमुख चोटियों में से एक ‘गोरम घाट चोटी’ अवस्थित है जिसकी समुद्र तल से ऊंचाई ९२७ मीटर है। वनस्पति  विविधता के तौर पर यहां मरुस्थल और अरावली दोनों के घटक देखने को मिल जाते है।

स्लेंडर रेसर एक अत्यंत खूबसूरत सांप है जो यहाँ गाहे बगाहे मिल जाता है।

मानसूनी वर्षा वाला क्षेत्र होने के कारण यहां पर पतझण वन पाये जाते हैं। यहां पर प्रमुख रूप से अरावली का मुख्य वृक्ष धोक (Anogeissus pendula), कम मिट्टी ओर सूखे पर्वतों पर उगने वाला खैर (Acacia catechu), ऊँचे पहाड़ो ओर खड़ी ढलानों पर उगने वाले पेड़ सालर (Boswellia serrata), सूखे पत्थरों पर उगने वाला पेड़ गुर्जन (Lannea coromandelica), मैदानी भागो में उगने वाला वृक्ष ढाक या पलास (Butea monosperma),  कँटीला पेड़ हिंगोट (Balanites aegyptiaca), विशाल वृक्ष बरगद (Ficus begnhaleniss), मरुस्थलीय स्थिर टीलों पर उगने वाला पेड़ कुंभट (Senegalia senegal), लवणीय भूमि का वृक्ष पीलू (Salvedora persica) व खट्टे फल पैदा करने वाला इमली वृक्ष (Tamarindus indica) आदि वृक्ष अधिक मात्रा में पाये जाते है। यह वन भारत के अत्यंत सुन्दर झाड़ीदार वन के रूप में विख्यात है, जहाँ करील (Caparis  decidua), डांसर (Rhus mysorensis), जैसी झाड़ियाँ भी बहुतायत में मिलती है साथ बेर झाड़ी  (Zizyphus mauritiana) की भरमार इस स्थान को अनेक पक्षियों के लिए सुगम भोजन उपलब्धता करवाता है।  इन तीनों झाड़ियों के फल पक्षियों को अत्यंत लुभाते है ओर छोटे पक्षियों को पर्याप्त आश्रय के स्थान उपलब्ध करवाता है। यहाँ दो अत्यंत सुन्दर और दुर्लभ होती जा रही चिड़ियाएं मिलती है जिनमें वाइट बेलिड मिनिविट -white-bellied minivet (Pericrocotus erythropygius)  ओर वाइट नैपड टिट – white-naped tit (Machlolophus nuchalis) है। इनके अलावा विलुप्त होती जा रही गिद्ध प्रजातियां भी प्रसिद्ध मंदिर दुधलेश्वर महादेव के पास मिल जाते है। टॉडगढ़ रावली वन्यजीव अभ्यारण्य  धूसर जंगली मुर्गों  -Gray junglefowl (Gallus sonneratii) के विस्तार की उत्तरी सीमा माना जाता हैं।

वाइट बेलिड मिनिविट पक्षी यहाँ अक्सर दिख जाते है

यहाँ का सबसे अधिक आकर्षण का केंद्र है घोरम घाट रेलवे ट्रैक , जहाँ से ट्रेन झरनों, सुरंगो, ओर मनोहारी वन क्षेत्रों से भरपूर मार्ग से गुजरती है। यहां से गुजरने वाली ट्रेन लोगों में सदैव कौतुहल का विषय रहती है। यह रेलवे लाइन अब उन चुनिंदा रेल मार्गों में बची है जो मीटर गेज श्रेणी में आती है, साथ ही यह राजस्थान की एकमात्र माउंटेन रेलवे अथवा टॉय ट्रेन के समक्ष हेरिटेज रेलवे लाइन के रूप में मानी गयी है। यद्यपि यह इस वन क्षेत्र के लिए  निसंदेह अभिशाप होगी।

वन क्षेत्र से गुजरती ट्रैन सुहानी तो लगती है परन्तु यह यहाँ की पारिस्थितिक तंत्र के लिए सबसे अधिक बड़ी चुनौती भी है।

