प्रस्तुत आलेख द्वारा जानते हैं, राजस्थान की अनुपम वन सम्पदा के बारे में जो न सिर्फ हमारी अनेक प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष जरूरतों को पूर्ण करते हैं बल्कि वन्य जैव-विविधता को भी संरक्षित करते हैं…
प्रकृति में तरह-तरह की प्रजातियों के पौधे मिलते हैं। उनके स्वभाव भी अलग अलग होते हैं – कुछ वृक्ष, तो कुछ झाड़ियां, कुछ शाक तो कुछ बेलें। प्रकृति में कई जगह वृक्षों का बाहुल्य भूमि पर एक हरे आवरण की तरह पनप जाता है एवं इस वृक्ष आवरण के नीचे विभिन्न प्रकार के छोटे पौधे (under growth) भी पनप जाते हैं। वनस्पतियों का यह पुंज “वन” कहलाता है। वैसे आम आदमी सामान्यतया प्रायः सघन वृक्षों वाले क्षेत्र को ही वन समझता है लेकिन घास के मैदान भी एक तरह के वन ही होते हैं।
वनों की वन्यजीव व जैव विविधता संरक्षण में महत्ती भूमिका है। वन वन्य प्राणियों एवं पौधों को उपयुक्त आवास प्रदान करते हैं। वे न केवल उस आवास से जीवित रहने हेतु आवश्यक चीजें ग्रहण करते हैं बल्कि स्वयं भी आवास का हिस्सा बन कर दूसरों की जरूरतें पूर्ण करते हैं। इस तरह वन अपने आप में एक ऐसे तंत्र के रूप में काम करता है जो अपनी आवश्यकता स्वयं पूर्ण करता है, अपनी टूट-फूट स्वयं ठीक कर लेता है तथा जिसमें अदृश्य असंख्य जैव-भौतिक रासायनिक क्रियायें निर्बाध चलती रहती हैं। यह वनीय तंत्र “वन पारिस्थितिकी तंत्र (Forest Ecosystem)” कहलाता है। प्रकृति में वन पारिस्थितिकी तंत्र के साथ साथ “घास क्षेत्र पारिस्थितिकी तंत्र (Grassland Ecosystem)” और “जलीय पारिस्थितिकी तंत्र (Aquatic Ecosystem)” आदि भी देखने को मिलते हैं। ये सभी पारिस्थितिकी तंत्र तरह-तरह के स्तनधारी, पक्षियों, सरीसृपों, उभयचारी, मछलियों, कीट-पतंगों, घोंघों आदि को रहने, प्रजनन करने एवं अपना समुदाय बनाने की सुविधा प्रदान करते हैं। यदि पौधों में विविधता न हो तो आवास विविधता भी नहीं पनप सकती है एवं आवास विविधता नहीं होगी तो प्राणी व वनस्पति विविधता भी पैदा नहीं होगी साथ ही वन विविधता भी नहीं होगी। वनों के प्रकार या विविधता ही वस्तुतः वन वर्गीकरण है।
उष्ण शुष्क पतझड़ी वन (फोटो: डॉ. धर्मेंद्र खांडल)
वैज्ञानिक वर्गीकरण: मुख्यरूप से राजस्थान के वनों को वैज्ञानिक एवं जैविक दृष्टि से वर्गीकृत किया गया है। वैज्ञानिक दृष्टि से वनों का वर्गीकरण कानून की पुस्तकों में मिलता है। भारतीय वन अधिनियम 1927 (Indian Forest Act 1927) की आधार शिला पर राजस्थान वन अधिनियम 1953 (Rajasthan Forest Act 1953) बनाया गया है। यह अधिनियम वनों को तीन श्रेणी में विभाजित करता है :
आरक्षित वन (Reserve Forest)
रक्षित वन (Protected Forest)
अवर्गीकृत वन (Unclass Forest)
आरक्षित वन एवं उसकी उपज का स्वामित्व पूर्ण रूप से या उसके कुछ भाग पर सरकार का होता है। रक्षित वन पर भी सरकार का स्वामित्व होता है लेकिन सरकार चाहे तो उसके उपयोग के कुछ अधिकार या अधिकांश अधिकार अपनी जनता या स्थानीय समुदाय को दे सकती है। अवर्गीकृत वन वे हैं जिनका अभी निर्धारण नहीं हुआ है कि उनको आरक्षित वन बनाया जाये या रक्षित। वनों की वैज्ञानिक श्रेणी का निर्धारण वन विभाग, वन बंदोबस्त अधिकारी (Forest Settlement Officer), सरकार अवं रेवेन्यू विभाग करते हैं। वन बंदोबस्त का कार्य रेवेन्यू बंदोबस्त से स्वतंत्र रह कर चलता है। वन बंदोबस्त में वन खंड अवं कम्पार्टमेंट के रूप में नक़्शे तैयार होते हैं। रेवेन्यू सेटलमेंट की तरह वन क्षेत्र में खसरों का प्रावधान नहीं होता।
जैविक वर्गीकरण दृष्टि से भारत के वनों का वर्गीकरण एच्. जी. चैम्पियन एवं एस. के. सेठ ने किया है। उन्होंने 16 मुख्य वनों के प्रकार पहचाने हैं जिनमें राजस्थान में 3 मुख्य प्रकार ज्ञात हैं:
वर्ग 5 -उष्ण शुष्क पतझड़ी वन (Tropical Dry Deciduous Forest)
वर्ग 6 -शुष्क कांटेदार वन (Tropical Thorn Forest)
वर्ग 8 – उपोष्ण चौड़ी पत्ती के पहाड़ी वन (Subtropical Broad Leaved Hills Forest)
उष्ण शुष्क पतझड़ी वन:
उष्ण शुष्क पतझड़ी वनों में उन वृक्ष प्रजातियों का बाहुल्य होता है जो वर्षा में हरी-भरी नजर आती हैं तथा पत्तियों से ढकी रहती हैं लेकिन वर्षा के बाद जैसे ही नमी का स्तर गिरता है, इनके पत्ते पीले होकर झड़ने लगते हैं एवं गर्मियों के आते-आते ये पर्ण विहीन होकर सूखे जैसे नजर आते हैं। गर्मी में प्राय: इनमें फूल व फल लगते हैं तथा वर्षा काल प्रारम्भ होते ही फिर इनमें पत्तियाँ आने लगती हैं। इन वनों में बाँस व झाड़ियों को भी देखा जा सकता है। इन वनों में धौंक, सफ़ेद धौंक, बहेड़ा, सादड, गुर्जन, सालर, खिरन, खिरनी, खैर, बरगद, पीपल, पहाड़ी पीपल, महुआ, बबूल, पलाश, खजूर आदि प्रजातियों के वृक्षों का बाहुल्य होता है तथा काली स्याली, गणगेरण, हरसिंगार, कड़वा या दुद्धी आदि झाड़ियों का बाहुल्य होता है। उष्ण शुष्क पतझड़ी वनों के भी कई उप प्रकार नजर आते हैं। राजस्थान में मिलने वाले प्रमुख उप प्रकार निम्न हैं :
धौक वन (Anogeissus pendula Forest)
सालर वन (Boswellia Forest)
बबूल वन (Babool Forest)
पलाश वन (Butea Forest)
बेलपत्र वन (Aegle Forest)
लवणीय क्षेत्र के झाड़ीदार वन (Saline Alkaline scrub forest)
खजून वन (Phoenix savannah)
शुष्क बॉस वन (Dry Bamboo Brakes)
सागवान वन (Teak Forest)
मिश्रित वन (Mixed Forest)
यह वन पूरी अरावली पर्वत माला, विंध्याचल पर्वतमाला एवं अरावली पर्वत माला के पूर्व दिशा में फैले हुये हैं। ये वन उदयपुर, प्रतापगढ़, बांसवाड़ा, डूंगरपुर, चित्तौडग़ढ़, भीलवाड़ा, कोटा, बूंदी, झालावाड़, बारां, धौलपुर, भरतपुर, अलवर, दौसा, जयपुर आदि अपेक्षाकृत अधिक वर्षा वाले जिलों में मिलते हैं। सालर के वन पहाड़ों के ऊपरी हिस्सों में, धौक वन पहाड़ों के ढाल पर तथा पलाश वन तलहटी क्षेत्र में मिलते हैं। जहाँ मिटटी का अच्छा जमाव है एवं नमी का स्तर अच्छा है वहां खजूर एवं बाँस वन मिलते हैं। बाँस मुख्य रूप से दक्षिणी राजस्थान में पाये जाते हैं। सागवान वन हाड़ौती एवं दक्षिण राजस्थान में मिलते हैं। उदयपुर जिले की गोगुन्दा तहसील की सायरा रेंज का सागेती वन खण्ड भारत में सागवान की अंतिम पश्चिमी एवं उत्तरी सीमा बनता हैं। राजस्थान व गुजरात सागवान के विस्तार रेंज की पश्चिमी सीमा बनाते हैं।
रेगिस्तानी कांटेदार वन (फोटो: डॉ. धर्मेंद्र खांडल)
शुष्क कांटेदार वन:
इस प्रकार के वनों का अस्तित्व मुख्यरूप से कम वर्षा वाले क्षत्रों में होता है। इन वनों में छोटी व संयुक्त पत्तियों तथा काँटों वाली प्रजातियों के वृक्ष व झाड़ियों का बाहुल्य मिलता है। इन वनों में कुमठा, रौंझ, बेर, फोग,थूर, पीलू, (खारा जाल व मीठा जाल), कैर, आंवल छाल आदि वनस्पतियां मिलती हैं। ये वन मुख्य तथा शुष्क व रेगिस्तानी क्षेत्र में अधिक मिलते हैं। जहाँ भूमि का कटाव हो रहा है, तथा जल बहाव अधिक है वहां भले ही अधिक वर्षा हो, ये ही वन पनपते हैं क्योंकि भौतिक रूप से वहां सूखे की स्थिति बनी रहती है। चम्बल जैसी नदियों के कंदरा क्षेत्र में भी ऐसे ही वन पनप पाते हैं।
कांटेदार वनों के भी कई उप प्रकार ज्ञात हैं। राजस्थान के मुख्य उप प्रकार निम्न हैं:
रेगिस्तानी कांटेदार वन (Desert Thorn Forest)
कंदरा क्षेत्र कांटेदार वन (Ravine Thorn Forest)
बेर के झाड़ीदार वन (Ziziphus scrub)
थूर झाड़ीदार वन (Tropical Euphorbia Forest)
कुमठा वन (Acacia senegal Forest)
पीलू वन (Salvadora Scrubs)
आंवल छाल झाड़ीदार क्षेत्र (Cassia auriculata scrubland)
कांटेदार वन मुख्य रूप से राजस्थान में अरावली के पश्चिम में पाली,सिरोही,जालोर, बाड़मेर, जैसलमेर, जोधपुर, सीकर, झुंझुनूं, चूरू, नागौर, बीकानेर, आदि जिलों में पाएं जाते हैं। इंदिरा गाँधी नहर की सिंचाई से गंगानगर एवं हनुमानगढ़ जिलों की परिस्थितियां काफी बदल गई हैं एवं वहां वनस्पति एवं वन प्रकारों में बदलाव हुआ है। कांटेदार वन क्षेत्र में सेवण घास के घास क्षेत्र (grassland) भी पाए जाये हैं। कांटेदार वन अजमेर, जयपुर, अलवर, धौलपुर, व अरावली के पूर्व में अन्य जिलों में भी जहाँ-तहाँ विधमान हैं।
रेगिस्तानी कांटेदार वन (फोटो: डॉ. धर्मेंद्र खांडल)
उपोष्ण चौड़ी पत्ती के पहाड़ी वन:
चौड़ी-पत्ती के पहाड़ी वनों का फैलाव राजस्थान में सबसे कम क्षेत्र में है। ये वन सिरोही जिलों में आबू पर्वत पर ऊपरी तरफ पाए जाते हैं। आबू पर्वत पर हिमालय एवं नीलगिरि के बीच में सबसे ऊँची छोटी गुरु शिखर भी विध्यमान है। यहाँ 1500 मिमी. तक वर्षमान है तथा ताप अपेक्षाकृत कम है जिसमें जहाँ अर्द्ध-सदाबहार वन अस्तित्व में आया है। यहाँ आम, जामुन, स्टर्कुलिया की कई प्रजातियां, करौंदा, फर्न, आर्किड आदि वनस्पतियां पायी जाती हैं। यहाँ जंगली गुलाब (Rosa involucrata) नमक प्रजाति भी पायी जाती है।
राजस्थान की वन सम्पदा बहुत ही अनुपम है ये वन न सिर्फ लोगों की अनेक प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष जरूरतों को तो पूर्ण करते ही है, साथ ही यहाँ की वन्य जैव विविधता को भी संरक्षित करते हैं अतः इन्हें संरक्षित करने की अत्यंत आवश्यकता है।
