यह जगह अनोखी है, हर कोना प्रकृति के रंग से रंगा हुआ और इतिहास की गाथाओं से लबरेज़। यह बात उस स्थान से जुड़ी है जिसका नाम है – टॉडगढ़ रावली वन्यजीव अभ्यारण्य। यह राजस्थान के दो महत्वपूर्ण पारिस्थितिकी तंत्रो के मिलन स्थान पर फैला हुआ है – एक तरफ थार का मरुस्थल है तो दूसरी तरफ विश्व की एक प्राचीनतम पर्वतमाला -अरावली। वर्ष 1983 में स्थापित इस लम्बवत अभ्यारण्य का राजस्थान के तीन जिलों में प्रसार है – अजमेर, पाली एवं राजसमंद। अरावली मेवाड़ और मारवाड़ क्षेत्रों के मध्य अवरोध के रूप में स्थित है जिसे स्थानीय भाषा में आड़े आना कहते है यानी “आड़ा वाला” जिसे ही कालांतर में अरावली कहा जाने लगा।
टॉडगढ़ से दिखनेवाला अरावली के प्रसार एक दृश्य
इतिहास की कई कहानियां की चर्चा अधिक नहीं होती, परन्तु जरुरी नहीं की उनका महत्व कम हो – जैसे दक्षिणी छोर का हिस्सा – दीवर- जहाँ महाराणा प्रताप ने अकबर की सेना को परास्त किया एवं अपने खोये राज्य का अधिकांश हिस्सा पुनः प्राप्त किया। दीवर के रास्ते के एक तरफ राजस्थान का एक अत्यंत खूबसूरत राष्ट्रीय उद्यान – कुम्भलगढ़ है तो दूसरी यह अनोखा वन्यजीव अभ्यारण टॉडगढ़ रावली है, इन दोनों के मध्य स्थित है दिवेर की नाल (गोर्ज)। वानस्पतिक तौर पर विविधता से भरे इस घुमावदार नाल (गोर्ज) में बघेरे राज करते है। अक्सर यह कुम्भलगढ़ की दीवार पर सुस्ताते मिल जाते है। टॉडगढ़ रावली वन्यजीव अभ्यारण्य एवं कुम्भलगढ़ दोनों इन दोनों को मिलाकर अरावली राष्ट्रीय उद्यान की स्थापना प्रस्तावित है कभी शायद सरकार बाघों से फुर्सत पाकर इन उपेक्षित पड़े क्षेत्रों पर भी मेहरबान होगी।
भील बेरी झरना
इसी तरह मध्य हिस्से के ऊँचे स्थान पर बसा टॉडगढ़ कस्बा जिसके नाम पर इस अभ्यारण्य को नाम मिला स्थित है, यहाँ का इतिहास भी कुछ कम नहीं है। अजमेर जिले के अंतिम छोर में अरावली पर्वत श्रृंखला में टॉडगढ़ बसा हुआ है, जिसके चारो और एवं आस पास पहाड़ियां एवं वन्य अभ्यारण्य है। टॉडगढ़ को राजस्थान का मिनी माउंट आबू भी कहते हैं, क्योंकि यहां की जलवायु माउंट आबू से काफी मिलती है व माउंट आबू की भांति इसकी ऊंचाई भी समुद्र तल से काफी अधिक हैं। टॉडगढ़ का पुराना नाम बरसा वाडा था। जिसे बरसा नाम के गुर्जर जाति के व्यक्ति ने बसाया था। टॉडगढ़ के आसपास रहने वाले लोग स्वतंत्र विचारधारा हुआ करते थे एवं मेवाड़ एवं अजमेर के शासक भी इनसे बिना वजह नहीं टकराते थे। लेफ्टिनेंट कर्नल जेम्स टॉड ने इस क्षेत्र को नियंत्रण में लेने के लिए स्थानीय राज्य का सहयोग किया ओर इस स्थान का नाम टॉडगढ़ पड़ा । वर्ष 1818 में जेम्स टॉड को राजस्थान के मेवाड़ राज्य के राजनीतिक प्रतिनिधि के तौर पर पद स्थापित किया गया। टॉडगढ़ के आसपास का क्षेत्र मेर जनजाति द्वारा अधिवासित होने के कारण मेरवाड़ा नाम से जाना जाता है।
