राजस्थान के मुख्य वन्यजीव संरक्षक ने रणथम्भौर से 25 बाघों के लापता होने की जांच के लिए एक जांच समिति का गठन किया है। प्रारंभिक निष्कर्षों के अनुसार, ये बाघ दो चरणों में गायब हुए: 2024 से पहले 11 बाघों का पता नहीं चला था, और पिछले 12 महीनों में 14 बाघ गायब हो गए। जांच शुरू होने के बाद, अधिकारियों ने रिपोर्ट किया कि इनमें से 10 बाघों को खोज लिया गया है जबकि 15 अभी भी लापता हैं।
तो, बाकी 15 बाघों का क्या हुआ?
टाइगर वॉच के विस्तृत डेटाबेस पर आधारित यह लेख इन लापता बाघों के प्रोफाइल और अंतिम ज्ञात रिकॉर्ड का विश्लेषण करता है, ताकि उनके गायब होने के संभावित कारणों को उजागर किया जा सके।
बाघों की जानकारी और गायब होने के संभावित कारण
बाघ ID
लिंग
अंतिम रिपोर्टेड
जन्म वर्ष
उम्र (गायब होने के समय)
गायब होने का संभावित कारण
T3
नर
03-08-2022
2004
18-19 वर्ष
वृद्धावस्था के कारण मरा हो सकता है
T13
मादा
17-05-2023
2005
19-20 वर्ष
वृद्धावस्था के कारण मरा हो सकता है
T38
नर
04-12-2022
2008
14-15 वर्ष
वृद्धावस्था के कारण मरा हो सकता है
T41
मादा
15-06-2024
2007
17-18 वर्ष
वृद्धावस्था के कारण मरा हो सकता है
T48
मादा
12-09-2022
2007
15-16 वर्ष
वृद्धावस्था के कारण मरा हो सकता है
T54
मादा
अक्टूबर-22
2011
13-14 वर्ष
उम्र के कारण प्रमुख बाघ द्वारा बाहर किया गया
T63
मादा
जुलाई-23
2011
13-14 वर्ष
उम्र और प्रतिस्पर्धा के कारण मरा हो सकता है
T74
नर
14-06-2023
2012
12-13 वर्ष
प्रमुख बाघ T121 और T112 द्वारा बाहर किया गया
T79
मादा
16-06-2023
2013
11-12 वर्ष
संदिग्ध मृत्यु; पार्क के बाहर रहती थी
T99
मादा
26-07-2024
2016
9 वर्ष
गर्भावस्था में जटिलताएं, फरवरी 2024 में गर्भपात
T128
नर
05-07-2023
2020
4 वर्ष
क्षेत्रीय संघर्ष / मानव संघर्ष के कारण मरा हो सकता है
T131
नर
30-11-2022
2019
4 वर्ष
क्षेत्रीय संघर्ष / मानव संघर्ष के कारण मरा हो सकता है
T138
मादा
20-06-2022
2020
3 वर्ष
क्षेत्रीय संघर्ष / मानव संघर्ष के कारण मरा हो सकता है
T139
नर
17-07-2024
2021
4 वर्ष
क्षेत्रीय संघर्ष / मानव संघर्ष के कारण मरा हो सकता है
T2401
नर
04-05-2024
2022
3 वर्ष
क्षेत्रीय संघर्ष / मानव संघर्ष के कारण मरा हो सकता है
निरीक्षण और तार्किक अनुमान
यह 15 बाघ अब तक गायब हैं, और उनके गायब होने के संभावित कारण निम्नलिखित हो सकते हैं:
वृद्ध बाघ: इन बाघों में से पांच—T3, T13, T38, T41, और T48—15 साल से ऊपर के हैं, जिनकी उम्र 19-20 साल तक पहुंच चुकी है।
दूसरे दो, T54 और T63, 13-14 साल के हैं और संभवतः अपने प्राकृतिक रूप से जीवन के अंतिम दौर के करीब हैं।
