अंटलायन यानि चींटो का सिंह एक मजेदार कीट है, जो अपने जीवन चक्र में अंततः क्या से क्या बन जाता है, और अपने शिकार चींटो को मारने का एक ऐसा घातक तरीका अपनाता है, जिसमें उसकी निर्माण कला और भौगोलिक समझ दोनों ही बखूबी परिलक्षित होती हैं। आपने खुले इलाकों में जमीन पर कीप के आकर के छोटे-छोटे गड्ढे देखे होंगे। इनमें रहने वाले कीट को भी अवस्य देखा होगा।
Photo: Dr. Dharmendra Khandal
शायद इस कीट को कुछ लोगो ने चींटी का शिकार बनाते हुए भी देखा होगा। यह ग्रामीण आँचल में बच्चों के खेल का एक हिस्सा भी हुआ करता है। बड़े बच्चे इस कीप नुमा गड्ढे में चींटी डाल कर उसे अंटलायन से पकड़वाते हैं। खैर यह कितना सही हैं, गलत हैं, इस सवेंदनशील विषय को छोड़ते हैं बात करते हैं इस कीट की जो कीप नुमा गड्ढे में छुपा रहता है।
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अंटलायन एक ऐसा कीट है जिनके बच्चे ज्यादा लोग जानते हैं जबकि इसका वयस्क कीट से बहुत लोग अनभिज्ञ ही रहते हैं। अंटलायन का वयस्क कीट पंखो वाला एक ड्रैगनफ्लाई जैसा दिखने वाला कीट है। जबकि कीप नुमा खड़े में रहनेवाला अंटलायन का ही लार्वा है। यह गड्ढे चीटियों को पकड़ने के साधन हैं।
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लार्वा कीपनुमा खड्ढा उन स्थानों पर बनता हैं जहाँ मिटटी नरम हो एवं चीटियों का रास्ता हो। कई बार यह चींटी द्वारा जमीन से निकाली गयी नरम मिटटी में ही उसे बना देताहै। कई बार यह गाय भेंसो के खुरो से नरम हुए रास्ते की मिटटी में अपना कीप बनता है। कीप का निचला हिस्सा जिस प्रकार संकरा होता है इनके खड़े का आकर भी उसी के अनुसार होता है।
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जब कोई चींटी इस गढ़े में गलती से आ जाये तो उसके लिए फिर से बाहर निकलना बहुत मुश्किल होता हैं एवं इसी बीच अंटलायन का लार्वा उसे अपने तीखे दंशो से मजबूती से पकड़ कर नीचे की तरफ लेजा कर इसे अपना शिकार बना लेता है। इनके लार्वे जिस प्रकार के वयस्क बनते हैं अविश्वनीय लगता है।
कार्वी, राजस्थान का एक झाड़ीदार पौधा जिसकी फितरत है आठ साल में एक बार फूल देना और फिर मर जाना…
कार्वी एक झाड़ीदार पौधा है जिसे विज्ञान जगत में “स्ट्रोबाइलैंथस कैलोसा (strobilanthes callosa)” कहा जाता है। भारत में कई स्थानों पर इसे मरुआदोना नाम से भी जाना जाता है। एकेंथेंसी (Acantheceae) कुल के इस पौधे का कुछ वर्ष पहले तक “कार्वीया कैलोसा (Carvia Callosa)” नाम रहा है। यह उधर्व बढ़ने वाला एक झाड़ीदार पौधा है जो पास-पास उगकर एक घना झाड़ीदार जंगल सा बना देता है। इसकी ऊंचाई 1.0 से 1.75 मीटर तक पाई जाती है और पत्तियां 8-20 सेंटीमीटर लंबी एवं 5-10 सेंटीमीटर चौड़ी व् कुछ दीर्घवृत्ताकार सी होती हैं जिनके किनारे दांतेदार होते हैं। पत्तियों में नाड़ियों के 8-16 जोड़े होते हैं जो स्पष्ट नज़र आते हैं। कार्वी में अगस्त से मार्च तक फूल व फल आते हैं। इसपर बड़ी संख्या में बड़े आकार के गहरे नीले रंग के आकर्षक फूल आते हैं और फूलों के गुच्छे पत्तियों की कक्ष में पैदा होते हैं तथा दूर से ही नजर आते हैं।
