आबू पर्वत के गुलाबों का इतिहास

आबू पर्वत के गुलाबों का इतिहास

गुलाब रोजेसी कुल के रोज़ा वंश (Rosa Genus) की एक जानी पहचानी झाडी है। यूँ तो सार्वजनिक उद्यानों से लेकर लोगों  के घरों तक में तरह – तरह के गुलाब लगे मिल जायेंगे लेकिन राज्य में केवल माउन्ट आबू में ही जंगली गुलाब उगे मिलते हैं। जंगली अवस्था में ये गुलाब आबू पर्वत के उपरी ठंडे व अधिक नमी वाले भागो मे वन क्षेत्र, खेतों/उद्यानों  एवं प्लान्टेशनों की जैविक बाड़ में ’’हैज फ्लोरा’’ के रूप में उगते हैं। कुल मिलाकर यहाँ मुख्य रूप से गुलाब की तीन प्रजातियाँ उगती हैं। जिनकों रोजा ब्रुनोई (रोजा मस्काटा), रोजा मल्टीफ्लोरा तथा रोजा इन्वोल्यूक्रेटा (रोजा ल्येलाई, रोजा नोफिल्ला) नाम से जाना जाता है।

वैसे तो हर प्रजाति अपने में विशिष्ट है लेकिन जंगली गुलाब की रोजा इन्वोल्यूक्रेटा कुछ खास है क्योंकि राजस्थान की यह प्रजाति ’’रैड डेटा बुक’’ में दर्ज प्रजाति है। माउन्ट आबू क्षेत्र मे इसे कूजा गुलाब के नाम से जाना जाता है। इस प्रजाति को माउन्ट आबू क्षेत्र में ऊँचाई पर बहुत सी जगह देखा जा सकता है।

रोजा इन्वोल्यूक्रेटा की पहचान

यह एक झाडी स्वभाव का सीधा बढने वाला या दूसरी वनस्पतियों का सहारा लेकर खडा रहने वाला पौधा है। इसके काँटे सीधे होते हैं। इस गुलाब की पत्तीयाँ अन्य गुलाबों की तरह पिच्छकीय रूप से संयुक्त प्रकार की होती हैं तथा 3-4 जोडे पत्रकों सहित कुल 7-9 पत्रक एक पत्ती में पाये जाते हैं। पत्रकों के किनारे सूक्ष्म दांतेदार होते हैं। शाखाओं के शीर्ष पर अकेला एक फूल या कुछ ही संख्या में फूलों का गुच्छा पैदा होता है। फूलों का रंग सफेद या गुलाबी होता है। तीनों प्रजातियों को निम्न गुणों से पहचाना जा सकता है:

क्र.सं. विभेदक गुण रोजा ब्रुनोई रोजा मल्टीफ्लोरा रोजा इन्वोल्यूक्रेटा
1. पत्रकों की संख्या 5-9 5-9 7-9
2. काँटों के गुण हुक की तरह घुमावदार सीधे या लगभग सीधे सीधे
3. फूलों का रंग  सफेद सफेद या गुलाबी सफेद या गुलाबी
4. फूल लगने ढंग शाखाओं के शीर्ष पर बडे गुच्छों में शाखाओं के शीर्ष पर बडे गुच्छों में पिरामिडाकार रूप में शाखाओं के शीर्ष पर एक फूल या गिनी चुनी संख्या में छोटे गुच्छों में
5. फूलों की गंध भीनी-भीनी भीनी-भीनी भीनी-भीनी
6. पुष्पकाल सर्दी सर्दी कमोबेश पूरे साल
7. आवास  वन्य उद्यान व घर के अहाते वन्य

माउन्ट आबू पर उद्यानों व घरों मे रोजा इन्डिका नामक गुलाब भी सुन्दर फूलों हेतु उगाया जाता हैै लेकिन सर्वाधिक महत्वपूर्ण रोजा इन्वोल्यूक्रेटा प्रजाति है। यह गुलाब बंगाल व नेपाल का मूल निवासी है जो हिमालय की तलहटी से लेकर उत्तरप्रदेश, बंगाल, कर्नाटक, गुजरात से लेकर म्यांमार तक फैला हुआ है। आजादी से पूर्व अंग्रेजों द्वारा आबू पर्वत में 1909 मे इस प्रजाति को उद्यानिकी पौधे के रूप में उगाना प्रारम्भ किया गया था। उद्यानों में कटाई – छंटाई कर फैंकी टहनियों एवं संभवतः बीजों द्वारा भी यह जंगल में जा पहुँचा एवं स्थापित होकर समय के साथ अपना प्राकृतिकरण कर लिया। आवास बर्बादी एवं आवास बदलाव के कारण यह प्रजाति संकट में घिर गई एवं आई. यू. सी. एन. द्वारा इसे रेड डेटा प्रजाति घोषित करना पड़ा।

इस प्रजाति को बचाने के लिये राजस्थान वन विभाग के वन वर्धन कार्यालय वन अनुसंधान केन्द्र बाँकी, सिसारमा, जिला उदयपुर में कटिंग रोपण से इसकी संख्या बढाने हेतु प्रयास किये गए। यह खुशी की बात है कि कटिंग रोपण द्वारा रोजा इन्वोल्यूक्रेटा की संख्या बढाने का प्रयोग सफल रहा। उदयपुर, गोगुन्दा, जरगा, कुम्भलगढ, गढबोर (चारभुजा) आदि उदयपुर एवं राजसमंद जिलों में ऐसे क्षेत्र हैं जहाँ रोजा इनवोल्यूक्रेटा को पौधशालाओं में पनपाया जा सकता है तथा रोपण कर इस प्रजाति का जीनपूल भी बचाया जा सकता है। लेकिन सबसे अच्छा प्रयास यह रहेगा की वन्य अवस्था में उगने वाली गुलाबों को माउन्ट आबू क्षेत्र में ही बचाये रखने के प्रयास किये जायें क्योंकि यहाँ की जलवायु इनके लिये सर्वाधिक उपयुक्त है एवं वर्षों से ये यहाँ के पारिस्थितिकी तंत्र का हिस्सा बन चुकी हैं।