“सरिस्का टाइगर रिजर्व में “भामर मधुमक्खी” द्वारा छत्ता बनाने के लिए बरगद कुल के बड़े एवं पुराने पेड़ों को प्राथमिकता दिया जाना पुराने पेड़ों की महत्वता पर प्रकाश डालती है।”
हमारी प्रकृति में विभिन्न प्रकार के जीव “परागणकर्ता (पोलिनेटर)” की भूमिका निभाते हैं जो न सिर्फ पर-परागण (Cross pollination) को बढ़ावा देते हैं बल्कि आनुवंशिक विविधता को बढ़ाने, नई प्रजातियों के बनने और पारिस्थितिकी तंत्र में स्थिरता लाने में भी योगदान देते हैं। यह परागण, सहजीविता पर आधारित पारिस्थितिक तंत्र प्रक्रिया का एक ऐसा उदाहरण है जो उष्णकटिबंधीय स्थानों पर रहने वाले मानव समुदायों को एक सीधी सेवा प्रदान करता है और इसीलिए सभी परागणकर्ता पारिस्थितिकी तंत्र के लिए महत्वपूर्ण हैं। परन्तु, परागणकर्ताओं की बहुतायत, विविधता और स्वास्थ्य को मानव गतिविधियों जैसे मानवजनित जलवायु परिवर्तन, निवास स्थान के विनाश और पर्यावरण प्रदूषकों से खतरा है।
ऐसी ही एक परागणकर्ता है, “बड़ी मधुमक्खी” जिसका वैज्ञानिक नाम “एपिस डोरसाटा (Apis dorsata)” है और राजस्थान में इसे “भामर” नाम से जाना जाता है। भामर, एशिया भर के उष्णकटिबंधीय वर्षावनों और कृषि क्षेत्रों में एक महत्वपूर्ण शहद उत्पादक है। हालांकि पिछले कुछ वर्षों में उष्णकटिबंधीय वनों का विखंडन बहुत तेजी से हुआ है, फिर भी ऐतिहासिक रूप से मधुमक्खियों पर निवास स्थान के विखंडन के प्रभावों पर बहुत कम अध्ययन किये गए हैं और जो किये गए हैं वो सिर्फ नवोष्ण-कटिबंधीय क्षेत्रों पर आधारित हैं।
भामर, एशिया भर के उष्णकटिबंधीय वर्षावनों और कृषि क्षेत्रों में एक महत्वपूर्ण शहद उत्पादक है (फोटो: डॉ. धर्मेंद्र खांडल)
हाल ही में राजस्थान के वन अधिकारी श्री गोविन्द सागर भरद्वाज एवं साथियों द्वारा अलवर जिले में स्थित “सरिस्का बाघ परियोजना” में भामर “Apis dorsata” के छत्तों के स्वरूप एवं वितरण पर एक अध्ययन किया है, जो की “Indian Forester” में प्रकाशित हुआ है, इसमें भामर द्वारा पसंदीदा पौधे व वृक्ष प्रजातियों की पहचान और विखंडित एवं घने वन क्षेत्रों में बामर के छत्तों की बहुतायत की तुलना भी की गई (Bhardwaj et al 2020)।
भारत एक उष्णकटिबंधीय देश है जो विविध पारिस्थितिक तंत्रों से युक्त है जिनमें विभिन्न प्रकार की वनस्पति प्रजातियां पायी जाती हैं तथा विभिन्न मधुमक्खी प्रजातियों के लिए अनुकूल निवास स्थान प्रदान करती है। इन सभी प्रजातियों के बीच, भामर मूल रूप से एक जंगली मधुमक्खी प्रजाति हैं क्योंकि यह वन क्षेत्रों में अपना छत्ता बनाती हैं। यह एपिस जीनस में सबसे बड़ी मधुमक्खियों में से एक है जिसकी कुल लंबाई 17 से 20 मिमी तक होती है। यह बड़े एवं घने पेड़ों की शाखाओं, चट्टानों और पानी के टैंकों जैसी मानव निर्मित संरचनाओं पर बड़े आकार के छत्तों का निर्माण करते हैं।
भामर चट्टानों की दरारों के पास भी छत्तों का निर्माण करते हैं (फोटो: डॉ. गोविन्द सागर भारद्वाज)
भामर, दक्षिण और दक्षिणी-पूर्वी एशिया के अधिकांश हिस्सों में पायी जाती है। एशिया में उष्णकटिबंधीय वर्षा वनों और कृषि क्षेत्रों में एक जंगली परागणकर्ता और शहद उत्पादक के रूप में इसकी भूमिका व्यापक रूप से सराहनीय मानी जाती है। यह एक संगठित रक्षा प्रतिक्रिया या हमला करने के लिए जानी जाती है तथा इसकी एक कॉलोनी हर साल लगभग 100-200 किमी दूरी तक प्रवास करती है, और इनका प्रवास सूखे और बरसात के मौसम पर निर्भर करता है। इनकी प्रत्येक कॉलोनी में आमतौर पर एक रानी, कई नर और हज़ारों कार्यकर्ता मधुमक्खियां होती हैं। यह अपने छत्तों का निर्माण एकल या फिर कई बार एक ही बड़े पेड़ पर 10- 25 छत्तों तक निर्माण करते हैं तथा छत्ते जमीन से लगभग 6 मीटर तक की ऊंचाई तक होते है।
इस अध्ययन के शोधकर्ताओं ने अगस्त 2018 में भामर कॉलोनियों के लिए सरिस्का बाघ परियोजना क्षेत्र का सर्वेक्षण किया। हर क्षेत्र सम्बंधित चौकी के फ्रंटलाइन स्टाफ (बीट ऑफिसर) के अनुभव के आधार पर भामर कॉलोनियों को खोजा गया तथा उनकी गणना की गई। जिन पेड़ों पर भामर कॉलोनियां पायी गई उन सभी की परिधि का माप दर्ज किया गया, नामों की सूचि बनायी गई, कॉलोनियों की तस्वीर ली गई तथा जीपीएस लिया गया। कॉलोनी के आवास सम्बंधित अन्य सूचनाएं भी दर्ज की गई।
भामर कई बार एक ही बड़े पेड़ पर 10- 25 छत्तों तक का निर्माण करते हैं(फोटो: डॉ. धर्मेंद्र खांडल)
अध्ययन के लेखकों ने सम्पूर्ण सरिस्का क्षेत्र का सर्वेक्षण कर कुल 242 भामर कॉलोनियां पाई जिनमें से 161 कॉलोनियां पेड़ों पर, 78 चट्टानों, 2 झाड़ियों और 3 मानव निर्मित इमारतों पर बानी हुई थी। दर्ज की गई सभी सूचनाओं की समीक्षा से ज्ञात हुआ की सबसे अधिक 102 कॉलोनियां बरगद कुल के पेड़ों पर बनाई जाती हैं तथा इनमें से 80.12% कॉलोनियां 100 सेमी से अधिक परिधि वाले पेड़ों पर देखी गई। बरगद कुल के पेड़ों पर अधिक कॉलोनियां बनाने का कारण इन पेड़ों का बड़ा आकार हो सकता है। परन्तु यदि पेड़ का बड़ा आकार और उसके तने की परिधि ही मायने रखती है तो ढाक (Butea monosperma) के पेड़ की औसतन परिधि सालार (Boswellia serrata) के पेड़ से ज्यादा होती है। अब क्योंकि ढाक सरिस्का क्षेत्र में बहुतायत में मौजूद है, परिणामस्वरूप ढाक के प्रत्येक पेड़ पर छत्ता मिलना चाइये था, परन्तु सालार पेड़ पर अधिक कुल 14 छत्ते पाए गए और ढाक पर सिर्फ 3 छत्ते ही देखे गए। ऐसा इसलिए हो सकता है क्योंकि ढाक का पेड़ ग्रामीणों द्वारा मवेशियों को खिलाये की वजह से लगातार कांटा जाता है तथा भामर के लिए यह शांतिपूर्वक स्थान नहीं है।
इनके अलावा 34 कॉलोनियां चट्टानों पर भी देखी गई। अध्ययन के दौरान एक बरगद का पेड़ ऐसा भी देखा गया जिसकी परिधि 425 सेंटीमीटर की थी और उसपर 15 भामर कॉलोनियां बानी हुई थी। घने वन क्षेत्र में प्रति वर्ग किलोमीटर में 0.25 कॉलोनियां और विखंडित वन क्षेत्र में 0.15 कॉलोनियां दर्ज की गई।
भामर के 80% छत्तों का एक मीटर से अधिक परिधि वाले पेड़ों पर पाया जाना, वनों में बड़े पेड़ों की भूमिका व महत्वता को दर्शाता है और ये केवल तभी संभव है जब ऐसे परिदृश्यों को संरक्षण दिया जाता है।
मधुमक्खी कॉलोनियों की स्थिति का आकलन करने के लिए अतीत में बहुत कम अध्ययन किए गए हैं, और ऐसे में वर्तमान अध्ययन से निकली किसी भी जानकारी की तुलना व टिप्पणी करने की गुंजाइश बहुत कम है। हालांकि इस डेटा को आधार मान कर मानवजनित हस्तक्षेप और जलवायु परिवर्तन के कारण आने वाली चुनौतियों के संबंध में मधुमक्खियों पर गहन अध्ययन एवं उनकी स्थिति की निगरानी की जा सकती है। जैसे बाघ परियोजना क्षेत्र के लिए बाघ को संकेतक माना जाता है वैसे ही मधुमक्खियों के छत्तों की स्थिति को वन पारिस्थितिक तंत्र के स्वास्थ्य का सूचक माना जा सकता है।
सन्दर्भ:
Bhardwaj, G.S., Selvi, G., Agasti, S., Singh, H., Kumar, A. and Reddy, G.V. 2020. A survey on demonstrating pattern of Apis dorsata colonization in Sariska Tiger Reserve, Rajasthan. Indian Forester, 146 (8) : 682-587, 2020 DOI: 10.36808/if/2020/v146i8/154146
हाल ही में एक अध्ययन से खुलासा, कि राजस्थान के कई जिलों में उपस्थित है दुनियाँ की सबसे छोटी बिल्ली …
दुनियाँ की सबसे छोटी बिल्ली रस्टी-स्पोटेड कैट (Prionailurus rubiginosus), का वितरण क्षेत्र अन्य बिल्ली प्रजातियों की अपेक्षाकृत सीमित है। यह बिल्ली भारत, नेपाल एवं श्रीलंका में पायी जाती है। मनुष्यों की बढ़ती आबादी तथा जंगलों के विनाश व खंडन के कारण आज यह खतरे के निकट (Near Threatened) है। भारत में इसकी उपस्थिति राजस्थान के अलावा गुजरात, हरियाणा उत्तर प्रदेश, जम्मू-कश्मीर, तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश, कर्नाटक, ओडिशा, महाराष्ट्र और मध्य प्रदेश से दर्ज की गयी है। राजस्थान में इसकी वितरण सीमा को समझना महत्वपूर्ण है क्योंकि भारत में यह राज्य इसकी वितरण सीमा का पश्चिमी छोर है। वर्ष 2020 से पहले इसे राजस्थान के कुल 34 जिलों में से केवल पांच से दर्ज किया गया था। राजस्थान के दक्षिणी छोर पर स्थित उदयपुर जिले में 1994 में रस्टी-स्पॉटेड कैट की प्रथम उपस्थिति दर्ज की गयी थी। इसके बाद कुल 86,205 वर्ग किमी क्षेत्र में फैले चार और जिलों; अलवर, सवाई माधोपुर, बूंदी और भरतपुर से इसे दर्ज किया गया है और शेष जिलों में इसकी उपस्थिति के बारे में कुछ भी ज्ञात नहीं था।
वैज्ञानिकों और प्रकृतिवादियों के लिए बहुत ही ख़ुशी की बात यह है की हाल ही में रस्टी-स्पॉटेड कैट के वर्तमान वितरण क्षेत्र पर एक अध्ययन किया है, जो की “Journal of Threatened Taxa” में प्रकाशित हुआ है, इसमें यह देखा गया है, कि पिछले 20 वर्षों (2000 से 2020) में रस्टी-स्पॉटेड कैट की राजस्थान में उपस्थिति कहाँ-कहाँ रही है (Sharma and Dhakad 2020)?