कार्वी एक झाड़ीदार पौधा है और इसपर बड़ी संख्या में बड़े आकार के गहरे नीले रंग के आकर्षक फूल आते हैं। (फोटो: श्री महेंद्र दान)
भारतीय वनस्पतिक सर्वेक्षण विभाग (Botanical Survey of India) द्वारा प्रकाशित “फ्लोरा ऑफ राजस्थान” के खण्ड-2 के अनुसार राजस्थान में यह पौधा आबू पर्वत एवं जोधपुर में पाया जाता है। इसके अलावा यह महाराष्ट्र, कर्नाटक, मध्यप्रदेश और पश्चिमी घाट की पहाड़ियों में दूर-दूर तक फैला हुआ है तथा मध्यप्रदेश में सतपुड़ा बाघ परियोजना क्षेत्र में इसका अच्छा फैलाव है।
आलेख के लेखक ने अपनी वन विभाग में राजकीय सेवा के दौरान इसे “फुलवारी की नाल, सीता माता एवं कुंभलगढ़ अभयारण्य” में जगह-जगह अच्छी संख्या में देखा है। सीता माता अभयारण्य में भागी बावड़ी से वाल्मीकि आश्रम तक यह खूब नज़र आता है और फुलवारी की नाल में खांचन से लोहारी की तरफ जाने पर “सोना घाटी क्षेत्र में दिखता है। दक्षिणी अरावली में यह प्रजाति अच्छे वन क्षेत्रों में कई जगह विद्यमान है। कमलनाथ, राम कुंडा, लादन, जरगा आदि वन खंडों में यह पायी जाती है। जरगा पर्वत पर बनास नदी के उस पार से नया जरगा मंदिर की तरफ यह झाडी जगह-जगह वितरित है। जब इसमें फूल आ रहे हो उस समय इसको ढूंढना है पहचानना बहुत सरल हो जाता है।
माउंट आबू अभयारण्य में कार्वी के फूलों को देखते हुए पर्यटक (फोटो: श्री महेंद्र दान)
फूल देना और फिर मर जाना है फितरत इसकी…
स्ट्रोबाइलैंथस वंश के पौधों का फूल देने का तरीका सबसे अनूठा है। इनमें 1 से 16 वर्षों के अंतराल पर फूल देने वाली भिन्न-भिन्न प्रजातियां ज्ञात हैं। इस वंश में “कुरंजी या नील कुरंजी (strobilanthes kunthiana)” सबसे प्रसिद्ध है जो हर 12 वर्ष के अंतराल पर सामुहिक पुष्पन करते हैं और फिर सामूहिक ही मृत्यु का वरण कर लेते हैं।
इस प्रजाति में नीलगिरी के पश्चिमी घाट के अन्य भागों में वर्ष 1838,1850,1862,1874,1886,1898,1910,1922,1934,1946,1958,1970,1982,1994, 2006 एवं 2018 में पुष्पन हुआ है अगला पुष्पन अब 2030 में होगा। स्ट्रोबाइलैंथस वेलिचाई में हर साल, स्ट्रोबाइलैंथस क्सपीडेट्स में हर सातवे साल तो राजस्थान में उगने वाले स्ट्रोबाइलैंथस कैलोसा अथवा कार्वी में हर आठवे साल फूल आते हैं।
राजस्थानी कार्वी करता है एक शताब्दी में बारह बार पुष्पन