टॉडगढ़ रावली वन्य जीव अभ्यारण्य के पास स्थित कुम्भलगढ़ राष्ट्रीय उद्यान में बाघों को स्थापित करने के प्रयास चल रहे है अतः आने वाले समय में कुम्भलगढ़ से सटे इस इस अभ्यारण में संरक्षण के कार्य अधिक तेज होने की संभावना है। इस क्षेत्र में अंतिम बाघ 1964 में देखा जाना माना जाता है। यद्यपि यह नामुमकिन लगता है कि बढ़ते राजमार्गों के जाल से यह स्थान कभी सुरक्षित रह पायेगा, साथ ही बढ़ते धार्मिक पर्यटन के प्रभाव  इस स्थान के लिए एक बहुत बड़ा खतरा है।
परन्तु अनेकों खतरों ओर समस्याओं ऐसे जूझता यह अभ्यारण्य अभी तक जैव विविधता के लिए एक महत्वपूर्ण स्थान बना हुआ है , हमें प्रयास करना होगा यह अपने प्राकृतिक स्वरूप को बनाये रखे।

Dr. Dharmendra Khandal (L) has worked as a conservation biologist with Tiger Watch – a non-profit organisation based in Ranthambhore, for the last 16 years. He spearheads all anti-poaching, community-based conservation and exploration interventions for the organisation.

Mr. Rajdeep Singh Sandu (R)  :-is a lecturer of political science. He is interested in history, plant ecology and horticulture.

सभी फोटोग्राफ: धर्मेंद्र खांडल
अरावली के ऑर्किड

अरावली के ऑर्किड

राजस्थान के दक्षिणी हिस्से में कई ऑर्किड प्रजातियां पायी जाती हैं . राजस्थान कांटेदार और छोटी पत्तीदार पौधों से भरपूर हैं परन्तु २० से कुछ अधिक ऑर्किड प्रजातियां भी अरावली और विन्ध्यांचल के शुष्क वातावरण में अपने लायक उपयुक्त स्थान बना पाए हैं . यह संख्या कोई अधिक नहीं हैं परन्तु फिर भी शुष्क प्रदेश में इनको देखना एक अनोखा अनुभव हैं .  विश्व में ऑर्किड के 25000 से अधिक प्रजातियां देखे गए हैं . भारत में 1250 से अधिक प्रजातियां अब तक दर्ज की गयी हैं, इनमें से 388 प्रजातियां विश्व में मात्र भारत में ही मिलती हैं . राजस्थान में ऑर्किड को प्रकृति में स्वतंत्र रूप से लगे हुए देखना हैं तो – फुलवारी वन्यजीव अभयारण्य, माउंट आबू वन्यजीव अभयारण्य,  एवं सीतामाता वन्यजीव अभयारण्य आदि राज्य में सबसे अधिक मुफीद स्थान हैं .
राजस्थान के ऑर्किड पर डॉ. सतीश शर्मा ने एक पुस्तक का लेखन भी किया हैं और कई ऑर्किड प्रजातियों को पहली बार राज्य में पहली बार दर्ज भी किया हैं .

इस वर्षा काल में डॉ. सतीश शर्मा के सानिध्य में कई ऑर्किड देखने का मौका मिला. यह पौधे अत्यंत खूबसूरत और नाजुक थे . एक छोटे समय काल में यह अपने जीवन के सबसे सुन्दर क्षण जब पुष्पित हो को जीवंतता के साथ पूरा करते हैं . यह समय काल मानसून के समय होता हैं अतः थोड़ा कठिन भी होता हैं, इस अवधारणा के विपरीत की  राजस्थान एक शुष्क प्रदेश हैं परन्तु वर्षा काल में यह किसी अन्य प्रदेश से इतर नहीं लगता हैं . यह समय अवधि असल में इतनी छोटी होती हैं की इनको देख पाना आसान नहीं होता हैं. मेरे लिए यह सम्भव बनाया डॉ. सतीश शर्मा ने और उनके सानिध्य में राज्य के २ दर्जन ऑर्किड मे से १ दर्जन ऑर्किड में देख पाया .

राजस्थान में तीन प्रकार के ऑर्किड पाए जाते हैं, एपिफैटिक जो पेड़ की शाखा पर उगते हैं, लिथोफाइट जो चट्टानी सतह पर उगते हैं, टेरेस्ट्रियल पौधे जमीन पर उगते हैं

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1. यूलोफिया हर्बेशिया (Eulophia herbacea) यह राजस्थान में गामडी की नाल एवं खाँचन की नाल-फुलवारी अभयारण्य में मिलता हैं .

