राजस्थान की ख़ुशबू

राजस्थान की ख़ुशबू

गंध सिर्फ़ गंध नहीं, स्मृति, पहचान और भविष्य की चेतावनी भी होती है। अगर हम इन सूक्ष्म संकेतों को जान लें, तो सिर्फ़ हवा नहीं, हमारी ज़िंदगी भी फिर से महक सकती है।

तड़के चार बजे — जब गर्मी से झुलसते राजस्थान में भी हवा हल्की ठंडी लगती है — कच्ची गली में पारिजात (Nyctanthes arbor-tristis) के फूल ज़मीन पर गिरे हुए आमतौर पर दिख ही जाते थे। दूधिया पंखुड़ियों के बीच नारंगी नली वाले फूल ऐसे बिछ जाते थे मानो ज़मीन ने खुद चंदन तिलक लगा लिया हो। दादी का धीमी आवाज़ में कहना, “जब तक यह खुशबू बचेगी, हमारी सुबहें बचेगी।” आज ये शब्द कहाँ सुनने को मिलते है। आज वही गली पक्के टाइलों से ढंक चुकी है, ड्रेनेज पाइप्स की गंध ने पारिजात के माधुर्य को दबा दिया है। जाने‐पहचाने फूलों का यह ‘सुबह का पहला नमस्कार’ कब फीका पड़ गया, किसी ने ध्यान ही नहीं दिया। ठीक यही कहानी, राजस्थान के कई खुशबू वाले जंगली पौधों के साथ चल रही है — सुगंध पहले ग़ायब होती है, संकट का नोटिस बाद में आता है।

रेगिस्तान की खुशबुओं का भूगोल

मरु-प्रदेश की भट्टी-सी गर्मी, तेज़ धूप और कम आद्र्रता ने यहाँ के क़ुदरती वृक्षों एवं झाड़ियों में एक अनोखी विशेषता भर दी है— ये पौधे अपने पत्तों और लकड़ियों में सुगंधित तेल (टर्पीन / Terpene जैसा खुशबूदार रस) जमा कर लेते हैं। दोपहर की तेज़ गरमी में यही तेल धीरे-धीरे उड़कर ऐसा “सूखा इत्र” बनाते हैं, जो कभी चरवाहों, गृहिणियों, साधुओं और किले-कस्बों की हवा में घुला रहता था।

#क्षेत्रसुगंध के स्रोतखुशबू का प्रकार
1अरावली की पहाड़ियाँ (अलवर से डूंगरपुर तक)गुग्गल और सलाई के झुरमुटमंदिर की धूप जैसी मीठी-मसालेदार खुशबू
2थार के चलते-फिरते टीले (जैसलमेर, बाड़मेर)खावी घास और गांधेलनींबू-अदरक की तरोताज़ी, फिर सूखे भूसे के हल्के धुएं की गंध
3चंबल-और लूणी के कन्दरा क्षेत्रझाऊ और केर की झाड़ियाँतीखी कपूर-नीम जैसी गंध जो काफी दूर तक आती है; बरसात के बाद हवा में ताजगी का अहसास
4केवलादेव, भरतपुर, से धौलपुर, तक का क्षेत्रखस-खस की गहरी जड़ेंठंडी मिट्टी-सी भीनी खुशबू, रात की हवा में घुली सुगंध
5सवाई माधोपुर (रणथंभौर के आसपास)नदी-किनारे उगती खस-खस व पहाड़ी ढलानों की खावी घासभीनी भीनी ठंडक एवं नींबू-अदरक की ताज़गी; जंगल सफ़ारी के वक्त अक्सर महसूस होती है
6माउंट आबू का पहाड़ी ठंडा ऊपरी क्षेत्रफुलेड़ घास और जंगली पहाड़ी जड़ी-बूटियाँपुदीने जैसी ठंडी-मीठी सुगंध जो की शाम की नमी में और उभरती है
7अरावली की दक्षिणी पहाड़ियाँ (उदयपुर, डूंगरपुर)पामा रोसा घास (गंधबेल या जिन्जर ग्रास)गुलाब-सी मीठी गंध; परफ्यूम कंपनियों का छिपा ख़ज़ाना

खुशबूओं की यह भू-रसायनशाला अब तापमान वृद्धि, भूमिगत जल दोहन, खनन तथा चारागाह के दबावों के तले सिकुड़ रही है। अगर ध्यान न दिया गया तो आने वाली हवा सिर्फ़ गरम और सूखी रहेगी, उसमें खुशबू का कोई झोंका नहीं बचेगा।

प्राकृतिक गंध के स्रोत

  1. गुग्गल (Commiphora wightii) – अरावली क्षेत्र में

नीले आसमान तले भीषण गर्मी झेलता यह झाड़-नुमा पौधा, हल्के चाकलेटी तने पर जब हल्की कट लगती है, तो आँसू-सा पीला राल रिसता है। यही “गुग्गल धूप” मंदिरों-घरों में धार्मिक कार्यों, पूजन के समय जलाया जाता है। अनियंत्रित दोहन ने 1950 से आज तक इसके प्राकृतिक भंडार को 80 % तक घटा दिया है। इसके बीज अंकुरण की क्षमता काफी कम, लगभग 10 प्रतिशत ही है। गुजरात-राजस्थान सीमा के कुछ क्षेत्रों में सामुदायिक “हल्की खरोंच-पद्धति” ने इसको होने वाले नुकसान को आधा कर दिया है पर फिर भी यह IUCN की ‘क्रिटिकली एंडेंजर्ड’ सूची में अब भी शामिल है।

क्या आप पहचानते हैं इस गुग्गल को? इसकी मीठी सुगंध कभी रेगिस्तान की हवा में घुली रहती थी। (चित्र: सोनू)

  1. खावी (Cymbopogon jwarancusa) पश्चिम राजस्थान के थार क्षेत्र में

चलते-चलते बारीक रेत पर पाँव पटकें तो हवा में एक तीखी मीठी, नींबू‐अदरक की ताजगी वाली गंध महसूस होती है; इसका कारण खावी घास है। एक समय था जब चरवाहे इस घास से बुखार के इलाज के लिए पारंपरिक देसी लेप बनाते थे, तो महिलाएँ इसे कूट कर अनाज भंडार में कीटों की रोकथाम के लिए रखती थीं। इन दिनों चराई के दबाव और इत्र उद्योग हेतु अति संग्रहण ने इस घास को खात्मे की ओर धकेल दिया है। फलस्वरूप बीज-बैकों की रिकव्हरी घट कर एक-तिहाई रह गई।

  1. गांधेल (Iseilema anthephoroides)

मॉनसून की पहली फुहार पड़ते ही सूखी धरती पर जो ‘भीगी-मिट्टी और कच्ची घास’ की एक विशिष्ट मिलीजुली खुशबू आती है, उसका जनक यही वार्षिक घास है। गाँव के किसान इस खुशबू से ही समझ जाते हैं कि अब बोआई (बुआई) का समय आ गया है। पहले, रबी और खरीफ की फसलों के बीच जो ज़मीन कुछ समय खाली रहती थी, अब वह लगातार काम में ली जाने लगी है। आजकल मॉनसून से पहले ही ट्रैक्टर से जुताई हो जाने की वजह से गांधेल को पनपने का समय ही नहीं मिलता।

मॉनसून की पहली फुहार पड़ते ही सूखी धरती पर ‘भीगी-मिट्टी और कच्ची घास’ की विशिष्ट खुशबू आती है, उसका जनक यही वार्षिक घास गांधेल है। (चित्र: सोनू)

  1. झाहू (Artemisia scoparia)

