राजाराम, एक ऐसे वन रक्षक जिन्हे वन में पाए जाने वाली जैव-विविधता में घनिष्ट रुचि है जिसके चलते ये विभिन्न पक्षियों पर अध्यन कर चुके हैं तथा स्कूली छात्रों को वन्यजीवों के महत्त्व और संरक्षण के लिए जागरूक व प्रेरित भी करते हैं…
एक मध्यमवर्गीय किसान परिवार में जन्मे राजाराम मीणा वनरक्षक (फोरेस्ट गार्ड) में भर्ती होकर प्रकृति एवं वन्यजीवों के प्रति आज सजगतापूर्वक कार्य कर रहे हैं। कई प्रकार की वन सम्पदा की जानकारी जुटाना, पक्षियों के अध्ययन में गहन अभिरुचि लेना व वन संरक्षण में निष्ठा पूर्वक गतिशील रहना इनकी कार्यशैली को दर्शाता है। अपने कार्य के प्रति अच्छी सोच,अच्छे विचार व एक जुनून उनके व्यक्तित्व से झलकता है। साधारणतया किसान परिवार से होने के नाते उनको सरकारी सेवा में आने से पहले वन्य जीव व वन संपदा के बारे में कोई जानकारी नहीं थी। लेकिन वनों के प्रति मन में कुछ अभिलाषाए छिपी हुई थी तथा उन को उजागर करने के लिए इन्हें मनपसंद कार्यक्षेत्र मिल ही गया।
वर्तमान में 31 वर्षीय, राजाराम का जन्म 10 अक्टूबर 1989 को जयपुर जिले की जमवारामगढ़ तहसील के रामनगर गांव में हुआ तथा इनकी प्रारम्भिक शिक्षा गांव में ही हुई व स्नातक तक की पढ़ाई इन्होंने मीनेष महाविद्यालय जमवारामगढ़ से की है। इन्हें हमेशा से ही खेलकूद प्रतियोगिताओ क्रिकेट व बेडमिंटन में अधिक रुचि है। हमेशा से ही इनके परिवार वाले और राजाराम खुद भी चाहते थे की वे लोको पायलट बने। परन्तु अपनी स्नातक की पढ़ाई के अंतिम चरण में इन्होने वनरक्षक की परीक्षा दी जिसमें ये उतरिन हो गए तथा 30 मार्च 2011 को पहली बार नाहरगढ़ जैविक उधान जयपुर में वनरक्षक के पद पर नियुक्त हुए। इनकी इस कामयाबी पर घरवाले व सहपाठी मित्र भी खुश हुए परन्तु सबका यह भी कहना था की फिलहाल जो मिला है उसे ही कीजिए वन सेवा के दौरान पढाई भी करते रहना किस्मत में होगा तो लोको पायलट भी बन जाओगे वन्यप्रेमी महत्वाकांक्षी राजाराम वन सेवा में शामिल हो गए तथा वन व वन्यजीवों को जानना समझना शुरू कर दिया। एक वर्ष बाद में घरवालों ने इनपर लोको पायलट की परीक्षा देने के लिए दबाव बनाया और घरवालों की बात मानते हुए राजाराम ने परीक्षा भी दी जिसमें वो पास हो गए, परन्तु अब तक इनका मन वन्यजीवों के साथ जुड़ चूका था। जिसके चलते उन्होंने बिना तैयारी किये इंटरव्यू दिया और जान बूझकर फेल हो गए, ताकि वे वन्यजीव सेवा से ही जुड़े रहे। राजाराम बताते हैं कि “जब मैं वनरक्षक बना था मुझे जंगल के पेड़-पौधों और जीवों के बारे में ज्यादा जानकारी नहीं थी परन्तु सेवा में आने के बाद मैंने हमेशा नई चीजे सीखने कि चाह रखी और घरवालों के कहने पर भी कभी पीछे मुड़कर नही देखा। राजाराम अपने पुरे मन से वन सम्पदा व वन्यजीवों की सेवा में समर्पित हो गए और 8 साल की सेवा के बाद इनको सहायक वनपाल के पद पर पदोन्नति मिली। वर्तमान में राजाराम मीणा लेपर्ड सफारी पार्क झालाना, रेंज जयपुर प्रादेशिक में सहायक वनपाल के पद पर कार्यरत हैं।
अपने पिताजी के साथ उनकी नर्सरी में हाथ बटाते हुए राजाराम
शुरु से ही इनको पक्षियों में गहन रुचि रही है जिसमें उनकी विशेषताओं को समझना, आवाज पहचानना व अधिकांश पक्षियों के नाम से परिचित होना मुख्य है। परन्तु शुरुआत में इनको पक्षियों के बारे में बहुत अधिक जानकारी नहीं थी, पर फिर जब ये वन अधिकारीयों के साथ जंगल में कार्य के लिए जाते थे तो इनके बीच अधिकतर पक्षियों के बारे में जिक्र होता था। राजाराम बताते हैं कि “साथ मे जो वनपाल या कोई भी वरिष्ठ साथी मेरे से चिड़िया के बारे में चर्चा करते थे, वो किसी भी चिड़िया को मुझे दिखाकर एक बार उसका नाम बताते थे। फिर बाद में आगे जाकर उसी चिड़िया का नाम पूछ लेते थे तो मुझे भी भय रहता था कि नाम नही आया तो मुझे ये डांटेंगे उसी डर की वजह से मैं 20 – 25 चिड़ियाओं को नाम से पहचानने लगा और धीरे-धीरे रुचि बढ़ती चली गई। बाद में कभी कोई नई चिड़िया दिखती तो मैं वनपाल व साथियों से उनके बारे में पूछता था।” आज राजाराम की एक अलग ही पहचान है क्योंकि ये एक ऐसे वनरक्षक हैं जिनको पक्षियों के बारे काफी अच्छी जानकारी है तथा इन्हें पक्षियों की 300 से ज्यादा प्रजातियों की पहचान व उनकी विशेषताओं के बारे में जानकारी है।
पक्षियों में इसी रूचि के चलते राजाराम पिछले दो वर्षों से “इंडियन ईगल आउल” के एक जोड़े को देख रहे हैं तथा उनके प्रजनन विज्ञान (Breeding Biology) को समझ रहे हैं।
इंडियन ईगल आउल (फोटो: डॉ. धर्मेंद्र खांडल)
पहले झालाना में पत्थर की खाने हुआ करती थी परन्तु वन्यजीव संरक्षण अधिनियम के बाद वे खाने बंद हो गयी तथा वहां प्रोसोपिस उग गया। राजाराम जब वहां पहली बार गए तो उनको लगा की यह एक अलग स्थान है तथा वहां कुछ चिड़ियाएं देखी जाए और तभी उनको इंडियन ईगल आउल देखने को मिले। उन्होंने यह बात अधिकारियों के अलावा किसी और को नहीं बताई ताकि अन्य लोग वहां जाकर आउल को परेशान न करें। शुरूआती दिनों में तो सिर्फ एक ही आउल दिखता था पर कुछ दिन बाद एक जोड़ा दिखने लगा फिर एक दिन राजाराम ने आउल के चूज़े देखे और उनको बहुत ख़ुशी मिली उनको परेशानी न हो इसलिए उनकी महत्वता को समझते हुए राजाराम कभी भी उनके करीब नहीं गए और हमेशा दूरबीन से देख कर आनंद लेते थे। राजाराम यह भी बताते हैं की हर वर्ष ये जोड़ा चार अंडे देता है परन्तु चारों बच्चे जिन्दा नहीं रहते है जैसे की पिछले वर्ष दो तथा इस वर्ष तीन बच्चे ही जीवित रहे। तथा इनका व्यवहार काफी रोचक होता है क्योंकि मादा हमेशा चूजों के आसपास रहती है और यदि कभी वो ज्यादा दूर चली जाए तो नर एक विशेष प्रकार की आवाज करता है और यदि चूज़े उस तक नहीं पहुंच पाते हैं तो खुद उनके पास आ जाता है।
इसके अलावा इन्होने नाहरगढ़ बायोलॉजिकल पार्क पार्क में दिखने वाली बहुत ही दुर्लभ चिड़िया “वाइट नपेड़ टिट” के क्षेत्र को जीपीएस (GPS) से चिन्हित किया तथा जिस क्षेत्र में चिड़िया पायी जाती है उस क्षेत्र के सभी पेड़ों के बारे में जानकारी एकत्रित कर वाइट नपेड़ टिट के आवास को समझा।
इन सबके अलावा “चेस्ट नट टेल्ड स्टर्लिंग” को जयपुर में सबसे पहले इन्ही ने देखा व दस्तावेज किया है।