राजस्थान में पायी जाने वाली प्रजाति स्ट्रोबाइलैंथस कैलोसा आठ साल के अंतराल पर पुष्पन करती है इसके पौधे 7 साल तक बिना फूल पैदा किए बढ़ते रहते है और आठवां वर्ष इनके जीवन चक्र के लिए एक अहम वर्ष होता है। वर्षा प्रारंभ होते ही गर्मी का मारा सूखा-सूखा सा पौधा हरा भरा हो जाता है तथा अगस्त से पुष्पन प्रारंभ करता है। पुष्पन इतनी भारी मात्रा में दूर-दूर तक होता है कि, आप दिनभर झाड़ियों के बीच ही रहना पसंद करते हैं। चारों तरफ बड़े-बड़े फूलों का चटक नीला रंग अद्भुत नजारा पेश करता है ऐसे समय में मधुमक्खियां, तितलियां,भँवरे व अन्य तरह-तरह के कीट-पतंगे व पक्षी फूलों पर मंडराते नजर आते हैं।
पुष्पन का यह क्रम 15-20 दिन तक चलता है तत्पश्चात फल बनने की प्रक्रिया प्रारंभ हो जाती है। वर्षा समाप्ति के बाद भूमि व पौधे के शरीर की नमी का उपयोग कर फल बढ़ते व पकते रहते हैं और मार्च के आते-आते फल पक कर तैयार हो जाते हैं लेकिन बीज नीचे भूमि पर न गिरकर फलों में ही फंसे रह जाते हैं। (फोटो: श्री महेंद्र दान)
इधर राजस्थान में अप्रैल से गर्मी का मौसम शुरू हो जाता है और 8 साल का जीवन पूर्ण कर कार्वी खड़ा-खड़ा सूख जाता है यानी पौधे का जीवन समाप्त हो जाता है। इस तरह के पौधे को प्लाइटेशियल (plietesials) कहा जाता है। ऐसे पौधे कई साल बढ़वार करते हैं तथा फिर एक साल फूल देकर मर जाते हैं। अरावली में यही व्यवहार बांस का है जो 40 साल के अंतराल पर फूल व बीज देकर दम तोड़ देता है। प्लाइटेशियल पौधे की एक विशेषता और है कि, यह पौधे अधिक मात्रा में बीज पैदा करते हैं यह व्यवहार मास्टिंग (Masting) कहलाता है।
मानसून काल प्रारंभ होने पर वर्षा जल एवं हवा में मौजूद नमी को कार्वी का आद्रताग्राही फल सोख लेता है तथा फूलकर फटता हुआ कैद बीजों को बाहर उड़ेल देता है। बीज बिना इंतजार किए सामूहिक अंकुरण करते हैं और वनतल से विदा हुए बुजुर्ग कार्वी पौधों का स्थान उनके “बच्चे” यानी नए पौधे ले लेते हैं। अब यह नन्हे पौधे अगले 7 साल बढ़ते रहेंगे और अपने पूर्वजों की तरह आठवे साल पुष्पन करेंगे। इस तरह दो शताब्दीयो में कोई 25 बार यानी एक शताब्दी में 12 बार (या तेरह बार) पुष्पन करते हैं।
राजस्थान में सीता माता, फुलवारी, आबू पर्वत एवं कुंभलगढ़ में इस प्रजाति के पुष्पन पर अध्ययन की जरूरत है। इसके 8 साल के चक्रीय पुष्पन को ईको-टूरिज्म से जोड़कर स्थानीय लोगों को रोजगार के अवसर भी उपलब्ध कराए जा सकते हैं।
पौधशालाओं में पौध तैयार करके दक्षिण राजस्थान में इस प्रजाति का विस्तार भी संभव है। कार्वी क्षेत्रों में तैनात वनकर्मी भी इसपर निगरानी रखे तथा पुष्पन वर्ष की जानकारी आमजन को भी दे। वे स्वयं भी इसका आनंद लें क्योंकि राजकीय सेवाकाल में वे चार बार से अधिक इस घटना को नही देख पाएंगे।
“आइये जानते हैं श्री सोहनराम जाट के बारे में, एक ऐसे वनरक्षक के बारे में जिन्हें अपने परिवार से ज्यादा प्यारे हैं वन्यजीव और जो 365 दिन रहते हैं ऑन ड्यूटी…”
