दुनियाँ में पक्षी अवलोकन (Bird watching or birding), साँप अवलोकन (Snake watching), वन्यजीव छायाचित्रण (Wildlife Photography), वन भ्रमण (Jungle trekking), जंगल सफारी (Jungle safari), पर्वतारोहण (Mountaineering), ऊँचे स्थानों पर चढाई चढना (Hicking) आदि काफी लोकप्रिय हो रहे हैं। हाल के वर्षों में लोगों में वनों एवं अन्य प्राकृतिक स्थलों पर किसी प्रजाति विशेष के विशालतम आकार या अत्यधिक आयु वाले या किसी असामान्य बनावट वाले वृक्षों को देखने की रूची पनपने लगी है। लोग वनों में या अपने आस-पास के परिवेश में प्रजाति विशेष के बडे से बडे वृक्षों को ढूढने के प्रयासों से व्यस्त देखने को मिल जाते हैं। वृक्ष अवलोकन या निहारन लोगों की प्रिय रूची बनता जा रहा है। यह उसी तरह लोकप्रिय होने लगा है जैसे देश में जगह- जगह पक्षी निहारन या अवलोकन (Bird watching) लोक प्रिय हो रहा है। विशिष्ठ वृक्षों को ढूँढ -ढूँढ कर देखने की अभिरुची (Hobby) को वृक्ष निहारण या वृक्ष अवलोकन (Tree watching or tree spotting) कहा जाता है। भारत सरकार द्वारा 1994 से राष्ट्रीय स्तर पर महावृक्ष पुरस्कार देने का सिलसिला प्रारम्भ किया गया है। इस पुरस्कार हेतु प्रतिवर्ष भारत सरकार किन्हीं प्रजाति विशेष की घोषणा करती है तथा उन प्रजातियों के देश के सबसे विशालतम् वृक्षों की जानकारी देने वाली प्रवष्ठियाँ मांगी जाती हैं। एक नियत तिथी के बाद सभी प्रविष्ठियो की जाँच एक विशेषज्ञ कमेटी द्वारा की जाती है तथा प्रजाति विशेष के सबसे बडे वृक्ष की प्रविष्टि का सत्यापन होने पर उस वृक्ष को प्रजाति विशेष की श्रेणी में देश का “महावृक्ष” मानते हुऐ महावृक्ष घोषित कर दिया जाता है। भारत सरकार अभी तक सागवान, देवदार, नीम, यूकेलिप्टस, इमली, चम्पा, शीशम, अंगू, होलोंग, फलदू, बहेडा, आँवला, तून, सेमल, मौलसरी, महुआ, बेंखोर आदि को महावृक्ष घोषित कर चुकी है।
हाँलाकि राजस्थान मे भारत सरकार ने किसी प्रजाति के वृक्ष को महावृक्ष घोषित नहीं किया है लेकिन जगह-जगह विशाल आकार-प्रकार के वृक्ष, झाडिया एवं यहाँ तक की काष्ठ लताएं (Lianas) भी देखने को मिल जाती हैं। इस अध्ययन में इन्हीं विशाल प्रकार के वृक्षों, झाडियों व काष्ठ लताओं की जानकारी दी गई है।
राजस्थान राज्य के विशालतम आकार के विभिन्न प्रजातियों के वृक्षों, झाडियों एवं काष्ठ लताओं की जानकारी नीचे सारणी 1 में प्रस्तुत की गई हैं।
उपरोक्त सारणी में दर्ज वृक्ष, झाडी व काष्ठ लताऐं राजस्थान के संदर्भ में ज्ञात विशाल आकार-प्रकार के विशिष्ठ पौधे हैं। कडेच गाँव के बरगद का फैलाव लगभग 0.2 हैक्टेयर में है। इसी तरह कुण्डेश्वर महादेव पवित्र कुंज (Sacred grove) के बरगद का विस्तार 0.3 हैक्टेयर है जो मादडी गाँव में स्थित राज्य के सबसे बडे बरगद से काफी कम है। मादडी गाँव का बरगद 1.02 हैक्टेयर में फैला हुआ है। दोनों छोटे बरगदों को इसलीए शामिल किया गया है क्योंकि इनका छत्रक अच्छे आकार का है तथा ये दोनों बहुत सुन्दर भी हैं, खास कर कुण्डेश्वर महादेव क्षेत्र का बरगद बहुत ही सुन्दर एवं दर्शनीय है। इस बरगद के आस-पास का पवित्र कुंज साल भर देखने लायक रहता है तथा बडी संख्या में धार्मिक एवं पारिस्थितिक पर्यटन करने वाले लोग यहाँ पहुँचते हैं।
रामकुण्डा मंदिर क्षेत्र मे काँकण गाँव के रास्ते आवरीमाता होकर ‘‘हाला हल्दू” के पास से चलते हुए करूघाटी तक जाने में रामकुण्डा एवं लादन वन खण्डों का जंगल पार करना पडता है। यहाँ पहाडों की ऊँचाई पर राजस्थान राज्य का बाँस (Dendrocalamus strictus) का श्रेष्ठतम् वन विद्यमान है। संभवत इस क्षेत्र में जंगली केले (Ensete superbum) का घनत्व पश्चिमी घाट के वनों के समतुल्य या उसमे कुछ बेहतर है। स्थल गुणवत्ता (Site quality) का अन्दाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि यहाँ 24‘ ऊँचाई वाला बाँस दोहन किया जाता है तथा लगभग 873 मी. समुन्द्रतल से ऊँचाई पर भी पहाडों में हल्दू (Adina cordifolia) के वृक्षों की वृद्वी लगभग वैसी ही है जो की पहाडों की तलहटी में है। प्रसिद्व लैण्ड मार्क (Landmark) ‘‘हाला हल्दू’’ नामक हल्दू का वृक्ष इसका उदाहरण है जो इतनी ऊँचाई का पर भी विशाल आकार ग्रहण करने मे सफल रहा है।
सारणी 1: राजस्थान के कुछ विषाल आकार के वृक्ष, झाडियां एवं काष्ठ लताऐं
क्र.स.