इस घास के गेहुँआ-हरे पत्तों को हाथ से मसलते ही कपूर या नीम जैसी तेज़, झंझनाती खुशबू निकलती है। गाँव के पुराने वैद्य इसे सुखाकर धुआँ करने के लिए रखते थे — जिससे साँप-बिच्छू भागते थे, बुखार कम होता था, और कभी-कभी इसे मसालेदार चाय में भी डाला जाता था। लेकिन पिछले 20 सालों में विलायती बबूल (Prosopis juliflora) ने झाहू की ज़मीन पर कब्ज़ा कर लिया है। अब झाहू के उगने और बढ़ने हेतु जरूरी धूप और पानी की जरूरत के लिए संघर्ष करना पड़ रहा है जिसमें यह घास धीरे-धीरे पिछड़ता जा रहा है।

 तेज कपूर-नीम जैसी खुशबू वाली झाहू (Artemisia scoparia) घास आज विलायती बबूल से संघर्ष कर रही है। (चित्र: सोनू)

  1. खस-खस (Chrysopogon zizanoides)

नदी किनारे उगने वाली खस की घास अपनी गहरी जड़ों से मिट्टी को बाँधे रखती है, और इन्हीं जड़ों से मिलने वाला तेल महँगे इत्र में इस्तेमाल होता है। पहले गर्मियों में जब खस की चटाई पर पानी छिड़का जाता था, तो कमरा ठंडा हो जाता था — जैसे कोई प्राकृतिक एयर-कूलर हो। लेकिन अब रेत की खुदाई और खस की जड़ों की लूट से इसके घने झुरमुट खत्म होते जा रहे हैं।

 नदी किनारे उगने वाली खस-खस (Chrysopogon zizanioides) की घास अपनी गहरी जड़ों से मिट्टी को बाँधे रखती है। इन्हीं जड़ों से मिलने वाला तेल महँगे इत्र में इस्तेमाल होता है। (चित्र: सोनू)

  1. मिर्च-गंध (पल्मारोसा) (Cymbopogon martinii)

उदयपुर की पहाड़ी ढलानों पर उगने वाली पल्मारोसा घास से गुलाब जैसी मीठी और हल्की मिर्च जैसी खुशबू आती है। इसका तेल विदेशी परफ्यूम का अहम हिस्सा है। लेकिन अब जंगल कटने और नई हाईब्रिड घासों के फैलने से असली जंगली पल्मारोसा कम होती जा रही है। हम चाहें तो इसे बचा सकते हैं—स्थानीय नर्सरी से इसके जंगली बीज लेकर खेतों की मेड़ों या खाली ज़मीन पर इसे फिर से उगा सकते हैं।

यह है पल्मारोसा घास, जिसकी गुलाब जैसी मीठी और हल्की मिर्च जैसी खुशबू अब जंगलों के कटने से धीरे-धीरे कम होती जा रही है। (चित्र: सोनू)

  1. गुंदेल (Themeda quadrivalvis)

रात को आग में डाला गया गुंदेल सूखे भूसे जैसी लेकिन हल्की मीठी खुशबू छोड़ता है। पहले यह घास टीलों पर बड़े-बड़े झुरमुटों में उगती थी, लेकिन अब बिना रोकटोक की चराई और बार-बार लगाई गई घास की आग से यह बिखरती जा रही है। हम चाहें तो इसे वापस ला सकते हैं — चरवाहों और ग्रामीणों के साथ मिलकर खेतों में आग लगाने की प्रक्रिया को रोकने की एक आसान सी योजना बनाएं, जिससे गुंदेल फिर से घना उग सके।

गुंदेल: सूखे भूसे-सी दिखने वाली यह घास अक्सर टीलों पर घने झुरमुटों में उगती है। (चित्र: सोनू)

  1. फुलेड़ (Apluda mutica)

राजस्थान के इकलौते पहाड़ी ठिकाने माउंट आबू की नम चट्टानों पर उगने वाला फुलेड़ एक खास घास है, जिसकी पत्तियाँ रगड़ने पर हल्की पुदीना जैसी ठंडी खुशबू आती है। लेकिन अब चट्टानों की खुदाई और नमी के घटने से यह घास धीरे-धीरे गायब होती जा रही है। फुलेड़ के खास इलाकों को पहचान कर और उन्हे “हॉट-स्पॉट” के रूप में चिन्हित कर इन जगहों को खनन से बचाकर हम इसे बचा सकते हैं।

पहाड़ों की ठंडी खुशबू, फुलेड़ घास (Apluda mutica), की पुदीना-सी महक शाम की नमी में और उभरती है। (चित्र: सोनू)

  1. जंगली तुलसी / नगद भाबरी (Ocimum canum)

नगद भाँवरी, जिसे कई जगह जंगली तुलसी भी कहा जाता है, एक झाड़ीदार पौधा है जिसकी पत्तियों को छूते ही तेज़, नींबू-कपूर जैसी तीखी खुशबू हवा में फैल जाती है। इसकी पत्तियाँ कीटों को दूर रखने, त्वचा के संक्रमण में लेप बनाने और देसी इत्र में बेस की तरह उपयोग होती रही हैं। रणथंभौर में जंगल सफ़ारी के दौरान जब जीपों के पहिए इस झाड़ी को कुचलते हैं, तो अचानक एक ताज़ा, तीखी गंध हवा में भर जाती है — यह उस जंगल की पहचान बन गई है। इस गंध को एक बार महसूस कर लेने के बाद, वह सफ़ारी हमेशा के लिए स्मृति में बस जाती है।

  1. ग्वारपाठा (Aloe vera)

ग्वारपाठा भले ही हमारे लिए महकता न लगे, लेकिन इसकी कटने पर निकलने वाली मिट्टी-जैसी हल्की गंध और ठंडा गूदा कई औषधीय कामों में आता है। हो सकता है हमें इसकी खुशबू महसूस न हो, पर मक्खियाँ इसे अच्छी तरह पहचानती हैं — और इससे दूर भागती हैं। शायद यही वजह है कि कई आदिवासी समुदाय इसे सूखने के बाद अपने घर की छतों से उल्टा लटका देते थे, ताकि घर में मक्खियाँ न आएँ और हवा शुद्ध बनी रहे। औषधीय गुणों से भरपूर यह पौधा, गंध की अदृश्य दुनिया में अपना एक अलग ही स्थान रखता है।

क्या आप जानते हैं कि ग्वारपाठा की भी अपनी एक अनोखी गंध होती है? (चित्र: प्रवीण)

ये सुगंधित घासें सिर्फ़ हमारी यादों से नहीं जुड़ी हैं, बल्कि मिट्टी को थामने, कीड़ों को भगाने और गाँवों की कमाई बढ़ाने का भी काम करती हैं। तो अगली बार जब राजस्थान की गर्म हवा चेहरे से टकराए, एक पल ठहरकर सूँघिए—क्या उसमें गुग्गल का धुआँ है, खावी की हरी ताज़गी है या खस की मिट्टी जैसी ठंडक बाकी है?