टेल्ड जे तितली।
पांच वर्ष के थोड़े अंतराल के पश्चात (1823 में) उन्हें स्वास्थ्य कारणों से ब्रिटेन वापिस जाना पड़ा, परन्तु युद्ध और राजनीतिक दांव पेंच के माहिर टॉड ने राजपुताना के इतिहास पर अनेक शोध पूर्ण जानकारियों का संकलन किया जो वर्ष 1829 में Annals and Antiquities of Rajast’han or the Central and Western Rajpoot States of India के नाम से प्रकाशित हुआ। यहीं वह दस्तावेज है जहाँ सबसे पहले राजस्थान शब्द का इस्तेमाल हुआ परन्तु टॉड ने Rajasthan को Rajast’han के रूप में लिखा था।
थार मरुस्थल की शुष्क एवं गर्म हवाओं को दक्षिण राजस्थान जाने से रोकने में यह अभ्यारण्य सबसे अधिक प्रभावी भूमिका अदा करता है। वर्षा काल में यहाँ कई नाले ओर झरने बहने लगते है, परन्तु भागोरा फॉरेस्ट ब्लॉक का 55 मीटर ऊँचा झरना भील बेरी देखते ही बनता है, जो शायद राजस्थान के अरावली में स्थित सर्वाधिक ऊँचे झरनों में शुमार होता है।अभ्यारण्य में अरावली की प्रमुख चोटियों में से एक ‘गोरम घाट चोटी’ अवस्थित है जिसकी समुद्र तल से ऊंचाई ९२७ मीटर है। वनस्पति विविधता के तौर पर यहां मरुस्थल और अरावली दोनों के घटक देखने को मिल जाते है।
स्लेंडर रेसर एक अत्यंत खूबसूरत सांप है जो यहाँ गाहे बगाहे मिल जाता है।
मानसूनी वर्षा वाला क्षेत्र होने के कारण यहां पर पतझण वन पाये जाते हैं। यहां पर प्रमुख रूप से अरावली का मुख्य वृक्ष धोक (Anogeissus pendula), कम मिट्टी ओर सूखे पर्वतों पर उगने वाला खैर (Acacia catechu), ऊँचे पहाड़ो ओर खड़ी ढलानों पर उगने वाले पेड़ सालर (Boswellia serrata), सूखे पत्थरों पर उगने वाला पेड़ गुर्जन (Lannea coromandelica), मैदानी भागो में उगने वाला वृक्ष ढाक या पलास (Butea monosperma), कँटीला पेड़ हिंगोट (Balanites aegyptiaca), विशाल वृक्ष बरगद (Ficus begnhaleniss), मरुस्थलीय स्थिर टीलों पर उगने वाला पेड़ कुंभट (Senegalia senegal), लवणीय भूमि का वृक्ष पीलू (Salvedora persica) व खट्टे फल पैदा करने वाला इमली वृक्ष (Tamarindus indica) आदि वृक्ष अधिक मात्रा में पाये जाते है। यह वन भारत के अत्यंत सुन्दर झाड़ीदार वन के रूप में विख्यात है, जहाँ करील (Caparis decidua), डांसर (Rhus mysorensis), जैसी झाड़ियाँ भी बहुतायत में मिलती है साथ बेर झाड़ी (Zizyphus mauritiana) की भरमार इस स्थान को अनेक पक्षियों के लिए सुगम भोजन उपलब्धता