स्थिती
जिला
प्रजाति
नाप संबंधित जानकारी (एवं स्वभाव)
सुरक्षा की स्थिती
1
नांदेशमा गाँव, तहसील गोगुन्दा
उदयपुर
पलास (Butea monosperma)
भूमि से निकलते ही दो शाखाओं में विभाजित जिनका वक्ष ऊँचाई घेरा क्रमषः 2.82 एवं 1.19 मीटर (वृक्ष)
सुरक्षित
2
कडेच गाँव, तहसील गोगुन्दा
उदयपुर
बरगद (Ficus benghalensis)
छत्रक फैलाव 50X42 मी., 27 प्रोप जडें(वृक्ष)
सुरक्षित
3
गुलाबबाग (चिडियाघर)
उदयपुर
महोगनी (Swietenia mahagoni)
वक्ष ऊँचाई घेरा 2.50 मी., ऊँचाई 12.0 मी. (वृक्ष)
सुरक्षित
4
गुलाबबाग (बच्चों का पार्क)
उदयपुर
महोगनी (Swietenia mahagoni)
वक्ष ऊँचाई घेरा 5.97 मी., ऊँचाई 15.0 मी. (वृक्ष)
सुरक्षित
5
गुलाबबाग (बच्चों का पार्क)
उदयपुर
महोगनी (Swietenia mahagoni)
वक्ष ऊँचाई घेरा 7.0 मी, ऊँचाई 15.0 मी.(वृक्ष)
सुरक्षित
6
कंडेश्वर र महादेव, तहसील गिर्वा
उदयपुर
बरगद (Ficus benghalensis)
छत्रक फैलाव 60X60 मी.(वृक्ष)
सुरक्षित
7
भेरू जी कुंज, बरावली गाँव, तहसील गोगुन्दा
उदयपुर
माल कांगणी (Celastrus paniculata)
भूमि तल पर घेरा 0.75 मी., लंबाई 20.0 मी. (काष्ठ लता)
श्री शंकर महाराज का खेत, मदारिया गाँव, करेडा- देवगढ रोड
राजसमन्द
बबूल (Acacia nilotica var. indica)
वक्ष ऊँचाई घेरा 3.90 मी., ऊँचाई 12.0 मी. (वृक्ष)
सुरक्षित
15
काँकल (काकंण) गाँव, तहसील झाडोल
उदयपुर
सेमल (Bombex ceiba)
वक्ष ऊँचाई घेरा 7.50 मी., ऊँचाई 25.0 मी. (वृक्ष)
आंशिक सुरक्षित
16
काँकल (काकंण) गाँव, तहसील झाडोल
उदयपुर
गूलर (Ficus recemosa)
वक्ष ऊँचाई घेरा 8.40 मी., ऊँचाई 21.0 मी. (वृक्ष)
आंशिक सुरक्षित
17
रामकुण्डा वनखण्ड, क.न. 18 तथा लादन क.न. 11
उदयपुर
हल्दू (Adina cordifolia)
वक्ष ऊँचाई घेरा 3.90 मी., ऊँचाई 25.0 मी. (वृक्ष)
सुरक्षित
18
लादन वनखण्ड मे करूघाटी से पहले पगडण्डी के पास
उदयपुर
पलास (Butea monosperma)
वक्ष ऊँचाई घेरा 4.80 मी., ऊँचाई 20.0 मी. (वृक्ष)
सुरक्षित
19
दीपेश्वर महादेव प्रतापगढ
प्रतापगढ
कलम (Mitragyna parvifolia)
वक्ष ऊँचाई घेरा 4.20 मी., ऊँचाई 15.0 मी. (वृक्ष)
सुरक्षित
20
पानगढ पुराना किला, (बिजयपुर रेंज)
चित्तौडगढ
बडी गूगल (Commiphora agalocha)
भूमि तल पर घेरा 1.05 मी., ऊँचाई 5.0 मी. (झाडी)
सुरक्षित
21
पानगढ तालाब की पाल (बिजयपुर रेंज)
चित्तौडगढ
रायण (Manilkara hexandra)
वक्ष ऊँचाई घेरा 5.0 मी., ऊँचाई 12.0 मी. (वृक्ष)
सुरक्षित
22
पानगढ तालाब की पाल (बिजयपुर रेंज)
चित्तौडगढ
इमली (Tamarandus indica)
वक्ष ऊँचाई घेरा 5.60 मी., ऊँचाई 12.0 मी. (वृक्ष)
सुरक्षित
23
गाँव भभाण, तह. माँण्डल
भीलवाडा
पीलवान (Cocculus pendulus)
काष्ठ लता, भूमि पर घेरा 0.95 मी. (काष्ठ लता)
आंशिक सुरक्षित
24
गाँव देवली (माँझी)
कोटा
दखणी सहजना (Moringa concanensis)
वक्ष ऊँचाई घेरा 3.14 मी., ऊँचाई 12.0 मी. (वृक्ष)
आंशिक सुरक्षित
25
आल गुवाल एनीकट, बाघ परीयोजना, सरिस्का
अलवर
गूलर (Ficus recemosa)
वक्ष ऊँचाई घेरा 11.67 मी., ऊँचाई 18.0 मी. (वृक्ष)
आंशिक सुरक्षित
26
जूड की बड़ली (रीछेड गाँव के पास तहसील केलवाड़ा)
उदयपुर
बरगद (Ficus benghalensis)
1.4 हैक्टेयर में फैलाव
सुरक्षित
सारणी 1 में दर्ज वृक्ष एवं काष्ठ लताऐं अपनी-अपनी प्रजाति के विशाल आकार प्रकार वाले वृक्ष हैं। ये राज्य की अद्भुत जैविक धरोहर भी हैं जिन्हें हमें जतनपूर्वक संरक्षित करना चाहिये। ये परिस्थितिकी पर्यटन को बढावा देकर स्थनीय जनता हेतु रोजगार के नये अवसर भी स्थापित कर सकते हैं।
विशाल आकार-प्रकार ग्रहण करने के लिए किसी भी पौधे को एक बडी आयु तक जीना पडता है। इस लेख में वर्णित पौधे बहुत बडी आयु तक संरक्षित रहे हैं तभी द्वितियक वृद्धी (Secondary growth) के कारण वे विशाल आकार ग्रहण कर पाये हैं। यह राज्य की एक अद्भुत जैविक विरासत है। हर वन मण्डल, रेंज एवं नाकों को अपने- अपने क्षेत्र में स्थिती इन विरासत वृक्षों की कटाई, आग, व दूसरे नकारात्मक कारकों से सुरक्षा करनी चाहिये। उचित प्रचार- प्रसार द्वारा जन-जन तक इन विरासत वृक्षों, झाडियों व काष्ठ लताओं की जानकारी पहुँचाई जानी चाहिये ताकी परिस्थितिकी पर्यटन को विस्तार दिया जा सके ताकि स्थानीय लोगों को रोजगार के अधिक अवसर मिल सकें।
प्रस्तुत आलेख द्वारा जानते हैं, राजस्थान की अनुपम वन सम्पदा के बारे में जो न सिर्फ हमारी अनेक प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष जरूरतों को पूर्ण करते हैं बल्कि वन्य जैव-विविधता को भी संरक्षित करते हैं…
प्रकृति में तरह-तरह की प्रजातियों के पौधे मिलते हैं। उनके स्वभाव भी अलग अलग होते हैं – कुछ वृक्ष, तो कुछ झाड़ियां, कुछ शाक तो कुछ बेलें। प्रकृति में कई जगह वृक्षों का बाहुल्य भूमि पर एक हरे आवरण की तरह पनप जाता है एवं इस वृक्ष आवरण के नीचे विभिन्न प्रकार के छोटे पौधे (under growth) भी पनप जाते हैं। वनस्पतियों का यह पुंज “वन” कहलाता है। वैसे आम आदमी सामान्यतया प्रायः सघन वृक्षों वाले क्षेत्र को ही वन समझता है लेकिन घास के मैदान भी एक तरह के वन ही होते हैं।
वनों की वन्यजीव व जैव विविधता संरक्षण में महत्ती भूमिका है। वन वन्य प्राणियों एवं पौधों को उपयुक्त आवास प्रदान करते हैं। वे न केवल उस आवास से जीवित रहने हेतु आवश्यक चीजें ग्रहण करते हैं बल्कि स्वयं भी आवास का हिस्सा बन कर दूसरों की जरूरतें पूर्ण करते हैं। इस तरह वन अपने आप में एक ऐसे तंत्र के रूप में काम करता है जो अपनी आवश्यकता स्वयं पूर्ण करता है, अपनी टूट-फूट स्वयं ठीक कर लेता है तथा जिसमें अदृश्य असंख्य जैव-भौतिक रासायनिक क्रियायें निर्बाध चलती रहती हैं। यह वनीय तंत्र “वन पारिस्थितिकी तंत्र (Forest Ecosystem)” कहलाता है। प्रकृति में वन पारिस्थितिकी तंत्र के साथ साथ “घास क्षेत्र पारिस्थितिकी तंत्र (Grassland Ecosystem)” और “जलीय पारिस्थितिकी तंत्र (Aquatic Ecosystem)” आदि भी देखने को मिलते हैं। ये सभी पारिस्थितिकी तंत्र तरह-तरह के स्तनधारी, पक्षियों, सरीसृपों, उभयचारी, मछलियों, कीट-पतंगों, घोंघों आदि को रहने, प्रजनन करने एवं अपना समुदाय बनाने की सुविधा प्रदान करते हैं। यदि पौधों में विविधता न हो तो आवास विविधता भी नहीं पनप सकती है एवं आवास विविधता नहीं होगी तो प्राणी व वनस्पति विविधता भी पैदा नहीं होगी साथ ही वन विविधता भी नहीं होगी। वनों के प्रकार या विविधता ही वस्तुतः वन वर्गीकरण है।