जैव-विविधता को समझने के अलावा राजाराम जंगल में अवैध कटाई व पशु चरवाहों को रोकने की भी कोशिश करते हैं और ऐसा करते समय कई बार ग्रामीण लोगों के साथ मुठभेड़ भी हो जाती है। ऐसी ही एक घटना हुई थी नवम्बर 2011 में जब शाम के समय कुछ ग्रामीण लोग जंगल से लकड़ी काट रहे थे। इसकी सुचना मिलते ही राजाराम व उनके साथी ग्रामीण लोगो को रोकने के लिए घटना स्थल पर पहुंचे। वहां उस समय कुल 7 लोग थे (5 पुरुष और 2 महिलायें)। वन विभाग कर्मियों को देख कर ग्रामीण लोगों ने फ़ोन करके अपने अन्य साथियों को भी बुला लिया तथा राजाराम व उनके साथी के साथ लाठियों से मारपीट करने लगे। जैसे ही विभाग के अन्य कर्मी वहां पहुंचे लोग भाग गए, परन्तु 3 आदमी सफलता पूर्वक पकडे गए। पकडे हुए लोगों पर जंगल कि अवैध कटाई व विभाग के कर्मचारियों के साथ मारपीट का केस हुआ तथा उन्हें जेल भी हुई। जब पुलिस केस चल रहा था उस दौरान ग्रामीण लोगों ने राजाराम को डराने, धमकाने और केस लेने के लिए दबाव भी बनाया, परन्तु राजाराम निडर होकर डटे रहे। राजाराम बताते हैं कि “जब मैं कोर्ट में ब्यान देने गया था तब एक मुजरिम ने वहीँ मुझे कहा कि मेरे सिर पर बहुत केस हैं एक और सही, तू बस अपना ध्यान रखना”। इन सभी धमकियों के बाद भी राजाराम के मन में केवल एक ही बात थी कि वो सही हैं वनसेवा के प्रति ऐसी नकारात्मक बाते उनके मंसूबो को कमजोर नही कर सकती। इस पूरी घटना के दौरान उनके अधिकारियों व साथियों ने उनका पूरा साथ दिया व उनका हौसला बढ़ाया। इस घटना के बाद अवैध कटाई व पशु चरवाहों के मन में एक डर की भावना उतपन्न हुई और ग्रामीण भी वनों के महत्व को समझने लगे।
झालाना लेपर्ड रिज़र्व लेपर्ड का प्राकृतिक आवास है और लेपर्ड की अधिक संख्या एवं अन्य वनजीवों की उपलब्धता की वजह से झालाना लेपर्ड रिज़र्व वन्यजीव प्रेमियों और पर्यटकों में बहुत लोकप्रिय है। (फोटो: श्री सुरेंद्र सिंह चौहान)
परन्तु अगर ध्यान से समझा जाए तो जंगल का संरक्षण सिर्फ वन-विभाग के हाथों में नहीं है बल्कि यह जंगल के आसपास रह रहे ग्रामीण लोगों कि भी जिम्मेदारी है। यदि ग्रामीण लोग विभाग से नाराज रहेंगे तो संरक्षण में काफी मुश्किलें आएगी तथा ग्रामीणों को साथ लेकर चलना भी जरुरी है। इसी बात को समझते हुए नाराज हुए ग्रामीण लोगों को मनाने कि कोशिश कि गयी। जैसे वर्ष 2013-14 में बायोलॉजिकल पार्क में प्रोसोपिस हटाने का काम चला था जिसमें नाराज हुए ग्रामीणों को बुला कर प्रोसोपिस की लकड़ी ले जाने दी। तथा उनको समझाया गया की धोक का पेड़ कई वर्षों में बड़ा होता है और आप लोग इसे कुछ घंटों में जला देते हो और आगे से इसको नहीं काटें व् जंगल की महत्वता को समझते हुए वृक्षों का ध्यान रखें।
राजस्थान के अन्य संरक्षित क्षेत्रों की तुलना में झालाना में एक अलग व अनोखी परेशानी है और वो है “पतंग के मांझे”। प्रति वर्ष जयपुर में मकर सक्रांति के दिन सभी लोग सिर्फ एक दिन के आनंद के लिए पतंग उड़ाते हैं और उस पतंग के मांझे से पक्षियों के घायल होने की चिंता भी नहीं करते हैं। मकर सक्रांति के बाद पुरे जंगल में मांझों का एक जाल सा बिछ जाता है तथा राजाराम व उनके साथी पुरे जंगल में घूम-घूम कर पेड़ों पर से मांझा उतारते हैं क्योंकि इन मांझों में फस कर पक्षियों को चोट लग जाती है।
आजा राजाराम 300 से अधिक पक्षी प्रजातियों की पहचान व उनकी विशेषताओं के बारे में जानकारी रखते हैं।
आज चिड़ियों के बारे में ज्ञान होने के कारण राजाराम को कई अधिकारी जानते हैं। परन्तु चिड़ियों के अलावा इन्हें अन्य जीवों में भी रुचि है तथा इन्होने उनके लिए भी कार्य किया है। जैसे इन्होने वर्ष 2015 में वन्यजीव गणना के दौरान दुनिया की सबसे छोटी बिल्ली “रस्टी स्पॉटेड कैट” की फोटो ली तथा यह जयपुर का सबसे पहला रिकॉर्ड था। राजाराम, 30 तितलियों की प्रजातियाँ भी पहचानते हैं और इन्होने “पयोनीर और वाइट ऑरेंज टिप तितली” की मैटिंग भी देखि व सूचित की है। समय के साथ-साथ इन्होने सांपो के बारे में भी सीखा और आज सांप रेस्क्यू भी कर लेते हैं। यह बहुत सारे वृक्षों को भी पहचानते हैं तथा एक बार सफ़ेद पलाश को देखने के लिए इन्होने गर्मियों में नाहरगढ़ बायोलॉजिकल पार्क, आमेर, कूकस और जमवा रामगढ का पूरा जंगल छान मारा और सारे पहाड़ घूमे। सफ़ेद पलाश तो नहीं मिल पाया परन्तु कई नई चिड़ियाँ, अन्य पेड़ और घोसलें देखने व जानने को मिले।
जैव-विविधता के इनके ज्ञान व समझ के चलते अब विभाग इन्हें आसपास के विद्यालयों में भेजता है ताकि ये छात्रों को वन्यजीव संरक्षण के लिए प्रेरित करें। वर्ष 2019 के वन्यजीव सप्ताह में इन्होने झालाना के आसपास 15 स्कूलों में जाकर वन्यजीवों, पर्यावरण और लेपर्ड के बार में बच्चों को जागरूक किया तथा उनको वनों की महत्वता के बार में भी समझाया। साथ ही बच्चों को पतंग के मांझों से होने वाले नुक्सान के बार में भी बताया।
वन्यजीवों के प्रति राजाराम का व्यवहार व ह्रदय बहुत ही कोमल है ये किसी भी जीव को दुःख में नहीं देख सकते हैं तथा इसी व्यवहार के चलते जब ये बायोलॉजिकल पार्क में थे तब जो भी प्लास्टिक व कांच की बोतल, टूटे कांच के टुकड़े इनको मिल जाते थे उसको ये एक बोरी में भर कर बाहर ले आते थे। ताकि किसी जानवर के पैर में चोट न लग जाए।
राजाराम समझते हैं कि, सभी फारेस्ट कर्मचारियों को जंगल के पेड़ों, वन्यजीवों और चिड़ियाँ के बारे में पता होना चाइये। इस से नई चीजे देखने को मिलेगी क्योंकि जंगल में सबसे ज्यादा फारेस्ट का आदमी ही रहता है। नई खोज करने से और प्रेरणा मिलती है की इस जंगल को बचाना है तथा नई प्रजाति के बारे में जान ने को भी मिलता है। इनका मान ना है कि, चिड़िया के संरक्षण के लिए सामान्य लोगों में मानवीय संवेदना की बहुत जरूरत है इसके संरक्षण के लिए मिट्टी के बर्तन दाना पानी व लकड़ी का घोंसला बनाकर आसपास के वृक्षों में टांग दे और गांव में घरो के आसपास झाड़ीनुमा वृक्षों का रोपण करें और साथी सदस्यों को वन्यजीवों के संरक्षण के लिए प्रेरित करना चाहिए।
प्रस्तावित कर्ता: श्री सुदर्शन शर्मा, उप वन सरंक्षक सरिस्का बाघ परियोजना सरिस्का
लेखक:
Meenu Dhakad (L) has worked with Tiger Watch as a conservation biologist after completing her Master’s degree in the conservation of biodiversity. She is passionately involved with conservation education, research, and community in the Ranthambhore to conserve wildlife. She has been part of various research projects of Rajasthan Forest Department.
Shivprakash Gurjar (R) is a Post Graduate in Sociology, he has an interest in wildlife conservation and use to write about various conservation issues.