रस्टी-स्पॉटेड कैट, आकार में बिल्ली कुल कि सबसे छोटी सदस्य है। इनके भूरे फर पर कत्थई-भूरे-लाल रंग के धब्बे और बादामी रंग की लकीरें होती है। इसकी आँखों के ऊपर चार काली रेखाएं होती हैं जिनमें से दो गर्दन के ऊपर तक फैली होती हैं। सिर के दोनों तरफ छः गहरे रंग कि धारियाँ होती हैं जो गालों और माथे तक फैली जाती हैं। इसकी ठुड्डी, गला, पैरों का अंदरूनी भाग और पेट मुख्यतः सफ़ेद होते हैं जिस पर छोटे भूरे धब्बे होते हैं। इसके पंजे और पूंछ एक समान लाल भूरे रंग के होते हैं। यह लगभग 35 से 48 सेंटीमीटर तक लम्बी होती है तथा इसका वज़न 1.5 किलो तक हो सकता है।
मनुष्यों की बढ़ती जनसंख्या और वनों के कटाव एवं विखंडन के कारण रस्टी-स्पॉटेड कैट की स्थिति प्रभावित हुई है। वर्ष 2016 में इसे IUCN की रेड लिस्ट में खतरे के निकट (Near Threatened) श्रेणी में रखा गया। इस बिल्ली प्रजाति के वितरण क्षेत्र व अन्य पहलुओं पर अध्ययन बहुत ही सीमित है। इसी प्रयास में, राजस्थान में इसकी उपस्थिति जानने हेतु इस अध्ययन के लेखकों ने राज्य से पिछले 20 वर्षों की सभी सूचनाएं; प्रत्यक्ष अवलोकन, सड़क दुर्घटना में मारे गए, विपदा में फंसे बचाये बिलौटे तथा कैमरा ट्रैप में दर्ज हुए प्राणियों के चित्र एकत्रित करने का प्रयास किया, तथा इन सभी सूचनाओं को नक़्शे पर दर्शाया और वितरण क्षेत्र एवं सीमा का मूल्यांकन भी किया।
अध्ययन के लेखकों ने वर्ष 2000 से शुरू होकर मार्च 2020 तक 30 अलग-अलग स्थानों से कुल 51 सूचनाएं एकत्रित की। अध्ययन द्वारा संगृहीत आंकड़ों के संकलन से पता चलता है कि रस्टी-स्पॉटेड कैट राजस्थान के दस और जिलों; अजमेर, सिरोही, कोटा, धौलपुर, करौली, चित्तौड़गढ़, जयपुर, बांसवाड़ा, प्रतापगढ़ और पाली में भी उपस्थित है, तथा इसकी वितरण सीमा 71,586 वर्ग किमी क्षेत्र तक है जो मुख्यरूप से अरावली एवं विंध्यन पर्वतमाला तथा पूर्वी राजस्थान के अर्ध-शुष्क क्षेत्र हैं। इसे विभिन्न प्रकार के आवासों में देखा गया जैसे कि कांटेदार और शुष्क पर्णपाती वन, मानव बस्तियों के बाहरी इलाकों में, कंदरा क्षेत्र (ravines), बगीचे, वनों के निकट स्थित कृषि क्षेत्र एवं मानव आबादियों के पास स्थित वन कुंजों, सागवान वन और अर्ध-सदाबहार चौड़ी पत्ती के पहाड़ी वन क्षेत्र।
राजस्थान में रस्टी-स्पोटेड कैट का वितरण क्षेत्र
सभी सूचनाओं की समीक्षा करने पर यह ज्ञात होता है कि रस्टी स्पॉटेड कैट अरावली पर्वत श्रृंखला में व्यापक रूप से वितरित है। यदि हम ऊंचाई के दृष्टिकोण से बात करते हैं, तो इसे अरावली हिल्स के सबसे ऊंचे स्थान “माउंट आबू” तक वितरित है।
सभी सूचनाओं कि समीक्षा से यह भी पता चलता है कि यह बिल्ली पूर्णरूप से निशाचर है क्योंकि इसे मुख्यतः अँधेरे के समय देर शाम और शुरुआती सुबह में ही देखा गया है। वर्षा ऋतु में इसे कई बार वन क्षेत्रों कि दिवार एवं पैरापेट दीवार पर भी बैठा देखा गया है, जिसमें से एक बार तो इसे और तेंदुए को लगभग 50 मीटर कि दूरी पर एक साथ बैठे देखा गया है। एक अवसर पर, बिल्ली को रौंज (Acacia leucophloea) के वृक्ष पर देखा गया और पेड़ के कांटे होने के बावजूद भी बिल्ली को एक शाखा पर आराम से बैठे देखा गया था। इन अवलोकनों से बिल्ली के अर्ध-वृक्षीय स्वभाव के बारे में पता चलता है।
अध्ययन में अरावली पर्वतमाला के पश्चिमी भाग से कोई भी रिकॉर्ड नहीं मिला जो कि राजस्थान का थार मरुस्थलीय भाग है। थार में बिल्ली की अनुपस्थिति के लिए उच्च तापमान और आवास प्रकार में अंतर को मुख्य कारण प्रतीत होते हैं। इसके अलावा अरावली के पूर्व में आने वाले कुछ जिलों जैसे कि दौसा, टोंक, राजसमंद, भीलवाड़ा, बारां और झालावाड़ में शुष्क पर्णपाती वन होते हुए भी कोई रिकॉर्ड नहीं मिला है। इन जिलों में उपयुक्त आवासों में कैमरा ट्रैप विधि को अपनाने की जरुरत है ताकि इस प्रजाति की उपस्थिति सम्बन्धी ठोस जानकारी मिल सके।
सड़क दुर्घटना में मारी गई रस्टी-स्पोटेड कैट की तस्वीर (फोटो: श्री नीरव भट्ट)
अध्यन्न के दौरान छह बार बिलौटे देखे गए। वयस्क बिल्लियां 45 बार दर्ज की गयी जिनमें 41 जीवित तथा चार सड़क दुर्घटना में मृत पायी गई। विशेष रूप से रात के समय, बिल्ली को सड़क के आसपास विचरण करते हुए देखा गया, सडकों पर विचरण करने से इस बिल्ली के वाहनों के चपेट में आने का खतरा बढ़ जाता है। रस्टी-स्पोटेड कैट को सड़क दुर्घटना में शिकार होने से रोकने के लिए महत्वपूर्ण निवारक उपायों की आवश्यकता है। जैसे कि पैट्रोलिंग स्टाफ को सड़क पर मरे (Roadkill) एवं आसपास निस्तारित किए गए मवेशियों के शवों की जांच करने और जंगलों से गुजरने वाली सड़कों से उनको हटवाने का उचित प्रावधान किया जाना चाहिए। इस प्रजाति के संरक्षण हेतु सडकों के किनारे स्थित होटलों और रेस्तरां में उचित अपशिष्ट निपटान प्रणाली, सडकों पर उचित अंतराल पर अंडरपास की व्यवस्था, सड़कों से दूर पानी की सुविधा, और ड्राइवरों के लिए गति संकेतों, द्वारा न केवल रस्टी-स्पोटेड कैट को दुर्घटनाओं से बचा सकते हैं बल्कि सड़कों को पार करने वाली कई अन्य प्रजातियों को भी बचाया जा सकता है।
राजस्थान में रस्टी-स्पोटेड कैट अभी भी कम ज्ञात प्रजाति है। वन विभाग को इस बिल्ली की सही पहचान करने के लिए वन कर्मचारियों को प्रशिक्षित करने और गणना के आंकड़ों को शामिल करने की पहल करनी चाहिए। इस प्रजाति की स्थिति जानने के लिए राज्य के अन्य जिलों में गहन कैमरा ट्रैप अध्ययन की आवश्यकता है। रस्टी-स्पॉटेड कैट के दीर्घकालीन बचाव हेतु वन संरक्षण सबसे जरूरी है। राजस्थान में रस्टी-स्पॉटेड कैट की संख्या निर्धारण हेतु संरक्षित क्षेत्रों के बाहर इसके सर्वेक्षण की पुरजोर अनुशंषा करते हैं।
सन्दर्भ:
Cover photo credits: Dr. Dharmendra Khandal
Sharma, S.K. & M. Dhakad (2020). The Rusty-spotted Cat Prionailurus rubiginosus (I. Geoffroy Saint-Hillaire, 1831) (Mammalia: Carnivora: Felidae) in Rajasthan, India – a compilation of two decades. Journal of Threatened Taxa 12(16): 17213–17221. https://doi.org/10.11609/jott.6064.12.16.17213-17221
लेखक:
Ms. Meenu Dhakad (L): She has worked with Tiger Watch as a conservation biologist after completing her Master’s degree in the conservation of biodiversity. She is passionately involved with conservation education, research, and community in the Ranthambhore to conserve wildlife. She has been part of various research projects of the Rajasthan Forest Department.
