राजस्थान में मिलने वाले कछुओं की प्रजातियां

राजस्थान में मिलने वाले कछुओं की प्रजातियां

राजस्थान के भूभाग पर  विशाल प्राकृतिक आवास जैसे थार का रेगिस्तान, अरावली एवं विंध्यन की शुष्क पर्वतमाला, शुष्क और अर्ध-शुष्क पतझड़ी वन, अलवणीय एवं लवणीय झीलें तथा आर्द्र भूमि आदि मौजूद हैं | राजस्थान के इन पारिस्थितिकी तंत्रों में अत्यंत विकसित जैव विविधता भी उपलब्ध है |

क्या शुष्क राजस्थान में जलीय प्राणी वर्ग में भी विविधता होगी ? राजस्थान राज्य में 26 बड़ी नदियाँ बहती हैं एवं यहाँ पर बड़ी संख्या में झीलें एवं तालाब हैं |  राजस्थान में जलीय कछुओं की 10 प्रजातियाँ पाई जाती हैं और 01 प्रजाति जमीन पर रहने वाली पाई जाती है | जैव विविधता के एक अनोखे वर्ग – कछुओं के प्रति हम सदैव अनभिज्ञ रहे है। कछुए माँसाहारी और शाकाहारी दोनों ही तरह के होते हैं, ये मरे हुए जानवरों के सड़े-गले अवशेषों को खा जाते हैं, इससे नदी, नालों को साफ रखने में बहुत सहायता मिलती है | कछुए भोज्य शृंखला का एक महत्वपूर्ण हिस्सा होते है।

राजस्थान में पाए जाने वाले कछुओं में सबसे ज्यादा जलीय कछुओं की निम्न प्रजातियाँ पाई जाती हैं:

  1. निल्सोनिया गेंजेटिका (इंडियन सॉफ्ट शेल टर्टल) Nilssonia gangetica (Indian softshell turtle): यह नदियों एवं तालाबों में पाए जाने वाली नरम खोल की एक प्रजाति है| यह प्रजाति लगभग 94 से.मी तक बड़ी होती है | यह प्रजाति सड़े गले मांस एवं पानी में पाए जाने वाले पौधों के साथ में जलीय वनस्पती, मछलियों, अन्य कछुओं की हैचलिंग एवं जल पक्षियों पर शिकार करते है| गंगा स्वछता अभियान के अंतर्गत इस प्रजाति को नदी साफ करने के लिए छोड़ा गया हैं| यह एक बार में 13-35 अंडे देते हैं और अपने अंडे अगस्त से दिसंबर मास तक देते है जिनमें से बच्चे निकलने में तकरीबन 9 महीने लगते है | रणथंभोर टाइगर रिजर्व में कुछ साल पहले एक बाघ को इन्डियन सॉफ्टशेल टर्टल का शिकार करते हुए भी देखा गया है | इनके मांस और अंडो के लिए इनका इंसानों द्वारा अवैध तरीके से शिकार किया जाता है |

इंडियन सॉफ्ट शेल टर्टल (निल्सोनिया गेंजेटिका), IUCN status : V, WLPA Sch.- I. (फोटो: अरुणिमा सिंह/ TSA- India)

 

2. निल्सोनिया हुरम (इंडियन पीकॉक सॉफ्ट शेल टर्टल) Nilssonia hurum (Indian peacock softshell turtle): यह नदियों एवं तालाबों में पाए जाने वाली नरम खोल की एक और प्रजाति है| यह प्रजाति लगभग 60 से.मी तक बड़ी होती है और मछली एवं घोंघे खाते है | इनके खोल पर 4 से 5 गोल  निशान देखे जा सकते हैं | यह एक बार में 20-38 अंडे देते हैं और अपने अंडे अगस्त से दिसंबर मास में देते हैं| यह प्रजाति राजस्थान में केवलादेव राष्ट्रीय वन्य जीव अभ्यारण्य एवं चम्बल नदी के कुछ हिस्सों में पाई जाती हैं| इस प्रजाति का शिकार मांस और अंडो के लिए किया जाता है।

इंडियन पीकॉक सॉफ्ट शेल टर्टल (निल्सोनिया हुरम), IUCN status : V, WLPA Sch.- I (फोटो: शैलेन्द्र सिंह/ TSA- India)

 

3. लिसेमिस पंक्टाटा (इंडियन फ्लेपशेल टर्टल) Lissemys punctata (Indian flapshell turtle): नदी, झीलों और तालाबों में पाए जाने वाली नरम खोल की एक छोटी प्रजाति है| यह प्रजाति लगभग 37 से.मी की होती है और टैडपोल, मछली और जल कुम्भी आदि खाते हैं।  यह प्रजाति सितंबर से  नवंबर मास में अंडे देते हैं और एक बार में 8- 14 अंडे देते हैं जिनमें से बच्चे तकरीबन 9 महीने में निकलते हैं । यह कछुआ पालने और इसके मांस के लिए अधिक मांग में हैं|  माना जाता है की इस प्रजाति की राजस्थान में 2 उप-प्रजातियां पायी जाती है ( लिसेमिस पंक्टाटा आंडर्सनी- Lissemys punctata andersonii और लिसेमिस पंक्टाटा पंक्टाटा – Lissemys punctata punctata) राजस्थान की लिसेमिस पंक्टाटा पंक्टाटा उप -प्रजाति इंडिया में पाए जाने वाली वाकी लिसेमिस पंक्टाटा पंक्टाटा से कुछ अलग बताई जाती है। इसलिए इस उप-प्रजाति पर आनुवंशिक अनुसंधान चल रहा जिससे इसके बारे में कुछ विशेष बातें पता लग सकती है।

 

इंडियन फ्लेपशेल टर्टल (लिसेमिस पंक्टाटा आंडर्सनी), IUCN status : LC, WLPA Sch: I, (फोटो: शैलेन्द्र सिंह/ TSA- India)

इंडियन फ्लेपशेल टर्टल (लिसेमिस पंक्टाटा पंक्टाटा ), IUCN status : LC, WLPA Sch: I, (फोटो: मेहुल सिंह तोमर)

 

4. चित्रा इंडिका (नेरो हेडेड सॉफ्ट शेल टर्टल) Chitra indica (Narrow headed softshell turtle): यह रेतीले किनारों वाली नदियों में पाए जाने वाले एक नरम खोल की बड़ी प्रजातियों में से एक है | वे नदी के तल पर मौजूद रेत में खुद को दफनाते हैं और मछलियां, मोलस्क, आदि का शिकार करते हैं | इस प्रजाति के कछु-ए 150 से.मी तक बढ़ सकते हैं और अगस्त-सितंबर मास में अंडे देते हैं। एक बार में यह प्रजाति 65 से 193 अंडे दे सकते हैं| वे अपने अंडे रेत में देते हैं और उनमें से बच्चे 40-70 दिनों में बाहर आते हैं। इनके मांस और अंडो के लिए इनका इंसानों द्वारा अवैध तरीके से शिकार किया जाता है |

नेरो हेडेड सॉफ्ट शेल टर्टल (चित्रा इंडिका), IUCN Status: EN, WLPA Sch.- II (फोटो: शैलेन्द्र सिंह/ TSA- India)

 

5. जियोक्लेमिस हैमिल्टोनी (स्पोटेड पोंड टर्टल) Geoclemys hamiltonii (Spotted pond turtle): झीलों और तालाबों में पाए जाने वाली सख्त खोल की एक छोटी प्रजाति है| इसका रंग काला होता है और इसके ऊपर पीले डॉट्स भी होते है। यह प्रजाति लगभग 41 से.मी तक बड़ी होती है और मछली,घोंघे, घास, फल एवं जलकुम्भी खाते है | भारत में यह प्रजाति अप्रैल-मई मास में लगभग 12-36 अंडे देते है और उनमें से बच्चे 50-60 दिनों में बाहर आते हैं। यह कछुआ इसके आकर्षक चित्तीदार पैटर्न के कारण पालने के लिए अधिक मांग में हैं|

स्पोटेड पोंड टर्टल (जियोक्लेमिस हैमिल्टोनी), IUCN status: EN, WLPA Sch. – I (फोटो: शैलेन्द्र सिंह/ TSA- India)

 

6. हार्देला थुरजी (क्राउंड रिवर टर्टल) Hardella thurjii (Crowned river turtle): यह नदी व उनकी छोटी और स्थिर शाखाओं में पाए जाने वाली सख्त खोल की एक बड़ी प्रजाति है। इसका रंग काला होता है और इसके मुँह पर 4 पीली-नारंगी रंग की धारियां देखी जा सकती है। इस प्रजाति की मादा कछुआ लगभग 61 से.मी तक बड़ी हो सकती है और नर लगभग 18 से.मी के हो सकते है। मुख्य तौर पर शाकाहारी होती है, इसलिए सब्ज़ी, फल, आदि खाते है। यह प्रजाति सितम्बर से जनवरी मास में अंडे देते है और एक बार में 30-100 अंडे दे सकते है। जिनमें से बच्चे निकलने में तकरीबन 9 महीने लगते है। इसके मांस की खपत और मछली पकड़ने के जाल में फसना उनके लिए सबसे बड़ा खतरा बनकर उभर के आया है।

क्राउंड रिवर टर्टल (हार्देला थुरजी), IUCN status: V, WLPA Sch: not listed (फोटो: शैलेन्द्र सिंह/ TSA- India)

 

7. बटागुर कछुगा (पेंटेड रूफ टर्टल) Batagur kachuga (Painted roofed turtle): यह रेतीले किनारों वाली नदियों में पाए जाने वाले एक सख्त खोल की बड़ी प्रजाति है। भारत में यह प्रजाति मुख्य तौर पे गंगा व उसकी सहायक नदियों में पायी जाती है। राजस्थान में यह प्रजाति चम्बल में देखी जा सकती है। इस प्रजाति में भी नर मादा से छोटे होते है, प्रजनन काल में वयस्क नर का मुँह चटक लाल, नीला और पीला रंग अपना लेता है। यह लगभग 56 से.मी तक बढ़ सकते है और शाखाहारी होते है, मुख्या तौर पर यह प्रजाति जलीय वनस्पती खाते है।  यह साल में दो बार अंडे देते है मार्च से अप्रैल और दिसंबर माह में, एक बार में करीब 11-30 अंडे देते है। इसके ऊपर मंडराता खतरा इसके मांस के सेवन और प्राकृतिक वास का नुकसान बने हुए है।

