“सरिस्का टाइगर रिजर्व में “भामर मधुमक्खी” द्वारा छत्ता बनाने के लिए बरगद कुल के बड़े एवं पुराने पेड़ों को प्राथमिकता दिया जाना पुराने पेड़ों की महत्वता पर प्रकाश डालती है।”
हमारी प्रकृति में विभिन्न प्रकार के जीव “परागणकर्ता (पोलिनेटर)” की भूमिका निभाते हैं जो न सिर्फ पर-परागण (Cross pollination) को बढ़ावा देते हैं बल्कि आनुवंशिक विविधता को बढ़ाने, नई प्रजातियों के बनने और पारिस्थितिकी तंत्र में स्थिरता लाने में भी योगदान देते हैं। यह परागण, सहजीविता पर आधारित पारिस्थितिक तंत्र प्रक्रिया का एक ऐसा उदाहरण है जो उष्णकटिबंधीय स्थानों पर रहने वाले मानव समुदायों को एक सीधी सेवा प्रदान करता है और इसीलिए सभी परागणकर्ता पारिस्थितिकी तंत्र के लिए महत्वपूर्ण हैं। परन्तु, परागणकर्ताओं की बहुतायत, विविधता और स्वास्थ्य को मानव गतिविधियों जैसे मानवजनित जलवायु परिवर्तन, निवास स्थान के विनाश और पर्यावरण प्रदूषकों से खतरा है।
ऐसी ही एक परागणकर्ता है, “बड़ी मधुमक्खी” जिसका वैज्ञानिक नाम “एपिस डोरसाटा (Apis dorsata)” है और राजस्थान में इसे “भामर” नाम से जाना जाता है। भामर, एशिया भर के उष्णकटिबंधीय वर्षावनों और कृषि क्षेत्रों में एक महत्वपूर्ण शहद उत्पादक है। हालांकि पिछले कुछ वर्षों में उष्णकटिबंधीय वनों का विखंडन बहुत तेजी से हुआ है, फिर भी ऐतिहासिक रूप से मधुमक्खियों पर निवास स्थान के विखंडन के प्रभावों पर बहुत कम अध्ययन किये गए हैं और जो किये गए हैं वो सिर्फ नवोष्ण-कटिबंधीय क्षेत्रों पर आधारित हैं।
भामर, एशिया भर के उष्णकटिबंधीय वर्षावनों और कृषि क्षेत्रों में एक महत्वपूर्ण शहद उत्पादक है (फोटो: डॉ. धर्मेंद्र खांडल)
हाल ही में राजस्थान के वन अधिकारी श्री गोविन्द सागर भरद्वाज एवं साथियों द्वारा अलवर जिले में स्थित “सरिस्का बाघ परियोजना” में भामर “Apis dorsata” के छत्तों के स्वरूप एवं वितरण पर एक अध्ययन किया है, जो की “Indian Forester” में प्रकाशित हुआ है, इसमें भामर द्वारा पसंदीदा पौधे व वृक्ष प्रजातियों की पहचान और विखंडित एवं घने वन क्षेत्रों में बामर के छत्तों की बहुतायत की तुलना भी की गई (Bhardwaj et al 2020)।
भारत एक उष्णकटिबंधीय देश है जो विविध पारिस्थितिक तंत्रों से युक्त है जिनमें विभिन्न प्रकार की वनस्पति प्रजातियां पायी जाती हैं तथा विभिन्न मधुमक्खी प्रजातियों के लिए अनुकूल निवास स्थान प्रदान करती है। इन सभी प्रजातियों के बीच, भामर मूल रूप से एक जंगली मधुमक्खी प्रजाति हैं क्योंकि यह वन क्षेत्रों में अपना छत्ता बनाती हैं। यह एपिस जीनस में सबसे बड़ी मधुमक्खियों में से एक है जिसकी कुल लंबाई 17 से 20 मिमी तक होती है। यह बड़े एवं घने पेड़ों की शाखाओं, चट्टानों और पानी के टैंकों जैसी मानव निर्मित संरचनाओं पर बड़े आकार के छत्तों का निर्माण करते हैं।
भामर चट्टानों की दरारों के पास भी छत्तों का निर्माण करते हैं (फोटो: डॉ. गोविन्द सागर भारद्वाज)
भामर, दक्षिण और दक्षिणी-पूर्वी एशिया के अधिकांश हिस्सों में पायी जाती है। एशिया में उष्णकटिबंधीय वर्षा वनों और कृषि क्षेत्रों में एक जंगली परागणकर्ता और शहद उत्पादक के रूप में इसकी भूमिका व्यापक रूप से सराहनीय मानी जाती है। यह एक संगठित रक्षा प्रतिक्रिया या हमला करने के लिए जानी जाती है तथा इसकी एक कॉलोनी हर साल लगभग 100-200 किमी दूरी तक प्रवास करती है, और इनका प्रवास सूखे और बरसात के मौसम पर निर्भर करता है। इनकी प्रत्येक कॉलोनी में आमतौर पर एक रानी, कई नर और हज़ारों कार्यकर्ता मधुमक्खियां होती हैं। यह अपने छत्तों का निर्माण एकल या फिर कई बार एक ही बड़े पेड़ पर 10- 25 छत्तों तक निर्माण करते हैं तथा छत्ते जमीन से लगभग 6 मीटर तक की ऊंचाई तक होते है।
इस अध्ययन के शोधकर्ताओं ने अगस्त 2018 में भामर कॉलोनियों के लिए सरिस्का बाघ परियोजना क्षेत्र का सर्वेक्षण किया। हर क्षेत्र सम्बंधित चौकी के फ्रंटलाइन स्टाफ (बीट ऑफिसर) के अनुभव के आधार पर भामर कॉलोनियों को खोजा गया तथा उनकी गणना की गई। जिन पेड़ों पर भामर कॉलोनियां पायी गई उन सभी की परिधि का माप दर्ज किया गया, नामों की सूचि बनायी गई, कॉलोनियों की तस्वीर ली गई तथा जीपीएस लिया गया। कॉलोनी के आवास सम्बंधित अन्य सूचनाएं भी दर्ज की गई।
भामर कई बार एक ही बड़े पेड़ पर 10- 25 छत्तों तक का निर्माण करते हैं(फोटो: डॉ. धर्मेंद्र खांडल)
अध्ययन के लेखकों ने सम्पूर्ण सरिस्का क्षेत्र का सर्वेक्षण कर कुल 242 भामर कॉलोनियां पाई जिनमें से 161 कॉलोनियां पेड़ों पर, 78 चट्टानों, 2 झाड़ियों और 3 मानव निर्मित इमारतों पर बानी हुई थी। दर्ज की गई सभी सूचनाओं की समीक्षा से ज्ञात हुआ की सबसे अधिक 102 कॉलोनियां बरगद कुल के पेड़ों पर बनाई जाती हैं तथा इनमें से 80.12% कॉलोनियां 100 सेमी से अधिक परिधि वाले पेड़ों पर देखी गई। बरगद कुल के पेड़ों पर अधिक कॉलोनियां बनाने का कारण इन पेड़ों का बड़ा आकार हो सकता है। परन्तु यदि पेड़ का बड़ा आकार और उसके तने की परिधि ही मायने रखती है तो ढाक (Butea monosperma) के पेड़ की औसतन परिधि सालार (Boswellia serrata) के पेड़ से ज्यादा होती है। अब क्योंकि ढाक सरिस्का क्षेत्र में बहुतायत में मौजूद है, परिणामस्वरूप ढाक के प्रत्येक पेड़ पर छत्ता मिलना चाइये था, परन्तु सालार पेड़ पर अधिक कुल 14 छत्ते पाए गए और ढाक पर सिर्फ 3 छत्ते ही देखे गए। ऐसा इसलिए हो सकता है क्योंकि ढाक का पेड़ ग्रामीणों द्वारा मवेशियों को खिलाये की वजह से लगातार कांटा जाता है तथा भामर के लिए यह शांतिपूर्वक स्थान नहीं है।
इनके अलावा 34 कॉलोनियां चट्टानों पर भी देखी गई। अध्ययन के दौरान एक बरगद का पेड़ ऐसा भी देखा गया जिसकी परिधि 425 सेंटीमीटर की थी और उसपर 15 भामर कॉलोनियां बानी हुई थी। घने वन क्षेत्र में प्रति वर्ग किलोमीटर में 0.25 कॉलोनियां और विखंडित वन क्षेत्र में 0.15 कॉलोनियां दर्ज की गई।
भामर के 80% छत्तों का एक मीटर से अधिक परिधि वाले पेड़ों पर पाया जाना, वनों में बड़े पेड़ों की भूमिका व महत्वता को दर्शाता है और ये केवल तभी संभव है जब ऐसे परिदृश्यों को संरक्षण दिया जाता है।
मधुमक्खी कॉलोनियों की स्थिति का आकलन करने के लिए अतीत में बहुत कम अध्ययन किए गए हैं, और ऐसे में वर्तमान अध्ययन से निकली किसी भी जानकारी की तुलना व टिप्पणी करने की गुंजाइश बहुत कम है। हालांकि इस डेटा को आधार मान कर मानवजनित हस्तक्षेप और जलवायु परिवर्तन के कारण आने वाली चुनौतियों के संबंध में मधुमक्खियों पर गहन अध्ययन एवं उनकी स्थिति की निगरानी की जा सकती है। जैसे बाघ परियोजना क्षेत्र के लिए बाघ को संकेतक माना जाता है वैसे ही मधुमक्खियों के छत्तों की स्थिति को वन पारिस्थितिक तंत्र के स्वास्थ्य का सूचक माना जा सकता है।
सन्दर्भ:
Bhardwaj, G.S., Selvi, G., Agasti, S., Singh, H., Kumar, A. and Reddy, G.V. 2020. A survey on demonstrating pattern of Apis dorsata colonization in Sariska Tiger Reserve, Rajasthan. Indian Forester, 146 (8) : 682-587, 2020 DOI: 10.36808/if/2020/v146i8/154146
हाल ही में एक अध्ययन से खुलासा, कि राजस्थान के कई जिलों में उपस्थित है दुनियाँ की सबसे छोटी बिल्ली …
दुनियाँ की सबसे छोटी बिल्ली रस्टी-स्पोटेड कैट (Prionailurus rubiginosus), का वितरण क्षेत्र अन्य बिल्ली प्रजातियों की अपेक्षाकृत सीमित है। यह बिल्ली भारत, नेपाल एवं श्रीलंका में पायी जाती है। मनुष्यों की बढ़ती आबादी तथा जंगलों के विनाश व खंडन के कारण आज यह खतरे के निकट (Near Threatened) है। भारत में इसकी उपस्थिति राजस्थान के अलावा गुजरात, हरियाणा उत्तर प्रदेश, जम्मू-कश्मीर, तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश, कर्नाटक, ओडिशा, महाराष्ट्र और मध्य प्रदेश से दर्ज की गयी है। राजस्थान में इसकी वितरण सीमा को समझना महत्वपूर्ण है क्योंकि भारत में यह राज्य इसकी वितरण सीमा का पश्चिमी छोर है। वर्ष 2020 से पहले इसे राजस्थान के कुल 34 जिलों में से केवल पांच से दर्ज किया गया था। राजस्थान के दक्षिणी छोर पर स्थित उदयपुर जिले में 1994 में रस्टी-स्पॉटेड कैट की प्रथम उपस्थिति दर्ज की गयी थी। इसके बाद कुल 86,205 वर्ग किमी क्षेत्र में फैले चार और जिलों; अलवर, सवाई माधोपुर, बूंदी और भरतपुर से इसे दर्ज किया गया है और शेष जिलों में इसकी उपस्थिति के बारे में कुछ भी ज्ञात नहीं था।
वैज्ञानिकों और प्रकृतिवादियों के लिए बहुत ही ख़ुशी की बात यह है की हाल ही में रस्टी-स्पॉटेड कैट के वर्तमान वितरण क्षेत्र पर एक अध्ययन किया है, जो की “Journal of Threatened Taxa” में प्रकाशित हुआ है, इसमें यह देखा गया है, कि पिछले 20 वर्षों (2000 से 2020) में रस्टी-स्पॉटेड कैट की राजस्थान में उपस्थिति कहाँ-कहाँ रही है (Sharma and Dhakad 2020)?