उष्ण शुष्क पतझड़ी वन (फोटो: डॉ. धर्मेंद्र खांडल)
वैज्ञानिक वर्गीकरण: मुख्यरूप से राजस्थान के वनों को वैज्ञानिक एवं जैविक दृष्टि से वर्गीकृत किया गया है। वैज्ञानिक दृष्टि से वनों का वर्गीकरण कानून की पुस्तकों में मिलता है। भारतीय वन अधिनियम 1927 (Indian Forest Act 1927) की आधार शिला पर राजस्थान वन अधिनियम 1953 (Rajasthan Forest Act 1953) बनाया गया है। यह अधिनियम वनों को तीन श्रेणी में विभाजित करता है :
आरक्षित वन (Reserve Forest)
रक्षित वन (Protected Forest)
अवर्गीकृत वन (Unclass Forest)
आरक्षित वन एवं उसकी उपज का स्वामित्व पूर्ण रूप से या उसके कुछ भाग पर सरकार का होता है। रक्षित वन पर भी सरकार का स्वामित्व होता है लेकिन सरकार चाहे तो उसके उपयोग के कुछ अधिकार या अधिकांश अधिकार अपनी जनता या स्थानीय समुदाय को दे सकती है। अवर्गीकृत वन वे हैं जिनका अभी निर्धारण नहीं हुआ है कि उनको आरक्षित वन बनाया जाये या रक्षित। वनों की वैज्ञानिक श्रेणी का निर्धारण वन विभाग, वन बंदोबस्त अधिकारी (Forest Settlement Officer), सरकार अवं रेवेन्यू विभाग करते हैं। वन बंदोबस्त का कार्य रेवेन्यू बंदोबस्त से स्वतंत्र रह कर चलता है। वन बंदोबस्त में वन खंड अवं कम्पार्टमेंट के रूप में नक़्शे तैयार होते हैं। रेवेन्यू सेटलमेंट की तरह वन क्षेत्र में खसरों का प्रावधान नहीं होता।
जैविक वर्गीकरण दृष्टि से भारत के वनों का वर्गीकरण एच्. जी. चैम्पियन एवं एस. के. सेठ ने किया है। उन्होंने 16 मुख्य वनों के प्रकार पहचाने हैं जिनमें राजस्थान में 3 मुख्य प्रकार ज्ञात हैं:
वर्ग 5 -उष्ण शुष्क पतझड़ी वन (Tropical Dry Deciduous Forest)
वर्ग 6 -शुष्क कांटेदार वन (Tropical Thorn Forest)
वर्ग 8 – उपोष्ण चौड़ी पत्ती के पहाड़ी वन (Subtropical Broad Leaved Hills Forest)
उष्ण शुष्क पतझड़ी वन:
उष्ण शुष्क पतझड़ी वनों में उन वृक्ष प्रजातियों का बाहुल्य होता है जो वर्षा में हरी-भरी नजर आती हैं तथा पत्तियों से ढकी रहती हैं लेकिन वर्षा के बाद जैसे ही नमी का स्तर गिरता है, इनके पत्ते पीले होकर झड़ने लगते हैं एवं गर्मियों के आते-आते ये पर्ण विहीन होकर सूखे जैसे नजर आते हैं। गर्मी में प्राय: इनमें फूल व फल लगते हैं तथा वर्षा काल प्रारम्भ होते ही फिर इनमें पत्तियाँ आने लगती हैं। इन वनों में बाँस व झाड़ियों को भी देखा जा सकता है। इन वनों में धौंक, सफ़ेद धौंक, बहेड़ा, सादड, गुर्जन, सालर, खिरन, खिरनी, खैर, बरगद, पीपल, पहाड़ी पीपल, महुआ, बबूल, पलाश, खजूर आदि प्रजातियों के वृक्षों का बाहुल्य होता है तथा काली स्याली, गणगेरण, हरसिंगार, कड़वा या दुद्धी आदि झाड़ियों का बाहुल्य होता है। उष्ण शुष्क पतझड़ी वनों के भी कई उप प्रकार नजर आते हैं। राजस्थान में मिलने वाले प्रमुख उप प्रकार निम्न हैं :
धौक वन (Anogeissus pendula Forest)
सालर वन (Boswellia Forest)
बबूल वन (Babool Forest)
पलाश वन (Butea Forest)
बेलपत्र वन (Aegle Forest)
लवणीय क्षेत्र के झाड़ीदार वन (Saline Alkaline scrub forest)
खजून वन (Phoenix savannah)
शुष्क बॉस वन (Dry Bamboo Brakes)
सागवान वन (Teak Forest)
मिश्रित वन (Mixed Forest)
यह वन पूरी अरावली पर्वत माला, विंध्याचल पर्वतमाला एवं अरावली पर्वत माला के पूर्व दिशा में फैले हुये हैं। ये वन उदयपुर, प्रतापगढ़, बांसवाड़ा, डूंगरपुर, चित्तौडग़ढ़, भीलवाड़ा, कोटा, बूंदी, झालावाड़, बारां, धौलपुर, भरतपुर, अलवर, दौसा, जयपुर आदि अपेक्षाकृत अधिक वर्षा वाले जिलों में मिलते हैं। सालर के वन पहाड़ों के ऊपरी हिस्सों में, धौक वन पहाड़ों के ढाल पर तथा पलाश वन तलहटी क्षेत्र में मिलते हैं। जहाँ मिटटी का अच्छा जमाव है एवं नमी का स्तर अच्छा है वहां खजूर एवं बाँस वन मिलते हैं। बाँस मुख्य रूप से दक्षिणी राजस्थान में पाये जाते हैं। सागवान वन हाड़ौती एवं दक्षिण राजस्थान में मिलते हैं। उदयपुर जिले की गोगुन्दा तहसील की सायरा रेंज का सागेती वन खण्ड भारत में सागवान की अंतिम पश्चिमी एवं उत्तरी सीमा बनता हैं। राजस्थान व गुजरात सागवान के विस्तार रेंज की पश्चिमी सीमा बनाते हैं।
रेगिस्तानी कांटेदार वन (फोटो: डॉ. धर्मेंद्र खांडल)
शुष्क कांटेदार वन:
इस प्रकार के वनों का अस्तित्व मुख्यरूप से कम वर्षा वाले क्षत्रों में होता है। इन वनों में छोटी व संयुक्त पत्तियों तथा काँटों वाली प्रजातियों के वृक्ष व झाड़ियों का बाहुल्य मिलता है। इन वनों में कुमठा, रौंझ, बेर, फोग,थूर, पीलू, (खारा जाल व मीठा जाल), कैर, आंवल छाल आदि वनस्पतियां मिलती हैं। ये वन मुख्य तथा शुष्क व रेगिस्तानी क्षेत्र में अधिक मिलते हैं। जहाँ भूमि का कटाव हो रहा है, तथा जल बहाव अधिक है वहां भले ही अधिक वर्षा हो, ये ही वन पनपते हैं क्योंकि भौतिक रूप से वहां सूखे की स्थिति बनी रहती है। चम्बल जैसी नदियों के कंदरा क्षेत्र में भी ऐसे ही वन पनप पाते हैं।
कांटेदार वनों के भी कई उप प्रकार ज्ञात हैं। राजस्थान के मुख्य उप प्रकार निम्न हैं:
रेगिस्तानी कांटेदार वन (Desert Thorn Forest)
कंदरा क्षेत्र कांटेदार वन (Ravine Thorn Forest)
बेर के झाड़ीदार वन (Ziziphus scrub)
थूर झाड़ीदार वन (Tropical Euphorbia Forest)
कुमठा वन (Acacia senegal Forest)
पीलू वन (Salvadora Scrubs)
आंवल छाल झाड़ीदार क्षेत्र (Cassia auriculata scrubland)
कांटेदार वन मुख्य रूप से राजस्थान में अरावली के पश्चिम में पाली,सिरोही,जालोर, बाड़मेर, जैसलमेर, जोधपुर, सीकर, झुंझुनूं, चूरू, नागौर, बीकानेर, आदि जिलों में पाएं जाते हैं। इंदिरा गाँधी नहर की सिंचाई से गंगानगर एवं हनुमानगढ़ जिलों की परिस्थितियां काफी बदल गई हैं एवं वहां वनस्पति एवं वन प्रकारों में बदलाव हुआ है। कांटेदार वन क्षेत्र में सेवण घास के घास क्षेत्र (grassland) भी पाए जाये हैं। कांटेदार वन अजमेर, जयपुर, अलवर, धौलपुर, व अरावली के पूर्व में अन्य जिलों में भी जहाँ-तहाँ विधमान हैं।
रेगिस्तानी कांटेदार वन (फोटो: डॉ. धर्मेंद्र खांडल)
