
राजस्थान और जलवायु परिवर्तन: संकट, संकेत और समाधान
देश का सबसे बड़ा राज्य आज सबसे बड़ी जलवायु चुनौती झेल रहा है
राजस्थान, जो भारत का सबसे बड़ा राज्य है (देश के भौगोलिक क्षेत्र का 10.4%), तेज़ धूप, रेतीले टीले और ऐतिहासिक किलों के लिए तो मशहूर है, लेकिन यही धरती आज बदलते मौसम की सबसे मुश्किल चुनौतियाँ झेल रही है। यहाँ की 6.85 करोड़ आबादी (2011 की जनगणना के अनुसार भारत की कुल आबादी का 5.66%) अनियमित मानसून और बढ़ते तापमान के बीच जूझ रही है: खेतों में बूँद-बूँद पानी बचाने की होड़, गर्मी की लहरों में बिजली कटौती से बचने का संघर्ष, और बढ़ती महंगाई में दिन-प्रतिदिन जीवनयापन का तनाव।
यदि हमें “जलवायु परिवर्तन” शब्द सुनते ही सिर्फ ग्लेशियर पिघलने या समुद्रस्तर बढ़ने का खयाल आता है, तो राजस्थान के अनुभव उसे कहीं दूर तक ले जाते हैं। जब बारिश अपने सही समय और मात्रा से हटकर हो, तो यह आराम नहीं देती, बल्कि किसान के खेत सूख जाने का कारण बन जाती है; बिजली कटौती शहरों को “हीट आइलैंड” बना देती है, जहाँ हर दीवार तपती और हर कदम झुलसता है।
2022 में राजस्थान के पर्यावरण एवं जलवायु परिवर्तन निदेशालय और आईआईटी मुंबई ने मिलकर जो स्टेट एक्शन प्लान ऑन क्लाइमेट चेंज (RSAPCC) जारी किया, वह सिर्फ एक कागजी दस्तावेज़ नहीं, बल्कि राज्य के सामने खड़ी उन आठ अहम चुनौतियों का नक्शा है जिनमें हम आज उतर रहे हैं—कृषि में सूखा-प्रतिरोधी फ़सलों से लेकर जल संचयन तक, वनों की रक्षा से लेकर सार्वजनिक स्वास्थ्य तक, ऊर्जा दक्षता से लेकर आपदा प्रबंधन तक।
यह योजना तय करती है कि किन-किन इलाकों को सबसे पहले प्राथमिकता देनी होगी और कैसे सामाजिक-आर्थिक संकेतक—जैसे जनसंख्या घनत्व, महिला साक्षरता, घरों का आकार, तथा अनुसूचित जाति-जनजाति की आबादी—हमें यह बताते हैं कि कहाँ सबसे अधिक तैयारी, सबसे सख्त कदम और सबसे सच्ची भागीदारी की दरकार है। जयपुर, सीकर और कोटा जैसे जिले जहाँ चक्रवात और गर्मी की लहरें आम बात हो गई हैं, उनकी कहानी अलग है; प्रतापगढ़, चित्तौड़गढ़ और बांसवाड़ा जैसे ग्रीन इलाके दूसरी दास्ताँ सुनाते हैं, जहाँ सूखे ने संस्कृति और आम जीवन को मुश्किलों में डाला है।

जलवायु परिवर्तन के प्रति राजस्थान राज्य में जिला-वार सामाजिक-आर्थिक संवेदनशीलता (सौजन्य: RSAPCC)
जलवायु परिवर्तन के प्रमुख प्रभाव
जब बरसात राहत नहीं, सिरदर्द बन जाए
राजस्थान में ग्रीष्म और शीत ऋतुओं की तीव्रता में स्पष्ट वृद्धि है—गर्मी पहले की तुलना में अधिक प्रचंड हो गई है और सर्दी अधिक कड़ाके की होने लगी है। मॉनसून की अनिश्चितता, वर्षा का देर से आगमन या अल्पावधि में अत्यधिक वर्षा जैसी स्थितियाँ सामान्य होती जा रही हैं। इसके परिणामस्वरूप कृषि प्रणाली बुरी तरह प्रभावित हो रही है।