करवाता है। इन तीनों झाड़ियों के फल पक्षियों को अत्यंत लुभाते है ओर छोटे पक्षियों को पर्याप्त आश्रय के स्थान उपलब्ध करवाता है। यहाँ दो अत्यंत सुन्दर और दुर्लभ होती जा रही चिड़ियाएं मिलती है जिनमें वाइट बेलिड मिनिविट -white-bellied minivet (Pericrocotus erythropygius) ओर वाइट नैपड टिट – white-naped tit (Machlolophus nuchalis) है। इनके अलावा विलुप्त होती जा रही गिद्ध प्रजातियां भी प्रसिद्ध मंदिर दुधलेश्वर महादेव के पास मिल जाते है। टॉडगढ़ रावली वन्यजीव अभ्यारण्य धूसर जंगली मुर्गों -Gray junglefowl (Gallus sonneratii) के विस्तार की उत्तरी सीमा माना जाता हैं।
वाइट बेलिड मिनिविट पक्षी यहाँ अक्सर दिख जाते है
यहाँ का सबसे अधिक आकर्षण का केंद्र है घोरम घाट रेलवे ट्रैक , जहाँ से ट्रेन झरनों, सुरंगो, ओर मनोहारी वन क्षेत्रों से भरपूर मार्ग से गुजरती है। यहां से गुजरने वाली ट्रेन लोगों में सदैव कौतुहल का विषय रहती है। यह रेलवे लाइन अब उन चुनिंदा रेल मार्गों में बची है जो मीटर गेज श्रेणी में आती है, साथ ही यह राजस्थान की एकमात्र माउंटेन रेलवे अथवा टॉय ट्रेन के समक्ष हेरिटेज रेलवे लाइन के रूप में मानी गयी है। यद्यपि यह इस वन क्षेत्र के लिए निसंदेह अभिशाप होगी।
वन क्षेत्र से गुजरती ट्रैन सुहानी तो लगती है परन्तु यह यहाँ की पारिस्थितिक तंत्र के लिए सबसे अधिक बड़ी चुनौती भी है।
टॉडगढ़ रावली वन्य जीव अभ्यारण्य के पास स्थित कुम्भलगढ़ राष्ट्रीय उद्यान में बाघों को स्थापित करने के प्रयास चल रहे है अतः आने वाले समय में कुम्भलगढ़ से सटे इस इस अभ्यारण में संरक्षण के कार्य अधिक तेज होने की संभावना है। इस क्षेत्र में अंतिम बाघ 1964 में देखा जाना माना जाता है। यद्यपि यह नामुमकिन लगता है कि बढ़ते राजमार्गों के जाल से यह स्थान कभी सुरक्षित रह पायेगा, साथ ही बढ़ते धार्मिक पर्यटन के प्रभाव इस स्थान के लिए एक बहुत बड़ा खतरा है।
परन्तु अनेकों खतरों ओर समस्याओं ऐसे जूझता यह अभ्यारण्य अभी तक जैव विविधता के लिए एक महत्वपूर्ण स्थान बना हुआ है , हमें प्रयास करना होगा यह अपने प्राकृतिक स्वरूप को बनाये रखे।
Dr. Dharmendra Khandal (L) has worked as a conservation biologist with Tiger Watch – a non-profit organisation based in Ranthambhore, for the last 16 years. He spearheads all anti-poaching, community-based conservation and exploration interventions for the organisation.
Mr. Rajdeep Singh Sandu (R) :-is a lecturer of political science. He is interested in history, plant ecology and horticulture.