पेंटेड रूफ टर्टल (बटागुर कछुगा), IUCN status: CR, WLPA sch: I (फोटो: शैलेन्द्र सिंह/ TSA- India)

 

8. बटागुर ढोंगोका (थ्री-स्ट्राइपड रूफ टर्टल ) Batagur dhongoka (Three-striped roofed turtle)  : यह रेतीले किनारों वाली नदियों में पाए जाने वाले एक सख्त खोल की बड़ी प्रजातियों में से एक है | इस प्रजाति को इसके कवछ पे मौजूद 3 काली धारियों और आँखों के पार जाती पीली धारी से पहचाना जा सकता हैं।   भारत में यह प्रजाति मुख्य तौर पे गंगा व उसकी सहायक नदियों एवं चम्बल में पायी जाती है। इस प्रजाति की मादा कछुआ लगभग 48 से.मी तक बड़ी हो सकती है और नर लगभग 25.5 से.मी तक बढ़ सकते है। मुख्या तौर पर यह शाखाहारी होते है मगर इस प्रजाति के नर अवसरवादी मांसाहारी होते है।  यह मार्च से अप्रैल माह में अंडे देते है , एक बार में यह 21-35 अंडे तक दे सकते है जिनसे बचे निकलने में 56-89 दिन लगते है।  इसके ऊपर मंडराता खतरा भी इसके मांस के सेवन और प्राकृतिक वास का नुकसान बने हुए है।

थ्री-स्ट्रीप रूफ टर्टल (बटागुर ढोंगोका), IUCN status: CR, WLPA Sch: not listed (फोटो: भास्कर दिक्षित/ TSA- India)

 

9. पेंग्शुरा टेक्टा( इंडियन रूफड टर्टल) Pangshura tecta (Indian roofed turtle): ये कछुए ठहरे पानी वाली नदियों व नालों में पाए जाती है। इस प्रजाति के कई कछुए एक साथ धूप सेकते देखे जा सकते है। ये एक सख्त खोल की छोटी प्रजाति का कछुआ है। यह कछुआ लगभग 18 से.मी बड़े हो सकते है, यह किशोर अवस्था में मासाहारी होते है लेकिन व्ययस्क होते-होते शाकाहार अपना लेते है।  यह सितम्बर से नवंबर मास में एक कछुआ 5 से 10 अंडे  दे सकता है। यह उत्तर भारत और मध्य भारत में पाए जानी वाली प्रजाति है। इस प्रजाति का इस्तेमाल चीनी दवाइयों में और इसके आकर्षक रंगो के कारण पालने के लिए किया जाता है।

इंडियन रूफड टर्टल (पेंग्शुरा टेक्टा), IUCN status: LC, WLPA sch: I (फोटो: शैलेन्द्र सिंह/ TSA- India)

 

10. पेंग्शुरा टेंटोरिया (इंडियन टेंट टर्टल) Pangshura tentoria (Indian tent turtle): यह छोटी एवं बड़ी नदियों में पाए जाने वाली सख्त खोल की छोटी प्रजाति है। इसके ऊपर खोल के किनारो पर मौजूद गुलाबी धारी इसे वाकी पेंग्शुरा प्रजाति के कछुओं से अलग करती है। यह कछुआ लगभग 27 से.मी बड़े हो सकते है । इस प्रजाति के  किशोर एवं व्ययस्क नर मांसाहारी होते है, लेकिन इस प्रजाति के मादाएं पूरी तरह से शाकाहारी होती है। ये एक बार में 3-6 अंडे देते है जिनमे से बच्चे निकलने में 125-144 दिन लग सकते है। इस प्रजाति के नर और किशोर पालने के लिए पकडे जाते है।

इंडियन टेंट टर्टल (पेंग्शुरा टेंटोरिया), IUCN status: LC, WLPA sch.: Not listed (फोटो: रिषिका दुबला / TSA- India)

 

11. जियोचिलोन एलिगेंस (इंडियन स्टार टोरटोइस) Geochelone elegans (Indian star tortoise): स्टार टोरटोइस एक ज़मीनी कछुए की प्रजाति है जो खेतों के आस-पास अथवा वन में पाए जाते है। इनका खोल सख्त होता है और उसके ऊपर स्टार जैसा पैटर्न होता है। यह लगभग 38 से.मी जितना बड़ा हो जाता है  | पुरानी स्टडीज से पता चलता है कि स्टार टोरटोइस शाकाहारी है परन्तु इसे मृत जानवरों के अवशेषों को खाते हुए देखा गया है, स्टार टोरटोइस को मृत जीवो को खाते हुए भी देखा गया है | यह मार्च- जून एवं नवंबर माह में 2-10 अंडे देते है, जिनमे से बच्चे निकलने में 100-130 दिन लग सकते है।इन कछुओं की मांग पालने एवं काले जादू के लिए इस्तेमाल में लिए जाने की वजह से बढ़ती जा रही है। प्राकृतिक वास के नुकसान से भी इनके लिए खतरा बना हुआ है।

इंडियन स्टार टोरटोइस (जियोचिलोन एलिगेंस), IUCN status: V, WLPA sch.: IV (फोटो: अरुणिमा सिंह/ TSA- India)

 

भारतीय पौराणिक कथाओं के अनुसार ये कहा जाता है कि एक विशाल कछुए ने समुद्र मंथन के समय मंदराचल पर्वत के मंथन में बहुत बड़ी भूमिका का निर्वाह किया था , यही मुख्य कारण है कि इनकी तस्करी की जाती है | आज भी माना  जाता है कि  एक और मिथ  हैं कि कछुए के माँस से ट्यूबरक्लोसिस का उपचार होता है जिसके कारण इसका बहुत अधिक मात्रा में शिकार होता हैं | इनको माँस के लिए भी मारा जाता हैं | स्टार टोरटोइस को पालने के लिए अधिकांशत: अरावली की तलहटी एवं राजस्थान के अन्य वनों में से पकड़कर बेचा जाता है, इनकी मांग दीवाली के त्यौहार के दौरान सर्राफा व्यवसायियों के बीच बढ़ जाती है | संरक्षित क्षेत्रों में से होकर बाँध, उच्च मार्गों का निर्माण, बालू का खनन इनके लिए मुख्य खतरे हैं, टर्टल संरक्षण के लिए राजस्थान में भी जागरूकता पैदा किए जाने की अत्यधिक आवश्यकता है, अन्यथा हम देखेंगे कि राज्य से बहुत सारी प्रजातियाँ विलुप्त हो जाएँगी | 11 में से 07 प्रजातियों को वन्यजीव संरक्षण अधिनियम, 1972 में (वन्यजीव संरक्षण अधिनियम स्थिति) अनुसूची-I एवं अनुसूची-IV में 1 के अंतर्गत अनुसुचिबद्ध किया गया है |

 

राजस्थान में कछुओं की बहुरूपता का बहुत अधिक अध्ययन नहीं हुआ है, इस बारे में अधिकांश जो अध्ययन हुआ है, वो चंबल एवं केवलादेव राष्ट्रीय पक्षी अभ्यारण्य में हुआ है, इसलिए यह अनुशंसा है कि कछुओं के संरक्षण हेतु विभिन्न कार्यक्रमों  के माध्यम से इनके निवास को संरक्षित एवं कछुओं पर गहन अध्ययन  किये जाने चाहिए।  |

 

बैनर चित्र : डॉ धर्मेंद्र खांडल  

गोडावण के आसमान में तारो का जंजाल

गोडावण के आसमान में तारो का जंजाल

अति संकटापन्न पक्षी प्रजाति गोडावण के पर्यावास में महत्वाकांक्षी अक्षय ऊर्जा की परियोजनाओं के कारण विद्युत् लाइनों का मानो जाल बिछ गया है। इनके सम्बन्ध में अक्सर कहा जाता है, इन्हे भूमिगत रूप से डाला जाये।  पढ़ते है, क्या व्यवाहरिक कारण है इनके भूमिगत होने में

अक्षय ऊर्जा के स्रोतों में से जैसलमेर क्षेत्र में मुख्यतः पवन ऊर्जा एवं सौर ऊर्जा की विभिन्न इकाइयां स्थापित हैं। ये सौर एवं पवन ऊर्जा के संयंत्र बड़े पैमाने पर बिजली उत्पादन में सक्षम हैं। अक्षय ऊर्जा उत्पादन के क्षेत्र में पवन एवं सौर ऊर्जा सबसे उन्नत एवं विकसित तकनीकें हैं। पवन चक्कियों को चलाने वाली उच्च गति से बहती, सतत हवा और साफ़ आकाश के साथ खिली धूप जो सौर ऊर्जा के लिए जरूरी विकिरण उपलब्ध करवाती है। जैसलमेर क्षेत्र इन दोनों ही स्त्रोतों की उपलब्धता के अनुसार राष्ट्रीय स्तर पर अग्रिम पंक्ति में आता है। ये दोनों संसाधन मिल कर जैसलमेर को देश की प्रमुख सौर-पवन Hybrid site बनाते हैं।

गोडावण पक्षी

अक्षय ऊर्जा की यह स्थापित परियोजनाएं, राज्य को ही नहीं बल्कि राष्ट्र को ऊर्जा उत्पादन के क्षेत्र में आत्मनिर्भर बना रही हैं वहीँ कोयले एवं अन्य पेट्रोलियम जनित ऊर्जा स्रोतों पर हमारी निर्भरता भी कम कर रही है। यह स्वच्छ एवं हरित ऊर्जा, कार्बन उत्सर्जन को कम कर पर्यावरण को स्वच्छ करने में अपना बहुमूल्य योगदान दे रही है। यद्दपि यह आज कल चर्चा का विषय है की इस के पारिस्थितिक तंत्र पर प्रतिकूल प्रभाव भी है।

राज्य में स्थापित 4292 मेगा वाट के पवन ऊर्जा परियोजनाओं में से 3464 मेगा वाट जैसलमेर जिले में हैं। पवन ऊर्जा संयंत्र अत्याधुनिक तकनीक से युक्त होते हैं, परिष्कृत कंप्यूटर गणनाओँ एवं अनुसंधान के पश्चात इन्हे स्थापित करने के स्थान का चयन किया जाता है। हवा के बहाव एवं भौगोलिक क्षेत्र के वर्षो तक किये गये अध्ययन के उपरांत एक परियोजना क्षेत्र निर्धारित किया जाता है। इसी कारण इन परियोजनाओं के लिए भारी निवेश की भी आवश्यकता होती है।

