वैसे तो खरपतवार की परिभाषा कोई आसान नहीं है परन्तु फिर भी खरपतवार वे अवांछित पौधे होते हैं जो किसी स्थान पर बिना बोए उगते हैं। ये खरपतवार मुख्यरूप से विदेशी मूल की वनस्पत्तियाँ होती है तथा इसीलिए पारिस्थितिक तंत्र में इनके विस्तार को सिमित रखने वाले पौधे व् जानवर नहीं होते हैं। ये पौधे स्थानीय मनुष्य समुदाय के कोई खास उपयोग में नहीं आते, तथा मनुष्यों, खेती, वनों व पयार्वरण पर बुरा प्रभाव डालते है। खरपतवार मुख्यतः दो प्रकार के होते हैं – एक वे जो स्थानीय पौधों के प्रति आक्रामक रूख अपनाते हैं जैसे ममरी (जंगली तुलसी), लैन्टाना कमारा (बेशर्म), प्रोसोपिस जूलीफ्लोरा (विलायती बबूल) आदि। दूसरी श्रेणी के खरपतवार वे हैं जो स्थानीय पौधों के साथ प्रतियोगिता कर उनके विकास को रोकते है लेकिन आक्रामक रूख प्रदर्शित नहीं करते हैं।
आज राजस्थान में कई विदेशी वनस्पतियां फैल रहीं हैं जिनके बारे में अभी शोध किया जाना बाकी है जैसे जंगली तुलसी (Hyptis suaveolens) और छोटी फली का पुँवाड (Cassia absus/Senna uniflora)।
जंगली तुलसी (ममरी), तुलसी यानी लेमियेशी (Lamiaceae) कुल की वनस्पति है तथा इसका वैज्ञानिक नाम हिप्टिस सुवियोलेन्स (Hyptis suaveolens) हैं। यह अमेरिका के गर्म प्रदेशों की वनस्पति है परन्तु आज यह तेजी से हमारे देश के वनों, खेतों, शहरों, गाँवों, सडक व रेल मार्गों के किनारे तथा पडत भूमि में फैलता जा रहा है। इसे राजस्थान सहित कर्नाटक, आन्ध्रप्रदेश, तेलंगाना, महाराष्ट्र, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ, गुजरात आदि राज्यों में दूर-दूर तक फैले हुए देखा जा सकता है। भारतीय पारिस्थितिक तंत्र में यह तेजी से प्राकृतिक (Naturalized) होती जा रही है। घने जंगलों से होकर जैसे ही नई सडकें बनाई जाती है तब वृक्ष छत्रों के हटने से प्रकाश भूमि तक पहुँचता है और यदि ऐसे में कहीं से भी इसके बीज प्रकीर्णन कर वहां पहुँच जायें तो यह तेजी से सडक के दोनों तरफ उग जाती है। यह सुंगधित, वार्षिक तथा शाकीय वनस्पति है जो 2 मीटर तक ऊँची होती है एवं पास-पास उग कर सघन झाड-झंखाड (Thickets) का रूप ले लेती है। इसका तना चौकोर, दृढ एवं रोमों से ढका हुआ होता है। इसके फूल 2 से 5 के गुच्छों में शाखाओं पर लगते हैं तथा यह सालभर फूल व फल देता है लेकिन विशेष रूप वर्षा ऋतु से लेकर गर्मी आने तक हरा भरा रहता है। इसके बीज पानी में डालने पर सफेदी लेते हुये फूल जाते हैं।
तीव्र गंध के कारण पालतू या वन्य पशु इसे नहीं खाते अतः जहाँ भी यह वनस्पति भी उगी होती है चराई से सुरक्षित रहती है।
वानिकी गुण
यह अधिक प्रकाश में उगने वाली, चराई प्रतिरोधी वनस्पति है जो अपेक्षाकृत अधिक नमी वाले स्थानों पर उगती है। इस वनस्पति का प्रत्येक पौधा बडी संख्या में फूल, फल व बीज पैदा करता है। एक हैक्टयर में उगे पौधे लाखों बीज पैदा करने की क्षमता रखते हैं। चराई से बचे रहने के कारण इस प्रजाति का हर पौधा बीज पैदा करता है। इस तरह प्रतिवर्ष इस प्रजाति के पौधों की संख्या व विस्तार क्षेत्र बढता ही जाता है।
