राजस्थान में विशाल आकार के वृक्ष, झाडियां एवं काष्ठ लतायेंः एक विवेचन

राजस्थान में विशाल आकार के वृक्ष, झाडियां एवं काष्ठ लतायेंः एक विवेचन

दुनियाँ में पक्षी अवलोकन (Bird watching or birding), साँप अवलोकन (Snake watching), वन्यजीव छायाचित्रण (Wildlife Photography),  वन भ्रमण (Jungle trekking), जंगल सफारी (Jungle safari), पर्वतारोहण (Mountaineering), ऊँचे स्थानों पर चढाई चढना (Hicking) आदि काफी लोकप्रिय हो रहे हैं। हाल के वर्षों में लोगों में वनों एवं अन्य प्राकृतिक स्थलों पर किसी प्रजाति विशेष के विशालतम आकार या अत्यधिक आयु वाले या किसी असामान्य बनावट वाले वृक्षों को देखने की रूची पनपने लगी है। लोग वनों में या अपने आस-पास के परिवेश में प्रजाति विशेष के बडे से बडे वृक्षों को ढूढने के प्रयासों से व्यस्त देखने को मिल जाते हैं। वृक्ष अवलोकन या निहारन लोगों की प्रिय रूची बनता जा रहा है। यह उसी तरह लोकप्रिय होने लगा है जैसे देश में जगह- जगह पक्षी निहारन या अवलोकन (Bird watching) लोक प्रिय हो रहा है। विशिष्ठ वृक्षों को ढूँढ -ढूँढ कर देखने की अभिरुची (Hobby) को वृक्ष निहारण या वृक्ष अवलोकन (Tree watching or tree spotting) कहा जाता है। भारत सरकार द्वारा 1994 से राष्ट्रीय स्तर पर महावृक्ष पुरस्कार देने का सिलसिला प्रारम्भ किया गया है। इस पुरस्कार हेतु प्रतिवर्ष भारत सरकार किन्हीं प्रजाति विशेष की घोषणा करती है तथा उन प्रजातियों के देश के सबसे विशालतम् वृक्षों की जानकारी देने वाली प्रवष्ठियाँ मांगी जाती हैं। एक नियत तिथी के बाद सभी प्रविष्ठियो की जाँच एक विशेषज्ञ कमेटी द्वारा की जाती है तथा प्रजाति विशेष के सबसे बडे वृक्ष की प्रविष्टि का सत्यापन होने पर उस वृक्ष को प्रजाति विशेष की श्रेणी में देश का “महावृक्ष” मानते हुऐ महावृक्ष घोषित कर दिया जाता है। भारत सरकार अभी तक सागवान, देवदार, नीम, यूकेलिप्टस, इमली, चम्पा, शीशम, अंगू, होलोंग, फलदू, बहेडा, आँवला, तून, सेमल, मौलसरी, महुआ, बेंखोर आदि को महावृक्ष घोषित कर चुकी है।

हाँलाकि राजस्थान मे भारत सरकार ने किसी प्रजाति के वृक्ष को महावृक्ष घोषित नहीं किया है लेकिन जगह-जगह विशाल आकार-प्रकार के वृक्ष, झाडिया एवं यहाँ तक की काष्ठ लताएं (Lianas) भी देखने को मिल जाती हैं। इस अध्ययन में इन्हीं विशाल प्रकार के वृक्षों, झाडियों व काष्ठ लताओं की जानकारी दी गई है।

राजस्थान राज्य के विशालतम आकार के विभिन्न प्रजातियों के वृक्षों, झाडियों एवं काष्ठ लताओं की जानकारी नीचे सारणी 1 में प्रस्तुत की गई हैं।

उपरोक्त सारणी में दर्ज वृक्ष, झाडी व काष्ठ लताऐं राजस्थान के संदर्भ में ज्ञात विशाल आकार-प्रकार के विशिष्ठ पौधे हैं। कडेच गाँव के बरगद का फैलाव लगभग 0.2 हैक्टेयर में है। इसी तरह कुण्डेश्वर महादेव पवित्र कुंज (Sacred grove) के बरगद का विस्तार 0.3 हैक्टेयर है जो मादडी गाँव में स्थित राज्य के सबसे बडे बरगद से काफी कम है। मादडी गाँव का बरगद 1.02 हैक्टेयर में फैला हुआ है। दोनों छोटे बरगदों को इसलीए शामिल किया गया है क्योंकि इनका छत्रक अच्छे आकार का है तथा ये दोनों बहुत सुन्दर भी हैं, खास कर कुण्डेश्वर महादेव क्षेत्र का बरगद बहुत ही सुन्दर एवं दर्शनीय है। इस बरगद के आस-पास का पवित्र कुंज साल भर देखने लायक रहता है तथा बडी संख्या में धार्मिक एवं पारिस्थितिक पर्यटन करने वाले लोग यहाँ पहुँचते हैं।

रामकुण्डा मंदिर क्षेत्र मे काँकण गाँव के रास्ते आवरीमाता होकर ‘‘हाला हल्दू” के पास से चलते हुए करूघाटी तक जाने में रामकुण्डा एवं लादन वन खण्डों का जंगल पार करना पडता है। यहाँ पहाडों की ऊँचाई पर राजस्थान राज्य का बाँस (Dendrocalamus strictus) का श्रेष्ठतम् वन विद्यमान है। संभवत इस क्षेत्र में जंगली केले (Ensete superbum) का घनत्व पश्चिमी घाट के वनों के समतुल्य या उसमे कुछ बेहतर है। स्थल गुणवत्ता (Site quality) का अन्दाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि यहाँ 24‘ ऊँचाई वाला बाँस दोहन किया जाता है तथा लगभग 873 मी. समुन्द्रतल से ऊँचाई पर भी पहाडों में हल्दू (Adina cordifolia) के वृक्षों की वृद्वी लगभग वैसी ही है जो की पहाडों की तलहटी में है। प्रसिद्व लैण्ड मार्क (Landmark) ‘‘हाला हल्दू’’ नामक हल्दू का वृक्ष इसका उदाहरण है जो इतनी ऊँचाई का पर भी विशाल आकार ग्रहण करने मे सफल रहा है।