Dr. Satish Kumar Sharma (R): An expert on Rajasthan Biodiversity, he retired as Assistant Conservator of Forests, with a Doctorate in the ecology of the Baya (weaver bird) and the diversity of Phulwari ki Nal Sanctuary. He has authored 600 research papers & popular articles and 10 books on nature.
“सर्दियों के मेहमान प्राचीन युग गिद्ध “ग्रिफॉन”, जिनके आगमन से लगता है…गिद्धों की संख्या में वृद्धि हो रही है।”
राजस्थान में, अचानक जब सर्दियों में गिद्ध देखने को मिलते हैं तो अक्सर लोग ये अनुमान लगाते हैं कि यहाँ गिद्धों की आबादी में बढ़ोतरी हो रही है। परन्तु वास्तव में इनमें से अधिक्तर तो हमारे सर्दियों के मेहमान होते हैं अतः प्रवास कर यहाँ आते हैं। इन प्रवासी गिद्धों के समूहों में मुख्यतः ग्रिफ़ॉन कुल की दो प्रजातियां यूरेशियन ग्रिफ़ॉन और हिमालयन ग्रिफ़ॉन देखने को मिलती है जिनके बारे में हम इस आलेख में जानेंगे…
“ग्रिफ़ॉन (Griffon)”, यह नाम ग्रीक भाषा के शब्द “Gryphos” से लिया गया है जिसका अर्थ होता है “हुक जैसी नाक वाला प्राणी” और यह स्पष्ट रूप से गिद्धों कि हुक के आकार वाली चोंच कि ओर इशारा करता है। साथ ही पौराणिक कहानियों में ग्रिफ़ॉन एक ऐसा प्राणी माना गया है जिसका सिर एवं पंख ईगल के तथा शरीर, टाँगे और पूँछ शेर कि होती है। आज विश्व में दो प्रकार के ग्रिफॉन पाए जाते हैं यूरेशियन ग्रिफ़ॉन और हिमालयन ग्रिफ़ॉन और इन्हें प्राचीन युग गिद्ध (Old World Vultures) भी कहा जाता है।
हिमालयन ग्रिफ़ॉन, भारतीय उपमहाद्वीप के हिमालय में पाया जाने वाला सबसे बड़े आकार का पक्षी है (फोटो: श्री रजत चोरडिया)
यूरेशियन ग्रिफ़ॉन (Eurasian Griffon) जिसे “Gyps fulvus” नाम से भी जाना जाता है, एक बड़े आकार का गिद्ध है जिसके पंखों का विस्तार लगभग 300 सेमी तक होता है। यानि एक 6 फ़ीट का आदमी अपने दोनों हाथों को फैलाये तो उसके हाथों के विस्तार से भी बड़ा इसके पंखों का विस्तार है। विभिन्न प्रजातियों के समूह में इसे आसानी से पहचाना जा सकता क्योंकि इसका शरीर मुख्यरूप से तीन रंगों का होता है जिसमें सिर व गर्दन सफ़ेद, शरीर हल्के भूरे रंग और पंख गहरे रंग के होते हैं। और सबसे ख़ास इसकी गर्दन पर सफेद पंखों का एक मफलर जैसा कॉलर होता है। इस गिद्ध की वितरण सीमा बहुत बड़ी है, यह मध्य पूर्व, उत्तरी अफ्रीका और यूरोप, भारत से पुर्तगाल और स्पेन में पाए जाते हैं परन्तु राजस्थान में ये किस ओर से आते है यह स्पष्ट नहीं हो पाया है क्योंकि अभी तक इनको रेडियो टैगिंग कर इनके प्रवास मार्ग का अध्यन्न नहीं किया गया है। पक्षी विशेषज्ञ डॉ दाऊ लाल के अनुसार राजस्थान में यूरेशियन ग्रिफ़ॉन कज़ाकिस्तान, अफगानिस्तान और बलुचिस्तान से आते हैं अर्थात इनका प्रवास मार्ग मध्य-पूर्व से दक्षिणी एशिया की ओर है। इस मार्ग को यूरेशियन ग्रिफॉन के अलावा अन्य प्रजातियां भी इस्तेमाल करती हैं।
वहीँ दूसरी ओर हिमालयन ग्रिफ़ॉन (Gyps himalayensis) भारतीय उपमहाद्वीप के हिमालय में पाया जाने वाला सबसे बड़े आकार का पक्षी है तथा यह दो सबसे बड़े प्राचीन युग गिद्धों (Old World Vultures) में से एक है। यह प्रजाति मुख्यरूप से हिमालय पर्वत श्रृंखला में पायी जाती है और इसी से इसका नाम हिमालयन ग्रिफ़ॉन रखा गया है। एक व्यस्क हिमालयन ग्रिफ़ॉन को उसके बड़े आकार, हल्के भूरे रंग के शरीर और गहरे व लगभग काले रंग के पंखों व पूंछ के कारण आसानी से यूरेशियन ग्रिफ़ॉन से अलग की किया जा सकता है परन्तु इसकी गर्दन का कॉलर मफलर जैसा नहीं बल्कि हल्के-भूरे लम्बे नोंकदार पंखों के गुच्छे जैसा होता है। यह मध्य एशिया के ऊपरी इलाकों के मूल-निवासी है, जो पश्चिम में कज़ाकिस्तान और अफगानिस्तान से लेकर पूर्व में पश्चिमी चीन, नेपाल, भूटान और मंगोलिया तक वितरित हैं तथा सर्दियों में उत्तरी भारत से दक्षिणी की ओर प्रवास करते हैं और इसी दौरान ये राजस्थान आते हैं। यदि हम हिमालय पर्वत श्रृंखला को देखे तो उसे चार भागों में बांटा जा सकता है; पाकिस्तान (POK), जम्मू कश्मीर, नेपाल और तिब्बत। राजस्थान में आने वाली हिमालयन ग्रिफ़ॉन कि आबादी पकिस्तान व् जम्मू कश्मीर से आती है, जबकि नेपाल वाली आबादी मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश और हिमांचल प्रदेश जाती है तथा तिब्बत कि आबादी चीन कि ओर प्रवास करती है।
राजस्थान में इन दोनों गिद्ध प्रजातियों को देखने का सबसे अच्छा स्थान है “जोड़बीड़” जहाँ ये एक साथ हजारों की तादाद में एकत्रित होते हैं यहाँ इन्हें आसानी से मृत जानवरों का मांस खाते और खेजड़ी व पीलू के पेड़ों पर बैठे देखा जा सकता है। जोड़बीड़ के अलावा इन्हें जैसलमेर में लाठी नामक स्थान पर भी देखा जा सकता है।
यूरेशियन ग्रिफ़ॉन
हिमालयन ग्रिफ़ॉन
आकार
95-105 सेमी
115-125 सेमी
पंख विस्तार
270-300 सेमी
270-300 सेमी
निरूपण
सिर व गर्दन सफ़ेद और गर्दन के आधार पर सफेद पंखों की एक कॉलर होती है।
शरीर हल्के भूरे रंग और पंख गहरे रंग के होते हैं।
चोंच व आँखे पीली तथा टाँगे व पंजे सलेटी ग्रे रंग के होते हैं और पूँछ काली होती है।
सिर हल्का पीला तथा गर्दन पर हल्के भूरे नोंकदार पंखों की एक कॉलर होती है।
शरीर मुख्यतः क्रीम और काला होता है। पृष्ठ भाग हल्का भूरा तो वहीँ पूंछ के पंख काले रंग के होते हैं।
छोटी पीली चोंच काफी मजबूत और सिरे से हुक जैसी होती है। टाँगे भूरे रंग के पंखों से ढकी होती हैं तथा पैर हरे-ग्रे से सफ़ेद तक होते हैं।
किशोर
किशोरों को आसानी से पहचाना जा सकता है क्योंकि व्यस्क होने तक उनकी कॉलर भूरे रंग की रहती है।
किशोर गहरे चॉकलेटी-काले रंग के होते हैं। सिर पूरी तरह से सफ़ेद और गर्दन पर गहरे चॉकलेटी पंखों की एक कॉलर होती है। अप्पर-विंग कोवेर्ट्स (Upperwing coverts) पर हल्के भूरे रंग की लकीरें (streakings) होती हैं। इनके अंडर विंग कोवेर्ट्स (Underwing coverts) पर दो सफ़ेद बैंड होते हैं और इन बैंड के कारण ही इसे सामान देखने वाले सिनेरियस वल्चर के किशोर से अलग पहचाना जा सकता है।
यूरेशियन ग्रिफ़ॉन (फोटो: श्री रजत चोरडिया)
यूरेशियन ग्रिफ़ॉन, एक बड़े आकार का गिद्ध है जिसके पंखों का विस्तार लगभग 300 सेमी तक होता है। (फोटो: श्री रजत चोरडिया)
इन दोनों गिद्ध प्रजातियों की खोज एवं वर्गिकी में इतिहास के रोचक पहलु छुपे हैं। जब हम यूरेशियन ग्रिफ़ॉन के बारे में पढ़ते हैं तो इसके वैज्ञानिक नाम के साथ दो वैज्ञानिकों कार्ल लुडविग वॉन हैब्लिट्ज़ (Carl Ludwig von Hablitz) और जोहान फ्रेडरिक गमेलिन (Johann Friedrich Gmelin) का नाम देखने को मिलता है। हैब्लिट्ज़ एक रूसी वनस्पति वैज्ञानिक थे जिन्होंने वर्ष 1783 में द्विपद नामकरण पद्धति का अनुसरण करते हुए यूरेशियन ग्रिफ़ॉन को Gyps fulvus नाम दिया। परन्तु हैब्लिट्ज़ ने केवल एक वाक्य में इसका विवरण दिया था जिससे इस गिद्ध के बारे में ज्यादा जानकारी नहीं मिलती थी। इसके पश्चात वर्ष 1788 में एक जर्मन प्रकृतिविद गमेलिन ने यूरेशियन ग्रिफ़ॉन का सबसे पहला विस्तृत वर्णन दिया, जिसे उन्होंने कार्ल लिनिअस (Carl Linnaeus) द्वारा लिखित पुस्तक Systema Naturae के 13 वें संस्करण में प्रकाशित किया गया। कुछ पुस्तकों कि समीक्षा करने पर यह भी पाया जाता है कि व्यापक विस्तार होने के कारण एक समय पर इसकी दो उप-प्रजातियां मानी जाती थी; G.f. fulvus को रुसी वनस्पति वैज्ञानिक हैब्लिट्ज़ ने वर्ष 1783 में पर्शिया से दर्ज की और G.f. fulvescens को वर्ष 1869 में ऐ ओ ह्यूम (A O Hume) ने भारत से दर्ज की। ह्यूम, भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस पार्टी के संस्थापक थे तथा इन्हें “Father of Indian Ornithology” के नाम से भी जाना जाता है। ह्यूम ने वर्ष 1869 में जहाँ एक ओर यूरेशियन ग्रिफॉन की एक उपप्रजाति दर्ज की वहीं दूसरी ओर उसी वर्ष गिद्ध की एक नयी प्रजाति “हिमालयन ग्रिफ़ॉन” को भी खोजा।
