सन 1453 में , एक दूसरे के धुर विरोधी, मेवाड़ के महाराणा कुम्भा और मारवाड़ के राव जोधा को एक जाजम पर बैठा कर बात तो करा दी गई, परन्तु तय होना बाकि था, कि मेवाड़ और मारवाड़ की सीमा कहाँ तक होगी। इन दोनों राज्यों के मध्य पिछले दो दशक से अधिक समय से शत्रुतापूर्ण सम्बन्ध कायम थे जिससे दोनों पक्षों को जन-धन की भारी हानी हो रही थी व प्रजा त्रस्त थी|
इस मध्यस्तता की जिम्मेदारी दोनों राजघरानों से सम्बन्ध रखने वाली महारानी हंसाबाई पर थी, जो राणा कुम्भा की दादी थी एवं राव जोधा की बुआ थी। दोनों राजघरानों में विवाद का कारण मण्डोर (मारवाड़) के राव रणमल (हंसाबाई के भाई जो राव जोधा के पिता) द्वारा मेवाड़ की आन्तरिक राजनीति में हस्तक्षेप था जिसकी परिणती राव रणमल की हत्या व मारवाड़ की राजधानी मण्डोर पर मेवाड़ द्वारा कब्जा करने के रूप में होती है।
खैर नई पीढ़ी ने गिले-शिकवे बिसार कर तय किया की और मनमुटाव अब किसी के हक़ में नहीं है।सोजत- पाली में यह संधि हुई थी जिसे आंवल-बांवल की संधि कहा जाता है। दादी हंसाबाई ने परामर्श दिया कि अब मेवाड़ और मारवाड़ की सीमा, यहाँ की भूमि स्वयं तय करेगी। यह वाक्य किसी को समझ नहीं आया परन्तु वो बोली – जिधर आंवल के पौधे है वह मेवाड़ होगा और जिधर बांवल के पेड़ है, वह मारवाड़ होगा। पेड़-पौघों का वितरण वहां की जलवायु स्थितियां और भूगर्भिक विशेषताएं से जुड़ा होता हैं एवं इनमें समान जीवन रणनीतियां और अनुकूलन देखने को मिलता है।
यानि जमीन की तासीर यह तय करती है की वहां कौनसे पेड़-पौधे उगेंगे और पेड़-पौधे तय करते है की वहां कोनसे पशु-पक्षी रहेंगे। भौगोलिक परिस्थिति, स्थानीय जलवायु, पेड़-पौधे आदि सभी मिलकर यह प्रभाव डालते है, की वहां के लोग किस प्रकार के पेशे को अपने जीवन का मुख्य आधार बनाएंगे जैसे शिकार आधारित समाज बनेगे, या कृषक अथवा पशुपालन पर जीवन यापन करेगा।
यह बंटवारा मारवाड एवं मेवाड (गोडवाड़ परगना) के मध्य परम्परागत सीमा रेखा के रूप में करीब 400 वर्षों तक कायम रहा। 18वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में महाराज विजय सिंह (मारवाङ) ने गोडवाड़ परगने का मारवाङ में विलय करके, मारवाड़ व मेवाड़ की सीमा को वानस्पतिक आधार के अतिरिक भू-आकृतिक आधार ( प्राकृतिक सीमा रेखा मे अरावली पर्वतमाला) प्रदान किया।
इस आंवल – बांवल की संधि में वर्णित आंवल व बांवल शब्द किन दो वनस्पति प्रजातियों को इंगित करते हैं. यह एक महत्वपूर्ण प्रश्न है। इसमे भी आंवल शब्द से अधिक कठिन बांवल शब्द की लक्षित प्रजाति को चिन्हित करना है।
सामान्यतः जो लोग स्वयं गोडवाड परगने के भूगोल व जैव विविधता से प्रत्यक्ष रूप से परिचित नही है वे आंवल शब्द का अर्थ आंवले के पेड़ से लेते है जोकि भ्रामक है। क्यों की गोडवाड़ क्षेत्र की प्राकृतिक वनस्पति में आँवला (Emblica officinalis) शामिल नहीं है गोडवाड परगने में आंवल नामक एक झाड़ी बहुतायत में पायी जाती है। इस झाड़ी पर पीले रंग के फूल खिलते है व इसका वानस्पतिक नाम ‘केसिया ओरिकुलाटा’ (Cassia auriculata) है |
पहले इस झाड़ी का प्रयोग चमड़ा साफ करने (टेनिन नामक तत्त्व होने के कारण) हेतु चमड़ा उद्योग मे बहुतायत में होता था व इसकी सहज उपलब्धता ने गोडवाड क्षेत्र में चर्म शोधन को कुटिर उद्योग के रूप में स्थापित होने में सहायता दी थी। इस उपयोग के कारण अंग्रेजी भाषा में आंवल की झाड़ी को Tanner’s cassia भी कहते हैं। (चर्मकार की झाड़ी) | अत: स्पष्ट है आंवल-बांवल की संधि में वर्णित आंवल, ‘आंवल की झाड़ी’ (Cassia auriculata) ही है नाकि आँवला (Emblica officinalis).