सारणी 1: राजस्थान के कुछ विषाल आकार के वृक्ष, झाडियां एवं काष्ठ लताऐं
क्र.स.
स्थिती
जिला
प्रजाति
नाप संबंधित जानकारी (एवं स्वभाव)
सुरक्षा की स्थिती
1नांदेशमा गाँव, तहसील गोगुन्दाउदयपुरपलास (Butea monosperma)भूमि से निकलते ही दो शाखाओं में  विभाजित जिनका वक्ष ऊँचाई घेरा क्रमषः 2.82 एवं 1.19 मीटर (वृक्ष)सुरक्षित
2कडेच गाँव, तहसील गोगुन्दाउदयपुरबरगद (Ficus benghalensis)छत्रक फैलाव 50X42 मी., 27 प्रोप जडें(वृक्ष)सुरक्षित
3गुलाबबाग (चिडियाघर)उदयपुरमहोगनी (Swietenia mahagoni)वक्ष ऊँचाई घेरा 2.50 मी., ऊँचाई 12.0 मी. (वृक्ष)सुरक्षित
4गुलाबबाग (बच्चों का पार्क)उदयपुरमहोगनी (Swietenia mahagoni)वक्ष ऊँचाई घेरा 5.97 मी., ऊँचाई 15.0 मी. (वृक्ष)सुरक्षित
5गुलाबबाग (बच्चों का पार्क)उदयपुरमहोगनी (Swietenia mahagoni)वक्ष ऊँचाई घेरा 7.0 मी, ऊँचाई 15.0 मी.(वृक्ष)सुरक्षित
6कंडेश्वर र महादेव, तहसील गिर्वाउदयपुरबरगद (Ficus benghalensis)छत्रक फैलाव 60X60 मी.(वृक्ष)सुरक्षित
7भेरू जी कुंज, बरावली गाँव, तहसील गोगुन्दाउदयपुरमाल कांगणी (Celastrus paniculata)भूमि तल पर घेरा 0.75 मी., लंबाई 20.0 मी. (काष्ठ लता)सुरक्षित
8भेरू जी कुंज, बरावली गाँव, तहसील गोगुन्दाउदयपुरकैगर खैर (Acacia ferruginea)वक्ष ऊँचाई घेरा 1.80 मी., ऊँचाई 10.0 मी. (वृक्ष)सुरक्षित
9रामेश्वर धाम, काछबा तहसील गोगुन्दाउदयपुरजंगल जलेबी (Pithocellobium dulce)वक्ष ऊँचाई घेरा 3.21 मी., ऊँचाई 18.0 मी.सुरक्षित
10केकडिया खोह, केकडिया गाँव, तहसील माण्डलगढभीलवाडाजामुन (Syzygium cumini)वक्ष ऊँचाई घेरा 4.70 मी., ऊँचाई 10.0 मी. (वृक्ष)सुरक्षित
11झिर पौधशालाझालावाडपीपल (Ficus religiosa)वक्ष ऊँचाई घेरा 6.0 मी., ऊँचाई 12.0 मी.(वृक्ष)सुरक्षित
12इटावा गाँव, पंचायत समिती कोटडीभीलवाडापलास (Butea monosperma)सभी पतियाँ एक पर्णी (वृक्ष)सुरक्षित
13दही मता मंदिर के पास, दहीमाता गाँव, तहसील गिर्वाउदयपुरबहेडा (Terminalia bellirica)वक्ष ऊँचाई घेरा 6.30 मी., ऊँचाई 18.0 मी., बट्रेस 18 (वृक्ष)सुरक्षित
14श्री शंकर महाराज का खेत, मदारिया गाँव, करेडा- देवगढ रोडराजसमन्दबबूल (Acacia nilotica var. indica)वक्ष ऊँचाई घेरा 3.90 मी., ऊँचाई 12.0 मी. (वृक्ष)सुरक्षित
15काँकल (काकंण) गाँव, तहसील झाडोलउदयपुरसेमल (Bombex ceiba)वक्ष ऊँचाई घेरा 7.50 मी., ऊँचाई 25.0 मी. (वृक्ष)आंशिक सुरक्षित
16काँकल (काकंण) गाँव, तहसील झाडोलउदयपुरगूलर (Ficus recemosa)वक्ष ऊँचाई घेरा 8.40 मी., ऊँचाई 21.0 मी. (वृक्ष)आंशिक सुरक्षित
17रामकुण्डा वनखण्ड, क.न. 18 तथा लादन क.न. 11उदयपुरहल्दू (Adina cordifolia)वक्ष ऊँचाई घेरा 3.90 मी., ऊँचाई 25.0 मी. (वृक्ष)सुरक्षित
18लादन वनखण्ड मे करूघाटी से पहले पगडण्डी के पासउदयपुरपलास (Butea monosperma)वक्ष ऊँचाई घेरा 4.80 मी., ऊँचाई 20.0 मी. (वृक्ष)सुरक्षित
19दीपेश्वर महादेव प्रतापगढप्रतापगढकलम (Mitragyna parvifolia)वक्ष ऊँचाई घेरा 4.20 मी., ऊँचाई 15.0 मी. (वृक्ष)सुरक्षित
20पानगढ पुराना किला, (बिजयपुर रेंज)चित्तौडगढबडी गूगल (Commiphora agalocha)भूमि तल पर घेरा 1.05 मी., ऊँचाई 5.0 मी. (झाडी)सुरक्षित
21पानगढ तालाब की पाल (बिजयपुर रेंज)चित्तौडगढरायण (Manilkara hexandra)वक्ष ऊँचाई घेरा 5.0 मी., ऊँचाई 12.0 मी. (वृक्ष)सुरक्षित
22पानगढ तालाब की पाल (बिजयपुर रेंज)चित्तौडगढइमली (Tamarandus indica)वक्ष ऊँचाई घेरा 5.60 मी., ऊँचाई 12.0 मी. (वृक्ष)सुरक्षित
23गाँव भभाण, तह. माँण्डलभीलवाडापीलवान (Cocculus pendulus)काष्ठ लता, भूमि पर घेरा 0.95 मी. (काष्ठ लता)आंशिक सुरक्षित
24गाँव देवली (माँझी)कोटादखणी सहजना (Moringa concanensis)वक्ष ऊँचाई घेरा 3.14 मी., ऊँचाई 12.0 मी. (वृक्ष)आंशिक सुरक्षित
25आल गुवाल एनीकट, बाघ परीयोजना, सरिस्काअलवरगूलर (Ficus recemosa)वक्ष ऊँचाई घेरा 11.67 मी., ऊँचाई 18.0 मी. (वृक्ष)आंशिक सुरक्षित
26जूड की बड़ली (रीछेड गाँव के पास तहसील केलवाड़ा)उदयपुरबरगद (Ficus benghalensis)1.4 हैक्टेयर में फैलावसुरक्षित

सारणी 1 में दर्ज वृक्ष एवं काष्ठ लताऐं अपनी-अपनी प्रजाति के विशाल आकार प्रकार वाले वृक्ष हैं। ये राज्य की अद्भुत जैविक धरोहर भी हैं जिन्हें हमें जतनपूर्वक संरक्षित करना चाहिये। ये परिस्थितिकी पर्यटन को बढावा देकर स्थनीय जनता हेतु रोजगार के नये अवसर भी स्थापित कर सकते हैं।

विशाल आकार-प्रकार ग्रहण करने के लिए किसी भी पौधे को एक बडी आयु तक जीना पडता है। इस लेख में वर्णित पौधे बहुत बडी आयु तक संरक्षित रहे हैं तभी द्वितियक वृद्धी (Secondary growth) के कारण वे विशाल आकार ग्रहण कर पाये हैं। यह राज्य की एक अद्भुत जैविक विरासत है। हर वन मण्डल, रेंज एवं नाकों को अपने- अपने क्षेत्र में स्थिती इन विरासत वृक्षों की कटाई, आग, व दूसरे नकारात्मक कारकों से सुरक्षा करनी चाहिये। उचित प्रचार- प्रसार द्वारा जन-जन तक इन विरासत वृक्षों, झाडियों व काष्ठ लताओं की जानकारी पहुँचाई जानी चाहिये ताकी परिस्थितिकी पर्यटन को विस्तार दिया जा सके ताकि स्थानीय लोगों को रोजगार के अधिक अवसर मिल सकें।

कॉमन ट्री फ्रॉग का रहस्यमयी जीवन

कॉमन ट्री फ्रॉग का रहस्यमयी जीवन

सीतामाता अभयारण्य में पाए जाने वाला कॉमन ट्री फ्रॉग एक ऐसी मेंढक प्रजाति है जो अन्य मेंढकों की तरह पानी में नहीं बल्कि पेड़ पर रहना ज्यादा पसंद करती है। प्रस्तुत आलेख द्वारा जानिये इसके बारे में

चितोड़गढ़ और प्रतापगढ़ जिले में स्थित “सीतामाता वन्यजीव अभयारण्य” जैव विविधता के दृष्टिकोण से राजस्थान के सबसे समृद्ध अभयारण्यों में से एक है। इस अभयारण्य का क्षेत्रफल लगभग 422.94 वर्ग किमी है और यह अभयारण्य अरावली, विंध्य और मालवा पठार के संगम पर स्थित है, जो अपने बांस और सागौन वनों के लिए जाना जाता है।

सीतामाता अभयारण्य का पारिस्थितिक तंत्र कई दिलचस्प और दुर्लभ जीवों एवं वनस्पतिक प्रजातियों का प्रतिनिधित्व करता है। यह उभयचरों (Amphibians) में भी समृद्ध है। राजस्थान में टॉड और मेंढकों की सबसे ज्यादा प्रजातियां यहीं पायी जाती हैं तथा राजस्थान से ज्ञात सभी मेंढक और टॉड प्रजातियां इस अभयारण्य के भीतर और आसपास उपलब्ध हैं। यहाँ से उभयचरों की 13 प्रजातियाँ प्राप्त हुई हैं, जिनमें से दो प्रजातियाँ – कॉमन ट्री फ्रॉग (Common Tree Frog (Polypedates maculatus) और पेंटेड कलौला (Painted Kaloula (Kaloula taprobanicus) अभयारण्य के विशेष हैं।