इन ऊर्जा परियोजनाओं को स्थापित करने के प्रारंभिक चरण के दौरान, राज्य सरकार द्वारा उन क्षेत्रों में बड़े पैमाने पर भूमि आवंटित की गई थी, जहां डेवलपर्स ने अपने पूर्व परियोजना अनुसंधान डेटा के आधार पर आवेदन किया था। भूमि आबंटन हर चरणों में जाँच के साथ एक बहुत ही विस्तृत और सख्त प्रक्रिया है। फिर इन आवेदनों का विश्लेषण भूमि प्रतिबंध, रक्षा, आवास, खनन आदि जैसे विभिन्न प्रतिबंधों के आधार पर किया जाता है और उनमें से एक प्रमुख प्रतिबंध डेजर्ट नेशनल पार्क (डीएनपी) से बचने के लिए है, जहां गोडावण यानि ग्रेट इंडियन बस्टर्ड (जीआईबी) पाया जाता है। कोई भी डेवलपर डेजर्ट नेशनल पार्क की सीमा में प्रवेश नहीं करता है और यह सभी परियोजनाओं के नियोजन चरण में एक स्पष्ट No-Go क्षेत्र है।

जुलाई 2013 में सलखा, कुचड़ी इलाकों के पास जीआईबी देखे जाने की पहली रिपोर्ट आई थी। ये ऐसे क्षेत्र थे जो DNP सीमा से परे हैं। इस समय तक, इन क्षेत्रों के पास भूमि पार्सल पहले ही आवंटित किए गए थे और परियोजनाएं स्थापना के चरण में थीं। इस क्षेत्र को इको सेंसिटिव ज़ोन घोषित करने के लिए कवायद शुरू हुई और इस क्षेत्र में सभी नई परियोजनाओं को रोकने के निर्देश के लिए लगभग 3 साल लग गए और स्थापना रुक गईं। पिछले वर्षों में 2017 से अब तक जैसलमेर या राजस्थान में कोई नई पवन  संयंत्र की स्थापना नहीं हुई है।

रेगिस्तान में पवन चक्किया

इस वर्ष, पवन, सौर और पवन-सौर हाइब्रिड परियोजनाओं के लिए नई नीतियों की घोषणा के साथ, राजस्थान सरकार फिर से राज्य में अक्षय ऊर्जा को बढ़ावा देने  का प्रयास कर रही है और राजस्थान फिर इस उद्योग के लिए एक पसंदीदा विकल्प बन रहा है। ग्रेट इंडियन बस्टर्ड के संरक्षण के लिए, डीएनपी से परे आवासों की रक्षा हेतु अब जैसलमेर में एक “GIB arch” प्रस्तावित है। यह GIB arch अब क्षेत्र में पवन परियोजनाओं की “NO-Go Area List” में शामिल है, और इस GIB arch और DNP के बाहर ही सभी पवन परियोजनाओं की योजना बनाई गई है।

अक्षय ऊर्जा की ये परियोजनाएं, नवीन दिशा निर्देशों एवं नीतियों के अनुसार “Reverse Bid Process” द्वारा आवंटित की जाती है जिस से इनसे जनित बिजली न्यूनतम दरों पर विभिन्न सरकारी उपक्रमों द्वारा क्रय की जाती है। अतः इन परियोजनाओं का बजट प्रतिस्पर्धात्मक रहने हेतु बहुत ही कम और पूर्व निर्धारित रहता है। परियोजनाओं से बिजली ओवर हेड ट्रांसमिशन लाइनों के माध्यम से प्रेषित होती है। यह लाइनें, सब स्टेशन और पवन ऊर्जा संयंत्रों के समूह जिन्हें विंड फार्म के रूप में संदर्भित किया जाता है, के बीच की दूरी के कारण, विद्युत् प्रसारण का व्यावहारिक साधन हैं।

गोडावण पक्षी

विशेषज्ञों की राय में कहा गया है कि गोडावण की दृष्टि सामने की बजाय, पार्श्व दिशाओ में देखने के लिए अनुकूल होती है, जिसके कारण आमतौर पर इनके उड़ते समय ट्रांसमिशन लाइनों से टकराने का खतरा रहता है और हमने हाल के दिनों में भी ऐसी दुर्भाग्यपूर्ण घटनाओं को देखा है। यह वजन में भारी पक्षी जब तीव्र गति से उड़ता हुआ तारो से टकराता है, तुरंत इसकी गर्दन की हड्डी टूट जाती है और तत्पश्चात इसे बचाना नामुकिन होता है।

ट्रांसमिशन लाइनों को भूमिगत किया जासकता है या नहीं ?

यह मांग अक्सर आती है कि इन ट्रांसमिशन लाइनों को भूमिगत केबलों द्वारा बदल दिया जाना चाहिए। यहां, यह समझना चाहिए कि इन उच्च वोल्टेज केबलों और सहायक उपकरण की सामग्री की ही लागत ओवर हेड लाइनों की तुलना में कुछ गुना अधिक है, और इसकी स्थापना के लिए उच्च कौशल वाले कार्यबल की आवश्यकता होती है जो समग्र रूप से एक परियोजना की लागत को अत्यंत महँगा बना देगी।  इन परियोजनाओं में प्रयोग में ली जाने वाली एकल सर्किट 33kv लाइन की कुललागत जहाँ २० लाख रुपये प्रति किलोमीटर आती है वहीँ, केबल की लागत 40 लाख रुपये से भी अधिक आती है।  चूँकि यह केबल सुरक्षा की दृष्टि से भूमि के अंदर दबायी जाती है, किसी तकनीकी ख़राबी आने पर तुरंत ही फॉल्ट स्थान का पता लगाकर उसे खोदा नहीं जा सकता इसलिए सामान्यतः दोहरी केबल का जोड़ा भी लगाया जाता है जिससे किसी फॉल्ट की स्थिति में दूसरी केबल को तुरंत प्रयोग में लाया जा सके, यह इस केबल प्रणाली को और भी महंगा बना देता है। सामान्यतः यह 33kv ओवरहेड लाइन किसी भूमि से निकलती है तो प्रति खम्भे के बीच 60 – 70m की दुरी होती है और लाइन जमीन से सामान्यतः 10m की ऊंचाई पर होती है, जो और हाई वोल्टेज लाइन के टॉवर में और भी बढ़ जाती है, वहीँ पर केबल के सन्दर्भ में पूरी भूमि को ही खोद कर उसमे यह केबल दबायी जाती है, यह किसी भी भू मालिक को सहज ही अस्वीकार्य होता है, एक हाई वोल्टेज केबल का अपने भूमि में से गुजरना जिस से उच्च शक्ति विद्युत् प्रवाह होता हो, भू मालिकों को सदैव आशंकित रखता है और वो राजी नहीं होते हैं।और इन लाइनों का बीच में किसी भूमि विवाद में पड़ जाना, पूरी परियोजना को ही ख़तरे में डाल सकते हैं। इसी लिए नए प्रतिष्ठानों के लिए, अक्षय ऊर्जा परियोजनाओं में आयी रिवर्स बिड नीलामियों और कम दरों पर टैरिफ के साथ, बिजली प्रसारण के लिए विकल्प के रूप में भूमिगत केबल के लिए जाना असंभव है। अतः गोडावण प्रवास क्षेत्रों को चिन्हित कर पहले ही सुरक्षित करना चाहिए |

जिन क्षेत्रों में लाइन पहले से ही स्थापित है वहां एक संभव समाधान हो सकता है, अगर वन विभाग, प्रभावी पक्षी डायवर्टर प्रदान कर सके और संबंधित परियोजना एजेंसी को उचित मार्गदर्शन के साथ उन्हें स्थापित करने में मदद कर सकते हैं। यह एक विकल्प है जो सभी हित मालिकों के लिए उपयुक्त हो सकता है और इन ट्रांसमिशन लाइनों के साथ जीआईबी के ऐसे टकराव को रोकने में मदद कर सकता है। महत्वपूर्ण क्षेत्रों के लिए वन विभाग द्वारा तत्काल बजट जारी किया जाना चाहिए जो उन्होंने ऐसे पक्षी डायवर्टर स्थापित करने के लिए चिन्हित किये हैं। इनके पूर्णतया प्रभावी होने पर कुछ लोग शंका भी रखते है।

यह एक संयोग है कि पवन परियोजनाएं उन क्षेत्रों के लिए सबसे उपयुक्त हैं जो मैदानी हैं और इनमें हवा का सुगम प्रवाह हो सकता है और ये क्षेत्र, ऐसे घास के मैदान ही गोडावण के आवास हैं। लेकिन, यह भी सच है कि कोई भी पवन ऊर्जा एजेंसी उस क्षेत्र में काम करने की इच्छा नहीं रखती है जहां पर्यावरण के लिए कोई भी संभावित खतरा हो सकता है, क्योंकि ऐसे क्षेत्र इन परियोजनाओं के निवेशकों को पीछे हटा देती हैं और ऐसी परियोजनाएं हमेशा कानूनी रूप से ठप होने के जोखिम में होती हैं और व्यावसायिक हितों के प्रतिकूल होती हैं । इस प्रकार आवश्यकता है कि अधिकारियों और उद्योग के बीच बेहतर समन्वय हो और पारिस्थिकी तौर से संवेदनशील क्षेत्रों का अग्रिम सीमांकन किया जाए। राजस्थान ने 2017 से इस अवधि का उपयोग इस जीआईबी आर्क को मैप करने के लिए किया और अपने राज्य पक्षी और पवन उद्योग के सह-अस्तित्व के लिए एक समाधान तैयार किया। हाल ही में जैसलमेर के रामगढ़ कुचड़ी क्षेत्र के पास एक केंद्र सरकार के सबस्टेशन की योजना जैसलमेर के दक्षिण में स्थानांतरित की गई थी, क्योंकि डेवलपर्स ने ट्रांसमिशन लाइनों से GIB arc को बचाने के लिए अनुरोध किया था, यह एक बहुत स्वागत योग्य कदम था। मौजूदा तर्ज पर डायवर्टर जैसे उपकरणों के उपयोग के लिए इसी तरह की त्वरित कार्रवाई की जानी चाहिए। यूरोप में नए शोध आ रहे हैं जो बताते हैं कि एक टरबाइन के रंगीन ब्लेड भी पक्षियों से होने वाली दुर्घटनाओं की संभावना को कम करते हैं। इस तरह के शोध भारत में भी किए जा सकते हैं। कुल मिलाकर हमारे अनमोल वन्यजीवों के साथ-साथ अक्षय ऊर्जा क्षेत्र के लिए विभिन्न हितधारकों के बीच बेहतर समन्वय के साथ एक संवाद  विकसित करने की आवश्यकता है, यह उद्योग जो पृथ्वी को साफ और हरा-भरा रखने के लिए कृत संकल्प है