जटिल और सुंदर आवाज अथवा मुश्किल नृत्य के माध्यम से पक्षियों में अपने संगी को रिझाना एक अत्यंत सामान्य प्रक्रिया है। परन्तु क्या आप जानते है ‘प्रेम उपहार’ (नुपिटल गिफ्ट) भी एक तरीका है, जिसमें पक्षी अपने संगी को किसी भोजन का उपहार, उसके साथ परिवार बसाने के लिए देते है। अक्सर नर पक्षी मादा को उपहार में खाने के लिए कीड़े आदि उपहार में देते है इसे नुपिटल गिफ्ट (Nuptial gift) कहा जाता है।
इसी प्रकार के व्यवहार का प्रदर्शन वाइट बेलिड मिनिवेट (white-bellied minivet) नामक पक्षी अत्यंत शानदार एवं नाज़ुक तरीके से करता है। White-bellied Minivet (Pericrocotus erythropygius) भारत में मिलने वाला एक स्थानिक पक्षी है, जो शायद किसी अन्य देश में नहीं मिलता (कुछ लोग मानते है की यह नेपाल में भी मिलता है)। झाड़ीदार और सवाना वनों में रहने वाला यह एक सुंदर मिनीवेट है। जिसमें नर का ऊपरी शरीर, चेहरा और गर्दन का हिस्सा चमकदार काला होता है। छाती पर एक गोल नारंगी पैच होता है, बाकी के अंदरूनी हिस्से सफेद होते हैं। पूंछ काली है, जिसके ऊपर का हिस्सा नारंगी होता है और पंखों पर सफेद निशान हैं। परन्तु मादा इतनी प्रभावी नहीं दिखती है, उसके पीठ का ऊपरी भाग गहरे भूरे रंग का, हल्के काले पंख, एक काली पूंछ होती है। पंखों में नर के समान सफेद निशान होते हैं, और पूंछ का ऊपरी हिस्सा हल्का नारंगी होता है।
वर्षा ऋतु में अक्सर मादा उपहार ग्रहण करने के समय 3-5 फीट ऊंची झाड़ी के एक किनारे की शाखा पर बैठ कर नर को देखती है एवं नर इधर उधर घूम कर कीड़े ढूंढ कर मादा को उड़ते उड़ते उसकी चोंच में अपनी चोंच से एक कीड़ा (अक्सर एक कैटरपिलर) उसको उपहार में दे देता है। यह उपहार देने का एक अत्यंत अनोखा तरीका है। हालांकि नर, मादा की शाखा पर बैठ कर यह उपहार आसानी से दे सकता है परन्तु उड़ते उड़ते उपहार देने का दृश्य को अत्यंत रोचक बन जाता है। देखा गया है की यह 15 -20 मिनट में 5 -7 बार इस प्रक्रिया को दर्शाता है। यह आवृति और सततता नर के मादा के प्रति समर्पण के साथ उसकी योग्यता को दर्शाता है। इस दौरान कभी कभी मादा, नर के द्वारा कीड़े पकड़ लिए जाने पर उसके नज़दीक जाने का कष्ट करती है।
प्रकृति में विभिन्न जीवों का अद्भुत व्यवहार देखने लायक है बस उन्हें रुक कर समय देने की आवश्यकता है।
विज्ञान से सरोकार रखने वाले लोग प्रकृति में जब भी घूमते हैं या अवलोकन करते हैं तो वे प्रेक्षण लेते रहते हैं। ये प्रेक्षण वीडियों, सेल्फी, फोटो, आंकडों, संस्मरण, नोट, चित्र या आरेख के रूप में या किसी भी अन्य रूप में हो सकते हैं।
जो लोग गंभीर अध्ययन – अनुसंधान करना चाहते हैं, वे गिने-चुने कुछ प्रेक्षणों तक सिमित नहीं रहते बल्कि प्रयास कर एक ही विषय पर पर्याप्त प्रेक्षण लेने की कोशिश करते हैं। जितने प्रेक्षण अधिक होते हैं, निष्कर्ष उतने ही सही निकलते हैं। कम प्रेक्षणों का भी अपना एक महत्तव है। कई बार तो एक प्रेक्षण भी महत्वपूर्ण हो जाता है लेकिन जहाँ तक संभव हो पर्याप्त प्रेक्षण लेने का प्रयास करना चाहिये। कई बार घटनायें इतनी दुर्लभ रहती हैं कि हमें एक ही विषय पर अधिक प्रेक्षण नहीं मिल पाते । ऐसी स्थिति में एक प्रेक्षण भी महत्तवपूर्ण हो जाता है।