हानिकारक प्रभाव
जंगली तुलसी के पौधे पास-पास उगने एवं 2.0 मी तक लम्बे होने के कारण, घास व अन्य कम ऊँचाई के स्थानीय पौधों तक प्रकाश नहीं पहुँचने देते है। पानी एवं स्थान की प्रतियोगिता कर यह स्थानीय प्रजातियों के विकास को रोकते है फलतः घास एवं स्थानीय पौधे सामाप्त होने लगते हैं। जिसके कारण चारे की कमी होने लगती है एवं आवास बर्बाद हो जाता है। इन सबसे न केवल पालतु बल्कि वन्यजीवों पर भी बुरा प्रभाव पडता है। इस प्रजाति की वजह से जैव विविधता घटने लगती है। यह वन्यजीवों के आवासों व चारागाहों को भी बर्बाद कर देता है।
छोटी फली का पुँवाड (Senna uniflora/Cassia absus)
राजस्थान में फैलने वाली यह सबसे नयी खरपतवार है जो दक्षिणी एवं मध्य भारत में दूर-दूर तक फैल गयी है। संभवतः मध्यप्रदेश एवं गुजरात के क्षेत्रों से चरकर आने वाली भेडों द्वारा यह खरपतवार राजस्थान में आयी है। अभी तक यह हाडोती क्षेत्र में फैलती हुई मेवाड एवं वागड क्षेत्र (डूंगरपुर एवं बांसवाडा) में दस्तक दे चुकी है। उदयपुर जिले में वर्ष 2019 तक यह मंगलवाड से डबोक के बीच राष्ट्रीय उच्च मार्ग के दोनों तरफ जगह-जगह नजर आने लगी है। संभवतः राष्ट्रीय उच्च मार्ग के निर्माण कार्य हेतु कई जगहों से लाई गई मिट्टी व भारी उपकरणों के साथ इसके बीज उदयपुर जिले में प्रवेश कर गए हैं। इसके फैलाव को देखते हुए यह प्रतीत होता है की अगले कुछ ही वर्षाे में यह खरपतवार उदयपुर शहर तक पहुँच जाएगी। यह वनस्पति भी आसपास के क्षेत्र में स्थानीय घासों एवं छोटे कद के शाकीय पौधों को नहीं पनपने देती है।
छोटी फली का पुँवाड “Senna uniflora” (फोटो: प्रवीण कुमार)
नियन्त्रण:
वर्षा ऋतु में जब पौधों में फूल आने लगे तब ही (बीज बनने से पहले) उखाड कर ढेर में संग्रह किये जाने चाहियें। छोटे-छोटे क्षेत्रों से हटाने की बजाय खेतों, वनों, आबादियों से पूरे परिदृश्य में नियन्त्रण प्रांरभ करना चाहिये।
इनको काट कर ढालू क्षेत्रों में ऊपर की तरफ नहीं बल्कि सबसे निचले क्षेत्रों में पटकना चाहिये ताकी बीजों का पानी से प्रकीर्णन न हो। इनका उन्मूलन पहाडी क्षेत्रों में ऊपर से नीचे की तरफ तथा समतल क्षेत्रों में केन्द्र से परिधि की तरफ बढना चाहिये। नदियों के किनारे जल ग्रहण के ऊपरी क्षेत्रों से नीचे की तरफ उन्मूलन संपादित करना चाहिये।
इनको काट कर या जलाकर नहीं बल्कि जड सहित उखाड कर नष्ट किया जाना चाहिये।
वनों की निरन्तरता में जहाँ खेत हैं वहाँ वन व खेत की सीमा मिलन स्थल पर गहरी खाई बना देनी चाहिये ताकि वन क्षेत्र के पानी के साथ बह कर आये बीज खेत में नही बल्कि खाई में गिर जावें एवं खेत में प्रसार न करें।
एक बार हटाने के बाद हर साल वर्षा में अनुसरण करें तथा नये उगने वाले पौधों को उसी साल उखाड कर नष्ट कर दें। यह सब फूल व बीज बनने से पूर्व किया जावे।
यूँ तो विदेशी पौधों की लंबी सूची है लेकिन राजस्थान में पाए जाने वाली कुछ दुर्दान्त विदेशी मूल के खरपतवार निम्न हैं
क्र.सं.