माउन्ट आबू क्षेत्र मे विदेशी झाडी लेन्टाना का प्रसार, प्राकृतिक आवासों का विघटन तथा आग की घटनायें जंगली गुलाबों के बडे दुश्मन हैं। इन दोनों कारकोें को उचित प्रबन्धन द्वारा नियंत्रित किया जा सकता है। इसमे न केवल जंगली गुलाब बल्कि अनेक दूसरी प्रजातियों को भी संरक्षित करने में मदद मिलेगी।

गुलाब की कुछ किसमें राजस्थान में कृषि क्षेत्र में भी उगाई जाती हैं। जयपुर जिले के जमवारामगढ क्षेत्र में गंगानगरी गुलाब उगाया जाता है जिसके फूल जयपुर मंडी में बिकने आते हैं। उदयपुर जिले मे हल्दीघाटी क्षेत्र के आस-पास ’’चैतीया गुलाब’’ की खेती की जाती है। चैत्र माह में जब यहाँ खेेतों में गुलाब फूलता है तो नजारा ही कुछ और होता है। चैतीया गुलाब की पंखुडियों से गुलकंद बनाया जाता है जिससे किसानों को अच्छी आय मिलती है। लेकिन सिंचाई की पर्याप्त व्यवस्था न होने से हल्दीघाटी में गुलाब फूल उत्पादन घटता जा रहा है।

झीलों की नगरी उदयपुर शहर का ’’गुलाब बाग’’ या सज्जन निवास उद्यान भी अपने गुलाबों के कारण विख्यात है। यहाँ अनेक किस्मों के गुलाब रोपित किये गये हैं। इनके नाना रंगो  के फूलों को देखना हर किसी को आनंदित करता है।

क्या राजस्थान में भी ऑर्किड होते हैं?

क्या राजस्थान में भी ऑर्किड होते हैं?

ऑर्किड़ वानस्पतिक कुल ऑर्किडेसी के सदस्य होते हैं। वानस्पतिक जगत में कैक्टस एवं ऑर्किड अपने खूबसूरत फूलों के लिये जाने व पसंद किये जाते हैं। कैक्टस जहाँ सूखी व गर्म जलवायु पसंद करते हैं वहीं आर्किड नम एवं ठंडी जलवायु चाहते हैं। राजस्थान के बारे में सामान्य जानकारी रखने वाला सुदूर रहने वाला गैर-राजस्थानी प्रायः यही धारणा रखता है कि राजस्थान एक सूखा, रेगिस्तानी, तपता हुआ राज्य होगा। लेकिन यह सत्य नहीं है। जैसे ही ऐसी धारणा वाले लोगों को पता चलता है कि राजस्थान में खूबसूरत फूल देने वाले ऑर्किड भी अच्छी खासी संख्या में उगते हैं तो उनका चौंकना लाजिमी है। आइये आपको मिलाते है राजस्थान के सुन्दर ऑर्किडों से जो जगह-जगह जंगलों को आबाद किये हुऐ हैं।

राजस्थान में 10 वंश के 19 प्रजातियों के आर्किड अभी तक ज्ञात हो चुके हैं। इनमे थलीय आर्किडों की 13 तथा उपरिरोही आर्किडों की 6 प्रजातियाँ ज्ञात हैं। हैबेनेरिया वंश के ऑर्किड राजस्थान में सर्वाधिक ज्ञात हैं। इस वंश की 5 प्रजातियों को अभी तक राजस्थान  से ढूँढा जा चुका है।

नीचे प्रस्तुत सारणी मे राजस्थान के ऑर्किडों की एक झलक मिलती है:

क्र.सं.   आवास प्रजातियाँ   मिलने के कुछ ज्ञात स्थान
1. उपरिरोही एकैम्पे प्रेमोर्सा (Acampe praemorsa) सीतामाता अभ्यारण्य, फुलवारी की नाल अभ्यारण्य, फलासिया क्षेत्र अन्तर्गत नला गाँव के वन क्षैत्र आदि
2. उपरिरोही एरीडीज क्रिस्पम (Aerides crispum) बाँसवाडा वन क्षेत्र, फुलवारी की नाल अभ्यारण्य, उदयपुर जिले के वन क्षेत्र, माउन्ट आबू, डुँगरपुर वन क्षेत्र, सीतामाता अभ्यारण्यआदि
3. उपरिरोही एरीडीज मैक्यूलोसम
(Aerides maculosum)
सिरोही, फुलवारी की नाल, नला गाँव के क्षेत्र (फलासिया रेंज) आदि
4. उपरिरोही एरीडीज मल्टीफ्लोरम (Aerides multiflorum) माउन्ट आबू
5. उपरिरोही वैन्डा टैसीलाटा(Vanda tessellata) सांगबारी भूतखोरा, पीपल खूँट, पूना पठार (सभी बाँसवाडा जिले के वन क्षेत्र), फुलवारी की नाल, सीतामाता माउन्ट आबू, शेरगढ अभ्यारण्य बाँरा जिला में सीताबाडी, मुँडियार नाका के जंगल, कुण्डाखोहय  प्रतापगढ वन मंडल के वन क्षेत्र आदि
6. उपरिरोही वैन्डा टैस्टेशिया(Vanda testacea)   माउन्ट आबू
7. थलीय ऑर्किड एपीपैक्टिस (Epipactis veratrifolia)  मेनाल क्षेत्र
8. थलीय ऑर्किड नर्वीलिया  ऑरैगुआना(Nervilia aragoana) सीतामाता अभयारण्य, फुलवारी की नाल अभयारण्य, नला गाँव के आस पास के वन क्षेत्र (रेंज फलासिया एवं उदयपुर) आदि
9. थलीय ऑर्किड जुक्जाइन स्ट्रेटूमैटिका (Zeuxine strateumatica)  मांगरोल, अटरू (बाँरा), कुम्भलगढ अभयारण्य, निवाई, दुर्गापुरा (जयपुर), मेजा बाँध (भीजवाडा), झोला (बाँसवाडा), दौसा, टॉडगढ (अजमेर), खाजूवाला (बीकानेर), 34 जी.बी. (श्रीगंगानगर) आदि
10. थलीय ऑर्किड यूलोफिया ऑक्रीएटा (Eulophia ochreata घाटोल रेंज के वनक्षेत्र, माउन्ट आबू, सीतामाता अभयारण्यय पट्टामाता (तोरणा प्), तोरणा प्प् (रेंज ओगणा, उदयपुर), फुलवारी की नाल अभयारण्य, कुम्भलगढ अभयारण्य, गौरमघाट (टॉडगढ-रावली अभयारण्य) आदि
11. थलीय ऑर्किड यूलोफिया हर्बेशिया(Eulophia herbacea)   गामडी की नाल एवं खाँचन की नाल (फुलवारी अभयारण्य)
12. थलीय ऑर्किड हैबेनेरिया डिजिटाटा(Habenaria digitata)    सीतामाता अभयारण्य, शाहबाद रेंज वन क्षैत्र, माउन्ट आबू आदि
13. थलीय ऑर्किड है. मार्जिनाटा(H. marginata)  माउन्ट आबू अभयारण्य
14. थलीय ऑर्किड है.फर्सीफेरा(H. furcifera) फुलवारी की नाल अभयारण्य, कुम्भलगढ अभयारण्य,  गोगुन्दा तहसील के वन क्षेत्र एवं घास के बीडे, सीतामाता अभयारण्य आदि
15. थलीय ऑर्किड है.प्लैन्टीजीनिया(H. plantaginea) उभेश्वर वन क्षेत्र (उदयपुर)
16. थलीय ऑर्किड है.लॉन्गीकार्नीकुलेटा(H. longicorniculata) माउन्ट आबू अभयारण्य, गोगुन्दा व झाडोल रेंज के वन क्षेत्र (उदयपुर), कुम्भलगढ अभयारण्य
17. थलीय ऑर्किड पैटीस्टालिस स्टोक्सी ( Peristylus stocksy) माउन्ट आबू
18. थलीय ऑर्किड पैरीस्टाइलिस कॉन्सट्रिक्ट्स (Peristylus constrictus) सीतामाता एवं फुलवारी की नाल अभयारण्य
19. थलीय ऑर्किड जीयोडोरम रीकर्वम(Geodorum recurvum)  सीतामाता अभयारण्य

ऑर्किडों की दृष्टी से राजस्थान में माउन्ट आबू, फुलवारी की नाल (फुलवाडी की नाल) एवं सीतामाता अभयारण्य सबसे समृद्ध हैं। इन तीनों अभ्यारण्यों में जलीय एवं उपरिरोही दोनों स्वभावों वाले ऑर्किड पाये जाते हैं। शेरगढ अभयारण्य मे भी दोनों स्वभावो वाले ऑर्किड पाये जाते हैं। कुम्भलगढ एवं टॉडगढ रावली अभ्यारण्यों में केवल थलीय आर्किडों की उपस्थिती दर्ज है। इस तरह अभी तक राजस्थान के निम्न तरह कुल 6 अभयारण्यों में आर्किडों की निश्चायत्मक उपस्थिती दर्ज हुई है:

क्रमांक संरक्षित क्षेत्र का नाम ऑर्किडों का प्रकार
1.           माउन्ट आबू अभयारण्य वृक्षिय (उपरिरोही) एवं थलीय
2.       फुलवारी की नाल अभयारण्य  वृक्षिय (उपरिरोही) एवं थलीय
3.        सीतामाता अभयारण्य   वृक्षिय (उपरिरोही) एवं थलीय
4.  शेरगढ अभयारण्य वृक्षिय (उपरिरोही) एवं थलीय
5.         कुम्भलगढ अभयारण्य   थलीय
6.         टॉडगढ रॉवली अभयारण्य थलीय

राजस्थान में ऑर्किडों का सबसे सघन जमावडा गुजरात सीमा पर स्थित उदयपुर जिले की कोटडा एवं झाडोल तहसीलों में फैली फुलवारी की नाल अभयारण्य में पाया जाता है। यहाँ कटावली जेर नामक स्थान मे अम्बावी से लेकर डैया व कवेल तक महुआ कुंजों मे उपरिरोही ऑर्किडों की विद्यमानता से बना प्राकृतिक ’’ ऑर्किडेरियम’’ देखने लायक है। मध्य जून से मध्य अगस्त तक यहाँ ऑर्किडों के फुलों को देखने का आनन्द लिया जा सकता है। मानसून के जल्दी या विलम्ब से आने एवं हवा की नमी की स्थानीय अवस्थायें पुष्पन को थोडा आगे-पीछे कर देती हैं। इसी अभयारण्य में अम्बावी से अम्बासा तक की यात्रा में भी उपरिरोही  ऑर्किडों को पुष्पन काल में देखने का आनन्द लिया जा सकता है। फुलवारी की नाल में गामडी की नाल एवं खाँचन की नाल में जगह – जगह स्थलीय ऑर्किडों को जून से सितम्बर तक देखा जा सकता है।