 

इन पेड़ों और झाड़ियों के बिना राजस्थान का रेगिस्तान अधूरा हैं

इन पेड़ों और झाड़ियों के बिना राजस्थान का रेगिस्तान अधूरा हैं

राजस्थान को मुख्यतया दो भागों में बांटा जा सकता हैं – मरुस्थलीय हिस्सा एवं अरावली अथवा विंध्य पहाड़ियों से घिरा भूभाग। मरुस्थल में पौधों के जीवन में अत्यंत विविधता हैं परन्तु यदि सामान्य तौर पर देखे तो कुछ पेड़ और झाड़ियां हर प्रकार के जीवन को प्रभावित करता रहा हैं। यहाँ आपके लिए इनके बारे में  एक संक्षिप्त विवरण प्रस्तुत हैं…

1.Khejri (Prosopis cineraria)

खेजड़ी को राजस्थान के राज्य वृक्ष का दर्जा हासिल हैं। ईस्वी 1730 में, खेजड़ी वृक्षों को बचाने के लिए 363 आम लोगो ने एक साधारण महिला अमृता देवी के नेतृत्व में जोधपुर के पास एक छोटे से गांव खेजड़ली में प्राणोत्सर्ग किये थे। यह त्याग पेड़ों को बचाने की अनूठी मुहीम का आधार बना , जिसे नाम दिया गया चिपको आंदोलन। तपते रेगिस्तान में उगने वाला यह वृक्ष सही मानो में स्थानीय लोगो के लिए एक कल्पवृक्ष है, जो उनकी, उनके पशुओ एवं वन्य जीवो की अनेको जरूरतों को पूरा करता है। स्थानीय लोग मानते है, की इस वृक्ष की छाया में  निचे खेतों में अनाज भी अच्छा पैदा होता है अतः रेगिस्तान में लोग इनके बड़े पेड़ों को भी खेतों में रहने देते है, शायद भारत में कोई दूसरा वृक्ष नहीं है, जिनके निचे कोई फसल अधिक अच्छी होती हो। इसकी कई इंच मोती छाल में अनेको प्रकार के कीट अदि  रहते है, जिन्हे एक पक्षी – Indian Spotted Creeper बड़े चाव से खाती है। गिलहरी की तरह फुदकती यह चिड़िया अक्सर इन्ही खेजड़ी के पेड़ो पर ही मिलती है। यदि राजस्थान के रेगिस्तान वाले इलाके में देखे तो यह सबसे अधिक मिलने वाला वृक्ष है।

2. Rohida (Tecomella undulata)-

मारवाड़ में रोहिड़ा की लकड़ी को सागवान का दर्जा दिया जाता हैं। इन पर आसानी से न तो कीड़ा लगता हैं, और साथ ही इन पर खुदाई का अच्छा काम भी हो सकता हैं। रोहेड़ा के फूलों की रंगत से तो सूखा राजस्थान जैसे रंगो की होली खेलने लगता हैं। रोहिड़ा को तीन अलग अलग रंग में फूल आते हैं – गहरा लाल, केसरिया और मन को मोहित करने वाला पीला। अनेक पक्षियों की प्रजातिया इनसे मकरंद प्राप्त करती हैं और साथ ही इनके परगकण को अन्य पेड़ों तक ले जाती हैं। राजस्थान में इनके फूलों को राज्य पुष्प का दर्जा दिया गया। आम लोग खेजड़ी के बाद इस पेड़ को बड़े सम्मान के साथ देखते हैं एवं अपने खेतों में लगाते हैं।

Rohida (Tecomella undulata)

roheda

 

3. Jaal/ Pilu (Salvadora sp.)

भारत में दो सल्वाडोरा प्रजातियाँ हैं – ओलियोइड्स ( मीठी जाल ) और पर्सिका (खारी जाल)। ये दोनों पेड़ रेगिस्तान के मुश्किल वातावरण में रहने के लिए अनोखी अनुकूलनता लिए हुए है, क्योंकि उच्च लवणता सहिष्णुता क्षमता रखते है। ये सबसे अच्छे आश्रय प्रदान करने वाले पेड़ हैं, जो कई रेगिस्तानी जंगली प्राणियों को आश्रय तो देता ही है, पर साथ ही यह भोजन भी प्रदान करते हैं। क्योंकि ये हमेशा सूखे और गर्म मौसम में भी हरे-भरे रहते हैंI लगभग एक सदी पहले एक ब्रिटिश अधिकारी माइकल मैकऑलिफेन (जिन्होंने बाद में सिख धर्म को अपना लिया) ने कई सिख धर्म ग्रंथो को अंग्रेजी में अनुवाद किया, उन्होंने उल्लेख किया कि गुरु नानकजी ने अपने जीवन के उत्तरार्ध को सल्वाडोरा ओलियोइड्स पेड़ के नीचे बिताया। खारे एवं गर्म क्षेत्र में वर्ष भर हरा रहना बहुत कठिन है, इसके पीछे है इस पेड़ के खारापन की उच्च सांद्रता है। इसी कारण यह आसानी से नमकीन मिट्टी से पानी को प्राप्त कर सकते हैं। पानी लवणता की कमी वाली मिटटी से अधिक लवणता की और परासरण की प्रक्रिया से बढ़ता हैी सामान्य पेड़ की जड़ो में भी थोड़ी लवणता होती है एवं पानी को लेती रहती है परन्तु खारी मिटटी से पानी निकलने के लिए, उस से भी अधिक लवणता होनी चाहिए I साथ ही इनकी मोटी पत्तियों भी पानी को जमा करने के लिए अनुकूलित है। इनके पानी से भरे नरम फल सभी प्रकार के पक्षियों को लुभाते है।

4. कुमठा (Senegalia senegal / Acacia senegal) –

एक छोटे आकर का पेड़ हैं जो स्थिर धोरो या छोटी पथरीली पहड़ियों पर मिलता हैं।इनके बीजो को रेगिस्तानी क्षेत्र के चूहे पसंद करते हैं एवं आस पास मिलने वाले कीट अनेक विशेष पक्षियों को अपनी और आकर्षित करते हैं – जिनमे मार्शल आयोरा, व्हाईट नेप्पेडटिट, व्हाईट बेलिड मिनिविट आदि शामिल हैं। कुमठा के बीज को राजस्थान की एक खास सब्जी जिसे ‘पंचमेल सब्जी’ कहते हैं ‘पंचमेल सब्जी’ का एक मुख्य घटक भी हैं।

5. Kair (Capparis decidua)-

रेगिस्तान के घरो में छाछ के पानी में डाले हुए कच्चे कैर के फल एक आम बात होती हैं, जो उसके आचार बनाने की प्रक्रिया का महत्वपूर्ण हिस्सा है।  कैर रेगिस्तानी इलाकों में मिलने वाली एक झड़ी हैं जिसके अतयंत खूबसूरत फूल आते हैं, डालिया पूरी तरह फूलो से लड़ी रहती हैं और इनपर अनेक प्रकार के कीट और पक्षी अपना आहार पाते हैं।  इन झाड़ियों के अंदर कई तरह के बड़े पेड़ अपने जीवन के सबसे आरम्भिक समय में छुपे रहते हैं और शाकाहारी जीवो से बच पाते हैं।  यह पेड़ यदि खुले में होते तो शायद अपने आप को बचा नहीं पाते।  कई प्रकार के जीव इन भरी झाड़ियों के निचे अपने बिल अथवा मांद बनाके रहते हैं, ताकि वह तेज धूप एवं अन्य शिकारियों से बच सके।

 

6. Phog (Calligonum polygonoides)-

एक झाड़ी जो राजस्थान के थार से तेजी से विलुपत होरही हैं उसका नाम हैं-  फोग।  गहरी जड़ो पर आधारित इस झाड़ी को नव युग के कृषि संसाधन- ट्रेक्टरो ने मानो जड़ो से उखाड कर फेंक दिया। जो ट्रैक्टरों से बच गए उन्हें भट्टियों में डाल कर अत्यंत ऊर्जा देने वाले ईंधन के रूप में उपयोग लेलिया गया। बीकानेर, जैसलमेर आदि शहरो में आज भी इनको बाजारों में बेचते हुए देखा जासकता है। सूखे फूलो को दही के साथ मिला कर गुलाबी रंग का रायता बनाया जाता हैं।

 

 

ग्रेटर हूपु लार्क: तपते मरुस्थल का शोमैन

ग्रेटर हूपु लार्क: तपते मरुस्थल का शोमैन

ग्रेटर हूपु लार्क, रेगिस्तान में मिलने वाली एक बड़े आकार की लार्क, जो उड़ते समय बांसुरी सी मधुर आवाज व् खूबसूरत काले-सफ़ेद पंखों के पैटर्न, भोजन खोजते समय प्लोवर जैसी दौड़ और खतरा महसूस होने पर घायल होने के नाटक का प्रदर्शन करती है। इस के व्यवहार को देखने पर लगेगा जैसे आप कोई शानदार नाटक देख रहे हो।

ग्रेटर हूपु लार्क, एक छोटा पेसेराइन पक्षी जिसे राजस्थान की तेज गर्मी में झुलसते रेगिस्तान में रहना पसंद आता है तथा वर्षा ऋतू के आगमन के साथ ही इसका प्रजनन काल शुरू हो जाता है, जिसमें नरों द्वारा एक ख़ास प्रकार की उड़ान का प्रदर्शन किया जाता है नर बांसुरी व् सीटी जैसी आवाज करते हुए धीमी गति में उड़ते हैं और इसी आवाज के कारण इसे “हूपु लार्क” कहा जाता है। इस पक्षी को “लार्ज डेजर्ट लार्क” के नाम से भी जाना जाता है, परन्तु यह एक बेहद चतुर पक्षी होता है जो शिकारी को देखते ही उसे भर्मित करने के लिए घायल होने का नाटक कर ज़मीन पर गिर जाता है। रेगिस्तानी पर्यावास में जब यह ज़मीन पर होता है तो इसे देख पाना मुश्किल है क्योंकि इसके शरीर का रेतीला-भूरा रंग इसे परिवेश में छलावरण करने में मदद करता है, परन्तु जब यह उड़ान भरता है तो इसके पंखों के काले-सफ़ेद रंग के पैटर्न से इसे आसानी से पहचाना जा सकता है। इसके पंखो का यह पैटर्न किसी भी अन्य लार्क प्रजाति से अद्वितीय है। अपनी लम्बी टांगों से तेजी से एक प्लोवर की तरह भागते हुए अपनी छोटी, पतली व् तीखी चोंच से यह मिटटी को खोद कर तो कभी खुरच कर छोटे कीटों को ढूंढ अपना शिकार बनाते हैं।

