घड़ियालों के नए आवास की खोज

घड़ियालों के नए आवास की खोज

“टाइगर वॉच द्वारा किये गए एक सर्वेक्षण में, पार्वती नदी में घड़ियालों की एक आबादी की खोज के साथ ही यह पुष्टि की गयी है की पार्वती नदी घड़ियालों के लिए एक नया उपयुक्त आवास है।”

घड़ियाल, जो कभी गंगा की सभी सहायक नदियों में पाए जाते थे, समय के साथ मानवीय हस्तक्षेपों और लगातार बढ़ते जल प्रदुषण के कारण गंगा से विलुप्त हो गए, तथा आज यह केवल चम्बल तक ही सिमित है। वर्तमान में चम्बल नदी में 600 व्यस्क घड़ियाल ही मौजूद है तथा यह अपने आवास के केवल 2 प्रतिशत भाग में ही सिमित हैं, जबकि सन् 1940 में घड़ियाल कि आबादी 5000-10000 थी। पृथ्वी पर जीवित मगरमच्छों में से सबसे लम्बे मगरमच्छ “घड़ियाल” केवल भारतीय उपमहाद्वीप पर  ही पाए जाते है। एक समय था जब घड़ियाल भारतीय उपमहाद्वीप कि लगभग सभी नदियों में पाये जाते थे परंतु आज यह केवल चम्बल नदी में ही मिलते हैं। सन् 1974 में इनकी आबादी में 98 प्रतिशत गिरावट देखते हुए वैज्ञानिकों द्वारा इसे विलुप्तता के करीब माना जाने लगा तथा IUCN कि लाल सूची (red list) में इनको घोर-संकटग्रस्त (Critically Endangered) श्रेणी में शामिल किया गया। स्थिति को देखते हुए सरकार व वैज्ञानिकों ने एक साथ इसके संरक्षण के लिए ठोस कदम उठाये और घड़ियालों के फलने-फूलने के लिए विशेष स्थान उपलब्ध कराने हेतु नए अभयारण्यों की स्थापना की गई। राष्ट्रीय चंबल अभयारण्य (NCS) भारत का पहला और एकमात्र संरक्षित क्षेत्र हैं जो तीन राज्यों में फैला हुआ है तथा मुख्यरूप से मगरमच्छ प्रजाति के संरक्षण के लिए बनाया गया है। आज, चंबल अभयारण्य में गंभीर रूप से लुप्तप्राय घड़ियाल (Gavialis gangeticus) की सबसे बड़ी और विकासक्षम प्रजनन आबादी पायी जाती है। चम्बल नदी की तीन मुख्य सहायक नदियाँ हैं; पार्वती, कालीसिंध व बनास नदी, तथा पार्वती-चम्बल संगम से लेकर 60 किमी तक पार्वती नदी संरक्षित क्षेत्र में शामिल है, परन्तु अन्य दो नदियाँ NCS के बाहर हैं। प्रतिवर्ष चम्बल नदी में घड़ियालों की आबादी के लिए सर्वेक्षण किये जाते हैं तथा हर प्रकार की गतिविधि पर नज़र रखी जाती है, परन्तु इसकी सहायक नदियों में इनकी मौजूदगी व स्थिति का कोई दस्तावेजीकरण नहीं है।

घड़ियाल, को कभी-कभी गेवियल भी कहा जाता है, यह एक प्रकार के एशियाई मगरमच्छ होते हैं जो स्वच्छ प्रदुषण रहित नदियों में रहते हैं, तथा अपने लंबे, पतले, सकड़े जबड़े के द्वारा पहचाना जाता हैं। यह भूमि के लिए अच्छी तरह से अनुकूल नहीं हैं, और इसलिए ये आमतौर पर केवल धूप सेकने और घोंसले तक जाने के लिए ही पानी से बहार निकलते हैं। (फोटो: डॉ. धर्मेंद्र खांडल)

वैज्ञानिकों और प्रकृतिवादियों के लिए बहुत ही ख़ुशी की बात यह है की हाल ही में हुए एक अध्ययन से घड़ियालों की एक बड़ी आबादी की उपस्थिति पार्वती व बनास नदी तथा इनके प्रजनन की पुष्टि पार्वती नदी से की गई है। यह अध्ययन रणथम्भौर स्थित टाइगर वॉच संस्था द्वारा रणथम्भौर के भूतपूर्व फील्ड डायरेक्टर श्री वाई.के साहू के दिशा निर्देशों में वर्ष 2015 से 2017 तक किया गया तथा इसकी रिपोर्ट 17 जनवरी को आईयूसीएन पत्रिका में प्रकाशित हुई थी। इस अध्ययन के लिए प्रेरणा तब मिली जब वर्ष 2014 में एक घड़ियाल को रणथम्भौर वन विभाग द्वारा बनास नदी से बचाया गया था। इस अध्ययन के अंतर्गत वर्ष 2015 से 2017 तक प्रतिवर्ष सभी तीन सहायक नदियों पर सर्वेक्षण किये गए, ताकि घड़ियाल व मगरमच्छों की उपस्थिति के लिए प्रत्येक सहायक नदी की क्षमता का आकलन किया जा सके। वर्ष 2015 व 2016 में फरवरी माह में सर्वेक्षण किए गए तथा वर्ष 2017 में प्रजनन आबादी की मौजूदगी जानने के लिए जून माह में भी सर्वेक्षण किए गए। प्रत्येक सहायक नदी के बहाव क्षेत्र (पार्वती 67 किमी, काली सिंध 24 किमी, बनास 53 किमी) का सर्वेक्षण किया गया, तथा नदी के किनारे पर सभी प्रकार की मानवीय गतिविधियों को भी दर्ज किया गया।

इस अध्ययन द्वारा यह पता चला की पार्वती नदी में घड़ियालों की एक अच्छी आबादी और बनास नदी में कुछ पृथक घड़ियाल उपस्थिति है, जबकि कालीसिंध नदी में केवल मगर ही पाए जाते हैं।

घड़ियाल अन्य मगरमच्छों की तरह शिकार नहीं करते हैं- इनके थूथन (snout) में संवेदी कोशिकाएँ होती हैं जो पानी में होने वाले कंपन को पता लगाने में मदद करती हैं। यह पानी के अंदर अपने मुँह को खोल कर धीरे-धीरे मछली के पास जाते हैं और दुरी शून्य होने पर फुर्ती से मछली को जबड़े में पकड़ लेते हैं, जिसमे सौ से अधिक दांतों के साथ पंक्तिबद्ध होते हैं। जहाँ वयस्क मछली खाते हैं, तो वहीँ इनके छोटे बच्चे कीड़े, क्रस्टेशियन और मेंढक खाते हैं। (फोटो: डॉ. धर्मेंद्र खांडल)

पार्वती नदी का सर्वेक्षण:

पार्वती नदी में वर्ष 2015 में 14 और 2016 में 29 वयस्क घड़ियाल दर्ज किये गए, तथा सर्वेक्षण के दौरान एक नर घड़ियाल भी पाया गया, जिसके कारण वर्ष 2017 में सर्वेक्षण प्रजनन के समय यानी जून माह में किया और इस वर्ष कुल 48 वयस्क और 203 घड़ियाल के छोटे बच्चे पाए गए। पार्वती नदी (~ लंबाई में 159 किमी) मध्य प्रदेश में विंध्य पहाड़ियों की उत्तरी ढलानों से निकलती है और यह बारां जिले के चतरपुरा गाँव के पास से राजस्थान में प्रवेश करती है, जहाँ यह मध्य प्रदेश और राजस्थान के बीच 18 किलोमीटर की सीमा बनाती है। फिर बहती हुए यह नदी कोटा जिले के पाली गांव के पास चम्बल नदी में मिल जाती है। यह एक सतत बहने वाली नदी है जिसके किनारे रेत, चट्टानों और शिलाखंडों से युक्त होने के कारण अपने आप में ही एक अद्वितीय पारिस्थितिक तंत्र है।

पार्वती नदी में घड़ियालों का वितरण दर्शाता मानचित्र

बनास नदी का सर्वेक्षण:

अध्ययन के दौरान बनास नदी में वर्ष 2015 में 1 और 2016 में केवल 5 घड़ियाल ही पाए गए। यह घड़ियाल के कोई स्थायी आबादी नहीं थे, बल्कि वर्षा ऋतु में नदी में पानी बढ़ जाने की वजह से चम्बल नदी से बह कर इधर आ जाते हैं और नदी में पानी कम हो जाने के समय ये कुछ छोटे इलाके जहाँ पानी हो वही मुख्य आबादी से दूर पृथक रह जाते है। बनास नदी (~ 512 किमी) की उत्पत्ति राजसमंद जिले के कुंभलगढ़ से लगभग 5 किलोमीटर दूर अरावली की खमनोर पहाड़ियों से होती है। यह राजस्थान के मेवाड़ क्षेत्र से उत्तर-पूर्व की ओर बहती है, और सवाई माधोपुर जिले के रामेश्वर गाँव के पास चम्बल में मिल जाती है। इस नदी पर वर्ष 1999 में बीसलपुर बांध के निर्माण के बाद यह सूख गई तथा यह केवल तब ही बहती है जब वर्षा ऋतु में बाँध से अधिशेष पानी निकाला जाता है, और अन्य समय इसके कुछ गहरे कुंडों में ही पानी बचता है, तथा इन कुंडों का आपस में बहुत कम या कोई प्रवाह नहीं होता है।

बनास नदी में घड़ियालों का वितरण दर्शाता मानचित्र

कालीसिंध नदी का सर्वेक्षण:

अध्ययन के दौरान इस नदी में कोई घड़ियाल नहीं मिला परन्तु इस नदी में मगरों की उपस्थिति पायी गयी। काली सिंध नदी (~ 145 किमी) मध्य प्रदेश के बागली (जिला देवास) से निकलती है और अहु, निवाज और परवन इसकी सहायक छोटी नदियां हैं। यह नदी राजस्थान में प्रवेश कर बारां और झालावाड़ जिलों से होकर उत्तर की ओर बहती है तथा कोटा जिले के निचले हिस्से में चम्बल में मिल जाती है। इस नदी के किनारे मुख्यरूप से सूखे, मोटी रेत, कंकड़-पत्थर और चट्टानों से भरे हुए हैं, परिणाम स्वरूप इसके किनारे कठोर, चट्टानी और बंजर हैं।

पार्वती नदी का 60 किमी का हिस्सा राष्ट्रीय चम्बल घड़ियाल अभयारण्य के अंतर्गत संरक्षित है। पहले, इस हिस्से का घड़ियालों द्वारा इस्तेमाल किये जाने के कोई रेकॉर्ड नहीं थे, परन्तु इस अध्ययन ने दृढ़ता से यह स्थापित किया है की पार्वती नदी का यह संरक्षित खंड चम्बल घड़ियाल अभयारण्य के भीतर घड़ियाल आवास का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है, क्योंकि घड़ियालों की एक आबादी इस हिस्से का घोंसले बनाने, प्रजनन, छोटे घड़ियालों के लिए उत्तम पर्यावास है। इसके विपरीत, सर्वेक्षण की गई अन्य दो नदियाँ बनास और कालीसिंध घड़ियाल के आवास के लिए बिलकुल भी उपयुक्त नहीं हैं। जहाँ एक तरफ बनास नदी पर बने बीसलपुर बाँध के कारण नदी कुछ छोटे गहरे खंडित कुंडों में बदल दिया है, और नदी केवल मानसून के दौरान बहती है जब बांध के द्वार खुले होते हैं। इस दौरान कभी-कभी, कुछ घड़ियाल चम्बल से बहकर इधर आ जाते है और पानी का स्तर कम होने पर इन्हींखंडों में फँसकर रह जाते हैं। वही दूसरी ओर कालीसिंध नदी मुख्यतः चट्टानी हैं, जिसमें रेतीले क्षेत्र बहुत ही कम हैं। चम्बल अभयारण्य की सीमा के बहार होने और किसी भी प्रकार का संरक्षण नहीं होने के कारण इस नदी के आसपास मानवीय हस्तक्षेप व् दबाव बहुत अधिक है।

घड़ियाल, ग्रीष्म ऋतू के शुष्क मौसम के दौरान अपने घोंसले बनाते व् प्रजनन करते हैं, और मादाएं धीमे बहाव वाले किनारे पर रेत में अंडे देती हैं। लगभग 70 दिनों के बाद बच्चे अण्डों से बाहर आते हैं, और यह अपनी मां के साथ कई हफ्तों या महीनों तक रहते हैं। (फोटो: डॉ. धर्मेंद्र खांडल)

मौसमी रूप से कम पानी की अवधि के दौरान, पार्वती और काली सिंध नदियाँ चंबल के लिए पानी का प्राथमिक स्रोत हैं। तीन बड़े बाँध (गांधी सागर, जवाहर सागर, और राणा प्रताप सागर) और कोटा बैराज ने चम्बल की मुख्यधारा में पानी के बहाव को गंभीर रूप से सीमित कर दिया है, जिसके कारण शुष्क मौसम के दौरान जल निर्वहन लगभग शून्य होता है। इस प्रकार पार्वती नदी न सिर्फ चम्बल के लिए प्रमुख जल स्रोत के रूप में अपनी भूमिका निभाती है बल्कि पार्वती नदी के निचले हिस्से घड़ियाल के लिए उपयुक्त अन्य आवास भी प्रदान करती हैं।

घड़ियाल पर्याप्त रेत के साथ स्वच्छ व् तेजी से बहने वाली नदियों को पसंद करते हैं, और उसमें भी विशेष रूप से गहरे पानी वाले स्थान इन्हें ज्यादा पसंद होता है। हाल ही में हुए कुछ अध्ययनों से पता चलता है कि घड़ियाल मौसमी लम्बी दूरी की यात्रा भी करते हैं, जहाँ यह मानसून में अच्छा भोजन उपलब्ध करवाने वाले प्रमुख संगमों के आसपास रहते हैं तो वहीं मानसून के बाद, सर्दियों, और मानसून के पहले यह अपने प्रजनन व् घोंसला बनाने वाले स्थानों पर चले जाते हैं। मादा घड़ियाल विशेष रूप से रेतीले हिस्सों पर स्थित उपनिवेशों में घोंसला बनाना पसंद करते हैं जो गहरे पानी से सटे हुए हो तथा वहां रेत की मात्रा भी ज्यादा हो। यह भी देखा गया है की घड़ियालों का पसंदीदा क्षेत्र दशकों तक एक ही रहता है परन्तु नदी की स्थानीय स्थलाकृतियों में आने वाले बदलाव के आधार पर यह थोड़ा बहुत बदलते भी रहते हैं। लोगों द्वारा पारंपरिक नदी गतिविधियां घड़ियाल को नदी के आस-पास के आवासों का उपयोग करने से नहीं रोकती हैं, लेकिन घड़ियाल आमतौर पर उन क्षेत्रों में रहने से अक्सर बचते है जहाँ रेत खनन और मछली पकड़ने का कार्य किया जाता है। नदियों में जुड़ाव होना भी बहुत ही आवश्यक है क्योंकि यह घड़ियाल को प्रजनन और घोंसले बनाने के लिए अपनी जगह बदलने के लिए सक्षम बनाता है।

यह अध्ययन न केवल चम्बल अभयारण्य के अपस्ट्रीम खंडों के उपयुक्त घड़ियाल आवास और महत्वपूर्ण जल स्रोत के रूप में महत्व पर प्रकाश डालता है, बल्कि पार्वती सर्वेक्षणों से प्रजनन, वयस्कों और घड़ियालों के घोंसलों की पुष्टि भी करता हैं। परन्तु अध्ययन में इन नदियों के आसपास कई मानवीय गतिविधियां जैसे जल प्रदूषण, मछली पकड़ना, नदी के पानी की निकासी, रेत खनन आदि दर्ज की गई जो इन घड़ियालों और मगरों के अस्तित्व को खतरे में डालती हैं। नदियों में पानी कम होने, मछलियों के कम होने के कारण और कई बार मछलियों के जाल में फंस जाने के कारण भी इनकी संख्या कम हो गई है। इन गतिविधियों के साथ-साथ कई बार मानव-घड़ियाल संघर्ष भी इनके लिए बड़ा खतरा बनजाता है, ऐसा वर्ष 2016 में बनास नदी के पास हुआ था जब कुछ लोगों ने एक नर घड़ियाल की दोनों आँखें फोड़ दी और उसके मुंह के ऊपर वाला जबड़ा भी तोड़ दिया।

आज हम देखे तो सभी मानवीय गतिविधियां (जल प्रदूषण, मछली पकड़ना, नदी के पानी की निकासी, रेत खनन आदि) अभ्यारण्य के पुरे पारिस्थितिक तंत्र को प्रभावित कर घड़ियालों तथा अन्य जीवों के अस्तित्व को एक बड़े खतरे में डालती  हैं और इसीलिए वर्तमान में आवश्यकता है स्थानीय लोगों को जागरूक किया जाए तथा अभ्यारण्य के आसपास अवैध मानवीय गतिविधियों को नियंत्रित किया जाये।

सन्दर्भ:
  • Khandal, D., Sahu, Y.K., Dhakad, M., Shukla, A., Katdare, S. and Lang, J.W. 2017. Gharial and mugger in upstream tributaries of the Chambal river, North India. Crocodile Specialist Group Newsletter 36(4): 11.16