सीतामाता एवं माउन्ट आबू अभयारण्य भी अपने आर्किडों हेतु जाने जाते हैं। सीतामाता अभयारण्य में आम, चिरौंजी एवं महुओं पर उपरिरोही ऑर्किडों की अच्छी उपस्थिती दर्ज है। वाल्मिक आश्रम से सीतामाता मंदिर के रास्ते के दोनों तरफ, आरामपुरा एवं जाखम डैम रोड के आस- पास के क्षेत्र उपरिरोही ऑर्किडों के सुन्दर आश्रय स्थल हैं। वाल्मिकी आश्रम के आसपास का क्षेत्र थलीय ऑर्किडों को देखने का अद्भुत स्थान है। यहाँ वर्षा ऋतु में थलीय ऑर्किडों की मनोहारी झाँकी अद्भुत होती है। खास कर नर्वीलिया ऑरैगुआना का जून माह में पुष्पन तथा वर्षा का दौर प्रारंभ होते ही पत्तियों की फुटान का दृश्य अतुलनीय नजारा पेश करते हैं।

माउन्ट आबू में उपरीरोही ऑर्किड खजूरों, एरीथ्रीना, आम, जामुन आदि पर मिलने हैं। यहाँ ऑर्किडों के पनपने की सबसे अनुकूल प्राकृतिक दशायें विद्यमान हैं। विभिन्न ट्रेलों पर भ्रमण के दौरान लैन्टाना की झाड़ियों मेें छुपे एवं घासों में स्थित थलिय ऑर्किड वर्षाकालीन भ्रमण का आनंद बढा देते हैं।

शेरगढ अभयारण्य में महुओं पर उपरिरोही ऑर्किड जगह – जगह मिलते हैं। बाराँ जिले की शाहबाद तहसील में जायें तो वैन्डा, टैसीलाटा ऑर्किड महुओं व चिरौंजी के बडे आकार व पुराने वृक्षों पर आसानी से देखे जा सकते हैं।

वन विभाग, राजस्थान ने अपनी आर्किड संपदा को परिस्थितिकी पर्यटन से जोडने का गंभीर प्रयास किया है। वन मण्डल उदयपुर (वन्यजीव) अन्तर्गत फुलवारी की नाल अभयारण्य में पानरवा रेंज अन्तर्गत वन विश्राम गृह के पास एक छोटा ऑर्किडेरियम (आर्किड उद्यान) स्थापित किया है जहाँ राजस्थान के ऑर्किडों का संग्रह किया गया है। इस उद्यान का उद्घाटन तत्कालीन वन मंत्री श्री गजेन्द्र सिंह खींवसर ने 18 अगस्त, 2017 को किया था। इस उद्यान को जून से सितम्बर तक देखना आनन्ददायक होता है क्योंकि उस समय यहाँ आर्किडों में सुन्दर रंग – बिरंगे फूल आ जाते हैं।

ऑर्किडों के प्रति जन – जागृति लाने एवं राजस्थान के ऑर्किडों की जानकारी जन सामान्य को देने हेतु 27 से 29 जुलाई, 2018 के उदयपुर में सज्जनगढ अभयारण्य के मुख्य द्वार के सामने ’’आर्किड प्रदर्शनी’’ भी वन विभाग द्वारा लगाई गई जिसमें राजस्थान के ऑर्किडों का आम जनों को दिग्दर्शन कराया गया।

सार  रूप में हम कह सकते हैं राजस्थान की जलवायु भले ही सूखी और गर्म हो लेकिन यहाँ 19 प्रजातियों के ऑर्किड पाये जाते हैं जिनका सार निम्न हैः

क्र.सं. आवास वंश जातियाँ
1. उपरिरोही अकम्पे मोरसा 1
2. उपरिरोही एरीडीज 3
3. उपरिरोही वैन्डा  2
4. थलीय ऐपीपैक्टिस  1
5. थलीय नर्वीलिया 1
6. थलीय जुक्जाइन 1
7. थलीय यूलोफिया 2
8. थलीय हैबेनेरिया   5
9. थलीय पैरीस्टाइलिस 2
10. थलीय जीयोडोरम   1

राजस्थान के वनों में और ऑर्किड प्रजातियाँ मिलने की प्रबल संभावना है। फुलवारी, सीतामाता, कुम्भलगढ, माउन्ट आबू एवं शेरगढ अभयारण्यों एवं उनके आस- पास (खास कर झाडोल, कोटडा, गोगुन्दा एवं शाहबाद तहसीलो के वन क्षेत्र) के वनों में गहन अध्ययन एवं सर्वेक्षण की जरूरत है क्योंकि यहाँ की सूक्ष्म जलवायु जगह-जगह आर्किडों हेतु बहुत उपयुक्त है। आशा है आने वाले वर्षों में हमें राजस्थान मे नए आर्किडों का और पता चल सकेगा।

संदर्भ: इस लेख की अधिकांश सूचनाऐ लेखक की प्रकाशित निम्न पुस्तक पर आधारित हैं:

Sharma, S.K. (2011): Orchids of Desert and Semi – arid Biogeographic Zones of India

राजस्थान में फैलने वाली नयी विदेशी वनस्पतियां

राजस्थान में फैलने वाली नयी विदेशी वनस्पतियां

वैसे तो खरपतवार की परिभाषा कोई आसान नहीं है परन्तु फिर भी खरपतवार वे अवांछित पौधे होते हैं जो किसी स्थान पर बिना बोए उगते हैं। ये खरपतवार मुख्यरूप से विदेशी मूल की वनस्पत्तियाँ होती है तथा इसीलिए पारिस्थितिक तंत्र में इनके विस्तार को सिमित रखने वाले पौधे व् जानवर नहीं होते हैं। ये पौधे स्थानीय मनुष्य समुदाय के कोई खास उपयोग में नहीं आते, तथा मनुष्यों, खेती, वनों व पयार्वरण पर बुरा प्रभाव डालते है। खरपतवार मुख्यतः दो प्रकार के होते हैं – एक वे जो स्थानीय पौधों के प्रति आक्रामक रूख अपनाते हैं जैसे ममरी (जंगली तुलसी), लैन्टाना कमारा (बेशर्म), प्रोसोपिस जूलीफ्लोरा (विलायती बबूल) आदि। दूसरी श्रेणी के खरपतवार वे हैं जो स्थानीय पौधों के साथ प्रतियोगिता कर उनके विकास को रोकते है लेकिन आक्रामक रूख प्रदर्शित नहीं करते हैं।  