मादा बाघ T99 को फरवरी 2024 में गर्भावस्था में जटिलताएं आई थीं, जिससे उनका गर्भपात हो गया था। उन्हें व्यापक चिकित्सा देखभाल दी गई थी और वे जीवित रही थीं। हाल ही में रिपोर्ट आई थी कि वे फिर से गर्भवती हो सकती हैं, हालांकि यह पुष्टि नहीं हो पाई है। संभव है कि इसी प्रकार की जटिलताएं फिर से उत्पन्न हुई हों, जिसके कारण उनका वर्तमान स्थिति समझी जा सकती है।
फोटो: बाघिन T99 के गर्भपात के दौरान लिया गया चित्र
बाघ T74, जो 12 साल से अधिक उम्र की है, को डोमिनेंट बाघ T121 और T112 द्वारा उनके क्षेत्र से बाहर किया जा सकता है।
बाघिन T79 अजीब परिस्थितियों में गायब हो गई, जिसके बाद वन विभाग ने उसकी खोज शुरू की और उसकी दो शावकों को पाया। वह रणथम्भौर के बाहर कंडुली नदी क्षेत्र में रहती थी, और ऐसी चुनौतीपूर्ण परिस्थितियों में उसका अब तक जीवित रहना आश्चर्यजनक था।
सबसे महत्वपूर्ण नुकसान पांच युवा नर बाघों का है, जो रणथम्भौर के प्रमुख बाघों के मध्य प्रतिस्पर्धा का शिकार हो गए। वन्य जीवन में, नर बाघों को क्षेत्रीय संघर्षों का सामना करना पड़ता है, जो अक्सर घातक मुठभेड़ों की ओर ले जाता है, जिनमें केवल सबसे मजबूत जीवित रहते हैं। वन विभाग के विस्तृत विश्लेषण के अनुसार, युवा नर बाघों जैसे T128, T131, T139, और T2401 को अक्सर अप्रयुक्त क्षेत्रों की तलाश करते हुए देखा गया था।प्रमुख बाघों के साथ क्षेत्रीय संघर्ष उनकी गायब होने का एक संभावित कारण हो सकता है।
बाघिन (T138) का गायब होना चिंता का विषय है, तथा 15 लापता बाघों में से इस अल्प-वयस्क बाघिन की अनुपस्थिति विशेष रूप से चिंताजनक है।
प्राकृतिक प्रतिस्पर्धा के अतिरिक्त, मानव से संबंधित संघर्ष को भी ध्यान में रखना चाहिए। ये युवा बाघ स्थानीय समुदायों के साथ संघर्षों का शिकार भी हो सकते हैं, जैसे कि जहर देना या अन्य मानव जनित खतरों का सामना करना। क्षेत्र में पहले के घटनाएं, जैसे कि T114 और उसकी शावक, और T57 की जहर से मौत, मानव-बाघ संघर्ष के जोखिम को स्पष्ट रूप से दर्शाती हैं।
सारांश
रणथम्भोर से बाघों के गायब होने के कारणों में बढ़ती आयु, स्वास्थ्य समस्याएं, क्षेत्रीय संघर्ष और अन्य मानवजनित कारण शामिल हो सकते हैं। उम्रदराज बाघ, जैसे T3, T13, T38, T41, और T48, अपनी उम्र के कारण स्वाभाविक रूप से मरे हो सकते हैं। बाघ सामान्यतः 15 साल तक जीवित रहते हैं, और उसके बाद उनका जीवित रहना मुश्किल हो जाता है। 15 साल की उम्र के बाद, उन्हें स्वास्थ्य और क्षेत्रीय संघर्षों का सामना करना पड़ता है, जिससे उनके जीवित रहने की संभावना घट जाती है।
T54, T63, T74, और T79 जैसे बाघ, जो अपनी उम्र के कारण कमजोर हो चुके थे, शायद युवा और प्रमुख बाघों से अपने क्षेत्रों की रक्षा करने में असमर्थ भी। इस कारण उनके जीवन का संकट में पड़ना स्वाभाविक है, खासकर जब वे पार्क के बाहरी इलाकों में रह रहे होते हैं, जैसे कि T54 जो तालरा रेंज के बाहरी इलाके में रहता था।