आवास
नाम
फैलावकेमुख्यक्षेत्र
1
थलीय
विलायती बबूल (Prosopis juliflora)
लगभग संपूर्ण राजस्थान
2
थलीय
गाजर घास (Parthenium hysterophorus)
अतिशुष्क क्षेत्रों को छोडकर लगभग संपूर्ण राजस्थान
3
थलीय
बेशर्म (Lantana camara)
नमी युक्त वन क्षेत्र, घाटियाँ, पहाडियों के निचले ढाल, नदी-नालों के नमी युक्त तट, जलाशयों के आसपास एवं आबादी क्षेत्र
4
थलीय
सफेद बेशर्म (Lantanawightiana)
अरावली पर्वतमाला के ढाल व तलहटी क्षेत्रों में
5
थलीय
पुँवाड (Cassia tora)
अति शुष्क क्षेत्रों को छोडकर लगभग संपूर्ण राजस्थान
6
थलीय
जंगली तुलसी,ममरी (Hyptissuaveolens)
हाड़ौती क्षेत्र, बांसवाडा, डूंगरपुर, प्रतापगढ, भीलवाडा, चित्तौडगढ एवं राजसमन्द जिलों के क्षेत्र
आकल जीवाश्म उद्यान (Akal Fossil Park or Akal Wood Fossil Park) राजस्थान का एक दर्शनीय स्थान है। यह उद्यान जैसलमेर-बाडमेर रोड पर जैसलमेर से लगभग 15 किलोमीटर दूर स्थित है तथा 21 हैक्टेयर क्षेत्र में फैला हुआ है। यहाँ जुरैसिक काल के प्रारंभिक चरण में कोई 180 मिलियन यानी 18 करोड वर्ष पूर्व डायनासोरों के युग में समुद्र में बने जीवाश्म इधर -उधर छितरी अवस्था में देखे जा सकते हैं। वन विभाग, राजस्थान इस पार्क की देखभाल करता है। वैसे तो यहाँ भूमि की सतह पर वृक्षों के तने, फल, बीज, घोंघों आदि के जीवाश्म बिखरे पडे हैं लेकिन यहाँ 25 वृक्षों की तने की लकडी के जीवाश्म विशेष रूप से दर्शनीय हैं जिनमे 10 बहुत स्पष्टता से नजर आते हैं। उनमे एक तो 7.0 मी लंबा व 1.5 मी चौडा है।
कुछ जीवाश्मों को जो अधिक अच्छी स्थिति में हैं तथा आकार में बडे हैं, इनको सुरक्षा देने हेतु उन्हें चारो तरफ व ऊपर जाली से ढक कर अतिरिक्त सुरक्षा प्रदान की गई है। कुछ जीवाश्म खुले भी रखे गये हैं। यहाँ बडे जीवाश्मों को यथास्थिती (मूल स्थिती) में प्रदर्शित किया गया है लेकिन छोटे जीवाश्मों व बडे जीवाश्मों के टुकडों को एक ‘‘जीवाश्म म्यूजियम’’ में प्रदर्शित किया गया है। बडे वृक्षों के तने के जीवाश्म भूमि पर लेटी अवस्था में विद्यमान हैं। ऐसा माना जाता है कि राजस्थान के पश्चिमी भाग में प्राचीन समय मे टैथिस महासागर था जिसमें अनेक नदियां गिरती थी। नदियों के तटों तथा जलग्रहण क्षेत्र में सघन वन थे जिनमें चीड, देवदारू आदि के रिश्तेदार जिम्नोस्पर्म वर्ग के ऊँचे – ऊँचे वृक्षों की काफी बहुतायतता थी। इसी वर्ग का एक पौधा ऑरोकैरियोक्सीलोन बीकानेरेन्स बीकानेर जिले में मिला है। तेज वर्षा के समय भूमि कटाव व बाढ की स्थिति में खडे वृक्ष उखड जाते थे तथा क्षैतिज पडी अवस्था में बहते-बहते समुद्र में पहुँच जाते थे। उनके नर्म भाग जैसे पत्ते आदि शीघ्र सड जाते थे लेकिन लकडी, फल-बीज आदि दृढकोत्तकों से बने कठोर भाग धीरे- धीरे सडते थे। ऊपर से बहकर आयी गाद में दबे, धीरे -धीरे सडते अनेक वृक्षों के कठोर भाग ’’पैट्रीफिकेशन’’ प्रक्रिया के दौरान अपने शरीर के मूल तत्वों को सिलिका व अन्य लवणों से विस्थापित होने की प्रक्रिया से गुजरे। पर्त-दर-पर्त गाद के नीचे दबने से भारी दबाव के कारण उनके सडने से बचे रह गऐ भाग पत्थरों में बदल गये जो आज जीवाश्मों के रूप में मिलते हैं। इन जीवाश्मों की आन्तरिक सूक्ष्म रचना इनकी मूल संरचना सेे हूबहू मिलती है। जीवाश्मों के अलावा राजस्थान के रेगिस्तान व गुजरात के कच्छ में डीजल-पैट्रोल, गैस एवं कोयला जगह-जगह मिलते हैं जो यहाँ प्राचीन काल में जीवन होने के स्पष्ठ संकेत हैं। ये सब चीजें जीव-जन्तु व पेड-पौधों के समुद्र में गाद की पर्तो के नीचे बहुत गहराई में दबने से बनती हैं। वास्तव में राजस्थान का रेगिस्तान व गुजरात का कच्छ क्षेत्र प्राचीन जीवन के प्रमाणों से भरे पडे हैं।
जीवाश्मों के बनने में समुद्रों की भूमिका बहुत अहम होती है। ऐसा जगह – जगह देखने को मिलता है। टैथिस सागर की तरह ही आज के अरब सागर की एक शाखा गुजरात के दक्षिणी भाग से होती हुई आज के मध्य प्रदेश में नर्मदा नदी की घाटी में दूर तक फैली हुई थी। सागर की इस शाखा में भी गिरने वाली नदियों में बह कर आये पेड – पौधों व जीव जन्तुओं के जीवाश्म, उसी तरह बने जैसे राजस्थान में बने। यहाँ के जीवाश्मों की एक झलक मध्य प्रदेश के डिन्डोरी जिले में स्थित फॉसिल नेशनल पार्क, घुघुवा में ली जा सकती है। इस उद्यान की देखभाल मध्यप्रदेश वन विभाग द्वारा की जाती है। यहाँ 65 मिलियन वर्षों पूर्व के जीवाश्म देखे जा सकते हैं। लेकिन आकल जीवाश्म उद्यान के जीवाश्म कहीं अधिक प्राचीन हैं, अतः उनका अपना अलग ही महत्व है।
बरगद का राजस्थान में बहुत सम्मान होता है। बरगद को राजस्थान में बड़, बड़ला, वड़ला आदि स्थानीय नामों से जाना जाता है। आमतौर पर बरगद को राज्य में संरक्षित वृक्ष का दर्जा प्राप्त है। विशाल व गहरी छाया प्रदान करने से राज्य में सभी जगह इसे उगाने-बचाने के प्रयास होते रहते हैं। बरगद फाईकस वंश का वृक्ष है। बरगद एवं इसके वंश ‘‘फाईकस’’ की राजस्थान से जुड़ी अच्छी जानकारी एलमिडा(1), मेहता(2), सुधाकर एवं साथी (3), शेट्टी एवं पाण्डे (4), शेट्टी एवं सिंह(5), शर्मा एवं त्यागी (6) एवं शर्मा (7) से मिलती है। लेकिन उक्त संदर्भों में मादड़ी गांव में विद्यमान राजस्थान के सबसे विशाल बरगद वृक्ष के बारे में कोई जानकारी उपलब्ध नहीं है।
दक्षिणी राजस्थान में उदयपुर जिले की झाड़ोल तहसील के मादड़ी गाँव में राजस्थान राज्य का सबसे विशाल आकार-प्रकार का एवं सम्भवतः सबसे अधिक आयु वाला भी बरगद वृक्ष विद्यमान है। इस बरगद को देखने हेतु उदयपुर-झाड़ोल सड़क मार्ग से यात्रा करते हुए झाड़ोल से 10 किमी. पहले एवं उदयपुर से 40 किमी. दूर पालियाखेड़ा गाँव से आगे लगभग 25 किमी. दूर स्थित मादड़ी गाँव पहुँचना पड़ता है। मादड़ी से खाटी-कमदी गाँव जाने वाली सड़क के किनारे (गाँव के पूर्व-दक्षिण छोर पर) यह बरगद विद्यमान है। इस बरगद के नीचे एक हनुमान मंदिर स्थित होने से इसे स्थानीय लोग ‘‘हनुमान वड़ला’’ कहते है। स्थानीय जनमानस का कहना है कि इस वृक्ष की आयु लगभग 600 वर्ष है।