यहाँ औसत वार्षिक वर्षा लगभग 572 मिमी है, पर यह बहुत असमान रूप से वितरित है: राज्य का उत्तर-पश्चिमी हिस्सा मात्र 200–400 मिमी बारिश प्राप्त करता है, जबकि दक्षिण-पूर्व में यह 900–1000 मिमी तक पहुँच जाती है।
अरावली पर्वत श्रृंखला राज्य को दो भिन्न जलवायु क्षेत्रों में विभाजित करती है; अरावली के पश्चिम का क्षेत्र शुष्क से अर्ध-शुष्क है, जबकि पूर्व का क्षेत्र अर्ध-शुष्क से उप-आर्द्र है और अत्यधिक तापमान, लंबे सूखे, तेज हवाओं और उच्च संभावित वाष्पीकरण की विशेषता है। इस असमानता और मॉनसून की कमी या अत्यधिक तीव्रता की वजह से अचानक सूखा और बाढ़ जैसी चरम घटनाएं आम हो गई हैं, जिससे कृषि प्रणाली बुरी तरह प्रभावित होती है। रिपोर्ट के विश्लेषण से पता चलता है कि राजस्थान में सूखे के महीनों में वृद्धि हुई है।

सूखी और फटती ज़मीन के बीच जीवन की आखिरी उम्मीद — घटती जलधाराएँ सिर्फ प्यास नहीं बढ़ा रहीं, बल्कि पूरे पारिस्थितिकी तंत्र को संकट में डाल रही हैं।
गर्मी, सूखा और बाढ़: एक साथ तीन मोर्चों की मार
“राजस्थान की दो जलवायु अवधियाँ और बदलती वर्षा की तस्वीर”
रिपोर्ट के अनुसार, राज्य में वर्षा की स्थिति का मूल्यांकन दो प्रमुख समयावधियों—1901 से 1950 तक और 1951 से 2015 तक निम्न बिन्दुओ के आधार पर किया गया है:
- वार्षिक वर्षा के रुझान: 1950 तक प्रतापगढ़, बांसवाड़ा और दक्षिणी राजस्थान के अन्य क्षेत्रों में अच्छी वर्षा हुआ करती थी, जबकि जैसलमेर और उत्तरी राजस्थान के कई हिस्सों में लगभग सूखे जैसे हालात थे। लेकिन 1951 से 2015 की अवधि में यह तस्वीर बदल गई — अब जोधपुर, बीकानेर जैसे पश्चिमी-उत्तर पश्चिमी क्षेत्र, पारंपरिक रूप से शुष्क माने जाने के बावजूद, दक्षिण-पूर्वी राजस्थान से अधिक वर्षा प्राप्त करने लगे हैं। वहीं, पहले अधिक वर्षा वाले दक्षिणी क्षेत्र अब लगातार सूखाग्रस्त होते जा रहे हैं। ढोलपुर, जयपुर और मध्य राजस्थान के अन्य इलाके, जो पहले सामान्य वर्षा क्षेत्र थे, अब सूखे की ओर बढ़ते दिखाई दे रहे हैं।
- अगर मानसून की बारिश की बात करें, तो 1901 से 1951 की अवधि के दौरान पूर्वी-दक्षिणी राजस्थान—जैसे प्रतापगढ़, उदयपुर, डूंगरपुर, बांसवाड़ा और हाड़ौती क्षेत्र—में सर्वाधिक वर्षा होती थी। लेकिन 1951 से 2015 की अवधि में यह प्रवृत्ति बदल गई और जोधपुर, चूरू, झुंझुनूं जैसे शुष्क क्षेत्रों को छोड़कर पूरे राज्य में वार्षिक मानसूनी वर्षा में गिरावट दर्ज की गई है।
- गैर-मानसून वर्षा के बदलाव: 1950 से पहले कोटा, झालावाड़ जैसे हाड़ौती क्षेत्र में गैर-मानसून (ग्रीष्म एवं शीत ऋतु) वर्षा सामान्य रूप से होती थी, जबकि अरावली की तलहटी में बसे जैसलमेर, बीकानेर, जोधपुर, पाली, नागौर आदि क्षेत्रों में इसकी मात्रा नगण्य थी। लेकिन 1950 से 2015 के बीच यह प्रवृत्ति उलट गई — अब जैसलमेर व उसके आसपास के क्षेत्रों में गैर-मानसून वर्षा अपेक्षाकृत अधिक देखी जा रही है, जबकि हाड़ौती क्षेत्र में यह लगभग समाप्त हो गई है।