जब परिपक्व बाघिन T63, जिसने पहले तीन बार शावकों को जन्म दिया था और खंडार घाटी में पार्क के केंद्र में रहती थी, को औदी खो क्षेत्र में वन अधिकारी द्वारा लगभग मृत घोषित कर दिया गया था, तो अधिकारियों ने उसे शिकार भी उपलब्ध कराया था, यहाँ तक कि एक समय कहा गया कि वह जीवित नहीं बचेगी। अउ समय यह बाघिन अत्यंत दुर्बल अवस्था में मिली थी।
सबसे महत्वपूर्ण नुकसान युवा चार नर एवं एक मादा बाघ (T128, T131, T139, T2401 और T138) का है, जिनका सामना डोमिनेंट बाघों से क्षेत्रीय संघर्षों में हुआ। ये युवा बाघ अक्सर नए क्षेत्रों की तलाश में रहते है, और ऐसे संघर्षों के कारण उनकी मौत हो सकती है।
हालांकि, मानव जनित कारणों पर भी विचार करना जरूरी है। इन युवा बाघों ने स्थानीय समुदायों से भी खतरों का सामना किया हो सकता है, जैसे कि जहर देना या अन्य मानव जनित खतरों से मुठभेड़।
अंततः, बाघिन T99, जो गर्भावस्था की जटिलताओं से जूझ रही थी, शायद इन समस्याओं के कारण गायब हो गईं।
यह समीक्षा यह रेखांकित करती है कि रणथम्भौर में बाघों की स्थिति को लेकर लगातार निगरानी और सक्रिय उपायों की आवश्यकता है, ताकि हम इन खतरों को समझ सकें और अधिक प्रभावी रणनीतियाँ तैयार कर सकें, जिससे इस सुंदर प्रजाति का दीर्घकालिक संरक्षण सुनिश्चित हो सके।
प्रकृति और उसके विभिन्न जीव जंतुओं से हम हमेशा से ही आकर्षित होते रहे हैं और इन्हीं के कारण हमारे जीवन में रंगों और सुंदरता का महत्व है फिर चाहे वह रंग-बिरंगे फूलों हो या उड़ती हुई चिड़िया हो या फिर फूलों पर मंडराती तितलियां या अन्य कीट इन्होंने मनुष्य को सदैव लुभाया हैं। कीट वर्ग में सबसे सुंदर तितलियों को माना जाता है क्योंकि उनके पंखों की खुली सतह पर बहुत रंगों का एक साथ प्रयोग होता है। सामान्यतः तितलियों को हम हमारे आसपास बाग बगीचों, वन-उपवन और खेत खलियानों में यहां वहां उड़ती, फूलों का रस पीते हुए आसानी से देख सकते हैं।
दुनिया भर में सर्वाधिक जंतुओं में कीड़े सबसे ज्यादा मिलते हैं इन्हीं कीड़ों के अंतर्गत तितलियों को लेपिडोप्टरा गण में शामिल किया गया है। तितलियों की दुनिया भर में लगभग 18000 प्रजातियां पाई जाती है जिनमें से भारत से लगभग 1432 प्रजातियों को दर्ज किया गया है, जो दुनिया भर में पाई जाने वाली तितलियों का 8% हिस्सा रखती है। वहीं राजस्थान में लगभग 115 प्रजातियों की तितलियां होने का दावा किया जाता है।
पैंसी तितलियों का सामान्य परिचय
यह लेख राजस्थान में पाई जाने वाली पैंसी तितलियों के देखें जाने के संबंध में हैं। पैंसी तितलियों की भारत में छ: प्रजातियां पाई जाती है इन्हीं छ: प्रजातियों का राजस्थान में भी वितरण मिलता हैं। इन पैंसी तितलियों को कीट वर्ग के लेपिडोप्टरा (Lepidoptera) गण के Nymphalidae कुल के Junonia वंश में रखा गया हैं। इस वंश की तितलियों की संपूर्ण भारत व राजस्थान में छ: प्रजातियां पाई जाती हैं। जिनका विवरण इसी लेख में आगे उल्लिखित हैं।