दक्षिणी राजस्थान में बरगद, पीपल, खजूर, महुआ, आम, जोगन बेल आदि सामाजिक रूप से संरक्षित या अर्द्ध-संरक्षित प्रजातियाँ हैं। संरक्षण के कारण इन प्रजातियों के वृक्ष/लतायें दशकों एवं शताब्दियों तक सुरक्षा पाने से विशाल आकार के हो जाते हैं एवं कई बार एक प्रसिद्ध भूमि चिन्ह बन जाते हैं। जाड़ा पीपला (बड़ा पीपल), आड़ा हल्दू (तिरछा गिरा हुआ हल्दू), जाड़ी रोहण (बड़े आकार की रोहण,) खाटी कमदी (खट्टे फल वाला जंगली करौंदा) आदि हाँलाकि संभाग में गांवों के नाम हैं लेकिन ये नाम वनस्पतियों एवं उनके कुछ विशेष आकार-प्रकार व गुणों पर आधारित हैं। मादड़ी गाँव का ‘‘हनुमान वड़ला’’ भी एक सुस्थापित भूमि चिन्ह है तथा स्थानीय लोग विभिन्न गाँवों व जगहों तक पहुँचने का उनका रास्ता ढूँढ़ने व बताने में इस भूमि चिन्ह का उपयोग करते हैं।
मादड़ी गाँव के बरगद में कई विशेषतायें देखी गई हैं। इस बरगद में शाखाओं से निकलकर लटकने वाली प्रोप मूल के बराबर हैं। पूरे वृक्ष की केवल एक शाखा से एक प्रोप मूल सीधी नीचे आकर भूमि से सम्पर्क कर खम्बे जैसी बनी है। इस जड़ का 2015 में व्यास 15.0 से.मी. तथा ऊँचाई लगभग 3.0 मी. की थी। यह जड़ भूमि पर गिरी शाखा क्रमांक 4/2 से निकली हैं (चित्र-1) । इस जड़ के अलावा कुछ शाखाओं में बहुत पतली-पतली हवाई जड़ें निकली है जो हवा में ही लटकी हुई हैं तथा वर्ष 2016 तक भी भूमि के सम्पर्क में नहीं आई हैं।
चूँकि मादड़ी गाँव के बरगद में हवाई जड़ों का अभाव है अतः क्षैतिज दिशा में लम्बी बढ़ती शाखाओं को सहारा नहीं मिला । फलतः शाखाओं की लकड़ी, पत्तियों एवं फलों के वजन ने उन पर भारी दबाव डाला । इस दबाव एवं सम्भवतः किसी तूफान के मिले-जुले कारण से चारों तरफ बढ़ रही विशाल शाखाएँ टूट कर भूमि पर गिर गई होंगी। यह भी हो सकता है कि मुख्य तने में सड़न होने से ऐसा हुआ होगा । लेकिन यह तय है कि जब शाखायें टूट कर गिरी होंगी वह वर्षा ऋतु या उसके आसपास का समय रहा होगा । क्योंकि यदि गर्मी या सर्दी के मौसम में ये शाखायें टूटती तो ये सब पानी के अभाव में सूख जाती । वर्षा ऋतु में टूट कर भूमि पर गिरने से, गीली भूमि में जहाँ-जहाँ ये छूई, वहाँ-वहाँ जड़ें निकलकर भूमि के सम्पर्क में आ गई । चूंकि वर्षा में हवा की उच्च आद्रता होती है अतः आद्रता ने भी टूटी शाखाओं को निर्जलीकृत होने से बचाने में मदद की । पुख्ता सूचनायें हैं कि ये शाखायें सन 1900 से पूर्व टूटी हैं। 