ब्रिटिश पक्षीविज्ञान संघ के अध्यक्ष “Lord Lilford” द्वारा बनाया गया तथा उनकी पुस्तक “Colored figures of The Birds of The British Islands” में प्रकाशित यूरेशियन ग्रिफॉन का चित्र
जिसके बारे में ह्यूम, अपनी पुस्तक “My Scrapbook” में बताते हैं कि वे वर्ष 1867 में धर्मशाला के पास पिकनिक मनाने गए हुए थे, तब पहली बार उन्होंने इस पक्षी को एक ऊँची चट्टान पर बैठे हुए देखा। उन्हें लगा की चट्टान ज्यादा ऊँची नहीं है तथा एक पत्थर फेक कर उसे उड़ाया जाए ताकि उसकी पहचान की जा सके। परन्तु जब नीचे से पत्थर फेका गया तो वह चट्टान कि आधी ऊंचाई तक भी नहीं पहुंचा। ह्यूम को चट्टान की ऊंचाई और उस तक पहुँचने की कठिनाई का एहसास हो चूका था। परन्तु उन्होंने हार नहीं मानी और दो पहाड़ी लोगों को बुलाया, जिनके साथ वे चट्टान के ऊपर पहुंचे। इंसानों को देख गिद्ध तो उड़ गया परन्तु वहां एक चूज़ा था, जिसे देख ह्यूम ने अगले वर्ष का इंतज़ार करना शुरू कर दिया। अगले वर्ष 1868 वहां दो घोंसले मिले और साथ ही गिद्ध भी दिखाई दिया। उस गिद्ध को देख ह्यूम को ये विचार आया की यह गिद्ध कुछ अलग है, तथा पक्षी विशेषज्ञ Blyth और Jerdon ने हमें भारतीय गिद्धों की केवल तीन प्रजातियां (Gyps fulvus, Gyps indicus, Gyps bengalensis) बतायी हैं जबकि चार होनी चाइये। इसके पश्चात ह्यूम ने इस गिद्ध को और ध्यानपूर्वक तरीके से जाँचा और एक नयी प्रजाति के रूप में स्थापित किया तथा वर्ष 1869 में द्विपद नामकरण पद्धति के अनुसार “Gyps himalayensis” नाम दिया।
प्रजनन (Breeding):
यूरेशियन ग्रिफ़ॉन और हिमालयन ग्रिफ़ॉन, दोनों प्रजातियां लगभग 4 से 5 साल की उम्र में प्रजनन के लायक हो जाती हैं और ये पूरी तरह से मोनोगैमस (monogamous) होती हैं अर्थात नर व मादा की जोड़ी आजीवन साथ रहती है। यूरेशियन ग्रिफ़ॉन, प्रजनन काल में घोंसले की चट्टानों के आसपास एक विशेष उड़ान का प्रदर्शन करते हैं जिसमें साथी जोड़ी एक-दूसरे के पीछे रहकर आसमान में गोल-गोल चक्कर लगाते हैं। दोनों साथी एक दूसरे के इतने करीब रहते हैं कि नीचे से देखने पर ऐसा लगता हैं जैसे एक ही गिद्ध उड़ रहा है। यह आमतौर पर चट्टानों के खोखले भागों में, चट्टानों के किनारे या गुफाओं में 40 से 50 के समूहों में घोंसले बनाते व प्रजनन करते हैं। परन्तु पाकिस्तान (POK), टर्की और अफगानिस्तान में पायी जाने वाली आबादी पेड़ों पर घोंसले बनाती हैं और यही कारण है कि राजस्थान में इनको पेड़ों पर बैठे देखा जा सकता है। जनवरी से फरवरी के बीच मादा एक अंडा देती है जिसे लगभग डेढ़ से दो महीनों (45 से 60 दिनों) तक इन्क्यूबेट किया जाता है। अंडा देने के समय से लेकर जब तक चूज़ा अपनी उड़ान नहीं भर लेता मादा एक पल के लिए भी अपने घोंसले को अकेला नहीं छोड़ती है परिणामस्वरूप, नर गिद्ध को मादा व चूज़े के लिए भोजन व्यवस्था करनी पड़ती है। अण्डों से बाहर आने के बाद नर व मादा मिलकर चूज़े का लगभग 113 से 159 दिनों तक ख़याल रखते हैं। यूरेशियन ग्रिफ़ॉन से बिलकुल विपरीत हिमालयन ग्रिफ़ॉन में किसी भी प्रकार का प्रणय प्रदर्शन (courtship display) या विशेष प्रकार की उड़ान नहीं देखी जाती है परन्तु इनमें प्रजनन काल में मादाओं की छाती के पास एक हल्के लाल रंग आभा देखी जाती है।
हिमालयन ग्रिफ़ॉन, आमतौर पर घोंसले वाली जगह पर ही प्रजनन करते हैं, लेकिन कभी भी जमीन पर नहीं। यह आमतौर पर साल-दर-साल एक ही घोंसले के स्थान पर लौटते हैं। यह चट्टानों के खोखले भागों में, चट्टानों के किनारे या गुफाओं में छोटे समूहों में घोंसले बनाते व प्रजनन करते हैं। अन्य गिद्धों की तुलना में, वयस्क हिमालयन ग्रिफ़ॉन कम मिलनसार होते हैं, इसीलिए ये अकेले या फिर 5 से 6 घोंसलों की कॉलोनी में रहना पसंद करते हैं। घोंसले बनाने में नर व मादा दोनों बराबर भूमिका निभाते हैं। अक्सर ऐसा भी देखा गया है कि कई बार यह पुराने घोंसले की मरम्मत करके उनको भी इस्तेमाल कर लेते हैं। आमतौर पर दिसंबर से मार्च तक घोंसले बनाए या मरम्मत किए जाते हैं। प्रत्येक मादा द्वारा जनवरी से अप्रैल के बीच केवल एक ही अंडा दिया जाता है। फरवरी से मई के बीच नर व मादा बारी-बारी से अंडे को सेते है और जुलाई से सितंबर तक चूजों का लालन-पालन किया जाता है। शुरूआती दिनों में ये अपने पेट से एक गाढ़ा, सफ़ेद तरल पदार्थ निकालते है, जो चूजों के लिए प्राथमिक खाद्य स्रोत के रूप में कार्य करता है, और फिर बाद में इनको मांस के छोटे टुकड़े खिलाना शुरू किया जाता है। कुल मिलकर, देखा जाए तो दोनों नर और मादा सामान जिम्मेदारियां निभाते हैं।
आहार व्यवहार (Feeding Behaviour):
गिद्ध केवल मृत जानवरों का मांस खाते हैं। ग्रिफ़ॉन गिद्धों में गंध लेने की शक्ति कम होती है इसीलिए अपने भोजन को खोजने के लिए ये पूरी तरह से अपनी तेज दृष्टि पर निर्भर रहते हैं। जब एक गिद्ध को कोई मारा हुआ जानवर मिल जाता है, तो दूसरे गिद्ध उसको नीचे जाते देख अन्य गिद्ध भी नीचे उतर जाते हैं। यूरेशियन ग्रिफ़ॉन की चोंच बाकि गिद्धों जितनी मजबूत नहीं होती है इसीलिए ये मृत जानवरों की कठोर चमड़ी को फाड़ने में असमर्थ होते हैं, तथा ये दूसरी गिद्ध प्रजातियों द्वारा शव को खोलने या फिर सूरज कि गर्मी द्वारा चमड़ी के फटने का इंतज़ार करते हैं। यह बड़े समूहों में अन्य गिद्ध प्रजातियों के साथ मिलकर खाना खा लेते हैं। वहीँ दूसरी और हिमालयन ग्रिफ़ॉन अपने बड़े आकार के कारण अन्य गिद्धों के साथ भोजन करते समय ये अपना वर्चस्व स्थापित रखते हैं तथा अन्य गिद्ध भी इनसे दूर रहते हैं। इन गिद्धों के मुर्दाखोर होने के कारण ही तो आज इनकी आबादी विभिन्न प्रकार के खतरों का सामना कर रही है।
ग्रिफ़ॉन बड़े समूहों में अन्य गिद्ध प्रजातियों के साथ मिलकर खाना कहते हैं। (फोटो: श्री रजत चोरडिया)
खतरे (Threats):
गिद्ध मृत जानवरों को खाकर हमारे पर्यावरण को साफ़-सुथरा रखते हैं साथ ही पारिस्थितिक तंत्र में भोज्य श्रृंखला को भी बनाये रखते हैं। एक समय था जब भारत में गिद्धों कि बड़ी आबादी पायी जाती थी परन्तु पशुओं को दिये जाने वाली दर्द निवारक दवाई डाइक्लोफिनॅक (Diclofenac) है के कारण भारत से गिद्धों कि आबादी का एक बड़ा हिस्सा (97%- 99%) खतम हो गया। परिणामस्वरूप आज हिमालयन ग्रिफ़ॉन IUCN की रेड डाटा बुक के अनुसार खतरे में (Near Threatened) है। वहीं दूसरी ओर क्योंकि यूरेशियन ग्रिफॉन भारत में प्रवासी प्रजाति है उनकी आबादी पर ज्यादा बुरा असर नहीं पड़ा। परन्तु स्पेन में डाइक्लोफिनॅक जैसी ही एक दवाई फ्लूनिक्सिन (Flunixin) के कारण यूरेशियन ग्रिफॉन वहां खत्म होने वाली पहली गिद्ध प्रजाति थी।
डाइक्लोफिनॅक के बंद होने के बाद अब ketoprofen और aceclofenac नामक दवाइयां गिद्धों के लिए हानिकारक हैं। (फोटो: श्री रजत चोरडिया)
भारत सरकार द्वारा डाइक्लोफिनॅक की बिक्री व् इस्तेमाल पूरी तरह से बंद करवा दिया गया है परन्तु इसके अलावा भी गिद्धों पर कई और खतरे भी हैं जिनमें से सबसे मुख्य है भोजन की उपलब्धता।