यह पैंसी तितलियां सामान्यतः प्रकाश प्रिय होती हैं जो फुर्तीले स्वभाव के साथ मध्यम आकार की, तेजी से उड़ान भरने में माहिर हैं। इन तितलियों को हिंदी में मंडला या बनफशा भी कहा जाता हैं। यह तितलियां बहुत सुन्दर होने और रंग-बिरंगे होने के कारण भी इन्हें पैंसी (Pansy) नाम दिया गया है। इन तितलियों के अंग्रेजी भाषा में सामान्य नाम भी इनके रंगों के आधार पर रखे गए हैं। सामान्यतः पैंसी तितलियों के पंखों की खुली सतह पर दो से अधिक बडी व छोटी रंगीन चमकीली अंडाकार आंखों के समान धब्बेंनुमा संरचनाएं पाई जाती हैं। इन तितलियों के पंखों के रंग पैटर्न की विविधता प्रकृति में पाई जाने वाली सबसे आकर्षक और जटिल विकासवादी घटनाओं में से एक मानी जाती है। सभी तितलियों में नैत्र धब्बें (eye-spot) नहीं पाए जाते ये केवल कुछ ही प्रजातियों में देखने को मिलते है ये नेत्र धब्बें तितलियों को शिकारियों से सुरक्षा प्रदान करने और सूखे आवासों के साथ छद्मावरण में सहयोग करते हैं। सामान्यतः इन तितलियों के दोनों पंखों की निचली सतह गहरे कत्थई रंग की होती हैं जिसमें आई स्पॉट नहीं पाए जाते तथा बंद पंखों वाली अवस्था एक दम सूखे पत्तों जैसी दिखाई देती है।
सभी पैंसी तितलियों के लार्वा (caterpillar) अकारिकी रूप से समान होते हैं। लार्वा गहरे काले-भूरे रंग के होते हैं जिनकी सतह शाखित महीन कांटेदार संरचनाओं से ढकी रहती हैं। सामान्यतः सभी पैंसीस के लार्वा काम दिखाई देते है क्योंकि इन्हें खतरे का आभास होते ही यह पत्तियों के पीछे छुप जाते हैं या फिर अपने आप को जमीन में घिरा देते है और खतरा टल जाने पर वापस मेज़बान पौधे पर आ जाते हैं। इन तितलियों के लार्वा के मेज़बान पौधे ज्यादातर Acanthaceae परिवार के पौधे होते हैं जैसे- आपमार्ग, पिली/नीली/सफेद वज्रदंती, आडूसा, कागजंघा, रुएलिया तथा नीला कुरंजी वंश के पौधे इत्यादि।
पैंसी तितलियों का राजस्थान में वितरण
समान्यत: पैंसी तितलियां राजस्थान के संपूर्ण भू-भाग पर पाई जाती है। एवं इनका वितरण कुछ पैंसी तितलियां सूखे इलाकों में तो कुछ नम क्षेत्रों में पाई जाती हैं। शहरी क्षेत्रों में जहां बगीचे होते है वहा कुछ पैंसी तितलियों की प्रजातियां जैसे पीकॉक पैंसी(Peacock pansy), लेमन पैंसी (Lemon pansy) व ब्लू पैंसी (Blue pansy) अधिक देखने को मिलती है। कुछ पैंसी तितलियां खुले मैदानों, घास के मैदानों और पहाड़ी क्षेत्रों मैं पाई जाती है जैसे यैलो पैंसी (yellow pansy) व ग्रे पैंसी (grey pansy)। इनसे अलग चॉकलेटी पैंसी (Chocolate pansy) सीमित क्षेत्रों में जहां बड़ी पतियों वाली वनस्पतियां हों, प्रयाप्त छाया व नमी वाले क्षेत्रों में ही पाई जाती हैं। चॉकलेटी पैंसी राजस्थान में सामान्यत: उदयपुर संभाग व घना पक्षी अभ्यारण (भरतपुर) में देखी गई है।