निरूपण (Description):

ग्रेटर हूपु लार्क, “Alaudidae” परिवार का सदस्य है, इसका वैज्ञानिक नाम Alaemon alaudipes है जो एक ग्रीक भाषा के शब्द alēmōn से लिया गया है तथा इसका अर्थ “घुमक्कड़” होता है। पहले इसे Upupa और Certhilauda जीनस में रखा गया था परन्तु वर्ष 1840 में बाल्टिक जर्मन भूवैज्ञानिक व् जीवाश्म वैज्ञानिक “Alexander Keyserling” और जर्मन जीव वैज्ञानिक “Johann Heinrich Blasius” द्वारा Alaemon जीनस बनाया गया तथा इसे इसमें रखा गया।

ग्रेटर हूपु लार्क का चित्र (Nicolas, H. 1838)

ग्रेटर हूपु लार्क को शुष्क व् अर्ध-शुष्क मरुस्थलीय परिवेश में रहना पसंद होता है। (फोटो: डॉ. धर्मेंद्र खांडल)

यह लार्क आकार में बाकि लार्क प्रजातियों से अपेक्षाकृत बड़ी होती है। शरीर का ऊपरी भाग रेतीला-भूरा और अंदरूनी भाग सफ़ेद-क्रीम होता है। इसके पैर लम्बे व् इसकी चोंच पतली-लम्बी और हल्की सी नीचे की ओर घुमावदार होती है। इसके चेहरे पर चोंच के आधार से होते हुए आँखों के पास से एक काली रेखा निकलती है तथा आँखों पर सफ़ेद भौंहें होती है। छाती के पास कुछ काले धब्बे होते हैं। उड़ते समय इसके सफ़ेद किनारों वाले काले पंखों का पैटर्न और बाहरी काले पंख वाली सफ़ेद पूँछ स्पष्ट दिखाई देता है। नर व् मादा दोनों दिखने में लगभग समान होते हैं, हालांकि मादा, नर की तुलना में छोटी होती हैं और छाती पर काले धब्बे कम होते हैं।

उड़ते समय इसके पंखो पर काले-सफ़ेद रंग का पैटर्न स्पष्ट दिखाई देते है जिसके कारण इसको तुरंत पहचाना जा सकता है। (फोटो: डॉ. धर्मेंद्र खांडल)

वितरण व आवास (Distribution & Habitat):

बहुत ही व्यापक वितरण होने के कारण इसकी कई आबादी पायी जाती हैं जिन्हें चार उप-प्रजाति के रूप में नामित किया गया है, तथा भारत में Eastern greater hoopoe-lark (A. a. doriae) उप-प्रजाति पायी जाती है जो राजस्थान व् गुजरात में ही पायी जाती है। राजस्थान में यह थार रेगिस्तान के रेट के टीलों, शुष्क व् अर्ध-शुष्क छोटी झाड़ियों वाले खुले इलाकों में पायी जाती है। ग्रेटर हूपु लार्क रेगिस्तानी, अत्यंत गर्म व् शुष्क वातावरण में पाया जाता है, और यह 50 डिग्री सेल्सियस तक के तापमान में जीवित रहने में सक्षम है। क्योंकि प्रकृति ने इसे इस वातावरण में रहने के लिए अनुकूलन प्रदान किया है। इसकी लम्बी टाँगे इसके शरीर को गर्म ज़मीन से ऊपर रखती हैं और अधर भाग का सफ़ेद रंग जमीन की गर्मी को वापस प्रतिबिंबित करता है। चीते की तरह इसकी आँखों के पास लम्बी काली रेखा होती है। गर्मियों में कभी-कभी जब सतह का तापमान असहनीय हो जाता है, तो ऐसे में ग्रेटर हूपु लार्क खुद को पानी की कमी होने से बचाने के लिए सांडा छिपकली के बिल में छुप जाती है। छिपकली शाकाहारी होती है इसलिए इसे किसी भी प्रकार का खतरा नहीं होता है।

व्यवहार एवं पारिस्थितिकी (Behaviour and ecology):

राजस्थान के थार रेगिस्तान में ग्रेटर हूपु लार्क को अकेले या जोडों में भोजन की तलाश करते हुए देखा जा सकता है, जहाँ ये टहलते, दौड़ते व् उछलते-कूदते हुए जमीन को अपनी छोटी चोंच से खोदते हुए विचरण करते हैं। यह छोटे कीटों, छिपकलियों और विभिन्न प्रकार के बीजों को खाते हैं तथा इन्हें कवक (Fungi) को खाते हुए देखा गया है। घोंघों का खोल तोड़ने के लिए, कई बार इसे घोंघों को ऊपर से किसी सख्त सतह पर गिराते या फिर उन्हें लगातार किसी पत्थर पर पीटते हुए भी देखा गया है। जीव विशेषज्ञ डॉ धर्मेंद्र खांडल ने अपने एक आलेख में इसके द्वारा “डेजर्ट मैंटिस (Eremiaphila rotundipennis)” के शिकार किये जाने के एक की घटना की व्याख्या की है।

यह जमीन को खोद कर छोटे कीटों को अपना शिकार बनाते हैं।(फोटो: श्री नीरव भट्ट)

इनका प्रजनन काल मुख्यरूप से पहली बारिश के बाद लगभग मार्च से जुलाई माह तक रहता हैं। कई बार देर से बारिश आने पर अगस्त में भी इनका प्रजनन देखा गया है। प्रजनन काल में नर मादा को आकर्षित करने के लिए एक बहुत सुन्दर उड़ान का प्रदर्शन करते हैं, जिसमें वह धीरे-धीरे पंखों को फड़फड़ाते हुए ऊपर की ओर उड़ान भरते हैं और फिर पंखो को बंद किये नीचे की ओर आते हैं। नर लगभग 15 – 20 फीट तक ऊपर जाते हैं, और फिर बांसुरी व् सीटी जैसी आवाज की एक श्रृंखला के साथ धीरे-धीरे नीचे की ओर आते हैं तथा एक छोटी झाडी पर बैठ जाता है। धीमी गति में उड़ते समय जो बांसुरी व् सीटी जैसी आवाज करने के कारण ही इसे “हूपु लार्क” कहा जाता है।

प्रजनन काल में नर मादा को आकर्षित करने के लिए एक बहुत सुन्दर उड़ान का प्रदर्शन करते हैं। (फोटो: डॉ. धर्मेंद्र खांडल)

इस ख़ास उड़ान में नर धीरे-धीरे पंखों को फड़फड़ाते हुए ऊपर की ओर उड़ान भरते हैं और फिर पंखो को बंद किये नीचे की ओर आते हैं। (फोटो: डॉ. धर्मेंद्र खांडल)

छोटी टहनियों से बना हुआ इसका घोंसला एक कप के आकार का होता है जो छोटी झाड़ी के नीचे व् कभी-कभी ज़मीन पर ही रखा होता है। इसके चूज़े बहुत ही तेजी से बड़े होते हैं तथा उड़ना सीखने से पहले ही इनको इधर-उधर भागते हुए देखा जा सकता है। ज़मीन पर घोंसला व् चूज़ों का चंचल स्वभाव होने के कारण इनको कई प्रकार के शिकारी जीवों जैसे की छिपकली, गीदड़, लोमड़ी, चूहे और सांप का सामना करना पड़ता है। जब भी हूपु लार्क किसी प्रकार के शिकारी को अपने घोंसले की ओर बढ़ते देखती है, तो वह शिकारी को विचलित करने के लिए घायल या चोट का नाटक करती है। घोंसले से थोड़ी दूर पर ये ऐसे फड़फड़ाती है जैसे वह उड़ नहीं सकती, इस परिस्थिति में शिकारी को यह एक आसान शिकार महसूस होती है और शिकारी घोसले को छोड़ इसकी और बढ़ता है। शिकारी को पास आता देख यह कुछ दूर उड़ कर फिर से नीचे गिर जाती है और शिकारी इसको पकड़ पाने के विश्वास में उसकी और बढ़ता रहता है। ऐसा कई बार होता है और जब लार्क शिकारी को घोसले से दूर ले जानें सफल हो जाती है तो तुरंत उड़ कर वापिस घोंसले के पास आ जाती है।

ग्रेटर हूपु लार्क में नर व् मादा दोनों ही चूजों की देख-रेख में बराबर भूमिका निभाते हैं।(फोटो: श्री नीरव भट्ट)

संरक्षण स्थिति (Conservation status):

ग्रेटर हूपु लार्क की वैश्विक आबादी निर्धारित नहीं की गई है परन्तु इसकी आबादी का चलन कम होता दिखाई दे रहा है क्योंकि इसकी पूरी वितरण सीमा में इसके सामान्य से असामान्य होने की सूचनाएं मिली हैं। इसका विस्तार बहुत ही व्यापक है तथा अन्य मापदंडों के अनुसार अभी यह संकटग्रस्त होने की सीमा रेखा से कोसों दूर है। इसीलिए इसे IUCN द्वारा Least Concern श्रेणी में रखा गया है।

तो इस बार वर्षा ऋतू में राजस्थान आइये और इसकी मधुर आवाज व् उड़ान की खूबसूरती को देख पाने की कोशिश कीजिये।

सन्दर्भ:
  • Nicolas, H. 1838. Nouveau recueil de planches coloriées d’oiseaux. Vol III
  • Oates, EW (1890). Fauna of British India. Birds. Volume 2. Taylor and Francis, London. pp. 316–318.