बरसात के रंग: लाल से नीला होता रेगिस्तान
“मानचित्रों में जलवायु का इतिहास”
नीचे दिए गए मानचित्रों में राजस्थान में वर्षा के दशकों के बदलावों को रंगों के माध्यम से दर्शाया गया है। लाल रंग उन क्षेत्रों को दिखाता है जहाँ वर्षा में गिरावट या कम वर्षा हुई है, जबकि नीला रंग उन क्षेत्रों को चिन्हित करता है जहाँ वर्षा की मात्रा में वृद्धि देखी गई है।

1901-1951 अवधि के बीच कुल वार्षिक वर्षा, वार्षिक अधिकतम वर्षा, मानसून वर्षा और गैर-मानसून वर्षा का रुझान (सौजन्य: RSAPCC)

1951-2020 अवधि के बीच कुल वार्षिक वर्षा, वार्षिक अधिकतम वर्षा, मानसून वर्षा और गैर-मानसून वर्षा का रुझान (सौजन्य: RSAPCC)
पानी की प्यास और घटती ज़मीन के नीचे की नमी
“राज्य के पूर्वोत्तर हिस्से सबसे तेज़ी से सूख रहे हैं”
राजस्थान पहले से ही भारत के सबसे जल-अभावग्रस्त राज्यों में है। RSAPCC रिपोर्ट बताती है कि राज्य के उत्तर-पूर्वी जिलों (सीकर, जयपुर, अलवर, दौसा, धौलपुर, करौली, नागौर, राजसमंद) में भूजल स्तर तेजी से घट रहा है, जो तेजी से भूजल की कमी का संकेत है। भूजल पर अधिक दोहन और अनियमित वर्षा के कारण खेतों में पानी नहीं रुकता, ग्रामीण क्षेत्रों में पेयजल और सिंचाई दोनों के लिए संघर्ष बढ़ता जा रहा है। क्षेत्रीय जल संकट राजस्थान में एक गंभीर समस्या हो सकती है, जहां कम वर्षा और भूजल के अत्यधिक दोहन के प्रभाव भविष्य में और बढ़ने की संभावना है। भविष्य में दक्षिण-पूर्वी राजस्थान (प्रतापगढ़, बांसवाड़ा, चित्तोडगढ़, एवं कोटा के कुछ हिस्से) में जल उपलब्धता में वृद्धि दिखाई देती है, लेकिन शेष राजस्थान में कोई परिवर्तन या कमी नहीं दिखती है।

मानचित्र: भूजल की उपलब्धता के रुझान 1996-2014 की अवधि में (सौजन्य: RSAPCC)
जल की माँग बनाम उपलब्धता: एक असंतुलन की तस्वीर
“हनुमानगढ़ से भरतपुर तक अधिक जल उपयोग, लेकिन संकट हर ओर”
राजस्थान में जल की वार्षिक मांग को विभिन्न उपयोग श्रेणियों में विभाजित किया गया है, जिनमें घरेलू उपयोग, पशुधन, संस्थागत जरूरतें, अग्निशमन, सिंचाई तथा विद्युत संयंत्रों की शीतलन आवश्यकताएं शामिल हैं। इन सभी श्रेणियों की कुल मांग को मिलाकर राज्य का वार्षिक जल उपयोग तय किया गया है। संलग्न मानचित्र में राजस्थान के विभिन्न जिलों में जल उपयोग की मात्रा (मिमी में) को रंगों के माध्यम से दर्शाया गया है, जिसमें अधिक जल उपयोग वाले क्षेत्र लाल और कम जल उपयोग वाले क्षेत्र नीले व बैंगनी रंग में दिखाए गए हैं। यह विश्लेषण दर्शाता है कि राज्य के पूर्वी और उत्तर-पूर्वी हिस्सों (हनुमानगढ़, गंगानगर, अलवर, जयपुर, भरतपुर, बूंदी, सीकर, और दौसा) में जल उपयोग अपेक्षाकृत अधिक है, जबकि पश्चिमी और दक्षिणी भागों में यह कम पाया गया है। यह वितरण मुख्यतः सिंचाई, पशुपालन और जनसंख्या घनत्व जैसे कारकों पर निर्भर करता है।