राजस्थान में पाई जाने वाली पैंसी तितलियों की प्रजातियो का समान्य विवरण
The Lemon Pansy: इस तितली हिन्दी में नींबूई मंडला कहा जाता हैं जिसका वैज्ञानिक नाम Junonialemonias हैं। यह एक मध्यम आकार की तितली है जिसके पंखों की ऊपरी सतह जैतूनी हरे रंग की, तथा मट-मैले पीले निशान पाए जाते है पंख भूरे रंग के होते है। तथा दोनों पंखों पर नीली-काली किन्तु नारंगी रंग से आवरित नेत्र धब्बें पाए जाते हैं। पंखों की निचली सतह हल्की कत्थई की जिसपर कोई धब्बें नहीं होते। यह प्रकाश प्रिय तितली है जो धूप अच्छी होने पर फूलों में अटखेलिया करती दिखाई देती है। पंख बंद करके सूखे पत्तों, टहनियों तथा दीवारों के साथ छद्मावरण करके बैठना पसन्द करती है ताकि शिकारी जीव आसानी से पहचान न पाए। ये कम दूरी की तेज उड़ान भरती है तथा जमीन के समीप उड़ती है।
The Blue Pansy: हिन्दी में इसे नीली मंडला या नीली बनफशा कहा जाता है। तथा वैज्ञानिक नाम Junoniaorithya हैं। इस तितली की पहचान इसके खुले पंखों की ऊपरी सतह पर नीले रंग से की जाती है और इसी से इसका नामकरण भी किया गया है। इस तितली के आगे के पंखों की ऊपरी सतह पर अंदर की ओर काला रंग अधिक प्रभावी होता हैं, बाहरी किनारे की ओर सफेद रंग की धारियां तथा हल्के भूरे रंग का जमाव पाया जाता हैं तथा दो काले-भूरे रंग की आंखें पाई जाती है। पिछले पंखों की ऊपरी सतह पर भी आगे वाले पंखों के समान ही अन्दर की ओर काले रंग के धब्बें लेकिन अपेक्षाकृत छोट तथा बाहर की ओर नीला रंग अधिक प्रभावी होता हैं। पिछले पंखों पर पाई जाने वाली आंखें बड़ी व मध्य में नीला निशान तथा इसके बाहर नारंगी रंग का अंडाकार घेरा पाया जाता हैं। यह तितली शहरी क्षेत्रों में बगीचों, खुले स्थानों तथा वनों में पानी के स्रोत के आस पास और सूखे पत्तों व पत्थरीली जमीन में पाई जाती है। इस तितली के पंख फैलाव सभी पैंसी तितलियों में सबसे कम होता है क्योंकि यह आकार में तुलनात्मक रूप से सभी से छोटी होती है।
लार्वा के भोज्य पौधो मेंJusticia procumbens, Justicia simplex, Barleria prionitis, Dicliptera paniculata…etc. Acanthaceae परिवार के पौधे शामिल हैं।
The Yellow Pansy: इस तितली को पिली मंडला या पीत बनफशा भी कहा जाता हैं। इसका वैज्ञानिक नाम Junoniahierta हैं। यैलो पैंसी के आगे के ऊपरी पंख चमकीले पीले रंग के होते हैं जिनपर काले रंग के निशान पाए जाते हैं। पिछले पंखों की ऊपरी सतह पर पीले रंग के साथ अंदर की ओर दुम के आसपास काले रंग के धब्बे पाए जाते हैं इस काले रंग के धब्बों के बीच में चमकीले नीले रंग का निशान पाया जाता है जो पंख की जड़ तक होता है। यह तितली सभी पैंसी तितलियों में सर्वाधिक जंगली आवासों में देखी जाने वाली है। यह तितली शहरी क्षेत्रों में काम दिखाई देती हैं। इसे खुले क्षेत्रों व पत्थरीले आवासों में धूप शेकते आसनी से देखा जा सकता हैं।