अगर जवाब ‘नहीं’ है, तो घबराने की ज़रूरत नहीं—अब भी वक्त है। एक बीज बोइए, एक झाड़ी वाला कोना बचाइए, और उस मिट्टी की खोती खुशबू को फिर से लौटाइए।

और भी सुगंधें, और भी कहानियाँ

राजस्थान की खुशबू सिर्फ़ जंगली घासों तक सीमित नहीं है। हमारे गाँव-आँगन और खेतों की मेड़ों पर भी कई पारंपरिक खुशबू वाले पौधे सदियों से पले हैं — जो दवा, पूजन और घरेलू उपयोग में गहराई से जुड़े हैं। तुलसी की अलग-अलग किस्में (राम तुलसी, कृष्णा तुलसी, वन तुलसी) न सिर्फ़ हवा को शुद्ध करती हैं, बल्कि इसकी तेज़ गंध और चाय में मिलाई जाने वाली पत्तियाँ रोग प्रतिरोधक ताकत देती हैं। मरुआ (Origanum majorana), जिसे ‘सदाबहार तुलसी’ भी कहते हैं की सूखी गंध वाली पत्तियाँ पुराने घरों में सिरहाने रखी जाती थीं।

पुदीना की तेज़, ठंडी सुगंध रसोई और देसी इलाज दोनों में बसी हुई है। रात को खिलने वाली रात की रानी (Cestrum nocturnum) और दिन में महकने वाला दिन का राजा (Cestrum diurnum) — दोनों मिलकर गंध की प्राकृतिक घड़ी जैसे काम करते हैं। खेतों की मेड़ों या मंदिरों के पास खिले गेंदे के फूलों की मिट्टी से मिलती तीखी महक, त्योहारों और व्रतों की याद दिलाती है।

अन्य उल्लेखनीय खुशबूदार पौधे:

राजस्थान की सुगंध-परंपरा में और भी कई वनस्पतियाँ हैं — जैसे केवड़ा की तीखी इत्र-जैसी गंध, नीम और धतूरे की विशिष्ट तीव्र महक, तथा सेवण जैसी घासें जो ज़मीन को थामे रखने के साथ-साथ हवा को अपनी विशेष पहचान देती हैं। ये सब मिलकर उस अदृश्य विरासत का हिस्सा हैं, जो हमारी नाक से ज़्यादा स्मृति और संस्कृति में महकती है।

खुशबुओं का मंद पड़ना — प्रमुख कारण

#कारणप्रभावउदाहरण
1अनियंत्रित दोहनराल या घास काटने की रफ़्तार पुनर्जनन से तेज़ हो गईगुग्गल की गहरी कटाई, खावी की जड़ों समेत उखाड़ना
2चराई व आगजनीफूल-आने से पहले चराई, गर्मियों में आग से बीज नष्टगांधेल के बीज उपलब्ध न होना, झाहू की झाड़ियों पर आग पुनरुद्भवन हेतु
3खनन व सौर-पार्कझाड़ियों और घासों का प्राकृतिक आवास नष्ट होता जा रहा हैअरावली में बॉक्साइट खनन एवं जैसलमेर में सौर ऊर्जा क्लस्टर का दुष्प्रभाव जारी है
4जलवायु परिवर्तनतापमान बढ़ने से तेल की सुगंध और गुणों में बदलावखस और खावी की खुशबू में कमी के शुरुआती संकेत प्रतीत हो रहे हैं
5सांस्कृतिक विस्मरणपारंपरिक उपयोग घटा; नई चीज़ों ने पुराने तरीकों को हटायाखस की मट की जगह प्लास्टिक कूलर, इत्र फैक्ट्रियों का असर

क्या किया जा रहा है?

  1. सामुदायिक राल-संग्रह समिति, जालोर: गाँवों में बनी समितियाँ अब यह नियम मान रही हैं: ऊँची चार कट नहीं, सतही दो खरोंच”। इससे गुग्गल के पौधे को ज़्यादा नुकसान नहीं होता। निगरानी भी अब साझेदारी से होती है — सभी हिस्सेदार मिलकर तय करते हैं कि दोहन कितना और कैसे हो।
  2. CIMAP-जोधपुर का खस नर्सरी कार्यक्रम: खस की खेती में अब सूक्ष्म सिंचाई और फसलों के बीच संतुलन (अंतरफसल) अपनाया जा रहा है। इससे खुशबू वाला तेल (EO) अच्छा बना रहता है, और किसानों की आमदनी में करीब 30% तक बढ़ोतरी हुई है।
  3. खावी चारागाह विश्राम-चक्र, बाड़मेर: बाड़मेर में 500 हेक्टेयर ज़मीन पर तीन महीने का नो-ग्रेज़िंग रोटेशन लागू किया गया है। यानी बारी-बारी से चराई रोककर घास को उगने का समय मिलता है। तीसरे साल जब बीज डाले गए, तो 65% से ज़्यादा हिस्सा फिर से हरा हुआ।
  4. स्कूल सुगंध उद्यान: अब गाँव के स्कूलों में 25 × 25 मीटर का एक खास प्लॉट बनाया जा रहा है — जहाँ खाने और महकने वाली जड़ी-बूटियाँ और घासें लगाई जाती हैं। बच्चे हर पौधे पर टैग लगाते हैं, और गंध का छोटा हर्बेरियम (संग्रह) बनाते हैं — एक खेल के साथ सिखाई जाने वाली विज्ञान की सीख।

सुगंध जो हवा ले गई

अगर आपने कभी पारिजात की वह हल्की, मीठी खुशबू महसूस की है — जो बस छूने भर से उड़ जाती है — तो याद कीजिए, वह एहसास किसी इत्र की शीशी में नहीं, आपके अपने आँगन में पला था। राजस्थान की हवा से ऐसे ही कई जंगली इत्र-घर धीरे-धीरे गायब हो रहे हैं। जब खुशबू जाती है, तो साथ में हमारी स्मृतियाँ भी फीकी पड़ जाती हैं — हमारी लोक-कथाएँ, मौसम की पहचान, मंदिर की आरती की महक, और पशुपालकों की जड़ी-बूटियाँ, सब कमजोर हो जाती हैं।

अगली बार जब थार की गर्म हवा आपके गाल से टकराए, तो एक पल ठहरकर सूँघिए — क्या उसमें खावी की नींबू जैसी ताजगी है? झाहू की कपूर जैसी छुअन है? अगर नहीं, तो शायद यही सही समय है किसी स्कूल-उद्यान में एक बीज बोने का, किसी गुग्गल झाड़ी को नाखून-भर खरोंच कर छोड़ देने का, या किसी बच्चे को यह बताने का कि पहली बारिश की असली खबर ‘गांधेल’ की खुशबू देती है, कोई मौसम ऐप नहीं।

गंध सिर्फ़ नाक से नहीं, स्मृति, पहचान और भविष्य की चेतावनी भी होती है। अगर हम इन सूक्ष्म संकेतों को सुन लें, तो सिर्फ़ हवा नहीं, हमारी ज़िंदगी भी फिर से महक सकती है।

तुलसी की अलग-अलग किस्में (राम तुलसी, कृष्णा तुलसी, वन तुलसी) न सिर्फ़ हवा को शुद्ध करती हैं, बल्कि इसकी तेज़ गंध वाली पत्तियाँ रोग प्रतिरोधक ताकत भी देती हैं (चित्र: प्रियल)

जब तक हवा में महक बचेगी, रेगिस्तान की मीठी यादें भी महकती रहेंगी

अरावली के ऑर्किड

अरावली के ऑर्किड

राजस्थान के दक्षिणी हिस्से में कई ऑर्किड प्रजातियां पायी जाती हैं . राजस्थान कांटेदार और छोटी पत्तीदार पौधों से भरपूर हैं परन्तु २० से कुछ अधिक ऑर्किड प्रजातियां भी अरावली और विन्ध्यांचल के शुष्क वातावरण में अपने लायक उपयुक्त स्थान बना पाए हैं . यह संख्या कोई अधिक नहीं हैं परन्तु फिर भी शुष्क प्रदेश में इनको देखना एक अनोखा अनुभव हैं .  विश्व में ऑर्किड के 25000 से अधिक प्रजातियां देखे गए हैं . भारत में 1250 से अधिक प्रजातियां अब तक दर्ज की गयी हैं, इनमें से 388 प्रजातियां विश्व में मात्र भारत में ही मिलती हैं . राजस्थान में ऑर्किड को प्रकृति में स्वतंत्र रूप से लगे हुए देखना हैं तो – फुलवारी वन्यजीव अभयारण्य, माउंट आबू वन्यजीव अभयारण्य,  एवं सीतामाता वन्यजीव अभयारण्य आदि राज्य में सबसे अधिक मुफीद स्थान हैं .
राजस्थान के ऑर्किड पर डॉ. सतीश शर्मा ने एक पुस्तक का लेखन भी किया हैं और कई ऑर्किड प्रजातियों को पहली बार राज्य में पहली बार दर्ज भी किया हैं .