शहरी इलाकों में कचरा निस्तारण विधियों (Solid waste management) के चलते गिद्धों को प्रयाप्त भोजन नहीं मिल पाता है जिसके कारण वे एक स्थान से दूसरे स्थान भोजन के लिए घूमते हैं तथा उनकी आबादी पर नकारात्मक प्रभाव भी पड़ते हैं। ऐसा ही कुछ हुआ है जोधपुर स्थित “केरु डंप” के पास, जहाँ प्रतिवर्ष सर्दियों में हिमालयन ग्रिफ़ॉन और यूरेशियन ग्रिफॉन एक बड़ी संख्या में आया करते थे। परन्तु वर्ष 2008 में, नगरपालिका अपशिष्ट प्रबंधन विभाग द्वारा केरू डंपिंग क्षेत्र, में मृत पशुओं के शवों का प्रक्रमण संयंत्र शुरू किया। इसके चलते अब शवों को सीधे मशीन में डालकर एक पाउडर के रूप में परिवर्तित कर दिया जाता है, जो कृषि और मछलियों के भोजन के रूप में उपयोग में लिया जाता है। परिणामस्वरूप वहां आने वाले प्रवासी गिद्ध अब बीकानेर में जोड़बीड़ की ओर आने लगे हैं।
कचरा निस्तारण विधियों के अलावा दूसरी समस्या है “कचरे के ढेरों में आग लगाई जाना” और इसका उदाहरण है उदयपुर का डंपिंग क्षेत्र, जहाँ बड़ी तादाद में घरेलु व बूचड़खानों का कचरा डाला जाता था। पर्याप्त मात्रा में भोजन मिलने के कारण वहां गिद्धों की विभिन्न प्रजातियां पाई जाती थी। परन्तु फिर वहां नियमितरूप से कचरा जलाने की प्रकिया शुरू की गयी, जिसके चलते वहां हर समय प्लास्टिक का हानिकारक धुँआ रहने लगा और धीरे-धीरे वहां से गिद्ध पूरी तरह से चले गए है। आज वहां हालत कुछ ऐसे है की हर समय कहीं न कहीं धुंआ उठता ही रहता है तथा गिद्ध तो क्या वहां अन्य पक्षी भी मुश्किल से दिखाई देते हैं।
इन डंपिंग क्षेत्रों के आसपास आवारा कुत्तों की बढ़ती आबादी भी गिद्धों के लिए एक बड़ा खतरा बन रही है। डंपिंग क्षेत्रों के आसपास कुत्ते, गिद्धों के साथ न सिर्फ भोजन के लिए प्रतिस्पर्धा करते हैं, बल्कि कई बार गिद्धों के ऊपर हमला भी कर देते हैं। भोजन की कमी और आवारा कुत्तों की आबादी में वृद्धि ने गिद्धों को पलायन के लिए मजबूर किया है। डंपिंग क्षेत्र के आसपास बिजली की तारों से करंट लग जाने के कारण भी गिद्धों की कई बार मौत हो जाती है।
इसके अलावा अभी भी कुछ दवाइयां ऐसी हैं जो गिद्धों के हानिकारक हैं। डॉ बोहरा के अनुसार डाइक्लोफिनॅक के बंद होने के बाद अब बाज़ार में ketoprofen और aceclofenac नामक दवाइयां बिकती हैं तथा इन दवाइयों का भी गिद्धों के ऊपर जानलेवा प्रभाव पड़ता है।
इस समय की आवश्यकता यह है की गिद्धों के संरक्षण के लिए कड़े कदम उठाये जाए जिसमे विशेष रूप से उनके लिए भोजन की उपलब्धता की ओर ध्यान दिया जाना चाइये।
सन्दर्भ:
Saran, R. 2017. Population monitoring and annual population fluctuation of migratory and resident species of vultures in and around Jodhpur, Rajasthan. Journal of Asia-Pacific Biodiversity 10 (2017) 342e348
Khatri, P.C. 2012. The increase in the population of Eurasian Griffon vulture (gyps fulvus) at Jorbeer, Bikaner: carcass dump as key habitats for winter migration in the griffon vultures. International Journal of Geology, Earth and Environmental Sciences. Vol. 2 (2)
Chhangani, A.K. and Mohnot, S.M. 2008. Demography of migratory vultures in and around Jodhpur, India. Vulture News 58
Saran, R.P. and Purohit, A. 2012. Eco-transformation and electrocution. A major concern for the decline in vulture population in and around Jodhpur. Volume 3(2): 111-118
Grimmett, R., Inskipp, C. and Inskipp, T. 2014. Birds of Indian Subcontinent.
Hume, A.O. 1889. The Nests and Eggs of Indian Birds. Vol. 1. 2nd London.
जानिये कैसे गूगल से पौधों की सरल पहचान बने खतरा ए जान?
क्या आपने कभी सोचा है कि हमारे चारों ओर कितने प्रकार के पेड़-पौधे और जीव-जंतु पाए जाते हैं? सोचिये अगर इन सभी के भिन्न-भिन्न नाम ही न होते तो? इन्हें अलग-अलग समूहों में बांटा ही न गया होता तो?… यह स्थिति सोच कर ही कितनी कठिनाई महसूस होती है? इस कठिनाई को हल करने के लिए ही विभिन्न वैज्ञानिकों ने इस पृथ्वी पर पाए जाने वाले सभी पौधों व् प्राणियों को विभिन्न समूहों में बांटा व उनका नामकरण किया है। जैविक जगत में अज्ञात जीवों को समझने, पहचानने तथा उनको समानता व असमानता के आधार पर विभिन्न समूहों में बांटने को “वर्गिकी (Taxonomy) या वर्गीकरण विज्ञान” कहते हैं। वर्गिकी, जीव जगत की एक ऐसी महत्वपूर्ण शाखा हैं जिसमें यदि कोई वैज्ञानिक किसी विशेष प्रजाति पर शोध के दौरान यदि उसकी पहचान ही गलत कर दे, तो उसका पूरा शोध कार्य गलत व व्यर्थ हो सकता है। यदि इस प्रकार की गलती दवा विज्ञान में हो जाए तो पूरे समाज और विज्ञान के लिए घातक साबित हो सकती है।
हाल ही में हमें “The End of Botany” नामक एक आलेख पढ़ने का मौका मिला, जिसे क्रिसी एवं साथियों (2020) ने लिखा है। इस आलेख के लेखकों का कहना है की “आजकल वैज्ञानिक आम पौधों को पहचानने में असमर्थ होते जा रहे हैं और लगातार वनस्पति विज्ञान के छात्रों, शिक्षकों, पाठ्यक्रमों, विश्वविद्यालयों में प्रकृति विज्ञान के विभागों की और हर्बेरियमों की पौधे पहचान क्षमता में गिरावट आ रही है। ये गिरावट सिर्फ और सिर्फ वनस्पति विज्ञान की क्षमताओं की गिरावट को उजागर करती हैं। हम अच्छी तरह से जानते हैं की पौधे हमारे जीवन का आधार हैं, एवं उनकी सही पहचान बहुत जरूरी है फिर भी हम इस संकट तक कैसे पहुंचे? इसके क्या कारण हैं? हम इस हालात को कैसे सुधार सकते हैं?” Crisci et al. (2020) ने जो भी लिखा वो बिलकुल सही और चिंताजनक है। दिन प्रतिदिन वनस्पतियों की सही पहचान करना एक कठिन कार्य बनता जा रहा है और राजस्थान भी इस स्थिति से अछूता नहीं है।
भारत की आज़ादी से पहले (वर्ष 1947 से पहले) और 1970 तक पौधों को पहचानने के लिए हम केवल Hooker et al. (1872-1897) एवं Brandis (1874) द्वारा लिखित पुस्तकों का ही इस्तेमाल करते थे क्योंकि उस समय राजस्थान की वनस्पतियों के लिए कोई एक विशेष “सटीक फ़्लोरा” उपलब्ध नहीं था। यदि कोई जानकारी उपलब्ध भी थी तो विभिन्न शोधपत्रों के रूप बिखरी हुई थी। परन्तु आज़ादी के बाद रामदेव (1969), भंडारी (1978) और शर्मा व त्यागी (1979) राजस्थान के अग्रणी वर्गीकरण वैज्ञानिक (Taxonomist) के रूप में उभरे तथा उन्होंने राज्य के क्षेत्रीय “फ़्लोरा” बनाने की पहल की। उन्होंने राजस्थान राज्य की वनस्पति सम्पदा जानने हेतु हर्बेरियम भी विकसित किये। इन शुरूआती प्रयासों के बाद कई फ़्लोरा अस्तित्व में आये जिनमें से कुछ महत्वपूर्ण फ़्लोरा निम्नलिखित हैं:
Sr. no.
Period
Name of flora published (year of publication )
Author(s)
Coverage
1
1947-1980
Contribution to the flora of Udaipur (1969)
K.D. Ramdev
South- East Rajasthan
Flora of the Indian Desert (1978)
M.M. Bhandari
Jaisalmer, Jodhpur and Bikaner districts
Flora of North- East Rajasthan (1979)
S. Sharma &B. Tiagi
North – East Rajasthan
2
1981-2000
Flora of Banswara (1983)
V. Singh
Banswara district
Flora of Tonk (1983)
B.V. Shetty & R. P. Pandey
Tonk district
Flora of Rajasthan, Vol. I,II,III (1987,1991,1993)
B.V. Shetty & V. Singh
Whole Rajasthan
Flora of Rajasthan(Series – Inferae ) (1989)
K.K. Sharma & S. Sharma
Whole Rajasthan
Illustrated flora of Keoladeo National Park , Bharatpur , Rajasthan (1996)
Prasad et al.