लार्वा के मेज़बान पौधो मेंBarleriaprionitis, Barleriacristata, Hygrophila auriculata and Mimosa pudica (fabaceae). शामिल है।
The Peacock Pansy: इस तितली को मोरई मंडला या नारंगी रंग की होने के कारण नारंगी मंडला भी कहा जाता है। जिसका वैज्ञानिक नाम Junoniaalmana हैं। इस तितली के आगे के ऊपरी खुले पंख चमकीले नारंगी, जिनपर कत्थई रंग के निशान पाए जाते हैं। आगे के पंखों के नेत्र धब्बें असमान आकार के जिनके मध्य में सफेद-नीले रंग का गोल धब्बा जो दोहरी काली गोलकार रेखा से आवरीत होते हैं। पिछले पंखों पर भी आगे वाले पंखों के समान ही दो आंखें पाई जाती है लेकिन इनमें से एक अपेक्षाकृत अधिक बड़ी वह उबरी हुई होती है तथा दूसरी स्पष्ट वह काम उबारी हुई होती है। बड़ी उभरी हुई आंख के अंदर काले रंग का ढाबा वह साथ ही सफेद रंग के छोटे निशान होते हैं यह भी दोहरे आवरण युक्त काली गोल रेखाओं से घिरा रहता है। यह तितली शहरी क्षेत्रों में फूलों का रस पीती हुई तथा उन पर मंडराती हुई अधिक देखी जाती हैं। समान्यत: यह तितली अपने पंखों को फैला कर बैठती है लेकिन सुखे आवासों या सुखे पत्तों पर यह अपने पंख बंद करके बैठना पसन्द करती हैं क्योंकि पंख बंद करने के बाद ये सुखे पत्तों के समान ही दिखाई देती है तथा आगे वाले पंख का बाहरी किनारा हुक के समान मुड़ा हुआ दिखाई देता हैं।
लार्वा के भोज्य मेंBarleria prionitis, Hygrophila auriculata, Ruellia tuberosa, Phyla nodiflora इत्यादि शामिल हैं।
The Grey Pansy: यह ध्रुसर/मलाई रंग की बेहद खूबसूरत तितली हैं। इसे ध्रुसर मंडला भी कहा जाता हैं। इसका वैज्ञानिक नाम Junoniaatlites हैं। इस तितली के अग्र पंखों की ऊपरी सतह पर काली पट्टीया पाई जाती हैं। आगे व पीछे वाले दोनों जोड़ी पंखों के बाहरी किनारे पर नारंगी व काले छोट-बड़े नेत्र धब्बों की पंक्ति पाई जाती हैं। पंक्ति में कुछ धब्बें रंगीन तो कुछ हल्के ध्रुसर रंग के होते है तथा रंगीन नेत्र धब्बें लगातार न हो कर कुछ अन्तराल में व्यवस्थित होते हैं। इस तितली के दोनों पंखों की निचली सतह पर, जब ये पंख बंद करके बैठी हो, तब लगभग पंखों के मध्य से एक हल्के काले भूरे रंग की सीधी रेखा गुजरती हुई दिखाई देती हैं। तथा दोनों पंखों की निचली सतह के बाहरी किनारो पर हल्के नेत्र धब्बें उभरे हुए दिखते है। यह तितली धीमी गति से तथा धरती की सतह के नज़दीक उड़ना पसन्द करती हैं। बरसात व हल्की सर्दि के दिनों में बाग बगीचों के फूलों पर मंडराती हुई, रस पीती हुई अधिक देखी जाती हैं। खुले क्षेत्रों में सुखे हुए घास तथा पत्तों पर पंख फैलाकर बैठना या धूप सेंकना इसे अत्यंत प्रिय हैं।