रस्टी-स्पॉटेड कैट, आकार में बिल्ली कुल कि सबसे छोटी सदस्य है। इनके भूरे फर पर कत्थई-भूरे-लाल रंग के धब्बे और बादामी रंग की लकीरें होती है। इसकी आँखों के ऊपर चार काली रेखाएं होती हैं जिनमें से दो गर्दन के ऊपर तक फैली होती हैं। सिर के दोनों तरफ छः गहरे रंग कि धारियाँ होती हैं जो गालों और माथे तक फैली जाती हैं। इसकी ठुड्डी, गला, पैरों का अंदरूनी भाग और पेट मुख्यतः सफ़ेद होते हैं जिस पर छोटे भूरे धब्बे होते हैं। इसके पंजे और पूंछ एक समान लाल भूरे रंग के होते हैं। यह लगभग 35 से 48 सेंटीमीटर तक लम्बी होती है तथा इसका वज़न 1.5 किलो तक हो सकता है।
मनुष्यों की बढ़ती जनसंख्या और वनों के कटाव एवं विखंडन के कारण रस्टी-स्पॉटेड कैट की स्थिति प्रभावित हुई है। वर्ष 2016 में इसे IUCN की रेड लिस्ट में खतरे के निकट (Near Threatened) श्रेणी में रखा गया। इस बिल्ली प्रजाति के वितरण क्षेत्र व अन्य पहलुओं पर अध्ययन बहुत ही सीमित है। इसी प्रयास में, राजस्थान में इसकी उपस्थिति जानने हेतु इस अध्ययन के लेखकों ने राज्य से पिछले 20 वर्षों की सभी सूचनाएं; प्रत्यक्ष अवलोकन, सड़क दुर्घटना में मारे गए, विपदा में फंसे बचाये बिलौटे तथा कैमरा ट्रैप में दर्ज हुए प्राणियों के चित्र एकत्रित करने का प्रयास किया, तथा इन सभी सूचनाओं को नक़्शे पर दर्शाया और वितरण क्षेत्र एवं सीमा का मूल्यांकन भी किया।
अध्ययन के लेखकों ने वर्ष 2000 से शुरू होकर मार्च 2020 तक 30 अलग-अलग स्थानों से कुल 51 सूचनाएं एकत्रित की। अध्ययन द्वारा संगृहीत आंकड़ों के संकलन से पता चलता है कि रस्टी-स्पॉटेड कैट राजस्थान के दस और जिलों; अजमेर, सिरोही, कोटा, धौलपुर, करौली, चित्तौड़गढ़, जयपुर, बांसवाड़ा, प्रतापगढ़ और पाली में भी उपस्थित है, तथा इसकी वितरण सीमा 71,586 वर्ग किमी क्षेत्र तक है जो मुख्यरूप से अरावली एवं विंध्यन पर्वतमाला तथा पूर्वी राजस्थान के अर्ध-शुष्क क्षेत्र हैं। इसे विभिन्न प्रकार के आवासों में देखा गया जैसे कि कांटेदार और शुष्क पर्णपाती वन, मानव बस्तियों के बाहरी इलाकों में, कंदरा क्षेत्र (ravines), बगीचे, वनों के निकट स्थित कृषि क्षेत्र एवं मानव आबादियों के पास स्थित वन कुंजों, सागवान वन और अर्ध-सदाबहार चौड़ी पत्ती के पहाड़ी वन क्षेत्र।
राजस्थान में रस्टी-स्पोटेड कैट का वितरण क्षेत्र
सभी सूचनाओं की समीक्षा करने पर यह ज्ञात होता है कि रस्टी स्पॉटेड कैट अरावली पर्वत श्रृंखला में व्यापक रूप से वितरित है। यदि हम ऊंचाई के दृष्टिकोण से बात करते हैं, तो इसे अरावली हिल्स के सबसे ऊंचे स्थान “माउंट आबू” तक वितरित है।
सभी सूचनाओं कि समीक्षा से यह भी पता चलता है कि यह बिल्ली पूर्णरूप से निशाचर है क्योंकि इसे मुख्यतः अँधेरे के समय देर शाम और शुरुआती सुबह में ही देखा गया है। वर्षा ऋतु में इसे कई बार वन क्षेत्रों कि दिवार एवं पैरापेट दीवार पर भी बैठा देखा गया है, जिसमें से एक बार तो इसे और तेंदुए को लगभग 50 मीटर कि दूरी पर एक साथ बैठे देखा गया है। एक अवसर पर, बिल्ली को रौंज (Acacia leucophloea) के वृक्ष पर देखा गया और पेड़ के कांटे होने के बावजूद भी बिल्ली को एक शाखा पर आराम से बैठे देखा गया था। इन अवलोकनों से बिल्ली के अर्ध-वृक्षीय स्वभाव के बारे में पता चलता है।
अध्ययन में अरावली पर्वतमाला के पश्चिमी भाग से कोई भी रिकॉर्ड नहीं मिला जो कि राजस्थान का थार मरुस्थलीय भाग है। थार में बिल्ली की अनुपस्थिति के लिए उच्च तापमान और आवास प्रकार में अंतर को मुख्य कारण प्रतीत होते हैं। इसके अलावा अरावली के पूर्व में आने वाले कुछ जिलों जैसे कि दौसा, टोंक, राजसमंद, भीलवाड़ा, बारां और झालावाड़ में शुष्क पर्णपाती वन होते हुए भी कोई रिकॉर्ड नहीं मिला है। इन जिलों में उपयुक्त आवासों में कैमरा ट्रैप विधि को अपनाने की जरुरत है ताकि इस प्रजाति की उपस्थिति सम्बन्धी ठोस जानकारी मिल सके।
सड़क दुर्घटना में मारी गई रस्टी-स्पोटेड कैट की तस्वीर (फोटो: श्री नीरव भट्ट)
अध्यन्न के दौरान छह बार बिलौटे देखे गए। वयस्क बिल्लियां 45 बार दर्ज की गयी जिनमें 41 जीवित तथा चार सड़क दुर्घटना में मृत पायी गई। विशेष रूप से रात के समय, बिल्ली को सड़क के आसपास विचरण करते हुए देखा गया, सडकों पर विचरण करने से इस बिल्ली के वाहनों के चपेट में आने का खतरा बढ़ जाता है। रस्टी-स्पोटेड कैट को सड़क दुर्घटना में शिकार होने से रोकने के लिए महत्वपूर्ण निवारक उपायों की आवश्यकता है। जैसे कि पैट्रोलिंग स्टाफ को सड़क पर मरे (Roadkill) एवं आसपास निस्तारित किए गए मवेशियों के शवों की जांच करने और जंगलों से गुजरने वाली सड़कों से उनको हटवाने का उचित प्रावधान किया जाना चाहिए। इस प्रजाति के संरक्षण हेतु सडकों के किनारे स्थित होटलों और रेस्तरां में उचित अपशिष्ट निपटान प्रणाली, सडकों पर उचित अंतराल पर अंडरपास की व्यवस्था, सड़कों से दूर पानी की सुविधा, और ड्राइवरों के लिए गति संकेतों, द्वारा न केवल रस्टी-स्पोटेड कैट को दुर्घटनाओं से बचा सकते हैं बल्कि सड़कों को पार करने वाली कई अन्य प्रजातियों को भी बचाया जा सकता है।
राजस्थान में रस्टी-स्पोटेड कैट अभी भी कम ज्ञात प्रजाति है। वन विभाग को इस बिल्ली की सही पहचान करने के लिए वन कर्मचारियों को प्रशिक्षित करने और गणना के आंकड़ों को शामिल करने की पहल करनी चाहिए। इस प्रजाति की स्थिति जानने के लिए राज्य के अन्य जिलों में गहन कैमरा ट्रैप अध्ययन की आवश्यकता है। रस्टी-स्पॉटेड कैट के दीर्घकालीन बचाव हेतु वन संरक्षण सबसे जरूरी है। राजस्थान में रस्टी-स्पॉटेड कैट की संख्या निर्धारण हेतु संरक्षित क्षेत्रों के बाहर इसके सर्वेक्षण की पुरजोर अनुशंषा करते हैं।
सन्दर्भ:
Cover photo credits: Dr. Dharmendra Khandal
Sharma, S.K. & M. Dhakad (2020). The Rusty-spotted Cat Prionailurus rubiginosus (I. Geoffroy Saint-Hillaire, 1831) (Mammalia: Carnivora: Felidae) in Rajasthan, India – a compilation of two decades. Journal of Threatened Taxa 12(16): 17213–17221. https://doi.org/10.11609/jott.6064.12.16.17213-17221
लेखक:
Ms. Meenu Dhakad (L): She has worked with Tiger Watch as a conservation biologist after completing her Master’s degree in the conservation of biodiversity. She is passionately involved with conservation education, research, and community in the Ranthambhore to conserve wildlife. She has been part of various research projects of the Rajasthan Forest Department.
Dr. Satish Kumar Sharma (R): An expert on Rajasthan Biodiversity, he retired as Assistant Conservator of Forests, with a Doctorate in the ecology of the Baya (weaver bird) and the diversity of Phulwari ki Nal Sanctuary. He has authored 600 research papers & popular articles and 10 books on nature.