KNP Bharatpur
3
2001-2020
The flora of Rajasthan (2002)
N. Sharma
Hadoti zone
Flora of Rajasthan (South and South- East Rajasthan ) (2007)
Y. D. Tiagi & N.C. Arey
South and South- East Rajasthan
Orchids of Desert and Semi – arid Biogeographic zones of India (2011)
S.K. Sharma
Orchids of whole Rajasthan (including parts of adjacent states )
Flora of South – Central Rajasthan (2011)
B. L. Yadav & K.L. Meena
South- Central Rajasthan
ऊपर दी गयी सारणी यह दर्शाती है कि 21वी शताब्दी में हमने राजस्थान से संबंधित एन्जियोस्पर्मिक फ्लोरा की बहुत कम पुस्तकें प्रकाशित की हैं। हमारे वरिष्ठ वनस्पति वर्गीकरण वैज्ञानिक जो विभिन्न विश्वविद्यालयों के वनस्पति विज्ञान विभागों से सम्बंधित थे जैसे श्री के. डी. रामदेव, डॉ. शिवा शर्मा, प्रोफेसर बी. त्यागी, प्रोफेसर एम. एम. भंडारी और प्रोफेसर वाई. डी. त्यागी जो हमारे बीच नहीं रहे। इन विद्वानों के समय में, फील्ड स्टडीज के लिए नियमित बाहर जाना, हर्बेरियम बनाना, अन्य राज्यों के दौरे करना, सूक्ष्मदर्शी निरिक्षण आदि अध्यन्न गतिविधियों का नियमित हिस्सा थे। उस समय पौधों की पहचान करने के लिए पुस्तकालय या बाजार में शायद ही कोई रंगीन चित्रों वाली फील्ड गाइड उपलब्ध थी, और तो और इंटरनेट व् गूगल जैसी सुविधाएं भी उपलब्ध नहीं थीं। पौधों की पहचान करने का एकमात्र तरीका था बिना चित्रों वाले फ़्लोरा। ऐसे में यदि किसी छात्र को कोई नया पौधा मिलता था तो शिक्षकों द्वारा उसे निर्देशित किया जाता था, कि वह स्वयं फ़्लोरा का निरिक्षण कर, पौधे को पहचानने कि कोशिश करे। क्योंकि विकल्प कम थे अतः छात्र अलग-अलग फ़्लोरा का प्रयोग कर पौधे को पहचानने की कोशिश करते थे। इस प्रकार का वातावरण एक छात्र को “एक्टिव टैक्सोनोमिस्ट” बनाने के लिए बहुत ही सहायक हुआ करता था। जब छात्र फ़्लोरा कि मदद से किसी पौधे की स्वयं पहचान करते थे, तो उनमें पौधों के वर्गीकरण के लिए एक विशेष रूचि विकसित होती थी।
इस सभी के प्रभाव का नतीजा जानने हेतु यहाँ एक उदाहरण देना उचित होगा और इस उदहारण के रूप में श्री रूप सिंह को याद करना उचित होगा। “श्री रूप सिंह”, राजस्थान विश्वविद्यालय के वनस्पति विज्ञान विभाग (Botany Department) में हर्बेरियम को सँभालते थे। श्री रूप सिंह एक प्रशिक्षित वर्गीकरण वैज्ञानिक नहीं थे परन्तु फिर भी उन्होंने डॉ. शिव शर्मा को एक हर्बेरियम बनाने में अदभुत योगदान दिया था। डॉ. शिव शर्मा द्वारा लाये गए सभी पौधों का हर्बेरियम बनाने कि पूरी प्रक्रिया जैसे; नमूनों को सुखाना, हर्बेरियम शीट पर चिपकाना, लेबलिंग, वर्ग और प्रजाति फ़ोल्डर में रखना, तथा उनको अलमारी में क्रमानुसार रखने का कार्य श्री रूप सिंह किया करते थे। वे बहुत बारीकी से पौधों का अवलोकन कर उनकी पहचान करते थे, तथा उन्होंने डॉ शिव शर्मा से एन्जियोस्पर्मिक वर्गीकरण विज्ञान (Angiospermic Taxonomy) के विभिन्न पहलुओं को बड़े मनोयोग से सीखा। जल्द ही उन्होंने वनस्पति वर्गीकरण कि एक अद्भुत समझ विकसित कर ली तथा उनकी पहचान करने की क्षमता बहुत विश्वसनीय और सटीक थी। श्री रूप सिंह के उदहारण को देखकर, एक सवाल उठ सकता है कि आखिर वह पौधों की पहचान में इतने अच्छे कैसे थे? इसका उत्तर यह है कि वह पौधों का स्वयं निरीक्षण करते थे और उन्होंने कभी भी “बनी बनाई पहचान प्रक्रिया” पर विश्वास नहीं किया। यदि एक फ़्लोरा उनको संतोषजनक परिणाम नहीं देता था, तो वह अन्य फ़्लोरा का उपयोग शुरू कर देते थे, और तब तक वे ऐसा करते जब तक कि उनको एक सही पहचान नहीं मिल जाती थी। हम इस आदत को “सक्रिय पहचान प्रक्रिया” कह सकते हैं। इस प्रकार, एक सक्रिय वनस्पति वर्गीकरण वैज्ञानिक बनने के लिए, छात्रों को पौधों कि सक्रिय पहचान की आदत विकसित करनी चाहिए।
परन्तु आजकल स्थिति बिलकुल विपरीत है। लोगों के पास बाहर जाने का समय नहीं होता है और यदि कोई चले भी जाए तो हमेशा जल्दी में ही रहते हैं। यहां तक कि कई तो स्वयं एक अज्ञात पौधे की पहचान करने के लिए चंद मिनट भी खर्च नहीं करना चाहते हैं। उन्हें पहचान के लिए एक सीधी, सरल बानी बनाई सुविधा चाहिए। इंटरनेट, गूगल, मोबाइल में विभिन्न व्हाट्सऐप ग्रुप्स आदि ऐसे तरीके हैं जिसमें लोग अपने अज्ञात पौधों की तस्वीरें भेजते हैं और कुछ सेकंड के भीतर पहचान उनके हाथों में आ जाती है। हालांकि, इस तरह के तरीकों का उपयोग करके, पहचान जल्दी संभव है लेकिन ऐसे लोग कभी भी “श्री रूप सिंह” नहीं बन सकते हैं। दिन प्रतिदिन लोग पौधों की सुविधाजनक पहचान के आदी होते जा रहे हैं। आज “passive identification” और “passive taxonomy” का यह चलन हर जगह वर्गीकरण विज्ञान के पुराने तरीकों की जगह ले रहा है। अब पौधे की पहचान आसान हो रही है, लेकिन राज्य के विभिन्न विश्वविद्यालयों के वनस्पति विज्ञान विभागों में नए वनस्पति वर्गीकरण वैज्ञानिक विकसित नहीं हो रहे हैं। वन विभागों और आयुर्वेद विभागों में भी यही स्थिति है। एक समय था जब डॉ. सी. एम. माथुर और श्री. वी. एस. सक्सेना जैसे वन अधिकारी राजस्थान के वन विभाग में थे, जो वन वनस्पति वर्गीकरण विज्ञान के विद्वान थे। इसी प्रकार से, डॉ. महेश शर्मा, डॉ. आर. सी. भूतिया और कुछ अन्य लोग आयुर्वेद विभाग में पौधों की पहचान के मशाल वाहक थे, लेकिन उनकी सेवानिवृत्ति के बाद, अब बस एक खालीपन है।
हमें अब देर हो रही है। हमारे राज्य में नई पीढ़ी का शायद ही कोई विश्वसनीय और प्रमुख एन्जियोस्पर्मिक टैक्सोनोमिस्ट उपलब्ध है। समान स्थिति प्राणी वर्गीकरण विज्ञान के क्षेत्र में भी है। राजस्थान में कई विश्वविद्यालय और कॉलेज हैं, लेकिन पारंपरिक प्लांट टैक्सोनॉमी वहां ज्यादा पसंद नहीं कि जाती है। “सक्रिय वर्गीकरण विज्ञान” को पुनर्जीवित करने का अभी भी समय है नहीं तो बाद में बहुत देर हो जाएगी। यह हर विश्वविद्यालय के वनस्पति विज्ञान विभागों एवं वन और आयुर्वेद विभागों का एक नैतिक कर्तव्य है।
सन्दर्भ:
Cover Photo- PC: Dr. Dharmendra Khandal
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कैरेकल यानि सियागोश, दुनिया में सबसे व्यापकरूप से पाई जाने वाली एक छोटे आकार की बिल्ली प्रजाति है। जो विश्व के 60 देशों में मिलती है। हालाँकि, एशियाई देशों में इसके संरक्षण की स्थिति और पारिस्थितिकी के बारी में जानकारी बहुत ही कम और पुरानी है। परन्तु फिर भी अगर देखा जाए तो भारत, इज़राइल और ईरान से लगातार इसकी उपस्थिति की सूचनाएं मिलती रहती हैं। भारत में तीन शताब्दियों से भी अधिक समय से कैरेकल को दुर्लभ माना जाता रहा है। वर्ष 1671 में, ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी के अधिकारी जेराल्ड औंगियर (Gerald Aungier), जो बॉम्बे के द्वितीय गवर्नर भी थे, को मुगल जनरल दलेर खान द्वारा शिकारी कुत्तों (English greyhounds) की एक जोड़ी के बदले में एक कैरेकल भेंट किया गया था। उस समय, भारत में कैरेकल की दुर्लभता के बारे में भी औंगियर को अवगत करवाया गया था। तब से लेकर आज तक प्रकृतिवादियों ने भारत में कैरेकल की दुर्लभता पर टिप्पणियां करना जारी रखा हुआ है, और कुछ ने तो यह भी कहा है कि यह विलुप्त होने के कगार पर है। जबकि, हम ध्यान से देखे तो आज तक भारत में कैरकल की स्थिति के बारे में बहुत कम जानकारी ही रही है।
रणथम्भौर स्थित वन्यजीव संरक्षण संस्था टाइगर वॉच के शोधार्थी डॉ धर्मेंद्र खांडल, श्री ईशान धर एवं हाल ही में सेवानिवृत्त हुए राजस्थान के हेड ऑफ़ फारेस्ट फोर्सेज डॉ जी.वी. रेड्डी, ने भारत में कैरेकल की ऐतिहासिक और वर्तमान वितरण सीमा पर एक अध्ययन किया है, जो की “Journal of Threatened Taxa” में प्रकाशित हुआ है, इसमें यह देखा गया है, की भारत देश में कैरकल की क्या स्थिति है? यह दो साल के लंबे अध्ययन से लिखा गया शोध पत्र है, जिसमें कई पुस्तकों और जर्नल की समीक्षा के साथ-साथ विषय के विशेषज्ञ और विभिन्न लोगों के साथ वार्ता की गयी है, जो इस जीव की स्थिति पर प्रकाश डालती है।
“Journal of Threatened Taxa” के दिसम्बर माह संस्करण का कवर फोटो
कैरेकल के दुर्लभ होने के बावजूद, भारत में इसका मनुष्यों के साथ एक बहुत ही समृद्ध इतिहास रहा है। हमेशा से ही कैरेकल, कलाबाजी करते हुए उड़ते हुए पक्षियों का शिकार करने की अदभुत क्षमता के कारण जाना जाता रहा है। इसका “कैरेकल” नाम एक तुर्की भाषा के शब्द “कराकुलक” से निकला है, जिसका अर्थ, काले कान (Black ears) वाला प्राणी होता है, जो सीधे-सीधे इसके लंबे काले कानों के बारे में बताता है। भारत में, कैरेकल को इसके फ़ारसी भाषा के नाम “सियागोश” से जाना जाता है, और यह भी सीधे इसके लम्बे काले कानों की ओर इशारा करता है।
संस्कृत ग्रंथ “हितोपदेश” की एक कहानी, एक छोटी जंगली बिल्ली जिसका नाम “दीर्घ-करण या लम्बे कान वाली बिल्ली” की ओर ध्यान केंद्रित करती है तथा यह बिल्ली अक्सर पक्षियों का शिकार करती है, लगता है मानों यह कैरकल के लिए सबसे उपयुक्त नाम है। यद्धपि वर्ष 1953 में, जीवों के वैज्ञानिक नाम जो लिनियस (Linnaeus) की द्विपद नामकरण पद्धति पर आधारित है, उनको जब भारत में संस्कृत रूपांतरित किया गया तो कैरकल के लिए एक संस्कृत नाम “शश-कर्ण” या “खरगोश जैसे कान” प्रस्तावित किया गया था।