80 वर्ष के बुजुर्ग बताते हैं कि वे बचपन से इन्हें ऐसे ही देख रहे हैं। यह घटना सम्भवतः बहुत पहले हुई होगी क्योंकि मुख्य तने से नीचे गिरी शाखाओं के वर्तमान आधार (निचला छोर) की दूरी 24.0 मी. या इससे भी अधिक है। यानी तने व नीचे गिरी शाखा के आधार के बीच 24.0 मी. तक का बड़ा अन्तराल है। यह अन्तराल टूटे छोर की तरफ से धीरे-धीरे सड़न प्रक्रिया जारी रहने से प्रकट हुआ है। टूटी गिरी शाखाओं के आधार सूखने से कुछ सिकुड़े हुए, खुरदरे, छाल विहीन होकर धीमी गति से सड़ रहे हैं। वर्षा में इनमें सड़ान प्रक्रिया तेज हो जाती है। यानी शाखाएं निचले छोर पर सड़ती जा रही है एवं उपरी छोर पर वृद्धि कर आगे बढ़ती जा रही हैं। नीचे गिरी शाखायें अपनी पूरी लम्बाई में जीवित नहीं है। उनके आधार का टूटे छोर की तरफ कुछ भाग मृत है तथा कुछ आगे जाकर जीवित भाग प्रारम्भ होता है।
वर्ष 1992 में इस बरगद की भूमि पर विभिन्न आकार की गिरी हुई कुल शाखाओं की संख्या 12 थी । इन शाखाओं में कुछ-कुछ द्विविभाजन जैसा नजर आता है जो अब भी विद्यमान है। ये शाखायें अरीय विन्यास में मुख्य तने से अलग होकर चारों तरफ त्रिज्याओं पर भूमि पर पड़ी हैं। क्षैतिज पड़ी शाखायें भूमि को छूने के उपरान्ह प्रकाश की चाह में उपर उठी हैं लेकिन वजन से फिर नीचे की तरफ झुककर भूमि को छू गई हैं। छूने के उपरान्त फिर प्रकाश की तरफ ऊँची उठी हैं। कई शाखायें तो दो बार तक भूमि को छू चुकी हैं। यानी शाखाएं ‘‘उपर उठने, फिर भूमि को छू जाने, फिर उठने, फिर भूमि को छू जाने’’ का व्यवहार कर रेंगती सी बाहर की तरफ वृद्धि कर रही हैं। भूमि को छू कर ऊपर उठने से दो छूने के बिन्दुओं के बीच तना ‘‘कोन ’’ जैसा नजर आता है। जब शाखायें भूमि पर गिरी थी, वह लम्बाई अपेक्षाकृत अधिक सीधी थी लेकिन भूमि पर गिरने के बाद की लम्बाई ‘‘जिग-जैग‘‘ है जो शाखाओं के झुकने व पुनः उठने से प्रकट हुआ है। भूमि पर शाखाओं का फैलाव उत्तर-दक्षिण दिशा में लगभग 117 मी. एवं पूर्व-पश्चिम दिशा में लगभग 111 मी. है । इस तरह औसत व्यास 114 मी. होने से छत्र फैलाव लगभग 1.02 हैक्टर है।
बरगद की नीचे पड़ी टहनियों के बीच से एक पगडंडी मादड़ी से ‘‘घाटी वसाला फला’’ नामक जगह जा रही है । इस पगडंडी के पास से उत्तरी छोर की पहली टहनी को क्रम संख्या 1 देते हुए आगे बढ़ते हैं तो भूमि पर कुल 12 शाखायें पड़ी हैं (चित्र-1)। क्रमांक 4 व 7 की शाखायें जोड़े में हैं। जिनको चित्र 1 में क्रमशः 4/1, 4/2, 7/1 व 7/2 क्रमांक दिया गया है। इनके नीचे के हिस्से को सड़ते हुए दुफंक बिन्दु को छू जाने से ऐसा हुआ है। शाखा क्रमांक 5 व 6 सम्भवतः शाखा क्रमांक 4 की उपशाखा 4/2 से अलग होकर बनी हैं। शाखा 4/2 में एक दुफंके से जुड़ा एक सड़ता हुआ ठूँठ ठ1 है जिसका घेरा 54 सेमी. है। इससे कुछ मीटर दूर शाखा क्रमांक 6 भूमि पर पड़ी है जिसके प्रथम छोर से जड़ें निकलकर भूमि में घुसी हुई हैं। प्रकृति में यह देखने को मिलता है कि शाखाओं का व्यास नीचे से ऊपर की तरफ क्रमशः घटता जाता है। अतः उसकी परिधि भी घटती है लेकिन इस सिद्धान्त का इस बरगद में