सीतामाता के वनों को छोड़कर, ये दोनों प्रजातियाँ राजस्थान के किसी और अभयारण्य और राष्ट्रीय उद्यान में अभी तक नहीं पायी गई हैं। वर्ष ऋतु  इन दोनों प्रजातियों को देखने के लिए सबसे अच्छा समय है, विशेष रूप से पहली कुछ वर्षा, जो इन मेंढकों का पता लगाने के लिए सबसे उपयुक्त हैं। जहाँ एक तरफ पेंटेड फ्रॉग राजस्थान का सबसे सुंदर मेंढक है, जिसकी पीठ, हाथ और पैरों पर विशिष्ट काला-भूरा और गहरा लाल रंग होता है, वहीँ दूसरी ओर हल्के भूरे बिलकुल गैर-आकर्षक रंग वाला के कॉमन ट्री फ्रॉग राज्य का सबसे विशिष्ट मेंढक है।

कॉमन ट्री फ्रॉग (Common Tree Frog (Polypedates maculatus)

वंशावली (Genealogy):

दुनिया में विभिन्न प्रकार के आवासों जैसे कि, नम भूमि, जल स्रोत और यहां तक कि झाड़ियां और पेड़ों पर कई मेंढक प्रजातियां व्यापक रूप से पायी जाती हैं। पेड़ और झाड़ियों पर पाए जाने वाले मेंढक Rhacophoridae कुल के होते हैं जिसमें अलग-अलग आकार के मेंढक शामिल हैं। उनका आकार (थूथन से मलद्वार तक लंबाई) 2.0 सेमी से 10.0 सेमी तक होता है। विश्व में Rhacophoridae कुल के मेंढक मुख्य रूप से पूर्वी देशों तक ही सीमित हैं। हालांकि, इस कुल के कई सदस्यों को मेडागास्कर और एक वंश Chiromatis- अफ्रीका से दर्ज किया गया है।

भारत में, Rhacophoridae कुल के छह वंश; Rhacophorus, Polypedates, Phailautus, Chrixalus, Nyctixalus और Theloderma पाए जाते हैं। जबकि राजस्थान में केवल एक वंश-पॉलीपेडटीस (Polypedates) और उसकी भी केवल एक ही प्रजाति Polypedates maculatus पायी जाती है, जो वर्षा ऋतु में सीतामाता अभयारण्य के आसपास, विशेष रूप से इमारतों के पास दिखाई देती है। इनके पिछले पतले और लम्बे पैरों की मदद से, यह प्रजाति लंबी छलांग लगा सकती है हालाँकि यह अच्छी तरह से तैरने में सक्षम हैं, परन्तु फिर भी ये पानी में नहीं रहते हैं।

कॉमन ट्री फ्रॉग (पॉलीपीडेट्स मैक्यूलैटस) एक आर्बोरियल मेंढक है अर्थात यह पेड़ व वनस्पतियों पर रहता है। इसकी हाथ की उंगलियों और पैर की उंगलियों पर चिपचिपा पदार्थ स्त्रावित करने वाली पतली डिस्क होती हैं। चिपचिपी डिस्कों की मदद से, यह मेंढक दीवारों और पेड़ के तनों के ऊर्ध्वाधर सतहों पर चढ़ने की क्षमता रखता है। कॉमन ट्री फ्रॉग की आँखें बड़ी और इनकी पुतलियां क्षैतिज (Horizontal) होती हैं। इस प्रजाति में नर आकार में मादा से छोटे होते हैं। इनके कानों के पर्दे “टाइम्पेनम (Ear-drum)” आंख के व्यास का लगभग तीन-चौथाई होते हैं। इनकी अगली भुजाओं की उँगलियों में झिल्ली होती है, जबकि पैर की उँगलियों में झिल्ली पूरी तरह से विकसित होती है।

इस मेंढक का रंग हल्का ही होता है – इसकी पीठ भूरे-पीले-हरे रंग की होती है जिसपर गहरे रंग के धब्बे होते हैं। जांघ के पास असमान आकार के गोल-गोल पीले धब्बे होते हैं, जो आमतौर पर गहरे भूरे रंग के पैरों से अलग होते हैं। कॉमन ट्री फ्रॉग में कुछ हद तक अपना रंग बदलने की क्षमता होती है, जो इसे प्रकृति द्वारा दिया गया एक सुरक्षात्मक उपाय है जिससे यह परिवेश के अनुसार छलावरण करता है।

विशिष्ठ गुण (Typical features):

कॉमन ट्री फ्रॉग एक प्रायद्वीपीय प्रजाति है, जो नम पर्णपाती जंगलों में रहना पसंद करती है। एक छोटी अवधि को छोड़कर, मानसून की शुरुआत के बाद, से ही यह आमतौर पर पूरे वर्ष इमारतों और उद्यानों में देखा जाता है। मानसून की समाप्ति के बाद जब बाहरी परिस्थितियां शुष्क हो जाती हैं, तो यह मानव घरों में वापस आ जाती है, और आमतौर पर स्नान घरों के अंदर और अन्य सुरक्षित, शुष्क स्थान (यदि उपलब्ध हो तो नम) में छिप जाती है।

दिन के दौरान, ये आमतौर पर पानी से दूर रहते हैं, लेकिन शाम होते ही ये बहार निकलते हैं और सबसे पहले ऐसे स्थानों पर जाते हैं, जहां उन्हें पानी मिलने की संभावना होती है। नम स्थानों में जाने से पहले, ये आकार में छोटे लगते हैं। ये कभी भी सीधे अपने मुंह से पानी नहीं पीते हैं, बल्कि अपनी त्वचा के माध्यम से पानी को अवशोषित करने के लिए काफी समय तक गीले स्थान पर बैठते हैं। पानी में बैठे रहने के बाद इनका आकार बड़ा हो जाता है।

अच्छी तरह से नमी सोखने के बाद, ये भोजन करने के लिए अपनी गतिविधि शुरू करते हैं और पूरी रात सक्रिय रहते हैं। प्रातःकाल होने से पहले ही ये अपने-अपने स्थान पर वापस लौट जाते हैं। आराम करते समय, टांगों को शरीर के नीचे अच्छी तरह से इकट्ठा कर लिया जाता है। दिन के इस समय, एक “सेवानिवृत्त” मेंढक सुस्त हो जाता है और उसे कुदाने और भागने के लिए काफी उकसाने की आवश्यकता होती है।

कई मेंढक प्रजातियों के विपरीत, कॉमन ट्री फ्रॉग नर में प्रजनन काल के दौरान विशेष प्रकार की कॉल करने के लिए एक उप-गूलर (sub-gular) थैली होती है। मानव घरों के अंदर, नर गर्मियों के अंत में बोलना शुरू करते हैं। तक- तक- तक या डोडो-डोडो-डोडो इनकी सामान्य आवाज़ होती है।  बरसात के मौसम में ये मानव घरों को छोड़ देते हैं और प्रजनन गतिविधियों के लिए वनस्पति क्षेत्र में चले जाते हैं। और इस समय में झाड़ियों और पेड़ों के पास से नरों की आवाज़ को सुना जा सकता है।

उपयुक्त स्थान (Suitable sites):

अन्य मेंढकों की तरह, इस प्रजाति की मादाएं सीधे पानी में अंडे नहीं देती हैं, बल्कि ये अंडे झागनुमा-घोंसले में रखती हैं, जो की पेड़ों पर, पानी के टैंकों, जल भराव क्षेत्रों, नालों आदि पर रखा जाता है। सफेद रंग का झागनुमा-घोंसला रंग में सफ़ेद और आकार में अर्ध गोलाकार होता है जिसमें अंडे बिखरे हुए होते हैं। यदि नियमित रूप से बारिश नहीं हो रही हो और सूखे की स्थिति बनी रहे तो ये झागनुमा-घोंसला अंडों को पानी की कमी से बचने में मदद करता है। भ्रूण का प्रारंभिक विकास इन झागनुमा-घोंसलों में ही होता है। टैडपोल के उभरने के बाद, वे नीचे मौजूद पानी में कूद जाते हैं और उनका बाकी विकास जलस्रोतों में होता है।