प्रेक्षण अलिखित या लिखित हो सकते हैं। अच्छा रहे प्रेक्षण लिखित ही रहने ताकि उनकी सत्यता पर आँच न आये। प्रकृति प्रेमियों के पास एक छोटी डायरी व एक पैन हमेशा पास रहना चाहिये ताकि प्रेक्षण को संपूर्णता में सही-सही अंकित किया जा सके। जब प्रेक्षण अच्छी संख्या में उपलब्घ जावें तो, उन्हें एक लेख के रूप में किसी न्यूजलेटर या जर्नल में प्रकाशित करना चाहिये। यदि जर्नल पीयर व्यू प्रकृति का है तो उत्तम। पीयर व्यू प्रकृति का नहीं होने वाले जर्नलों में लेखक या अनुसंधानकर्ता (प्रेक्षण संग्रहकर्ता) द्वारा की गई गलतियों का निवाराण ढंग से नहीं हो पाता है । यदि जर्नल पीयर व्यू प्रकृति का है तो प्रकाशन से पूर्व लेख रिव्यू करने वाले 1-3 विषय विशेषज्ञों के पास जाता हैं तथा लेख की तकनीकी गलतियों से लेकर व्याकरण तक की त्रुटियाँ ठीक की जाती हैं तब जाकर लेख प्रकाशित होता है। पीयर व्यू नहीं करने वाले जर्नल में अध्ययनकर्ता की गलती को हांलाकि संम्पादक ठीक करने का प्रयास करते हैं फिर भी कई बार आपेक्षित सुधार नहीं हो पाता है तथा कुछ त्रुटियाँ रह जाती हैं।
वैसे देखा जाये तो जो प्रेक्षण एक लेख के रूप में वैज्ञानिक साहित्य में प्रकाशित हो जाते हैं वे ही वैज्ञानिक रेकार्ड बनते हैं तथा आगे अनुसंधानकर्ता या लेखक उनको सन्दर्भ के रूप में अपने लेखों में जगह देते हैं। लेकिन जो प्रेक्षण, तथ्य, फोटो आदि जर्नलों में प्रकाशित नहीं हो पाते, वे वैज्ञानिक साहित्य का हिस्सा बनने से वंचित रह जाते हैं। यदि कोई प्रेक्षण, तथ्य या फोटो किसी स्थानीय अखबार में भी प्रकाशित होते हैं तो भी वे विज्ञान का सन्दर्भ नहीं बन पाते हैं।
आजकल कई अच्छे एवं होनहार प्रकृति प्रेमी छायाकार, प्रकृति प्रेक्षक, प्रकृति अन्वेषक तरह-तरह की वनस्पति व प्राणि प्रजातियों को ढूंढते रहते हैं तथा उनसे हम सभी से अवगत कराने हेतु अखबारों में समाचार प्रकाशित करते हैं व कुछ फेसबुक पर व विभिन्न ग्रुपों में अपनी सामग्री साझा करते रहते हैं। कभी-कभी तो बहुत ही अचरज जनक चीजे व बिल्कुल नये तथ्य भी सामने आते है। चूँकि इनमें उचित ढंग से वैज्ञानिक दस्तावेजीकरण का अभाव रहता है अतः ये अद्भुत चीजे समय के साथ अक्सर खो जाती हैं तथा स्थानीय कुछ लोगों के अलावा बाहरी दुनियाँ को उन अचरज जनक चीजों का कुछ पता ही नहीं चलता । वैज्ञानिक अन्वेषण – लेखन कार्य करने वाले अद्येताओं के लिए ये अद्भुत तथ्य सन्दर्भ भी नहीं बन पाते हैं। ऐसे ही तथ्य जब कोई दूसरा व्यक्ति ढूंढ कर उचित वैज्ञानिक प्रक्रिया का पालन कर दस्तावेजीकरण कर उन्हें रेकार्ड पर लाता है तो प्रथम व्यक्ति असहज हो जाता है तथा अपने कार्य की ‘‘चोरी’’ होने तक का आरोप लगाता है तथा वह कई बार अपनी असहजता को अनेक माध्यमों पर प्रकट भी करता है। यह असहजता कई बार मोबाईल ग्रुपों में देखने को मिलती है। कई बार तो कटु शब्दों का उपयोग भी लोग कर डालते हैं। इससे ग्रुप सदस्यों का सौहार्द बिगडने की भी नौबत बन जाती है।