इस वर्षा काल में डॉ. सतीश शर्मा के सानिध्य में कई ऑर्किड देखने का मौका मिला. यह पौधे अत्यंत खूबसूरत और नाजुक थे . एक छोटे समय काल में यह अपने जीवन के सबसे सुन्दर क्षण जब पुष्पित हो को जीवंतता के साथ पूरा करते हैं . यह समय काल मानसून के समय होता हैं अतः थोड़ा कठिन भी होता हैं, इस अवधारणा के विपरीत की  राजस्थान एक शुष्क प्रदेश हैं परन्तु वर्षा काल में यह किसी अन्य प्रदेश से इतर नहीं लगता हैं . यह समय अवधि असल में इतनी छोटी होती हैं की इनको देख पाना आसान नहीं होता हैं. मेरे लिए यह सम्भव बनाया डॉ. सतीश शर्मा ने और उनके सानिध्य में राज्य के २ दर्जन ऑर्किड मे से १ दर्जन ऑर्किड में देख पाया .

राजस्थान में तीन प्रकार के ऑर्किड पाए जाते हैं, एपिफैटिक जो पेड़ की शाखा पर उगते हैं, लिथोफाइट जो चट्टानी सतह पर उगते हैं, टेरेस्ट्रियल पौधे जमीन पर उगते हैं

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1. यूलोफिया हर्बेशिया (Eulophia herbacea) यह राजस्थान में गामडी की नाल एवं खाँचन की नाल-फुलवारी अभयारण्य में मिलता हैं .

2. यूलोफिया ऑक्रीएटा (Eulophia ochreata) घाटोल रेंज के वनक्षेत्र, माउन्ट आबू, सीतामाता अभयारण्यय पट्टामाता (तोरणा प्), तोरणा प्प् (रेंज ओगणा, उदयपुर), फुलवारी की नाल अभयारण्य, कुम्भलगढ अभयारण्य, गौरमघाट (टॉडगढ-रावली अभयारण्य) आदि में मिलता हैं .

3. एपीपैक्टिस वेराट्रीफोलिए (Epipactis veratrifolia) मेनाल क्षेत्र- चित्तौडग़ढ़ में मिलता है .

4. हैबेनेरिया फर्सीफेरा (Habenaria furcifera)फुलवारी की नाल अभयारण्य, कुम्भलगढ अभयारण्य, गोगुन्दा तहसील के वन क्षेत्र एवं घास के बीडे, सीतामाता अभयारण्य आदि

5. हैबेनेरिया लॉन्गीकार्नीकुलेटा (Habenaria longicorniculata) माउन्ट आबू अभयारण्य, गोगुन्दा व झाडोल रेंज के वन क्षेत्र (उदयपुर), कुम्भलगढ अभयारण्य आदि .

6. हैबेनेरिया गिब्सनई (Habenaria gibsonii) माउन्ट आबू अभयारण्य एवं उदयपुर के आस पास के क्षेत्र में मिलता हैं .

7. पैरीस्टाइलिस गुडयेरोइड्स (Peristylus goodyeroides) मात्र फुलवारी की नाल अभयारण्य क्षेत्र में मिला है .

8. पैरीस्टाइलिस कॉन्सट्रिक्ट्स (Peristylus constrictus) सीतामाता एवं फुलवारी की नाल अभयारण्य आदि में मिलता है .

9. पैरीस्टाइलिस लवी (Peristylus lawiI): फुलवारी की नाल अभयारण्य  में मिलता है .

10. वैन्डा टैसीलाटा (Vanda tessellata) सांगबारी भूतखोरा, पीपल खूँट, पूना पठार (सभी बाँसवाडा जिले के वन क्षेत्र), फुलवारी की नाल, सीतामाता माउन्ट आबू, शेरगढ अभ्यारण्य बाँरा जिला में सीताबाडी, मुँडियार नाका के जंगल, कुण्डाखोहय  प्रतापगढ वन मंडल के वन क्षेत्र आदि .

11. एकैम्पे प्रेमोर्सा (Acampe praemorsa) सीतामाता अभ्यारण्य, फुलवारी की नाल अभ्यारण्य, फलासिया क्षेत्र अन्तर्गत नला गाँव के वन क्षैत्र आदि

आम की बारहमासी फल देने वाली राजस्थान की एक किस्म – ‘सदाबहार’ 

आम की बारहमासी फल देने वाली राजस्थान की एक किस्म – ‘सदाबहार’ 

 

क्या कोई यह  विश्‍वास करेगा की राजस्थान के एक किसान ने  आम की एक ऐसी नई किस्म विकसित की हैं जो वर्ष में तीन बार फल देती है।   राजस्थान के  कोटा शहर के पास गिरधरपुरा गांव के  रहने वाले किसान श्री किशन सुमन ने 20 वर्ष की कड़ी मेहनत कर आमों यह एक अनूठी किस्म  विकसित की है  जिसे “सदाबहार” नाम दिया गया है।

वह बड़े गर्व से कहते है की ग्रीष्म, वर्षा एवं शीत ऋतुओ में हमारी आम की यह किस्म  फल देती है।  श्री किशन अतीत  के मुश्किल समय को याद करते है | पहले हमारा परिवार मात्र पारम्परिक कृषि पर आधारित था | जिसमें गेहू एवं चावल आदि की फसले उगाकर जीवन यापन करते थे | परन्तु जितनी मेहनत उसमे लगायी जाती थी उतना लाभ प्राप्त नहीं होता था ।  अत: पारम्परिक खेती को छोड़ कर उनका परिवार सब्ज़ियों की खेती करने लगा परन्तु इसके लिए जितनी मात्रा में कीटनाशकों का उपयोग किया जाता था | उससे मन को बहुत ख़राब लगता था एवं एक अपराध भाव पैदा होता था की हम लोगों को मानो जहर ही खिला रहे है । अत: उन्होंने फूलों की खेती शुरू कर दी।  जिनमें गुलाब के फूलों की  खेती भी शामिल थी  और यहाँ से श्री किशन की शोध यात्रा आरम्भ होती है । गुलाब पर कई प्रकार की कलमें  चढ़ा कर उन्होंने एक पौधें पर कई रंग के पुष्प प्राप्त किये |

 

अब उन्हें लगने लगा की फलदार वृक्षों पर भी मेहनत की जा सकती है फिर उन्होंने बाजार से कई प्रकार के आमों के फल लाना शुरू किया और उगाकर के उनके पौधें लगाने शुरू किये ।  उन्होंने पाया की आमों की अलग – अलग  किस्म के स्वाद में तो अंतर है  ही परन्तु इनमें एक और अंतर है  वह हैं उनके  पुष्प एवं फलो के लगने के समय में भी । श्री किशन ने पाया की जब विभिन्न आमों  के पौधों की किस्मों की कलमों को एक साथ लगाया गया तो पाया की एक आम के पेड़ के एक हिस्से में कुछ फल बड़े हो चुके है, और किसी हिस्से में अभी भी छोटे है और किसी हिस्से में अभी बोर भी आये हुए थे ।

इस तरह धीरे – धीरे कई वर्षो के प्रयोगों के बाद  सदाबहार किस्म का विकास हुआ।  यह विकसित किस्म वर्ष में तीन बार फसल देती है। यानी इस पर वर्ष भर आम के फल लगे रहते है।  श्री किशन ने कोटा के कृषि अनुसन्धान केंद्र  को अपनी बात बताई परन्तु उन्होंने इस प्रयास के प्रति उदासीनता का भाव रखा ।