“सर्दियों के मेहमान प्राचीन युग गिद्ध “ग्रिफॉन”, जिनके आगमन से लगता है…गिद्धों की संख्या में वृद्धि हो रही है।”
राजस्थान में, अचानक जब सर्दियों में गिद्ध देखने को मिलते हैं तो अक्सर लोग ये अनुमान लगाते हैं कि यहाँ गिद्धों की आबादी में बढ़ोतरी हो रही है। परन्तु वास्तव में इनमें से अधिक्तर तो हमारे सर्दियों के मेहमान होते हैं अतः प्रवास कर यहाँ आते हैं। इन प्रवासी गिद्धों के समूहों में मुख्यतः ग्रिफ़ॉन कुल की दो प्रजातियां यूरेशियन ग्रिफ़ॉन और हिमालयन ग्रिफ़ॉन देखने को मिलती है जिनके बारे में हम इस आलेख में जानेंगे…
“ग्रिफ़ॉन (Griffon)”, यह नाम ग्रीक भाषा के शब्द “Gryphos” से लिया गया है जिसका अर्थ होता है “हुक जैसी नाक वाला प्राणी” और यह स्पष्ट रूप से गिद्धों कि हुक के आकार वाली चोंच कि ओर इशारा करता है। साथ ही पौराणिक कहानियों में ग्रिफ़ॉन एक ऐसा प्राणी माना गया है जिसका सिर एवं पंख ईगल के तथा शरीर, टाँगे और पूँछ शेर कि होती है। आज विश्व में दो प्रकार के ग्रिफॉन पाए जाते हैं यूरेशियन ग्रिफ़ॉन और हिमालयन ग्रिफ़ॉन और इन्हें प्राचीन युग गिद्ध (Old World Vultures) भी कहा जाता है।
हिमालयन ग्रिफ़ॉन, भारतीय उपमहाद्वीप के हिमालय में पाया जाने वाला सबसे बड़े आकार का पक्षी है (फोटो: श्री रजत चोरडिया)
यूरेशियन ग्रिफ़ॉन (Eurasian Griffon) जिसे “Gyps fulvus” नाम से भी जाना जाता है, एक बड़े आकार का गिद्ध है जिसके पंखों का विस्तार लगभग 300 सेमी तक होता है। यानि एक 6 फ़ीट का आदमी अपने दोनों हाथों को फैलाये तो उसके हाथों के विस्तार से भी बड़ा इसके पंखों का विस्तार है। विभिन्न प्रजातियों के समूह में इसे आसानी से पहचाना जा सकता क्योंकि इसका शरीर मुख्यरूप से तीन रंगों का होता है जिसमें सिर व गर्दन सफ़ेद, शरीर हल्के भूरे रंग और पंख गहरे रंग के होते हैं। और सबसे ख़ास इसकी गर्दन पर सफेद पंखों का एक मफलर जैसा कॉलर होता है। इस गिद्ध की वितरण सीमा बहुत बड़ी है, यह मध्य पूर्व, उत्तरी अफ्रीका और यूरोप, भारत से पुर्तगाल और स्पेन में पाए जाते हैं परन्तु राजस्थान में ये किस ओर से आते है यह स्पष्ट नहीं हो पाया है क्योंकि अभी तक इनको रेडियो टैगिंग कर इनके प्रवास मार्ग का अध्यन्न नहीं किया गया है। पक्षी विशेषज्ञ डॉ दाऊ लाल के अनुसार राजस्थान में यूरेशियन ग्रिफ़ॉन कज़ाकिस्तान, अफगानिस्तान और बलुचिस्तान से आते हैं अर्थात इनका प्रवास मार्ग मध्य-पूर्व से दक्षिणी एशिया की ओर है। इस मार्ग को यूरेशियन ग्रिफॉन के अलावा अन्य प्रजातियां भी इस्तेमाल करती हैं।
वहीँ दूसरी ओर हिमालयन ग्रिफ़ॉन (Gyps himalayensis) भारतीय उपमहाद्वीप के हिमालय में पाया जाने वाला सबसे बड़े आकार का पक्षी है तथा यह दो सबसे बड़े प्राचीन युग गिद्धों (Old World Vultures) में से एक है। यह प्रजाति मुख्यरूप से हिमालय पर्वत श्रृंखला में पायी जाती है और इसी से इसका नाम हिमालयन ग्रिफ़ॉन रखा गया है। एक व्यस्क हिमालयन ग्रिफ़ॉन को उसके बड़े आकार, हल्के भूरे रंग के शरीर और गहरे व लगभग काले रंग के पंखों व पूंछ के कारण आसानी से यूरेशियन ग्रिफ़ॉन से अलग की किया जा सकता है परन्तु इसकी गर्दन का कॉलर मफलर जैसा नहीं बल्कि हल्के-भूरे लम्बे नोंकदार पंखों के गुच्छे जैसा होता है। यह मध्य एशिया के ऊपरी इलाकों के मूल-निवासी है, जो पश्चिम में कज़ाकिस्तान और अफगानिस्तान से लेकर पूर्व में पश्चिमी चीन, नेपाल, भूटान और मंगोलिया तक वितरित हैं तथा सर्दियों में उत्तरी भारत से दक्षिणी की ओर प्रवास करते हैं और इसी दौरान ये राजस्थान आते हैं। यदि हम हिमालय पर्वत श्रृंखला को देखे तो उसे चार भागों में बांटा जा सकता है; पाकिस्तान (POK), जम्मू कश्मीर, नेपाल और तिब्बत। राजस्थान में आने वाली हिमालयन ग्रिफ़ॉन कि आबादी पकिस्तान व् जम्मू कश्मीर से आती है, जबकि नेपाल वाली आबादी मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश और हिमांचल प्रदेश जाती है तथा तिब्बत कि आबादी चीन कि ओर प्रवास करती है।
राजस्थान में इन दोनों गिद्ध प्रजातियों को देखने का सबसे अच्छा स्थान है “जोड़बीड़” जहाँ ये एक साथ हजारों की तादाद में एकत्रित होते हैं यहाँ इन्हें आसानी से मृत जानवरों का मांस खाते और खेजड़ी व पीलू के पेड़ों पर बैठे देखा जा सकता है। जोड़बीड़ के अलावा इन्हें जैसलमेर में लाठी नामक स्थान पर भी देखा जा सकता है।
यूरेशियन ग्रिफ़ॉन
हिमालयन ग्रिफ़ॉन
आकार
95-105 सेमी
115-125 सेमी
पंख विस्तार
270-300 सेमी
270-300 सेमी
निरूपण
सिर व गर्दन सफ़ेद और गर्दन के आधार पर सफेद पंखों की एक कॉलर होती है।
शरीर हल्के भूरे रंग और पंख गहरे रंग के होते हैं।
चोंच व आँखे पीली तथा टाँगे व पंजे सलेटी ग्रे रंग के होते हैं और पूँछ काली होती है।
सिर हल्का पीला तथा गर्दन पर हल्के भूरे नोंकदार पंखों की एक कॉलर होती है।
शरीर मुख्यतः क्रीम और काला होता है। पृष्ठ भाग हल्का भूरा तो वहीँ पूंछ के पंख काले रंग के होते हैं।
छोटी पीली चोंच काफी मजबूत और सिरे से हुक जैसी होती है। टाँगे भूरे रंग के पंखों से ढकी होती हैं तथा पैर हरे-ग्रे से सफ़ेद तक होते हैं।
किशोर
किशोरों को आसानी से पहचाना जा सकता है क्योंकि व्यस्क होने तक उनकी कॉलर भूरे रंग की रहती है।
किशोर गहरे चॉकलेटी-काले रंग के होते हैं। सिर पूरी तरह से सफ़ेद और गर्दन पर गहरे चॉकलेटी पंखों की एक कॉलर होती है। अप्पर-विंग कोवेर्ट्स (Upperwing coverts) पर हल्के भूरे रंग की लकीरें (streakings) होती हैं। इनके अंडर विंग कोवेर्ट्स (Underwing coverts) पर दो सफ़ेद बैंड होते हैं और इन बैंड के कारण ही इसे सामान देखने वाले सिनेरियस वल्चर के किशोर से अलग पहचाना जा सकता है।
यूरेशियन ग्रिफ़ॉन (फोटो: श्री रजत चोरडिया)
यूरेशियन ग्रिफ़ॉन, एक बड़े आकार का गिद्ध है जिसके पंखों का विस्तार लगभग 300 सेमी तक होता है। (फोटो: श्री रजत चोरडिया)
इन दोनों गिद्ध प्रजातियों की खोज एवं वर्गिकी में इतिहास के रोचक पहलु छुपे हैं। जब हम यूरेशियन ग्रिफ़ॉन के बारे में पढ़ते हैं तो इसके वैज्ञानिक नाम के साथ दो वैज्ञानिकों कार्ल लुडविग वॉन हैब्लिट्ज़ (Carl Ludwig von Hablitz) और जोहान फ्रेडरिक गमेलिन (Johann Friedrich Gmelin) का नाम देखने को मिलता है। हैब्लिट्ज़ एक रूसी वनस्पति वैज्ञानिक थे जिन्होंने वर्ष 1783 में द्विपद नामकरण पद्धति का अनुसरण करते हुए यूरेशियन ग्रिफ़ॉन को Gyps fulvus नाम दिया। परन्तु हैब्लिट्ज़ ने केवल एक वाक्य में इसका विवरण दिया था जिससे इस गिद्ध के बारे में ज्यादा जानकारी नहीं मिलती थी। इसके पश्चात वर्ष 1788 में एक जर्मन प्रकृतिविद गमेलिन ने यूरेशियन ग्रिफ़ॉन का सबसे पहला विस्तृत वर्णन दिया, जिसे उन्होंने कार्ल लिनिअस (Carl Linnaeus) द्वारा लिखित पुस्तक Systema Naturae के 13 वें संस्करण में प्रकाशित किया गया। कुछ पुस्तकों कि समीक्षा करने पर यह भी पाया जाता है कि व्यापक विस्तार होने के कारण एक समय पर इसकी दो उप-प्रजातियां मानी जाती थी; G.f. fulvus को रुसी वनस्पति वैज्ञानिक हैब्लिट्ज़ ने वर्ष 1783 में पर्शिया से दर्ज की और G.f. fulvescens को वर्ष 1869 में ऐ ओ ह्यूम (A O Hume) ने भारत से दर्ज की। ह्यूम, भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस पार्टी के संस्थापक थे तथा इन्हें “Father of Indian Ornithology” के नाम से भी जाना जाता है। ह्यूम ने वर्ष 1869 में जहाँ एक ओर यूरेशियन ग्रिफॉन की एक उपप्रजाति दर्ज की वहीं दूसरी ओर उसी वर्ष गिद्ध की एक नयी प्रजाति “हिमालयन ग्रिफ़ॉन” को भी खोजा।
ब्रिटिश पक्षीविज्ञान संघ के अध्यक्ष “Lord Lilford” द्वारा बनाया गया तथा उनकी पुस्तक “Colored figures of The Birds of The British Islands” में प्रकाशित यूरेशियन ग्रिफॉन का चित्र
जिसके बारे में ह्यूम, अपनी पुस्तक “My Scrapbook” में बताते हैं कि वे वर्ष 1867 में धर्मशाला के पास पिकनिक मनाने गए हुए थे, तब पहली बार उन्होंने इस पक्षी को एक ऊँची चट्टान पर बैठे हुए देखा। उन्हें लगा की चट्टान ज्यादा ऊँची नहीं है तथा एक पत्थर फेक कर उसे उड़ाया जाए ताकि उसकी पहचान की जा सके। परन्तु जब नीचे से पत्थर फेका गया तो वह चट्टान कि आधी ऊंचाई तक भी नहीं पहुंचा। ह्यूम को चट्टान की ऊंचाई और उस तक पहुँचने की कठिनाई का एहसास हो चूका था। परन्तु उन्होंने हार नहीं मानी और दो पहाड़ी लोगों को बुलाया, जिनके साथ वे चट्टान के ऊपर पहुंचे। इंसानों को देख गिद्ध तो उड़ गया परन्तु वहां एक चूज़ा था, जिसे देख ह्यूम ने अगले वर्ष का इंतज़ार करना शुरू कर दिया। अगले वर्ष 1868 वहां दो घोंसले मिले और साथ ही गिद्ध भी दिखाई दिया। उस गिद्ध को देख ह्यूम को ये विचार आया की यह गिद्ध कुछ अलग है, तथा पक्षी विशेषज्ञ Blyth और Jerdon ने हमें भारतीय गिद्धों की केवल तीन प्रजातियां (Gyps fulvus, Gyps indicus, Gyps bengalensis) बतायी हैं जबकि चार होनी चाइये। इसके पश्चात ह्यूम ने इस गिद्ध को और ध्यानपूर्वक तरीके से जाँचा और एक नयी प्रजाति के रूप में स्थापित किया तथा वर्ष 1869 में द्विपद नामकरण पद्धति के अनुसार “Gyps himalayensis” नाम दिया।