 

एलो ट्राईनर्विस: राजस्थान की एक नई एलो प्रजाति

एलो ट्राईनर्विस: राजस्थान की एक नई एलो प्रजाति

“राजस्थान के बीकानेर जिले में पायी गई एक नई वनस्पति प्रजाति… “  

केन्द्रीय शुष्क क्षेत्र अनुसंधान संस्थान (CAZRI), जोधपुर और बोटैनिकल सर्वे ऑफ़ इंडिया के कुछ शोधकर्ताओं द्वारा राजस्थान के बीकानेर जिले से एलो ट्राईनर्विस (Aloe trinervis) नामक एक नई वनस्पति की प्रजाति की खोज की गई है।  इस प्रजाति में फूलों के ब्रैट्स में तीन तंत्रिकाएं (nerve) मौजूद होने के कारण इस प्रजाति का नाम ट्राईनर्विस रखा गया हैं क्योंकि यह लक्षण इस प्रजाति के लिए विशेष और अद्वितीय हैं तथा इस प्रजाति में जून-अगस्त माह में फूल तथा सितम्बर-अक्टूबर माह में फल आते हैं।

Aloe trinervis के फूल (फोटो: Kulloli et. al.)

वनस्पतिक जगत के परिवार Asphodelaceae के जीनस “Aloe” में लगभग 600 प्रजातियां शामिल हैं जो ओल्ड वर्ल्ड (अफ्रीका, एशिया और यूरोप) सहित, दक्षिणी अफ्रीका, इथियोपिया और इरिट्रिया में वितरित हैं। इस जीनस की प्रजातियां शुष्क परिस्थितियों में फलने-फूलने के लिए अनुकूलित होती हैं तथा इनकी मोटी गुद्देदार पत्तियों में पानी संचित करने के टिश्यू होने के साथ-साथ एक मोटी छल्ली (cuticle) होती है। हालांकि भारत में इन सभी प्रजातियों में से केवल एक ही प्रजाति “अलो वेरा (Aloe vera)” सबसे अधिक व्यापकरूप से वितरित है। शोधकर्ताओं; सी.एस. पुरोहित, आर.एन. कुल्लोली और सुरेश कुमार की कड़ी मेहनत द्वारा इस नई प्रजाति की रिपोर्ट के साथ ही अब भारत में इस जीनस की दो प्रजातियां हो गई हैं। डॉ चंदन सिंह पुरोहित बोटैनिकल सर्वे ऑफ इंडिया में वैज्ञानिक के रूप में कार्यरत हैं। यह घासों के विशेषज्ञ हैं जिन्होंने 100 से अधिक शोध पत्र, 2 पुस्तकें प्रकाशित की हैं। डॉ रविकिरन निंगप्पा कुल्लोली, पिछले 12 वर्षों से रेगिस्तान की जैव विविधता पर शोध कर रहे है। इन्होने प्रतिष्ठित अंतरराष्ट्रीय और राष्ट्रीय पत्रिकाओं में 30 शोध पत्र प्रकाशित किए हैं तथा वर्तमान में यह राजस्थान और गुजरात राज्यों के वन क्षेत्रों के आनुवंशिक संसाधनों के दस्तावेजीकरण और मानचित्रण पर कार्य कर रहे है। डॉ सुरेश कुमार, सेवानिवृत्त प्रधान वैज्ञानिक (आर्थिक वनस्पति विज्ञान) और केंद्रीय शुष्क क्षेत्र अनुसंधान संस्थान (CAZRI) जोधपुर के विभागाध्यक्ष थे। इन्होने डेजर्ट इकोलॉजी पर विशेषज्ञता हासिल की है और अंतरराष्ट्रीय और राष्ट्रीय पत्रिकाओं 250 से अधिक शोधपत्र और 10 पुस्तके प्रकाशित की हैं। साथ ही इन्होने चट्टानी, चूना पत्थर और जिप्सम वाले परियावासो को पुनः स्थापित करने तकनीक विकसित की है।

आखिर एलो ट्राईनर्विस और एलो वेरा में अंतर क्या है: एलो ट्राईनर्विस में पत्तियों के सिरों पर हल्के घुमावदार छोटे कांटे होते हैं, 3-नर्व्ड ब्रैक्ट्स, शाखित पुष्पक्रम (inflorescence), हल्के पीले-हरे रंग के फूल मध्य से भूरे व् 31-34 मिमी तक लम्बे होते हैं तथा इनके पुंकेसर की लम्बाई 29–33 मिमी तक होती हैं। जबकि एलो वेरा में पत्तियों के सिरों पर त्रिकोणाकार छोटे कांटे होते हैं, 5-नर्व्ड ब्रैक्ट्स, अशाखित पुष्पक्रम (inflorescence), संतरी-पीले रंग के फूल 29-30 मिमी तक लम्बे होते हैं तथा इनके पुंकेसर की लम्बाई 24–26 मिमी तक होती हैं। वर्तमान में इस नई प्रजाति एलो ट्राईनर्विस को शिवबाड़ी-जोरबीर संरक्षित क्षेत्र, बीकानेर, राजस्थान से एकत्रित किया गया हैं।

Aloe trinervis: A, inflorescence; B, leaf upper surface and margin; C, leaf lower surface and margin; D, white spots in young leaves; E, teeth; F, bract; G, bud; H, flower; I, perianth outer side; J, perianth inner side; K, stamens; L, pistil (Photo: C.S. Purohit & R.N. Kulloli).

Comparative plant parts of Aloe trinervis and Aloe vera (A & B) with respect to (1) inflorescence, (2) corolla ventral view, (3) corolla dorsal view, (4) teeth arrangement, (5) bud, (6) floral bract, (7) teeth shape (Photo: C.S. Purohit & R.N. Kulloli).

दोनों प्रजातियों एलो वेरा और एलो ट्राईनर्विस को CAZRI, जोधपुर में डेजर्ट बॉटनिकल गार्डन में लगाया गया है, तथा इसके नमूने BSI, AZRC, जोधपुर में संगृहीत हैं। स्थानीय लोग इसकी पत्तियों को सब्जी और अचार बनाने के लिए इकट्ठा करते हैं। इसकी पत्तियों का उपयोग त्वचा उपचार के लिए औषधीय रूप के रूप में भी किया जाता है। और जानकारी के लिए सन्दर्भ में दिए शोधपत्र को देखें।

संदर्भ:
  • Cover picture Kulloli et. al.
  • Kumar S., Purohit C.S., and Kulloli R. N. 2020. Aloe trinervis sp. nov.: A new succulent species of family Asphodelaceae from Indian Desert. Journal of Asia-Pacific Biodiversity. 13:325-330.
शोधकर्ता:

Dr. Chandan Singh Purohit (1)(L&R): Dr. C.S. Purohit is working as Scientist at Botanical Survey of India. He is grass expert and published more than 100 research papers, 2 books on taxonomy, conservation biology, new taxa. He has also worked on vegetation of Shingba Rhododendron Sanctuary, Sikkim.

Dr. Kulloli Ravikiran Ningappa (2): He is working on desert biodiversity since last  12 years. He has published 30 research papers in reputed international and national journals. He has hands on GIS mapping, Species Distribution Modelling. Currently he is working on documentation and mapping of Forest Genetic Resources of Rajasthan and Gujarat states.

Dr. Suresh Kumar (3): He is retired Principal Scientist (Economic Botany) & Head of Division of Central Arid Zone Research Institute (CAZRI) Jodhpur. He has expertise on Desert Ecology and published more than 250 research papers in international and national journals and 10 books. He has developed technology to rehabilitate rocky habitats, limestone, gypsum and lignite mine spoils.