सीतामाता अभयारण्य के बाहरी इलाके में बांसी नामक गांव में इमारतों पर यह कॉमन ट्री फ्रॉग अक्सर देखा जाता है। ये सीतामाता अभयारण्य के दमदमा द्वार पर स्थित वन चौकी के आस-पास भी देखे जाते हैं। सीतामाता के अंदर व सीमा पर स्थित सभी वन चौकियां इस मेंढक को देखने के लिए उपयुक्त स्थान हैं। यह प्रजाति बांसवाड़ा शहर में भी देखी गई है। इस प्रकार राजस्थान में, कॉमन ट्री फ्रॉग की वितरण सीमा बहुत ही सीमित है, इसलिए इसे उचित रूप से संरक्षित किया जाना चाहिए।

 

राजस्थान में जंगली मुर्गे (Grey Jungle Fowl) का वितरण

राजस्थान में जंगली मुर्गे (Grey Jungle Fowl) का वितरण

राजस्थान के जंगली मुर्गे (Grey Jungle fowl Gallus sonneratii) पर अग्रवाल (1978,1979), अनाम (2010), अली एवं रिप्ले (1983), ओझा (1998), सहगल (1970), शर्मा (1998, 2007, 2017), तहसीन एवं तहसीन (1990) के अध्ययन का अवलोकन करने पर इस मुर्गे पर अच्छी जानकारी मिलती है लेकिन वितरण संबंधी पूर्ण ज्ञान अनुपलब्ध है। प्रस्तुत लेख में इस प्रजाति के वितरण संबंधी जानकारी को  समाहित किया गया है। जंगलीे मुर्गे की राजस्थान के विभिन्न जिलों के भिन्न – भिन्न क्षेत्रों में उपस्थिति को जाँचने हेतु उपलब्ध वैज्ञानिक साहित्य का अध्ययन किया गया एवं सर्वे के द्वारा प्राथमिक तथ्य संग्रहीत किये गये। वितरण संबंधी उपलब्ध सूचनाएं सारणी 1 में प्रदर्शित की गई हैं।

नर ग्रे जंगल फाउल (फोटो: श्री ऋषिराज सिंह देवल)

मादा ग्रे जंगल फाउल (फोटो: श्री ऋषिराज सिंह देवल )

सारिणी – 1: ग्रे जंगल फाउल का राजस्थान में वितरण
क्र.सं.जिलास्थानवर्तमान में उपस्थितिसन्दर्भ
1उदयपुरलादन वन क्षेत्रउपस्थिततहसीन एवं तहसीन (1990), शर्मा (2007, 2017)
फुलवारी अभयारण्य, रामकुण्डा, तिनसारा, धरियावद, मानसी वाकल नदी के गुजरात सीमा तक किनारे, तोरना वन खण्डउपस्थितशर्मा (2007, 2017), श्री रजा तहसीन (निजी वर्तालाप 2005)
पई, डोडावली, देवास, कर्नावली, उभेश्वर (उबेश्वर), नाल मोखी, ओगना, साण्डोल की नाल, सूरजबारा (पडावली के पास), खैरवाडा, बेडावल (सलुम्बर के पास), कोडियात, मोरवानिया, पुराना श्रीनाथ (घसियार), कुण्डेश्वर, दडीसा, अगदा, पागा, वनक्षेत्र, जामुडिया (जामुनिया) की नाल, गोगुन्दा (मजार के पास), खैरवाडा, धरियावदवर्ष 1960 तक उपस्थित, वर्तमान में अनुपस्थितश्री रजा तहसीन (निजी वर्तालाप 2005), शर्मा (2007, 2017)
2उदयपुर, पाली, राजसमंदकुंभलगढ़ अभयारण्यउपस्थितशर्मा (2007, 2017)
3पाली, राजसमंद, अजमेरटॉडगढ़ -रावली अभयारण्य (कालीघाटी भीलबेरी व काबरदाता क्षेत्र में अधिक दिखते हैं)उपस्थितशर्मा (2007, 2017)़
4सिरोहीमाउन्ट आबूउपस्थितसिंह एवं सिंह(1995)
अग्नेश्वर मंदिर (देलवाडा से 2 किमी. पश्चिम में)उपस्थितशर्मा (2007, 2017)
रेवदर, नीमाज, रव्वा बड़वज वन क्षेत्र1961 तक उपस्थित, वर्तमान में नहींडॉ . रजा तहसीन (निजी वार्तालाप 2005), शर्मा (2007, 2017)
मोरस वन क्षेत्र 1970 तक उपस्थित, अब अनुपस्थितडॉ . रजा तहसीन (निजी वार्तालाप 2005)
5उदयपुर, चित्तौड़गढ़ एवं प्रतापगढ़लव-कुश आश्रम, वाल्मिकी आश्रम (सीतामाता अभयारण्य)उपस्थितिशर्मा (2007 2017), श्री. पी. सी. जैन उपवन संरक्षक (निजी वार्तालाप 2016), श्री मनोज पराशर उपवन संरक्षक (निजी वार्तालाप 2009)
6चित्तौडगढ़बस्सी1970 तक उपस्थित लेकिन अब अनुपस्थितठाकुर विजय सिंह राव (निजी वार्तालाप 2014), मेजर दुर्गा दास (निजी 7वार्तालाप 2016),
7बाँसवाड़ाबाँसवाडा जिले के विभिन्न वन क्षेत्रप्रजाति पहले विद्यमान थी, लेकिन अब अनुपस्थितओझा (1998), सहगल (1970), डॉ . दीपक द्विवेदी (निजी वार्तालाप 2015)
8डूंगरपुरबीछीवाड़ा1970 तक उपस्थित लेकिन अब अनुपस्थितमहारावल श्री समरसिंह (निजी वार्तालाप 2005)
9प्रतापगढ़सीतामाता अभयारण्य के क्षेत्रों के अलावा अन्य वन क्षेत्र1970 तक सभी जगह उपस्थित लेकिन अब केवल सीतामाता अभयारण्य में उपस्थितश्री रजा तहसीन (निजी वार्तालाप 2005), शर्मा (2007, 2017)
10राजसमन्दकटार, बरवाडा1970 तक पश्चिमी ढाल के वनों में उपस्थित (पूर्वी ढाल में तत्समय नहीं थे)। वर्तमान में अनुपस्थितश्री रजा तहसीन (निजी वार्तालाप 2005), शर्मा (2007, 2017)

उपरोक्त सारणी की सूचनाओं से स्पष्ट है कि जंगली मुर्गे का वितरण क्षेत्र 1960 से 2020 तक गत 60 वर्षो में राजस्थान में काफी कम हुआ है (चित्र 1)। यह प्रजाति मुख्यतः दक्षिणी राजस्थान के सघन वनों में ही निवास करती पाई जाती है । शिकार, आवास विनाश, गर्मी की ऋतु में अग्नि घटनाऐं, वनों एवं वनों के पास रहने वालेे लोगों द्वारा अण्डों को उठाने जैसे कारणों से इस मुर्गे की संख्या में कमी आई है। यह प्रजाति भूमि पर अण्डे देती है एवं आग की घटना के कारण अण्डे तथा बहुत छोटे चूजे जो उडने में असमर्थ होते हैं आग की चपेट में आ जाते हैं।

आवास सुरक्षा, शिकार पर प्रभावी अंकुश, अग्नि घटनाओं की प्रभावी रोकथाम, पेयजल व्यवस्था, जन जागरण आदि जैसे उपाय कर इस प्रजाति को संरक्षित किया जा सकता है।