प्रजनन (Breeding):
यूरेशियन ग्रिफ़ॉन और हिमालयन ग्रिफ़ॉन, दोनों प्रजातियां लगभग 4 से 5 साल की उम्र में प्रजनन के लायक हो जाती हैं और ये पूरी तरह से मोनोगैमस (monogamous) होती हैं अर्थात नर व मादा की जोड़ी आजीवन साथ रहती है। यूरेशियन ग्रिफ़ॉन, प्रजनन काल में घोंसले की चट्टानों के आसपास एक विशेष उड़ान का प्रदर्शन करते हैं जिसमें साथी जोड़ी एक-दूसरे के पीछे रहकर आसमान में गोल-गोल चक्कर लगाते हैं। दोनों साथी एक दूसरे के इतने करीब रहते हैं कि नीचे से देखने पर ऐसा लगता हैं जैसे एक ही गिद्ध उड़ रहा है। यह आमतौर पर चट्टानों के खोखले भागों में, चट्टानों के किनारे या गुफाओं में 40 से 50 के समूहों में घोंसले बनाते व प्रजनन करते हैं। परन्तु पाकिस्तान (POK), टर्की और अफगानिस्तान में पायी जाने वाली आबादी पेड़ों पर घोंसले बनाती हैं और यही कारण है कि राजस्थान में इनको पेड़ों पर बैठे देखा जा सकता है। जनवरी से फरवरी के बीच मादा एक अंडा देती है जिसे लगभग डेढ़ से दो महीनों (45 से 60 दिनों) तक इन्क्यूबेट किया जाता है। अंडा देने के समय से लेकर जब तक चूज़ा अपनी उड़ान नहीं भर लेता मादा एक पल के लिए भी अपने घोंसले को अकेला नहीं छोड़ती है परिणामस्वरूप, नर गिद्ध को मादा व चूज़े के लिए भोजन व्यवस्था करनी पड़ती है। अण्डों से बाहर आने के बाद नर व मादा मिलकर चूज़े का लगभग 113 से 159 दिनों तक ख़याल रखते हैं। यूरेशियन ग्रिफ़ॉन से बिलकुल विपरीत हिमालयन ग्रिफ़ॉन में किसी भी प्रकार का प्रणय प्रदर्शन (courtship display) या विशेष प्रकार की उड़ान नहीं देखी जाती है परन्तु इनमें प्रजनन काल में मादाओं की छाती के पास एक हल्के लाल रंग आभा देखी जाती है।
हिमालयन ग्रिफ़ॉन, आमतौर पर घोंसले वाली जगह पर ही प्रजनन करते हैं, लेकिन कभी भी जमीन पर नहीं। यह आमतौर पर साल-दर-साल एक ही घोंसले के स्थान पर लौटते हैं। यह चट्टानों के खोखले भागों में, चट्टानों के किनारे या गुफाओं में छोटे समूहों में घोंसले बनाते व प्रजनन करते हैं। अन्य गिद्धों की तुलना में, वयस्क हिमालयन ग्रिफ़ॉन कम मिलनसार होते हैं, इसीलिए ये अकेले या फिर 5 से 6 घोंसलों की कॉलोनी में रहना पसंद करते हैं। घोंसले बनाने में नर व मादा दोनों बराबर भूमिका निभाते हैं। अक्सर ऐसा भी देखा गया है कि कई बार यह पुराने घोंसले की मरम्मत करके उनको भी इस्तेमाल कर लेते हैं। आमतौर पर दिसंबर से मार्च तक घोंसले बनाए या मरम्मत किए जाते हैं। प्रत्येक मादा द्वारा जनवरी से अप्रैल के बीच केवल एक ही अंडा दिया जाता है। फरवरी से मई के बीच नर व मादा बारी-बारी से अंडे को सेते है और जुलाई से सितंबर तक चूजों का लालन-पालन किया जाता है। शुरूआती दिनों में ये अपने पेट से एक गाढ़ा, सफ़ेद तरल पदार्थ निकालते है, जो चूजों के लिए प्राथमिक खाद्य स्रोत के रूप में कार्य करता है, और फिर बाद में इनको मांस के छोटे टुकड़े खिलाना शुरू किया जाता है। कुल मिलकर, देखा जाए तो दोनों नर और मादा सामान जिम्मेदारियां निभाते हैं।
आहार व्यवहार (Feeding Behaviour):
गिद्ध केवल मृत जानवरों का मांस खाते हैं। ग्रिफ़ॉन गिद्धों में गंध लेने की शक्ति कम होती है इसीलिए अपने भोजन को खोजने के लिए ये पूरी तरह से अपनी तेज दृष्टि पर निर्भर रहते हैं। जब एक गिद्ध को कोई मारा हुआ जानवर मिल जाता है, तो दूसरे गिद्ध उसको नीचे जाते देख अन्य गिद्ध भी नीचे उतर जाते हैं। यूरेशियन ग्रिफ़ॉन की चोंच बाकि गिद्धों जितनी मजबूत नहीं होती है इसीलिए ये मृत जानवरों की कठोर चमड़ी को फाड़ने में असमर्थ होते हैं, तथा ये दूसरी गिद्ध प्रजातियों द्वारा शव को खोलने या फिर सूरज कि गर्मी द्वारा चमड़ी के फटने का इंतज़ार करते हैं। यह बड़े समूहों में अन्य गिद्ध प्रजातियों के साथ मिलकर खाना खा लेते हैं। वहीँ दूसरी और हिमालयन ग्रिफ़ॉन अपने बड़े आकार के कारण अन्य गिद्धों के साथ भोजन करते समय ये अपना वर्चस्व स्थापित रखते हैं तथा अन्य गिद्ध भी इनसे दूर रहते हैं। इन गिद्धों के मुर्दाखोर होने के कारण ही तो आज इनकी आबादी विभिन्न प्रकार के खतरों का सामना कर रही है।
ग्रिफ़ॉन बड़े समूहों में अन्य गिद्ध प्रजातियों के साथ मिलकर खाना कहते हैं। (फोटो: श्री रजत चोरडिया)
खतरे (Threats):
गिद्ध मृत जानवरों को खाकर हमारे पर्यावरण को साफ़-सुथरा रखते हैं साथ ही पारिस्थितिक तंत्र में भोज्य श्रृंखला को भी बनाये रखते हैं। एक समय था जब भारत में गिद्धों कि बड़ी आबादी पायी जाती थी परन्तु पशुओं को दिये जाने वाली दर्द निवारक दवाई डाइक्लोफिनॅक (Diclofenac) है के कारण भारत से गिद्धों कि आबादी का एक बड़ा हिस्सा (97%- 99%) खतम हो गया। परिणामस्वरूप आज हिमालयन ग्रिफ़ॉन IUCN की रेड डाटा बुक के अनुसार खतरे में (Near Threatened) है। वहीं दूसरी ओर क्योंकि यूरेशियन ग्रिफॉन भारत में प्रवासी प्रजाति है उनकी आबादी पर ज्यादा बुरा असर नहीं पड़ा। परन्तु स्पेन में डाइक्लोफिनॅक जैसी ही एक दवाई फ्लूनिक्सिन (Flunixin) के कारण यूरेशियन ग्रिफॉन वहां खत्म होने वाली पहली गिद्ध प्रजाति थी।
डाइक्लोफिनॅक के बंद होने के बाद अब ketoprofen और aceclofenac नामक दवाइयां गिद्धों के लिए हानिकारक हैं। (फोटो: श्री रजत चोरडिया)
भारत सरकार द्वारा डाइक्लोफिनॅक की बिक्री व् इस्तेमाल पूरी तरह से बंद करवा दिया गया है परन्तु इसके अलावा भी गिद्धों पर कई और खतरे भी हैं जिनमें से सबसे मुख्य है भोजन की उपलब्धता।
शहरी इलाकों में कचरा निस्तारण विधियों (Solid waste management) के चलते गिद्धों को प्रयाप्त भोजन नहीं मिल पाता है जिसके कारण वे एक स्थान से दूसरे स्थान भोजन के लिए घूमते हैं तथा उनकी आबादी पर नकारात्मक प्रभाव भी पड़ते हैं। ऐसा ही कुछ हुआ है जोधपुर स्थित “केरु डंप” के पास, जहाँ प्रतिवर्ष सर्दियों में हिमालयन ग्रिफ़ॉन और यूरेशियन ग्रिफॉन एक बड़ी संख्या में आया करते थे। परन्तु वर्ष 2008 में, नगरपालिका अपशिष्ट प्रबंधन विभाग द्वारा केरू डंपिंग क्षेत्र, में मृत पशुओं के शवों का प्रक्रमण संयंत्र शुरू किया। इसके चलते अब शवों को सीधे मशीन में डालकर एक पाउडर के रूप में परिवर्तित कर दिया जाता है, जो कृषि और मछलियों के भोजन के रूप में उपयोग में लिया जाता है। परिणामस्वरूप वहां आने वाले प्रवासी गिद्ध अब बीकानेर में जोड़बीड़ की ओर आने लगे हैं।
कचरा निस्तारण विधियों के अलावा दूसरी समस्या है “कचरे के ढेरों में आग लगाई जाना” और इसका उदाहरण है उदयपुर का डंपिंग क्षेत्र, जहाँ बड़ी तादाद में घरेलु व बूचड़खानों का कचरा डाला जाता था। पर्याप्त मात्रा में भोजन मिलने के कारण वहां गिद्धों की विभिन्न प्रजातियां पाई जाती थी। परन्तु फिर वहां नियमितरूप से कचरा जलाने की प्रकिया शुरू की गयी, जिसके चलते वहां हर समय प्लास्टिक का हानिकारक धुँआ रहने लगा और धीरे-धीरे वहां से गिद्ध पूरी तरह से चले गए है। आज वहां हालत कुछ ऐसे है की हर समय कहीं न कहीं धुंआ उठता ही रहता है तथा गिद्ध तो क्या वहां अन्य पक्षी भी मुश्किल से दिखाई देते हैं।
इन डंपिंग क्षेत्रों के आसपास आवारा कुत्तों की बढ़ती आबादी भी गिद्धों के लिए एक बड़ा खतरा बन रही है। डंपिंग क्षेत्रों के आसपास कुत्ते, गिद्धों के साथ न सिर्फ भोजन के लिए प्रतिस्पर्धा करते हैं, बल्कि कई बार गिद्धों के ऊपर हमला भी कर देते हैं। भोजन की कमी और आवारा कुत्तों की आबादी में वृद्धि ने गिद्धों को पलायन के लिए मजबूर किया है। डंपिंग क्षेत्र के आसपास बिजली की तारों से करंट लग जाने के कारण भी गिद्धों की कई बार मौत हो जाती है।
इसके अलावा अभी भी कुछ दवाइयां ऐसी हैं जो गिद्धों के हानिकारक हैं। डॉ बोहरा के अनुसार डाइक्लोफिनॅक के बंद होने के बाद अब बाज़ार में ketoprofen और aceclofenac नामक दवाइयां बिकती हैं तथा इन दवाइयों का भी गिद्धों के ऊपर जानलेवा प्रभाव पड़ता है।
इस समय की आवश्यकता यह है की गिद्धों के संरक्षण के लिए कड़े कदम उठाये जाए जिसमे विशेष रूप से उनके लिए भोजन की उपलब्धता की ओर ध्यान दिया जाना चाइये।
सन्दर्भ:
Saran, R. 2017. Population monitoring and annual population fluctuation of migratory and resident species of vultures in and around Jodhpur, Rajasthan. Journal of Asia-Pacific Biodiversity 10 (2017) 342e348
Khatri, P.C. 2012. The increase in the population of Eurasian Griffon vulture (gyps fulvus) at Jorbeer, Bikaner: carcass dump as key habitats for winter migration in the griffon vultures. International Journal of Geology, Earth and Environmental Sciences. Vol. 2 (2)
Chhangani, A.K. and Mohnot, S.M. 2008. Demography of migratory vultures in and around Jodhpur, India. Vulture News 58
Saran, R.P. and Purohit, A. 2012. Eco-transformation and electrocution. A major concern for the decline in vulture population in and around Jodhpur. Volume 3(2): 111-118
Grimmett, R., Inskipp, C. and Inskipp, T. 2014. Birds of Indian Subcontinent.