उपोष्ण चौड़ी पत्ती के पहाड़ी वन:
चौड़ी-पत्ती के पहाड़ी वनों का फैलाव राजस्थान में सबसे कम क्षेत्र में है। ये वन सिरोही जिलों में आबू पर्वत पर ऊपरी तरफ पाए जाते हैं। आबू पर्वत पर हिमालय एवं नीलगिरि के बीच में सबसे ऊँची छोटी गुरु शिखर भी विध्यमान है। यहाँ 1500 मिमी. तक वर्षमान है तथा ताप अपेक्षाकृत कम है जिसमें जहाँ अर्द्ध-सदाबहार वन अस्तित्व में आया है। यहाँ आम, जामुन, स्टर्कुलिया की कई प्रजातियां, करौंदा, फर्न, आर्किड आदि वनस्पतियां पायी जाती हैं। यहाँ जंगली गुलाब (Rosa involucrata) नमक प्रजाति भी पायी जाती है।
राजस्थान की वन सम्पदा बहुत ही अनुपम है ये वन न सिर्फ लोगों की अनेक प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष जरूरतों को तो पूर्ण करते ही है, साथ ही यहाँ की वन्य जैव विविधता को भी संरक्षित करते हैं अतः इन्हें संरक्षित करने की अत्यंत आवश्यकता है।
अरावली राजस्थान की मुख्य पर्वत शृंखला है जो छोटे और मध्य आकर के वृक्षों से आच्छादित है, इन वृक्षों में विविधता तो है परन्तु कुछ वृक्षों ने मानो पूरी अरावली में बहुतायत में मिलते है जिनमें सबसे महत्वपूर्ण वृक्षों का विवरण यहाँ दिया गया है।
धोक (Anogeissus pendula) :- यदि रेगिस्तान में खेजड़ी हैं तो, अरावली के क्षेत्र में धोक सबसे अधि० 8क संख्या में मिलने वाला वृक्ष हैं। कहते हैं लगभग 80 प्रतिशत अरावली इन्ही वृक्षों से ढकी हैं। अरावली का यह वृक्ष नहीं बल्कि उसके वस्त्र हैं जो समय के साथ उसका रंग बदलते रहते हैं। सर्दियों में इनकी पत्तिया ताम्बई लाल, गर्मियों में इनकी सुखी शाखाये धूसर और बारिश में पन्ने जैसे हरी दिखने लगती हैं। अरावली के वन्य जीवो के लिए यदि सबसे अधिक पौष्टिक चारा कोई पेड़ देता हैं तो वह यह हैं। इनके उत्तम चारे की गुणवत्ता के कारण लोग अक्सर इन्हे नुकसान भी पहुंचाते रहते हैं। इनकी कटाई होने के बाद इनका आकर एक बोन्साई के समान बन जाता हैं, एवं पुनः पेड़ बनना आसान नहीं होता क्योंकि अक्सर इन्हे बारम्बार कोई पालतू पशु चरते रहते हैं, और इनके बोन्साई आकार को बरकरार रखते हैं। यदि खेजड़ी राजस्थान का राज्य वृक्ष नहीं होता तो शायद धोक को यह दर्जा मिलता।
2. तेन्दुएवंविषतेन्दु (Diospyros Melanoxylon) and (Diospyros cordifolia) :- बीड़ी जलाईल ले … जिगर मा बड़ी आग है
बस हर साल इस जिगर की आग को बुझाने के लिए हम बीड़ी के रूप में 3 से 4 लाख टन तेंदू के पत्ते जला देते हैं। तेन्दु का उपयोग बीड़ी के उत्पादन के लिए किया जाता है। देश में इनका अत्यधिक उत्पादन होना , उम्दा स्वाद होना, पते का लचीलापन, काफी समय तक आसानी से नष्ट नहीं होना और आग को बनाए रखने की क्षमता के कारण तेन्दु की पतियों को बीड़ी बनाने के लिए काम लिया जाता है ।जाने कितने लोग बीड़ी बनाने और पते तोड़ने के व्यापर में शामिल है। स्थानीय समुदायों को यह जीवनयापन के लिए एक छोटी कमाई भी देता है। तेंदू चीकू (सपोटा) परिवार से संबंधित है और वे स्वाद में भी कमोबेश इसी तरह के होते है। तेन्दु या टिमरू के फल को खाने का सौभाग्य केवल भालु, स्थानीय समुदाय और वन रक्षको को ही मिलता है।तेंदू के पेड़ का एक और भाई है- जिसे विषतेन्दु (डायोस्पायरस कॉर्डिफोलिया) कहा जाता है, जिसके फल मनुष्यों के लिए खाने योग्य नहीं बल्कि बहुत ही कड़वे होते हैं, लेकिन कई जानवर जैसे कि सिवेट इन्हें नियमित रूप से खाते हैं।विष्तेन्दु वृक्ष एक छोटी हरी छतरी की तरह होता है और चूंकि यह पतझड़ी वन में एक सदाबहार पेड़ है, बाघों को इनके नीचे आराम करना बहुत पसंद है। आदित्य सिंह हमेशा कहते हैं कि अगर आप गर्मियों में बाघों को खोजना चाहते हैं तो विष्तेन्दु के पेड़ के निचे अवस्य खोज करें। मैंने बाघ के पर्यावास की एक तस्वीर साझा की और आपको आसानी से पता चल जाएगा कि बाघों के लिए सबसे अच्छा पेड़ कौन सा है और यह छोटा हरा छाता क्यों एक अच्छा बाघों का पसंदीदा स्थान होता है? आप तस्वीर में पेड़ अवस्य ढूंढे।
3. कडाया ( Sterculia urens ):-इसे स्थानीय रूप से कतीरा, कडाया (कतीरा या कडाया गोंद के लिए प्रसिद्ध) कहा जाता है, लेकिन सबसे लोकप्रिय नाम है ‘घोस्ट ट्री’ है क्योंकि जब वे अपने पत्तों को गिराते देते हैं तो इसके सफेद तने एक मानव आकृति का आभास देते हैं।मेरे वनस्पति विज्ञान के एक प्रोफेसर ने इसे एक प्रहरी वृक्ष के रूप में वर्णित किया है क्योंकि यह आमतौर पर पहाड़ो के किनारे उगने वाला यह पेड़, किलों की बाहरी दीवार पर खड़े प्रहरी (गार्ड) की तरह दिखता है।यह के पर्णपाती पेड़ है और सभी पर्णपाती पेड़ जल संसाधनों का उपयोग बहुत मितव्ययीता से करते है लेकिन इनके पत्तों का आकर विशाल होता है और उनके उत्पादन में कोई कमी नहीं होती। अरावली पहाड़ियों में कतीरा पेड़ के संभवतः सबसे बड़ा पत्ता होते है; उनकी पत्तियाँ बहुत नाज़ुक और पतली होती हैं और वे पूरे वर्ष के लिए कुछ महीनों में पर्याप्त भोजन बनाने में सक्षम भी होती हैं। यह पर्णपाती पेड़ों की एक रणनीति का हिस्सा है कि उनके पास हरे पेड़ों की तुलना में बड़े आकार के पत्ते हैं, जो यह सुनिश्चित करते है कि प्रकाश संश्लेषण की दर और प्रभावशीलता अपेक्षाकृत अधिक रहे ।कतीरा का विशिष्ट सफेद चमकता तना चिलचिलाती धूप को प्रतिबिंबित करदेता हैं और यह भी पानी के नुकसान को कम करने के लिए एक और अनुकूलन है। अधिकांश पर्णपाती पेड़ो पर फूलो की उत्पती उस समय होती है जब वे सरे पत्ते झाड़ा देते है, उस समय के दौरान परागण की संभावना बढ़ जाती है । घनी पत्तियां से होने वाली रुकावटों के कारण परागण में बाधा होती हैं I कुछ मकड़ियों ने पश्चिमी घाट में कीड़ों का शिकार करने के लिए अपने आप को इस पेड़ के साथ अनुकूलित किया है। कतीरा के पेड़ पर कुछ मकड़ियों को आसानी से देखा जा सकता है जैसे कि फूलों पर प्यूसेटिया विरिडान और उनकी तने पर पर हर्नेनिया मल्टीफंक्टा।मानव आवासों के नजदीक, हम तेजी से उन्हें विदेशी सदाबहार पेड़ पौधे लगा रहे है जो जैव विविधता के साथ जल संरक्षण के लिए भी हानिकारक है I