परन्तु राष्ट्रीय नव प्रवर्तन प्रतिष्ठान भारत ( National Innovation Foundation  – India – NIF) के सुंडा राम जी ( सीकर निवासी ) ने श्री किशन   को एक अनोखा अवसर दिलाने में मदद की उन्होंने NIF की मदद से इस किस्म को राष्ट्रपति भवन में प्रदर्शित करने के लिए उन्हें वहां भेजा । उन्हें वहां अत्यंत सम्मान एवं पहचान मिली ।  इस “सदाबहार” आम एवं श्री किशन को देश विदेश के लोग जानने लगे। देश के विभिन्न हिस्सों से श्री किशन को इस किस्म के पौधों के लिए आर्डर आ ने लगे । साथ ही   भा . कृ . अनु . प . केंद्रीय उपोषण बागवानी संसथान ( ICAR- Central Institute for subtropical Horticulture) के वैज्ञानिको के साथ संपर्क किया गया एवं इस नस्ल को एक नई नेसल होने का दर्जा मिला साथ ही उन्होंने ही इसे एक नाम दिया  – ‘सदाबहार’ है।  यह आम अत्यंत स्वादिष्ट है एवं  इनमें में  पूर्णतः घुले हुए ठोस पदार्थ (Total dissolved solids – TSS ) 16 % मानी गयी है , TSS का मतलब होता है, इसके  मीठास कार्बोहाइड्रेट, कार्बनिक अम्ल , प्रोटीन , वसा एवं खनिज  की मात्रा कितनी है | सदाबहार आमों की TSS मात्रा अच्छी मानी गयी है |

श्री किशन जी मुस्कुराते हुए कहते है की कृषि अनुसन्धान केंद्र का सहयोग न सही, परन्तु मेरी पत्नी सुगना देवी और ईश्वर साथ देने में कोई कमी भी नहीं छोड़ी है। आज श्री किशन आशान्वित हैं की इस आम को जनता ने पहचान लिया हैं एवं इस की सफलता को अब कोई रोक नहीं पायेगा।  आप भी श्री किशन से आम का पौधा मंगवा सकते हैं।

राज्यों  की बायोजियोग्राफी के आधार पर हुई आंवल-बांवल की ऐतिहासिक संधि

राज्यों की बायोजियोग्राफी के आधार पर हुई आंवल-बांवल की ऐतिहासिक संधि

 

सन 1453 में , एक दूसरे के धुर विरोधी, मेवाड़ के महाराणा कुम्भा और मारवाड़ के राव जोधा को एक जाजम पर बैठा कर बात तो करा दी गई, परन्तु तय होना बाकि था, कि मेवाड़ और मारवाड़ की सीमा कहाँ तक होगी। इन दोनों राज्यों के मध्य पिछले दो दशक से अधिक समय से शत्रुतापूर्ण सम्बन्ध कायम थे जिससे दोनों पक्षों को जन-धन की भारी हानी हो रही थी व प्रजा त्रस्त थी|

इस मध्यस्तता की जिम्मेदारी दोनों राजघरानों से सम्बन्ध रखने वाली महारानी हंसाबाई पर थी, जो राणा कुम्भा की दादी थी एवं राव जोधा की बुआ थी। दोनों राजघरानों में विवाद का कारण मण्डोर (मारवाड़) के राव रणमल (हंसाबाई के भाई जो राव जोधा के पिता) द्वारा मेवाड़ की आन्तरिक राजनीति में हस्तक्षेप था जिसकी परिणती राव रणमल की हत्या व मारवाड़ की राजधानी मण्डोर पर मेवाड़ द्वारा कब्जा करने के रूप में होती है।

आंवल (Cassia auriculata)                               फोटो :- प्रेम गिरी गोस्वामी

खैर नई पीढ़ी ने गिले-शिकवे बिसार कर तय किया की और मनमुटाव अब किसी के हक़ में नहीं है।सोजत- पाली में यह संधि हुई थी जिसे आंवल-बांवल की संधि कहा जाता है। दादी हंसाबाई ने परामर्श दिया कि अब मेवाड़ और मारवाड़ की सीमा, यहाँ की भूमि स्वयं तय करेगी। यह वाक्य किसी को समझ नहीं आया परन्तु वो बोली – जिधर आंवल के पौधे है वह मेवाड़ होगा और जिधर बांवल के पेड़ है, वह मारवाड़ होगा। पेड़-पौघों का वितरण वहां की जलवायु स्थितियां और भूगर्भिक विशेषताएं से जुड़ा होता हैं एवं इनमें समान जीवन रणनीतियां और अनुकूलन देखने को मिलता है।

यानि जमीन की तासीर यह तय करती है की वहां कौनसे पेड़-पौधे उगेंगे और पेड़-पौधे तय करते है की वहां कोनसे पशु-पक्षी रहेंगे। भौगोलिक परिस्थिति, स्थानीय जलवायु, पेड़-पौधे आदि सभी मिलकर यह प्रभाव डालते है, की वहां के लोग किस प्रकार के पेशे को अपने जीवन का मुख्य आधार बनाएंगे जैसे शिकार आधारित समाज बनेगे, या कृषक अथवा पशुपालन पर जीवन यापन करेगा।

आंवल (Cassia auriculata)        फोटो :- राकेश वर्मा

यह बंटवारा मारवाड एवं मेवाड (गोडवाड़ परगना) के मध्य परम्परागत सीमा रेखा के रूप में करीब 400 वर्षों तक कायम रहा। 18वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में महाराज विजय सिंह (मारवाङ) ने गोडवाड़ परगने का मारवाङ में विलय करके, मारवाड़ व मेवाड़ की सीमा को वानस्पतिक आधार के अतिरिक भू-आकृतिक आधार ( प्राकृतिक सीमा रेखा मे अरावली पर्वतमाला) प्रदान किया।
इस आंवल – बांवल की संधि में वर्णित आंवल व बांवल शब्द किन दो वनस्पति प्रजातियों को इंगित करते हैं. यह एक महत्वपूर्ण प्रश्न है। इसमे भी आंवल शब्द से अधिक कठिन बांवल शब्द की लक्षित प्रजाति को चिन्हित करना है।
सामान्यतः जो लोग स्वयं गोडवाड परगने के भूगोल व जैव विविधता से प्रत्यक्ष रूप से परिचित नही है वे आंवल शब्द का अर्थ आंवले के पेड़ से लेते है जोकि भ्रामक है। क्यों की गोडवाड़ क्षेत्र की प्राकृतिक वनस्पति में आँवला (Emblica officinalis) शामिल नहीं है गोडवाड परगने में आंवल नामक एक झाड़ी बहुतायत में पायी जाती है। इस झाड़ी पर पीले रंग के फूल खिलते है व इसका वानस्पतिक नाम ‘केसिया ओरिकुलाटा’ (Cassia auriculata) है |