 

 

 

 

पंजाब रेवेन

पंजाब रेवेन

“रेवेन, कर्ण कर्कश ध्वनि वाला विस्मयकरक पक्षी है, जिसमे इतनी विवधता पायी जाती है कि इस पर एक ‘कागशास्त्र’ कि रचना भी कि गई”

राजस्थान में एक कौआ मिलता है जिसे “पंजाब रेवेन” के नाम से जाना जाता है तथा स्थानीय भाषा में इसे “डोड कौआ” भी कहा जाता है क्योंकि यह आकार में सामान्य कौए से लगभग डेढ़ गुना बड़ा होता है। इस कौए को प्रसिद्ध पक्षी विशेषज्ञ “ऐ ओ ह्यूम (A O Hume)” ने पंजाब, उत्तरी-पश्चिमी भारत और सिंध से ढूंढा तथा इसका विवरण भी दिया। इस रेवेन की सबसे रोचक बात यह है की इसे देखने पर ये सामान्य कौए जैसा ही लगता है, परन्तु यदि ध्यान से देखा जाये तो आभास होता है की ये कौआ एकदम से इतना काला और बड़ा क्यों लग रहा है। कुछ संस्कृतियों में रेवेन को बुरे समय का संकेत माना जाता है तो कुछ में इसे अच्छा भी समझा जाता है, परन्तु वास्तव में रेवेन एक उल्लेखनीय पक्षी हैं, क्योंकि यह फॉलकन जैसे शिकारी पक्षी के समान एक उत्कृष्ट हवाबाज है। यह प्रजनन काल में अपने हवाई कौशल का प्रदर्शन भी करता है। वहीँ दूसरी ओर यह मृत जानवरों को खाकर हमारे पर्यावरण की सफाई और अन्य पक्षियों की तरह फल खाकर बीज प्रकीर्णन में भी मदद करते हैं।

पंजाब रेवेन आकार में सामान्य कौए से लगभग डेढ़ गुना बड़ा तथा इसके पूरे शरीर का रंग अधिक काला होता है। (फोटो: डॉ. धर्मेंद्र खांडल)

वर्गिकी एवं व्युत्पत्ति-विषयक (Taxonomy & Etymology):

सामान्य रेवेन (Common Raven) की आठ उप- प्रजातियों में से एक,पंजाब रेवेन एक बड़े आकार का काला पेसेराइन पक्षी है। सामान्य रेवेन, पूरे उत्तरी गोलार्ध में बहुत ही व्यापक रूप से वितरित है तथा रंग-रूप के आधार पर इसकी कुल आठ उप-प्रजातियां पायी जाती है। हालांकि हाल ही में हुए कुछ शोध ने विभिन्न क्षेत्रों से आबादियों के बीच महत्वपूर्ण आनुवंशिक अंतर भी पाए है। सामान्य रेवेन, उन कई प्रजातियों में से एक है जिन्हे मूलरूप से “लिनिअस (Carolus Linnæus)” द्वारा अपने 18 वीं शताब्दी के काम, सिस्टेमा नेचुरे (Systema Naturae) में वर्णित किया गया था, और यह अभी भी अपने मूल नाम करवउस्कोरस से जाना जाता है। इसके जीनस का नाम Corvus “रेवेन” के लिए लैटिन शब्द से लिया गया है और इसकी प्रजाति का नाम corax ग्रीक भाषा के शब्द “κόραξ” का लैटिन रूप है जिसका अर्थ है “रेवेन” या “कौवा”।

पंजाब रेवेन, C. c. subcorax, पक्षी जगत के Corvidae कुल का सदस्य है। पाकिस्तान के सिंध जिले और उत्तर-पश्चिमी भारत के आसपास के क्षेत्रों तक सीमित आबादी को मुख्यरूप से पंजाब रेवेन के रूप में जाना जाता है। कभी-कभी इसे C. c. laurencei नाम से भी जाना जाता है, यह नाम 1873 में “Father of Indian Ornithology” ऐ ओ ह्यूम (A O Hume) द्वारा सिंध में पायी जाने वाली आबादी को दिया गया था। स्थानीय भाषाओ में इसे कई अलग-अलग नामों से जाना जाता है जैसे राजस्थान में “डोड काक”, पंजाब में “डोडव काक” और ऊपरी सिंध में इसे “टाकणी” कहते है, टाकर का अर्थ एक ऊँची चट्टान होता हैं।

निरूपण (Description):

यह रेवेन की सभी अन्य उप-प्रजातियों से आकार में बड़ा होता है, परन्तु इसके गले के पंख (hackles) अपेक्षाकृत थोड़े छोटे होते हैं। इसका पूरा शरीर काले रंग का होता है, जिस पर एक गहरे नीले-बैगनी रंग की चमक प्रतीत होती है परन्तु इसकी गर्दन और छाती गहरे भूरे रंग की होती हैं। इसमें नर व् मादा रंग-रूप में एक से ही होते है परन्तु नर आकार में मादा से बड़ा होता है। 1.5 से 2 किलो वजन होने के कारण यह पक्षी जगत का सबसे भारी पेसेराइन पक्षी है और इसका वजन अधिक होने के बावजूद भी ये, उड़ान के समय फुर्तीले होते हैं। इसके बड़े आकार के अलावा, यह अपने रिश्तेदार “सामान्य कौवे” से कई वजहों से अलग होता हैं, जैसे की इसके शरीर का आकार 55-65 सेमी, पखों का विस्तार 115-150 सेमी तथा चोंच बड़ी, मोटी व काली होती है, गले के आसपास और चोंच के ऊपर झबरे पंख तथा पूंछ एक पत्ती के आकार की होती है। एक उड़ते हुए रेवेन को उसकी पूंछ के आकार, बड़े पंख और अधिक स्थिरता से उड़ने की शैली के कारण कौवे से अलग किया जाता है। वहीँ दूसरी ओर सामान्य कौए के शरीर का रंग ग्रे, आकार 40-45 सेमी, पखों का विस्तार 75-85 सेमी तथा चोंच थोड़ी पतली होती है।

अंग्रेजी प्रकृतिवादी “Eugene W. Oates” द्वारा बनाया गया तथा उनकी पुस्तक “The Fauna of British India” में प्रकाशित चित्र, जो पंजाब रेवेन व् अन्य रेवेन के गले के पंखों में अंदर दर्शाता है।

आकार व् रंग-रूप को देखते हुए, पंजाब रेवेन और सामान्य कौए में आसानी से अंतर कर उन्हें पहचाना जा सकता है। (फोटो: डॉ. धर्मेंद्र खांडल)

वितरण व आवास (Distribution & Habitat):

भारत में, पंजाब, बीकानेर, जोधपुर, जयपुर के उत्तरी भाग और सांभर झील तक पंजाब रेवेन का वितरण एक आम पक्षी के रूप में है तथा जमुना नदी के पूर्वी इलाको में कम देखने को मिलता है। दक्षिणी और पश्चिमी सिंध के कई हिस्सों की जलवायु व्पर्यावास पंजाब जैसी होने के बावजूद भी रेवेन सिर्फ प्रजनन के लिए ही आते हैं और एक स्थायी निवास बनाने में विफल रहते हैं जबकि निचले पंजाब में यह एक स्थायी निवासी है ।.K.Eates के अनुसार सिंध के ऊपरी इलाको में पाए जाने वाले रेवेन मुख्यतः प्रवासी होते है जो सितंबर और अक्टूबर माह में प्रजनन के लिए यहाँ आते है तथा मई में वापस चले जाते हैं। दक्षिण में इसे सांभर झील तक प्रजनन करते देखा गया है। भारत के अलावा यह बलूचिस्तान, दक्षिणी पर्शिया, मेसोपोटामिया, दक्षिणी एशिया और फिलिस्तीन में भी पाया जाता है। पंजाब रेवेन मुख्यरूप से वन प्रदेशों वाला पक्षी है परन्तु कभी-कभी इसे वनों से सटे मानव रिहाइश इलाकों के पास भी देखा जाता है।

भारत में पंजाब रेवेन का वितरण दर्शाता मानचित्र (Source: Birdlife.org and Grimmett 2014)

प्रजनन (Breeding):

रेवेन किशोर लगभग दो या तीन वर्ष की आयु के बाद अपने साथी जोड़े बना लेते है। युवा अवस्था में ये अक्सर झुण्ड में रहते है परन्तु एक बार जोड़ी बन जाये, तो ये पूरे जीवन साथ रहते व घोंसला बनाते हैं। एक साथी ढूंढने के लिए हवा में कलाबाजियां लगाना, बुद्धिमत्ता और भोजन प्रदान करने की क्षमता का प्रदर्शन करना प्रमुख व्यवहार हैं। एक जोड़ा आमतौर पर एक ही स्थान पर घोंसला बनाता है। इससे पहले कि वे घोंसले का निर्माण और प्रजनन शुरू करें प्रत्येक जोड़ी के पास अपने स्वयं का एक क्षेत्र होना चाहिए, और इस प्रकार यह एक क्षेत्र और उसके खाद्य संसाधनों का बचाव करते है भले ही उसके लिए आक्रामक ही क्यों न होना पड़े। इनके इलाके का क्षेत्रफल खाद्य संसाधनों के घनत्व के अनुसार भिन्न-भिन्न होता हैं। इनका घोंसला पेड़ों की छोटी टहनियों से बना एक गहरा कटोरा होता है, जिसका अंदरूनी हिस्सा पेड़ की छोटी जड़ों, छाल और हिरण के फर से पंक्तिबद्ध होता है। पक्षी विशेषज्ञ “ह्यूम” (A O Hume) अपनी पुस्तक “Nest & Eggs of Indian Birds” में बताते हैं की पंजाब रेवेन अपना घोंसला एक ऊँचे पेड़ पर बनाते हैं और हर दो घोंसलों के बीच लगभग सौ गज की दुरी तो होती ही है। यदि पक्षी घोंसले का निर्माण व मरम्मत जल्दी शुरू कर देते हैं, तो वे अक्सर बहुत धीमी गति से कार्य करते है। लेकिन अगर काम की शुरुआत देर से की जाती है तो लगभग एक हफ्ते में ही ये सारा काम पूरा कर लेते है। कुछ घोंसले उत्तराधिकार में कई वर्षों तक कब्जे में रहते हैं, और तब तक नहीं छोड़े जाते है जब तक वे पूरी तरह से नष्ट न हो जाये। कई बार ये अपना घोंसला ऊँची चट्टानों पर भी बनाते है, श्रीओस्मास्टन (Mr. Osmastan) कहते हैं कि रावल पिंडी के पास पंजाब रेवेन लगभग हमेशा एक चट्टान पर घोंसला बनाते थे। मादा दिसंबर से फरवरी माह के बीच में एक बार में 3 से 7 हल्के पीले नीले-हरे, भूरे धब्बे वाले अंडे देती है।