राजस्थान के चुरू जिले के सुजानगढ़ तहसील के छापर गांव में स्थित है “ताल छापर अभयारण्य”, जो खासतौर से अपने काले हिरणों और अलग-अलग प्रकार के खूबसूरत पक्षियों के लिए जाना जाता है। अभयारण्य का नाम इसी छापर गांव के नाम पर रखा गया है। काले हिरणों और देश-विदेश से आए पक्षियों को देखने के लिए यहां पूरे वर्ष ही पर्यटकों का जमावड़ा लगा रहता है। इसी ताल छापर अभयारण्य में पिछले 21 साल से एक वनरक्षक (फारेस्ट गार्ड) प्रकृति व वन्यजीवों के बीच में घुलमिलकर एक परिवार की तरह जीवन यापन कर रहा है।
गांव से 30 किलोमीटर की दूरी पर स्थित अपने भरे पूरे परिवार व सुख सुविधाओं को छोड़कर प्रकृति व वन्यजीवों के मोह ने उन्हें जंगल की हरी-भरी घास व प्राकृतिक छटाओ के बीच रहने को मजबूर कर रखा है। जंगल की रक्षा के लिए रोज मीलों दूर पेट्रोलिंग करना वर्तमान समय के अनुसार एक कठिन चुनौती तो है लेकिन, उनका शौक ही यही है कि, ये हमेशा 24 घंटे घूमते रहे। ये अपने परिवार से मिलने के लिए महीने में एक बार जाते हैं जिसमें भी शाम को जाते हैं और सुबह वाली बस में बैठकर अभयारण्य वापिस लौट आते हैं।
ताल छापर अभयारण्य”, जो खासतौर से अपने काले हिरणों और अलग-अलग प्रकार के खूबसूरत पक्षियों के लिए जाना जाता है। (फोटो: डॉ धर्मेंद्र खांडल )
इनके बारे में स्टाफ के साथी व संबंधित अधिकारी भी बताते हैं कि, घर पर भले ही ये किसी जरूरी काम में व्यस्त ही क्यूँ न हो लेकिन, विभाग से कोई जरूरी सूचना आती है तो ये घरेलू कार्य को छोड़कर तुरन्त अभयारण्य पहुँच जाते है। कभी-कभार बीच में ऐसा भी हुआ है कि, ये कार्य से कुछ दिनों की छुट्टी लेकर अपने घर जा रहे थे और इन्हें सुचना मिली कि, विभाग में कुछ जरुरी कार्य आया है तो तुरंत आधे रस्ते में ही बस से उतर एवं दूसरी बस में बैठ कर वापस आ जाते थे। यानी घर, परिवार, गांव व रिश्तेदार आदि से कहि गुना अधिक इन्हें प्रकृति व उसमें बस रहे जीवों से प्रेम है। दिन-रात उनकी सेवा में कभी पैदल तो कभी साइकिल से गस्त करना इनकी रोज़ की दिनचर्या है।
ऐसे कर्मठशील, प्रकृति व वन्यजीव प्रेमी वनरक्षक का नाम है “सोहनराम जाट”। जो कि पिछले 21 वर्षों से ऑफिस रेंज ताल छापर चुरू में तैनात है। सोहनराम का जन्म 1 जुलाई 1966 को चुरू जिले की सुजानगढ़ अब बिंदासर तहसील के सांडवा-भोमपुरा गांव के एक किसान परिवार में हुआ। उस समय मे कम उम्र में ही शादी का प्रचलन था तथा परिवार द्वारा इनका भी विवाह जल्दी ही करवा दिया गया। इनकी धर्मपत्नी “पतासी देवी” एक ग्रहणी है। इनके परिवार में तीन बेटा व एक बेटी है और इनका बड़ा बेटा विदेश में एक कम्पनी में नौकरी करता है बाकी बच्चे अभी पढ़ाई कर रहे हैं।
सोहनराम बताते है कि, बचपन में इनको खुद को पढाई से इतना लगाव नहीं था, पिताजी खेतीबाड़ी करते थे तो ये भी खेती के कार्यो में पिताजी का हाथ बंटाते थे।