अभिषेक एक सक्षम एवं संपन्न परिवार में जन्म लेने के बावजूद, अपने लिए प्रकृति एवं वन्यजीव संरक्षण जैसे कठोर एवं श्रमशील कार्य के निचले पायदान को चुना और आज वन क्षेत्र में शिकारियों की रोकथाम, वन्यजीवों के संरक्षण और प्रबन्धन में वनकर्मी के रूप में योगदान दे रहे हैं।
एक संपन्न परिवार से आनेवाले “श्री अभिषेक सिंह शेखावत” को हमेशा से ही प्रकृति एवं वन्यजीव संरक्षण के प्रति कार्य करने का जुनून था, जिसके चलते उन्होंने वनरक्षक (फारेस्ट गार्ड) से भर्ती होकर इस क्षेत्र में प्रवेश किया। इनके पिताजी भारतीय पुलिस सेवा में पुलिस अध्यक्ष के पद पर कार्यरत हैं तथा उनके न चाहते हुए भी अभिषेक ने इस कार्य क्षेत्र को ही नहीं बल्कि सरकारी सेवा के निचले पायदान को चुना। आज, 7 साल तक वनरक्षक के रूप में कार्य करने के बाद, 22 जनवरी 2021 को ये सहायक वनपाल के पद पर पदोन्नत हुए हैं। हालांकि इनकी पदोन्नति से भी ये अपने पिताजी को खुश नही कर पाए। परन्तु फिर भी, एक उम्मीद की किरण, निरन्तर कर्मठ व प्रगतिशील व्यक्तित्व इन्हें अपनी कर्मभूमि के प्रति ईमानदार व व्यवस्थित रहने के लिए हौसला बढ़ाता रहा हैं। वन क्षेत्र में अवैध खनन व शिकारियों की रोकथाम, वन्यजीवों के संरक्षण और प्रबन्धन में इनका उल्लेखनीय योगदान रहा है। ये अपनी कार्यशैली व कुशलता के दम पर अपने साथियों को सकारात्मक रूप से प्रेरित रखने में भी अहम भूमिका निभा रहे हैं।
वर्तमान में 28 वर्षीय, अभिषेक सिंह का जन्म सीकर जिले की रामगढ़ तहसील के खोटिया गांव में हुआ तथा इनकी प्रारंभिक शिक्षा बाड़ी धौलपुर एवं उच्च माध्यमिक शिक्षा जयपुर से हुई और अलवर से इन्होने बीएससी नर्सिंग की शिक्षा प्राप्त की है। इन्हे हमेशा से ही पर्यटन, वन भृमण, प्रकृति एवं वन्यजीवों के प्रति रुचि रही है। वर्ष 2003 में जब इनके पिताजी अलवर में पुलिस उपाधीक्षक थे, तब ये अक्सर अपने दोस्तों के साथ सरिस्का अभ्यारण में घूमने जाया करते थे और तब से ही इनके मन में एक चाह थी कि मैं भी किसी तरह प्रकृति के नजदीक रह कर इसके संरक्षण के लिए कार्य करू।
अपनी पढ़ाई पूरी करने के बाद वर्ष 2011 में इन्होने वनरक्षक के लिए आवेदन किया तथा चयनित भी हुए। ट्रेनिंग के दौरान इन्होने वन्यजीव कानून व वन्य सुरक्षा में प्रथम स्थान प्राप्त किया तथा गर्व की अनुभूति के साथ इन्होने उमरी तिराहा पांडुपोल (सरिस्का) वनरक्षक के रूप में अपना पद संभाला।
वन क्षेत्र के भीतर अवैध चरवाहों को रोकते हुए अभिषेक
अभिषेक बताते हैं की “उस समय वहां के उप-वनसंरक्षक को लगा कि एक पुलिस अधिकारी का बेटा जंगल में काम नही कर पाएगा और उन्होंने मेरे पिताजी से बातकर मुझे ऑफिस में लगाने की बात कही, लेकिन मैंने साफ मना कर दिया। फिर एक बार यूँ हुआ उप-वनसंरक्षक और मैं साथ में रेंज का दौरा करने गए, तो कुछ पशु चरवाहों और उप-वनसंरक्षक में आपस मे कहासुनी हो गई। परन्तु मैंने हौसला दिखाते हुए 29 भैसों व उनके चरवाहों को वहां से भगा दिया। यह देख न सिर्फ उप-वनसंरक्षक प्रभावित हुए बल्कि मेरे जुनून व हौसलों की असल पहचान भी हुई।”
वर्तमान में अभिषेक सरिस्का बाघ परियोजना, बफर रेंज अलवर नाका प्रताप बंध व बीट डडीकर में सहायक वनपाल के पद पर तैनात हैं।
इतने वर्षों की अपनी कार्यसेवा के दौरान कई बार अभिषेक ने न सिर्फ मुश्किल बल्कि खतरनाक कार्यवाहियों में भी बड़ी सूझ-बुझ से भूमिका निभाई है।
नबम्बर 2018 में, वन विभाग कर्मियों ने नीलगाय का शिकार करने वाले कुछ शिकारियों को पकड़ा था। परन्तु पूछताछ के दौरान अपराधियों ने बताया की उन्होंने एक बाघिन का शिकार भी किया था तथा उनके कुछ साथी पडोसी जिले में छिपे हुए थे। उन शिकारियों को पकड़ने के लिए उप-वनसंरक्षक द्वारा 8 विश्वस्त लोगों की टीम गठित की गई जिसमें अभिषेक भी थे। अभिषेक और उनके एक साथी तहकीकात के लिए पडोसी जिले में गए और इस दौरान उनके सामने कई प्रकार की मुश्किलें आई जैसे की कुछ लोग उनकी सूचनाएं अपराधियों तक पहुचाने लगे। वे शिकारी एक जाति विशेष की बहुलता वाले क्षेत्र से आते थे, जो राजस्थान के सबसे संवेदनशील इलाकों मे शामिल था, और उस क्षेत्र में मुखबिरी करना अभिषेक के लिए एक चुनौतीपुर्ण कार्य था। ऐसे में अभिषेक और उनका साथी साधारण वेषभूषा में वहां के स्थानीय व्यक्ति की तरह दुकानों व चाय की थडियों पर बैठकर जानकारी जुटाने लगे। उन्होंने स्थानीय पुलिस की सहायता से उस जगह की छानभीन कर अपराधियों के अड्डों का पता तो लगा लिया था। परन्तु उस जगह पर छापा मारना आसान नहीं था क्योंकि काफी संख्या में ग्रामीण इकट्ठे हो सकते थे और हमला भी कर सकते थे। ऐसे में स्थानीय पुलिस टीम की मदद से उन अपराधियों को पकड़ लिया गया। वर्तमान में उन अपराधियों पर कानूनी कार्यवाही चल रही है तथा न्याय व्यवस्था इस प्रकार के अपराधों के लिए गंभीर रूप से कार्य कर रही है।
समय के साथ-साथ अभिषेक ने नई-नई चीजे सीखने में बहुत रुचि दिखाई है जैसे की उन्होंने श्री गोविन्द सागर भारद्वाज के साथ रह कर बर्ड-वॉचिंग व पक्षियों की पहचान के बारे में सीखा।
टाइगर ट्रैकिंग के लिए इनकी 15-15 दिन डयूटी लगती हैं जिसमें कई बार इनका टाइगर से आमना-सामना भी हुआ है। एक रात अभिषेक अपने साथियों के साथ बोलेरो केम्पर गाड़ी से गश्त कर रहे थे, तभी एक जगह खाना खाने के लिए उन्होंने गाड़ी रोकी। उनके साथियों ने गाड़ी से नीचे उतर एक साथ बैठकर खाना खाने को कहा परन्तु अभिषेक बोले की कैम्पर में बैठकर खाना खाते हैं। वो जगह कुछ ऐसी थी कि एक तरफ दुर्गम पहाड़ व दूसरी तरफ एक नाला था और सामने एक तंग घाटी थी। तभी अँधेरे में लगभग 15 फिट की दूरी पर एक मानव जैसी आकृति प्रतीत हुई और जैसे ही टॉर्च जलाई तो सामने टाइगर नजर आया। पूरी टीम ने ईश्वर को धन्यवाद किया की अगर गाड़ी से नीचे उतर गए होते तो कितनी बड़ी दुर्घटना हो गई होती। टाइगर ट्रैकिंग का एक वाक्य ऐसा भी हुआ जब अभिषेक व उनके साथी अनजाने में टाइगर के बिलकुल नज़दीक पहुंच गए और टाइगर गुर्राने लगा। तभी उन्होंने जल्दबाजी में एक पेड़ में चढ़ कर अपनी जान बचाई।
अभिषेक ने जंगल के सीमावर्ती क्षेत्रों में अवैध खनन को रोकने के लिए भी प्रयास किये हैं। जैसे एक बार गस्त के दौरान उन्होंने अवैध खनन वाले एक व्यक्ति को ट्रॉली में पत्थर भरकर ले जाते हुए देखा व रोकने की कोशिश भी की। ट्रैक्टर तेज गति से जाने लगा तो उन्होंने ने भागते हुए ट्रॉली के पीछे लटक गए, ट्रैक्टर तेज गति में था, अतः अभिषेक ट्रॉली से लिपटकर घिसटते चले गए। लेकिन उस आदमी ने ट्रेक्टर नही रोका बाद में जैसे तैसे कूदकर उन्होंने अपनी जान बचाई। अभिषेक बताते हैं कि “ऐसे मौकों पर जब हम अवैध खनन माफिया के संसाधनों का पीछा करते हैं या जब्त करते हैं तो अधिकाँश ऐसे लोगों को दबंगों या राजनीतिक व्यक्त्वि विशेष का संरक्षण होता हैं। ऐसे में कई बार अपशब्द व धमकियां भी सुनने को मिलती हैं तब मन मे एक पीड़ा होती हैं कि हमारे पास ऐसे आदेश नही हैं कि हम अवैध कार्य करने वाले व इनको संरक्षण देने वालो को खुद सजा सुना सके।”