उल्लंघन हुआ है। इसी तरह क्रमांक 5 शाखा भी शाखा 4/2 की पुत्री शाखा है। भविष्य में सड़ाने के कारण अनेक पुत्री शाखायें अपनी मातृ शाखाओं से अलग हो जायेंगी। मुख्य तने पर एकदम सटकर चारों तरफ से लटकती प्रोप जड़ें आपस में व तने से चिपक गई है एवं वास्तविक तना अब दिखाई नहीं देता है। चिपकी मूलों सहित तने का घेरा 21.0 मी. है जिसे 12 व्यक्ति बांह फैलाकर घेर पाते हैं। तने पर अभी 5 शाखायें और विद्यमान हैं जो हवा में फैलकर अपना अस्तित्व बनाए हुए हैं। यह भी यहां दर्शनीय है कि तने से एकदम सटकर तो प्रोप मूल पैदा हुई हैं लेकिन वे आगे शाखाओं पर पैदा नहीं हुई हैं ।
इस बरगद को सुरक्षा देने हेतु ग्राम पंचायत ने परिधि पर वृत्ताकार घेरा बनाते हुए लगभग 1.5 मी. ऊँची पक्की दिवार बना दी है। मादड़ी से ‘‘घाटी वसाला फला’’ को जाने वाला सीमेन्ट – कंक्रीट रोड़ बरगद के नीचे से निकला है तथा प्रवेश व निकास पर लोहे का फाटक लगाया है। एक फाटक पश्चिम दिशा में भी लगाया है। बरगद हल्के ढाल वाले क्षेत्र में स्थित है। आसपास की भूमि का ढाल पश्चिम से पूर्व दिशा में होने से पानी भराव को बाहर निकालने हेतु पूर्व दिशा में दिवार में एक ‘‘मोरा’’ भी छोड़ा गया है। पंचायत ने यहाँ कई अन्य भवन भी बना दिये है ।
पंचायत ने जो पक्की दिवार बनाई है उस घेरे के अन्दर 10 शाखायें है तथा 2 शाखायें जो पश्चिम दिशा में है, पक्की दिवार के बाहर हैं । एक शाखा क्रमांक 10 पूरी तरह बाहर है तथा क्रं.11 का अशाखित हिस्सा अन्दर है तथा शाखित हिस्सा दिवार के बाहर है। यहां तने को दिवार में रखते हुए चिनाई की गई है (चित्र 1) ।
दिन व रात
फाटक खुले होने
से बच्चे दिनभर
नीचे गिरी शाखाओं
पर खेलते रहते
हैं एवं पत्तियों
व टहनियों को
तोड़ते रहते हैं।
शाखाओं के अन्तिम
छोरों को आगे बढ़ने से
रोकने हेतु चारों
तरफ के खेत मालिकों ने जगह-जगह उनको
काट दिया है।
इससे आगे बढ़ते
छोर रूक गये है एवं
सड़न का शिकार
होने लगे हैं।
यदि इस बरगद को पूर्व
से सुरक्षा मिली
होती तो यह और विशाल
हो गया होता
।
भूमि पर पड़ी शाखाओं में वृद्धि प्रकार
आमतौर पर प्रकृति में शाखाओं का व्यास धीरे-धीरे घटता जाता है लेकिन भूमि पर पड़ी शाखाओं में द्वितीयक वृद्धि अलग तरह से हुई है। यदि एक शाखा भूमि को दो जगह छुई है, तो छूने के बिन्दु पर या तुरन्त बाद जो शाखायें उर्ध्व दिशा में बढ़ी हैं उन शाखाओं में अत्यधिक मोटाई है। लेकिन छूने के दोनों बिन्दुओं के बीच अगले छूने के बिन्दु से पहले शाखा की मोटाई काफी कम है।
सड़न प्रक्रिया