Hume, A.O. 1889. The Nests and Eggs of Indian Birds. Vol. 1. 2nd London.
The Caracal (Caracal caracal) is among the most widespread small cats in the world. However, knowledge of its conservation status and ecology in its Asian range countries is minimal and severely outdated. Consistent reports however do originate from India, Israel and Iran. The Caracal has interestingly been considered rare in India for a little more than three centuries. In 1671, President Gerald Aungier, British East India Company Officer who became the second Governor of Bombay, was presented a Caracal by the Mughal General Diler Khan in exchange for a pair of English greyhounds. Even back then, Aungier was made aware of what a rarity the Caracal was in India and thus arranged to have it shipped back to England. Naturalists have continued to comment on the Caracal’s rarity in India since then to the present day, with some even going as far as to suggest that it is on the verge of extinction.
However, little is known of the Caracal’s ecology in India during the last four centuries. In order to understand whether the species has indeed experienced a decline in India, Dr. Dharmendra Khandal and Ishan Dhar of Ranthambhore based NGO, Tiger Watch and Dr. G.V. Reddy, recently retired as Head of Forest Forces for the state of Rajasthan conducted a study on the Historic and current extent of occurrence for the Caracal in India published in the most recent special issue on small wild cats in the Journal of Threatened Taxa. This is the culmination of two yearlong effort, which involved the review of several books and journals as well as sourcing and interacting with individuals from all walks of life who might have crossed paths with this elusive animal in India.
Cover photo of December month edition of Journal of Threatened Taxa
Despite the Caracal’s rarity, it has an extraordinarily rich history with humans in India. The Caracal was prized for its ability to hunt birds mid-flight. The vernacular name, Caracal, originates from the Turkic word Karakulak, which literally translates to ‘black-ear’, drawing emphasis on its long black tufted ears. In India, the Caracal is vernacularly known by its Persian name, Siyagosh, which also directly translates to ‘black-ear’. A fable from the Sanskrit text, the Hitopadesa, focuses on a small wild cat named Dirgha-karan or ‘long-eared’ preying on a bird’s chicks. This is the closest we come to what could possibly be a Caracal in Sanskrit literature. In fact, it was only in 1953, that a Sanskrit name, sas-karan or ‘rabbit like ears’ was proposed as a part of a broader attempt at formulating Sanskrit nomenclature for the fauna of India, Myanmar and Sri Lanka following the Linnaean system of classification.
The Caracal was first used as a coursing animal in India during the Delhi Sultanate. In the 14th century, Sultan Firoz Shah Tughlaq established a ‘Siyah-Goshdar Khana’ for the maintenance of his vast collection of coursing Caracals. The Third Mughal Emperor Akbar also used the Caracal extensively for coursing. It was during the Akbar’s reign that the Caracal also began to be represented in illustrated simplified Persian illustrations of Sanskrit, Arabic and Turkic texts literature such as Anvar-i-Suhayli, Tutinama, as well as Persian classics such as the Khamsa-e-Nizami and Shahnameh. The Caracal’s extensive use historically as a coursing animal and the lack of a Sanskrit name led to some questioning whether the species is indigenous to India at all. However, in 1982, a scientist with the ZSI, Mranomoy Ghosh re-examined a skull fragment purported to have been the earliest fossil of a domestic cat in India. The fragment had been collected from Harappa in 1930 and had been erroneously identified as that of the domestic cat. Ghosh reviewed the skull and discovered that it in fact belonged to a Caracal. This fossil record is India’s oldest Caracal finding, dating to 3000-2000 BC and establishing that the Caracal was present in the Indian subcontinent during the Indus Valley Civilization.
The vernacular name, Caracal, originates from the Turkic word Karakulak, which emphasis on its long black tufted ears. (Photo: Dr. Dharmendra Khandal)
However, it is possible that the Caracal’s rarity can be explained by landscape-level anthropogenic changes that have occurred in India since at least 1880. Examining changes to the Caracal’s extent of occurrence in India is a step towards understanding how such change could have impacted the species. In this endeavour, the authors of the study attempted to collate all records of the Caracal in India from the start of recorded history until April 2020, map its historical extent of occurrence and evaluate any changes to its present extent of occurrence. An endeavour made all the more challenging by the prevalence of coursing Caracals historically as well as the at times frustratingly elusive behaviour of wild Caracals.
The authors search entailed an extensive review of literature from the onset of recorded history to the year 2020, spanning almost four centuries. This included the writings of naturalists, zoologists, natural historians, historians, forest officers, gazetteers, chroniclers, erstwhile royalty and army officers. An examination of Caracal specimens deposited at the Bombay Natural History Society (BNHS), Zoological Survey of India (ZSI), the Natural History Museum in London, private trophy collections in India and other museums was also conducted, along with open-ended interviews with forest officers and biologists who observed the Caracal in the field and people who provided photographs. The authors collated and categorized reports according to their reliability in the following manner: A.) confirmed reports based on tangible evidence like photographs, specimens including animal carcasses or body parts that can be accessed currently; B.) confirmed reports based on direct sightings of live or dead individuals, specimens submitted to museums that are no longer accessible or missing, photographic reports that are no longer accessible, destroyed or missing; C.) confirmed reports that indicate Caracal occurrence through species specific information which includes species description and the provision of distinct vernacular names; D.) unconfirmed or questionable reports without any accompanying description, photos or erroneous description.
Indeed 33 reports were considered ‘unconfirmed’ as they were questionable or erroneous. Misidentification with the Jungle Cat is also an ever -present challenge, with erroneous reports continuing to be perpetuated to this day, simply because they have been published. The authors strictly did not include any reports of captive or coursing Caracals as their wild origins were unknown unless explicitly stated. In addition, a regular camera trapping exercise carried out by Tiger Watch’s Village Wildlife Volunteers in and around the Ranthambhore Tiger Reserve since 2015 was also drawn upon. For this exercise, camera trapping is carried out by trained pastoral herders monitoring tigers outside the Tiger Reserve. All reports gleaned from this search were geotagged onto maps to determine the historical and current extent of occurrence areas.
In India there are only two potentially viable populations of Caracal, one in the Ranthambore Tiger Reserve and other in the Kutch district of Gujarat. (Photo: Dr. Dharmendra Khandal)
The authors collated 134 reports starting from the year 1616 until April 2020. The Caracal was historically present in 13 Indian states and in 9 out of 26 biotic provinces. Since 2001, the Caracal’s presence has been reported in the three states of Rajasthan, Gujarat and Madhya Pradesh and four biotic provinces, with only two possible viable populations in the Ranthambhore Tiger Reserve in Rajasthan and the district of Kutch in Gujarat. Prior to 1947, the Caracal was reported from an area of 793,927 km2. Between 1948 and 2000, the Caracal’s reported extent of occurrence in India decreased by 47.99%. From 2001 to 2020, the reported extent of occurrence further decreased by 95.95%, with current presence restricted to 16,709km2, less than 5% of the Caracal’s reported extent of occurrence in the 1948 to 2000 period and just 2.17% of the period before 1947.
In Rajasthan, there have been a total of 24 Caracal reports since the year 2001. 17 of these reports are backed by photographic evidence. 15 of which are from Ranthambhore, along with a photograph taken from Sariska in 2004 and a camera trap picture from the Keoladeo Ghana National Park in Bharatpur in 2017. However, from 2015 to April 2020, the Village Wildlife Volunteers obtained 176 camera trap pictures of Caracals from 6 locations in and around the Ranthambhore Tiger Reserve. Their camera trapping efforts even conclusively established the Caracal’s presence in the district of Dholpur in Rajasthan. This is the largest repository of photographs for the Caracal in India and quite possibly its entire Asian range. With Ranthambhore being one of two possible viable populations in India, the Village Wildlife Volunteers will be indispensable to any forthcoming conservation intervention concerning the Caracal in India. Since 2001, there have been only 9 photographic Caracal records from Kutch and no photographic records from Madhya Pradesh.
Camera trap photo taken by Village Wildlife Volunteers (PC: Tiger Watch)
It is possible that the Caracal might still be present but underreported in states like Maharashtra, Madhya Pradesh, Uttar Pradesh, and the eastern parts of India. Targeted surveys will be required to further verify and adjust the putative reduction in range size established by this study. With the exception of a handful of studies, there has been virtually no contribution to the knowledge of Caracal ecology in India in the 21st century. Surveys on Caracal population size, reproduction, mortality, home range sizes, and prey dynamics are the need of the hour. A review of just how the categorization of land as a wasteland, impacts the Caracal, which is a scrub dwelling species is also urgently required. Long-term studies focusing on the movement patterns of Caracals to determine and establish wildlife corridors that are suitable to connect the remaining fragmented population units are equally essential. The authors of the study hope to inspire conservationists to join the fight to prevent the Caracal from becoming extinct in India.