4. गुरजण ( Lannea coromandelica ):-वृक्ष पक्षीयो के बड़े समूहों के लिए पसंदीदा बसेरा है, पत्तों से लदे वृक्ष के बजाय पक्षी इस पर्ण रहित पेड़ की शाखाओं पर बैठना अधिक पसंद करते हैं, जहां से वह अपने शिकारियों पर निगरानी रख सके उत्तर भारत के सूखे मौसम में गुरजण में वर्षा ऋतू के कुछ दिनों बाद ही पते झड़ने लगते हैI यह पुरे वर्ष में आठ माह बिना पत्तियों के गुजरता है। इसकी प्रजाति का नाम कोरोमंडलिका है जो कोरामंडल (चोला मंडल साम्राज्य) से आया हैI यह जंगलो में स्थित प्राचीन भवनो और इमारतों में उगना पसंद करते हैं I
5. कठफडी ( Ficus mollis ):- एक सदाभारी पेड़ हैं, जो पत्थरो और खड़ी चट्टानों को पसंद करता हैं। इनकी लम्बी जड़े चट्टानों को जकड़े रखती हैंजो अरावली और विंध्य पहाड़ियों की सुंदरता को बढ़ाती हैं। इसीलिए इस तरह के पेड़ो को लिथोफिटिक कहते हैं। यह बाज और अन्य शिकारी पक्षियों को ऊंचाई पर घोसले बनाने लायक सुरक्षित स्थान प्रदान करता हैं। स्थानीय लोग मानते हैं यदि इसके पत्ते भैंस को खिलाया जाये तो उसका दुग्ध उत्पादन बढ़ जाता हैं।
6. ढाक / छिला / पलाश ( Butea monosperma ):- दोपहर की राग भीम पलाशी हो या अंग्रेजो के साथ हुआ बंगाल का प्रसिद्ध पलाशी का युद्ध इन सबका सीधा सम्बन्ध सीधा सम्बन्ध इस पेड़ से रहा हैं- जिसे स्थानीय भाषा में पलाश कहते हैं ।जब इनके पुष्प एक साथ इन पेड़ो पर आते हैं, तो लगता हैं मानो जंगल में आग लग गयी हो अतः इन्हे फ्लेम ऑफ़ थे फारेस्ट भी कहते हैं। इनके चौड़े पत्ते थोड़े बहुत सागवान से मिलते हैं अतः ब्रिटिश ऑफिसर्स ने नाम दिया ‘बास्टर्ड टीक ‘ जो इस शानदार पेड़ के लिए एक बेहूदा नाम हैं। वनो के नजदीक रहनेवाले लोग अपने पशुओ के लिए इनसे अपने झोंपड़े भी बना लेते हैं।
7. झाड़ी ( Ziziphus nummularia ) :-सिक्को के समान गोल-गोल पत्ते होने के कारण झाड़ी को वैज्ञानिक नाम Ziziphus nummularia हैं। यद्पि यह राजस्थान में झड़ी नाम से ही प्रसिद्ध है।एक से दो मीटर ऊंचाई तक की यह कटीली झाडिया बकरी, भेड़ आदि के लिए उपयोगी चारा उपलब्ध कराता हैं। लोग इनके ऊपरी भाग को काट लेते हैं एवं सूखने पर पत्तो को चारे के लिए अलग एवं कंटीली शाखाओ को अलग करके उन्हें बाड़ बनाने काम लिया जाता हैं। झाड़ियों में लोमड़िया, सियार, भालू, पक्षी आदि के लिए स्वादिष्ट फल लगते हैं एवं इनकी गहरी जड़ो से स्थिर हुई मिटटी के निचे कई प्राणी अपनी मांद बनाके रहते हैं। बच्चे भी इनके फल के लिए हमेशा लालायित रहते हैं।
राजस्थान को मुख्यतया दो भागों में बांटा जा सकता हैं – मरुस्थलीय हिस्सा एवं अरावली अथवा विंध्य पहाड़ियों से घिरा भूभाग। मरुस्थल में पौधों के जीवन में अत्यंत विविधता हैं परन्तु यदि सामान्य तौर पर देखे तो कुछ पेड़ और झाड़ियां हर प्रकार के जीवन को प्रभावित करता रहा हैं। यहाँ आपके लिए इनके बारे में एक संक्षिप्त विवरण प्रस्तुत हैं…
1.Khejri (Prosopis cineraria)–
खेजड़ी को राजस्थान के राज्य वृक्ष का दर्जा हासिल हैं। ईस्वी 1730 में, खेजड़ी वृक्षों को बचाने के लिए 363 आम लोगो ने एक साधारण महिला अमृता देवी के नेतृत्व में जोधपुर के पास एक छोटे से गांव खेजड़ली में प्राणोत्सर्ग किये थे। यह त्याग पेड़ों को बचाने की अनूठी मुहीम का आधार बना , जिसे नाम दिया गया चिपको आंदोलन। तपते रेगिस्तान में उगने वाला यह वृक्ष सही मानो में स्थानीय लोगो के लिए एक कल्पवृक्ष है, जो उनकी, उनके पशुओ एवं वन्य जीवो की अनेको जरूरतों को पूरा करता है। स्थानीय लोग मानते है, की इस वृक्ष की छाया में निचे खेतों में अनाज भी अच्छा पैदा होता है अतः रेगिस्तान में लोग इनके बड़े पेड़ों को भी खेतों में रहने देते है, शायद भारत में कोई दूसरा वृक्ष नहीं है, जिनके निचे कोई फसल अधिक अच्छी होती हो। इसकी कई इंच मोती छाल में अनेको प्रकार के कीट अदि रहते है, जिन्हे एक पक्षी – Indian Spotted Creeper बड़े चाव से खाती है। गिलहरी की तरह फुदकती यह चिड़िया अक्सर इन्ही खेजड़ी के पेड़ो पर ही मिलती है। यदि राजस्थान के रेगिस्तान वाले इलाके में देखे तो यह सबसे अधिक मिलने वाला वृक्ष है।
2. Rohida (Tecomella undulata)-
मारवाड़ में रोहिड़ा की लकड़ी को सागवान का दर्जा दिया जाता हैं। इन पर आसानी से न तो कीड़ा लगता हैं, और साथ ही इन पर खुदाई का अच्छा काम भी हो सकता हैं। रोहेड़ा के फूलों की रंगत से तो सूखा राजस्थान जैसे रंगो की होली खेलने लगता हैं। रोहिड़ा को तीन अलग अलग रंग में फूल आते हैं – गहरा लाल, केसरिया और मन को मोहित करने वाला पीला। अनेक पक्षियों की प्रजातिया इनसे मकरंद प्राप्त करती हैं और साथ ही इनके परगकण को अन्य पेड़ों तक ले जाती हैं। राजस्थान में इनके फूलों को राज्य पुष्प का दर्जा दिया गया। आम लोग खेजड़ी के बाद इस पेड़ को बड़े सम्मान के साथ देखते हैं एवं अपने खेतों में लगाते हैं।
3. Jaal/ Pilu (Salvadora sp.)–
भारत में दो सल्वाडोरा प्रजातियाँ हैं – ओलियोइड्स ( मीठी जाल ) और पर्सिका (खारी जाल)। ये दोनों पेड़ रेगिस्तान के मुश्किल वातावरण में रहने के लिए अनोखी अनुकूलनता लिए हुए है, क्योंकि उच्च लवणता सहिष्णुता क्षमता रखते है। ये सबसे अच्छे आश्रय प्रदान करने वाले पेड़ हैं, जो कई रेगिस्तानी जंगली प्राणियों को आश्रय तो देता ही है, पर साथ ही यह भोजन भी प्रदान करते हैं। क्योंकि ये हमेशा सूखे और गर्म मौसम में भी हरे-भरे रहते हैंI लगभग एक सदी पहले एक ब्रिटिश अधिकारी माइकल मैकऑलिफेन (जिन्होंने बाद में सिख धर्म को अपना लिया) ने कई सिख धर्म ग्रंथो को अंग्रेजी में अनुवाद किया, उन्होंने उल्लेख किया कि गुरु नानकजी ने अपने जीवन के उत्तरार्ध को सल्वाडोरा ओलियोइड्स पेड़ के नीचे बिताया। खारे एवं गर्म क्षेत्र में वर्ष भर हरा रहना बहुत कठिन है, इसके पीछे है इस पेड़ के खारापन की उच्च सांद्रता है। इसी कारण यह आसानी से नमकीन मिट्टी से पानी को प्राप्त कर सकते हैं। पानी लवणता की कमी वाली मिटटी से अधिक लवणता की और परासरण की प्रक्रिया से बढ़ता हैी सामान्य पेड़ की जड़ो में भी थोड़ी लवणता होती है एवं पानी को लेती रहती है परन्तु खारी मिटटी से पानी निकलने के लिए, उस से भी अधिक लवणता होनी चाहिए I साथ ही इनकी मोटी पत्तियों भी पानी को जमा करने के लिए अनुकूलित है। इनके पानी से भरे नरम फल सभी प्रकार के पक्षियों को लुभाते है।
4. कुमठा (Senegalia senegal / Acacia senegal) –