2. यूलोफिया ऑक्रीएटा (Eulophia ochreata) घाटोल रेंज के वनक्षेत्र, माउन्ट आबू, सीतामाता अभयारण्यय पट्टामाता (तोरणा प्), तोरणा प्प् (रेंज ओगणा, उदयपुर), फुलवारी की नाल अभयारण्य, कुम्भलगढ अभयारण्य, गौरमघाट (टॉडगढ-रावली अभयारण्य) आदि में मिलता हैं .

3. एपीपैक्टिस वेराट्रीफोलिए (Epipactis veratrifolia) मेनाल क्षेत्र- चित्तौडग़ढ़ में मिलता है .

4. हैबेनेरिया फर्सीफेरा (Habenaria furcifera)फुलवारी की नाल अभयारण्य, कुम्भलगढ अभयारण्य, गोगुन्दा तहसील के वन क्षेत्र एवं घास के बीडे, सीतामाता अभयारण्य आदि

5. हैबेनेरिया लॉन्गीकार्नीकुलेटा (Habenaria longicorniculata) माउन्ट आबू अभयारण्य, गोगुन्दा व झाडोल रेंज के वन क्षेत्र (उदयपुर), कुम्भलगढ अभयारण्य आदि .

6. हैबेनेरिया गिब्सनई (Habenaria gibsonii) माउन्ट आबू अभयारण्य एवं उदयपुर के आस पास के क्षेत्र में मिलता हैं .

7. पैरीस्टाइलिस गुडयेरोइड्स (Peristylus goodyeroides) मात्र फुलवारी की नाल अभयारण्य क्षेत्र में मिला है .

8. पैरीस्टाइलिस कॉन्सट्रिक्ट्स (Peristylus constrictus) सीतामाता एवं फुलवारी की नाल अभयारण्य आदि में मिलता है .

9. पैरीस्टाइलिस लवी (Peristylus lawiI): फुलवारी की नाल अभयारण्य  में मिलता है .

10. वैन्डा टैसीलाटा (Vanda tessellata) सांगबारी भूतखोरा, पीपल खूँट, पूना पठार (सभी बाँसवाडा जिले के वन क्षेत्र), फुलवारी की नाल, सीतामाता माउन्ट आबू, शेरगढ अभ्यारण्य बाँरा जिला में सीताबाडी, मुँडियार नाका के जंगल, कुण्डाखोहय  प्रतापगढ वन मंडल के वन क्षेत्र आदि .

11. एकैम्पे प्रेमोर्सा (Acampe praemorsa) सीतामाता अभ्यारण्य, फुलवारी की नाल अभ्यारण्य, फलासिया क्षेत्र अन्तर्गत नला गाँव के वन क्षैत्र आदि

टाइगर गोल्ड : श्री वाल्मीक थॉपर की रणथम्भौर के बाघों पर एक नई पुस्तक

टाइगर गोल्ड : श्री वाल्मीक थॉपर की रणथम्भौर के बाघों पर एक नई पुस्तक

 

श्री वाल्मीक थॉपर ने दुर्लभ बाघ व्यवहार दर्शाने वाले छाया चित्रों के संग्रह के साथ अनोखी पुस्तक का प्रकाशन किया है. इस पुस्तक में बाघों के आपसी टकराव, शिकार, बच्चों के लालन पालन, प्रणय, बघेरे, भालू, लकड़बग्घा आदि के साथ बाघ के आपसी व्यवहार, आदि सभी विषयों पर अद्भुत छायांकन और लेखन से जानकारी साझा की है.

इस पुस्तक को हाथ में लेने के बाद इसके 336 पृष्ठों को एक बार में देखे बिना छोड़ पाना लगभग नामुमकिन है. मैंने भी इसके बनने में सहयोग दिया हैं अतः मुझे भी पुस्तक के मुख पृष्ठ पर स्थान मिला है, अतः इस पुस्तक को पहली बार देखना मेरे लिए एक गर्व और सुखद अहसास का क्षण रहा है . यह पुस्तक मुख्यतया श्री थॉपर के रणथम्भौर में दो लम्बे प्रवासों के दौरान प्राप्त हुए छाया चित्रों एवं अनेक बाघों के द्वारा प्रदर्शित किये गए व्यवहार की जानकारी पर आधारित है .  इस दौरान मुझे भी अधिकांश बार उनके साथ पार्क में जाने का मौका मिला था .