Authors:
Mr. Ishan Dhar (L) is a researcher of political science in a think tank. He has been associated with Tiger Watch’s conservation interventions in his capacity as a member of the board of directors.
Dr. Dharmendra Khandal (R) has worked as a conservation biologist with Tiger Watch – a non-profit organisation based in Ranthambhore, for the last 16 years. He spearheads all anti-poaching, community-based conservation and exploration interventions for the organisation.
कैरेकल यानि सियागोश, दुनिया में सबसे व्यापकरूप से पाई जाने वाली एक छोटे आकार की बिल्ली प्रजाति है। जो विश्व के 60 देशों में मिलती है। हालाँकि, एशियाई देशों में इसके संरक्षण की स्थिति और पारिस्थितिकी के बारी में जानकारी बहुत ही कम और पुरानी है। परन्तु फिर भी अगर देखा जाए तो भारत, इज़राइल और ईरान से लगातार इसकी उपस्थिति की सूचनाएं मिलती रहती हैं। भारत में तीन शताब्दियों से भी अधिक समय से कैरेकल को दुर्लभ माना जाता रहा है। वर्ष 1671 में, ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी के अधिकारी जेराल्ड औंगियर (Gerald Aungier), जो बॉम्बे के द्वितीय गवर्नर भी थे, को मुगल जनरल दलेर खान द्वारा शिकारी कुत्तों (English greyhounds) की एक जोड़ी के बदले में एक कैरेकल भेंट किया गया था। उस समय, भारत में कैरेकल की दुर्लभता के बारे में भी औंगियर को अवगत करवाया गया था। तब से लेकर आज तक प्रकृतिवादियों ने भारत में कैरेकल की दुर्लभता पर टिप्पणियां करना जारी रखा हुआ है, और कुछ ने तो यह भी कहा है कि यह विलुप्त होने के कगार पर है। जबकि, हम ध्यान से देखे तो आज तक भारत में कैरकल की स्थिति के बारे में बहुत कम जानकारी ही रही है।
रणथम्भौर स्थित वन्यजीव संरक्षण संस्था टाइगर वॉच के शोधार्थी डॉ धर्मेंद्र खांडल, श्री ईशान धर एवं हाल ही में सेवानिवृत्त हुए राजस्थान के हेड ऑफ़ फारेस्ट फोर्सेज डॉ जी.वी. रेड्डी, ने भारत में कैरेकल की ऐतिहासिक और वर्तमान वितरण सीमा पर एक अध्ययन किया है, जो की “Journal of Threatened Taxa” में प्रकाशित हुआ है, इसमें यह देखा गया है, की भारत देश में कैरकल की क्या स्थिति है? यह दो साल के लंबे अध्ययन से लिखा गया शोध पत्र है, जिसमें कई पुस्तकों और जर्नल की समीक्षा के साथ-साथ विषय के विशेषज्ञ और विभिन्न लोगों के साथ वार्ता की गयी है, जो इस जीव की स्थिति पर प्रकाश डालती है।
“Journal of Threatened Taxa” के दिसम्बर माह संस्करण का कवर फोटो
कैरेकल के दुर्लभ होने के बावजूद, भारत में इसका मनुष्यों के साथ एक बहुत ही समृद्ध इतिहास रहा है। हमेशा से ही कैरेकल, कलाबाजी करते हुए उड़ते हुए पक्षियों का शिकार करने की अदभुत क्षमता के कारण जाना जाता रहा है। इसका “कैरेकल” नाम एक तुर्की भाषा के शब्द “कराकुलक” से निकला है, जिसका अर्थ, काले कान (Black ears) वाला प्राणी होता है, जो सीधे-सीधे इसके लंबे काले कानों के बारे में बताता है। भारत में, कैरेकल को इसके फ़ारसी भाषा के नाम “सियागोश” से जाना जाता है, और यह भी सीधे इसके लम्बे काले कानों की ओर इशारा करता है।
संस्कृत ग्रंथ “हितोपदेश” की एक कहानी, एक छोटी जंगली बिल्ली जिसका नाम “दीर्घ-करण या लम्बे कान वाली बिल्ली” की ओर ध्यान केंद्रित करती है तथा यह बिल्ली अक्सर पक्षियों का शिकार करती है, लगता है मानों यह कैरकल के लिए सबसे उपयुक्त नाम है। यद्धपि वर्ष 1953 में, जीवों के वैज्ञानिक नाम जो लिनियस (Linnaeus) की द्विपद नामकरण पद्धति पर आधारित है, उनको जब भारत में संस्कृत रूपांतरित किया गया तो कैरकल के लिए एक संस्कृत नाम “शश-कर्ण” या “खरगोश जैसे कान” प्रस्तावित किया गया था।
कैरेकल एक छोटी बिल्ली प्रजाति है जिसके काले लम्बे कान उसकी मुख्य पहचान है (फोटो: डॉ. धर्मेंद्र खांडल)
इतिहास पढ़ने पर पता लगता है की दिल्ली सल्तनतम काल के दौरान सियागोश को पहली बार भारत में एक शिकार में प्रयोग होने वाले प्राणी के रूप में इस्तेमाल किया गया था। सुल्तान फिरोज शाह तुगलक के पास सियागोश का एक विशाल संग्रह था तथा 14 वीं शताब्दी में, सुल्तान ने संग्रह के रखरखाव के लिए एक “सियाह-गोशदार खाना” की स्थापना की। तीसरे मुगल बादशाह अकबर ने भी शिकार करने के लिए सियागोश का एक बड़े पैमाने पर इस्तेमाल किया करते थे तथा अकबर के शासनकाल के दौरान, सियागोश को संस्कृत, अरबी और तुर्क ग्रंथों के साहित्य जैसे कि अनवर-ए-सुहाइली, तूतिनामा, साथ ही फारसी क्लासिक्स जैसे खम्सा-ए-निज़ामी में चित्रित किया जाने लगा। ऐतिहासिक रूप से सियागोश का एक अच्छे शिकारी के रूप में व्यापक उपयोग और संस्कृत नाम की कमी के कारण कुछ प्रश्न सामने खड़े होते हैं की क्या यह प्रजाति भारत की स्वदेशी है भी? या नहीं? हालांकि, 1982 में, ZSI के एक वैज्ञानिक, मृण्मय घोष ने एक कपाल के हिस्से की जांच की, जो भारत में एक सियागोश का सबसे पुराना जीवाश्म था। यह टुकड़ा 1930 में हड़प्पा से एकत्रित किया गया था और गलती से घरेलू बिल्ली के रूप में पहचाना गया था। घोष ने खोपड़ी की अच्छी तरह समीक्षा की और पाया कि यह वास्तव में एक सीतेगोश का है। यह जीवाश्म भारत के सबसे पुराने सियागोश की खोज थी, जो 3000-2000 ईसा पूर्व की थी और यह जीवाश्म सिद्ध करता है की सियागोश सिंधु घाटी सभ्यता के दौरान भारतीय उपमहाद्वीप में मौजूद था।
भारत में बढ़ती जनसंख्या के कारण हुए लैंडस्केप में परिवर्तनों के कारण सियागोश की स्थिति शायद अत्यंत प्रभावित हुई है। इसी प्रयास में, इसअध्ययन के लेखकों ने इतिहास की शुरुआत से अप्रैल 2020 तक भारत में सियागोश की उपस्थिति की सभी सूचनाएं एकत्रित करने का प्रयास किया, तथा इन सभी सूचनाओं को नक़्शे पर दर्शाया और साथ ही ऐतिहासिक वितरण सीमा व् वर्तमान सीमा में बदलावों का मूल्यांकन भी किया गया। इस शोध को शिकार में प्रयोग होने वाले पालतू सियागोश और जंगली सियागोश ने अधिक चुनौतीपूर्ण बना दिया।
इस अध्ययन के लेखकों ने इतिहास की शुरुआत से लेकर 2020 के उपलब्ध साहित्य की व्यापक समीक्षा की। इसमें प्रकृतिवादियों, जीव विशेषज्ञों, प्राकृतिक इतिहासकारों, इतिहासकारों, वन अधिकारियों, राजपत्रकारों, तत्कालीन राजपरिवारो और सेना के अधिकारियों के लेखन शामिल थे। बॉम्बे नेचुरल हिस्ट्री सोसाइटी (BNHS), जूलॉजिकल सर्वे ऑफ इंडिया (ZSI), लंदन नेचुरल हिस्ट्री म्यूजियम, भारत में निजी ट्रॉफी संग्रह और अन्य संग्रहालयों में जमा किए गए सियागोश के नमूनों के रिकॉर्ड भी एकत्रित किये गए, साथ ही वन अधिकारी और जीव-वैज्ञानिक जिन्होंने साक्षात सियागोश का अवलोकन किया है और जिन लोगों ने तस्वीरें ली हैं सभी से वार्ता कर जानकारी हासिल की गयी। लेखकों ने अपनी विश्वसनीयता के अनुसार निम्नलिखित तरीकों से सूचनाओं को एकत्रित और वर्गीकृत किया: A) वर्तमान में उपलब्ध तस्वीरों, शरीर के अंगों सहित नमूनों के ठोस सबूतों के आधार पर पुष्टि की गई हैं; B) जीवित या मृत सियागोश के प्रत्यक्ष दर्शन पर आधारित स्पष्ट सूचनाएं, संग्रहालयों को प्रस्तुत किए गए नमूने परन्तु जो अब उपलब्ध नहीं या गायब हैं, फोटोग्राफिक रिपोर्ट जो अब उपलब्ध नहीं, नष्ट या गायब हैं; C) पक्की सूचनाएं जो सियागोश की विशिष्ट जानकारी के माध्यम से उपस्थिति की सुचना देती हैं, जिसमें इसका विवरण और अलग-अलग मौखिक नामों का प्रावधान भी शामिल है; D) बिना किसी विवरण, फोटो या गलत विवरण वाली अपुष्ट या संदिग्ध सूचनाएं।
इस अध्ययन के दौरान 33 रिपोर्टों को ‘अस्पष्ट’ माना गया क्योंकि वे संदिग्ध या गलत थीं। अक्सर लोग जंगल कैट (Jungle cat) को सियागोश समझ लेते हैं और यह हमेशा एक चुनौती रही है। इस प्रकार की गलत खबरें आज भी जारी हैं, और यह गलत सूचनाएं प्रकाशित भी होती रही है। इस अध्ययन के लेखकों ने सख्ती से पालतू सियागोश (coursing Caracals) की सुचना को अध्ययन में शामिल नहीं किया, जिनके मूल स्थान अज्ञात थे। इसके अलावा, 2015 के बाद से रणथंभौर टाइगर रिजर्व और उसके आसपास के क्षेत्र में टाइगर वॉच के Village Wildlife Volunteers द्वारा लगाए गए कैमरा ट्रैप की तस्वीरें भी शामिल की गयी। यह कैमरा ट्रैपिंग पूर्णरूप से प्रशिक्षित ग्रामीण चरवाहों द्वारा की जाती है जो टाइगर रिज़र्व से बाहर निकलने वाले बाघों की निगरानी करते हैं। तथा इस खोज से निकली सभी रिपोर्टे ऐतिहासिक और वर्तमान सीमा को निर्धारित करने के लिए नक्शे पर दर्शाई गई।