संन्दर्भ:
  1.  अग्रवाल, बी. डी. (1978) गजेटियर ऑफ़ इन्डिया, राजस्थान सीकर।
  2.  अग्रवाल, बी. डी. (1979) गजेटियर ऑफ़ इन्डिया, राजस्थान उदयपुर।
  3.  अनाम (2010) असेसमेन्ट ऑफ़ बायोडाईवर्सिटी इन सीतामाता वाइल्ड लाईफ सैंक्चुरी: ए कन्जर्वेशन पर्सपैक्टिव, फाउंडेशन फाॅर ईकोलोजिकल सिक्युरीटी आंनद।
  4.  अली, एस. एवं रिप्ले, एस. डी. (1983) हैण्ड बुक ऑफ़ द बर्ड्स ऑफ़ इन्डिया एण्ड पाकिस्तान (काॅम्पेक्ट एडीशन)।
  5.  ओझा, जी. एच. (1998) बाँसवाड़ा राज्य का इतिहास (प्रथम 1936 में प्रकाशित), प्रिन्ट 1998, राजस्थान ग्रन्थालय, जोधपुर।
  6.  सहगल, के. के. (1970) गजेटियर ऑफ़ चित्तौडगढ़, राजपत्र निदेशालय, राजस्थान सरकार।
  7.  शर्मा, एस. के. (1998) लोक प्राणी विज्ञान, हिमांशु पब्लिकेशन्स, उदयपुर एवं दिल्ली।
  8.  शर्मा, एस. के. (2007) स्टडी ऑफ़ बायोडायवर्सिटी एण्ड एथनोबायोलाॅजी ऑफ़ फुलवारी वाईल्ड लाइफ सैंक्चुरी, उदयपुर (राजस्थान)। पी एच. डी. थीसिस। वनस्पति विज्ञान विभाग, मोहनलाल सुखाडिया विश्वविद्यालय, उदयपुर।
  9.  शर्मा, एस. के. (2017) राजस्थान में जंगली मुर्गों का वितरणः एक अध्ययन, अनुसंधान (विज्ञान शोध पत्रिका) 5 (1) 1-9
  10.  तहसीन, आर. एवं तहसीन, एफ. (1990) जंगल कैट फैलिस चाउस एण्ड गे्र जंगल फाउल गैलस सोनेरेटाई। जे. बी. एन. एच. एस. खण्ड – 87 (1):144

 

 

 

 

हसीना हमारी है या उनकी ?

हसीना हमारी है या उनकी ?

यह मार्मिक आलेख ऑसप्रे प्रजाति के पक्षी पर हुई शोध से सम्बंधित है, इस अध्ययन  ने जहाँ कई सवालों के जवाब दिए हैं, वहीँ कई नए सवाल हमारे सामने खड़े कर दिए हैं।

हसीना एक मच्छीमार शिकारी पक्षी है, जो सुदूर रूस के साइबेरिया प्रान्त में रहती है, यह ऑसप्रे Osprey (Pandion haliaetus) प्रजाति के शिकारी पक्षी की एक मादा है। असल में रूस में  इसका नाम है, उसीना है, जिसे भारत में हसीना नाम दे दिया गया है। भारत से इस ऑसप्रे का एक गहरा नाता है, यह हर बार जब साइबेरिया में सर्दी अधिक बढ़ जाती है, और पानी के तालाब और नदियों में बर्फ जम जाती है, इनको मछलिया मिलना अत्यंत मुश्किल हो जाता है, क्योंकि यह आकाश से पानी में नजर रखते हुए नदी अिध पर उड़ते है और एक गोता लगाते हुए और तैरती हुई मछली को अपने मजबूत पंजो से पकड़ कर ले उड़ते हैं। अपने घर को छोड़ लगभग 5000 कम उड़कर भारत में प्रवास पर आते है।

राजस्थान के भिंडर नामक कस्बे में हसीना (फोटो: डॉ. धर्मेंद्र खांडल)

वर्ष 2019 में, कुछ पक्षीविदो ने रूस स्थित सयानो-शुशेन्स्की स्टेट नेचर रिज़र्व में रहने वाले एक ऑसप्रे के एक जोड़े पर सैटलाइट टैगस लगाए। इसमें एक थी उसीना जिसे हम हसीना के नाम से जानते है, दूसरा नर ऑसप्रे था शेर्जिक। इसका टैगिंग का मकसद यह था के रूस के अल्ताई-सायन नामक क्षेत्र में किस वजह से ऑसप्रे की संख्या में निरंतर गिरावट हो रही है। जबकि यह रूस का एक दुरस्त एवं मानवीय दबावों से दूर वन क्षेत्र है।  फिर ऐसे क्या कारन है की इनकी संख्या में गिरावट आरही है।

नर ऑसप्रे “शेर्जिक” को टैगिंग करते विशेषज्ञ।

यह टैगिंग का कार्यक्रम रूस के प्रमुख पक्षीविद डॉ मिरोस्लाव बाबुश्किन,  डॉ इगोर कार्याकिं, एलविरा निकोलेंको, एलेना  शिकलोवा , उरमस सेल्लीस एवं गुन्नार सेइन ने सम्पादित किया था।  इस कार्यक्रम को वित्तीय सहारा जान करनेर नामक एक उदार व्यक्ति ने दिया।

मादा ऑसप्रे हसीना।

मादा ऑसप्रे हसीना ने अपनी यात्रा 14 सितम्बर 2019 को शुरू किया वहीँ नर ऑसप्रे लगभग 2 सप्ताह बाद 28 सितम्बर 2019 को भारत की ओर अपनी उड़ान भरता है। सैटलाइट से प्राप्त हुए डाटा के अनुसार यह पक्षी प्रतिदिन 300 से 400  किलोमीटर उड़कर 15 -16  दिनों में 3500  किलोमीटर (मादा) – 5000 किलोमीटर (नर)  यात्रा कर भारत आ गए।

हसीना और शेर्जिक द्वारा तय की गयी दुरी।

नर ऑसप्रे शेर्जिक भारत के दक्षिण हिस्से कर्नाटक चला गया परन्तु मादा ऑसप्रे हसीना राजस्थान के भिंडर नामक कस्बे में ही ठहर गयी। भिंडर दक्षिण राजस्थान का एक छोटा सा क़स्बा है। यहाँ तीन बड़े नालों को रोक कर, उन्हें लम्बे तालाबों में तब्दील कर दिया गया है। यह तालाब कस्बे के एक दम नजदीक है एवं मादा ऑसप्रे हसीना इन तीनो तालाबों में पुरे दिन कई बार विचरण करती है।

दुर्भाग्यवश नर शेर्जिक कर्नाटक राज्य के इलकल कस्बे के पास एक बिजली के टॉवर के नजदीक जाकर गायब हो गया और वहां से उसकी उपस्थिति के संकेत मिलने बंद हो गये। रूस से डॉ. इगोर कार्याकिं एवं एलविरा निकोलेंको दोनों भारत आये एवं उस स्थान पर पहुंचे जहाँ से शेर्जिक के अंतिम संकेत मिले थे। परन्तु उन्हें उस बिजली के टॉवर के पास नर ऑसप्रे शेर्जिक के पंखो के कुछ अवशेष ही मिले, इसके अलावा शायद बाकि हिस्सा कोई प्राणी वहां से उठा करउसे खाने के लिए ले गया। यह एक अत्यंत दुखद अंत था एक साथी नर ऑसप्रे का एवं साथ ही यह जवाब था इस रिसर्च का की ऑसप्रे की संख्या में गिरावट क्यों आ रही है।

नर ऑसप्रे शेर्जिक कर्नाटक राज्य के इलकल कस्बे के पास एक बिजली के टॉवर के नजदीक जाकर गायब हो गया।

हसीना का हाल जानने के लिए मैं श्री नीरव भट्ट के सुझाव पर नवंबर 2019 में भिंडर कस्बे में गया एवं हसीना को देखा। श्री भट्ट गुजरात राज्य के एक जाने माने पक्षीविद हैं जिनकी शोध का मुख्य विषय शिकारी पक्षी हैं। उस सुबह मादा ऑसप्रे हसीना एक गर्ल्स स्कूल के पास स्थित तालाब में लगे बिजली के खम्बे पर बैठी थी। कुछ फोटोग्राफ लेने के बाद में खुस था की हसीना सुरक्षित है। लेकिन उस समय, वह अनजान थी की उसका साथी शेर्जिक अब इस दुनिया में नहीं रहा है। मैं हसीना की जीविषा पर अचंभित था और एक विचार मेरे मन में आया की लेकिन सर्दी का पूरा मौसम बिता कर हसीना भारत से जब पुनः रूस जाएगी, परन्तु इस बार उसके लिए शेर्जिक का इंतजार ही रहेगा। इसी तरह ना जाने कितने ऑसप्रे भारत हज़ारों किलोमीटर दूर भारत कितनी आशाओं के साथ आते जाते हैं और यदि हम इनके आवासों को सुरक्षित नहीं बना पाए तो यह इन परिंदो का अस्तित्व ही समाप्त हो जायेगा।

राजस्थान के भिंडर नामक कस्बे में हसीना (फोटो: डॉ. धर्मेंद्र खांडल)