आज राजस्थान में कई विदेशी वनस्पतियां फैल रहीं हैं जिनके बारे में अभी शोध किया जाना बाकी है जैसे जंगली तुलसी (Hyptis suaveolens) और छोटी फली का पुँवाड (Cassia absus/Senna uniflora)।

जंगली तुलसी (Hyptis suaveolens) वत Mesosphaerum suaveolens

जंगली तुलसी (ममरी), तुलसी यानी लेमियेशी (Lamiaceae) कुल की वनस्पति है तथा इसका वैज्ञानिक नाम हिप्टिस सुवियोलेन्स (Hyptis suaveolens) हैं। यह अमेरिका के गर्म प्रदेशों की वनस्पति है परन्तु आज यह तेजी से हमारे देश के वनों, खेतों, शहरों, गाँवों, सडक व रेल मार्गों के किनारे तथा पडत भूमि में फैलता जा रहा है। इसे राजस्थान सहित कर्नाटक, आन्ध्रप्रदेश, तेलंगाना, महाराष्ट्र, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ, गुजरात आदि राज्यों में दूर-दूर तक फैले हुए देखा जा सकता है। भारतीय पारिस्थितिक तंत्र में यह तेजी से प्राकृतिक (Naturalized) होती जा रही है। घने जंगलों से होकर जैसे ही नई सडकें बनाई जाती है तब वृक्ष छत्रों के हटने से प्रकाश भूमि तक पहुँचता है और यदि ऐसे में कहीं से भी इसके बीज प्रकीर्णन कर वहां पहुँच जायें तो यह तेजी से सडक के दोनों तरफ उग जाती है। यह सुंगधित, वार्षिक तथा शाकीय वनस्पति है जो 2 मीटर तक ऊँची होती है एवं पास-पास उग कर सघन झाड-झंखाड (Thickets) का रूप ले लेती है। इसका तना चौकोर, दृढ एवं रोमों से ढका हुआ होता है। इसके फूल 2 से 5 के गुच्छों में शाखाओं पर लगते हैं तथा यह सालभर फूल व फल देता है लेकिन विशेष रूप वर्षा ऋतु से लेकर गर्मी आने तक हरा भरा रहता है। इसके बीज पानी में डालने पर सफेदी लेते हुये फूल जाते हैं।

जंगली तुलसी “Hyptis suaveolens” (फोटो: प्रवीण कुमार)

चराई रोधक प्रजाति

तीव्र गंध के कारण पालतू या वन्य पशु इसे नहीं खाते अतः जहाँ भी यह वनस्पति भी उगी होती है चराई से सुरक्षित रहती है।

वानिकी गुण

यह अधिक प्रकाश में उगने वाली, चराई प्रतिरोधी वनस्पति है जो अपेक्षाकृत अधिक नमी वाले स्थानों पर उगती है। इस वनस्पति का प्रत्येक पौधा बडी संख्या में फूल, फल व बीज पैदा करता है। एक हैक्टयर में उगे पौधे लाखों बीज पैदा करने की क्षमता रखते हैं। चराई से बचे रहने के कारण इस प्रजाति का हर पौधा बीज पैदा करता है। इस तरह प्रतिवर्ष इस प्रजाति के पौधों की संख्या व विस्तार क्षेत्र बढता ही जाता है।

हानिकारक प्रभाव

जंगली तुलसी के पौधे पास-पास उगने एवं 2.0 मी तक लम्बे होने के कारण, घास व अन्य कम ऊँचाई के स्थानीय पौधों तक प्रकाश नहीं पहुँचने देते है। पानी एवं स्थान की प्रतियोगिता कर यह स्थानीय प्रजातियों के विकास को रोकते है फलतः घास एवं स्थानीय पौधे सामाप्त होने लगते हैं। जिसके कारण चारे की कमी होने लगती है एवं आवास बर्बाद हो जाता है। इन सबसे न केवल पालतु बल्कि वन्यजीवों पर भी बुरा प्रभाव पडता है। इस प्रजाति की वजह से जैव विविधता घटने लगती है। यह वन्यजीवों के आवासों व चारागाहों को भी बर्बाद कर देता है।

छोटी फली का पुँवाड (Senna uniflora/Cassia absus)

राजस्थान में फैलने वाली यह सबसे नयी खरपतवार है जो दक्षिणी एवं मध्य भारत में दूर-दूर तक फैल गयी है। संभवतः मध्यप्रदेश एवं गुजरात के क्षेत्रों से चरकर आने वाली भेडों द्वारा यह खरपतवार राजस्थान में आयी है। अभी तक यह हाडोती क्षेत्र में फैलती हुई मेवाड एवं वागड क्षेत्र (डूंगरपुर एवं बांसवाडा) में दस्तक दे चुकी है। उदयपुर जिले में वर्ष 2019 तक यह मंगलवाड से डबोक के बीच राष्ट्रीय उच्च मार्ग के दोनों तरफ जगह-जगह नजर आने लगी है। संभवतः राष्ट्रीय उच्च मार्ग के निर्माण कार्य हेतु कई जगहों से लाई गई मिट्टी व भारी उपकरणों के साथ इसके बीज उदयपुर जिले में प्रवेश कर गए हैं। इसके फैलाव को देखते हुए यह प्रतीत होता है की अगले कुछ ही वर्षाे में यह खरपतवार उदयपुर शहर तक पहुँच जाएगी। यह वनस्पति भी आसपास के क्षेत्र में स्थानीय घासों एवं छोटे कद के शाकीय पौधों को नहीं पनपने देती है।