एक छोटे आकर का पेड़ हैं जो स्थिर धोरो या छोटी पथरीली पहड़ियों पर मिलता हैं।इनके बीजो को रेगिस्तानी क्षेत्र के चूहे पसंद करते हैं एवं आस पास मिलने वाले कीट अनेक विशेष पक्षियों को अपनी और आकर्षित करते हैं – जिनमे मार्शल आयोरा, व्हाईट नेप्पेडटिट, व्हाईट बेलिड मिनिविट आदि शामिल हैं। कुमठा के बीज को राजस्थान की एक खास सब्जी जिसे ‘पंचमेल सब्जी’ कहते हैं ‘पंचमेल सब्जी’ का एक मुख्य घटक भी हैं।
5. Kair (Capparis decidua)-
रेगिस्तान के घरो में छाछ के पानी में डाले हुए कच्चे कैर के फल एक आम बात होती हैं, जो उसके आचार बनाने की प्रक्रिया का महत्वपूर्ण हिस्सा है। कैर रेगिस्तानी इलाकों में मिलने वाली एक झड़ी हैं जिसके अतयंत खूबसूरत फूल आते हैं, डालिया पूरी तरह फूलो से लड़ी रहती हैं और इनपर अनेक प्रकार के कीट और पक्षी अपना आहार पाते हैं। इन झाड़ियों के अंदर कई तरह के बड़े पेड़ अपने जीवन के सबसे आरम्भिक समय में छुपे रहते हैं और शाकाहारी जीवो से बच पाते हैं। यह पेड़ यदि खुले में होते तो शायद अपने आप को बचा नहीं पाते। कई प्रकार के जीव इन भरी झाड़ियों के निचे अपने बिल अथवा मांद बनाके रहते हैं, ताकि वह तेज धूप एवं अन्य शिकारियों से बच सके।
6. Phog (Calligonum polygonoides)-
एक झाड़ी जो राजस्थान के थार से तेजी से विलुपत होरही हैं उसका नाम हैं- फोग। गहरी जड़ो पर आधारित इस झाड़ी को नव युग के कृषि संसाधन- ट्रेक्टरो ने मानो जड़ो से उखाड कर फेंक दिया। जो ट्रैक्टरों से बच गए उन्हें भट्टियों में डाल कर अत्यंत ऊर्जा देने वाले ईंधन के रूप में उपयोग लेलिया गया। बीकानेर, जैसलमेर आदि शहरो में आज भी इनको बाजारों में बेचते हुए देखा जासकता है। सूखे फूलो को दही के साथ मिला कर गुलाबी रंग का रायता बनाया जाता हैं।
स्थानीय वनस्पतिक समुदाय में सीमित प्रजातियों की संख्या के कारण शुष्क एवं अर्द्ध-शुष्क प्रदेश किसी भी बाह्य आक्रामक प्रजाति को पारिस्थितिक रूप से संसाधनों के लिए मजबूत प्रतिस्पर्धा नहीं दे पाते । परिणामस्वरूप ये आवास किसी भी बाह्य प्रजाति के अतिक्रमण के लिए वर्षा वनों की तुलना में अधिक असुरक्षित होते है I
भारत का अधिकांश भू-भाग शुष्क व अर्ध शुष्क घास के मैदान, मरुस्थल, बीहड़, व पर्णपाती वनों से आच्छांदित है। इन सभी आवासों की एक खास बात यह है की ये कभी वर्ष भर हरियाली से ढके नहीं रहते है । इन आवासों में हरियाली व सघन वनस्पति का विस्तार मॉनसून की अवधि व मात्रा पर निर्भर करता है तथा ऋतुओं के साथ बदलता रहता है। इसी कारण देश के भौगोलिक हिस्से का बहुत बड़ा भाग वर्ष भर हरियाली से ढका नहीं रहता है । ऋतुओं के साथ वनस्पतिक समुदाय में आने वाले यह बदलाव प्राकृतिक चक्र का हिस्सा है तथा उपरोक्त भौगोलिक क्षेत्रों के निवासियों एवं जीवों के जीवनयापन के लिये जरूरी है।
शुष्क व अर्ध शुष्क आवासों के इसी चक्रिय बदलाव को समझने में असफल रहे औपनिवेशिक पर्यावरण वैज्ञानिकों ने इन आवासों को बंजर भूमि के तौर पर चिह्नित किया तथा बड़े स्तर पर वृक्षारोपण कर इन्हें जंगलों में बदलने को प्रेरित किया गया। यह शुष्क व अर्ध शुष्क घास के मैदान वास्तव में बंजर भूमि नहीं परंतु उपयोगी एवं महत्वपूर्ण पारिस्थितिकी तंत्र है। उपजाऊ घास के मैदानों एवं मरुस्थल को बंजर भूमि समझना वास्तव में औपनिवेशिक विचारधारा व उनकी वानिकी केन्द्रित पद्धत्तियों से ही प्रभावित रहा है। इसका मुख्य कारण औपनिवेशिक ताकतों का शीतोष्ण पर्यावरण से संबंध रखना भी है, जहाँ घास के मैदान व घने जंगल वर्ष भर हरे बने रहते है जबकि भारत मुख्यतः उष्णकटिबंधीय जलवायु क्षेत्र में आता है।
प्राकृतिक रूप से खुले पाये जाने वाले शुष्क व अर्ध शुष्क घास के मैदानों को अनियंत्रित वृक्षारोपण द्वारा घने जंगलों में बदलने के प्रयास कालान्तर में यहाँ के जन-जीवन व वन्यजीवों के लिए निश्चित ही प्रतिकूल परिणाम सामने लाये है। इन प्रतिकूल परिणामों का सबसे बड़ा उदाहरण विलायती बबूल के रूप में देखने को मिलता है। विलायती बबूल को राजस्थान की स्थानीय भाषाओं में बावलियाँ, कीकर, कीकरियों, या दाखड़ी बबूल के नाम से भी जाना जाता हैं जो की मेक्सिको, उत्तरी अमेरिका का एक स्थानीय पेड़ है।
औपनिवेशिक भारत में इसे सबसे पहले वर्ष 1876 में आंध्र प्रदेश के कडप्पा क्षेत्र में लाया गया था। थार मरुस्थल में इसका सबसे पहले आगमन वर्ष 1877 में सिंध प्रदेश से ज्ञात होता है। वर्ष 1913 में जोधपुर रियासत के तत्कालीन महाराज ने विलायती बबूल को अपने शाही बाग में लगाया था। कम पानी में भी तेजी से वृद्धि करने व वर्ष भर हरा -भरा रहने के लक्षण से प्रभावित होकर रियासत के महाराज ने इसे साल 1940 में शाही-वृक्ष भी घोषित किया एवं जनता से इसकी रक्षा करने का आह्वान किया गया।
प्रोसोपिस जुलिफ्लोरा शुष्क परिस्थितियों में तेज़ी से वृद्धि करता है, तथा अन्य प्रजातियों को बढ़ने नहीं देता है। (फोटो: नीरव मेहता)
स्वतंत्र भारत में विलायती बबूल का व्यापक रूप से वृक्षारोपण स्थानीय समुदायों को आजीविका प्रदान करने, ईंधन की लकड़ी मुहैया करवाने, मरुस्थलीकरण (Desertification) को रोकने, और मिट्टी की बढ़ती लवणता से लड़ने के लिए 1960-1961 के दौरान शुष्क परिदृश्य के कई हिस्सों में किया गया। हालाँकि तात्कालिक वानिकी शोधकर्ताओं की बिरादरी में विलायती बबूल अपनी सूखे आवास में तेज वृद्धि की खूबियों के कारण उपरोक्त उद्देश्य के लिए सबसे पसंदीदा विकल्प था परन्तु स्थानीय लोगों में इसके दूरगामी प्रभाव को लेकर काफी चिंता भी ज्ञात होती है। स्थानीय लोगों का मानना था की ये प्रजाति भविष्य में अनियंत्रित खरपतवार बन कृषि भूमि एवं उत्पादन को नकारात्मक रूप से प्रभावित कर सकती है। इस प्रकार की काँटेदार झाड़ी का बड़े स्तर पर फैलना पालतू मवेशियों के साथ-साथ वन्य जीवों के लिए भी नुकसानदायक सिद्ध होगा। उस समय स्थानीय लोगों द्वारा जाहीर की गयी चिंता आज के वैज्ञानिक आंकड़ो से काफी मेल खाती हैं। पिछले कुछ दशकों में विलायती बबूल ने संरक्षित व असंरक्षित प्राकृतिक आवासों के एक बड़े हिस्सों पर अतिक्रमण कर लिया है। धीरे-धीरे यह प्रजाति हरियाणा, पंजाब, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र और तमिलनाडु सहित देश के कई हिस्सों में फैल चुकी है।