पुस्तक में मूलतः चार्जर (T120) नामक बाघ द्वारा प्रदर्शित किये गए व्यवहार को अत्यंत सूक्ष्मता से छायांकन किया गया एवं उतनी ही गहराई से श्री थॉपर द्वारा अपने दीर्घ अनुभव के माध्यम से उनका गहन विश्लेषण किया है. श्री थॉपर की पत्नी श्रीमती संजना कपूर ने भी इस दौरान लिए अनेकों छायाचित्र लिए जिनसे रिक्त स्थानों को सम्पूर्णता मिली है . असल में इन दो प्रवासों के 40 -50  दिनों तक उनके साथ रहने वाले सभी लोग एक टीम के रूप में कार्य करने लगे. जैसे अनोखे सामर्थ्य के धनी श्री सलीम अली के वन भ्रमण के लम्बे अनुभव और बाघों के व्यवहार को समझने वाले गाइड के तौर पर कुशल संयोजन किया है . शेरबाग होटल के दीर्घ अनुभवी ड्राइवर श्री श्याम ने अपनी मक्खन ड्राइविंग से उन दिनों की तप्ती धुप को  भी सहज बनाये रखा .

इस पुस्तक में भारत के जाने माने अन्य वन्यजीव छायाकारो ने भी अपने छाया चित्र इस पुस्तक के लिए श्री थापर को सहर्ष भेंट किये है . जिनमे है – श्री आदित्य सिंह , श्री कैरव इंजीनियर, श्री चन्द्रभाल सिंह, श्री जयंत शर्मा, श्री हर्षा नरसिम्हामूर्ति, श्री अरिजीत बनर्जी,  श्री उदयवीर सिंह, श्री अभिनव धर,श्री अभिषेक चौधरी आदि हैं. यह सभी पार्क में जाने का लम्बा अनुभव रखते हैं .

श्री थॉपर के अनुसार यह पुस्तक अपने इष्ट मित्रों और परिजनों के लिए ही प्रकाशित की गयी है शायद इसका  मतलब है यह बाजार, अमेज़ॉन और फ्लिपकार्ट पर यह उपलब्ध नहीं होगी. क्योंकि अभी तक श्री थापर का मानना है की मार्केटिंग आदि अत्यंत कष्ट पूर्ण कार्य है .
श्री थॉपर ने इस पुस्तक का नाम दिया है टाइगर गोल्ड यानी वह पुस्तक जिसमें बाघों ने अपने व्यवहार का सर्वोच्च
प्रदर्शन किया है और श्री थॉपर ने भी अपनी अर्धशती के लम्बे अनुभव के साथ इसका बखूबी संकलन किया है . अपने 70 वें जन्म वर्ष में उनका यह उत्साह अनुकरणीय है . आप यह पुस्तक मेरे व्यक्तिगत संग्रह में देखने के लिए सादर आमंत्रित हैं .

मरुस्थल से घिरे छप्पन्न के पहाड़ : Siwana Hills 

मरुस्थल से घिरे छप्पन्न के पहाड़ : Siwana Hills 

राजस्थान के मरुस्थल की कठोरता की पराकाष्ठा इन  छप्पन्न के पहाड़ों में देखने को मिलती हैं।यह ऊँचे तपते पहाड़ एक वीर सेनानायक की कर्म स्थली हुआ करता था।

उनके लिए कहते हैं की

आठ पहर चौबीस घडी, घुडले ऊपर वास I
सैल अणि सूं सेकतो, बाटी दुर्गादास II

जी हाँ वे थे वीर दुर्गादास जिन्होंने अरावली के उबड़-खाबड़ इलाके में घुड़सवारी करते हुए दिन और रात काटे! अपने भाले की नोक से आटे की बाटी बनाकर भूख मिटाई, इस तरह अत्यंत कष्ट पूर्ण स्थिति में रह कर अपने क्षेत्र की रक्षा की थी।