आवारा कुत्तों द्वारा हमले में अपनी माँ को खो चुके नीलगाय के इन छोटे बच्चों को अभिषेक ने बचाया व इनका ध्यान भी रखा
अभिषेक के अनुसार संरक्षण क्षेत्र की सबसे बड़ी समस्या है वन क्षेत्रों के आसपास रह रही आबादी जो कई बार एक साथ इक्कट्ठे होकर लड़ाई करने के लिए आ जाते हैं। एक बार अभिषेक अपने साथियों के साथ विस्थापित परिवारों से मिलने गए तो वहां पर एक जाति विशेष की बहुलता वाला क्षेत्र था। वे लोग विस्थापित परिवारों के साथ भी दुर्व्यवहार करते थे और पेड़ों का कटाव भी कर रहे थे। जब वन अभिषेक एवं साथियों ने उन लोगों को रोकने की कोशिश की तो उन्होंने पत्थर फेकना शुरू कर दिया। ऐसे में वन कर्मियों के पास न तो कोई संसाधन थे और न ही प्रयाप्त टीम।
समय के साथ-साथ अभिषेक ने नई-नई चीजे सीखने में बहुत रुचि दिखाई है जैसे की उन्होंने श्री गोविन्द सागर भारद्वाज के साथ रह कर बर्ड-वॉचिंग व पक्षियों की पहचान के बारे में सीखा। जंगल में काम करते हुए अभिषेक ने सांप रेस्क्यू करना भी सीख लिया तथा बारिश के मौसम में अब कई बार ग्रामीण लोग उन्हें सांप रेस्क्यू करने के लिए बुलाते हैं। अभिषेक का जंगल के आसपास रहने वाले लोगों को वन व वन्यजीवों के लिए जागरूक भी करते हैं जैसे की वे समय-समय पर विस्थापित परिवारों से मिलने जाते थे और उनसे समाज की मुख्य धारा, शिक्षा व स्वास्थ्य के बारे में चर्चा करते हैं। कई बार जब आसपास के गांवों से महिलाएं जंगल में लकड़ियां लेने आती हैं तो उनको वनों की विशेषता के बारे में बताकर, पेड़ न काटने की शपथ दिलवाकर भेज देते हैं और इसके चलते आज उस क्षेत्र में पेडों की अवैध कटाई बिल्कुल बन्द हो गई हैं तथा वर्तमान में वहाँ हमेशा टाइगर की मूवमेंट रहता हैं।
अभिषेक के पिताजी चाहे कितने भी सख्त बने परन्तु उनको भी अपने बेटे व उसकी कार्यशैली को लेकर काफी चिंता रहती है जिसके चलते वर्ष 2018 की शुरुआत में उनके पिताजी के प्रभाव से उनका तबादला गांव के पास ही एक नाके पर हो गया ताकि वो घर के पास रहे। लेकिन प्रकर्ति के प्रति उनका जुनून और हौसले के चलते उन्होंने पिताजी से बिना पूछे ही अपना ट्रांसफर पुनः सरिस्का में करवा लिया। ये देख सभी को अचम्भा भी हुआ क्योंकि रणथम्भौर और सरिस्का में खुद की इच्छा से कोई भी नही आना चाहता।
एक बार सरिस्का बाघ रिसर्व के सीसीएफ ने वनरक्षकों का मनोबल बढ़ाने के लिए “मैं हु वनरक्षक” नामक पोस्टर बनवाये थे और जिसके ऊपर अभिषेक की फोटो छापी गई थी। चाहे आम नागरिक हो या वनकर्मी सभी ने पोस्टर की सराहना की थी। जब उनके पिताजी को पोस्टर के बारे में मालूम चला तो वो काफी खुश हुए और उस वक्त उनकी खुशी से अभिषेक को दोगुनी खुशी मिली।
अभिषेक के अनुसार वन्यजीव संरक्षण क्षेत्र में कुछ ऐसी जटिल समस्याए हैं जो हमारे लिए सबसे बड़ी बाधा हैं जैसे; एक बीट में केवल एक ही वनरक्षक रहता हैं, वन चौकियां दुर्गम स्थान पर होती हैं जहाँ चिकित्सा,बिजली व पानी जैसी मूलभूत सुविधाओं का अभाव व नेटवर्क की समस्या रहती हैं। कई बार शिकारियों से भी आमना सामना होता हैं और ऐसे में केवल एक डंडे के अलावा उनके पास कोई हथियार नही होता। साथ ही कम वेतन भी इनके मनोबल को कमजोर करता है। क्योंकि एक वनरक्षक की शैक्षणिक व शारिरिक योग्यता पुलिस सिपाही की भर्ती मापदण्ड के समान हैं तथा इनका कार्य भी 24 घण्टे का रहता हैं लेकिन जो सुविधाएं पुलिस सिपाही को मिलती है जैसे हथियार, 2400 ग्रेड,वर्दी भत्ता व जोखिम भत्ता आदि ये सुविधा वनकर्मियों को नही मिल पाती हैं। यह कुछ मूलभूत आवश्यकताएं हैं जो सभी को चाइये परन्तु प्रकृति व वन्यजीव संरक्षण के प्रति इनके हौसलों की उड़ान कभी कमजोर नही हो सकती।
अभिषेक बताते हैं की “अभी तक के इन कार्यों में हमेशा पिताजी मेरा साथ देते रहे हैं अतः मैं समझता हूं कि मेरे इस कार्य से खुश जरूर हुए होंगे या फिर उन्हें कुछ तो मेरे प्रति सुकून मिला होगा। तथा वे मेरे पिताजी ही हैं जो मुझे हमेशा सकारात्मक, कर्मठ व साहसी रहने की प्रेरणा देते हैं।”
नाम प्रस्तावित कर्ता: डॉ गोविन्द सागर भरद्वाज
लेखक:
Shivprakash Gurjar (L) is a Post Graduate in Sociology, he has an interest in wildlife conservation and use to write about various conservation issues.
Meenu Dhakad (R) has worked with Tiger Watch as a conservation biologist after completing her Master’s degree in the conservation of biodiversity. She is passionately involved with conservation education, research, and community in the Ranthambhore to conserve wildlife. She has been part of various research projects of Rajasthan Forest Department.
राजस्थान मे वानिकी साहित्य सृजन के तीन बडे स्त्रोत है – वन अधिकारीयों द्वारा स्वतंत्र लेखन, विभागीय स्तर पर दस्तावेजीकरण एवं वन विभाग के बाहर के अध्येताओं द्वारा लेखन। वन विभाग राजस्थान में कार्य योजनाऐं (Working plans), वन्य जीव प्रबन्ध योजनाऐं (Wildlife management plans), विभागीय कार्य निर्देशिकायें, तकनीकी निर्देशिकायें, प्रशासनिक प्रतिवेदन, वन सांख्यिकी प्रतिवेदन (Forest statistics), ब्रोशर, पुस्तकें, लघु पुस्तिकायें, न्यूज लेटर, पत्रिकाएं, सामाजिक-आर्थिक सवेंक्षण (Socio-economic surveys) आदि तैयार की जाती है। या प्रकाशित की जाती है। इन दस्तावेजों/वानिकी साहित्य से विभिन्न सूचनाओं, योजनाओं एवं तकनीकों की जानकारी प्राप्त की जा सकती है।
वन विभाग मुख्य रूप से वन एवं वन्यजीवों के प्रबन्धन एवं विकास कार्यों के संपादन से संबंध रखता है लेकिन अपनी आवश्यकताओं को ध्यान में रखकर अनुसंधान एवं सर्वेक्षण कार्य भी संपादित करता है। वन कर्मी अपने अनुभव, अनुसंधान एवं सर्वेक्षण कार्यों को कई बार अनुसंधान पत्रों एवं पुस्तकाकार रूप में प्रकाशित करते रहे है। यह कार्य राज्य सेवा के दौरान या सेवानिवृति के बाद भी किया जाता है। प्रस्तुत लेख मे वर्ष 1947 से 2019 तक 73 वर्षों में राजस्थान वन विभाग के अधिकारीयों-कर्मचारीयों द्वारा लिखित, प्रकाशित एवं संपादित पुस्तक/ पुस्तिकाओं का विवरण प्रस्तुत किया गया है जो नीचे सारणी में प्रस्तुत हैः
सारणी 1: राजस्थान के कार्मिकों द्वारा लिखित पुस्तकों की सूची
क्र.सं.