किशोरावस्था के बाद नर व् मादा पंजाब रेवेन प्रजनन के लिए जोड़ी बनाते हैं तथा प्रत्येक जोड़ी पूरे जीवनभर साथ रहती हैं। सामान्य कौए और पंजाब रेवेन में यह भी एक मुख्य अंतर है, क्योंकि जहाँ कौए अक्सर झुण्ड में देखे जाते हैं वहीँ पंजाब रेवेन हमेशा जोड़ी में दिखाई देते है। (फोटो: डॉ. धर्मेंद्र खांडल)

इसके आकार, सतर्कता और रक्षात्मक क्षमताओं के कारण, इसके कुछ प्राकृतिक शिकारी भी हैं। इसके अंडों के शिकारियों में उल्लू, मार्टिन्स और कभी-कभी ईगल शामिल हैं। रेवेन अपने बच्चों का बचाव करने में काफी जिम्मेदार होते हैं और आमतौर पर कथित शिकारियों पर हमलाकर उनको दूर करने में सफल होते हैं। ह्यूम बताते हैं की जब उनको पहली बार इस पक्षी का घोंसला मिला तो वह एक कीकर के पेड़ पर लगभग 20 फ़ीट की ऊंचाई पर था और उसमे पांच अंडे थे। उन अंडो को निकालने पर रेवेन ने बहुत ही आपत्ति जताई और पेड़ पर चढ़ने वाले आदमी के सिर पर हमला भी किया। हमारे द्वारा अंडे गायब कर देने के बाद दोनों पक्षी पेड़ पर बैठ गए और बड़े ही मनोरंजक तरीके से एक दूसरे की तरफ देखते हुए अपना सिर हिलाने लगे। फिर वो आसपास के हर पेड़ व् उनके खोखलों में झांक कर यह सुनिश्चित करने लगे की अंडे वास्तव में चले गए हैं।

आहार व्यवहार (Feeding habits):

पंजाब रेवेन, सर्वाहारी होने के कारण एक प्रजाति के रूप में ये हमेशा से ही सफल रहे है क्यूंकि ये पोषण के स्रोत खोजने में बेहद बहुमुखी और अवसरवादी है, तथा इनका आहार स्थान और मौसम के साथ व्यापक रूप से भिन्न हो सकता है। उदाहरण के लिए, कुछ स्थानों पर ये मुख्यरूप से मरे हुए जानवरों, कीड़ों और बीटल्स को खाते है। खेती-बाड़ी वाले इलाके के पास ये अनाज व फलों पर निर्भर रहते हैं। ये छोटे अकशेरूकीय, उभयचर, सरीसृप, छोटे पक्षियों और उनके अंडो का शिकार भी करते हैं। रेवेन जानवरों के मल, और मानव खाद्य अपशिष्ट के अवांछित भागों का भी भोजन की तरह उपभोग करते हैं। यदि इनके पास अधिक शेष भोजन हो तो ये खाद्य पदार्थों को संग्रहीत भी करते हैं।

बुद्धिमत्ता (Intelligence):

रेवेन को हमेशा से ही सभी पक्षियों से ज्यादा बुद्धिमान माना गया है। ये अन्य पक्षियों की आवाज की नक़ल कर सकते है। शिशु रेवेन का व्यवहार बहुत ही चंचल व् अलग-अलग चीजों से खेलने वाला होता है, जैसे ये हवा में तेज-तेज उड़कर एक-दूसरे से आगे निकलने की कोशिश तो कभी कलाबाजियां खाते है और कभी पेड़ की छोटी डंडिया तोड़ कर भी खेलते है। इनमे आगे की योजना बनाने, बुनियादी साधनों को समझने और उन्हें अपनी पसंद का कुछ प्राप्त करने के लिए नियोजित करने की क्षमता भी रखते हैं। कुछ वैज्ञानिकों का कहना है कि वे ग्रह के सबसे चतुर पक्षी हैं; तो वहीँ दूसरों का तर्क है कि इनकी दिमागी क्षमता ऐप (Ape) से भी ज्यादा है।

पुराणशास्र (Mythology):

रेवेन हजारों वर्षों से मनुष्यों के साथ रहे हैं और कुछ क्षेत्रों में इतने अधिक हैं कि लोगों ने उन्हें कीटों के रूप में माना है। सदियों से, यह पौराणिक कथाओं, लोक कथाओं, कला और साहित्य का विषय रहा है। दुनियाभर के कई समुदायों में रेवेन को लेकर कहानियां हैं, लेकिन दुर्भाग्य से इनमे से कई नकारात्मक ही है। हिन्दू पौराणिक कथाओं में, रेवेन लोकप्रिय लेकिन अशुभ देवता शनि का वाहन है। कई समुदायों में रेवेन व् कौए को जीवन और मृत्यु के बीच ‘मध्यस्थ जानवर’ माना जाता हैं। जहाँ कुछ समुदायों में इन्हे अशुभ माना गया है वहीँ कुछ देखो में इसे जीत का प्रतिक मानते हुए इसकी मोहर सैनिको की पोशाक पर बनी रहती थी। पूर्वी एशिया में इनको किस्मत से जोड़ा जाता है तो अपने यहाँ मुंडेर पर बैठकर काँव-काँव करने वाले कौवे को संदेश-वाहक भी माना जाता है।

परन्तु इन सभी पौराणिक कथाओ से अलग हट कर हम रेवेन को देखे तो ये भी अन्य पक्षियों की तरह हमारे पर्यावरण के लिए महत्वपूर्ण है जो मृत जानवरों को खाकर पर्यावरण को साफ़ सुथरा रखते है।

सन्दर्भ:
  • Baker, E.C.S. 1922. The fauna of British India, including Ceylon and Burma. Birds- Vol. 1. 2nd London
  • Cover Image Picture Courtesy Dr. Dharmendra Khandal.
  • Gould, J. 1873. The Birds of Great Britain. Vol. 3. London.
  • Grimmett, R., Inskipp, C. and Inskipp, T. 2014. Birds of Indian Subcontinent. Digital edition.
  • https://round.glass/sustain/wild-vault/ravens-intelligence/
  • Hume, A.O. 1889. The Nests and Eggs of Indian Birds. Vol. 1. 2nd London.
  • Oates, E.W. 1889. The fauna of British India, including Ceylon and Burma. Birds- Vol. 1. London.