बांवल ( Vachellia jacquemontii )           फोटो :- प्रेम गिरी गोस्वामी

पहले इस झाड़ी का प्रयोग चमड़ा साफ करने (टेनिन नामक तत्त्व होने के कारण) हेतु चमड़ा उद्योग मे बहुतायत में होता था व इसकी सहज उपलब्धता ने गोडवाड क्षेत्र में चर्म शोधन को कुटिर उद्योग के रूप में स्थापित होने में सहायता दी थी। इस उपयोग के कारण अंग्रेजी भाषा में आंवल की झाड़ी को Tanner’s cassia भी कहते हैं। (चर्मकार की झाड़ी) | अत: स्पष्ट है आंवल-बांवल की संधि में वर्णित आंवल, ‘आंवल की झाड़ी’ (Cassia auriculata) ही है नाकि आँवला (Emblica officinalis).
अब हम इस संधि में वर्णित दूसरी प्रजाति यानि कि ‘बांवल’ की सटीक पहचान पर चर्चा करते है चूंकि संधि के द्वारा जिस क्षेत्रों में बांवल प्रजाती पायी जाती थी वह क्षेत्र मारवाड को आवण्टित किया गया था अतः यह स्पष्ट हो जाता है कि ‘बांवल’ उस समय मारवाड़ क्षेत्र की प्राकृतिक वनस्पति (बिना मानवीय हस्तक्षेप के पनपने वाली) का महत्वपूर्ण हिस्सा थी। वर्तमान में इस क्षेत्र (पाली जिले का शुष्क भाग) बांवल नाम से तीन प्रजातियों को संबोधित किया जाता है, प्रथम अंग्रेजी बावलियों (prosopis juliflora), द्वितीय देशी बावलियों / बबूल (Acacia nilotice) व तीसरी भू बावली ( Acacia jacquemontii)
चूंकि अंग्रेजी बबूल (जूलीफ्लोरा) सर्वप्रथम 20 वी शताब्दी में ही राजस्थान में लाया गया था अत: आंवल – बांवल की संधि में उल्लेखित ‘बांवल’ से इसका निश्चित ही साम्य नहीं है। इसी प्रकार देशी बबूल\कीकर का प्रयोग स्पष्ट सीमा रेखा के रूप में किया जाना इस लिए उचित प्रतीत नहीं होता क्योंकि वर्तमान में यह पाली जिले के मारवाड़ व गोडवाङ दोनों अंचलों में समान रूप से पाया जाता है व सम्भवतया इसका वितरण प्रारूप उस समय (1433ई.) मे भी लगभग यही रहा होगा।
अत: अब बचता है, भू – बावल| भू बावल का वितरण प्रारूप वर्तमान में गोड़वाङ व मारवाड़ को सीमा विभाजन से पूरी तरह से मेल खाता है। जिस प्रकार आंवल की झाड़ी गोड़वाड़ परगने के बाहर मारवाड़ में नहीं पायी जाती है उसी प्रकार भू – बावल भी गोड़वाड़ में नही पायी जाती जबकि मारवाड़ में बहुतायत में उपलब्ध है। उपर्युक्त कारणों से लेखकराणों का यह मानना है कि आंवल – बांवल की संधि में उल्लेखित आंवल व बांवल शब्द का संकेत Cassia auriculata ( आंवल की झाड़ी) व Vachellia jacquemontii (भू- बावल) की ओर हैं|
इस चर्चा से जुड़ा हुआ एक अन्य रोचक प्रसंग यह भी है कि जिन फ्रेंच वनस्पति अन्वेषणकर्ता विक्टर जेकमोण्ट (Victor Jacquemont) के नाम पर भू- बावल का वानस्पतिक(jacquemontii) नाम रखा गया है उन्हें उनकी मात्र चार दिवसीय” (1-4 मार्च 1832) राजस्थान यात्रा के दौरान मेवाड राज्य की राजधानी उदयपुर में प्रवेश की अनुमति महाराणा द्वारा प्रदान नहीं की गयी थी। जेकमोण्ट व महारणा’ दोनों ही भविष्य में होने वाले घटनाक्रम (जेकमोण्ट के नाम पर भू-बावल का नामकरण) से निश्चित रूप से अनभिज्ञ रहे होंगे। यह तथ्य भी ध्यान देने योग्य है कि विक्टर जेकमोण्ट को राजस्थान का प्रथम आधुनिक वनस्पति अन्वेषण कर्ता माना जाता है।

यह संधि दर्शाती हैं कि किस प्रकार लोगों को अपने परिवेश कि गहरी समझ थी जो उन्हें उचित निर्णय लेने में सहयोग करती थी।

 

लेखक:

Dr. Dharmendra Khandal (L) has worked as a conservation biologist with Tiger Watch – a non-profit organisation based in Ranthambhore, for the last 16 years. He spearheads all anti-poaching, community-based conservation and exploration interventions for the organisation.

Mr. Rajdeep Singh Sandu (R)  :-is a lecturer of political science. He is interested in history, plant ecology and horticulture.

कार्वी: राजस्थान के फूलों की रानी

कार्वी: राजस्थान के फूलों की रानी

कर्वी (Storbilanthescallosa) दक्षिणी अरावली की कम ज्ञात झाड़ीदार पौधों की प्रजाति है। यह पश्चिमी घाट और सतपुड़ा पहाड़ियों में एक प्रसिद्ध प्रजाति है, लेकिन राजस्थान के मूल निवासियों से ज्यादा परिचित नहीं है। यह अद्भुत प्रजाति आठ साल में एक बार खिलती है। पश्चिमी घाट में, इसका अंतिम फूल 2016 में देखा गया था और अगला फूल आठ साल के अंतराल के बाद 2024 में होगा।

दक्षिणी अरावली के सिरोही जिले में माउंट आबू वन्यजीव अभयारण्य कर्वी स्क्रब के लिए प्रसिद्ध है। यह अद्भुत झाड़ीदार प्रजाति माउंट आबू की ऊपरी पहुंच के पहाड़ी ढलानों तक ही सीमित है। यह इस खूबसूरत पहाड़ी के निचले क्षेत्र और निचली ढलानों में अनुपस्थित है। माउंट आबू के अलावा जोधपुर से भी कर्वी की खबर है। लेकिन यह बहुत ही असामान्य है कि जोधपुर में उच्च वर्षा क्षेत्र की एक प्रजाति देखी जाती है। दक्षिणी राजस्थान के फुलवारी-की-नल और सीतामाता वन्यजीव अभयारण्यों के कई हिस्सों में कर्वी के बड़े और निरंतर पैच देखे जा सकते हैं। यह प्रजाति उदयपुर और राजसमंद जिलों के संगम पर जरगा पहाड़ियों और कुभलगढ़ पहाड़ियों में भी पाई जाती है। कर्वी के छोटे-छोटे पैच जर्गा हिल्स में नया जरगा और जूना जर्ग मंदिरों के आसपास देखे जा सकते हैं। माउंट आबू के बाद, जरगा हिल्स राजस्थान की दूसरी सबसे ऊंची पहाड़ी है।

कर्वी एक सीधा झाड़ी है, ऊंचाई में 1.75 मीटर तक बढ़ता है। इस प्रजाति की पत्तियाँ अण्डाकार, बड़े आकार की, दाँतेदार किनारों वाली होती हैं। पत्तियों में 8-16 जोड़ी नसें होती हैं जो दूर से स्पष्ट दिखाई देती हैं। चमकीले नीले फूल पत्तियों की धुरी में विकसित होते हैं जो न केवल तितलियों और मधुमक्खियों को बल्कि मनुष्यों को भी आकर्षित करते हैं।

कर्वी स्ट्रोबिलैन्थेस से संबंधित है, फूल वाले पौधे परिवार एसेंथेसी के जीनस से संबंधित है। इस जीनस की लगभग 350 प्रजातियाँ विश्व में पाई जाती हैं और लगभग 46 प्रजातियाँ भारत में पाई जाती हैं। राजस्थान में, इस जीनस की केवल दो प्रजातियों को जाना जाता है, अर्थात् स्ट्रोबिलेंथेस्कैलोसा और स्ट्रोबिलेंथेशालबर्गि। इनमें से अधिकांश प्रजातियां एक असामान्य फूल व्यवहार दिखाती हैं, जो 1 से 16 साल के खिलने वाले चक्रों में भिन्न होती हैं। स्ट्रोबिलांथेसकुंथियाना या नीलकुरिंजी, जिसका 12 साल का फूल चक्र होता है, दक्षिण भारत के पश्चिमी घाट, विशेष रूप से नीलगिरी पहाड़ियों का प्रसिद्ध पौधा है। हर 12 साल में एक बार नीलकुरिंजी खिलता है। पिछले 182 वर्षों की अवधि के दौरान, यह केवल 16 बार ही खिल पाया है। यह वर्ष 1838, 1850, 1862, 1874, 1886, 1898, 1910, 1922, 1934, 1946, 1958, 1970, 1982, 1994, 2006 और 2018 में खिल चुका है। अगला फूल 2030 में दिखाई देगा। रंग का फूल इसलिए नाम नीलकुरिंजी। जब यह बड़े पैमाने पर खिलता है, तो नीलगिरि पहाड़ियाँ ‘नीले रंग’ की हो जाती हैं, इसलिए नीलगिरि पहाड़ियों को उनका नाम ‘नीलगिरी’ (नील = नीला, गिरि = पहाड़ी) मिला। नीलगिरी में जब नीलकुरिंजी खिलता है, तो इस फूल वाले कुंभ को देखने के लिए बड़ी संख्या में पर्यटक वहां पहुंचते हैं। इस प्रकार, नीलकुरिंजी-केंद्रित पर्यावरण-पर्यटन नीलगिरी में रोजगार के अवसर पैदा कर रहा है।