वार्षिक जल उपयोग (सौजन्य: RSAPCC)
कृषि की लड़ाई: जलवायु के सामने किसान बेबस
“65% आबादी की रोज़ी पर मंडराता संकट”
राजस्थान जैसे सूखा-प्रभावित राज्य में, जहां लगभग 65% आबादी की आजीविका सीधे खेती और मौसम पर निर्भर है, जलवायु परिवर्तन की मार सबसे तीव्र रूप से महसूस की जा रही है। बार-बार सूखा पड़ना, भूजल स्तर में गिरावट, जल संसाधनों की कमी, अकुशल जल प्रबंधन, बिगड़ती मिट्टी की गुणवत्ता और घटती उत्पादकता जैसे संकट कृषि को प्रत्यक्ष रूप से प्रभावित कर रहे हैं। इसके साथ ही, बेमौसमी तूफान, लंबा सूखा, ओलावृष्टि और अचानक बाढ़ जैसी चरम मौसमी घटनाएं अब आम हो गई हैं, जिनकी आवृत्ति लगातार बढ़ रही है। जिन जिलों में मौसम की अनिश्चितता अधिक है, वहां कृषि सबसे अधिक संकटग्रस्त है, जिससे फसलें बर्बाद हो रही हैं और किसान आर्थिक असुरक्षा की स्थिति में फंसते जा रहे हैं।
“बारमेर से सिरोही तक अलग-अलग संकट, अलग-अलग कारण”
राज्य-स्तरीय आंकड़ों से यह स्पष्ट होता है कि कृषि संवेदनशीलता और जलवायु संकट के बीच एक सकारात्मक संबंध है। बाड़मेर, जैसलमेर, चूरू और जालोर जैसे ज़िले सर्वाधिक संवेदनशील पाए गए हैं, जबकि बूंदी, चित्तौड़गढ़, दौसा, करौली, राजसमंद, अलवर, बारां और धौलपुर जैसे ज़िलों में यह संवेदनशीलता सबसे कम है। हालांकि कुछ ज़िले इस सामान्य प्रवृत्ति से अलग भी हैं—जैसे गंगानगर और हनुमानगढ़, जहां जलवायु संकट तो अधिक है, लेकिन सिंचाई की बेहतर सुविधाओं के कारण कृषि अपेक्षाकृत सुरक्षित है। इसके विपरीत सिरोही ज़िले में जलवायु संकट अपेक्षाकृत कम होते हुए भी कृषि की संवेदनशीलता अधिक है, क्योंकि वहां सिंचाई सुविधा और उत्पादकता दोनों बहुत कम हैं।
इन हालातों का सामाजिक प्रभाव भी गहरा है—स्थानीय बाजारों में अंशकालिक मजदूरी, ऋणग्रस्तता और प्रवासन की प्रवृत्ति बढ़ रही है, जिससे ग्रामीण सामाजिक संरचना अस्थिर हो रही है।
तपिश और बीमारी: जनस्वास्थ्य पर दोहरी मार
“हीट स्ट्रोक से लेकर डेंगू तक, जलवायु बदल रही है बीमारियों का नक्शा”
तापमान में वृद्धि, जल संकट और भोजन की असुरक्षा का सीधा असर जनस्वास्थ्य पर पड़ रहा है, विशेषकर कमजोर और वंचित समुदायों में। अत्यधिक गर्मी ‘हीट स्ट्रोक’ और ‘हीट एक्सहॉस्टन’ जैसी बीमारियाँ ला रही है, जबकि बाढ़ और जलजमाव के कारण डेंगू, मलेरिया जैसे पानीजनित रोग तेजी से फैल रहे हैं। राजस्थान में पहले से ही डेंगू और मलेरिया का प्रकोप अधिक है। जलवायु परिवर्तन से प्रेरित अप्रत्यक्ष स्वास्थ्य प्रभावों में व्यावसायिक रोग, खराब पोषण और मानसिक स्थिति भी शामिल हैं।