 

 

लग्गर फॉल्कन: लुप्त होता शाही शिकारी

लग्गर फॉल्कन: लुप्त होता शाही शिकारी

लग्गर फाल्कन पक्षियों की दुनिया के माहिर शिकारी है जो बेहद कुशलता से अपने शिकार को पहचानने, पीछा करने और मारने में सक्षम है, राजस्थान में हम यदि इस शिकारी पक्षी को नहीं जानते तो हमारा रैप्टर्स के बारे में ज्ञान अधूरा है

लग्गर फॉल्कन, एक मध्यम आकार का शिकारी पक्षी जो मुख्य रूप से भारतीय उपमहाद्वीप में पाया जाता है। इसका वैज्ञानिक नाम Falco jugger है तथा यह पक्षी जगत के Falconidae कुल का एक सदस्य है। यह एक फुर्तीला पक्षी है, जो हवा में तेज गति से उड़कर अपनी तेज दृष्टि से शिकार को पकड़ लेता है। तेज उड़ान की गति के कारण ये अक्सर उड़ते हुए पक्षियों को भी अपना शिकार बना लेता है। लग्गर फॉल्कन दुनिया के चार हाइरोफाल्कन (सबजीनस: हायरोफाल्को) में से एक है, तथा यह इस सबजीनस में बड़े बाज़ों में से एक है। ऐसा भी माना जाता है कि हायरोफाल्कन की संपूर्ण जीवित विविधता की उत्पत्ति 130,000 से 115,000 साल पहले, प्लीस्टोसिन के उत्तरार्ध में एमीयन इंटरग्लेशियल में हुई थी। भले ही लग्गर फॉल्कन व्यापक रूप से पूरे भारतीय उपमहाद्वीप में वितरित हो परन्तु यह एक दुर्लभ प्रजाति है। आज IUCN Red Data list के अनुसार यह एक संकट के निकट अर्थात “Near Threatened” प्रजाति है।

निरूपण/ Description:

लग्गर फॉल्कन एक मध्यम आकार का (कौए से लगभग थोड़ा सा बड़ा), क्षीण बाज़ होता है। रंग-रूप में नर व मादा एक जैसे ही दिखते है परन्तु मादा आकार में नर से थोड़ी बड़ी होती है। वयस्क के शरीर के पृष्ठ भाग गहरे भूरे व स्लेटी भूरे रंग तथा अधर भाग सफ़ेद व हल्के बादामी रंग के होते है। इसका गला व छाती का ऊपरी हिस्सा सादा सफ़ेद तथा छाती के बगल व पेट के पास हल्की लकीरे होती है। इसके सिर का रंग गहरा-भूरा और इसकी आँखों के नीचे की तरफ एक गहरे-भूरे रंग की पट्टी तथा हल्के रंग के भौंहें होते है। पूँछ के बीच वाले पंख प्लेन होते है। इसकी चोंच स्लेटी तथा पंजे पीले रंग के होते हैं। एक वयस्क लग्गर फॉल्कन और साकेर फॉल्कन में आसानी से अंतर किया जा सकता है क्योंकि लग्गर फॉल्कन में शरीर के अधर भाग प्लेन व मूंछो के पास एक स्पष्ट दिखने वाली पट्टी होती है जबकि साकेर फॉल्कन में शरीर के निचले भाग पर गोल धब्बे और मूंछों की पट्टी थोड़ी धुंधली व फैली हुई सी होती है।

जुवेनाइल लग्गर फॉल्कन ऊपर से गहरे भूरे रंग के होते हैं, तथा इन के अंडरपार्ट्स, विशेष रूप से जांघ, फ्लैंक और पेट के निचले सिरे गहरे भूरे (चॉकलेट-ब्राउन) रंग के होते है। सिर के ऊपर हल्का भूरा रंग होता हैं। कई बार जुवेनाइल लग्गर फॉल्कन समान दिखने वाली अन्य प्रजातियों जैसे पेरेग्रीन फॉल्कन और साकेर फॉल्कन के जैसा प्रतीत होता है तथा इनकी पहचान और अलगाव करना थोड़ा सा जटिल कार्य है।

भट्ट एट. अल. (2018) ने पृष्ठ भागों पर पाए जाने वाले निशानों के आधार पर लग्गर फॉल्कन को पांच प्रकारों में बांटा है:

  • टाइप 1 -गहरी-भूरे रंग की प्लूमेग: निचले भाग पूरी तरह से गहरे भूरे रंग के होते हैं तथा इनमें किसी भी प्रकार की लकीरे व् अन्य निशान नहीं होते है।
  • टाइप 2 – भारी धब्बेदार: इसमें निचले भागो पर गहरे भूरे रंग के साथ कुछ सफ़ेद रंग के धब्बे होते हैं, तथा यह स्थिति अधिकतर जुवेनाइल लग्गर में देखने को मिलती है।
  • टाइप 3 – कम धब्बेदार: इसमें धब्बे कम और अधर भाग के सफ़ेद रंग पर दूरी पर फैले होते है। यह स्थिति सबसे अधिक जुवेनाइल या जुवेनाइल से वयस्क हो रहे लग्गर में देखने को मिलती है।
  • टाइप 4 – धारीदार (Streaked) वयस्क: इसमें सफ़ेद व हल्के भूरे रंग के अधर भाग पर कुछ लकीरे होती हैं।
  • टाइप 5 – वयस्क लग्गर में सबसे अधिक यही प्रकार पाया जाता है, इसमें गले, छाती और ऊपरी पेट पर बहुत कम या फिर कोई भी लकीर नहीं होती है।

इतिहास/ History:

लग्गर फॉल्कन का सबसे पहला चित्र थॉमस हार्डविक (Thomas Hardwicke) ने बनाया था। मेजर-जनरल थॉमस हार्डविक (1756- 3 Mar 1835) एक अंग्रेजी सैनिक और प्रकृतिवादी थे, जो 1777 से 1823 तक भारत में थे। भारत में अपने समय के दौरान, उन्होंने कई स्थानीय जीवों का सर्वेक्षण करने और नमूनों के विशाल संग्रह बनाया। वह एक प्रतिभाशाली कलाकार भी थे और उन्होंने भारतीय जीवों पर कई चित्रों को संकलित किया तथा इन चित्रों से कई नई प्रजातियों का वर्णन किया गया था। इन सभी चित्रों को जॉन एडवर्ड ग्रे ने अपनी पुस्तक “Illustrations of Indian Zoology” (1830-35) में प्रकाशित किया था।

थॉमस हार्डविक (Thomas Hardwicke) द्वारा बनाया गया लग्गर फॉल्कन का सबसे पहला चित्र

जॉन एडवर्ड ग्रे (John Edward Gray) ने सन 1834 में लग्गर फॉल्कन को द्विपद नाम पद्धति के अनुसार “Falco jugger” नाम दिया। ग्रे एक ब्रिटिश जीव वैज्ञानिक थे जो लंदन में ब्रिटिश म्यूजियम में जूलॉजी संग्रहण का रख रखाव करते थे। लग्गर फॉल्कन को हमेशा से ही छोटे पक्षियों का शिकार करने के लिए इस्तेमाल किया जाता रहा है। पक्षी विशेषज्ञ TC Jerdon  सन 1864 में भारतीय पक्षियों पर लिखी पुस्तक में बताते है की कई बार उन्होंने भी लगगर फॉल्कन द्वारा लैसर फ्लोरिकन (Lesser Florican) का शिकार किया है। वह बताते है की यह अपने शिकार का तेजी से पीछा करते है और पलक झपकते ही उसको दबोच लेते है। A O Hume अपनी पुस्तक The Nests and Eggs of Indian Birds में बताते हैं की यह पक्षी अक्सर पुरानी ऊँची इमारतों की दीवारों के खोखले स्थानों पर भी घोंसला बना लेता है। Hume बताते है की उन्होंने तुगलक शाह के भव्य मकबरे की बाहरी दीवारों तथा फत्तेतेपुर सीकरी के उच्च द्वार की पार्श्व दीवारों में इसके घोंसले देखे है।

वितरण/ Distribution:

लगगर फॉल्कन, भारतीय उपमहाद्वीप में भारत सहित, दक्षिणी-पूर्वी ईरान, दक्षिणी-पूर्वी अफगानिस्तान, पाकिस्तान, नेपाल, भूटान, बांग्लादेश और उत्तर-पश्चिमी म्यांमार में पाया जाता है। भारत में यह रेगिस्तानी और अर्ध-शुष्क क्षेत्रों में सामान्य तथा दक्षिणी भारत में दुर्लभ माना जाता है। राजस्थान में इसे ताल छापर वन्यजीव अभयारण्य में अच्छी संख्या में देखा जा सकता है, जहां वे प्रजनन के लिए भी जाने जाते हैं। ये पक्षी मुख्यरूप से खुले घास के मैदानों, झाड़ीनुमा जंगलों व खेतीबाड़ी वाले क्षेत्रों में देखे जाते है।

आहार व्यवहार/ Feeding Behaviour:

लगगर फॉल्कन की शिकार करने की कला अपने आप में ही बहुत अद्भुत व् अद्वितीय है क्यूंकि यह मुख्यतः आपसी समन्वय से जोड़े में तेज गति व् दृढ़ संकल्प के साथ अपने शिकार का पीछा कर उसे बीच आसमान में ही दबोच लेते हैं। इसकी चुस्ती-फुर्ती, तेज गति व् तेज नज़र इसे एक माहिर शिकारी बनाती है। लगगर फॉल्कन के भोजन में छोटे पक्षियों के साथ-साथ जेर्बिल, स्पाईनि-टेल्ड लिज़र्ड्स, अन्य छोटी छिपकलियाँ और कृन्तकों का समावेश है। दीक्षित (2018) ने लगगर फाल्कन के जोड़े को ड्रैगन फ्लाइज़ तथा कॉमन क्वेल को खाते हुए भी देखा है। मोरी (2018) ने एक लार्क का सेवन करते हुए भी देखा है।