यह क्षेत्र था, मारवाड़ का यानि जोधपुर और इसके आस पास का। इस वीर ने मुगलों के सबसे मुश्किल शासक औरंगजेब के बगावती बेटे – अकबर (यही नाम उसके दादा का भी था) को सहारा देकर मुगलों से सीधी टक्कर ली थी। अकबर के बेटे और बेटी को सुरक्षित जगह रख कर वीर दुर्गादास स्वयं निरंतर युद्धरत रहे।  जहाँ इन बच्चों को रखा गया था, वह स्थान था- बाड़मेर के सिवाना क्षेत्र की ऊंची पहाड़ियां, जिन्हें छपन्न के पहाड़ों के नाम से जाना जाता है। कहते हैं 56 पहाड़ियों के समूह के कारण इनका नाम छप्पन के पहाड़ रखा गया था, कोई यह भी कहता हैं छप्पन गांवों के कारण इस क्षेत्र को छप्पन के पहाड़ कहा जाने लगा।  मुख्यतया 24 -25 किलोमीटर लंबी दो पहाड़ी श्रंखलाओं से बना हैं यह, परन्तु असल में यह अनेकों छोटे छोटे पर्वतों का समूह हैं। अतः इसे सिवाना रिंग काम्प्लेक्स भी कहा जाता हैं।

वीर दुर्गादास द्वारा निर्मित दुर्गद्वार, जहाँ वह औरंगेज़ब के पौत्र और पौत्री को रखते थे।

पश्चिमी राजस्थान में स्थित यह सिवाना रिंग काम्प्लेक्स अरावली रेंज के पश्चिम में फैले नियो-प्रोटेरोज़ोइक मालाणी इग्नेस का हिस्सा हैं। नियो-प्रोटेरोज़ोइक मालाणी इग्नेस 20,000 वर्ग किमी क्षेत्र में फैला है। सिवाना क्षेत्र आजकल भूगर्भ शास्त्रियों की नजर में है क्योंकि यहाँ रेयर अर्थ एलिमेंट (REE) मिलने की अपार सम्भावना है।

सिवाना रिंग कॉम्प्लेक्स (SRC) बाईमोडल प्रकार के ज्वालामुखी से बने है जिनमें बेसाल्टिक और रयोलिटिक लावा प्रवाहित हुआ था, जो प्लूटोनिक चट्टानों के विभिन्न चरणों जैसे पेराल्कलाइन ग्रेनाइट, माइक्रो ग्रेनाइट, फेल्साइट और एप्लाइट डाइक द्वारा बने हैं, जो कि रेयर अर्थ एलिमेंट  की महत्वपूर्ण बहुतायत की विशेषता है। रेयर अर्थ एलिमेंट यानि दुर्लभ-पृथ्वी तत्व (REE), जिसे दुर्लभ-पृथ्वी धातु भी कहा जाता है जैसे लैंथेनाइड, येट्रियम और स्कैंडियम आदि। इन तत्वों का उपयोग हाइब्रिड और इलेक्ट्रिक वाहनों के इलेक्ट्रिक मोटर्स, विंड टर्बाइन में जनरेटर, हार्ड डिस्क ड्राइव, पोर्टेबल इलेक्ट्रॉनिक्स, माइक्रोफोन, स्पीकर में किया जाता है। यह विशेषता कभी इस क्षेत्र के लिए मुश्किल का सबब भी बन सकता हैं क्योंकि मानव जरूरतें बढ़ती ही जा रही हैं और जिसके लिए खनन करना पड़ेगा।

कौन सोच सकता है कि बाड़मेर का यह जैव विविध हिस्सा, जो थार मरुस्थल से घिरा है उसका अपना एक अनोखा पारिस्थितिक तंत्र भी है, जिसे लोग मिनी माउंट आबू कहने लगे। यद्यपि माउंट आबू जैसा सुहाना मौसम और उतना हरा भरा स्थान नहीं हैं यह, परन्तु बाड़मेर के मरुस्थल क्षेत्र में इस प्रकार के वन से युक्त कोई अन्य स्थान भी नहीं हैं। लोग मानते हैं की 1960 तक यहाँ गाहे-बगाहे बाघ  (टाइगर) भी आ जाया करता था। आज के वक़्त यद्यपि कोई बड़ा स्तनधारी यहाँ निवास नहीं करता परन्तु आस पास नेवले, मरू लोमड़ी एवं मरू बिल्ली अवस्य है। कभी कभार जसवंतपुरा की पहाड़ियों से बघेरा अथवा भालू भी यहाँ आ जाता हैं। विभिन्न प्रकार के शिकारी पक्षी एवं अन्य पक्षी इन पहाड़ियों में निवास करते है। जिनमें – बोनेलीज ईगल, शार्ट टॉड स्नेक ईगल,  लग्गर फाल्कन, वाइट चीकड़ बुलबुल, आदि देखी जा सकती है।

a) Microgecko persicus, b) Psammophis schokari, c) Ophiomorus tridactylus, d)Chamaeleo zeylanicus, आदि सिवाना की तलहटी में आसानी से मिल जाते है।