भूमि पर पड़ी शाखायें अपने निचले छोर पर सड़न से ग्रसित हैं । यह सड़न वहाँ पहुँच कर रूकती है जहाँ पर तने ने जड़ें निकालकर भूमि से सम्पर्क कर लिया है। यह भी देखा गया है कि वे क्षैतिज शाखायें जिनकी कोई उपशाखा भूमि क्षरण से आ रही मिट्टी के नीचे आंशिक या पूरी तरह दूर तक दब गई हैं, वे सड़न का शिकार हो गई लेकिन जिन्होंने हवा में रहते हुये भूमि को छुआ है वे सड़ने से बच गई हैं । वैसे तो शाखाओं में सड़न आमतौर पर नीचे से उपर की तरफ बढ़ रही है । जैसे ही किसी शाखा में सड़न दुफंक बिन्दु पर पहुंचती है, वह दो शाखाओं में विभाजित हो जाती है। यह क्रम आगे से आगे चलता रहता है । अधिकांश शाखाओं में सड़न नीचे से ऊपर तो चल रही है, लेकिन कुछ में अचानक आगे कहीं बीच में भी सड़न प्रारम्भ हो रही है। जिससे सड़न बिन्दु के दोनों तरफ जीवित भाग विद्वमान है। सड़न की प्रक्रिया आगे बढ़ने से शाखा का बीच का हिस्सा गायब दिख रहा है। यहां सड़न नीचे से ऊपर व ऊपर से नीचे दोनों दिशाओं में जा रही है । सड़ने की प्रक्रिया से अनुमान है कि प्रथम बार जब शाखाएं भूमि पर गिरी थी, उनकी संख्या और भी कम रही होगी तथा आने वाले दशकों में सड़न प्रक्रिया के जारी रहने से शाखाओं की संख्या बढ़ती रहेगी ।
मादड़ी गांव के बरगद का महत्त्व
चूँकि यह राज्य का सबसे विशाल बरगद है अतः परिस्थितिकीय पर्यटन की यहाँ बड़ी संभावना है। इस बरगद से मात्र 3 किमी. दूर जोगन बेल दर्रा नामक जगह में राज्य की सबसे बड़े आकार की जोगन बेल भी स्थित है । अतः फुलवारी की नाल अभयारण्य जाने वाले पर्यटकों को यहाँ भी आकर्षित किया जा सकता है। इससे न केवल ग्राम पंचायत को आय अर्जित होगी अपितु स्थानीय लोगो को रोजगार भी मिलेगा साथ ही प्रकृति संरक्षण मुहिम को भी बल मिलेगा ।
मादड़ी गांव के बरगद को संरक्षित करने हेतुु सुझाव
पक्की दीवार को हटाकर मूल स्वरूप लगाया जावे एवं चेन लिंक फेंसिंग की जावे।जो शाखा चिनाई में आ गई है उसको स्वतंत्र किया जाना जरूरी है।
कोई भी शाखा फेंसिंग से बाहर नहीं छोड़ी जावें।
बरगद में चढ़ने, झूला डालने, पत्ते तोड़ने, शाखा काटने, नीचे व आसपास मिट्टी खुदाई करने आदि की मनाही की जानी चाहिये।
बरगद की नीचे सड़क पर आवागमन रोका जावे।लोगों को आने-जाने हेतु वैकल्पिक मार्ग दे दिया जावे।
चारों तरफ के खेतों की भूमि का अधिग्रहण किया जावे एवं बरगद शाखाओं को आगे बढ़ने दिया जावें या लोगों का सहयोग लिया जावे कि उनके खेत की तरफ बढ़ने पर बरगद को नुकसान न पहुँचावें। खेती को हुए नुकसान की भरपाई किसानों को मुआवजा देकर किया जा सकता है।
जिन छोरों पर सड़न जारी है उनका कवकनाशी से उपचार कर कोलतार पोता जावे। इसे कुछ अन्तराल पर दोहराते रहना जरूरी है।
इस बरगद के पास विद्युत लाईन, टावर, बहुमंजिला इमारत आदि नहीं होनी चाहियें। आसपास कोई अग्नि दुर्घटना भी नहीं होने देने की व्यवस्था की जावे।
इसके आसपास भूमि उपयोग पैटर्न को बदला नहीं जावे।
उचित प्रचार‘-प्रसार, जन जागरण निरन्तर होना चाहिये।वृक्ष की जैवमिती की जानकारी देते हुये बोर्ड प्रदर्शित किया जावे।
प्रबन्धन राज्य वन विभाग व पर्यटन विभाग को सौंप दिया जाना चाहिये। लेकिन पंचायत के हितों की सुरक्षा की जानी चाहिये।