वे लोग जो अपने नवीन वैज्ञानिक तथ्यों को अखबार या फसेबुक तक सीमित रखते हैं उनको चाहिये की वे अपनी सामग्री को उचित ढंग से दस्तावेजीकरण कर सर्वप्रथम किसी न्यूजलेटर, अनुसंधान जर्नल, रिसर्च प्रोजेक्ट, वैज्ञानिक पुस्तक आदि का हिस्सा बनायें ताकि वह आमजन से लेकर वैज्ञानिक शोध-अध्ययन से जुडी संस्थाओं एवं व्यक्तियों तक पहुंच जाये। निसंदेह अब किसी भी सृजनकर्ता की सामग्री एक वैज्ञानिक रेकार्ड के रूप में दर्ज रहेगी तथा उनका लेख भी उनके नाम से ही दर्ज रहेगा। उचित वैज्ञानिक प्रारूप में प्रकाशित हो जाने के बाद किसी भी जानकारी को यदि मौखिक वार्तालाप, अखबार, फेसबुक आदि का हिस्सा बनाया जाये तो उनके लेख/श्रेय के चोरी होने का खतरा नहीं रहता। ऐसा करने से विज्ञान साहित्य तो सजृन होगा ही, सृजनकर्ता भी ंआंनदित एंव गौरवान्वित अनुभव करेंगे। साथ ही उनके श्रम, समय व धन का सदुपयोग हो सकेगा। मैं यहां यह भी सलाह देना चाहूंगा कि लिखने से पहले उस विषय पर पूर्व प्रकाशित वैज्ञानिक साहित्य को अच्छी तरह पढना व समझना चाहिए ताकि बात-बात में यह कहना की ‘‘यह पहली-पहली बार’’ देखा गया है या इससे पहले ‘‘किसी ने नहीं देखा’’ जैसे शब्दों का प्रयोग नहीं हो ।
राजस्थान में एक विचित्र नाम का कीट हैं -हिचड़कावा, यह असल में एक विशाल झींगुर हैं, जो रेतीली सतह- धोरों, नदियों के किनारे आदि पर मिलता हैं। हिचाड़कावा क्या नाम हुआ ? असल में इस विचित्र दिखने वाले कीट के लिए शायद एक विचित्र नाम दे दिया गया हैं। इसका वैज्ञानिक नाम हैं – स्किज़ोडाक्टील्युस मोनस्ट्रोसुस (Schizodactylus monstrosus) हैं। यह उड़ नहीं पता हैं और मेंढक की भांति फुदक फुदक कर चलता हैं। भारत में कई स्थानों पर मिलता हैं – जिसमें नॉर्थ ईस्ट भी शामिल हैं। पूरी तरह रात्रिचर कीट के पंख पीछे से मुड़ कर उसके शरीर की रक्षा के काम आते हैं वहीँ इनके पांवो में विचित्र प्रकार की संरचना बनती हैं जो मिट्टी को खोदने और पीछे धकेलने के लिए उपयुक्त होती हैं। यह इतनी जल्दी जमीन खोदते हैं की देखते देखते जमीन में समा जाते हैं।
पिले रंग के इन झींगुरों पर कई प्रकार के काले धब्बे और निशान होते हैं, साथ ही इनके पांव में हलके हरे रंग की आभा होती हैं। इनके एंटेना की लम्बाई शरीर से लगभग ढाई-तीन गुना तक बड़ी होती हैं, जो कई प्रकार की सूचना एकत्रित करने में सक्षम होती हैं। इनके मुँह के लैब्रम का आकर बड़ा होता हैं जो मेंडिबल्स को ढक लेता हैं। जो टीलों की जमीन को खोदने के लिए उपयुक्त होते हैं।
यह एक मांसभक्षी कीट हैं जो बीटल, अन्य कीट एवं खुद की प्रजाति को भी खाते हैं। यह स्वयं मरू लोमड़ी, मरू बिल्ली आदि के लिए एक महत्वपूर्ण भोजन का स्रोत बनता हैं।