छपन्न की इन पहाड़ियों में एक प्रसिद्ध शिव मंदिर है- हल्देश्वर महादेव, जिसके यहाँ से मानसून में एक झरना भी बहता है, जो अच्छी बारिश होने पर दिवाली के समय तक बहता है। बाड़मेर के इस शुष्क इलाके में शायद सबसे अधिक प्रकार के वृक्षों की प्रजातियां यहीं मिलती होगी। धोक (Anogeissus pendula),  इंद्र धोक (Anogeissus rotundifolia), पलाश (Butea monosperma), कुमठा (Acacia senegal), सेमल (Bombax ceiba), बरगद (Ficus bengalensis), गुंदी(Cordia gharaf), और कई प्रकार की ग्रेविया Grewia झाड़िया जैसे – विलोसा (Vilosa), jarkhed (Grewia flavescens), टेनक्स (Grewia tenax) आदि शामिल है।

मॉर्निंग ग्लोरी (Ipomoea nil) के खिले हुए फूल हल्देश्वर महादेव के रास्ते को अत्यंत सुन्दर बना देते है |

नाग (Naja naja), ग्लॉसी बेलिड रेसर (Platyceps ventromaculatus),, सिंध करैत (Bungarus sindanus), थ्रेड स्नेक (Myriopholis sp.), सोचुरेक्स सॉ स्केल्ड वाईपर (Echis carinatus sochureki), एफ्रो एशियाई सैंड स्नेक (Psammophis schokari), आदि सर्प आसानी से मिल जाते हैं। मेरी दो यात्राओं के दौरान मुझे अनेक महत्वपूर्ण सरिसर्प यहाँ मिले जिनमें सबसे अधिक उल्लेखनीय हैं – पर्शियन ड्वार्फ गेक्को (Microgecko persicus) जो एक अत्यंत खूबसूरत छोटी छिपकली हैं।  शायद यह भारत की सबसे छोटी गेक्को समूह की छिपकली होगी। इन पहाड़ी की तलहटी को ऊँचे रेत के धोरों ने घेर के रखा हैं, इन धोरों के और पहाड़ों के मिलन स्थल पर केमिलिओन या गिरगिट(Chamaeleo zeylanicus) का मिलना भी अद्भुत हैं। मिटटी में छुपने वाली स्किंक प्रजाति की छिपकली दूध गिंदोलो (Ophiomorus tridactylus) तलहटी  के धोरो  पर मिल जाती है।

बारिश के मौसम में ब्लू टाइगर नमक तितली देखने को मिल जाती हैं।

इन पहाड़ियों के भ्रमण का सबसे अधिक सुगम तरीका हैं सिवाना से पीपलूण गांव जाकर हल्देश्वर महादेव मंदिर तक जाने का मार्ग। पीपलूण तक आप अपने वाहन से जा सकते हैं एवं वहां से पैदल मार्ग शुरू होता हैं। मार्ग के रास्ते में वीर दुर्गादास राठौड़ के द्वारा बनवाया गया उस समय का एक विशाल द्वार भी आता हैं, मार्ग कठिन है और मंदिर तक जाने में एक स्वस्थ व्यक्ति को २-३ घंटे तक का समय लग जाते हैं और आने में भी इतना ही समय लग जाता हैं। नाग और वाइपर से भरे इन पहाड़ों को दिन के उजाले में तय करना ही सही तरीका हैं।
महादेव का मंदिर होने के कारण श्रावण माह में अत्यंत भक्त श्रद्धालु मिल जाते हैं परन्तु मानसून के अन्य महीने में कम ही लोग यहाँ आते हैं।  अत्यंत शुष्क पहाड़ियों पर धोक जैसा वृक्ष भी दरारों और पहाड़ियों के कोनों में छुप कर उगता हैं। खुले में मात्र कुमठा ही रह पाता हैं।
राजस्थान के पश्चिमी छोर पर इस तरह का नखलिस्तान कब तक बचा रहेगा यह हमारी जरूरतें तय करेगी।