 

 

 

 

औपनिवेशिक अवधारणा एवं संकटग्रस्त परिदृश्य : बाह्य आक्रामक प्रजातियों का पारम्परिक पारिस्थितिकी तंत्र पर प्रभाव

औपनिवेशिक अवधारणा एवं संकटग्रस्त परिदृश्य : बाह्य आक्रामक प्रजातियों का पारम्परिक पारिस्थितिकी तंत्र पर प्रभाव

स्थानीय वनस्पतिक समुदाय में सीमित प्रजातियों की संख्या के कारण शुष्क एवं अर्द्ध-शुष्क प्रदेश किसी भी बाह्य आक्रामक प्रजाति को पारिस्थितिक रूप से संसाधनों के लिए मजबूत प्रतिस्पर्धा नहीं दे पाते । परिणामस्वरूप ये आवास किसी भी बाह्य प्रजाति के अतिक्रमण के लिए वर्षा वनों की तुलना में अधिक असुरक्षित होते है I

भारत का अधिकांश भू-भाग शुष्क व अर्ध शुष्क घास के मैदान, मरुस्थल, बीहड़, व पर्णपाती वनों से आच्छांदित  है। इन सभी आवासों की एक खास बात यह है की ये कभी वर्ष भर हरियाली से ढके नहीं रहते है । इन आवासों में हरियाली व सघन वनस्पति का विस्तार मॉनसून की अवधि व मात्रा पर निर्भर करता है तथा ऋतुओं के साथ बदलता  रहता है। इसी कारण देश के भौगोलिक हिस्से का बहुत बड़ा भाग वर्ष भर हरियाली से ढका नहीं रहता है । ऋतुओं के साथ वनस्पतिक समुदाय में आने वाले यह बदलाव प्राकृतिक चक्र का हिस्सा है तथा उपरोक्त भौगोलिक क्षेत्रों के निवासियों एवं जीवों के जीवनयापन के लिये जरूरी है।

शुष्क व अर्ध शुष्क आवासों के इसी चक्रिय बदलाव को समझने में असफल रहे औपनिवेशिक पर्यावरण वैज्ञानिकों ने इन आवासों को बंजर भूमि के तौर पर चिह्नित किया तथा बड़े स्तर पर वृक्षारोपण कर इन्हें जंगलों में बदलने को प्रेरित किया गया। यह शुष्क व अर्ध शुष्क घास के मैदान वास्तव में बंजर भूमि नहीं परंतु उपयोगी एवं महत्वपूर्ण पारिस्थितिकी तंत्र है। उपजाऊ घास के मैदानों एवं मरुस्थल को बंजर भूमि समझना वास्तव में औपनिवेशिक विचारधारा व उनकी वानिकी केन्द्रित पद्धत्तियों से ही प्रभावित रहा है। इसका मुख्य कारण औपनिवेशिक ताकतों का शीतोष्ण पर्यावरण से संबंध रखना भी है, जहाँ घास के मैदान व घने जंगल वर्ष भर हरे बने रहते है जबकि भारत मुख्यतः उष्णकटिबंधीय जलवायु क्षेत्र में आता है।

प्राकृतिक रूप से खुले पाये जाने वाले शुष्क व अर्ध शुष्क घास के मैदानों को अनियंत्रित वृक्षारोपण द्वारा घने जंगलों में बदलने के प्रयास कालान्तर में यहाँ के जन-जीवन व वन्यजीवों के लिए निश्चित ही प्रतिकूल परिणाम सामने लाये है। इन प्रतिकूल परिणामों का सबसे बड़ा उदाहरण विलायती बबूल के रूप में देखने को मिलता है। विलायती बबूल को राजस्थान की स्थानीय भाषाओं में बावलियाँ, कीकर, कीकरियों, या दाखड़ी बबूल के नाम से भी जाना जाता हैं जो की मेक्सिको, उत्तरी अमेरिका का एक स्थानीय पेड़ है।

औपनिवेशिक भारत में इसे सबसे पहले वर्ष 1876 में आंध्र प्रदेश के कडप्पा क्षेत्र में लाया गया था। थार मरुस्थल में इसका सबसे पहले आगमन वर्ष 1877 में सिंध प्रदेश से ज्ञात होता है। वर्ष 1913 में जोधपुर रियासत के तत्कालीन महाराज ने विलायती बबूल को अपने शाही बाग में लगाया था। कम पानी में भी तेजी से वृद्धि करने व वर्ष भर हरा -भरा रहने के लक्षण से प्रभावित होकर रियासत के महाराज ने इसे साल 1940 में शाही-वृक्ष भी घोषित किया एवं जनता से इसकी रक्षा करने का आह्वान किया गया।

प्रोसोपिस जुलिफ्लोरा शुष्क परिस्थितियों में तेज़ी से वृद्धि करता है, तथा अन्य प्रजातियों को बढ़ने नहीं देता है। (फोटो: नीरव मेहता)

स्वतंत्र भारत में विलायती बबूल का व्यापक रूप से वृक्षारोपण स्थानीय समुदायों को आजीविका प्रदान करने, ईंधन की लकड़ी  मुहैया करवाने, मरुस्थलीकरण (Desertification) को रोकने, और मिट्टी की बढ़ती लवणता से लड़ने के लिए 1960-1961 के दौरान शुष्क परिदृश्य के कई हिस्सों में किया गया। हालाँकि तात्कालिक वानिकी शोधकर्ताओं की बिरादरी में विलायती बबूल अपनी सूखे आवास में तेज वृद्धि की खूबियों के कारण उपरोक्त उद्देश्य के लिए सबसे पसंदीदा विकल्प था परन्तु स्थानीय लोगों में इसके दूरगामी प्रभाव को लेकर काफी चिंता भी ज्ञात होती है। स्थानीय लोगों का मानना था की ये प्रजाति भविष्य में अनियंत्रित खरपतवार बन कृषि भूमि एवं उत्पादन को नकारात्मक रूप से प्रभावित कर सकती है। इस प्रकार की काँटेदार झाड़ी का बड़े स्तर पर फैलना पालतू मवेशियों के साथ-साथ वन्य जीवों के लिए भी नुकसानदायक सिद्ध होगा। उस समय स्थानीय लोगों द्वारा जाहीर की गयी चिंता आज के वैज्ञानिक आंकड़ो से काफी मेल खाती हैं। पिछले कुछ दशकों में विलायती बबूल ने  संरक्षित व असंरक्षित प्राकृतिक आवासों के एक बड़े हिस्सों पर अतिक्रमण कर लिया है। धीरे-धीरे यह प्रजाति हरियाणा, पंजाब, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र और तमिलनाडु सहित देश के कई हिस्सों में फैल चुकी है।

विलयाती बबूल की घनी झाड़ियों में फसा प्रवासी short eared owl . घायल उल्लू को बाद में रेस्क्यू किया गया। ( फोटो: श्री चेतन मिश्र)

विलायती बबूल का वैज्ञानिक नाम प्रोसोपिस जुलिफ्लोरा (Prosopis juliflora) है जो वनस्पति जगत के कुल फैबेसी (Fabaceae) से संबंध रखता है। फैबेसी परिवार में मुख्यतः फलीदार पेड़-पौधे आते है, जो की अपनी जड़ो में नाइट्रोजन स्थिरीकरण में सहायक राइजोबियम जीवाणुओ की उपस्थिती के कारण जाने जाते है। हालाँकि विलायती बबूल का सबसे करीबी स्थानीय रिश्तेदार हमारा राज्य वृक्ष खेजड़ी (प्रोसोपिस सिनेरेरिया) है, परंतु इन दोनों की आकारिकी एवं शारीरीकी  में असमानता के कारण  इनका स्थानीय वनस्पतिक समुदाय एवं मिट्टी पर प्रभाव एक दूसरे से बिल्कुल अलग है।

दोनों प्रजातियों के तुलनात्मक शोध से ज्ञात होता है की विलायती बबूल की जड़ों से निकलने वाले रासायनिक तत्वों की संरचना व मात्रा खेजड़ी से निकलने वाले रासायनिक तत्वों से काफी अलग होती है।  परिणामस्वरूप दोनों का स्थानीय वानस्पतिक समुदाय एवं मिट्टी पर प्रभाव भी अलग होता है। विलायती बबूल की जड़ो द्वारा अत्यधिक मात्रा में फोस्फोरस, घुलनशील लवण, एवं फीनोलिक रसायन का स्रावण होता है जो की आस-पास उगने वाले अन्य पौधों को नष्ट कर देता है। पौधों के इस प्रभाव को विज्ञान की भाषा में एलीलोपैथी प्रभाव कहते है, जिसके अंतर्गत किसी भी पौधे द्वारा स्रावित रासायनिक पदार्थ उसके समीप उगने वाले अन्य पौधों की वृद्धि को संदमित कर उन्हें नष्ट कर देते हैं। विलायती बबूल का यह प्रभाव स्थानीय फसलों जैसे ज्वार व सरसों पर भी देखा गया है जो की खेजड़ी से बिलकुल विपरीत है। खेजड़ी का वृक्ष नाइट्रोजन स्थिरीकरण कर अपने नीचे लगने वाली फसलों की वृद्धि को बढ़ावा देता है जिसका ज्ञान स्थानीय किसानों को सदियों से विरासत में मिला है। विलायती बबूल की जड़ो से स्रावित रसायन के साथ-साथ इसके झड़ते पत्तों के ढेर भी मिट्टी की रासायनिक संरचना में परिवर्तन करते हैं, जो की स्थानीय वनस्पति प्रजातियों को नष्ट कर अन्य खरपतवार पौधों की संख्या में बढ़ोतरी में सहायक है। विलायती बबूल की जड़े अत्यधिक गहरी होती है जो अकसर भू-जल तक पहुँच जाती है। घनी संख्या में लगे विलायती बबूल अपनी तेज वाष्पोत्सर्जन दर जो की स्थानीय प्रजातियों से कई अधिक होती है के कारण भू-जल स्तर बढ़ाते है परिणामस्वरूप एक गहराई के बाद मिट्टी की लवणता में वृद्धि होती है।

प्रोसोपिस जुलिफ्लोरा की मीठी फलियों को शाकाहारी वन्यजीव और मवेशी खाते हैं तथा इनके गोबर के साथ इसके बीज सभी तरफ फ़ैल जाते हैंI (फोटो: श्रीमती दिव्या खांडल)