कर्वी (स्ट्रोबिलांथेस्कलोसा) को “राजस्थान का नीलकुरिंजी” कहा जा सकता है। इसका आठ साल का खिलने वाला चक्र है। यह आठ साल में एक बार खिलता है। यानी इस प्रजाति में एक सदी में सिर्फ 12 बार ही फूल आते हैं। एक साथ बड़े पैमाने पर फूल आने के बाद, सभी पौधे एक साथ मर जाते हैं जैसे ‘सामूहिक आत्महत्या’ फैशन में। इस प्रकार, कर्वी हमारे राज्य का एक मोनोकार्पिक पौधा है। कर्वी लंबे अंतराल में खिलने वाला फूल है, इसलिए इसके फूलों को प्लीटेसियल कहा जाता है, यानी वे लंबे अंतराल में एक बार खिलते हैं। अपने जीवन के पहले वर्ष के दौरान बीज के अंकुरण के बाद, कर्वी को आम तौर पर विकसित होने में सात साल लगते हैं और अपने आठ साल में खिल जाते हैं; इसके बाद जीवन में एक बार बड़े पैमाने पर फूल आने के बाद, झाड़ियाँ अंततः मर जाती हैं। गर्मियों के दौरान, कर्वी झाड़ियाँ सूखी, पत्ती रहित और बेजान जैसी दिखती हैं, लेकिन मानसून की शुरुआत के बाद उनमें हरे पत्ते आ जाते हैं। इनकी पत्तियाँ बड़े आकार की होती हैं और पौधे बहुत कम दूरी पर बहुत निकट से उगते हैं और वन तल पर घना झुरमुट बनाते हैं। उनके जीवन के बीज अंकुरण वर्ष से लेकर सातवें वर्ष तक वर्षा ऋतु में केवल टहनियों के बढ़ने से पत्ते बनते हैं लेकिन आठवें वर्ष के मानसून के दौरान उनके व्यवहार में एक शक्ति परिवर्तन देखा जाता है। पत्तियों के अलावा, वे फूल भी पैदा करना शुरू कर देते हैं। अब बड़े पैमाने पर फूल अगस्त के मध्य से सितंबर के अंत तक देखे जा सकते हैं, लेकिन ढलानों के विभिन्न ऊंचाई पर मार्च तक छोटे पॉकेट में फूल देखे जा सकते हैं। पत्तियों के निर्वासन में स्पाइक्स में बड़े आकार के, दिखावटी, नीले फूल विकसित होते हैं। फूल परागकणों और अमृत से भरपूर होते हैं जो बड़ी संख्या में तितलियों, मधुमक्खियों, पक्षियों और अन्य जीवों की प्रजातियों की एक विस्तृत श्रृंखला को आकर्षित करते हैं।

आमतौर पर एक एकल कर्वी फूल का जीवनकाल 15 से 20 दिनों के बीच रहता है। फूल आने के बाद बड़े पैमाने पर फल लगते हैं। फल ठंड और गर्म मौसम में पकते हैं और अगले साल तक सूख जाते हैं। कर्वी के पौधों में बड़े पैमाने पर बुवाई देखी जाती है। इस व्यवहार को मास्टिंग कहा जाता है। पिछले सात वर्षों की पूरी संग्रहीत खाद्य सामग्री का उपयोग फूल, फल और बीज पैदा करने के लिए किया जाता है। अब पौधे पूरी तरह से समाप्त हो गए हैं। बीजों के परिपक्व होने के बाद, उनके अंदर के फल उन्हें बनाए रखते हैं। चूंकि, फलों में अभी भी बीज मौजूद होते हैं, इसलिए उन्हें प्रकृति की अनियमितताओं से अधिकतम सुरक्षा मिलती है। सूखे मेवे अपने मृत पौधों पर अगले मानसून की प्रतीक्षा करते हैं। अगले साल के मानसून की शुरुआत के साथ, फलों की पहली बारिश होती है और सूखे मेवे नमी को अवशोषित करते हैं और एक पॉप के साथ खुलते हैं। पहाड़ी, जहां कर्वी उगते हैं, सूखे बीज की फली के फटने की तेज आवाज से भर जाते हैं, जो विस्फोटक रूप से उनके बीजों को बिखरने के लिए खोलते हैं। अब जल्द ही नए पौधे अंकुरित होते हैं और जंगल के गीले फर्श में अपनी जड़ें जमा लेते हैं। इस प्रकार, कर्वी की पूरी मृत पीढ़ी को नई पीढ़ी द्वारा तुरंत बदल दिया जाता है। नमी और तापमान के कारण पुरानी पीढ़ी के मृत पौधे सड़ने लगते हैं। जल्द ही वे अपने ‘बच्चों’ के लिए खाद बन जाते हैं।

जब कर्वी फूल, सीतामाता अभयारण्य में भागीबाउरी से सीतामाता मंदिर तक और फुलवारी-की-नल अभयारण्य में लुहारी से सोनाघाटी तक, ट्रेकिंग को गुस्सा आता है। माउंट आबू अभयारण्य की ऊपरी पहुंच के सभी ट्रेकिंग मार्ग कर्वी के खिलने पर सुरम्य हो जाते हैं। कर्वी के फूलों के वर्षों के दौरान विशेष रूप से नया जरगा और जूना जर्गटेम्पल्स के पास जरगा पहाड़ियों की यात्रा एक जीवन भर की उपलब्धि है।

राज्य में कर्वी के खिलने के प्रामाणिक रिकॉर्ड गायब हैं। राज्य के विभिन्न हिस्सों में कर्वी के खिलने के रिकॉर्ड को बनाए रखना स्थानीय विश्वविद्यालयों और वन विभाग का कर्तव्य है। वन अधिकारियों को सलाह दी जाती है कि जब वे मैदान में हों तो प्रकृति की इस अद्भुत घटना का अनुभव करें। एक वन अधिकारी अपनी सेवा अवधि में मुश्किल से चार खिलते चक्र देख सकता है। कृपया कर्वी के अगले खिलने वाले मौसम की उपेक्षा न करें।

कार्वी: आठ साल में फूल देने वाला राजस्थान का अनूठा पौधा

कार्वी: आठ साल में फूल देने वाला राजस्थान का अनूठा पौधा

कार्वी, राजस्थान का एक झाड़ीदार पौधा जिसकी फितरत है आठ साल में एक बार फूल देना और फिर मर जाना…

कार्वी एक झाड़ीदार पौधा है जिसे विज्ञान जगत में “स्ट्रोबाइलैंथस कैलोसा (strobilanthes callosa)” कहा जाता है। भारत में कई स्थानों पर इसे मरुआदोना नाम से भी जाना जाता है। एकेंथेंसी (Acantheceae) कुल के इस पौधे का कुछ वर्ष पहले तक “कार्वीया कैलोसा (Carvia Callosa)” नाम रहा है। यह उधर्व बढ़ने वाला एक झाड़ीदार पौधा है जो पास-पास उगकर एक घना झाड़ीदार जंगल सा बना देता है। इसकी ऊंचाई 1.0 से 1.75 मीटर तक पाई जाती है और पत्तियां 8-20 सेंटीमीटर लंबी एवं 5-10 सेंटीमीटर चौड़ी व् कुछ दीर्घवृत्ताकार सी होती हैं जिनके किनारे दांतेदार होते हैं। पत्तियों में नाड़ियों के 8-16 जोड़े होते हैं जो स्पष्ट नज़र आते हैं। कार्वी में अगस्त से मार्च तक फूल व फल आते हैं। इसपर बड़ी संख्या में बड़े आकार के गहरे नीले रंग के आकर्षक फूल आते हैं और फूलों के गुच्छे पत्तियों की कक्ष में पैदा होते हैं तथा दूर से ही नजर आते हैं।