यह नौ इनस्टार के माध्यम से अपना जीवन पूर्ण करता हैं। इंस्टार आर्थ्रोपोड्स का एक विकासात्मक चरण है, जैसे कि कीटक वर्ग को यौन परिपक्वता तक पहुंचने तक कई रूप ग्रहण करने के लिए बाहरी खोल को (एक्सोस्केलेटन) छोड़ना होगा जिसे निर्मोचन (मोल्टिंग) कहते हैं ।
इंस्टार के बीच अक्सर शरीर के बदलते अनुपात, रंग, पैटर्न, शरीर के खंडों की संख्या में परिवर्तन या सिर की चौड़ाई में अंतर देखा जा सकता है। कुछ आर्थ्रोपोड यौन परिपक्वता के बाद भी निर्मोचन करना जारी रख सकते हैं, लेकिन इन बाद के मौल्टों के बीच के चरणों को आम तौर पर इंस्टार नहीं कहा जाता है।
अध्ययन में पाया गया हैं की यह आधा फुट नीचे खड़ा खोद कर यह अंडे डालते हैं जो 20-25 तक हो सकते हैं। कई देशो में लोग इन्हें पालते भी हैं जैसे हमारे देश में घरों में मछलियां पाली जाती हैं।
श्री वाल्मीक थॉपर ने दुर्लभ बाघ व्यवहार दर्शाने वाले छाया चित्रों के संग्रह के साथ अनोखी पुस्तक का प्रकाशन किया है. इस पुस्तक में बाघों के आपसी टकराव, शिकार, बच्चों के लालन पालन, प्रणय, बघेरे, भालू, लकड़बग्घा आदि के साथ बाघ के आपसी व्यवहार, आदि सभी विषयों पर अद्भुत छायांकन और लेखन से जानकारी साझा की है.
इस पुस्तक को हाथ में लेने के बाद इसके 336 पृष्ठों को एक बार में देखे बिना छोड़ पाना लगभग नामुमकिन है. मैंने भी इसके बनने में सहयोग दिया हैं अतः मुझे भी पुस्तक के मुख पृष्ठ पर स्थान मिला है, अतः इस पुस्तक को पहली बार देखना मेरे लिए एक गर्व और सुखद अहसास का क्षण रहा है . यह पुस्तक मुख्यतया श्री थॉपर के रणथम्भौर में दो लम्बे प्रवासों के दौरान प्राप्त हुए छाया चित्रों एवं अनेक बाघों के द्वारा प्रदर्शित किये गए व्यवहार की जानकारी पर आधारित है . इस दौरान मुझे भी अधिकांश बार उनके साथ पार्क में जाने का मौका मिला था .
पुस्तक में मूलतः चार्जर (T120) नामक बाघ द्वारा प्रदर्शित किये गए व्यवहार को अत्यंत सूक्ष्मता से छायांकन किया गया एवं उतनी ही गहराई से श्री थॉपर द्वारा अपने दीर्घ अनुभव के माध्यम से उनका गहन विश्लेषण किया है. श्री थॉपर की पत्नी श्रीमती संजना कपूर ने भी इस दौरान लिए अनेकों छायाचित्र लिए जिनसे रिक्त स्थानों को सम्पूर्णता मिली है . असल में इन दो प्रवासों के 40 -50 दिनों तक उनके साथ रहने वाले सभी लोग एक टीम के रूप में कार्य करने लगे. जैसे अनोखे सामर्थ्य के धनी श्री सलीम अली के वन भ्रमण के लम्बे अनुभव और बाघों के व्यवहार को समझने वाले गाइड के तौर पर कुशल संयोजन किया है . शेरबाग होटल के दीर्घ अनुभवी ड्राइवर श्री श्याम ने अपनी मक्खन ड्राइविंग से उन दिनों की तप्ती धुप को भी सहज बनाये रखा .
इस पुस्तक में भारत के जाने माने अन्य वन्यजीव छायाकारो ने भी अपने छाया चित्र इस पुस्तक के लिए श्री थापर को सहर्ष भेंट किये है . जिनमे है – श्री आदित्य सिंह , श्री कैरव इंजीनियर, श्री चन्द्रभाल सिंह, श्री जयंत शर्मा, श्री हर्षा नरसिम्हामूर्ति, श्री अरिजीत बनर्जी, श्री उदयवीर सिंह, श्री अभिनव धर,श्री अभिषेक चौधरी आदि हैं. यह सभी पार्क में जाने का लम्बा अनुभव रखते हैं .