विलायती बबूल का अनियंत्रित फैलाव न केवल वनस्पति समुदाय को बल्कि विभिन्न वन्य जीवों को भी अलग-अलग प्रकार से प्रभावित करता है। विलायती बबूल का खुले घास के मैदानों में अतिक्रमण इन आवासों को घनी झाड़ियो युक्त आवास में बदल देता है जो की घास के मैदानों के लिए अनुकूलित किन्तु संकटग्रस्त वन्यजीवों जैसे की गोडावन, कृष्ण मृग, मरू-लोमड़ी, खड़-मौर, इत्यादि के लिए अनुपयुक्त होता है। उपयुक्त आवास में कमी का सीधा परिणाम इन संकटग्रस्त प्रजातियों की घटती संख्या के रूप में देखा जा सकता है।  विलायती बबूल का चरागाहों पर बढ़ता अतिक्रमण घास की उत्पादकता में भी कमी लाता है जिसका प्रभाव मवेशियों के साथ-साथ जंगली शाकाहारी जीवों जैसे चिंकारा, कृष्ण मृग  इत्यादि पर भी पड़ता है जो इन आवासों के मुख्य निवासी हैं।

प्रकृति में उंगुलेट्स, जूलीफ्लोरा के बीज प्रकीर्णन में एक मुख्य कारक की भूमिका निभाते हैं। (फोटो: श्रीमती दिव्या खांडल)

हालांकि विलायती बबूल का प्रकोप राजस्थान के सभी जिलों में कमोबेश देखने को मिलता है परंतु पश्चिमी राजस्थान के जोधपुर, बीकानेर, जैसलमेर, एवं बाड़मेर क्षेत्र के घास के मैदानों में इनका व्यापक वितरण एक बहुत बड़ी समस्या है । अजमेर जिले के  सोंखलिया घास के मैदान खड़-मौर (लेसर फ्लोरिकन) के कुछ अंतिम बचे मुख्य आवासों में से एक है ।  खड़-मौर  एक दुर्लभ घास के मैदानों को पसंद करने वाला पक्षी है जो की अपने आवास में विलायती बबूल के बड़ते अतिक्रमण के कारण खतरे का सामना कर रहा है । प्रवासी पक्षियों की विविधता के लिए विश्व प्रसिद्ध भरतपुर का कैलादेव राष्ट्रीय पक्षी अभ्यारण इसी विलायती बबूल के अतिक्रमण कारण कई  शिकारी पक्षियों की घटती संख्या का सामना कर रहा है। अभ्यारण में पक्षियों की घटती आबादी को रोकने के  लिए विलायती बबूल का कठोर निस्तारण बहुत ही जरूरी बताया गया है।

विलायती बबूल स्थानीय वृक्ष जैसे की देसी बबूल, रोहिडा, व खेजड़ी को पनपने से रोकता है जो की अनेक स्थानीय पक्षी प्रजातियों को घोंसला बनाने के लिए सुरक्षित सतह मुहैया करवाते है। विलायती बबूल व देसी बबूल पर बने कुल पक्षियों के घोंसलो के एक तुलनात्मक अध्ययन में देखा गया की विलायती बबूल से गिरकर नष्ट होने वाले अंडे व चूज़ो की संख्या देसी बबूल की तुलना में दो गुना से भी अधिक है। इसका मुख्य कारण विलायती बबूल की कमजोर शाखाओं द्वारा घोंसले के लिए मजबूत आधार प्रदान नहीं कर पाना है जो की पक्षियों की आबादी को नकारात्मक रूप से प्रभावित करता है। गुजरात के कच्छ जिले में स्थित बन्नी घास के मैदान जो कभी एशिया के सबसे बड़े उष्णकटिबंधीय घास के मैदानों में से एक हुआ करता था, विलायती बबूल के बढ़ते अतिक्रमण ने 70 फीसदी से भी अधिक घांस के मैदानों को अपनी जद में ले लिया है, जिसका प्रभाव वह के वन्यजीवों के साथ-साथ चरवाहों की आजीविका पर भी पड़ा है।

सियार प्रोसोपिस से आच्छांदित क्षेत्र में रहने के लिए पूर्णरूप से ढले हुए हैं (फोटो: श्री चेतन मिश्र)

स्थानीय वनस्पतिक समुदाय में सीमित प्रजातियों की संख्या के कारण शुष्क एवं अर्द्ध-शुष्क प्रदेश किसी भी बाह्य आक्रामक प्रजाति को पारिस्थितिक रूप से संसाधनों के लिए मजबूत प्रतिस्पर्धा नहीं दे पाते। परिणामस्वरूप ये आवास किसी भी बाह्य प्रजाति के अतिक्रमण के लिए वर्षा वनों की तुलना में अधिक असुरक्षित होते है। इसी कारण विलायती बबूल विश्व भर के  शुष्क व अर्द्ध शुष्क प्रदेशों में एक मुख्य आक्रामक प्रजाति है जिनमें अफ्रीकी महाद्वीप, ब्राज़ील, ऑस्ट्रेलिया,  सयुंक्त अरब अमीरात, ईरान, इराक, इस्राइल, जॉर्डन, ओमान, ताइवान, चीन, स्पेन जैसे देश शामिल है।

बदलते जलवायु  के समय में जैव-विविधता के संरक्षण के लिए विलायती बबूल जैसी आक्रामक प्रजातियों से निजात पाना एक महत्वपूर्ण कार्य है। इसी के साथ भविष्य में इस तरह की नयी प्रजातियों से सामना न हो ये सुनिश्चित करना भी आवश्यक है। इस दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम घास के मैदानों से बंजर भूमि का पहचान हटाकर उन्हें वर्षा वनों के समान ही एक उपयोगी एवं  आवश्यक पारिस्थितिकी तंत्र के रूप में पहचान दिलाकर बढ़ाया जा सकता है। यह घास के मैदानों के साथ-साथ यहाँ पाये जाने वाले दुर्लभ जीवों के संरक्षण को मजबूती देगा। वन्यजीव संरक्षण प्राथमिकता वाले क्षेत्रों से विलायती बबूल का सम्पूर्ण उन्मूलन ही एक मात्र उपाय है।

 

 

 

स्परफाउल: राजस्थान में मिलने वाली जंगली मुर्गियां

स्परफाउल: राजस्थान में मिलने वाली जंगली मुर्गियां

स्परफाउल, वे जंगली मुर्गियां जिनके पैरों में नाख़ून-नुमा उभार होते हैं राजस्थान के कई जिलों में उपस्थित हैं तथा इनका व्यवहार और भी ज्यादा दिलचस्प होता है…

पक्षी जगत की मुर्ग जाति में कुछ सदस्य ऐसे पाए जाते हैं जिनके पैरों में नाख़ून-नुमा उभार (spurs) होते हैं और इसी लक्षण की कारण इन्हे स्परफाउल (Spurfowl) कहा जाता है। स्परफाउल कहलाये जाने वाले ये पक्षी आकार में कुछ हद्द तक तीतर जैसे होते हैं परन्तु इनकी पूँछ थोड़ी लम्बी होती है। स्परफाउल को गैलोपेरडिक्स (Galloperdix) वंश में रखा गया है। इस जीनस में कुल तीन प्रजातियां हैं; रैड स्परफाउल (Galloperdix spadicea), पेंटेड स्परफाउल (Galloperdix lunulata) और श्रीलंका स्परफाउल (Galloperdix bicalcarata)। इन तीन प्रजातियों में से दो रैड स्परफाउल और पेंटेड स्परफाउल राजस्थान में पायी जाती हैं। आइये इनके बारे में विस्तार से जानें।

“झापटा” यानी रैड स्परफाउल (Galloperdix spadicea):

यह एक छोटे आकार की मुर्ग प्रजाति है जो मूल रूप से भारत की ही स्थानिक (Endemic) है। यह एक एकांतप्रिय व् जंगलों में रहने वाला पक्षी है, और इसीलिए इसको सहजता से खुले में देख पाना काफी मुश्किल भी होता है। इसकी पूँछ तीतर (जो स्वयं फ़िज़ेन्ट कुल का पक्षी है) की तुलना में लंबी होती है और जब यह ज़मीन पर बैठा होता है, तो इसकी पूँछ साफ़ दिखाई देती है। हालांकि इसका पालतू मुर्गी से कोई निकट सम्बन्ध नहीं है, लेकिन भारत में इसे जंगली मुर्गा ही माना जाता है। यह लाल रंग का होता है और लम्बी पूँछ वाले तीतर की तरह लगता है। इसकी आंख के चारों ओर की त्वचा पर कोई पंख नहीं होने के कारण आँखों के आसपास नंगी त्वचा का लाल रंग दिखाई देता है। नर और मादा दोनों के पैरों में एक या दो नाख़ून-नुमा उभार (spurs) होते हैं, जिनकी वजह से इनको अंग्रेज़ी नाम Spurfowl मिला है। इसके पृष्ठ भाग गहरे भूरे रंग के और अधर भाग गेरू रंग पर गहरे भूरे रंग चिह्नों से भरा होता है। नर और मादा दोनों के सिर के पंख थोड़े बड़े होते हैं जिन्हे ये कलंगी (crest) की तरह खड़ा कर लेते हैं।

रैड स्परफाउल में नर और मादा दोनों के सिर के पंख थोड़े बड़े होते हैं जिन्हे ये कलंगी (crest) की तरह खड़ा कर लेते हैं। (फोटो: श्री दीपक मणि त्रिपाठी)

रेड स्परफाउल, वंश Galloperdix की टाइप प्रजाति (type species) है। इस प्रजाति को 18 वीं शताब्दी के अंत में भारत से मेडागास्कर ले जाया गया था, और फिर मेडागास्कर से ही इस पर पहली बार एक फ्रांसीसी यात्री पीर्रे सोनेरेट  (Pierre Sonnerat) द्वारा व्याख्यान दिया गया था। वर्ष 1789 में जोहान फ्रेडरिक गमेलिन (Johann Friedrich Gmelin) ने द्वीपद नामकरण पद्धति का अनुसरण करते हुए इसे “Tetrao spadiceus” नाम दिया था। गमेलिन, एक जर्मन प्रकृतिवादी, वनस्पति विज्ञानी, किट वैज्ञानिक (Entomologist), सरीसृप वैज्ञानिक (Herpatologist) थे। इन्होंने विभिन्न पुस्तकें लिखी तथा 1788 से 1789 के दौरान कार्ल लिनिअस (Carl Linnaeus) कृत Systema Naturae का 13वां संस्करण भी प्रकाशित किया। परन्तु वर्ष 1844 में एक अंग्रेजी पक्षी विशेषज्ञ Edward Blyth ने इसे “Galloperdix” वंश में रख दिया।

ब्रिटिश पक्षी विशेषज्ञ “A O Hume” की पुस्तक “The Game Birds of India, Burmah and Ceylon” में प्रकाशित रैड स्परफाउल का चित्र