हसीना 22 अप्रैल 2020 की शाम को पुनः रूस स्थित सयानो-शुशेन्स्की स्टेट नेचर रिज़र्व पहुँच गयी। इस तरह हसीना 222 दिन तक ब्रीडिंग क्षेत्र से दूर रही। ध्यान देने वाली बात यह है की, हसीना ने रूस के ब्रीडिंग क्षेत्र में मात्र 143 दिन गुजारे एवं इस से दूर 222 दिन। साथ ही यदि हसीना ने मानो 30 दिन आने और जाने में गुजारे तो राजस्थान के भिंडर में 192 दिन गुजारे है। रूस से लगभग 2 महीने भारत में अधिक रहना शायद यह तय करता है, की वह रूस के लिए एक प्रवासी पक्षी है ओर हमारे लिए एक स्थानीय पक्षी जो मात्र ब्रीडिंग के लिए रूस जाता है। इसलिए हसीना हमारी है।

रूस में हसीना का ब्रीडिंग क्षेत्र।

 

रूस में हसीना का घोंसला।

खैर इस बार हसीना फिर भिंडर कस्बे में है, और उन्ही तालाबों में फिर विचरण कर रही है, परन्तु न जाने कब तक  हम इन तालाबों को सुरक्षित रख पाएंगे। और चूँकि हसीना हमारी है, इसलिए हमें इसकी सुरक्षा के लिए और अधिक प्रयास करने होंगे और इन परिंदो की जिम्मेद्दारी लेनी होगी।

 

राजस्थान के वन

राजस्थान के वन

प्रस्तुत आलेख द्वारा जानते हैं, राजस्थान की अनुपम वन सम्पदा के बारे में जो न सिर्फ हमारी अनेक प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष जरूरतों को पूर्ण करते हैं बल्कि वन्य जैव-विविधता को भी संरक्षित करते हैं…

प्रकृति में तरह-तरह की प्रजातियों के पौधे मिलते हैं। उनके स्वभाव भी अलग अलग होते हैं – कुछ वृक्ष, तो कुछ झाड़ियां, कुछ शाक तो कुछ बेलें। प्रकृति में कई जगह वृक्षों का बाहुल्य भूमि पर एक हरे आवरण की तरह पनप जाता है एवं इस वृक्ष आवरण के नीचे विभिन्न प्रकार के छोटे पौधे (under growth) भी पनप जाते हैं। वनस्पतियों का यह पुंज “वन” कहलाता है। वैसे आम आदमी सामान्यतया प्रायः सघन वृक्षों वाले क्षेत्र को ही वन समझता है लेकिन घास के मैदान भी एक तरह के वन ही होते हैं।

वनों की वन्यजीव व जैव विविधता संरक्षण में महत्ती भूमिका है। वन वन्य प्राणियों एवं पौधों को उपयुक्त आवास प्रदान करते हैं। वे न केवल उस आवास से जीवित रहने हेतु आवश्यक चीजें ग्रहण करते हैं बल्कि स्वयं भी आवास का हिस्सा बन कर दूसरों की जरूरतें पूर्ण करते हैं। इस तरह वन अपने आप में एक ऐसे तंत्र के रूप में काम करता है जो अपनी आवश्यकता स्वयं पूर्ण करता है, अपनी टूट-फूट स्वयं ठीक कर लेता है तथा जिसमें अदृश्य असंख्य जैव-भौतिक रासायनिक क्रियायें निर्बाध चलती रहती हैं। यह वनीय तंत्र “वन पारिस्थितिकी तंत्र (Forest Ecosystem)” कहलाता है। प्रकृति में वन पारिस्थितिकी तंत्र के साथ साथ “घास क्षेत्र पारिस्थितिकी तंत्र (Grassland Ecosystem)” और “जलीय पारिस्थितिकी तंत्र (Aquatic Ecosystem)” आदि भी देखने को मिलते हैं। ये सभी पारिस्थितिकी तंत्र तरह-तरह के स्तनधारी, पक्षियों, सरीसृपों, उभयचारी, मछलियों, कीट-पतंगों, घोंघों आदि को रहने, प्रजनन करने एवं अपना समुदाय बनाने की सुविधा प्रदान करते हैं। यदि पौधों में विविधता न हो तो आवास विविधता भी नहीं पनप सकती है एवं आवास विविधता नहीं होगी तो प्राणी व वनस्पति विविधता भी पैदा नहीं होगी साथ ही वन विविधता भी नहीं होगी। वनों के प्रकार या विविधता ही वस्तुतः वन वर्गीकरण है।

उष्ण शुष्क पतझड़ी वन (फोटो: डॉ. धर्मेंद्र खांडल)

वैज्ञानिक वर्गीकरण: मुख्यरूप से राजस्थान के वनों को वैज्ञानिक एवं जैविक दृष्टि से वर्गीकृत किया गया है। वैज्ञानिक दृष्टि से वनों का वर्गीकरण कानून की पुस्तकों में मिलता है। भारतीय वन अधिनियम 1927 (Indian Forest Act 1927) की आधार शिला पर राजस्थान वन अधिनियम 1953 (Rajasthan Forest Act 1953) बनाया गया है। यह अधिनियम वनों को तीन श्रेणी में विभाजित करता है :

  1. आरक्षित वन (Reserve Forest)
  2. रक्षित वन (Protected Forest)
  3. अवर्गीकृत वन (Unclass Forest)

आरक्षित वन एवं उसकी उपज का स्वामित्व पूर्ण रूप से या उसके कुछ भाग पर सरकार का होता है। रक्षित वन पर भी सरकार का स्वामित्व होता है लेकिन सरकार चाहे तो उसके उपयोग के कुछ अधिकार या अधिकांश अधिकार अपनी जनता या स्थानीय समुदाय को दे सकती है। अवर्गीकृत वन वे हैं जिनका अभी निर्धारण नहीं हुआ है कि उनको आरक्षित वन बनाया जाये या रक्षित। वनों की वैज्ञानिक श्रेणी का निर्धारण वन विभाग, वन बंदोबस्त अधिकारी (Forest Settlement Officer), सरकार अवं रेवेन्यू विभाग करते हैं। वन बंदोबस्त का कार्य रेवेन्यू बंदोबस्त से स्वतंत्र रह कर चलता है। वन बंदोबस्त में वन खंड अवं कम्पार्टमेंट के रूप में नक़्शे तैयार होते हैं। रेवेन्यू सेटलमेंट की तरह वन क्षेत्र में खसरों का प्रावधान नहीं होता।

जैविक वर्गीकरण दृष्टि से भारत के वनों का वर्गीकरण एच्. जी. चैम्पियन एवं एस. के. सेठ ने किया है। उन्होंने 16 मुख्य वनों के प्रकार पहचाने हैं जिनमें राजस्थान में 3 मुख्य प्रकार ज्ञात हैं:

  • वर्ग 5 -उष्ण शुष्क पतझड़ी वन (Tropical Dry Deciduous Forest)
  • वर्ग 6 -शुष्क कांटेदार वन (Tropical Thorn Forest)
  • वर्ग 8 – उपोष्ण चौड़ी पत्ती के पहाड़ी वन (Subtropical Broad Leaved Hills Forest)
उष्ण शुष्क पतझड़ी वन:

उष्ण शुष्क पतझड़ी वनों में उन वृक्ष प्रजातियों का बाहुल्य होता है जो वर्षा में हरी-भरी  नजर आती हैं तथा पत्तियों से ढकी रहती हैं लेकिन वर्षा के बाद जैसे ही नमी का स्तर गिरता है, इनके पत्ते पीले होकर झड़ने लगते हैं एवं गर्मियों के आते-आते ये पर्ण विहीन होकर सूखे जैसे नजर आते हैं। गर्मी में प्राय: इनमें फूल व फल लगते हैं तथा वर्षा काल प्रारम्भ होते ही फिर इनमें पत्तियाँ आने लगती हैं। इन वनों में बाँस व झाड़ियों को भी देखा जा सकता है। इन वनों में धौंक, सफ़ेद धौंक, बहेड़ा, सादड, गुर्जन, सालर, खिरन, खिरनी, खैर, बरगद, पीपल, पहाड़ी पीपल, महुआ, बबूल, पलाश, खजूर आदि प्रजातियों के वृक्षों का बाहुल्य होता है तथा काली स्याली, गणगेरण, हरसिंगार, कड़वा या दुद्धी आदि झाड़ियों का बाहुल्य होता है। उष्ण शुष्क पतझड़ी वनों के भी कई उप प्रकार नजर आते हैं। राजस्थान में मिलने वाले प्रमुख उप प्रकार निम्न हैं :