श्री थॉपर के अनुसार यह पुस्तक अपने इष्ट मित्रों और परिजनों के लिए ही प्रकाशित की गयी है शायद इसका मतलब है यह बाजार, अमेज़ॉन और फ्लिपकार्ट पर यह उपलब्ध नहीं होगी. क्योंकि अभी तक श्री थापर का मानना है की मार्केटिंग आदि अत्यंत कष्ट पूर्ण कार्य है .
श्री थॉपर ने इस पुस्तक का नाम दिया है टाइगर गोल्ड यानी वह पुस्तक जिसमें बाघों ने अपने व्यवहार का सर्वोच्च
प्रदर्शन किया है और श्री थॉपर ने भी अपनी अर्धशती के लम्बे अनुभव के साथ इसका बखूबी संकलन किया है . अपने 70 वें जन्म वर्ष में उनका यह उत्साह अनुकरणीय है . आप यह पुस्तक मेरे व्यक्तिगत संग्रह में देखने के लिए सादर आमंत्रित हैं .
भीं भीं भीं ””””’ की निरंतर आवाज करते हुए यह भारी भरकम बीटल निर्भीक तौर पर दिन में उड़ते हुए दिख जाते हैं।स्टेरनोसरा क्रिसिस (Sternocera chrysis) को राजस्थान में भींग कहा जाता हैं। इनका ऊपरी खोल या एलेंट्रा भूरे रंग का होता हैं परन्तु प्रोनोटुं एक हरे चमकीले रंग का होता हैं, यह एक ज्वेल बीटल हैं जो अद्भुत चमकीले रंग के लिए जाने जाते हैं। यह रंग इन्हें अपने शत्रुओं के लिए अदृश्य बनाने में मददगार होते हैं। रंग हालाँकि आकर्षण के लिए होता हैं परन्तु इनकी अनोखी चमक जीवों को चौंधिया देती हैं और यह अपने शत्रुओं से अपना बचाव कर पाते हैं।
बीटल एक प्रकार के कीट हैं, जिनके कठोर पंखों के जोड़े को विंग-केस या एलीट्रा कहा जाता है, जो इन्हें अन्य कीड़ों से अलग करता है। यह उड़ने की बजाय अंदर के मुलायम पंख अथवा शरीर की रक्षा में काम आते हैं। बीटल की लगभग 400,000 वर्णित प्रजातियों हैं यह सम्पूर्ण ज्ञात कीटों का लगभग 40% और सभी ज्ञात प्राणियों का 25% हैं।
पुराने ज़माने में राजस्थान में छोटी लड़कियां इनके चमकीले खोल का इस्तेमाल अपनी गुड़ियों को सजाने में करती थी, यह खोल अक्सर इनके मरने के बाद इधर – उधर गिरे हुए मिल जाते थे।
बारिश के समाप्त होने के दिनों में जब सूरज सर पर हो तब यह उड़ते हुए जमीं पर उतरते हैं और जमीन में अंडे देते हैं, यह उस पेड़ के नजदीक अंडे डालते हैं जो इनके लार्वों को भोजन प्रदान कर सके। कैसिया फिस्टुला या अमलताश के पेड़ इनके होस्ट प्लांट माने जाते हैं। अमलताश के पेड़ों के नीचे यह अपने पीछे के भाग से कई बार अंडे देता हैं एवं इन के लार्वों की वजह से यह पेड़ मारे भी जाते हैं, अथवा कमजोर हो जाते हैं। क्योंकि यह पेड़ो की मुख्य जड़ो को खोखला कर उसको नुकसान पहुंचाते हैं।
यदपि भींग को प्रकृति में हानिकारक कीट के रूप में देखने की आवश्यकता नहीं हैं, इसकी अपनी एक भूमिका हैं जो यह निभाते हैं, और वह हैं पेड़ों के संख्या को नियंत्रित करना।