गांव के पास स्थित एक पौधशाला में शाम के वक्त ये रोज़ जाया करते थे तो वहां पर मौजूद वनपाल ने इन्हें पौधशाला में काम करने के लिए कहा और भरोसा भी दिलाया कि, समयनुसार कभी नियमित भी हो जाओगे। सोहनराम जिस तरह घरेलू कार्यो में जुटते थे उसी तरह इन्होंने पौधशाला में काम की जिम्मेदारी भी ले ली। इनकी मेहनत के चलते दो साल बाद इन्हें वनकर्मी के रूप में नियमित नियुक्ति पत्र मिल गया।
पढाई में महज साक्षर होने के बावजूद इन्होंने वन व वन्यजीवों के महत्व को वन्यप्रेमी गहनता से समझा और चार साल गाव में स्थित पौधशाला में नौकरी करने के बाद इनका पदस्थापन रेंज ऑफिस ताल छापर चूरू में हो गया और पिछले 21 साल से अभी यहीं पर तैनात हैं।
वनविभाग में आने के बाद से लेकर आज तक सोहनराम का जीवन पूरी तरह से वन सेवा में समर्पित है और आज 55 साल की उम्र में भी उनके काम करने के हौसले व जज्बात दोगुनी हिम्मत के साथ बरकरार हैं।
वन्यजीवों को प्राथमिक उपचार देते हुए सोहनराम जाट
वर्ष 2009 और 2010 में आए भीषण चक्रवात से छापर ताल में वन सम्पदा व वन्यप्राणियों को काफी नुकसान उठाना पड़ा था। उस समय सोहनराम के लिए सैंकड़ो की संख्या में जीव जंतुओं की हानि एवं घायल होने का मंजर उनके जीवन का एक मुश्किल दौर था और इतना मुश्किल कि, उस पल को याद करके तो काफी दुःख होता है। उस परिस्थिति में लम्बे समय तक सोहनराम वन्यजीवों को बचाने व सुरक्षित स्थानों पर पहुचाने में लगे रहते थे और आठ से दस दिन तक लगातार जंगल में रहकर भोजन मिला तो खा लिया नही मिला तो नही ही सही लेकिन उस समय जितना हो सका वन्यप्राणियों को बचाया। सोहनराम के साथी बताते हैं कि, लगातार कई दिनों तक पानी में काम करने की वह से उनके पैरों में खड्डे पड़ गए थे परन्तु फिर भी सोहन सिंह पैरों पर कपडे की पट्टी बाँध कर दिन रात वन्यजीवों को बचाने में लगे रहे।
श्री सोहनराम जाट लगभग 24 घंटे सतर्क रहते हैं और अभ्यारण्य के आसपास गश्त करते हैं।
सोहनराम बताते हैं कि, ताल छापर अभयारण्य के आसपास बावरिया समाज के लोगों के कुछ ठिकाने हैं और यही लोग कई बार वन्यजीवों के शिकार की घटनाओं को अंजाम देते हैं। ऐसी परिस्थिति में सोहनराम अपने दिन के अधिकत्तर समय गश्त करते रहते हैं और लगभग 24 घंटे सतर्क रहते हैं। वे बताते हैं की गश्त के समय ये अवैध गतिविधियों की खोज खबर निगरानी के लिए इधर-उधर घूमते रहते हैं। और ऐसे ही एक बार इन्हें अभयारण्य से लगभग 20 किलोमीटर दूर स्थित कुम्हारों की ढाणी से सूचना मिली कि, तीन बावरिया समाज के लोगों ने हिरन का शिकार करा है। सुचना मिलते ही विभाग वालों ने एक टीम गठित की और एक निजी वाहन के साथ पुलिस को सूचना देकर अतिरिक्त जाब्ता भी मंगवाया। सोहनराम और उनकी टीम वहाँ से रवाना हुए और करीब साढ़े तीन घण्टे की मशक्कत के बाद वो शिकारी उनके हाथ लगे। उन शिकारियों के पास से एक मृत चिंकारा व लोमड़ी बरामद हुई। शिकारियों को तुरंत गिरफ्तार कर लिया गया व जांच पूरी होने के बाद उनको जेल भी हुई।