यह स्परफाउल मुख्यरूप से दक्षिणी राजस्थान में दक्षिण अरावली से लेकर मध्य अरावली पर्वतमाला के वन क्षेत्रों में पाया जाता है। लेखक (II) के अनुसार रैड स्परफाउल राजस्थान के लगभग 9 जिलों; उदयपुर, राजसमन्द, पाली, अजमेर, बांसवाड़ा, प्रतापगढ़, चित्तौडगढ़, सिरोही और जालौर में निश्चयात्मक रूप से उपस्थित है। इस मुर्गे की एक उप-प्रजाति जिसे अरावली रैड स्परफाउल (Aravalli Red Spurfoul Galloperdix spadicea caurina) नाम से जाना जाता है, आबू पर्वत, फुलवारी वन्यजीव अभयारण्य, कुम्भलगढ वन्यजीव अभयारण्य एवं टॉडगढ-रावली अभयारण्यों में अच्छी संख्या में पाई जाती है। यह प्रजाति आबू पर्वत के दक्षिण में स्थित गुजरात राज्य के वन क्षेत्रो में भी कुछ दूर तक देखी जा सकती है। यह प्रजाति पहाड़ी, शुष्क और नम-पर्णपाती जंगलों में पाई जाती है। झापटा आमतौर पर तीन से पांच के छोटे समूहों में अपने-अपने चिन्हित इलाकों (Territories) में घूमते हुए पाए जाते हैं। जब चारों ओर घूमते हैं, तो अपनी पूंछ को कभी-कभी घरेलु मुर्गे की तरह सीधे ऊपर उठा कर रखते हैं। दिन में यह काफी चुप रहते हैं लेकिन सुबह और शाम के समय आवाज करते हैं। विभिन्न अनाजों के बीज, छोटे फल व् कीड़े इनका मुख्य भोजन हैं तथा पाचन को सही करने के लिए कभी-कभी ये छोटे कंकड़ भी खा लेते हैं। यह भोजन के लिए खुले में आना पसन्द नहीं करता है और छोटी घनी झाड़ियों में ही अपना भोजन ढूंढता है।

रैड स्परफाउलआमतौर पर अपने-अपने चिन्हित इलाकों (Territories) में घूमते हुए पाए जाते हैं। (फोटो: श्री दीपक मणि त्रिपाठी)

इनका प्रजनन काल जनवरी से जून, मुख्य रूप से बारिश से पहले होता है। यह ज़मीन पर घोंसला बना कर एक बार में 3-5 अंडे देते हैं। नर अपना जीवन एक ही मादा के साथ बिताता है जिसकी वजह से चूजों की देखरेख में उसकी जिम्मेदारी काफी बढ़ जाती है तथा नर अन्य शिकारियों को दूर भगाता व् चूजों की रक्षा करता है। ऐसी ही एक जानकारी रज़ा एच. तहसीन (Raza H. Tehsin) ने अपने आलेख में सूचीबद्ध की थी। रज़ा एच. तहसीन, एक ऐसे व्यक्ति हैं जिन्होंने उदयपुर में वन्यजीवों को संरक्षित करने के लिए अपना जीवन समर्पित किया तथा उन्हें उदयपुर के “वास्को-डि-गामा” के नाम से भी जाना जाता है। रज़ा एच. तहसीन अपने आलेख में बताते हैं की “29 मई, 1982 को मैंने स्पर फॉल के दिलचस्प व्यवहार को देखा। उदयपुर के पश्चिम में एक पहाड़ी इलाके भोमट में, जो शुष्क पर्णपाती मिश्रित वन से आच्छादित है। वहां मैं बोल्डर्स और स्क्रब जंगल में ग्रे जंगल फाउल (गैलस सोनरटैटी) की तलाश कर रहा था और तभी एक मोड़ पर मुझे रेड-स्परफॉल का एक परिवार दिखा। मुझे देख नर ने अपने पंखों का शानदार प्रदर्शन करते हुए, एक बड़े बोल्डर के चारो तरफ गोल-गोल चक्कर लगाना शुरू कर दिया। और इसी दौरान मादा चूजों को लेकर वहाँ से जाने लगी। जैसे ही मादा बच्चों के साथ सुरक्षित स्थान पर पहुंच गयी, नर ने एक छोटी उड़ान भरी और मेरी आँखों के सामने से गायब हो गया। मैं समझ गया था की अपने चूजों को बचाने के लिए नर ने घुसपैठिये (मेरा) का ध्यान हटाने के लिए गोल चक्कर लगाने शुरू किये थे।”

पेन्टेड स्परफाउल (Galloperdix lunulata):

चित्तीदार जंगली मुर्गी यानी पेन्टेड स्परफाउल अपने अंग्रेज़ी नाम के अनुसार काफ़ी रंग-बिरंगा एक छोटा सुन्दर मुर्गा होता है जो चट्टानी पहाड़ी व् झाड़ियों वाले जंगलों में पाया जाता है। यह अक्सर जोड़े या छोटे समूहों में छोटी झाड़ियों में देखे जाते हैं। खतरा महसूस होने के समय यह पंखों का इस्तेमाल करने के बजाये तेजी से भागना पसंद करते हैं। यह आकार में मुर्गी और तीतर के बीच होता है। नर बड़े ही चटकीले रंग के होते हैं जिनके पृष्ठ भाग गहरे और अधर भाग गेरू रंग के होते हैं तथा पूँछ काली होती है। ऊपरी भागों के पंखों पर बहुत सी छोटी-छोटी सफ़ेद बिंदियां होती हैं जिनके सिरे काले होते हैं। नर का सिर और गर्दन एक हरे रंग की चमक के साथ काले होते हैं और सफेद रंग की छोटी बिंदियो से भरे होते हैं। मादा गहरे भूरे रंग की होती है तथा इसके शरीर पर किसी भी तरह के सफेद धब्बे नहीं होते हैं। नर में टार्सस (tarsus) के पास दो से चार कांटे (spur) तथा मादा में एक या दो कांटे होते हैं।

पेन्टेड स्परफाउल एक रंग-बिरंगा छोटा सुन्दर मुर्गा होता है जो अक्सर जोड़े या छोटे समूहों में चट्टानी पहाड़ी व् झाड़ियों वाले जंगलों में पाया जाता है। (फोटो: डॉ. धर्मेंद्र खांडल)

ब्रिटिश पक्षी विशेषज्ञ “A O Hume” की पुस्तक “The Game Birds of India, Burmah and Ceylon” में प्रकाशित पेंटेड स्परफाउल का चित्रI

लेखक (II) के अनुसार यह प्रजाति दक्षिणी – पूर्वी राजस्थान की विंद्याचल पर्वतमाला की खोहों की कराईयों से लेकर पूर्वी राजस्थान में सरिस्का तक सभी वन क्षेत्रो में जगह-जगह विद्यमान है। विंद्याचल पर्वतमाला की कराईयों में पाए जाने वाले कई मंदिर परिसर जहाँ नियमित चुग्गा डालने की प्रथा है, वहाँ कई अन्य पक्षी प्रजातियों के साथ पेन्टेड स्परफाउल को भी दाने चुगते हुए देखा जा सकता है। कोटा जिले का गरडिया महादेव एक ऐसा ही जाना पहचाना स्थल हैं। सवाई माधोपुर में रणथम्भौर बाघ परियोजना क्षेत्र में मुख्य प्रवेश द्वार से आगे बढने पर मुख्य मार्ग के दोनों तरफ की पहाडी चट्टानों एवं पथरीले नालों में सुबह- शाम यह मुर्ग प्रजाति आसानी से देखी जा सकती है। यह बेर व् लैंटाना के रसीले फलों के साथ-साथ छोटे छोटे कीटों को खाते हैं। अक्सर जनवरी से जून तक इनका प्रजनन काल होता है परन्तु राजस्थान के कुछ हिस्सों में बारिश के बाद अगस्त में चूजों को देखा गया है। इनका घोंसला जमीन पर पत्तियों व् छोटे कंकड़ों से घिरा हुआ एक कम गहरा सा गड्डा होता है। मादा अण्डों को सेती है परन्तु दोनों, माता-पिता चूजों की देखभाल करते हैं।

उपरोक्त व्याख्या से सपष्ट है कि राजस्थान में रैड स्परफाउल और पेन्टेड स्परफउल कई जिलों में उपस्थित हैं। मुर्ग प्रजातियाँ दीमक व कीट नियत्रंण कर कृषि फसलों, चारागाहों एवं वनों की सुरक्षा में बहुत महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं अतः हमें उनका संरक्षण करना चाहियें।

सन्दर्भ:
  • Anonymous (2010): Assessment of biodiversity in Sitamata Wildlife Sanctuary: An conservation perspective. Foundation for Ecological Security study report.
  • Blanford WT (1898). The Fauna of British India, Including Ceylon and Burma. Birds. Volume 4. Taylor and Francis, London. pp. 106–108.
  • Ojha, G.H. (1998): Banswara Rajya ka Itihas. (First published in 1936).
  • Ranjit Singh, M.K. (1999) : The Painted spurfowl Galloperdix lunulata (Valenciennes) in Ranthambhore National Park, Rajasthan. JBNHS 96 (2): 314.
  • Reddy, G.V. (1994): Painted spurfowl in Sariska. NBWI 43 (2): 38.
  • Shankar, K. (1993) Painted spurfowl Galloperdix lunulata (Valenciennes) in Sariska Tiger Reserve, Rajasthan. JBNHS 90 (2): 289.
  • Shankar, K., Mohan , D. & Pandey, S. (1993): Birds of Sariska Tiger Reserve, Rajasthan, India. Forktail 8: 133-141.
  • Tehsin, Raza H (1986). “Red Spurfowl (Galloperdix spadicea caurina)”. J. Bombay Nat. Hist. Soc. 83 (3): 663.
  • Vyas, R (2000): Distribution of Painted spurfowl Galloperdix lunulata in Rajasthan. Mor, February 2000, 2:2.

 

लेखक:

Ms. Meenu Dhakad (L): She has worked with Tiger Watch as a conservation biologist after completing her Master’s degree in the conservation of biodiversity. She is passionately involved with conservation education, research, and community in the Ranthambhore to conserve wildlife. She has been part of various research projects of the Rajasthan Forest Department.

Dr. Satish Sharma (R): An expert on Rajasthan Biodiversity, he retired as Assistant Conservator of Forests, with a Doctorate in the ecology of the Baya (weaver bird) and the diversity of Phulwari ki Nal Sanctuary. He has authored 600 research papers & popular articles and 10 books on nature.