स्पाईनि-टेल्ड छिपकली को खाते हुए लगगर फॉल्कन (फोटो: डॉ. धर्मेंद्र खांडल)

प्रजनन/ Breeding:

लगगर फॉल्कन के प्रजनन का समय जनवरी से मार्च तक होता है और इस समय में इनको आसानी से जोड़े में देखा जा सकता है। यह आमतौर पर अन्य शिकारी पक्षियों जैसे बाज, चील व कौआ आदि के पुराने घोंसलो को प्रयोग में लेते है। कभी-कभी ये अपने घोंसले पेड़ों के खोल व पुरानी इमारतों में भी बनाते है। घोंसला बनाने के लिए ये अकसर ऐसे स्थान का चुनाव करते है जहाँ बहुत सारे छोटे पक्षी और सरीसृप हो ताकि इन्हे आसानी से भोजन प्राप्त हो सके। इसके घोंसलों की स्थिति भिन्न होती है; जैसे कभी-कभी पीपल जैसे बड़े पेड़ों पर, तो कभी चट्टानों की दरारों में, और कभी-कभी प्राचीन इमारतों की दीवारों में जहाँ एक या दो पत्थर गायब हो जाते हैं। A O Hume अपनी पुस्तक The Nests and Eggs of Indian Birds में बताते हैं की इस पक्षी घोंसला जब पेड़ों पर बनाया जाता है, तो आमतौर पर लगभग 2 फीट व्यास का होता है। यह टहनियों और छोटी छड़ियों से बना होता है परन्तु जब यह किसी अन्य पक्षी के घोंसले पर कब्ज़ा कर लेते है तो यह और भी बड़े आकार का हो सकता है।

खतरे/ Threats:

लगगर फॉल्कन, भारतीय उपमहाद्वीप में पाए जाने वाला सबसे आम फॉल्कन हुआ करता था परन्तु पिछले कुछ वर्षों में इसकी संख्या में तेजी से गिरावट आयी है परिणाम स्वरूप आज यह कोई आम प्रजाति नहीं रही। BirdLife International के सर्वेक्षण के अनुसार आज लगगर फॉल्कन की कुल आबादी केवल 10000-19999 है और यह भी वर्ष प्रतिवर्ष घटती ही जा रही है। IUCN Red Data list के अनुसार यह एक सकंट के निकट अर्थात “Near Threatened” प्रजाति है। यह विभिन्न कारणों से है जैसे कि खेती में कीटनाशकों के उपयोग में तीव्रता से वृद्धि, मानव जनसँख्या का विस्तार, अज्ञानता के माध्यम से उत्पीड़न, अवैध व्यापार तथा बड़े फाल्कन्स को पकड़ने के लिए एक चारे के रूप में प्रयोग होने से संकट झेल रहा है।

इसके अलावा इसके कुछ  प्रमुख आहार जीवों की संख्या में गिरावट, जैसे कि स्पाइन टेल्ड लाइज़र्ड्स, लगगर फॉल्कन की प्रजनन सफलता पर भी नकारात्मक प्रभाव डालते है। लगगर फॉल्कन को हमारी मदद की जरूरत है और इसे अभी इसकी जरूरत है।

 

सन्दर्भ :

  • Rao, A., &Adaki, K., 2018. Notes on the breeding of the Laggar Falcon Falco jugger. Indian BIRDS 14 (5): 139–141.
  • Bhatt, N., Dixit, D. & Mori, D. 2018. Notes on distribution and plumages of Laggar Falcon in Gujarat. Flamingo Gujarat-Bulletin of Gujarat Birds 16(3): 1-7.
  • BirdLife International (2020) Species factsheet: Falco jugger. Downloaded from http://www.birdlife.org (http://www.birdlife.org) on 24/04/2020.
  • Grimmett, R., Inskipp, C. and Inskipp, T. 2014. Birds of Indian Subcontinent. Digital edition.
  • Gray, J.E. Illustrations Indian Zoology. Collection of Major general Hardwicke. Vol II
  • Hume, A.O. 1890. The Nest and Eggs of Indian Birds. 2nd Vol III.
  • Jerdon, T.C. 1864. Birds of India: Being the birds known to inhabit continental India. Vol III. George wyman and co., publishers, La, hare street, Calcutta.pp 623.
  • https://www.currentconservation.org/issues/thomas-hardwicke-1756-1835/

 

इंडियन स्पॉटेड-क्रीपर

इंडियन स्पॉटेड-क्रीपर

भारत का स्थानिक, इंडियन स्पॉटेड-क्रीपर एक दुर्लभ वृक्षीय पक्षी जो राजस्थान के शुष्क व् खुले जंगलों में खेजड़ी के पेड़ों पर गिलहरी की तरह फुदकते हुए पेड़ के तने से कीटों का सफाया करता है।

इंडियन स्पॉटेड-क्रीपर, एक छोटा पेसेराइन पक्षी जो राजस्थान के शुष्क खुले जंगलों में खेजड़ी व् रोहिड़े के पेड़ों पर नियमित रूप से  देखा जाता है। यह एक वृक्षीय पक्षी है जिसका रंग भूरे, काले व् सफेद रंग की धारियों और धब्बों का जटिल मिश्रण होता है जिसके कारण इसको एक सरसरी नज़र में देख पाना एक जटिल कार्य है। इसका वैज्ञानिक नाम “Salpornis spilonota” है। इसे पक्षी जगत के Certhiidae परिवार में ट्रिक्रीपर्स के साथ रखा गया है तथा यह सबफॅमिली सेलपोरनिथिनी (Salpornithinae) का सदस्य है। यह मुख्यरूप से उत्तरी और मध्य प्रायद्वीपीय भारत के शुष्क झाड़ियों और खुले पर्णपाती जंगलों में पाया जाता है और यह कहीं भी प्रवास नहीं करते है। इनका ट्रिक्रीपर्स के साथ समावेश निश्चित नहीं है तथा कुछ अध्ययन इन्हे नटहेचर से अधिक निकट पाते हैं। इनके पास ट्रिक्रीपर्स की तरह पूँछ में एक कड़ा पंख नहीं होता है तथा पेड़ पर लंबवत चढ़ने में यह अपनी पूँछ का इस्तेमाल नहीं करते हैं।

विवरण- इंडियन स्पॉटेड-क्रीपर, एक पेसेराइन पक्षी है और कभी-कभी इन्हे पर्चिंग बर्ड या सॉन्गबर्ड के रूप में जाना जाता है। यह चित्तीदार काले-सफ़ेद रंग का होता है, जो इसे पेड़ के तने पर छलावरण में मदद करता है। इसका वजन 16 ग्राम तक होता है, जो समान लंबाई (15 सेमी तक) के ट्रेक्रीपर्स से लगभग दोगुना होता है। अन्य पेसेराइन पक्षियों की तरह इनके पैर की उंगलियों (तीन आगे की तरफ और एक पीछे की तरफ) की व्यवस्था अन्य पक्षियों से अलग होती है, जो इसको पेड़ पर बैठने में मदद करती है। इसके पैरों का आकार भी कुछ अलग होता है जिसमे टार्सस छोटा तथा पीछे वाला पंजा पीछे की ऊँगली से काफी छोटा होता है। इसकी चोंच सिर की तुलना में थोड़ी सी लम्बी तथा पतली, नुकीली व् निचे की ओर झुकी हुई होती है, जिसका उपयोग यह छाल से कीड़े निकालने के लिए करता है। इसके पास ट्रिक्रीपर्स की तरह पूँछ में एक कड़ा पंख नहीं होता है जिसका प्रयोग ट्रिक्रीपर्स पेड़ पर लंबवत चढ़ने के दौरान करते हैं। इसकी आँखों के ऊपर सफ़ेद रंग की भौहें और नीचे गहरे रंग की पट्टी होती है। गाला सफ़ेद रंग का होता है। इसके पंख लम्बे व् सिरे से नुकीले होते है तथा प्राथमिक पंख कम विकसित होते है। पूंछ में बारह पंख होते हैं औरआकार में चौकोर होती है। इसमें नर व् मादा एक से ही दिखते है तथा जुवेनाइल रंग-रूप में वयस्क जैसे ही होते है।

इंडियन स्पॉटेड-क्रीपर पेड़ों की छाल से कीटों का सफाया करते है (फोटो: डॉ. धर्मेंद्र खांडल)