बढ़ती आर्द्रता और सर्दी से अस्थमा, ब्रोंकाइटिस जैसे श्वसन संबंधी रोगों में भी वृद्धि हो रही है। इन सभी कारणों से अस्पतालों में भीड़ बढ़ रही है, स्वास्थ्य बजट पर दबाव पड़ रहा है और लोगों की जीवन गुणवत्ता में गिरावट आ रही है—यहाँ तक कि छुट्टियाँ भी अब स्वास्थ्य संबंधी चिंता से घिर गई हैं।
शहरों की गर्मी और जलभराव: हीट आइलैंड बनते शहर
“जब हर सड़क तपती है और हर गली में पानी भरता है”
शहरों में ग्रीन स्पेस कम होने से “अर्बन हीट आइलैंड” इफ़ेक्ट बढ़ता है। बारिश का पानी सही ढंग से निकासी न मिलने से जलभराव होता है, ट्रैफिक जाम और प्रदूषण दोगुना होता है। रिपोर्ट बताती है कि राजस्थान के शहरी क्षेत्रों, विशेषकर सीकर जिले में, वार्षिक न्यूनतम दैनिक तापमान में उल्लेखनीय वृद्धि देखी जा रही है। वहीं, दक्षिण और पूर्वी राजस्थान के शहरों (बांसवाड़ा, बारां, बूंदी, चित्तौड़गढ़, झालावाड़, पाली, सिरोही, चूरू और जयपुर) के साथ-साथ पश्चिम में जैसलमेर में दैनिक अधिकतम तापमान में उल्लेखनीय वृद्धि देखी जा रही है। ऐसे हालात में पानी सोखने वाले फर्श और वर्षा जल संचयन जैसे स्थानीय उपाय ही कारगर समाधान हैं।
वनों की आग और जैव विविधता की पुकार
“2035 तक वन आवरण का 61% बदल सकता है”
वन और जैव विविधता पर भी गंभीर खतरा मंडरा रहा है। अरावली की पहाड़ियों से लेकर अन्य जंगलों में आग की घटनाएं बढ़ी हैं, जिससे कई प्रजातियों के आवास प्रभावित हुए हैं और पारिस्थितिक असंतुलन पैदा हो रहा है। जलवायु परिवर्तन के कारण वनों की आग, पौधों और जानवरों की प्रजातियों के निवास स्थान में बदलाव और वनस्पति संरचना में गिरावट देखी जा रही है। इससे पारिस्थितिक तंत्र की स्थिरता को खतरा है। रिपोर्ट में अनुमान लगाया गया है कि जलवायु परिवर्तन के कारण राजस्थान में वनस्पति आवरण में परिवर्तन 2035 तक 61.22% और 2085 तक 78.18% हो सकता है।

जलते जंगलों की लपटें सिर्फ पेड़ों को नहीं, भविष्य की उम्मीदों को भी राख कर रही हैं।
राजस्थान की सूखी धरती पर हर चिंगारी एक चेतावनी है।
त्योहार, संस्कृति और परंपरा: जलवायु से बदलता जन-जीवन
“मानसून आधारित त्योहारों का समय अब यादों में खोता जा रहा है”
जलवायु परिवर्तन ने परम्परागत त्योहारों, लोककथाओं और रीति-रिवाजों को भी प्रभावित किया है। मानसून पर आधारित उत्सवों का समय खिसक रहा है, नदी-तीर्थ यात्रा जोखिमभरे हो गए हैं, और पारंपरिक कृषि-आधारित त्यौहारों में हिस्सा लेने वाले युवा शहर की ओर पलायन कर रहे हैं।

कभी हरियाली तीज की झूला गीतों से गूंजते आँगन, आज सूखी धरती और धुंधली यादों में बदल गए हैं।
मानसून-आधारित त्योहार अब सिर्फ दीवारों की फीकी पेंटिंग में बचे हैं।