  1. धौक वन (Anogeissus pendula Forest)
  2. सालर वन (Boswellia Forest)
  3. बबूल वन (Babool Forest)
  4. पलाश वन (Butea Forest)
  5. बेलपत्र वन (Aegle Forest)
  6. लवणीय क्षेत्र के झाड़ीदार वन (Saline Alkaline scrub forest)
  7. खजून वन (Phoenix savannah)
  8. शुष्क बॉस वन (Dry Bamboo Brakes)
  9. सागवान वन (Teak Forest)
  10. मिश्रित वन (Mixed Forest)

यह वन पूरी अरावली पर्वत माला, विंध्याचल पर्वतमाला एवं अरावली पर्वत माला के पूर्व दिशा में फैले हुये हैं। ये वन उदयपुर, प्रतापगढ़, बांसवाड़ा, डूंगरपुर, चित्तौडग़ढ़, भीलवाड़ा, कोटा, बूंदी, झालावाड़, बारां, धौलपुर, भरतपुर, अलवर, दौसा, जयपुर आदि अपेक्षाकृत अधिक वर्षा वाले जिलों में मिलते हैं। सालर के वन पहाड़ों के ऊपरी हिस्सों में, धौक वन पहाड़ों के ढाल पर तथा पलाश वन तलहटी क्षेत्र में मिलते हैं। जहाँ मिटटी का अच्छा जमाव है एवं नमी का स्तर अच्छा है वहां खजूर एवं बाँस वन मिलते हैं। बाँस मुख्य रूप से दक्षिणी राजस्थान में पाये जाते हैं। सागवान वन हाड़ौती एवं दक्षिण राजस्थान में मिलते हैं। उदयपुर जिले की गोगुन्दा तहसील की सायरा रेंज का सागेती वन खण्ड भारत में सागवान की अंतिम पश्चिमी एवं उत्तरी सीमा बनता हैं। राजस्थान व गुजरात सागवान के विस्तार रेंज की पश्चिमी सीमा बनाते हैं।

रेगिस्तानी कांटेदार वन (फोटो: डॉ. धर्मेंद्र खांडल)

शुष्क कांटेदार वन:

इस प्रकार के वनों का अस्तित्व मुख्यरूप से कम वर्षा वाले क्षत्रों में होता है।  इन वनों में छोटी व संयुक्त पत्तियों तथा काँटों वाली प्रजातियों के वृक्ष व झाड़ियों का बाहुल्य मिलता है। इन वनों में कुमठा, रौंझ, बेर, फोग,थूर, पीलू, (खारा जाल व मीठा जाल), कैर, आंवल छाल आदि वनस्पतियां मिलती हैं।  ये वन मुख्य तथा शुष्क व रेगिस्तानी क्षेत्र में अधिक मिलते हैं। जहाँ भूमि का कटाव हो रहा है, तथा जल बहाव अधिक है वहां भले ही अधिक वर्षा हो, ये ही वन पनपते हैं क्योंकि भौतिक रूप से वहां सूखे की स्थिति बनी रहती है। चम्बल जैसी नदियों के कंदरा क्षेत्र में भी ऐसे ही वन पनप पाते हैं।

कांटेदार वनों के भी कई उप प्रकार ज्ञात हैं। राजस्थान के मुख्य उप प्रकार निम्न हैं:

  1. रेगिस्तानी कांटेदार वन (Desert Thorn Forest)
  2. कंदरा क्षेत्र कांटेदार वन (Ravine Thorn Forest)
  3. बेर के झाड़ीदार वन (Ziziphus scrub)
  4. थूर झाड़ीदार वन (Tropical Euphorbia Forest)
  5. कुमठा वन (Acacia senegal Forest)
  6. पीलू वन (Salvadora Scrubs)
  7. आंवल छाल झाड़ीदार क्षेत्र (Cassia auriculata scrubland)

कांटेदार वन मुख्य रूप से राजस्थान में अरावली के पश्चिम में पाली,सिरोही,जालोर, बाड़मेर, जैसलमेर, जोधपुर, सीकर, झुंझुनूं, चूरू, नागौर, बीकानेर, आदि जिलों में पाएं जाते हैं। इंदिरा गाँधी नहर की सिंचाई से गंगानगर एवं हनुमानगढ़ जिलों की परिस्थितियां काफी बदल गई हैं एवं वहां वनस्पति एवं वन प्रकारों में बदलाव हुआ है। कांटेदार वन क्षेत्र में सेवण घास के घास क्षेत्र (grassland) भी पाए जाये हैं। कांटेदार वन अजमेर, जयपुर, अलवर, धौलपुर, व अरावली के पूर्व में अन्य जिलों में भी जहाँ-तहाँ विधमान हैं।

रेगिस्तानी कांटेदार वन (फोटो: डॉ. धर्मेंद्र खांडल)

उपोष्ण चौड़ी पत्ती के पहाड़ी वन:

चौड़ी-पत्ती के पहाड़ी वनों का फैलाव राजस्थान में सबसे कम क्षेत्र में है। ये वन सिरोही जिलों में आबू पर्वत पर ऊपरी तरफ पाए जाते हैं। आबू पर्वत पर हिमालय एवं नीलगिरि के बीच में सबसे ऊँची छोटी गुरु शिखर भी विध्यमान है। यहाँ 1500 मिमी. तक वर्षमान है तथा ताप अपेक्षाकृत कम है जिसमें जहाँ अर्द्ध-सदाबहार वन अस्तित्व में आया है। यहाँ आम, जामुन, स्टर्कुलिया की कई प्रजातियां, करौंदा, फर्न, आर्किड आदि वनस्पतियां पायी जाती हैं। यहाँ जंगली गुलाब (Rosa involucrata) नमक प्रजाति भी पायी जाती है।

राजस्थान की वन सम्पदा बहुत ही अनुपम है ये वन न सिर्फ लोगों की अनेक प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष जरूरतों को तो पूर्ण करते ही है, साथ ही यहाँ की वन्य जैव विविधता को भी संरक्षित करते हैं अतः इन्हें संरक्षित करने की अत्यंत आवश्यकता है।

Cover Photo Credit: Dr. Dharmendra Khandal

 

 

 

सरिस्का बाघ अभयारण्य में भामर मधुमक्खी पर एक अध्ययन

सरिस्का बाघ अभयारण्य में भामर मधुमक्खी पर एक अध्ययन

“सरिस्का टाइगर रिजर्व में “भामर मधुमक्खी” द्वारा छत्ता बनाने के लिए बरगद कुल के बड़े एवं पुराने पेड़ों को प्राथमिकता दिया जाना पुराने पेड़ों की महत्वता पर प्रकाश डालती है।”

हमारी प्रकृति में विभिन्न प्रकार के जीव “परागणकर्ता (पोलिनेटर)” की भूमिका निभाते हैं जो न सिर्फ पर-परागण (Cross pollination) को बढ़ावा देते हैं बल्कि आनुवंशिक विविधता को बढ़ाने, नई प्रजातियों के बनने और पारिस्थितिकी तंत्र में स्थिरता लाने में भी योगदान देते हैं। यह परागण, सहजीविता पर आधारित पारिस्थितिक तंत्र प्रक्रिया का एक ऐसा उदाहरण है जो उष्णकटिबंधीय स्थानों पर रहने वाले मानव समुदायों को एक सीधी सेवा प्रदान करता है और इसीलिए सभी परागणकर्ता पारिस्थितिकी तंत्र के लिए महत्वपूर्ण हैं। परन्तु, परागणकर्ताओं की बहुतायत, विविधता और स्वास्थ्य को मानव गतिविधियों जैसे मानवजनित जलवायु परिवर्तन, निवास स्थान के विनाश और पर्यावरण प्रदूषकों से खतरा है।