लेखक
वन/विभाग में अंतिम पद/ वर्तमान पद
लिखित पुस्तक मय प्रकाशन वर्ष
भाषा
1
श्री वी.डी.शर्मा’ (श्री राजपाल सिंह के साथ प्रथम लेखक के रूप में सहलेखन किया)
प्रधान मुख्य वन संरक्षक
Wild Wonders of Rajasthan (1998)
अंग्रेजी
2
डॉ. डी. एन. पान्डे*
प्रधान मुख्य वन संरक्षक
1000 Indian Wildlife Quiz (1991)
अंग्रेजी
अरावली के वन्यवृक्ष (1994)
हिन्दी
Beyond vanishing woods (1996)
अंग्रेजी
साझा वन प्रबन्धनःजल और वन प्रबंध में लोग ज्ञान की साझेदारी (1998)
हिन्दी
Ethnoforestry: Local knowledge for sustainable forestry and livelihood security (1998)
अंग्रेजी
वन का विराट रूप: वन के उपयोग, दुरूपयोग और सदुपयोग का संयोग (1999) (श्री आर.सी.एल.मीणा के साथ द्वितीय सहलेखक के रूप में लेखन)
हिन्दी
3
श्री पी.एस.चैहान* (श्री डी.डी.ओझा के साथ द्वितीय सहलेखक के रूप में लेखन)
प्रधान मुख्य वन संरक्षक
मरूस्थलीय परितंत्र में वानिकी एवं वन्यजीव (1996)
हिन्दी
4
श्री सम्पतसिंह*
उप वन संरक्षक
राजस्थान की वनस्पति (1977)
हिन्दी
5
श्री आर.सी.एल. मीणा*
मुख्य वन संरक्षक
अरावली की समस्यायें एवं समाधान (2003)
हिन्दी
जल से वन: पारंपरिक जल प्रबंध से वानिकी विकास (2001)
हिन्दी
वन का विराट रूप: वन के उपयोग, दुरूपयोग और सदुपयोग का संयोग (1999) (श्री डी.एन. पाण्डे के साथ प्रथम सह लेखक के रूप में लेखन)
हिन्दी
6
श्री एस.के.वर्मा*
प्रधान मुख्य वन संरक्षक
राजस्थान का वन्यजीवन (1991)
हिन्दी
Reviving wetlands: Issues and Challenges (1998)
अंग्रेजी
7
श्री अभिजीत घोष*
प्रधान मुख्य वन संरक्षक
सही विधि से कैसे करें पौधारोपण? (2005)
हिन्दी
8
श्री एस.के.जैन* (डी.के.वेद, जी.ए.किन्हाल,के.रविकुमार, एस.के.जैन, आर. विजय शंकर एवं आर. सुमती के संयुक्त संपादकत्व में प्रकाशित)
मुख्य वन संरक्षक
Conservation, Assessment and Management prioritization for the medicinal plants of Rajasthan (2007)
अंग्रेजी
9
श्री कैलाश सांखला*
मुख्य वन्यजीव प्रतिपालक
National Parks (1969)
अंग्रेजी
Wild Beauty (1973)
अंग्रेजी
Tiger (1978)
अंग्रेजी
The story of Indian Tiger (1978)
अंग्रेजी
Garden of God (1990)
अंग्रेजी
Return of Tiger (1993)
अंग्रेजी
10
डॉ.. जी.एस. भारद्वाज*
अतिरिक्त प्रधान मुख्य वन संरक्षक
Tracking Tigers in Ranthambhore
अंग्रेजी
11
यू.एम.सहाय*
प्रधान मुख्य वन संरक्षक
Tennis the menace: 1000 Tennis quiz (1998)
अंग्रेजी
12
श्री पी.आर सियाग*
वन संरक्षक
Afforestaiton Manual (1998)
अंग्रेजी
13
श्री एस. एस चौधरी
प्रधान मुख्य वन संरक्षक
Ranthambhore beyond tigers (2000)
अंग्रेजी
14
श्री फतह सिंह राठौड*
उप वन संरक्षक
With tigers in the wild (1983) (श्री तेजवरी सिंह एवं श्री वाल्मिक थापर के साथ प्रथम लेखक के रूप में लेखन)
अंग्रेजी
Wild Tiger of Ranthambhore (श्री वाल्मिक थापर के साथ द्वितीय लेखक के रूप में लेखन)
अंग्रेजी
Tiger Portrait of Predators (श्री वाल्मिक थापर एवं श्री जी. सिजलर के साथ तृतीय लेखक के रूप में लेखन)
अंग्रेजी
15
श्री वी. एस. सक्सेना*
मुख्य वन संरक्षक
Afforestation as a tool for environmental improvement (1990)
अंग्रेजी
Tree nurseries and planting practices (1993)
अंग्रेजी
Useful trees, shrubs and grasses (1993)
अंग्रेजी
16
श्री एच.वी. भाटिया**
उप वन संरक्षक
राजस्थान की आन-बान-शान (2011)
हिन्दी
पुण्यात्मा दानी वृक्ष (प्रकाशन वर्ष अंकित नहीं)
हिन्दी
17
डॉ. सतीश कुमार शर्मा**
सहायक वन संरक्षक
Ornithobotany of Indian weaver birds (1995)
अंग्रेजी
लोकप्राणि-विज्ञान (1998)
हिन्दी
वन्यजीव प्रबन्ध (2006)
हिन्दी
Orchids of Desert and Semi-arid Biogeographic zones of India (2011)
अंग्रेजी
वन्य प्राणी प्रबन्ध एवं पशु चिकित्सक (2013)
हिन्दी
Faunal and floral endemism in Rajasthan (2014)
अंग्रेजी
Traditional techniques used to protect farm and forests in India(2016)
अंग्रेजी
वन विकास एवं परिस्थितिकी (2018)
हिन्दी
वन पौधशाला-स्थापना एवं प्रबन्धन (2019)
हिन्दी
वन पुनरूद्भवन एवं जैव विविधता संरक्षण (2019)
हिन्दी
18
डॉ. भगवान सिंह नाथवत**
सहायक वन संरक्षक
वन-वन्यजीव अपराध अन्वेषण (2006)
हिन्दी
पर्यावरण कानून बोध (2010)
हिन्दी
19
डॉ. रामलाल विश्नोई**
उप वन संरक्षक
सामाजिक वानिकी से समृद्धि (1987)
हिन्दी
भीलवाडा जिले में वन विकास (1997)
हिन्दी
Prespective on social forestry (2001)
अंग्रेजी
20
श्री भागवत कुन्दन***
वनपाल
रूँखड़ा बावसी नी कथा (1990)
हिन्दी
21
डॉ. सूरज जिद्दी***
जन सम्पर्क अधिकारी
रणथम्भौर का इतिहास (1997)
हिन्दी
Bharatpur (1986)
अंग्रेजी
वनः बदलते सन्दर्भ में (1985)
हिन्दी
Museum and art galleries of Rajasthan (1998)
अंग्रेजी
Step well and Rajasthan (1998)
अंग्रेजी
मानव स्वास्थ्य (2003)
हिन्दी
अजब गजब राजस्थान के संग्रहालय (2005)
हिन्दी
राजस्थान के जन्तुआलय (2005)
हिन्दी
राजस्थान के मनोहारी वन्यजीव अभयारण्य (2005)
हिन्दी
राष्ट्रीय उद्यान एवं अभयारण्य
हिन्दी
कचरा प्रबन्ध (2009)
हिन्दी
वनमित्र योजना (2010)
हिन्दी
A guide to the Wildlife parks of Rajasthan (1998)
अंग्रेजी
22
श्री संजीव जैन***
क्षेत्रीय वन अधिकारी
विद्यालयों में बनावें ईको क्लब (2005)
हिन्दी
प्रकृति प्रश्नोत्तरी (2003)
हिन्दी
23
डॉ. राकेश शर्मा***
क्षेत्रीय वन अधिकारी
साझा वन प्रबन्ध (2002)
हिन्दी
पर्यावरण प्रशासन एवं मानव पारिस्थितिकी (2007)
हिन्दी
पर्यावरण प्रदूषण नियंत्रण (2012)
हिन्दी
राजस्थान फोरेस्ट लॉ कम्पेडियम (2012)
हिन्दी
24
श्री दौलत सिंह शक्तावत**
उप वन संरक्षक
My encounters with the big cat and other adventures in Ranthabhore (2018)
अंग्रेजी
25
श्री सुनयन शर्मा*
उप वन संरक्षक
Sariska (2015)
अंग्रेजी
*भारतीय वन सेवा का अधिकारी, **राजस्थान वन सेवा को अधिकारी, ***अन्य स्तर के अधिकारी – कर्मचारी, 1-वर्ष 2019 तक सेवा निवृत हो चुके कार्मिक, 2- वर्तमान में भी विभाग में कार्यरत कार्मिक