पकड़े गए शिकारियों के साथ सोहनराम जाट और उनकी टीम
एक बार ऐसी ही एक घटना अभयारण्य से 30 किलोमीटर दूर स्थित गांव के एक विशेष समाज के लोगों द्वारा की गई। ये लोग पहले भी कई शिकार की घटनाओं को अंजाम दे चुके थे। लेकिन गांव में किसी को गिरफ्तार करना या फिर पूछताछ करना एक चुनौती भरा कार्य था। ऐसे में परिस्थिति को समझते हुए सोहनराम ने अपने विभाग को और फिर पुलिस को सूचित किया। वन विभाग की टीम जैसे ही उस गाँव में पहुंची तो लोगों की भीड़ जमा हो गई और तभी पुलिस की टीम भी वहां आ पहुँची। तुरंत शिकारियों को गिरफ्तार किया व उनके पास एक चिंकारा और लोमड़ी की खाल बरामद हुई, साथ ही चार बन्दूक व तीन तलवारें भी जब्त की गई। पुलिस कार्यवाही के बाद उन लोगो को जेल भी हुई।
सोहनराम बताते हैं कि, अभयारण्य के आस-पास काफी संख्या आवारा कुत्ते घूमते रहते हैं जो वन्यप्राणियों को भी नुकसान पहुंचाते हैं क्योंकि ये कुत्ते 4 -5 के छोटे समूह में एक साथ एक हिरन पर हमला कर उसे घायल कर मार देते हैं। ऐसे में वन्य प्राणियों से उनकी सुरक्षा करना भी एक चुनौती हैं सोहनराम लगातार उनको सुरक्षा देने में लगे रहते हैं साथ घायल हिरणों का उपचार करके उसको सुरक्षित स्थान पर छोड़ देते हैं। सोहनराम बताते हैं कि, पहले वे जानवर के घायल होने पर डॉक्टर को बुलाते थे परन्तु धीरे-धीरे उन्होंने खुद घायल जानवरों का चोट-मोटा इलाज करना सीख लिया और अब वे खुद ही सभी जानवरों का इलाज करते हैं और अब तक ये कुल 300 हिरणों को बचा चुके हैं।
सोहनराम बताते हैं कि, तालछापर अभयारण्य के आसपास में काफी सारे गांव बसे हुए हैं और गांव में बसे हुए लोगों का वन्यजीवों व वनों से काफी लगाव है। उनसे विभाग वालों का भी काफी अच्छा तालमेल रहता है और वे विभाग के कार्य का पूर्ण रुप से समर्थन करते हैं। इसके चलते यहां पर अवैध चराई पर अवैध कटाई की घटनाएं बिल्कुल नहीं है और मैं भी पूर्ण जिम्मेदारी के साथ अपने कर्तव्य को निभाने की कोशिश करता रहता हूँ। मैं वर्ष के 365 में से 345-50 दिन तालछापर को देता हूँ और मेरा मन मेरे परिवार से ज्यादा तालछापर के लिए समर्पित है और मैं चाहता हूं कि, मेरे सेवाकाल के बाकी के 5 साल भी इसी तरह से वन सेवा में समर्पित रहे।
आज हमारे वन विभाग को सोहनराम जैसे और निष्ठावान कर्मियों की जरूरत है जो सदैव तत्पर रहकर वन्यजीवों के संरक्षण के लिए कार्य करें। हम सोहन सिंह के कार्य एवं जज्बे की सराहना करते हैं और आशा करते हैं कि, नए आने वाले नौजवान वन कर्मी उनसे बहुत कुछ सीखेंगे।
प्रस्तावित कर्ता: श्री सूरत सिंह पूनिया (Member of state wildlife board Rajasthan)
लेखक:
Shivprakash Gurjar (L) is a Post Graduate in Sociology, he has an interest in wildlife conservation and use to write about various conservation issues.