छोटी फली का पुँवाड “Senna uniflora” (फोटो: प्रवीण कुमार)

नियन्त्रण:

  • वर्षा ऋतु में जब पौधों में फूल आने लगे तब ही (बीज बनने से पहले) उखाड कर ढेर में संग्रह किये जाने चाहियें। छोटे-छोटे क्षेत्रों से हटाने की बजाय खेतों, वनों, आबादियों से पूरे परिदृश्य में नियन्त्रण प्रांरभ करना चाहिये।
  • इनको काट कर ढालू क्षेत्रों में ऊपर की तरफ नहीं बल्कि सबसे निचले क्षेत्रों में पटकना चाहिये ताकी बीजों का पानी से प्रकीर्णन न हो। इनका उन्मूलन पहाडी क्षेत्रों में ऊपर से नीचे की तरफ तथा समतल क्षेत्रों में केन्द्र से परिधि की तरफ बढना चाहिये। नदियों के किनारे जल ग्रहण के ऊपरी क्षेत्रों से नीचे की तरफ उन्मूलन संपादित करना चाहिये।
  • इनको काट कर या जलाकर नहीं बल्कि जड सहित उखाड कर नष्ट किया जाना चाहिये।
  • वनों की निरन्तरता में जहाँ खेत हैं वहाँ वन व खेत की सीमा मिलन स्थल पर गहरी खाई बना देनी चाहिये ताकि वन क्षेत्र के पानी के साथ बह कर आये बीज खेत में नही बल्कि खाई में गिर जावें एवं खेत में प्रसार न करें।
  • एक बार हटाने के बाद हर साल वर्षा में अनुसरण करें तथा नये उगने वाले पौधों को उसी साल उखाड कर नष्ट कर दें। यह सब फूल व बीज बनने से पूर्व किया जावे।

 

यूँ तो विदेशी पौधों की लंबी सूची है लेकिन राजस्थान में पाए जाने वाली कुछ दुर्दान्त विदेशी मूल के खरपतवार निम्न हैं

क्र.सं

आवास

नाम 

फैलाव के मुख्य क्षेत्र

1

थलीय

विलायती बबूल (Prosopis juliflora)

लगभग संपूर्ण राजस्थान

2

थलीय

गाजर घास (Parthenium hysterophorus)

अतिशुष्क क्षेत्रों को छोडकर लगभग संपूर्ण राजस्थान

3

थलीय

बेशर्म (Lantana camara

नमी युक्त वन क्षेत्र, घाटियाँ, पहाडियों के निचले ढाल, नदी-नालों के नमी युक्त तट, जलाशयों के आसपास एवं आबादी क्षेत्र

4

थलीय  

सफेद बेशर्म (Lantana wightiana

अरावली पर्वतमाला के ढाल व तलहटी क्षेत्रों में

5

थलीय 

पुँवाड (Cassia tora)

अति शुष्क क्षेत्रों को छोडकर लगभग संपूर्ण राजस्थान

6

थलीय

जंगली तुलसी,ममरी (Hyptis suaveolens)

हाड़ौती क्षेत्र, बांसवाडा, डूंगरपुर, प्रतापगढ, भीलवाडा, चित्तौडगढ एवं राजसमन्द जिलों के क्षेत्र

7

थलीय

छोटी फली का पुँवाड (Cassia uniflora)

हाड़ौती क्षेत्र, बांसवाडा, डूंगरपुर, प्रतापगढ, भीलवाडा, उदयपुर, चित्तौडगढ

8

जलीय

जल कुंभी (Eichhornia crassipes )

हाड़ौती के जलाशय, उदयपुर के जलाशय, सिलीसेढ (अलवर), भरतपुर के जलाशय

 

 

Kharchia Wheat : Red Indigenous Wheat Of Pali-Marwar For Saline Soils

Kharchia Wheat : Red Indigenous Wheat Of Pali-Marwar For Saline Soils

While working with farmers in Pali district I came across a local land race of wheat which is popularly known as kharchia wheat in the entire district. It is a very interesting to know as to how this variety get this name. Actually the origin of this wheat is from Kharchi village and the village was named kharchi due to high salt content in the soil and water available here.In local dilalect kharch means salt. Kharchia wheat is universally recognized as highly salt tolerant wheat genotype. This local land race is extensively used for the development of high yielding saline resistant variety namely Kharchia 65, KRL 1-4, KRL 39 and KRL 19. The metabolism and uptake of mineral get affected due to high concentration of salt in the soil. However, Kharchia can withstand the effects of salinity more efficiently. This is being used as the base material for the development of salt tolerant wheat variety not only in India but in other countries as well. Considering its potential value for future Crop Improvement programme, it has been registered in the NBPGR, New Delhi by the Directorate of Wheat Research, Karnal vide registration number INGR 99020. The Kharchia wheat is grown in kharchi village for a number of generations. The main region of growing this cultivar is high tolerance of salinity. Very low irrigation is required for kharchia wheat than other hybrid wheat varieties and at places where water is not available. It is also grown as rain fed on conserved soil moisture. Another feature of this variety is the plants are tall with more straw content so that the farmer gets more fodder along with grains for feeding to animals. The animals like the straw of kharchia wheat more than other wheat straw.