भारत में सियागोश कि केवल दो संभावित आबादियां हैं एक राजस्थान स्थित रणथंभौर टाइगर रिज़र्व में और दूसरी गुजरात के कच्छ जिले में। (फोटो: डॉ. धर्मेंद्र खांडल)
लेखकों ने वर्ष 1616 से शुरू होकर अप्रैल 2020 तक कुल 134 रिपोर्टों को एकत्रित किया। सियागोश ऐतिहासिक रूप से 13 भारतीय राज्यों में और 26 में से 9 बायोटिक प्रांतों में मौजूद पाया गया। वर्ष 2001 से, सियागोश की उपस्थिति केवल तीन राज्यों राजस्थान, गुजरात और मध्य प्रदेश तथा चार बायोटिक प्रांतों में बताई गई है, और उसमे भी केवल दो संभावित आबादियां हैं एक राजस्थान स्थित रणथंभौर टाइगर रिज़र्व में और दूसरी गुजरात के कच्छ जिले में। 1947 से पहले, सियागोश 793,927 वर्ग किमी के क्षेत्र से रिपोर्ट किया गया था। वर्ष 1948 से 2000 के बीच, सियागोश की भारत में उपस्थिति का विस्तार 47.99% घट गया। 2001 से 2020 तक, उपस्थिति का विस्तार 95.95% कम हो गया तथा वर्तमान में इसका विस्तार 16,709 वर्ग किमी तक सीमित है। 1948 से 2000 में सियागोश की सूचनाएं 5% से कम हो गयी तथा इनका विस्तार 1947 से पहले की अवधि का सिर्फ 2.17% ही रह गया था।
राजस्थान में वर्ष 2001 से अब तक सियागोश की कुल 24 सूचनाएं आ चुकी हैं। इनमें से 17 सूचनाओं की फोटोग्राफिक प्रमाण द्वारा पुष्टी हुई हैं। जिनमें से 15 रणथंभौर से हैं, 2004 में सरिस्का से ली गई एक तस्वीर और 2017 में भरतपुर में केवलादेव घाना राष्ट्रीय उद्यान से एक कैमरा ट्रैप तस्वीर शामिल है। हालांकि 2015 से अप्रैल 2020 तक, विलेज वाइल्ड वॉलंटियर्स ने सियागोश की 176 कैमरा ट्रैप तस्वीरें प्राप्त की। जो की रणथंभौर टाइगर रिजर्व में और उसके आसपास 6 स्थानों से थी। उनके कैमरा ट्रैपिंग प्रयासों ने राजस्थान के धौलपुर जिले में सियागोश की उपस्थिति को निर्णायक रूप से स्थापित व् प्रमाणित किया है। यह भारत में और संभवतः सियागोश की पूरी एशियाई सीमा में सियागोश की तस्वीरों का सबसे बड़ा संग्रह है। रणथम्भौर के, भारत में दो संभावित आबादी में से एक होने के साथ, विलेज वाइल्ड वॉलंटियर्स की टीम भारत में सियागोश के संबंध में किसी भी आगामी संरक्षण योजना के लिए अतिआवश्यक होंगे। 2001 के बाद से, कच्छ से केवल 9 फोटोग्राफिक रिकॉर्ड हैं और मध्य प्रदेश से कोई फोटोग्राफिक रिकॉर्ड नहीं है।
विलेज वाइल्ड वॉलंटियर्स द्वारा ली गयी सियागोश कि कैमरा ट्रैप फोटो (फोटो: टाइगर वॉच)
यह भी संभव है कि भारत के अन्य हिस्सों में सियागोश अभी भी मौजूद हो, एवं महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश और भारत के पूर्वी राज्यों में इसे कम आंका गया हो और उचित रूप से अध्ययन नहीं किया गया हो। इस अध्ययन द्वारा स्थापित सीमा में कमी को और अधिक सत्यापित करने और और अधिक सर्वेक्षण की आवश्यकता होगी। आज 21 वीं सदी में, मुट्ठी भर अध्ययनों के अपवाद से भारत में सियागोश की पारिस्थितिकी के ज्ञान में लगभग कोई योगदान नहीं रहा है। सियागोश की संख्या, प्रजनन, मृत्यु दर, होम रेंज के आकार और शिकार की गतिशीलता के सर्वेक्षण समय की आवश्यकता है। हमे इस बारे में पढ़ने व् समझने की तत्काल आवश्यकता है की कैसे बंजर भूमि के रूप में भूमि का वर्गीकरण किया जाता है, तथा यह सियागोश को किस प्रकार से प्रभावित करता है क्योंकि यह छोटी झाड़ियों वाले खुले प्रदेशों में आवास करते हैं। वन्यजीव कॉरिडोर को निर्धारित करने और स्थापित करने के लिए सियागोश की गतिविधियों के स्वरूप पर ध्यान केंद्रित करने वाले दीर्घकालिक अध्ययन भी समान रूप से आवश्यक हैं क्यूंकि ये कॉरिडोर खंडित आबादी इकाइयों को आपस में जोड़ने के लिए उपयुक्त रहेंगे। अध्ययन के लेखक यह आशा करते है की संरक्षणवादी भारत में सियागोश को विलुप्त होने से बचाने के लिए इस लड़ाई में शामिल होने के लिए प्रेरित होंगे।
लेखक:
Mr. Ishan Dhar (L) is a researcher of political science in a think tank. He has been associated with Tiger Watch’s conservation interventions in his capacity as a member of the board of directors.
Dr. Dharmendra Khandal (R) has worked as a conservation biologist with Tiger Watch – a non-profit organisation based in Ranthambhore, for the last 16 years. He spearheads all anti-poaching, community-based conservation and exploration interventions for the organisation.
शरीर के बालों को सुरक्षा के लिए कांटों में विकसित कर लेना उद्विकास की कहानी का एक बहुत ही रुचिपूर्ण पहलू है। हालाँकि इनकी काँटेदार ऊपरी त्वचा इन्हें अधिकांश परभक्षियों से बचा लेती है फिर भी परिवेश में लोमड़ी व नेवले जैसे कुछ चालक शिकारी इन्हें अपने भोजन का मुख्य हिस्सा बनाने से नहीं चूकते।
प्रकृति में उद्विकास की प्रक्रिया के दौरान अनेक जीवों ने बदलते पर्यावास में अपनी प्रजाति का अस्तित्व बनाए रखने के लिए विभिन्न सुरक्षा प्रणालियों को विकसित किया है। कुछ जीवों ने सुरक्षा के लिए झुंड में रहना सीखा, तो बिना हाथ-पैर भी सफल शिकार करने के लिए सांपो ने जहर व जकड़ने के लिए मजबूत मांसपेशियाँ विकसित की। वही कुछ जीवों ने छलावरण विकसित कर अपने आप को आस-पास के परिदृश्य में अदृश्य कर लिया। शरीर के बालों को सुरक्षा के लिए कांटों में विकसित कर लेना इस उद्विकास की कहानी का बहुत ही रुचिपूर्ण पहलू है।
हड्डियों के समान बाल अवशेषी रूप में अच्छे से संरक्षित नहीं हो पाते इसी कारण यह बताना मुश्किल है की धरती पर पहला काँटेदार त्वचा वाला जीव कब अस्तित्व में आया होगा। फिर भी उपलब्ध पुरातात्विक अवशेषों के अनुसार फोलिडोसीरूस (Pholidocerus) नामक एक स्तनधारी जीव आधुनिक झाऊ-चूहों व अन्य काँटेदार त्वचा वाले जीवों (एकिड्ना व प्रोकुपाइन (Porcupine) जिसे हिन्दी में सहेली भी कहते है) का वंशज माना जाता है, जिसका लगभग चार करोड़ वर्ष पूर्व अस्तित्व में आना ज्ञात होता है। झाऊ-चूहे वास्तव में चूहे नहीं होते अपितु छोटे स्तनधारी जीवों के अलग समूह जिन्हे ‘Erinaceomorpha कहते है से संबंध रखते है। जबकि चूहे वर्ग Rodentia से संबंध रखते है जो अपने दो जोड़ी आजीवन बढ़ने वाले आगे के incisor दाँतो के लिए जाने जाते है ।
झाऊ-चूहों में त्वचा की मांसपेशियां स्तनधारी जीवों में सबसे अधिक विकसित व सक्रिय होती है जो की खतरा होने पर काँटेदार त्वचा को फैलाकर लगभग पूरे शरीर को कांटों से ढक देती है। (फोटो: डॉ. धर्मेंद्र खांडल)
झाऊ-चूहे के शरीर पर पाये जाने वाले कांटे वास्तव में किरेटिन नामक एक प्रोटीन से बने रूपांतरित बाल ही होते है। यह वही प्रोटीन है जिससे जीवों के शरीर में अन्य हिस्से जैसे बाल, नाखून, सींग व खुर बनते है। किसी भी परभक्षी खतरे की भनक लगते ही ये जीव अपने मुंह को पिछले पैरो में दबाकर शरीर को “गेंद जैसी संरचना” में ढाल लेते है। इनकी त्वचा की मांसपेशियों में कुछ अनेच्छिक पेशियों की उपस्थिति यह दर्शाती है की खतरे की भनक तक लगते ही तुरंत काँटेदार गेंद में ढल जाना कुछ हद तक झाऊ-चूहों की एक उद्विकासीय प्रवृति है। यह ठीक उसी तरह है जैसे काँटा चुभने पर हमारे द्वारा तुरंत हाथ छिटक लेना। सुरक्षा की इस स्थिति में झाऊ-चूहे कई बार परभक्षी को डराने हेतु त्वचा की इन्हीं मांसपेशियों को फुलाकर शरीर का आकार बढ़ा भी लेते है व नाक से तेजी से हवा छोड़ सांप की फुफकार जैसी आवाज निकालते है।
विश्व भर में झाऊ चूहों की कुल 17 प्रजातियाँ पायी जाती है जो की यूरोप, मध्य-पूर्व, अफ्रीका व मध्य एशिया के शीतोष्ण व उष्णकटिबंधीय घास के मैदान, काँटेदार झाड़ी युक्त, व पर्णपाती वनों में वितरित है। आवास के मुताबिक शीतोष्ण क्षेत्र की प्रजातियाँ केवल बसंत व गर्मी में ही सक्रिय रहती है एवं सर्दी के महीनों में शीत निंद्रा (Hibernation) में चली जाती है। भारत में भी झाऊ चूहों की तीन प्रजातियों का वितरण ज्ञात होता है जो की पश्चिम के सूखे इलाकों से दक्षिण में तमिलनाडु व केरल तक वितरित है ।
