राजस्थान के शुष्क वातावरण में पाए जाने वाला वृक्ष “इंद्रधौक” जो राज्य के बहुत ही सिमित वन क्षेत्रों में पाया जाता है, जंगली सिल्क के कीट के जीवन चक्र में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है…
राजस्थान जैसे शुष्क राज्य के वनस्पतिक संसार में वंश एनोगिसस (Genus Anogeissus) का एक बहुत बड़ा महत्व है, क्योंकि इसकी सभी प्रजातियां शुष्क और अर्ध-शुष्क क्षेत्रों में मजबूत लकड़ी, ईंधन, पशुओं के लिए चारा तथा विभिन्न प्रकार के औषधीय पदार्थ उपलब्ध करवाती हैं। जीनस एनोगिसस, वनस्पतिक जगत के कॉम्ब्रीटेसी कुल (Family Combretaceae) का सदस्य है, तथा भारत में यह मुख्य रूप से समूह 5- उष्णकटिबंधीय शुष्क पर्णपाती वन का एक घटक है। यह वंश पांच महत्वपूर्ण बहुउद्देशीय प्रजातियों का एक समूह है, जिनके नाम हैं Anogeissus acuminata, Anogeissus pendula, Anogeissus latifolia, Anogeissus sericea var. sericea and Anogeissus sericea var. nummularia। दक्षिणी राजस्थान में उदयपुर शहर राज्य का एकमात्र ऐसा स्थान है जहाँ सभी पाँच प्रजातियों व् उप प्रजातियों को एक साथ देखा जा सकता है। सज्जनगढ़ अभयारण्य राज्य का एकमात्र अभयारण्य है जहाँ Anogeissus sericea var. nummularia को छोड़कर शेष चार प्रजातियों व् उप-प्रजातियों को एक साथ देखा जा सकता है।
Anogeissus sericea var. sericea, इस जीनस की एक महत्वपूर्ण प्रजाति है जिसे सामान्य भाषा में “इंद्रधौक” भी कहा जाता है। इसे Anogeissus rotundifolia के नाम से अलग स्पीशीज का दर्जा भी दिया गया है, यदपि सभी वनस्पति विशेषज्ञ अभी तक पूर्णतया सहमत नहीं है। इस प्रजाति के वृक्ष 15 मीटर से अधिक लम्बे होने के कारण यह राज्य में पायी जाने वाली धौक की सभी प्रजातियों से लम्बी बढ़ने वाली प्रजाति है। यह एक सदाबहार प्रजाति है जिसके कारण यह उच्च वर्षमान व् मिट्टी की मोटी सतह वाले क्षेत्रों में ही पायी जाती है। परन्तु राज्य में इसका बहुत ही सिमित वितरण है तथा सर्वश्रेष्ठ नमूने फुलवारी वन्यजीव अभयारण्य और उसके आसपास देखे जा सकते हैं। राजस्थान जैसे शुष्क राज्य के लिए यह बहुत ही विशेष वृक्ष है। गर्मियों के मौसम में मवेशियों में लिए चारे की कमी होने के कारण लोग इसकी टहनियों को काट कर चारा प्राप्त करते हैं, तथा इसकी पत्तियां मवेशियों के लिए एक बहुत ही पोषक चारा होती हैं। काटे जाने के बाद इसकी टहनियाँ और अच्छे से फूट कर पहले से भी घनी हो जाती हैं तथा पूरा वृक्ष बहुत ही घाना हो जाता है। इसकी पत्तियों पर छोटे-छोटे रोए होते है जो पानी की कमी के मौसम में पानी के खर्च को बचाते हैं।
वर्षा ऋतू में कभी-कभी इसकी पत्तियाँ आधी खायी हुयी सी दिखती हैं क्योंकि जंगली सिल्क का कीट इसपर अपने अंडे देते हैं तथा उसके कैटेरपिल्लर इसकी पत्तियों को खाते हैं। जीवन चक्र के अगले चरण में अक्टूबर माह तक वाइल्ड सिल्क के ककून बनने लगते हैं तो आसानी से 1.5 इंच लम्बे व् 1 इंच चौड़े ककूनों को वृक्ष पर लटके हुए देखा जा सकता है तथा कभी-कभी ये ककून फल जैसे भी प्रतीत होते है। यह ककून पूरी सर्दियों में ज्यो-के-त्यों लटके रहते हैं तथा अगली गर्मी के बाद जब फिर से वर्षा होगी तब व्यस्क शलम (moth) बन कर बाहर निकल जाते हैं। ककून बन कर लटके रहना इस शलम का जीवित रहने का तरीका है जिसमे इंद्रधोक एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। साथ ही इस प्रजाति के वृक्ष गोंद बनाते है जिनका विभिन्न प्रकार की दवाइयां बनाने में इस्तेमाल होता है। इसकी लकड़ी बहुत ही मजबूत होने के कारण खेती-बाड़ी के उपकरण बनाने के लिए उपयोग में ली जाती है।