विलयाती बबूल की घनी झाड़ियों में फसा प्रवासी short eared owl . घायल उल्लू को बाद में रेस्क्यू किया गया। ( फोटो: श्री चेतन मिश्र)
विलायती बबूल का वैज्ञानिक नाम प्रोसोपिस जुलिफ्लोरा (Prosopis juliflora) है जो वनस्पति जगत के कुल फैबेसी (Fabaceae) से संबंध रखता है। फैबेसी परिवार में मुख्यतः फलीदार पेड़-पौधे आते है, जो की अपनी जड़ो में नाइट्रोजन स्थिरीकरण में सहायक राइजोबियम जीवाणुओ की उपस्थिती के कारण जाने जाते है। हालाँकि विलायती बबूल का सबसे करीबी स्थानीय रिश्तेदार हमारा राज्य वृक्ष खेजड़ी (प्रोसोपिस सिनेरेरिया) है, परंतु इन दोनों की आकारिकी एवं शारीरीकी में असमानता के कारण इनका स्थानीय वनस्पतिक समुदाय एवं मिट्टी पर प्रभाव एक दूसरे से बिल्कुल अलग है।
दोनों प्रजातियों के तुलनात्मक शोध से ज्ञात होता है की विलायती बबूल की जड़ों से निकलने वाले रासायनिक तत्वों की संरचना व मात्रा खेजड़ी से निकलने वाले रासायनिक तत्वों से काफी अलग होती है। परिणामस्वरूप दोनों का स्थानीय वानस्पतिक समुदाय एवं मिट्टी पर प्रभाव भी अलग होता है। विलायती बबूल की जड़ो द्वारा अत्यधिक मात्रा में फोस्फोरस, घुलनशील लवण, एवं फीनोलिक रसायन का स्रावण होता है जो की आस-पास उगने वाले अन्य पौधों को नष्ट कर देता है। पौधों के इस प्रभाव को विज्ञान की भाषा में एलीलोपैथी प्रभाव कहते है, जिसके अंतर्गत किसी भी पौधे द्वारा स्रावित रासायनिक पदार्थ उसके समीप उगने वाले अन्य पौधों की वृद्धि को संदमित कर उन्हें नष्ट कर देते हैं। विलायती बबूल का यह प्रभाव स्थानीय फसलों जैसे ज्वार व सरसों पर भी देखा गया है जो की खेजड़ी से बिलकुल विपरीत है। खेजड़ी का वृक्ष नाइट्रोजन स्थिरीकरण कर अपने नीचे लगने वाली फसलों की वृद्धि को बढ़ावा देता है जिसका ज्ञान स्थानीय किसानों को सदियों से विरासत में मिला है। विलायती बबूल की जड़ो से स्रावित रसायन के साथ-साथ इसके झड़ते पत्तों के ढेर भी मिट्टी की रासायनिक संरचना में परिवर्तन करते हैं, जो की स्थानीय वनस्पति प्रजातियों को नष्ट कर अन्य खरपतवार पौधों की संख्या में बढ़ोतरी में सहायक है। विलायती बबूल की जड़े अत्यधिक गहरी होती है जो अकसर भू-जल तक पहुँच जाती है। घनी संख्या में लगे विलायती बबूल अपनी तेज वाष्पोत्सर्जन दर जो की स्थानीय प्रजातियों से कई अधिक होती है के कारण भू-जल स्तर बढ़ाते है परिणामस्वरूप एक गहराई के बाद मिट्टी की लवणता में वृद्धि होती है।
प्रोसोपिस जुलिफ्लोरा की मीठी फलियों को शाकाहारी वन्यजीव और मवेशी खाते हैं तथा इनके गोबर के साथ इसके बीज सभी तरफ फ़ैल जाते हैंI (फोटो: श्रीमती दिव्या खांडल)
विलायती बबूल का अनियंत्रित फैलाव न केवल वनस्पति समुदाय को बल्कि विभिन्न वन्य जीवों को भी अलग-अलग प्रकार से प्रभावित करता है। विलायती बबूल का खुले घास के मैदानों में अतिक्रमण इन आवासों को घनी झाड़ियो युक्त आवास में बदल देता है जो की घास के मैदानों के लिए अनुकूलित किन्तु संकटग्रस्त वन्यजीवों जैसे की गोडावन, कृष्ण मृग, मरू-लोमड़ी, खड़-मौर, इत्यादि के लिए अनुपयुक्त होता है। उपयुक्त आवास में कमी का सीधा परिणाम इन संकटग्रस्त प्रजातियों की घटती संख्या के रूप में देखा जा सकता है। विलायती बबूल का चरागाहों पर बढ़ता अतिक्रमण घास की उत्पादकता में भी कमी लाता है जिसका प्रभाव मवेशियों के साथ-साथ जंगली शाकाहारी जीवों जैसे चिंकारा, कृष्ण मृग इत्यादि पर भी पड़ता है जो इन आवासों के मुख्य निवासी हैं।
प्रकृति में उंगुलेट्स, जूलीफ्लोरा के बीज प्रकीर्णन में एक मुख्य कारक की भूमिका निभाते हैं। (फोटो: श्रीमती दिव्या खांडल)
हालांकि विलायती बबूल का प्रकोप राजस्थान के सभी जिलों में कमोबेश देखने को मिलता है परंतु पश्चिमी राजस्थान के जोधपुर, बीकानेर, जैसलमेर, एवं बाड़मेर क्षेत्र के घास के मैदानों में इनका व्यापक वितरण एक बहुत बड़ी समस्या है । अजमेर जिले के सोंखलिया घास के मैदान खड़-मौर (लेसर फ्लोरिकन) के कुछ अंतिम बचे मुख्य आवासों में से एक है । खड़-मौर एक दुर्लभ घास के मैदानों को पसंद करने वाला पक्षी है जो की अपने आवास में विलायती बबूल के बड़ते अतिक्रमण के कारण खतरे का सामना कर रहा है । प्रवासी पक्षियों की विविधता के लिए विश्व प्रसिद्ध भरतपुर का कैलादेव राष्ट्रीय पक्षी अभ्यारण इसी विलायती बबूल के अतिक्रमण कारण कई शिकारी पक्षियों की घटती संख्या का सामना कर रहा है। अभ्यारण में पक्षियों की घटती आबादी को रोकने के लिए विलायती बबूल का कठोर निस्तारण बहुत ही जरूरी बताया गया है।
विलायती बबूल स्थानीय वृक्ष जैसे की देसी बबूल, रोहिडा, व खेजड़ी को पनपने से रोकता है जो की अनेक स्थानीय पक्षी प्रजातियों को घोंसला बनाने के लिए सुरक्षित सतह मुहैया करवाते है। विलायती बबूल व देसी बबूल पर बने कुल पक्षियों के घोंसलो के एक तुलनात्मक अध्ययन में देखा गया की विलायती बबूल से गिरकर नष्ट होने वाले अंडे व चूज़ो की संख्या देसी बबूल की तुलना में दो गुना से भी अधिक है। इसका मुख्य कारण विलायती बबूल की कमजोर शाखाओं द्वारा घोंसले के लिए मजबूत आधार प्रदान नहीं कर पाना है जो की पक्षियों की आबादी को नकारात्मक रूप से प्रभावित करता है। गुजरात के कच्छ जिले में स्थित बन्नी घास के मैदान जो कभी एशिया के सबसे बड़े उष्णकटिबंधीय घास के मैदानों में से एक हुआ करता था, विलायती बबूल के बढ़ते अतिक्रमण ने 70 फीसदी से भी अधिक घांस के मैदानों को अपनी जद में ले लिया है, जिसका प्रभाव वह के वन्यजीवों के साथ-साथ चरवाहों की आजीविका पर भी पड़ा है।
सियार प्रोसोपिस से आच्छांदित क्षेत्र में रहने के लिए पूर्णरूप से ढले हुए हैं (फोटो: श्री चेतन मिश्र)
स्थानीय वनस्पतिक समुदाय में सीमित प्रजातियों की संख्या के कारण शुष्क एवं अर्द्ध-शुष्क प्रदेश किसी भी बाह्य आक्रामक प्रजाति को पारिस्थितिक रूप से संसाधनों के लिए मजबूत प्रतिस्पर्धा नहीं दे पाते। परिणामस्वरूप ये आवास किसी भी बाह्य प्रजाति के अतिक्रमण के लिए वर्षा वनों की तुलना में अधिक असुरक्षित होते है। इसी कारण विलायती बबूल विश्व भर के शुष्क व अर्द्ध शुष्क प्रदेशों में एक मुख्य आक्रामक प्रजाति है जिनमें अफ्रीकी महाद्वीप, ब्राज़ील, ऑस्ट्रेलिया, सयुंक्त अरब अमीरात, ईरान, इराक, इस्राइल, जॉर्डन, ओमान, ताइवान, चीन, स्पेन जैसे देश शामिल है।