2030 की चेतावनी: उत्सर्जन और अवसर दोनों साथ
“यदि आज नहीं चेते, तो 1.7 गुना बढ़ जाएगा उत्सर्जन”
रिपोर्ट के अनुसार, यदि वर्तमान विकास की दिशा में कोई परिवर्तन नहीं किया गया तो राजस्थान में 2030 तक ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन वर्तमान मूल्य का लगभग 1.7 गुना तक बढ़ सकता है। राजस्थान का कुल अनुमानित योगदान 137 मीट्रिक टन CO₂-तुल्यांक/वर्ष है, जिसमें लगातार वृद्धि की प्रवृत्ति है।
प्रमुख उत्सर्जक क्षेत्र और अनुमान:
- बिजली उत्पादन: यह क्षेत्र लगभग 2 मीट्रिक टन CO₂-तुल्यांक/वर्ष का उत्सर्जन करता है और सबसे बड़े उत्सर्जकों में से एक है।
- कृषि क्षेत्र: यह भी लगभग 8 मीट्रिक टन CO₂-तुल्यांक/वर्ष का योगदान देता है, जिसमें फसल अवशेषों को जलाना, पशुधन से मीथेन उत्सर्जन और उर्वरकों का उपयोग शामिल है।
- उद्योग: औद्योगिक उत्पादन लगभग 4 मीट्रिक टन CO₂-तुल्यांक/वर्ष उत्सर्जित करता है ।
- सीमेंट उद्योग: यह औद्योगिक उत्सर्जन का एक बड़ा हिस्सा है ।
- वस्त्र और चमड़ा, एवं रसायन और उर्वरक उद्योग भी महत्वपूर्ण योगदानकर्ता हैं ।
- परिवहन: यह क्षेत्र लगभग 34 मीट्रिक टन CO₂-तुल्यांक/वर्ष उत्सर्जित करता है और 2030 तक इसके उत्सर्जन में 2.7 गुना वृद्धि का अनुमान है ।
- आवासीय क्षेत्र: लगभग 10 मीट्रिक टन CO₂-तुल्यांक/वर्ष का उत्सर्जन, मुख्य रूप से खाना पकाने और प्रकाश व्यवस्था के लिए पारंपरिक ईंधन के उपयोग से होता है । 2030 तक इसमें 20% वृद्धि की संभावना है ।
- ईंट उत्पादन: लगभग 4 मीट्रिक टन CO₂-तुल्यांक/वर्ष उत्सर्जित करता है । यदि वर्तमान तकनीक (मुख्य रूप से फिक्स्ड चिमनी बुल्स ट्रेंच किल्न – FCBTKs) में बदलाव नहीं किया गया तो 2030 तक ईंट निर्माण से होने वाला उत्सर्जन दोगुना से अधिक हो सकता है ।
- अपशिष्ट प्रबंधन: लगभग 4 मीट्रिक टन CO₂-तुल्यांक/वर्ष का उत्सर्जन करता है ।
नीतियाँ नहीं, समाधान चाहिए: अवसरों की सूची
“जल, ऊर्जा, कृषि, वन और स्वास्थ्य—हर क्षेत्र में सुधार की राह है”
हालांकि, यह संकट एक अवसर भी प्रदान करता है। राजस्थान राज्य जलवायु परिवर्तन कार्य योजना (RSAPCC) में कई समाधान सुझाए गए हैं, जैसे:
- जल प्रबंधन: पुनः उपयोग और रिचार्ज को बढ़ावा देना। जल संरक्षण के पारंपरिक और वैज्ञानिक तरीकों को एकीकृत करना। इसमें वर्षा जल संचयन को अनिवार्य बनाना और भूजल पुनर्भरण के लिए नवोन्मेषी तकनीकों का उपयोग करना शामिल है।
- हरित ऊर्जा में निवेश: सौर और पवन ऊर्जा परियोजनाओं का विस्तार। राजस्थान में सौर ऊर्जा की अनुमानित क्षमता 142 GW और पवन ऊर्जा की 7 GW है।
- स्मार्ट कृषि: जल-कुशल तकनीकों और फसल विविधीकरण को अपनाना। इसमें ड्रिप और स्प्रिंकलर सिंचाई प्रणाली और कम पानी वाली फसलों को बढ़ावा देना शामिल है।