राजस्थान में इंद्रधौक का वितरण बहुत ही सिमित है तथा ज्ञात स्थानों को नीचे सूची में दिया गया है:
क्रमांक | जिला | स्थान | संदर्भ |
1 | उदयपुर
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सज्जनगढ़ वन्यजीव अभयारण्य, फुलवारी वन्यजीव अभयारण्य |
Sharma, 2007; Aftab at el. 2016 |
पनारवा, मामेर, नालवा, लथुनी, बांकी रिजर्व फॉरेस्ट, देवास, डोडावाली, पीपलवास, बारी, पलियाखेड़ा, ब्राह्मणों का खैरवाड़ा, चंदवास, मालपुर, डाकन कोटरा, वास, ओगना, सालपोर, रूपसागर (केशव नगर, उदयपुर) | स्वयं देखा | ||
2 | सिरोही | माउंट अबू वन्यजीव अभयारण्य | Aftab at el. 2016 |
3 | अलवर | अलवर | Shetty & Singh, 1987 |
4 | सीकर | सीकर | Shetty & Singh, 1987 |
5 | बांसवाड़ा | कागदी, भापोर नर्सरी | स्वयं देखा |
6 | राजसमंद | नाथद्वारा, घोड़ाघाटी | स्वयं देखा |
7 | जालौर | सुंधा माता पहाड़ी, हातिमताई बीड़ | स्वयं देखा |
ऊपर दी गयी तालिका से यह स्पष्ट है कि Anogeissus sericea var. sericea अब तक केवल राजस्थान के सात जिलों में ही पायी गयी है। इसकी अधिकतम सघनता माउंट आबू और उदयपुर जिले की चार तहसीलों गोगुन्दा, कोटरा, झाड़ोल एवं गिर्वा तक सीमित है। चूंकि यह प्रजाति बहुत ही प्रतिबंधित क्षेत्र में मौजूद है और वृक्षों की संख्या भी बहुत ज्यादा नहीं है इसलिए इस प्रजाति को संरक्षित किया जाना चाहिए। वन विभाग को इस प्रजाति के पौधे पौधशालाओं में उगाने चाहिए और उन्हें वन क्षेत्रों में लगाया जाना चाहिए। ताकि राजस्थान में इस प्रजाति को संरक्षित किया जा सके।
संदर्भ:
- Cover photo credit : Dr. Dharmendra Khandal
- Aftab, G., F. Banu and S.K. Sharma (2016): Status and distribution of various species of Genus Anogeissus in protected areas of southern Rajasthan, India. International Journal of Current Research, 8 (3): 27228-27230.
- Sharma, S.K. (2007): Study of Biodiversity and ethnobiology of Phulwari Wildlife Sanctuary, Udaipur (Rajasthan). Ph. D. Thesis, MLSU, Udaipur
- Shetty, B.V. & V. Singh (1987): Flora of Rajasthan, vol. I, BSI.
Intresting information about least known tree. I have seen sizable number of this tree in a Oran in Nagaur district also. Didn’t know it’s this rare.
नागौर के मेड़ता मैं जहा जहा नाड़ी और तालाब है वहा इंध्रोख के खूब सारे पेड़ देखने को मिल जाते है ।
Thank u for this informative details 😊
I m scrolling on internet about it but getting nothing that much details about Indra Dhok
There few trees in Sawai Madhopur and Karauli also.
Dhok tree needs to be preserved. Deforestation in aravali makes it rare tree
kya aap mereko btayege ki karauli me ye species kha milti hai
You can find some at Sapotara in Karauli. Also, Prof Sitaram Khandelwal from Govt. College can show you near the college itself.
Jodhpur mondor panchayat samiti ke panchayat lordi pandit ji ke gaav jajiwal bhatiya me kuch nadi talabo ke kinare par hai bahut se ped hai inki lambai 10 se 20 mitar ke bich hai
One tree is in village Rathiwas tehsil Mewat Haryana (Near Bhiwandi)
My grandfather told me – there were thousands of indradhok trees in our village before 1960