वितरण- यह कोई आम प्रजाति नहीं है, परन्तु फिर भी यह राजस्थान, गुजरात, हरियाणा, उत्तर प्रदेश, मध्य भारत, उड़ीसा, उत्तरी आंध्र प्रदेश के कुछ हिस्सों में पृथक रूप से देखने को मिलती है। राजस्थान में इसे ताल छापर वन्यजीव अभ्यारण्य में देखा जाता है जहाँ यह मुख्यरूप से खेजड़ी और रोहिड़े के पेड़ों पर पायी जाती है।

राजस्थान में यह मुख्यरूप से खेजड़ी और रोहिड़े के पेड़ों पर पायी जाती है (फोटो: डॉ. धर्मेंद्र खांडल)

प्रजनन – ब्रिटिश पक्षी विशेषज्ञ Edward Charles Stuart Baker अपनी पुस्तक The Fauna of British India में लिखते हैं की इसका प्रजनन काल फरवरी से मई तक होता है जिसमे यह एक क्षैतिज शाखा और ऊर्ध्वाधर तने के कोने पर छोटी जड़ों और डंठलों से एक कटोरे के आकार का घोंसला बनाते हैं। यह अपने घोंसले की सतह को पत्तियों, लाइकन और मकड़ी के जाले से कोमल बनाते है तथा घोंसले की बाहरी सतह को लाइकन, मकड़ी के अंडे के खोल और कैटरपिलर मलमूत्र से सजाते हैं। घोंसले की सतह भले ही कोमल व् नरम हो लेकिन मजबूत होती हैं। कई बार इसका घोंसला किसी गाँठ या अन्य उभार के पास भी होता है जिसके कारण उसे देख पाना मुश्किल होता है। ऐ ओ हयूम (A. O. Hume) अपनी पुस्तक “The nests and eggs of Indian birds” में लिखते है की ” मैंने अपने जीवन में ऐसा घोंसला कभी नहीं देखा” जो एक तरफ से जुड़ा हो और बाकि तीन तरफ से बिना किसी सहारे के पेड़ पर स्थायी रहे तथा पूरी तरह से पत्ती-डंठल, पत्तियों के छोटे टुकड़े, छाल, कैटरपिलर के गोबर से बने होने के बावजूद भी बिलकुल मजबूत, नरम व् लचीला हो।

व्यवहार एवं परिस्थितिकी- यह पक्षी अकेले या अन्य प्रजातियों के झुण्ड के साथ पेड़ों की छाल से कीड़े व् मकड़ियों को निकाल कर खाते हुए पाया जाता है। अक्सर यह वृक्ष के आधार से शुरू कर छोटे कीटों को खाते हुए धीरे-धीरे ऊपर बढ़ता है तथा जब यह वृक्ष के ऊपर पहुंच जाता है तो उड़ कर किसी अन्य वृक्ष के आधार से फिर से अपनी खोज शुरू कर देता है। अन्य वृक्ष के आधार के लिए नीचे उड़ान भरते समय यह एक बटेर की तरह प्रतीत होता है। ये जिस तरह से पेड़ के तने पर ऊपर और नीचे काम करते हैं, नटहैचर से मिलते-जुलते लगते हैं परन्तु यह ट्रिक्रीपर्स की तरह तने पर गोल-गोल चक्कर नहीं लगाते हैं। इसकी आवाज बढ़ते हुए टुई-टुई के कर्म में होती है और गीत सीटी की आवाज की तरह सनबर्ड जैसा होता है।

इंडियन स्पॉटेड-क्रीपर छोटे कीट के शिकार के साथ (फोटो: डॉ. धर्मेंद्र खांडल)

इतिहास –  इंडियन स्पॉटेड-क्रीपर को सबसे पहली बार मेजर जेम्स फ्रैंकलिन (James Franklin) ने सन 1831 में लैटिन भाषा में संक्षिप्त विवरण देते हुए, पूँछ में कठोर पंख की अनुपस्थिति के कारण जीनस Certhia में रखा और द्विपदनाम पद्धति के अनुसार “Certhia spilonota” नाम दिया। फ्रैंकलिन एक ब्रिटिश सैनिक होने के साथ-साथ भूविज्ञान के अधिकारी भी थे। इन्होने केंद्रीय प्रांतों (विंध्य हिल्स) का सर्वेक्षण किया और एशियाई सोसाइटी के लिए पक्षियों को एकत्रित किया और उनके चित्र भी बनाये। ये सभी पक्षियों के नमूने लंदन की जूलॉजिकल सोसायटी में भेजे गए, लेकिन उनके चित्रों को कलकत्ता में एशियाई सोसाइटी में वापस आने के लिए निर्धारित कर दिए गए।

कुछ वर्षों बाद सन 1847 ब्रिटिश संग्रहालय के पक्षीविज्ञान विभाग के प्रमुख जॉर्ज रॉबर्ट ग्रे (George Robert Gray) ने एक नया जीनस Salpornis बनाया और इस प्रजाति को “Salpornis spilonota” के रूप में इस जीनस में रख दिया। जब अफ्रीका में ऐसी ही प्रजाति और पाई गईं, तो उन्हें भारतीय प्रजाति की उप-प्रजाति के रूप में जोड़ दिया गया। फिर सन 1862 में पक्षी विशेषज्ञ TC Jerdon ने भारतीय पक्षियों पर लिखी पुस्तक में इस पक्षी का विस्तार से विवरण दिया। Jerdon अपनी पुस्तक में बताते है की यह पक्षी विवरणकर्ता फ्रेंकलिन और होड्गसन को प्राप्त होने के बाद से कहीं किसी और को कभी नहीं मिला यहाँ तक की पक्षी विशेषज्ञ Blyth और Jerdon को भी नहीं मिला।

कुछ वर्षों बाद सन 1867 में एक अंग्रेजी भूविज्ञानी और प्रकृतिवादी विलियम थॉमस ब्लैनफोर्ड (W. T. Blanford.), The Ibis (ब्रिटिश ऑर्निथोलॉजिस्ट्स यूनियन की वैज्ञानिक पत्रिका) के संपादक को पत्र में लिखते है की उन्होंने लम्बे समय से खो चुके “Salpornis spilonota” की फिर से खोज कर ली है और उनको यह नागपुर और गोदावरी नदी के आसपास के जंगलों में मिला है।

सन 1873 में R. P. LeMesurier, Stray Feathers (भारतीय पक्षी विज्ञान की पत्रिका) के संपादक A. O. Hume को पत्र में लिखते है की उन्होंने जबलपुर, मध्य प्रांतीय क्षेत्र में चाबुक से एक स्पॉटेड क्रीपर “Salpornis spilonota” मारा है। वह पक्षी एक बड़े पीपल के पेड़ के तने पर गिलहरी की तरह फुदक रहा था।

Bulletin of British Ornithologist’s Club के वर्ष 1926 के संकरण में कर्नल और श्रीमती मीनर्ट्ज़घेन ने भारत से कुछ नयी पक्षी प्रजातियों का विवरण भेजा। जिसमे उन्होंने स्पॉटेड-क्रीपर की एक नयी उपप्रजाति Salpornis spilonotus rajputana का विवरण दिया, जिसको उन्होंने अजमेर व् सांभर झील के आसपास देखा था। वे बताते है की इस पक्षी का रंग थोड़ा हल्का और काळा-सफ़ेद निशाँ थोड़े कम होते है। परन्तु आजतक अन्य किसी भी शोध व् अध्यन्न ने ऐसी किसी भी उपप्रजाति का जिक्र नहीं किया है।

राजस्थान के ताल छापर वन्यजीव अभ्यारण्य में अक्सर पक्षिविध्द केवल इसी एक पक्षी को देखने आते है, इस बार आप भी प्रयास करो इसे देख पाओ I  

सन्दर्भ:
  • Baker, E.C.S. (1922). “The Fauna of British India, including Ceylon and Burma. Birds. Volume 1”. v.1 (2nd ed.). London: Taylor and Francis: 439.
  • Franklin, James (1831). “[Catalogue of birds]”. Proceedings of the Committee of Science and Correspondence of the Zoological Society of London. Printed for the Society by Richard Taylor. pt.1-2 (1830-1832): 114–125.
  • Blanford, W.T. (1867). “[Letters]”. Ibis. 2. 3 (4): 461–464. doi:10.1111/j.1474-919x.1867.tb06444.x.
  • Hume, Allan O. (1889). The nests and eggs of Indian birds. Volume 1 (2nd ed.). London: R.H. Porter. pp. 220–221.
  • Jerdon, TC (1862). Birds of India. Vol 1. George Wyman & Co. p. 378.
  • Blanford, William T. (1869). “Ornithological notes, chiefly on some birds of Central, Western and Southern India”. The Journal of the Asiatic Society of Bengal. Bishop’s College Press. v.38 (1869): 164–191.
  • LeMesurier, R.P. (1874). “[Letters to the Editor]”. Stray Feathers. 2: 335.