- शहरी नियोजन: हरित भवन, सार्वजनिक परिवहन और टिकाऊ बुनियादी ढांचे की ओर अग्रसर होना। शहरों में ग्रीन स्पेस बढ़ाना और वर्षा जल निकासी प्रणालियों में सुधार करना।
- स्वास्थ्य प्रणाली को जलवायु के अनुकूल बनाना: स्वास्थ्य सेवाओं, पोषण, स्वच्छता और निगरानी तंत्र को सुदृढ़ करना। इसमें गर्मी और सर्दी से संबंधित बीमारियों के लिए प्रारंभिक चेतावनी प्रणाली विकसित करना और वेक्टर जनित रोगों के लिए निगरानी बढ़ाना शामिल है।
- वन और जैव विविधता का संरक्षण: वनीकरण को बढ़ावा देना, मौजूदा वनों की सुरक्षा करना और आग की घटनाओं को रोकने के उपाय करना।
- उत्सर्जन में कमी: औद्योगिक प्रक्रियाओं में सुधार, ईंट भट्टों में स्वच्छ तकनीक का उपयोग और परिवहन क्षेत्र में इलेक्ट्रिक वाहनों को बढ़ावा देना।
निष्कर्ष: आज की तैयारी, कल का भविष्य
“अगर आज ठोस कदम उठाए, तो राजस्थान बन सकता है मॉडल राज्य”
जलवायु परिवर्तन कोई दूर की आशंका नहीं, बल्कि एक जीवंत, वर्तमान संकट है — और राजस्थान इसके सबसे सामने खड़े राज्यों में है। यदि आज हम समुचित नीति, समुदायिक भागीदारी और वैज्ञानिक दृष्टिकोण के साथ ठोस कदम उठाते हैं, तो न केवल हम इस संकट से बच सकते हैं, बल्कि राजस्थान को जलवायु-संवेदनशीलता से मुक्त एक टिकाऊ राज्य के रूप में स्थापित भी कर सकते हैं। इस कार्य योजना का प्रभावी कार्यान्वयन राजस्थान को भारत में जलवायु कार्रवाई के लिए एक बेंचमार्क बना सकता है।

गर्मी की मार झेलता एक ग्रामीण – तपती ज़मीन, दीवारों में समाई लू, और पेड़ की छांव ही है राहत का एकमात्र सहारा। राजस्थान के गाँवों में अब यही दृश्य आम हो चला है। (फ़ोटो: डॉ धर्मेन्द्र खांडल)
नोट: यह लेख राजस्थान राज्य जलवायु परिवर्तन कार्य योजना (Rajasthan State Action Plan on Climate Change – RSAPCC) पर आधारित है, जिसे 2022 में राजस्थान सरकार के पर्यावरण एवं जलवायु परिवर्तन विभाग और भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान (IIT) मुंबई के सहयोग से तैयार किया गया था। इस योजना के निर्माण में प्रमुख भूमिका निभाने वालों में राजस्थान सरकार के तत्कालीन प्रमुख सचिव (वन, पर्यावरण और जलवायु परिवर्तन) श्री शिखर अग्रवाल (IAS) और IIT मुंबई के प्रोफेसर के. नारायणन (मुख्य परियोजना प्रभारी) शामिल थे। IIT मुंबई की टीम में प्रोफेसर रंगन बनर्जी, प्रोफेसर सुभीमल घोष, प्रोफेसर अर्नब जना, प्रोफेसर त्रुप्ति मिश्रा, प्रोफेसर डी. पार्थसारथी, प्रोफेसर आनंद बी. राव और प्रोफेसर चंद्रा वेंकटरमन जैसे विशेषज्ञों ने योगदान दिया। इस योजना का उद्देश्य राजस्थान को जलवायु परिवर्तन के प्रभावों के प्रति अधिक लचीला और अनुकूल बनाने के लिए रणनीतियाँ विकसित करना है।