USES OF KHARCHIA WHEAT :

  1. It is primarily used for making chapatis. Taste of chapati is sweet and stays fresh for longer time.
  2. It is also used for making Dalia. Dalia is very tasty and fed to pregnant lady before and after delivery for better health care of mother.
  3. In storage no insect- pests are attracted on grains, hence it can be stored for long duration.
  4. It has high water use efficiency hence Dalia prepared from kharchia is very tasty and nutritive.
  5. It is also used for making ladoos by mixing sugar or jaggery with dry fruits which are used for feeding pregnant women.
  6. Used for making bati and churma (famous Rajasthani dishes).

Realizing the importance of this local land race we documented and applied for the PPV&FR Authority, New Delhi Plant Genome Saviour Community (PGSC) Award for kharchi village community . These awards are conferred every year to group of farmers and particularly the tribal and rural communities engaged in conservation, improvement and preservation of genetic resources of economic plants and their wild relatives particularly in the areas identified as agro bio-diversity hot-spots.  The Authority constituted six teams for on-spot verification of the activities of the applicants finalized for Plant Genome Savior Community (PGSC) Awards, 2012-13. Finally the community of farmers, Kharchi village got this prestigious award which consist of a cash of Rs. 10 lakh, a citation and a memento which are given away by Honorable Agriculture Minister in a special function convened by the Authority at NASC Complex, New Delhi.

farmer with kharchia wheat
FARMER COUPLE WITH PREPARATIONS MADE FROM KHARCHIA WHEAT

ABOUT KHARCI VILLAGE

LOCATION

Kharchi village is located 32 Km towards East from district headquarters Pali. It is a Gram Panchayat and has major contribution in the cultivation of Kharchia wheat. The total geographical area of this panchayat is about 12,224 sq km. Out of which 85 per cent of land area is used for agricultural practices with only four percent is irrigated area. Livestock is also one of the important sector allied with agriculture. The agro based industrial sectors of this district includes mainly henna industries, dal industries and milk processing plant.

kharchia wheat growing area in rajasthan

Kharchi has its own historical background during the time of Jog Maya Mandir. At that time, Kharchi village was the main business centre and marketing place for surrounding three villages and Panchayat Samiti Marwar Junction. This village and its surrounding land is so much affected by salt that it seems that someone had deposited a salt layer on the soil. Due to deposition of salt the land turns white from above and locally it is called as Kharach so by this character the village got the name Kharchi. Agriculture is the main occupation of the village people. Cluster bean, Moong, Til are grown in Kharif and Kharchia Wheat, Chickpea, Cumin, and Barley in Rabi is the major agricultural crops. Dairy sector is emerging in the village and currently the village is producing about 2500 litters milk per day and main animals like cattle, buffalo, sheep and goat. Ber, aonla and lahsora are the main horticultural crops of Kharchi village.

CLIMATIC CONDITIONS Arid to Semi-arid, 20-250 C
SOIL TYPE Loam to sandy loam, salinity is predominant
SEED RATE 100-120 kg/ha (depending on soil type).
METHOD OF SOWING Under conserved moisture conditions Under irrigated condition: 4-5 irrigation
YIELD16-32 qt/ha. (Depending upon the quality of salinity of soil and water indicating the lowest and highest yield)
MAJOR PESTS Termites
DISEASE Yellow rust, Black smut

QUALITY PARAMETERS OF KHARCHIA WHEAT:

S.N.CHARACTERISTICSKHARCHIA WHEAT NORMAL WHEAT
1.Grain Color RedGenerally Amber
2.Grain TextureSemi-HardSemi Hard To Hard
3.Chapati1.Soft (soft for eating and can be used for two days)
2. Chapati prepared in morning is used with butter milk in the after noon gives more taste
1.Soft-semi-soft (can be used up to 4-5 hours on the same day only
2. Soft-semi-soft (can be used up to 4-5 hours on the same day only
4.Dalia 1.Absorbs plenty of water for cooking and gives more quantity after cooking.
2. Gives more taste due to absorption of more water
1.Absorbs less water
2.less tasty as compared to kharchia wheat
5.Bran More bran Less bran
6.Khichdi (Dalia+dal +ghee) Given to the pregnant ladies, being light, there is less pressure on other body parts. It is light for stomach, increases blood and gives energy. Normal
7.Salt affected water Yield High production 16-32 qt/ha Low production 10-15q/ha
8.Straw yield More due to tallness Less due to short height
9.Marketing approach Used by local people migrants from this region prefer to purchase bulk stock for the entire year from illagers/growers directly. Well established market channels.
farmers receiving award for growing kharchia wheat
FARMERS OF KHARCHIA VILLAGE RECEIVING AWARD

Since, the land of the village is mostly saline, therefore, Kharchia a local land race of wheat is cultivated in the village Kharchi and adjoining area in Pali District of Rajasthan. The Kharchi village is having 1200 bighas under kharchia wheat. The average yield of the Kharchia wheat is about 16-30 quintal per hactare. The yield potential is lower when cultivated in the saline soil and the yield increases, if the irrigation facilities are available and land is normal. The farmers only use Farm Yard Manure (FYM) in the fields. The Kharchia wheat is cultivated on conserved moisture mostly and without use of chemical fertilizers. Kharchia local is shared with surrounding villages and therefore it is cultivated in the neighborhood villages. The village is also visited by farmers of other places like Chennai, Pune, Bangalore, Hyderabad who visit them for purchase of Kharchia wheat for consumption and sowing purpose, who are well aware about its quality. Most of the villagers have confirmed the information about the Kharchia wheat landrace and its salient features. Out of interaction from the women folk, it was ascertained that the Kharchia wheat land race is very nutritive and healthy and the laddu and barfi are also made out of flour of Kharchia wheat by adding sugar and dry fruits.  These laddu’s are given as a nutritive dish to the mother of the infants (newly born baby) a week or ten days after delivery. The dalia and lapsi are also commonly used in the houses for daily use in the breakfast. It was also informed by the women that the wheat flour absorbs high quantity of water in the kneading of dough and the keeping quality of chapatti remain fresh within 24 hours and never dries up like other wheat varieties.