अब हम इस संधि में वर्णित दूसरी प्रजाति यानि कि ‘बांवल’ की सटीक पहचान पर चर्चा करते है चूंकि संधि के द्वारा जिस क्षेत्रों में बांवल प्रजाती पायी जाती थी वह क्षेत्र मारवाड को आवण्टित किया गया था अतः यह स्पष्ट हो जाता है कि ‘बांवल’ उस समय मारवाड़ क्षेत्र की प्राकृतिक वनस्पति (बिना मानवीय हस्तक्षेप के पनपने वाली) का महत्वपूर्ण हिस्सा थी। वर्तमान में इस क्षेत्र (पाली जिले का शुष्क भाग) बांवल नाम से तीन प्रजातियों को संबोधित किया जाता है, प्रथम अंग्रेजी बावलियों (prosopis juliflora), द्वितीय देशी बावलियों / बबूल (Acacia nilotice) व तीसरी भू बावली ( Acacia jacquemontii)
चूंकि अंग्रेजी बबूल (जूलीफ्लोरा) सर्वप्रथम 20 वी शताब्दी में ही राजस्थान में लाया गया था अत: आंवल – बांवल की संधि में उल्लेखित ‘बांवल’ से इसका निश्चित ही साम्य नहीं है। इसी प्रकार देशी बबूल\कीकर का प्रयोग स्पष्ट सीमा रेखा के रूप में किया जाना इस लिए उचित प्रतीत नहीं होता क्योंकि वर्तमान में यह पाली जिले के मारवाड़ व गोडवाङ दोनों अंचलों में समान रूप से पाया जाता है व सम्भवतया इसका वितरण प्रारूप उस समय (1433ई.) मे भी लगभग यही रहा होगा।
अत: अब बचता है, भू – बावल| भू बावल का वितरण प्रारूप वर्तमान में गोड़वाङ व मारवाड़ को सीमा विभाजन से पूरी तरह से मेल खाता है। जिस प्रकार आंवल की झाड़ी गोड़वाड़ परगने के बाहर मारवाड़ में नहीं पायी जाती है उसी प्रकार भू – बावल भी गोड़वाड़ में नही पायी जाती जबकि मारवाड़ में बहुतायत में उपलब्ध है। उपर्युक्त कारणों से लेखकराणों का यह मानना है कि आंवल – बांवल की संधि में उल्लेखित आंवल व बांवल शब्द का संकेत Cassia auriculata ( आंवल की झाड़ी) व Vachellia jacquemontii (भू- बावल) की ओर हैं|
इस चर्चा से जुड़ा हुआ एक अन्य रोचक प्रसंग यह भी है कि जिन फ्रेंच वनस्पति अन्वेषणकर्ता विक्टर जेकमोण्ट (Victor Jacquemont) के नाम पर भू- बावल का वानस्पतिक(jacquemontii) नाम रखा गया है उन्हें उनकी मात्र चार दिवसीय” (1-4 मार्च 1832) राजस्थान यात्रा के दौरान मेवाड राज्य की राजधानी उदयपुर में प्रवेश की अनुमति महाराणा द्वारा प्रदान नहीं की गयी थी। जेकमोण्ट व महारणा’ दोनों ही भविष्य में होने वाले घटनाक्रम (जेकमोण्ट के नाम पर भू-बावल का नामकरण) से निश्चित रूप से अनभिज्ञ रहे होंगे। यह तथ्य भी ध्यान देने योग्य है कि विक्टर जेकमोण्ट को राजस्थान का प्रथम आधुनिक वनस्पति अन्वेषण कर्ता माना जाता है।
यह संधि दर्शाती हैं कि किस प्रकार लोगों को अपने परिवेश कि गहरी समझ थी जो उन्हें उचित निर्णय लेने में सहयोग करती थी।
लेखक:
Dr. Dharmendra Khandal (L) has worked as a conservation biologist with Tiger Watch – a non-profit organisation based in Ranthambhore, for the last 16 years. He spearheads all anti-poaching, community-based conservation and exploration interventions for the organisation.
Mr. Rajdeep Singh Sandu (R) :-is a lecturer of political science. He is interested in history, plant ecology and horticulture.
Very informative
Namaste sa.
Very good study for mewad , godwad , marwad geographic & botanical area.
Me apke friend dilipji arora ka friend hu.
History explored critically with reference to the distribution of flora in Rajasthan.