बदलते जलवायु के समय में जैव-विविधता के संरक्षण के लिए विलायती बबूल जैसी आक्रामक प्रजातियों से निजात पाना एक महत्वपूर्ण कार्य है। इसी के साथ भविष्य में इस तरह की नयी प्रजातियों से सामना न हो ये सुनिश्चित करना भी आवश्यक है। इस दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम घास के मैदानों से बंजर भूमि का पहचान हटाकर उन्हें वर्षा वनों के समान ही एक उपयोगी एवं आवश्यक पारिस्थितिकी तंत्र के रूप में पहचान दिलाकर बढ़ाया जा सकता है। यह घास के मैदानों के साथ-साथ यहाँ पाये जाने वाले दुर्लभ जीवों के संरक्षण को मजबूती देगा। वन्यजीव संरक्षण प्राथमिकता वाले क्षेत्रों से विलायती बबूल का सम्पूर्ण उन्मूलन ही एक मात्र उपाय है।
राजस्थान के शुष्क वातावरण में पाए जाने वाला वृक्ष “इंद्रधौक” जो राज्य के बहुत ही सिमित वन क्षेत्रों में पाया जाता है, जंगली सिल्क के कीट के जीवन चक्र में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है…
राजस्थान जैसे शुष्क राज्य के वनस्पतिक संसार में वंश एनोगिसस (Genus Anogeissus) का एक बहुत बड़ा महत्व है, क्योंकि इसकी सभी प्रजातियां शुष्क और अर्ध-शुष्क क्षेत्रों में मजबूत लकड़ी, ईंधन, पशुओं के लिए चारा तथा विभिन्न प्रकार के औषधीय पदार्थ उपलब्ध करवाती हैं। जीनस एनोगिसस, वनस्पतिक जगत के कॉम्ब्रीटेसी कुल (Family Combretaceae) का सदस्य है, तथा भारत में यह मुख्य रूप से समूह 5- उष्णकटिबंधीय शुष्क पर्णपाती वन का एक घटक है। यह वंश पांच महत्वपूर्ण बहुउद्देशीय प्रजातियों का एक समूह है, जिनके नाम हैं Anogeissus acuminata, Anogeissus pendula, Anogeissus latifolia, Anogeissus sericea var. sericea and Anogeissus sericea var. nummularia। दक्षिणी राजस्थान में उदयपुर शहर राज्य का एकमात्र ऐसा स्थान है जहाँ सभी पाँच प्रजातियों व् उप प्रजातियों को एक साथ देखा जा सकता है। सज्जनगढ़ अभयारण्य राज्य का एकमात्र अभयारण्य है जहाँ Anogeissus sericea var. nummularia को छोड़कर शेष चार प्रजातियों व् उप-प्रजातियों को एक साथ देखा जा सकता है।
Anogeissus sericea var. sericea, इस जीनस की एक महत्वपूर्ण प्रजाति है जिसे सामान्य भाषा में “इंद्रधौक” भी कहा जाता है। इसे Anogeissus rotundifolia के नाम से अलग स्पीशीज का दर्जा भी दिया गया है, यदपि सभी वनस्पति विशेषज्ञ अभी तक पूर्णतया सहमत नहीं है। इस प्रजाति के वृक्ष 15 मीटर से अधिक लम्बे होने के कारण यह राज्य में पायी जाने वाली धौक की सभी प्रजातियों से लम्बी बढ़ने वाली प्रजाति है। यह एक सदाबहार प्रजाति है जिसके कारण यह उच्च वर्षमान व् मिट्टी की मोटी सतह वाले क्षेत्रों में ही पायी जाती है। परन्तु राज्य में इसका बहुत ही सिमित वितरण है तथा सर्वश्रेष्ठ नमूने फुलवारी वन्यजीव अभयारण्य और उसके आसपास देखे जा सकते हैं। राजस्थान जैसे शुष्क राज्य के लिए यह बहुत ही विशेष वृक्ष है। गर्मियों के मौसम में मवेशियों में लिए चारे की कमी होने के कारण लोग इसकी टहनियों को काट कर चारा प्राप्त करते हैं, तथा इसकी पत्तियां मवेशियों के लिए एक बहुत ही पोषक चारा होती हैं। काटे जाने के बाद इसकी टहनियाँ और अच्छे से फूट कर पहले से भी घनी हो जाती हैं तथा पूरा वृक्ष बहुत ही घाना हो जाता है। इसकी पत्तियों पर छोटे-छोटे रोए होते है जो पानी की कमी के मौसम में पानी के खर्च को बचाते हैं।
Anogeissus sericea var. sericea (Photo: Dr. Dharmendra Khandal)
वर्षा ऋतू में कभी-कभी इसकी पत्तियाँ आधी खायी हुयी सी दिखती हैं क्योंकि जंगली सिल्क का कीट इसपर अपने अंडे देते हैं तथा उसके कैटेरपिल्लर इसकी पत्तियों को खाते हैं। जीवन चक्र के अगले चरण में अक्टूबर माह तक वाइल्ड सिल्क के ककून बनने लगते हैं तो आसानी से 1.5 इंच लम्बे व् 1 इंच चौड़े ककूनों को वृक्ष पर लटके हुए देखा जा सकता है तथा कभी-कभी ये ककून फल जैसे भी प्रतीत होते है। यह ककून पूरी सर्दियों में ज्यो-के-त्यों लटके रहते हैं तथा अगली गर्मी के बाद जब फिर से वर्षा होगी तब व्यस्क शलम (moth) बन कर बाहर निकल जाते हैं। ककून बन कर लटके रहना इस शलम का जीवित रहने का तरीका है जिसमे इंद्रधोक एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। साथ ही इस प्रजाति के वृक्ष गोंद बनाते है जिनका विभिन्न प्रकार की दवाइयां बनाने में इस्तेमाल होता है। इसकी लकड़ी बहुत ही मजबूत होने के कारण खेती-बाड़ी के उपकरण बनाने के लिए उपयोग में ली जाती है।
राजस्थान में इंद्रधौक का वितरण
राजस्थान में इंद्रधौक का वितरण बहुत ही सिमित है तथा ज्ञात स्थानों को नीचे सूची में दिया गया है:
क्रमांक
जिला
स्थान
संदर्भ
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उदयपुर
सज्जनगढ़ वन्यजीव अभयारण्य, फुलवारी वन्यजीव अभयारण्य
ऊपर दी गयी तालिका से यह स्पष्ट है कि Anogeissus sericea var. sericea अब तक केवल राजस्थान के सात जिलों में ही पायी गयी है। इसकी अधिकतम सघनता माउंट आबू और उदयपुर जिले की चार तहसीलों गोगुन्दा, कोटरा, झाड़ोल एवं गिर्वा तक सीमित है। चूंकि यह प्रजाति बहुत ही प्रतिबंधित क्षेत्र में मौजूद है और वृक्षों की संख्या भी बहुत ज्यादा नहीं है इसलिए इस प्रजाति को संरक्षित किया जाना चाहिए। वन विभाग को इस प्रजाति के पौधे पौधशालाओं में उगाने चाहिए और उन्हें वन क्षेत्रों में लगाया जाना चाहिए। ताकि राजस्थान में इस प्रजाति को संरक्षित किया जा सके।
संदर्भ:
Cover photo credit : Dr. Dharmendra Khandal
Aftab, G., F. Banu and S.K. Sharma (2016): Status and distribution of various species of Genus Anogeissus in protected areas of southern Rajasthan, India. International Journal of Current Research, 8 (3): 27228-27230.
Sharma, S.K. (2007): Study of Biodiversity and ethnobiology of Phulwari Wildlife Sanctuary, Udaipur (Rajasthan). Ph. D. Thesis, MLSU, Udaipur
Shetty, B.V. & V. Singh (1987): Flora of Rajasthan, vol. I, BSI.