सारणी 1 से स्पष्ट है कि राजस्थान के वन कार्मिकों ने राज्य से सम्बन्धित वानिकी साहित्य के सृजन हेतु आजादी के बाद यानी 1947 के बाद ही स्वतंत्र लेखन किया है। 1947 से 2019 तक 26 वन विभाग लेखकों ने कुल 70 पुस्तकें प्रकाशित की जिनमें 37 हिन्दी भाषा में एवं 33 अंग्रेजी में लिखी गई। भारतीय वन सेवा के 17 अधिकारीयों ने एवं राजस्थान वन सेवा के 5 अधिकारीयों ने अपनी लेखनी चलाई। श्री कैलाश सांखला (1973 से 1993) ने मुख्यतया बाघ (Tiger-Panthera tigris) पर मोनोग्राफ तर्ज पर विश्व प्रसिद्ध पुस्तकें लिखीं। उन्होंने बाघ के रहस्यमय जीवन का जो दिग्दर्शन कराया वह अनूठा है। श्री वी,डी, शर्मा (1998) द्वारा अपने सेवाकाल के प्रेक्षणों को बेजोड़ रूप में पुस्ताकाकार प्रस्तुत किया गया। उनकी पुस्तक ’’वाइल्ड वन्डर्स ऑफ़ राजस्थान” में विषय व छायाचित्रों की विविधता देखने लायक है। डॉ. जी.एस.भारद्वाज (1978), श्री फतह सिंह राठौड़ (1983,2000), श्री तेजवीर सिंह (1983) एवं श्री सुनयन शर्मा (2015) ने अपने लेखन कौशल द्वारा श्री सांखला की बाघ संरक्षण संबंधी लेखन विरासत को और आगे बढाया है। श्री आर.सी.एल.मीणा (1999,2001,2003) ने ग्रामीण परिवेश से जुडे पर्यावरणीय एवं वानिकी मुद्दों को छूआ है। डॉ. डी. एन. पाण्डे (1991, 94, 96, 98, 99) ने पारम्परिक देशज ज्ञान व लोक वानिकी की अहमियत को रेखंकित कर इसके उपयोग को बढावा देकर वन समृद्धि लाने पर जोर दिया है। श्री वी.एस.सक्सेना (1990, 93) ने पौधशाला एवं वृक्षारोपण विषयों पर लिखा है। श्री एस.के.वर्मा (1991, 98) ने वन्यजीवन की विविधतापूर्ण झाँकी प्रस्तुत की है एवं नमक्षेत्र की समस्याओं व संरक्षण उपायों को प्रकट किया है। श्री पी.एस.चैहान (1996) ने थार मरूस्थल की समस्याओं व जुड़े मुद्दों पर प्रकाश डाला है एवं विषम क्षेत्र की परिस्थितियों में वानिकी एवं वन्यजीवन संरक्षण-प्रबन्धन प्रद्धतियों का लेखा-जोखा प्रस्तुत किया है।
श्री सम्पतसिंह (1977) ने राजस्थान के विभिन्न महत्वपूर्ण पौधों की जानकारी प्रस्तुत की है। श्री अभिजीत घोष (2005), डॉ. भगवान सिंह नाथावत (2006, 2010), डॉ. सूरज जिद्दी (1977 से 2010) एवं श्री संजीव जैन (2005) ने वानिकी से सम्बन्धित अलग-अलग विषयों पर सरल भाषा में सचित्र पुस्तिकायें प्रकाशित की हैं। डॉ. जिद्दी द्वारा लिखित विभिन्न पुस्तिकायें बच्चों हेतु बहुत उपयोगी हैं जो विद्यालय – महाविद्यालयों के छात्र-छात्राओं के लिये बहुत ज्ञान वर्धक हैं एवं एक हद तक वानिकी क्षेत्र के बाल साहित्य की कमी पूरी करती हैं। श्री यू.एम.सहाय (1996) ने टेनिस खेल संबंधी प्रश्नोत्तरी पर पुस्तक लिखी है। हालांकि इस पुस्तक का वन से संबंध नहीं है तथापि वनाधिकारी की लेखन कुशलता का प्रमाण है। वानिकी से संबंधित प्रश्नोत्तरी डॉ. डी.एन.पान्डे (1991) एवं श्री संजीव जैन (2003) ने पुस्तककार प्रस्तुत की हैं। डॉ. राकेश शर्मा (2002,07,12) ने वानिकी के क्षेत्र में जनता की भागीदारी, प्रशासनिक पहलुओं एवं नियामवली जैसे विषयों पर प्रकाश डाला है। श्री एस.के.जैन (2007) ने राज्य के औषधीय पौधों पर हुई कैम्प कार्यशाला (Camp Workshop) के आधार पर तैयार रेड डेटा बुक के संपादन में भाग लिया है। डॉ. सतीश कुमार शर्मा (1995 से 2019) ने राजस्थान की जैव विविधता, तथा वन एवं वन्यजीवों के वनवासियों से संबंध की झलक के साथ- साथ संरक्षित क्षेत्रों एवं चिडियाघरों में वन्यप्राणी संरक्षण-संवर्धन एवं प्रबन्धन विषयों पर सविस्तार प्रकाश डाला है। श्री एच.वी. भाटिया (2011) ने रजवाडों के समय एवं आजादी के तुरन्त बाद की वानिकी पर प्रकाश डाला है। उन्होंने जन – जागरण हेतु भी कलम चलाई है। श्री भागवत कुन्दन (1990) ने डूंगरपुर- बांसवाडा की स्थानीय वागडी बोली में वनों-वृक्षों की महिमा को काव्य रूप में प्रस्तुत कर वन संरक्षण हेतु जनजागृत में योगदान दिया है। जब वे राजकीय सेवा में थे, उन्होंने अपने काव्य को आमजन के समक्ष गेय रूप में भी प्रस्तुत कर जागरण अभियान चलाया। लेखक ने 1986 में उनके काव्य पाठ स्वयं सुने हैं।
वन कार्मिकों के लेखन में एक बात सामने आई है, वह है उनके द्वारा अनुभवों एवं संस्मरणों का भी वैज्ञानिकता के साथ प्रस्तुतिकरण। फील्ड में निरन्तर होने वाले प्रेक्षणों एवं अनुभवों से हम अच्छे निष्कर्ष निकाल सकते हैं तथा नये सिरे से ऐसी चीजों पर अनुसंधान की ज्यादा जरूरत नहीं होती।
आजादी के बाद राजस्थान वन विभाग में श्री सी.एम. माथुर पहले ऐसे वन अधिकारी हुऐ हैं जिन्होने 1971 मे पीएच.डी. की उपाधि प्राप्त की। इसके बाद वनअधिकारीयों में पीएच.डी. उपाधि लेने की प्रवृति प्रारंभ हुई और वन अनुसंधान को गति मिलने लगी। श्री कैलाश सांखला ने 1970 के आसपास फील्ड में प्रेक्षण लेकर उसे आधार बना कर वैज्ञानिक लेखन की नींव प्रारंभ की। राजस्थान में वैज्ञानिक प्रेक्षण-लेखन को आधार मानकर पुस्तकें लिखने का युग डॉ. सी.एम. माथुर एवं श्री कैलाश सांखला जैसे वन अधिकारियों ने प्रारंभ किया। उनके बाद यह प्रवृति और बढती गयी। माथुर – सांखला के लेखन युग से प्रारंभ कर अगले 45 सालों में 26 वनकर्मी पुस्तक -लेखक के रूप में अपना नाम दर्ज करा चुके हैं।
वन कार्मिकों के लेखन में विविधता है। वन, वन्यजीव, पर्यावरण, जैव विविधता आदि विषयों पर अत्याधिक लेखन हुआ है लेकिन अभी वन – इतिहास (थ्वतमेज भ्पेजवतल) एवं आत्मकथा लेखन का कार्य किसी ने नहीं किया है। राजकीय स्तर पर हाँलांकि “विरासत” नामक पुस्तक में इतिहास लेखन की तरफ कदम उठाया गया हैं लेकित यह शुरूआत भर है। आने वाले समय में इन क्षेत्रों में भी लेखन होगा, ऐसी आशा है।
यह पुस्तक श्री अर्जुन आनंद द्वारा लिखित एक कॉफी टेबल फोटोग्राफी पुस्तक है जो विश्व प्रसिद्ध रणथंभौर नेशनल पार्क के लोकप्रिय बाघों की तस्वीरों व् उनके जीवन को साझा करती है तथा इस पुस्तक में स्थानीय लोगों के बीच “हमीर (T104)” नाम से प्रसिद्ध बाघ पर विशेष ध्यान दिया गया है। हमीर एक शानदार जंगली बाघ है, जो रणथम्भौर उद्यान में पैदा हुआ है, लेकिन तीन मनुष्यों को जान से मार देने के कारण एक मानव-भक्षक घोषित किया गया तथा आजीवन कारावास में बंद कर दिया गया। इस पुस्तक में 160 से अधिक तस्वीरें हैं। हालांकि, विशेषरूप से इस पुस्तक का केंद्र बाघ हमीर और रणथम्भौर के अन्य बाघ हैं परन्तु यह उद्यान की व्यापक झलक भी प्रदान करती है। यह रणथम्भौर के वन्य जीवन के बारे में जानने व रुचि रखने वालों के लिए एक अच्छा दस्तावेज रहेगा।
बाघ हमीर (T104) (फोटो: श्री अर्जुन आनंद)
रणथम्भौर का प्रसिद्ध बाघ हमीर (T104) (फोटो: श्री अर्जुन आनंद)
अर्जुन आनंद, एक भारतीय फ़ोटोग्राफ़र हैं। वह दुनिया के विभिन्न देशों में यात्रा करते हैं और लोगों व् प्राकृतिक परिदृश्यों की तस्वीरें खींचते हैं, लेकिन वन्यजीवों के प्रति यह सबसे अधिक भावुक हैं। इन्हें वन्यजीवों के साथ हमेशा से ही लगाव रहा है। इसकी शुरुआत 1980 के दशक में बांधवगढ़ नेशनल पार्क की यात्राओं से हुई जब वे अपने परिवार के साथ वहां घूमने जाते थे।
हमीर पुस्तक के लेखक “श्री अर्जुन आनंद”
अर्जुन अपने काम के साथ लगातार नए प्रयोग करते रहते हैं, जिसमें से कुछ वबी-सबी जापानी सिद्धांत, मिनिमैलिस्म के सिद्धांत (Principles of minimalism) है। ब्लैक एंड व्हाइट तस्वीरें इनकी प्रथम पसंद हैं क्यूंकि इस प्रकार की तस्वीरों में रंगों की बाधा नहीं होती तथा दर्शक विषय के साथ बेहतर जुड़ने में सक्षम होते हैं। यहां तक कि प्रकृति से घिरे जंगल में भी, अर्जुन दर्शकों के लिए एक भावनात्मक अनुभव बनाने के लिए जीवन की स्थिरता और शांति को फोटोग्राफ करते हैं।
प्रोफेसर ईश्वर प्रकाश थार रेगिस्तान के अत्यंत महत्वपूर्ण जीव वैज्ञानिक रहे है। इनके द्वारा किये गए अनुसन्धान ने रेगिस्तान के जीवों के अनछुए पहलुओं पर रोशनी डाली हैं। उनके जीवन पर डॉ प्रताप ने एक समग्र जानकारी एकत्रित की हैं
प्रारंभिकशिक्षा:
वैसे ईश्वर प्रकाश, जो अपने सहकर्मियों में आई पी (IP) के नाम से मशहूर थे, का जन्म 17 दिसंबर 1931 को मथुरा यू. पी. में हुआ। इनकी प्रारंभिक शिक्षा माउंटआबू में हुई जहां इनका बचपन गुजरा, और शायद इसी लगाव के कारण उन्होंने अपने जीवन का अंतिम शोध प्रोजेक्ट माउंटआबू व अरावली की अन्य पर्वत श्रृंखलाओं पर पूर्ण किया। इस प्रोजेक्ट के अधिकतम भ्रमणों पर वह हमारे साथ चलते थे, व अपने बचपन के कई संस्मरण हम से सांझा करते थे। बचपन में इन्हे छोटे मोटे शिकार का भी शोख रहा था। इनकी बचपन की इन्हीं वन्यजीव-अंतरक्रियाओं के कारण शायद उन्होंने प्राणीशास्त्र विषय चुना। इनकी बचपन की वन्यजीव संबंधी यादों में सियाह गोश का माउंटआबू में दिखना भी था। जिसे वह अपने हर माउंटआबू भ्रमण पर ढूंढते रहे। इनकी आगे की स्कूली शिक्षा पिलानी में हुई। जहां घर से स्कूल आते-जाते वह दिनभर रेगिस्तानी जरबिल, जोकि एक प्रकार का चूहा है, को घंटों देखते रहते थे व इनकी बाल मन में इनके प्रति आकर्षण विकसित हुआ। इसी जरबिल पर इन्होंने सर्वाधिक शोध कार्य किए व इस पर 100 से अधिक शोध-लेख प्रकाशित किए, जो इसकी वर्गिकी, कार्यिकी, चाराग्राह्यता, गंधग्रंथि से ले कर व्यवहारीकी के विभिन्न पहलुओं पर थे। इनके इन्हीं शोधकार्यों के कारण रेगिस्तानी जरबिल, मेरीओनिस हरीएनी, भारत की सर्वाधिक शोध की गई स्तनधारी प्रजाति है। स्कूली शिक्षा समाप्त होने के पश्चात उन्होंने जीवविज्ञान विषय में स्नातक व प्राणीशास्त्र में स्नातकोत्तर की डिग्रियां राजस्थान विश्वविद्यालय, जयपुर से प्राप्त की। प्राणीशास्त्र में स्नातकोत्तर करने के पश्चात इन्होंने 1957 में इसी विश्वविद्यालय से विद्यावाचस्पति (पीएच.डी.) की डिग्री प्राप्त की। यह कार्य इन्होंने प्रोफेसर दयाशंकर के यूनेस्को प्रायोजित प्रोजेक्ट, रेगिस्तानी स्तनधारी की पारिस्थितिकी अध्ययन में रहते हुए किया। इसी परियोजना में रहते हुए इन्होंने स्तनधारी विशेषज्ञ, खासतौर पर कृंतक विशेषज्ञ, के रूप में खुद को स्थापित किया। 1983 में इनको रेगिस्तानी कृंतको की पारिस्थितिकी व प्रबंधन पर किए कार्यो के लिए डी.एससी. की उपाधि प्रदान की गई। डी.एससी. की उपाधि प्राप्त करने वाले वह राजस्थान के प्रथम शोधार्थी थे।
व्यवसायिकजीवनवृति (प्रोफेशनलकरियर):
बहुत कम लोगों को मालूम होगा कि प्रोफेसर प्रकाश ने अपनी आजीविका की शुरुआत राजस्थान विश्वविद्यालय में व्याख्याता के रूप में की थी। यहां यह महाराजा कॉलेज में प्राणीशास्त्र विषय पढ़ाते थे। इस शिक्षण कार्य के दौरान यह काफी नवपरिवर्तनशील थे। विद्यार्थियों को स्टारफिश की मुख-अपमुखी अक्स को कक्षा में यथार्थ रूप से छाता लाकर रसमझाते थे। इनकी यह प्रयोगात्मक शिक्षणविधि विद्यार्थियों द्वारा काफी सराही जाती थी। वहीं उन के वरिष्ठ सहकर्मी भी इससे प्रभावित थे। जब इन्होंने 1961 में शिक्षणकार्य छोड़कर नवस्थापित केंद्रीय रुक्ष क्षेत्र अनुसंधान केंद्र (सी.ए.जेड.आर.आई.) में प्राणी पारिस्थितिकी विज्ञानशास्त्री के रूप में सेवा ग्रहण करने का निर्णय लिया तो इनके परिवार व सहकर्मियों ने इसका काफी विरोध किया। धुन के पक्के प्रोफेसर प्रकाश ने 31 दिसंबर 1991 तक आई.सी.ए.आर. के इस संस्थान को अपनी कर्म भूमि बना इसे नई ऊंचाइयों तक पहुंचाया। 30 साल के लंबे शोधकार्यों के दौरान उन्होंने अंतरराष्ट्रीय स्तर की कृंतक अनुसंधान प्रयोगशाला को स्थापित किया। इन्हींके अथक प्रयासों से अखिल भारतीय समन्वय कृंतक शोध परियोजना (ए.आई.सी.आर.पी.) का विन्यास हुआ व वह इसके 1977 से 1982 तक प्रतिष्ठापक परियोजना समन्वयक रहे। इनके प्रतिभा-संपन्न शोधकार्यों को देखते हुए भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद ने 1980 में इन्हें प्रोफेसर ऑफ एमिनेंस के पद नवाजा, जिसे इन्होंने अपनी सेवानिवृत्ति वर्ष 1991 तक सुशोभित किया। सेवानिवृत्ति के पश्चात भी इन्होंने अपने शोधकार्य को अनवरत जारी रखा, जब भारतीय राष्ट्रीय विज्ञान परिषद, नई दिल्ली ने इन्हें वरिष्ठ वैज्ञानिक का महत्वपूर्ण दर्जा दिया व विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी विभाग ने अरावली श्रृंखला के छोटे स्तनधारियों के अध्ययन हेतु दो शोध परियोजनाएं स्वीकृत की; जिसे उन्होंने भारतीय प्राणी सर्वेक्षण के मरू प्रादेशिक केंद्र, जोधपुर में रहते हुए संपन्न किया। यहां आते ही इन्होंने भारतीय प्राणी सर्वेक्षण के इस केंद्र के सभी वैज्ञानिकों को सक्रिय कर दिया। व इसी का परिणाम भारतीय रेगिस्तान के प्राणीजात के सार-संग्रह के रूप में परिलक्षित हुआ। वह हमेशा वैज्ञानिकों को प्रोत्साहित करते थे व शायद यही कारण था रेगिस्तान में शोधरत पूरे भारत के वैज्ञानिक इनसे सलाह-मशवरा लेने अवश्य आते थे।
एकसरलव्यक्तित्व:
अपनी अद्भुत वैज्ञानिक प्रतिभा के साथ-साथ प्रोफेसर प्रकाश एक मृदुशील व समर्पित इंसान भी थे। इनके साथ की गई हर फील्ड भ्रमण में हमें बहुत कुछ सीखने को मिलता था। प्राणीविज्ञान व्यवहारीकी के अतिरिक्त वे हमेशा जीवन जीने की कला के बारे में भी ज्ञान देते रहते थे। मानव क्यों प्राणीजगत में सर्वाधिक विकसित है तथा कृंतको की पारिस्थितिकी तंत्र में क्या भूमिका है, जैसे कई प्रश्न जो हमारे नवोदित शोधार्थी मस्तिष्क में आते थे, वह बहुत सरल भाषा में समझा दिया करते थे। एक और बात जिसके लिए वह हमेशा हमें प्रेरित करते थे कि फील्ड में हर किस्म के प्राणी का अवलोकन करते रहो व अपनी डायरी में इसे रिकॉर्ड करते रहो। इन्हीं की इस प्रेरणा से पक्षियों में मेरा अत्यधिक रुझान उत्पन्न हुआ व इसे मैंने अपना शोधक्षेत्र बना लिया । बाड़मेर के एक भ्रमण के दौरान जब इन्हें एक नई छिपकली प्रजाति मिली तो वह इसे लेकर सी.ए.जेड.आर.आई. आ गए। सरीसृपविद डॉ. आर सी शर्मा को जब इस बात का पता चला तो वह इस बारे में चर्चा करने आए। बातों-बातों में जब इन्होंने हिंट दिया कि स्तनधारियों के भी आप विशेषज्ञ हैं और नया सरीसृप भी आप ही खोजेंगे, उनके इशारों को समझते हुए प्रोफेसर प्रकाश ने वह स्पेसिमेन उठाकर डॉ.शर्मा को दे दिया।
एकश्रेष्ठशिक्षक, वैज्ञानिकवमित्र:
प्रोफेसर प्रकाश एक महान वैज्ञानिक होने के साथ-साथ समर्पित शिक्षक व निष्ठावान मित्र भी थे। उनकी वैज्ञानिक प्रतिभा उनके द्वारा लिखे ढेरों शोधपत्रों, विनिबन्धों व पुस्तकों के रूप में आज भी रेगिस्तान पर शोध करने वालों का मार्गदर्शन करती है। उच्चकोटि का वैज्ञानिक होने के साथ-साथ वे एक प्रेरणादायक शिक्षक भी थे। हालांकि उन्होंने बहुत कम विद्यार्थियों को डॉक्टरेट की उपाधिके लिए मार्गदर्शन दिया परंतु वह अपने सहकर्मियों व वरिष्ठ वैज्ञानिकों के हमेशा रहनुमा रहे। तीन दशकों से अधिक का उनका शोधकार्य स्तनधारियों के मुख्तलिफ आयाम जैसे वर्गीकरण (कृंतक पहचान की दृष्टि से सर्वाधिक मुश्किल समूह है), पारिस्थितिकी, जैविकी, व्यवहारीकी, कार्यिकी, व कृंतक नियंत्रण आदि पर केंद्रित रहा। प्रोफेसर प्रकाश गंध संप्रेषण संबंधी शोध करने वाले प्रथम भारतीय वैज्ञानिक थे। उन्होंने विभिन्न प्रजातियों में गंध-ग्रंथि की भूमिका पर भी काफी शोध किया। थार रेगिस्तान का प्रोफेसर प्रकाश के ह्रदय में विशेष स्थान था। भारतीय रेगिस्तान का कोई ही कोना होगा, चाहे वह कितना भी दुर्गम हो, जो उनके अन्वेषण से दूर रहा हो। रेगिस्तानी प्रजातियों के लिए वे हमेशा चिंतित रहते थे। वह अतिसंकटग्रस्त प्रजातियों के संरक्षण के लिए सदैव तत्पर रहते थे। भारतीय रेगिस्तान से चीता और शेर की विलुप्ति का उन्हें हमेशा रंज रहा। डब्लू.