भारतीय लंबे कानों वाला झाऊ चूहा (Indian long-eared Hedgehog) जिसे मरुस्थलीय झाऊ चूहा भी कहते है का वैज्ञानिक नाम Hemiechinus collaris है। यह प्रजाति सबसे पहले औपनिवेशिक भारत के ब्रिटिश जीव विज्ञानी थॉमस एडवर्ड ग्रे द्वारा 1830 में गंगा व यमुना नदी के बीच के क्षेत्र से पहचानी गयी थी। इसी क्षेत्र से इसका ‘टाइप स्पेसिमेन’ एकत्रित किया गया था जिसका चित्रण सर्वप्रथम ब्रिटिश मेजर जनरल थॉमस हार्डविकी ने “इल्लुस्ट्रेसन ऑफ इंडियन ज़ूलोजी” में किया था।
भारतीय लंबे कानों वाला झाऊ चूहे का सबसे पहला चित्र ब्रिटिश मेजर जनरल थॉमस हार्डविकी द्वारा बनाया गया तथा वर्ष 1832 में उनकी पुस्तक “Illustrations of Indian Zoology” में प्रकाशित किया था। जनरल थॉमस हार्डविक (1756- 3 Mar 1835) एक अंग्रेजी सैनिक और प्रकृतिवादी थे, जो 1777 से 1823 तक भारत में थे। भारत में अपने समय के दौरान, उन्होंने कई स्थानीय जीवों का सर्वेक्षण करने और नमूनों के विशाल संग्रह बनाया। वह एक प्रतिभाशाली कलाकार भी थे और उन्होंने भारतीय जीवों पर कई चित्रों को संकलित किया तथा इन चित्रों से कई नई प्रजातियों का वर्णन किया गया था। इन सभी चित्रों को जॉन एडवर्ड ग्रे ने अपनी पुस्तक “Illustrations of Indian Zoology” (1830-35) में प्रकाशित किया था। (फोटो: डॉ. धर्मेंद्र खांडल)
यह प्रजाति मुख्यतः राजस्थान व गुजरात के शुष्क व अर्द्ध शुष्क क्षेत्रों के साथ- साथ उत्तर में जम्मू , पूर्व में आगरा, पश्चिम में सिंधु नदी, व दक्षिण में पूणे तक पायी जाती है। गहरे भूरे व काले रंग के कांटों वाली यह प्रजाति अन्य दो प्रजातियों की तुलना में आकार में बड़ी होती है। इसके कानों का आकार पिछले पैरों के आकार के बराबर होता है जिस कारण इनके कान कांटों की लंबाई से भी ऊपर दिखाई पड़ते है। झाऊ-चूहे की ये प्रजाति पूर्ण रूप से मरुस्थलीय जलवायु के अनुकूल है जो सर्दियों में अकसर शीत निंद्रा में चले जाती है। हालांकि इनका शीत निंद्रा में जाना इनके वितरण के स्थानों पर निर्भर होता है क्योंकि सर्दी का प्रभाव वितरण के सभी इलाकों पर समान नहीं होता है। मरुस्थलीय झाऊ-चूहे मुख्यतः सर्वाहारी होते है जो की कीड़ों, छिपकलियों, चूहों, पक्षियों व छोटे सांपो पर भोजन के लिए निर्भर होता है। ये पके हुए फल व सब्जियाँ बिलकुल पसंद नहीं करते है ।
भारतीय लंबे कानों वाला झाऊ चूहा जिसे मरुस्थलीय झाऊ चूहा भी कहते है तथा ये प्रजाति पूर्ण रूप से मरुस्थलीय जलवायु के अनुकूल है जो सर्दियों में अकसर शीत निंद्रा में चले जाती है। (फोटो: डॉ. धर्मेंद्र खांडल)
मरुस्थलीय झाऊ चूहे के विपरीत भारतीय पेल झाऊ-चूहा Paraechinus mircopus आकार में थोड़ा छोटा व पीले-भूरे कांटों वाला होता है। इसके सर व आंखो के ऊपर चमकदार सफ़ेद बालों की पट्टी गर्दन तक फैली होती है जो इसे मरुस्थलीय झाऊ-चूहे से अलग पहचान देती है। यह प्रजाति शीत निंद्रा में नहीं जाती परंतु भोजन व पानी की कमी होने पर अकसर टोर्पोर अवस्था में चली जाती है। टोर्पोर अवस्था में कोई जीव संसाधनों के अभाव की परिस्थिति में जीवित रहने के लिए अल्पावधि निंद्रा में चले जाते है एवं संसाधनों की बाहुल्यता पर पुनः सक्रिय हो जाते है। अपरिचित पर्यावास में आने पर ये प्रजाति अपने शरीर व कांटो को अपनी लार से भर लेती है। ऐसा शायद अपने इलाके को गंध द्वारा चिह्नित करने या नर द्वारा किसी मादा को आकर्षित करने के लिया हो सकता है परंतु इस व्यवहार का सटीक कारण एक शोध का विषय है। भारतीय पेल झाऊ-चूहे, मरुस्थलीय झाऊ-चूहे की तुलना में बहुत दुर्लभ ही दिखाई देते है व इनका वितरण भी सीमित इलाकों तक ही है।
भारतीय पेल झाऊ-चूहे का सबसे पहला विवरण ब्रिटिश जीव विज्ञानी एडवर्ड ब्लेथ ने 1846 में दिया जब उन्होने इसका ‘टाइप स्पेसिमेन’ वर्तमान पाकिस्तान के पंजाब प्रांत के भावलपुर क्षेत्र से एकत्रित किया था। इस प्रजाति का भौगोलिक वितरण मरुस्थलीय झाऊ-चूहे के वितरण के अलावा थोड़ा ओर अधिक दक्षिण तक फैला हुआ है जहां यह तमिलनाडु व केरल में पाये जाने वाले मद्रासी झाऊ-चूहे या दक्षिण भारतीय झाऊ-चूहे Paraechinus nudiventris से मिलता है। मद्रासी झाऊ-चूहा भारत में झाऊ चूहे की सबसे नवीनतम पहचानी गयी प्रजाति है जो पहले भारतीय पेल झाऊ-चूहे की उप-प्रजाति के रूप में जानी जाती थी। इसका सबसे पहला ‘टाइप स्पेसिमेन’ जैसा की इसके नाम से ज्ञात होता है मद्रास से ही एक ब्रिटिश जीव विज्ञानी होर्सेफील्ड ने 1851 में किया था। हालांकि ये दोनों प्रजातियाँ दिखने में काफी समान होती है परंतु मद्रासी झाऊ-चूहा अपने अधिक छोटे कानों व हल्के भूरा रंग के कारण अलग पहचाना जा सकता है। मद्रासी झाऊ-चूहे का वितरण केवल तमिलनाडु व केरल के कुछ पृथक हिस्सों से ही ज्ञात है जिससे इसे यहाँ की स्थानिक प्रजाति का दर्जा प्राप्त है। ये दोनों प्रजातियाँ मुख्यतः सर्वाहारी होती है जो की अवसर मिलने पर कीड़ो व छोटे जीवों के साथ पके हुए फल व सब्जियाँ भी चाव से खाती है।
भारतीय पेल झाऊ-चूहा (Indian pale Hedgehog), प्रजाति शीत निंद्रा में नहीं जाती परंतु भोजन व पानी की कमी होने पर अकसर टोर्पोर अवस्था में चली जाती है। (फोटो: डॉ. धर्मेंद्र खांडल)
झाऊ–चूहे की ये तीनों प्रजातियाँ मुख्य रूप से निशाचर होती है तथा दिन का समय अपनी संकरी माँद में आराम करते ही बिताती है। इनकी माँद एक सामान्य पतली व छोटी सुरंग के समान होती है जिसे एक चूहा दूसरों के साथ साझा नहीं करता। साल के अधिकांश समय अकेले रहने वाले ये जीव केवल प्रजनन काल में ही साथ आते है जिसमें एक नर एक से अधिक मादाओं के साथ मिलन का प्रयास करता है। नर बच्चों के पालन-पोषण में कोई भागीदारी नहीं निभाते है। कुछ लेखों के अनुसार भारतीय पेल झाऊ-चूहो में स्वजाति-भक्षिता भी पायी जाती है, जिसमें नर व मादा दोनों ही भोजन की कमी में अपने ही बच्चों को खाते देखे गए है।
भारतीय पेल झाऊ-चूहा, व्यवहार की दृष्टि से ये प्रजाति अधिक स्थानों तक प्रवास नहीं करती एवं आवास सुरक्षित होने पर कई साल तक एक ही माँद का प्रयोग कर उसके आस-पास के इलाकों में ही विचरण करती है। (फोटो: डॉ. धर्मेंद्र खांडल)
हालाँकि इनकी काँटेदार ऊपरी त्वचा इन्हें अधिकांश परभक्षियों से बचा लेती है फिर भी परिवेश में लोमड़ी व नेवले जैसे कुछ चालक शिकारी इन्हें अपने भोजन का मुख्य हिस्सा बनाने से नहीं चूकते। सांपो के शिकार के लिए कुख्यात नेवले इन छोटे काँटेदार जीवों को भी आसानी से शिकार बना लेते है। फ़ौना ऑफ ब्रिटिश इंडिया के एक लेख में जीव विशेषज्ञ ई -ऑ ब्रायन अपने एक अवलोकन के बारे में बताते है जिसमें एक भारतीय नेवला गेंद बने झाऊ-चूहे को पलट कर उसके बन्द मुंह के हिस्से पर तब तक वार करता है जब तक उसे शरीर का कोई हिस्सा पकड़ में नहीं आता। काफी लंबे चलते इस संघर्ष के अंत में उसे झाऊ चूहे का मुंह पकड़ में आ ही जाता है व उसे पास के झाड़ी में ले जाकर खाने लगता है।
मरुस्थलीय परिवेश में लोमड़ी द्वारा झाऊ-चूहे के शिकार की प्रक्रिया संबंधी एक किंवदंती बहुत प्रचलित है। इसके अनुसार चालक लोमड़ी गेंद बने झाऊ-चूहे को पलट उसके बन्द मुंह के हिस्से पर पेशाब कर देती है। मूत्र की गंदी महक से निजात पाने झाऊ-चूहा जैसे ही अपनी नाक को हल्का सा बाहर निकलता है, लोमड़ी झट से उसे पकड़ लेते है व खींच कर उसे काँटेदार चमड़ी से अलग कर देती है। हालांकि इस किंवदंती सटीकता पर चर्चा की जा सकती है लेकिन लोमड़ियों की मांदों के आस-पास अकसर दिखने वाले काँटेदार चमड़ी के ढेर सारे अवशेष लोमड़ी के भोजन में झाऊ चूहो की प्रचुरता को स्पष्ट जरूर करते है। झाऊ चूहो की इन भारतीय प्रजातियों की पारिस्थितिकी व व्यवहार संबंधित जानकारी बहुत ही सीमित है इसी कारण संरक्षण हेतु इनके वितरण व व्यवहार पर अधिक शोध की आवश्यकता है।