ऐसी ही एक परागणकर्ता है, “बड़ी मधुमक्खी” जिसका वैज्ञानिक नाम “एपिस डोरसाटा (Apis dorsata)” है और राजस्थान में इसे “भामर” नाम से जाना जाता है। भामर, एशिया भर के उष्णकटिबंधीय वर्षावनों और कृषि क्षेत्रों में एक महत्वपूर्ण शहद उत्पादक है। हालांकि पिछले कुछ वर्षों में उष्णकटिबंधीय वनों का विखंडन बहुत तेजी से हुआ है, फिर भी ऐतिहासिक रूप से मधुमक्खियों पर निवास स्थान के विखंडन के प्रभावों पर बहुत कम अध्ययन किये गए हैं और जो किये गए हैं वो सिर्फ नवोष्ण-कटिबंधीय क्षेत्रों पर आधारित हैं।

भामर, एशिया भर के उष्णकटिबंधीय वर्षावनों और कृषि क्षेत्रों में एक महत्वपूर्ण शहद उत्पादक है (फोटो: डॉ. धर्मेंद्र खांडल)

हाल ही में राजस्थान के वन अधिकारी श्री गोविन्द सागर भरद्वाज एवं साथियों द्वारा अलवर जिले में स्थित “सरिस्का बाघ परियोजना” में भामर “Apis dorsata” के छत्तों के स्वरूप एवं वितरण पर एक अध्ययन किया है, जो की “Indian Forester” में प्रकाशित हुआ है, इसमें भामर द्वारा पसंदीदा पौधे व वृक्ष प्रजातियों की पहचान और विखंडित एवं घने वन क्षेत्रों में बामर के छत्तों की बहुतायत की तुलना भी की गई (Bhardwaj et al 2020)।

भारत एक उष्णकटिबंधीय देश है जो विविध पारिस्थितिक तंत्रों से युक्त है जिनमें विभिन्न प्रकार की वनस्पति प्रजातियां पायी जाती हैं तथा विभिन्न मधुमक्खी प्रजातियों के लिए अनुकूल निवास स्थान प्रदान करती है। इन सभी प्रजातियों के बीच, भामर मूल रूप से एक जंगली मधुमक्खी प्रजाति हैं क्योंकि यह वन क्षेत्रों में अपना छत्ता बनाती हैं। यह एपिस जीनस में सबसे बड़ी मधुमक्खियों में से एक है जिसकी कुल लंबाई 17 से 20 मिमी तक होती है। यह बड़े एवं घने पेड़ों की शाखाओं, चट्टानों और पानी के टैंकों जैसी मानव निर्मित संरचनाओं पर बड़े आकार के छत्तों का निर्माण करते हैं।

भामर चट्टानों की दरारों के पास भी छत्तों का निर्माण करते हैं (फोटो: डॉ. गोविन्द सागर भारद्वाज)

भामर, दक्षिण और दक्षिणी-पूर्वी एशिया के अधिकांश हिस्सों में पायी जाती है। एशिया में उष्णकटिबंधीय वर्षा वनों और कृषि क्षेत्रों में एक जंगली परागणकर्ता और शहद उत्पादक के रूप में इसकी भूमिका व्यापक रूप से सराहनीय मानी जाती है। यह एक संगठित रक्षा प्रतिक्रिया या हमला करने के लिए जानी जाती है तथा इसकी एक कॉलोनी हर साल लगभग 100-200 किमी दूरी तक प्रवास करती है, और इनका प्रवास सूखे और बरसात के मौसम पर निर्भर करता है। इनकी प्रत्येक कॉलोनी में आमतौर पर एक रानी, ​​कई नर और हज़ारों कार्यकर्ता मधुमक्खियां होती हैं। यह अपने छत्तों का निर्माण एकल या फिर कई बार एक ही बड़े पेड़ पर 10- 25 छत्तों तक निर्माण करते हैं तथा छत्ते जमीन से लगभग 6 मीटर तक की ऊंचाई तक होते है।

इस अध्ययन के शोधकर्ताओं ने अगस्त 2018 में भामर कॉलोनियों के लिए सरिस्का बाघ परियोजना क्षेत्र का सर्वेक्षण किया। हर क्षेत्र सम्बंधित चौकी के फ्रंटलाइन स्टाफ (बीट ऑफिसर) के अनुभव के आधार पर भामर कॉलोनियों को खोजा गया तथा उनकी गणना की गई। जिन पेड़ों पर भामर कॉलोनियां पायी गई उन सभी की परिधि का माप दर्ज किया गया, नामों की सूचि बनायी गई, कॉलोनियों की तस्वीर ली गई तथा जीपीएस लिया गया। कॉलोनी के आवास सम्बंधित अन्य सूचनाएं भी दर्ज की गई।

भामर कई बार एक ही बड़े पेड़ पर 10- 25 छत्तों तक का निर्माण करते हैं(फोटो: डॉ. धर्मेंद्र खांडल)

अध्ययन के लेखकों ने सम्पूर्ण सरिस्का क्षेत्र का सर्वेक्षण कर कुल 242 भामर कॉलोनियां पाई जिनमें से 161 कॉलोनियां पेड़ों पर, 78 चट्टानों, 2 झाड़ियों और 3 मानव निर्मित इमारतों पर बानी हुई थी। दर्ज की गई सभी सूचनाओं की समीक्षा से ज्ञात हुआ की सबसे अधिक 102 कॉलोनियां बरगद कुल के पेड़ों पर बनाई जाती हैं तथा इनमें से 80.12% कॉलोनियां 100 सेमी से अधिक परिधि वाले पेड़ों पर देखी गई। बरगद कुल के पेड़ों पर अधिक कॉलोनियां बनाने का कारण इन पेड़ों का बड़ा आकार हो सकता है। परन्तु यदि पेड़ का बड़ा आकार और उसके तने की परिधि ही मायने रखती है तो ढाक (Butea monosperma) के पेड़ की औसतन  परिधि सालार (Boswellia serrata) के पेड़ से ज्यादा होती है। अब क्योंकि ढाक सरिस्का क्षेत्र में बहुतायत में मौजूद है, परिणामस्वरूप ढाक के प्रत्येक पेड़ पर छत्ता मिलना चाइये था, परन्तु सालार पेड़ पर अधिक कुल 14 छत्ते पाए गए और ढाक पर सिर्फ 3 छत्ते ही देखे गए। ऐसा इसलिए हो सकता है क्योंकि ढाक का पेड़ ग्रामीणों द्वारा मवेशियों को खिलाये की वजह से लगातार कांटा जाता है तथा भामर के लिए यह शांतिपूर्वक स्थान नहीं है।

इनके अलावा 34 कॉलोनियां चट्टानों पर भी देखी गई। अध्ययन के दौरान एक बरगद का पेड़ ऐसा भी देखा गया जिसकी परिधि 425 सेंटीमीटर की थी और उसपर 15 भामर कॉलोनियां बानी हुई थी। घने वन क्षेत्र में प्रति वर्ग किलोमीटर में 0.25 कॉलोनियां और विखंडित वन क्षेत्र में 0.15 कॉलोनियां दर्ज की गई।

भामर के 80% छत्तों का एक मीटर से अधिक परिधि वाले पेड़ों पर पाया जाना, वनों में बड़े पेड़ों की भूमिका व महत्वता को दर्शाता है और ये केवल तभी संभव है जब ऐसे परिदृश्यों को संरक्षण दिया जाता है।

मधुमक्खी कॉलोनियों की स्थिति का आकलन करने के लिए अतीत में बहुत कम अध्ययन किए गए हैं, और ऐसे में वर्तमान अध्ययन से निकली किसी भी जानकारी की तुलना व टिप्पणी करने की गुंजाइश बहुत कम है। हालांकि इस डेटा को आधार मान कर मानवजनित हस्तक्षेप और जलवायु परिवर्तन के कारण आने वाली चुनौतियों के संबंध में मधुमक्खियों पर गहन अध्ययन एवं उनकी स्थिति की निगरानी की जा सकती है। जैसे बाघ परियोजना क्षेत्र के लिए बाघ को संकेतक माना जाता है वैसे ही मधुमक्खियों के छत्तों की स्थिति को वन पारिस्थितिक तंत्र के स्वास्थ्य का सूचक माना जा सकता है।

सन्दर्भ:
  • Bhardwaj, G.S., Selvi, G., Agasti, S., Singh, H., Kumar, A. and Reddy, G.V. 2020. A survey on demonstrating pattern of Apis dorsata colonization in Sariska Tiger Reserve, Rajasthan. Indian Forester, 146 (8) : 682-587, 2020 DOI: 10.36808/if/2020/v146i8/154146