डब्लू.एफ. के साथ मिलकर उन्हों ने चीता को भारत में दोबारा लाने के कई बार प्रयास किए जो फलीभूत नहीं हो सके। वह रेगिस्तान से विलुप्त होते गोडावण, तिल्लोड, बट्टा, काला हिरण, चिंकारा, रेगिस्तानी बिल्ली, रेगिस्तानी लोमड़ी के लिए सदैव संवेदनशील रहे। वह अनेक प्रमुख मंचों से इन्हें बचाने की पुरजोर आवाज उठाते रहे। उनका यह कहना था कि यदि हमें रेगिस्तानी जैवविविधता को बचाना है तो हमें इसके घास के मैदानों को संरक्षित करना होगा व विदेशआगत पौधों से इसे बचाना होगा। डॉ. प्रकाश सरल व्यक्तित्व के साथ-साथ एक सच्चे मित्र भी थे। चाहे वह डॉक्टर पूलक घोष हो, एन.एस. राठौड़ या क्यु. हुसैन बाकरी उनका मित्रवत व्यवहार हमेशा अपने कनिष्ठ व वरिष्ठ साथियों में उन्हें लोकप्रिय बनाए रखता था।
प्रोफेसर ईश्वर प्रकाश द्वारा लिखी गयी कुछ पुस्तकें
एकउर्वरलेखक:
लेखन में डॉक्टर प्रकाश का कोई सानी नहीं था। उन द्वारा लिखे 350 से अधिक शोधपत्र व 20 से अधिक पुस्तकें आज भी रेगिस्तानी पारिस्थितिकी अध्ययन में मील का पत्थर हैं। भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद व साइंटिफिक पब्लिशर्स के अतिरिक्त उन्होंने कुछ बहुत प्रतिष्ठित प्रकाशको के साथ अपनी पुस्तकें प्रकाशित की। देहरादून की इंग्लिश बुक डिपो द्वारा प्रकाशित थार रेगिस्तान का पर्यावरणीय विश्लेषण व सी.आर.सी. प्रेस द्वारा प्रकाशित रोडेंट पेस्ट मैनेजमेंट पुस्तकें आज भी शोधार्थियों में विशिष्ट स्थान रखती हैं। भारतीय रुक्ष क्षेत्र शोध संस्थान (ए.जेड.आर.ए.आई.) के वह संस्थापक सदस्य थे। इस संस्था के वह लगभग दो दशकों तक सचिव रहे व इस संस्था द्वारा आयोजित संगोष्ठी रुक्ष क्षेत्र शोध व विकास में उनकी अतिमहत्वपूर्ण भूमिका रही। इस संस्था का एक और महत्वपूर्ण योगदान एनल्स ऑफ एरिड जोन नामक पत्रिका की शुरुआत करना था जिसका प्रकाशन आज तक अनवरत जारी है। “पब्लिश ओर पेरिश” यह पंक्तियां वह हमेशा हमें व अपने सहकर्मियों को याद दिलाते रहते थे। एक सक्रिय सदस्य के रूप में वह कई राष्ट्रीय व अंतरराष्ट्रीय समितियों में अपना योगदान देते रहे, जैसे कि यू.एन. की खाद्य एवं कृषि संगठन (एफ.ए.ऑ.), भारत सरकार की कृंतक नियंत्रण विशेषज्ञ समूह, आई.सी.ए.आर., आई.सी.एम.आर., डी.एस.टी., यू.जी.सी., योजना आयोग, भारतीय वन्यजीव शोध संस्थान व पर्यावरण मंत्रालय। एक विशेषज्ञ वैज्ञानिक के रूप में उन्होंने ऑस्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड, अमेरिका, थाईलैंड, फिलीपींस, यू.के., फ्रांस, चाइना, कुवैत व इटली आदि देशों का भ्रमण किया। अपने महान वैज्ञानिक जीवन-वृति के दौरान उन्हें कई प्रतिष्ठित सम्मानों से नवाजा गया। आई.सी.ए.आर. का रफी अहमद किदवई सम्मान, भारतीय राष्ट्रीय विज्ञान अकादमी का हर स्वरूप मेमोरियल सम्मान इनमें सब से प्रमुख हैं। उन्हें भारतीय विज्ञान परिषद के अनुभागीय अध्यक्ष रहने का भी सौभाग्य प्राप्त हुआ। एक निपुण वैज्ञानिक होने के साथ-साथ प्रोफेसर प्रकाश इमानदारी की मिसाल थे। कुशाग्र बुद्धि प्रशासक होने के बावजूद भी उन्होंने आई.सी.ए.आर.के कई संस्थानों के निदेशक व कई विश्वविद्यालयों में उपकुलसचिव के पद को ठुकरा दिया, क्योंकि विज्ञान और रेगिस्तान उनकी ह्रदय में समाए हुए थे। यह प्रसिद्ध वैज्ञानिक पृथ्वी पर अपनी सार्थक यात्रा पूरी करने के बाद 14 मई 2002 को अनंत काल के लिए रवाना हो गए, परंतु उनके लेख व अद्भुत प्रतिभा आज भी रेगिस्तान की फिजा में महक बिखेर रही हैं।
This book is majorly based on Abhikram’s photography expeditions to Ranthambhore Tiger Reserve and Jhalana Leopard Reserve, and the time that he spent with individual tigers and leopards. This book was written by Abhikram during the lockdown, and after 5 months of restless efforts, it is available in the market. This book aims to give detailed explanations of different flora and fauna of Ranthambhore and Jhalana through its exquisite pictures.
PC: Mr. Abhikram Shekhawat
This book also includes details about the different behavioural aspects of tigers and leopards. This book will be an excellent document to have for all the wildlife enthusiasts, especially for the ones who want to know about Ranthambhore’s tigers and Jhalana’s urban leopards.
PC: Mr. Abhikram Shekhawat
Abhikram Shekhawat is a 17-year-old wildlife photographer and a student studying in 12th grade in Jayshree Periwal International School. He has been fond of wildlife since the tender age of 4, and has been particularly enthusiastic about tigers of Ranthambhore. With time his passion for wildlife increased and he got involved in wildlife photography, and started taking part in various photo contests.
Mr. Abhikram Shekhawat
He won ‘Junior Photographer of the Year’ at Nature’s Best Photography Asia 2020 and ‘Second Runner-up’ in Young Photographer category at Nature InFocus Photography competition. It all started when he was 3 years and went to Ranthambhore for the first time. It was a jaw dropping view for him when he had a close encounter with tiger for the first time. It was a tigress “machhli” from the woods of Ranthambhore national park that sparked his interest in wildlife.
PC: Mr. Abhikram Shekhawat
PC: Mr. Abhikram Shekhawat
The first safari in Jhalana was a gift to Abhikram from a closed one, when he was 13. Since then he started going there every year to quench his thirst for wildlife behaviour. He saw 4 leopards there and enjoyed wildlife photography and started collecting some good photographs for his wildlife photography exhibition.
PC: Mr. Abhikram Shekhawat
Abhikram very well realised that his curiosity about wildlife is a never ending thirst. He started spending more time in Jhalana and Ranthambhore. Wildlife photography demand a lot of time and patience and sometimes he had to wait for hours just to take a single good shot. Abhikram also got to learn about the behaviour of tigers, leopards and other wild animals among which tigers of Ranthambhore excites him more. He finds himself lucky to have the opportunity to know about tigers, their family and their behaviour.
PC: Mr. Abhikram Shekhawat
The Untamed book by Abhikram Shekhawat beautifully depicts the wildlife of Jhalana and Ranthambhore, especially the tigers and leopards and their behaviour.