कार्वी एक झाड़ीदार पौधा है और इसपर बड़ी संख्या में बड़े आकार के गहरे नीले रंग के आकर्षक फूल आते हैं। (फोटो: श्री महेंद्र दान)

भारतीय वनस्पतिक सर्वेक्षण विभाग (Botanical Survey of India) द्वारा प्रकाशित “फ्लोरा ऑफ राजस्थान” के खण्ड-2 के अनुसार राजस्थान में यह पौधा आबू पर्वत एवं जोधपुर में पाया जाता है। इसके अलावा यह महाराष्ट्र, कर्नाटक, मध्यप्रदेश और पश्चिमी घाट की पहाड़ियों में दूर-दूर तक फैला हुआ है तथा मध्यप्रदेश में सतपुड़ा बाघ परियोजना क्षेत्र में इसका अच्छा फैलाव है।

आलेख के लेखक ने अपनी वन विभाग में राजकीय सेवा के दौरान इसे “फुलवारी की नाल, सीता माता एवं कुंभलगढ़ अभयारण्य” में जगह-जगह अच्छी संख्या में देखा है। सीता माता अभयारण्य में भागी बावड़ी से वाल्मीकि आश्रम तक यह खूब नज़र आता है और फुलवारी की नाल में खांचन से लोहारी की तरफ जाने पर “सोना घाटी क्षेत्र में दिखता है। दक्षिणी अरावली में यह प्रजाति अच्छे वन क्षेत्रों में कई जगह विद्यमान है। कमलनाथ, राम कुंडा, लादन, जरगा आदि वन खंडों में यह पायी जाती है। जरगा पर्वत पर बनास नदी के उस पार से नया जरगा मंदिर की तरफ यह झाडी जगह-जगह वितरित है। जब इसमें फूल आ रहे हो उस समय इसको ढूंढना है पहचानना बहुत सरल हो जाता है।

माउंट आबू अभयारण्य में कार्वी के फूलों को देखते हुए पर्यटक (फोटो: श्री महेंद्र दान)

फूल देना और फिर मर जाना है फितरत इसकी…

स्ट्रोबाइलैंथस वंश के पौधों का फूल देने का तरीका सबसे अनूठा है। इनमें 1 से 16 वर्षों के अंतराल पर फूल देने वाली भिन्न-भिन्न प्रजातियां ज्ञात हैं। इस वंश में “कुरंजी या नील कुरंजी (strobilanthes kunthiana)” सबसे प्रसिद्ध है जो हर 12 वर्ष के अंतराल पर सामुहिक पुष्पन करते हैं और फिर सामूहिक ही मृत्यु का वरण कर लेते हैं।

इस प्रजाति में नीलगिरी के पश्चिमी घाट के अन्य भागों में वर्ष 1838,1850,1862,1874,1886,1898,1910,1922,1934,1946,1958,1970,1982,1994, 2006 एवं 2018 में पुष्पन हुआ है अगला पुष्पन अब 2030 में होगा। स्ट्रोबाइलैंथस वेलिचाई में हर साल, स्ट्रोबाइलैंथस क्सपीडेट्स में हर सातवे साल तो राजस्थान में उगने वाले स्ट्रोबाइलैंथस कैलोसा अथवा कार्वी में हर आठवे साल फूल आते हैं।

राजस्थानी कार्वी करता है एक शताब्दी में बारह बार पुष्पन

राजस्थान में पायी जाने वाली प्रजाति स्ट्रोबाइलैंथस कैलोसा आठ साल के अंतराल पर पुष्पन करती है इसके पौधे 7 साल तक बिना फूल पैदा किए बढ़ते रहते है और आठवां वर्ष इनके जीवन चक्र के लिए एक अहम वर्ष होता है। वर्षा प्रारंभ होते ही गर्मी का मारा सूखा-सूखा सा पौधा हरा भरा हो जाता है तथा अगस्त से पुष्पन प्रारंभ करता है। पुष्पन इतनी भारी मात्रा में दूर-दूर तक होता है कि, आप दिनभर झाड़ियों के बीच ही रहना पसंद करते हैं। चारों तरफ बड़े-बड़े फूलों का चटक नीला रंग अद्भुत नजारा पेश करता है ऐसे समय में मधुमक्खियां, तितलियां,भँवरे व अन्य तरह-तरह के कीट-पतंगे व पक्षी फूलों पर मंडराते नजर आते हैं।

पुष्पन का यह क्रम 15-20 दिन तक चलता है तत्पश्चात फल बनने की प्रक्रिया प्रारंभ हो जाती है। वर्षा समाप्ति के बाद भूमि व पौधे के शरीर की नमी  का उपयोग कर फल बढ़ते व पकते रहते हैं और मार्च के आते-आते फल पक कर तैयार हो जाते हैं लेकिन बीज नीचे भूमि पर न गिरकर फलों में ही फंसे रह जाते हैं। (फोटो: श्री महेंद्र दान)

इधर राजस्थान में अप्रैल से गर्मी का मौसम शुरू हो जाता है और 8 साल का जीवन पूर्ण कर कार्वी खड़ा-खड़ा सूख जाता है यानी पौधे का जीवन समाप्त हो जाता है। इस तरह के पौधे को प्लाइटेशियल (plietesials) कहा जाता है। ऐसे पौधे कई साल बढ़वार करते हैं तथा फिर एक साल फूल देकर मर जाते हैं। अरावली में यही व्यवहार बांस का है जो 40 साल के अंतराल पर फूल व बीज देकर दम तोड़ देता है। प्लाइटेशियल पौधे की एक विशेषता और है कि, यह पौधे अधिक मात्रा में बीज पैदा करते हैं यह व्यवहार मास्टिंग (Masting) कहलाता है।

मानसून काल प्रारंभ होने पर वर्षा जल एवं हवा में मौजूद नमी को कार्वी का आद्रताग्राही फल सोख लेता है तथा फूलकर फटता हुआ कैद बीजों को बाहर उड़ेल देता है। बीज बिना इंतजार किए सामूहिक अंकुरण करते हैं और वनतल से विदा हुए बुजुर्ग कार्वी पौधों का स्थान उनके “बच्चे” यानी नए पौधे ले लेते हैं। अब यह नन्हे पौधे अगले 7 साल बढ़ते रहेंगे और अपने पूर्वजों की तरह आठवे साल पुष्पन करेंगे। इस तरह दो शताब्दीयो में कोई 25 बार यानी एक शताब्दी में 12 बार (या तेरह बार) पुष्पन करते हैं।

राजस्थान में सीता माता, फुलवारी, आबू पर्वत एवं कुंभलगढ़ में इस प्रजाति के पुष्पन पर अध्ययन की जरूरत है। इसके 8 साल के चक्रीय पुष्पन को ईको-टूरिज्म से जोड़कर स्थानीय लोगों को रोजगार के अवसर भी उपलब्ध कराए जा सकते हैं।

पौधशालाओं में पौध तैयार करके दक्षिण राजस्थान में इस प्रजाति का विस्तार भी संभव है। कार्वी क्षेत्रों में तैनात वनकर्मी भी इसपर निगरानी रखे तथा पुष्पन वर्ष की जानकारी आमजन को भी दे। वे स्वयं भी इसका आनंद लें क्योंकि राजकीय सेवाकाल में वे चार बार से अधिक इस घटना को नही देख पाएंगे।

 

Cover photo credit : Shri Mahendra Dan