आकल जीवाश्म उद्यान, जैसलमेर

आकल जीवाश्म उद्यान, जैसलमेर

आकल जीवाश्म उद्यान (Akal Fossil Park or Akal Wood Fossil Park)  राजस्थान का एक दर्शनीय स्थान है। यह उद्यान जैसलमेर-बाडमेर रोड पर जैसलमेर से लगभग 15 किलोमीटर दूर स्थित है तथा 21 हैक्टेयर क्षेत्र में फैला हुआ है। यहाँ जुरैसिक काल के प्रारंभिक चरण में कोई 180 मिलियन यानी 18 करोड वर्ष पूर्व डायनासोरों के युग में समुद्र में बने जीवाश्म इधर -उधर छितरी  अवस्था में देखे जा सकते हैं। वन विभाग, राजस्थान इस पार्क की देखभाल करता है। वैसे तो यहाँ भूमि की सतह पर वृक्षों के तने, फल, बीज, घोंघों आदि के जीवाश्म बिखरे पडे हैं लेकिन यहाँ 25 वृक्षों की तने की लकडी के जीवाश्म विशेष रूप से दर्शनीय हैं जिनमे 10 बहुत स्पष्टता से नजर आते हैं। उनमे एक तो 7.0 मी लंबा व 1.5 मी चौडा है।

कुछ जीवाश्मों को जो अधिक अच्छी स्थिति में हैं तथा आकार में बडे हैं, इनको सुरक्षा देने हेतु उन्हें चारो तरफ व ऊपर जाली से ढक कर अतिरिक्त सुरक्षा प्रदान की गई है। कुछ जीवाश्म खुले भी रखे गये हैं। यहाँ बडे जीवाश्मों को यथास्थिती (मूल स्थिती) में प्रदर्शित किया गया है लेकिन छोटे जीवाश्मों व बडे जीवाश्मों के टुकडों को एक ‘‘जीवाश्म म्यूजियम’’ में प्रदर्शित किया गया है। बडे वृक्षों के तने के जीवाश्म भूमि पर लेटी अवस्था में विद्यमान हैं। ऐसा माना जाता है कि राजस्थान के पश्चिमी भाग में प्राचीन समय मे टैथिस महासागर था जिसमें अनेक नदियां गिरती थी। नदियों के तटों तथा जलग्रहण क्षेत्र में सघन वन थे जिनमें चीड, देवदारू आदि के रिश्तेदार जिम्नोस्पर्म वर्ग के ऊँचे – ऊँचे वृक्षों की काफी बहुतायतता थी। इसी वर्ग का एक पौधा ऑरोकैरियोक्सीलोन बीकानेरेन्स बीकानेर जिले में मिला है। तेज वर्षा के समय भूमि कटाव व बाढ की स्थिति में खडे वृक्ष उखड जाते थे तथा क्षैतिज पडी अवस्था में बहते-बहते समुद्र में पहुँच जाते थे। उनके नर्म भाग जैसे पत्ते आदि शीघ्र सड जाते थे लेकिन लकडी, फल-बीज आदि दृढकोत्तकों से बने कठोर भाग धीरे- धीरे सडते थे। ऊपर से बहकर आयी गाद में दबे, धीरे -धीरे सडते अनेक वृक्षों के कठोर भाग ’’पैट्रीफिकेशन’’ प्रक्रिया के दौरान अपने शरीर के मूल तत्वों को सिलिका व अन्य लवणों से विस्थापित होने की प्रक्रिया से गुजरे। पर्त-दर-पर्त गाद के नीचे दबने से भारी दबाव के कारण उनके सडने से बचे रह गऐ भाग पत्थरों में बदल गये जो आज जीवाश्मों के रूप में मिलते हैं। इन जीवाश्मों की आन्तरिक सूक्ष्म रचना इनकी मूल संरचना सेे हूबहू मिलती है। जीवाश्मों के अलावा राजस्थान के रेगिस्तान व गुजरात के कच्छ में डीजल-पैट्रोल, गैस एवं कोयला जगह-जगह मिलते हैं जो यहाँ प्राचीन काल में जीवन होने के स्पष्ठ संकेत हैं। ये सब चीजें जीव-जन्तु व पेड-पौधों के समुद्र में गाद की पर्तो के नीचे बहुत गहराई में दबने से बनती हैं। वास्तव में राजस्थान का रेगिस्तान व गुजरात का कच्छ क्षेत्र प्राचीन जीवन के प्रमाणों से भरे पडे हैं।

जीवाश्मों के बनने में समुद्रों की भूमिका बहुत अहम होती है। ऐसा जगह – जगह देखने को मिलता है। टैथिस सागर की तरह ही आज के अरब सागर की एक शाखा गुजरात के दक्षिणी भाग से होती हुई आज के मध्य प्रदेश में नर्मदा नदी की घाटी में दूर तक फैली हुई थी। सागर की इस शाखा में भी गिरने वाली नदियों में बह कर आये पेड – पौधों व जीव जन्तुओं के जीवाश्म, उसी तरह बने जैसे राजस्थान में बने। यहाँ के जीवाश्मों की एक झलक मध्य प्रदेश के डिन्डोरी जिले में स्थित फॉसिल नेशनल पार्क, घुघुवा में ली जा सकती है। इस उद्यान की देखभाल मध्यप्रदेश वन विभाग द्वारा की जाती है। यहाँ 65 मिलियन वर्षों पूर्व के जीवाश्म देखे जा सकते हैं। लेकिन आकल जीवाश्म उद्यान के जीवाश्म कहीं अधिक प्राचीन हैं, अतः उनका अपना अलग ही महत्व है।