कैरेकल एक छोटी बिल्ली प्रजाति है जिसके काले लम्बे कान उसकी मुख्य पहचान है (फोटो: डॉ. धर्मेंद्र खांडल)
इतिहास पढ़ने पर पता लगता है की दिल्ली सल्तनतम काल के दौरान सियागोश को पहली बार भारत में एक शिकार में प्रयोग होने वाले प्राणी के रूप में इस्तेमाल किया गया था। सुल्तान फिरोज शाह तुगलक के पास सियागोश का एक विशाल संग्रह था तथा 14 वीं शताब्दी में, सुल्तान ने संग्रह के रखरखाव के लिए एक “सियाह-गोशदार खाना” की स्थापना की। तीसरे मुगल बादशाह अकबर ने भी शिकार करने के लिए सियागोश का एक बड़े पैमाने पर इस्तेमाल किया करते थे तथा अकबर के शासनकाल के दौरान, सियागोश को संस्कृत, अरबी और तुर्क ग्रंथों के साहित्य जैसे कि अनवर-ए-सुहाइली, तूतिनामा, साथ ही फारसी क्लासिक्स जैसे खम्सा-ए-निज़ामी में चित्रित किया जाने लगा। ऐतिहासिक रूप से सियागोश का एक अच्छे शिकारी के रूप में व्यापक उपयोग और संस्कृत नाम की कमी के कारण कुछ प्रश्न सामने खड़े होते हैं की क्या यह प्रजाति भारत की स्वदेशी है भी? या नहीं? हालांकि, 1982 में, ZSI के एक वैज्ञानिक, मृण्मय घोष ने एक कपाल के हिस्से की जांच की, जो भारत में एक सियागोश का सबसे पुराना जीवाश्म था। यह टुकड़ा 1930 में हड़प्पा से एकत्रित किया गया था और गलती से घरेलू बिल्ली के रूप में पहचाना गया था। घोष ने खोपड़ी की अच्छी तरह समीक्षा की और पाया कि यह वास्तव में एक सीतेगोश का है। यह जीवाश्म भारत के सबसे पुराने सियागोश की खोज थी, जो 3000-2000 ईसा पूर्व की थी और यह जीवाश्म सिद्ध करता है की सियागोश सिंधु घाटी सभ्यता के दौरान भारतीय उपमहाद्वीप में मौजूद था।
भारत में बढ़ती जनसंख्या के कारण हुए लैंडस्केप में परिवर्तनों के कारण सियागोश की स्थिति शायद अत्यंत प्रभावित हुई है। इसी प्रयास में, इसअध्ययन के लेखकों ने इतिहास की शुरुआत से अप्रैल 2020 तक भारत में सियागोश की उपस्थिति की सभी सूचनाएं एकत्रित करने का प्रयास किया, तथा इन सभी सूचनाओं को नक़्शे पर दर्शाया और साथ ही ऐतिहासिक वितरण सीमा व् वर्तमान सीमा में बदलावों का मूल्यांकन भी किया गया। इस शोध को शिकार में प्रयोग होने वाले पालतू सियागोश और जंगली सियागोश ने अधिक चुनौतीपूर्ण बना दिया।
इस अध्ययन के लेखकों ने इतिहास की शुरुआत से लेकर 2020 के उपलब्ध साहित्य की व्यापक समीक्षा की। इसमें प्रकृतिवादियों, जीव विशेषज्ञों, प्राकृतिक इतिहासकारों, इतिहासकारों, वन अधिकारियों, राजपत्रकारों, तत्कालीन राजपरिवारो और सेना के अधिकारियों के लेखन शामिल थे। बॉम्बे नेचुरल हिस्ट्री सोसाइटी (BNHS), जूलॉजिकल सर्वे ऑफ इंडिया (ZSI), लंदन नेचुरल हिस्ट्री म्यूजियम, भारत में निजी ट्रॉफी संग्रह और अन्य संग्रहालयों में जमा किए गए सियागोश के नमूनों के रिकॉर्ड भी एकत्रित किये गए, साथ ही वन अधिकारी और जीव-वैज्ञानिक जिन्होंने साक्षात सियागोश का अवलोकन किया है और जिन लोगों ने तस्वीरें ली हैं सभी से वार्ता कर जानकारी हासिल की गयी। लेखकों ने अपनी विश्वसनीयता के अनुसार निम्नलिखित तरीकों से सूचनाओं को एकत्रित और वर्गीकृत किया: A) वर्तमान में उपलब्ध तस्वीरों, शरीर के अंगों सहित नमूनों के ठोस सबूतों के आधार पर पुष्टि की गई हैं; B) जीवित या मृत सियागोश के प्रत्यक्ष दर्शन पर आधारित स्पष्ट सूचनाएं, संग्रहालयों को प्रस्तुत किए गए नमूने परन्तु जो अब उपलब्ध नहीं या गायब हैं, फोटोग्राफिक रिपोर्ट जो अब उपलब्ध नहीं, नष्ट या गायब हैं; C) पक्की सूचनाएं जो सियागोश की विशिष्ट जानकारी के माध्यम से उपस्थिति की सुचना देती हैं, जिसमें इसका विवरण और अलग-अलग मौखिक नामों का प्रावधान भी शामिल है; D) बिना किसी विवरण, फोटो या गलत विवरण वाली अपुष्ट या संदिग्ध सूचनाएं।
इस अध्ययन के दौरान 33 रिपोर्टों को ‘अस्पष्ट’ माना गया क्योंकि वे संदिग्ध या गलत थीं। अक्सर लोग जंगल कैट (Jungle cat) को सियागोश समझ लेते हैं और यह हमेशा एक चुनौती रही है। इस प्रकार की गलत खबरें आज भी जारी हैं, और यह गलत सूचनाएं प्रकाशित भी होती रही है। इस अध्ययन के लेखकों ने सख्ती से पालतू सियागोश (coursing Caracals) की सुचना को अध्ययन में शामिल नहीं किया, जिनके मूल स्थान अज्ञात थे। इसके अलावा, 2015 के बाद से रणथंभौर टाइगर रिजर्व और उसके आसपास के क्षेत्र में टाइगर वॉच के Village Wildlife Volunteers द्वारा लगाए गए कैमरा ट्रैप की तस्वीरें भी शामिल की गयी। यह कैमरा ट्रैपिंग पूर्णरूप से प्रशिक्षित ग्रामीण चरवाहों द्वारा की जाती है जो टाइगर रिज़र्व से बाहर निकलने वाले बाघों की निगरानी करते हैं। तथा इस खोज से निकली सभी रिपोर्टे ऐतिहासिक और वर्तमान सीमा को निर्धारित करने के लिए नक्शे पर दर्शाई गई।
भारत में सियागोश कि केवल दो संभावित आबादियां हैं एक राजस्थान स्थित रणथंभौर टाइगर रिज़र्व में और दूसरी गुजरात के कच्छ जिले में। (फोटो: डॉ. धर्मेंद्र खांडल)
लेखकों ने वर्ष 1616 से शुरू होकर अप्रैल 2020 तक कुल 134 रिपोर्टों को एकत्रित किया। सियागोश ऐतिहासिक रूप से 13 भारतीय राज्यों में और 26 में से 9 बायोटिक प्रांतों में मौजूद पाया गया। वर्ष 2001 से, सियागोश की उपस्थिति केवल तीन राज्यों राजस्थान, गुजरात और मध्य प्रदेश तथा चार बायोटिक प्रांतों में बताई गई है, और उसमे भी केवल दो संभावित आबादियां हैं एक राजस्थान स्थित रणथंभौर टाइगर रिज़र्व में और दूसरी गुजरात के कच्छ जिले में। 1947 से पहले, सियागोश 793,927 वर्ग किमी के क्षेत्र से रिपोर्ट किया गया था। वर्ष 1948 से 2000 के बीच, सियागोश की भारत में उपस्थिति का विस्तार 47.99% घट गया। 2001 से 2020 तक, उपस्थिति का विस्तार 95.95% कम हो गया तथा वर्तमान में इसका विस्तार 16,709 वर्ग किमी तक सीमित है। 1948 से 2000 में सियागोश की सूचनाएं 5% से कम हो गयी तथा इनका विस्तार 1947 से पहले की अवधि का सिर्फ 2.17% ही रह गया था।
राजस्थान में वर्ष 2001 से अब तक सियागोश की कुल 24 सूचनाएं आ चुकी हैं। इनमें से 17 सूचनाओं की फोटोग्राफिक प्रमाण द्वारा पुष्टी हुई हैं। जिनमें से 15 रणथंभौर से हैं, 2004 में सरिस्का से ली गई एक तस्वीर और 2017 में भरतपुर में केवलादेव घाना राष्ट्रीय उद्यान से एक कैमरा ट्रैप तस्वीर शामिल है। हालांकि 2015 से अप्रैल 2020 तक, विलेज वाइल्ड वॉलंटियर्स ने सियागोश की 176 कैमरा ट्रैप तस्वीरें प्राप्त की। जो की रणथंभौर टाइगर रिजर्व में और उसके आसपास 6 स्थानों से थी। उनके कैमरा ट्रैपिंग प्रयासों ने राजस्थान के धौलपुर जिले में सियागोश की उपस्थिति को निर्णायक रूप से स्थापित व् प्रमाणित किया है। यह भारत में और संभवतः सियागोश की पूरी एशियाई सीमा में सियागोश की तस्वीरों का सबसे बड़ा संग्रह है। रणथम्भौर के, भारत में दो संभावित आबादी में से एक होने के साथ, विलेज वाइल्ड वॉलंटियर्स की टीम भारत में सियागोश के संबंध में किसी भी आगामी संरक्षण योजना के लिए अतिआवश्यक होंगे। 2001 के बाद से, कच्छ से केवल 9 फोटोग्राफिक रिकॉर्ड हैं और मध्य प्रदेश से कोई फोटोग्राफिक रिकॉर्ड नहीं है।
विलेज वाइल्ड वॉलंटियर्स द्वारा ली गयी सियागोश कि कैमरा ट्रैप फोटो (फोटो: टाइगर वॉच)
यह भी संभव है कि भारत के अन्य हिस्सों में सियागोश अभी भी मौजूद हो, एवं महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश और भारत के पूर्वी राज्यों में इसे कम आंका गया हो और उचित रूप से अध्ययन नहीं किया गया हो। इस अध्ययन द्वारा स्थापित सीमा में कमी को और अधिक सत्यापित करने और और अधिक सर्वेक्षण की आवश्यकता होगी। आज 21 वीं सदी में, मुट्ठी भर अध्ययनों के अपवाद से भारत में सियागोश की पारिस्थितिकी के ज्ञान में लगभग कोई योगदान नहीं रहा है। सियागोश की संख्या, प्रजनन, मृत्यु दर, होम रेंज के आकार और शिकार की गतिशीलता के सर्वेक्षण समय की आवश्यकता है। हमे इस बारे में पढ़ने व् समझने की तत्काल आवश्यकता है की कैसे बंजर भूमि के रूप में भूमि का वर्गीकरण किया जाता है, तथा यह सियागोश को किस प्रकार से प्रभावित करता है क्योंकि यह छोटी झाड़ियों वाले खुले प्रदेशों में आवास करते हैं। वन्यजीव कॉरिडोर को निर्धारित करने और स्थापित करने के लिए सियागोश की गतिविधियों के स्वरूप पर ध्यान केंद्रित करने वाले दीर्घकालिक अध्ययन भी समान रूप से आवश्यक हैं क्यूंकि ये कॉरिडोर खंडित आबादी इकाइयों को आपस में जोड़ने के लिए उपयुक्त रहेंगे। अध्ययन के लेखक यह आशा करते है की संरक्षणवादी भारत में सियागोश को विलुप्त होने से बचाने के लिए इस लड़ाई में शामिल होने के लिए प्रेरित होंगे।
लेखक:
Mr. Ishan Dhar (L) is a researcher of political science in a think tank. He has been associated with Tiger Watch’s conservation interventions in his capacity as a member of the board of directors.
Dr. Dharmendra Khandal (R) has worked as a conservation biologist with Tiger Watch – a non-profit organisation based in Ranthambhore, for the last 16 years. He spearheads all anti-poaching, community-based conservation and exploration interventions for the organisation.