Meenu Dhakad (R) has worked with Tiger Watch as a conservation biologist after completing her Master’s degree in the conservation of biodiversity. She is passionately involved with conservation education, research, and community in the Ranthambhore to conserve wildlife. She has been part of various research projects of Rajasthan Forest Department.
छद्मावरण के लिए प्रसिद्ध गिरगिट की भांति क्या प्रेइंग मैंटिस भी अपना रंग बदलता है?
प्रेइंग मैंटिस एक अत्यंत माहिर शिकारी है जो एक स्थान पर लम्बे समय तक बिना हिले डुले एक तपस्वी की भांति बैठ अपने शिकार का इंतजार करता है। यह अक्सर फूलों एवं पत्तों में छिप कर रहता है।
Photo credit: Dr. Dharmendra Khandal
चूँकि आप जानते हैं फूलों में कीटो का आगमन अधिक होता है, अतः शिकार करना आसान भी होता है परन्तु किस रंग का फूल प्रेइंग मैंटिस के भविष्य में होगा अक्सर यह निर्धारित नहीं होता है। अतः कुछ प्रेइंग मैंटिस की प्रजातियों में देखा गया है कि, यह पृष्ठभूमि के अनुरूप अपना रंग बदल सकते है हालांकि यह बदलाव आंशिक होता है।
Photo credit: Dr. Dharmendra Khandal
वैज्ञानिक सम्भावना व्यक्त करते हैं कि, प्रकाश , नमी एवं तापमान यह तय करता कि, प्रेइंग मैंटिस का रंग क्या होगा। इन तीन छाया चित्रों में आप स्पष्ट देख सकते कि, किस प्रकार एक ही प्रेइंग मैंटिस की प्रजाति हरा, सफ़ेद एवं पीला रंग को दर्शा रही हैं।
वन्यजीवों की दुनिया में अक्सर आपने लीयूसिस्टिक (Leucistic), एल्बिनो (Albino) और मिलेनेस्टीक (Melanistic) जीव देखे होंगे, जिनका रंग अपनी प्रजाति के बाकि सदस्यों की तरह न होकर बल्कि बिलकुल सफ़ेद यानि रंगहीन या फिर कई बार अधिक काला होता है। सफ़ेद रंग वाले जीवों को लीयूसिस्टिक और एल्बिनो तथा काले रंग वाले जीवों को मिलेनेस्टीक कहते हैं।
परन्तु क्या आपने कभी इरिथ्रिस्टिक (erythristic) जीव देखे हैं ?
Photo credit: Mr. Niramay Upadhyay
इरिथ्रिस्टिक जीव उनको कहते हैं जो अपनी प्रजाति के बाकि सदस्यों से अलग एक असामान्य लाल रंग के होते हैं और इस प्रभाव को एरिथ्रिज्म (Erythrism) कहते हैं।
एरिथ्रिज्म के मुख्य कारण हैं जेनेटिक म्युटेशन, जो सामान्य रंग को कम या फिर बाकि रंगों को बढ़ा देता है।
Photo credit: Mr. Niramay Upadhyay
इरिथ्रिस्टिक जीव का एक उदाहरण आप इस चित्रकथा में दी गई तस्वीरों में देख सकते हैं। आम तौर पर हाउस स्पैरो में मादा और युवा पक्षी हल्के भूरे-ग्रे रंग के होते हैं, और नर में काले, सफेद और भूरे रंग के होते हैं, लेकिन इरिथ्रिस्टिक स्पैरो में असामान्य नारंगी-लाल के पंख दीखते हैं। इरिथ्रिस्टिक स्पैरो की यह तस्वीर उदयपुर के बेदला गाँव के पास ली गई है।
ऐसे ही बोत्सवाना (अफ्रीका) में एक इरिथ्रिस्टिक तेंदुआ भी देखा गया है जिसे स्ट्रॉबेरी लेपर्ड (Strawberry leopard) के नाम से जाना जाता है क्योंकि उसका रंग अन्य तेंदुओं से अधिक नारंगी-लाल है।