लार्वा के भोज्य पौधो मेंLepidagathes cuspidata, Justicia procumbens, Dicliptera paniculata, Sida rhombifolia, Corchorus capsularis इत्यादि शामिल हैं।
The chocolate Pansy: यह गहरे भूरे रंग की होने के कारण इसे चॉकलेटी मंडला(Chocolate pansy) कहा जाता हैं। इस तितली के अग्र पंखों की ऊपरी सतह गहरे भूरे/कत्थई रंग की जिसपर अन्य पैंसी तितलियों के समान नेत्र धब्बें नहीं पाए जाते, लेकिन कत्थई रंग की धारियां पाई जाती हैं। पीछले पंख भी अग्र पंखों के समान, लेकिन पीछले पंखों की ऊपरी सतह के बाहरी किनारो पर हल्के भूरे रंग के काम उभरे हुए या अस्पष्ट नेत्र धब्बों की पंक्ति दिखाई देती हैं। ये तितली छायादार तथा नम क्षेत्रों में पाई जानें के कारण इसकी राजस्थान में सीमित उपलब्धता हैं जबकि अन्य पैंसी तितलियां धूप वाले खुले क्षेत्रों को अधिक पसन्द करती हैं। चॉकलेट पैंसी सभी पैंसी तितलियों की प्रजातियों में से सबसे बड़ी है तथा इसका पंख फैलाव भी सबसे ज्यादा हैं। ये तितली फूलों तथा पक्के हुए फलों या सड़े हुए फलों का रस पीना पसंद करती हैं। यह सुखे पत्तों या सुखी वनस्पतियो के साथ पूर्ण रूप से छद्मावरण कर लेती हैं जो इन्हें शिकारी जीवों से बचाएं रखने में मददगार साबित होता हैं।
लार्वा के भोज्य पौधो मेंBarleria cristata, Dipteracanthus prostratus, Ruellia simplex, Ruellia tuberosa, Strobilanthes callosus, Astracantha longifolia, Erathemum roseum शामिल हैं।
References
Arun Pratap Singh: Butterflies of India
iNaturalist: https://www.inaturalist.org/
India Biodiversity Portal: https://indiabiodiversity.org/
Isaac Kehimkar: The Book of Indian Butterflies
Kumar Ghorpade: Butterflies of Keoladeo national park, Bharatpur, Rajasthan.
Kunte, K., S. Sondhi, and P. Roy (Chief Editors). Butterflies of India, v. 4.27. Indian Foundation for Butterflies. URL: https://www.ifoundbutterflies.org.
Lekhu Gehlot et.al :Sighting and Documentation of lepidoptera from urban region of Jodhpur, Raj.
Rashtriya Titli Namkaran Sabha. 2024. Butterflies of India: A Checklist of Hindi Names. A version for public Consultation. Indian Foundation for Butterflies Trust, Bengaluru. 25pp.
Rohan Bhagat: Checklist of Butterflies from MHTR, Rajasthan.
Sunita Rani & S.I. Ahmed: Diversity & seasonality of butterflies in STR, Rajasthan.
पोर्टिया मकड़ियाँ एक छोटी जंपिंग स्पाइडर है। जो साल्टिसिडे परिवार से संबंधित हैं। ये मकड़ी सबसे बुद्धिमान आर्थ्रोपॉड में से एक हैं। क्योंकि पोर्टिया मकड़ियाँ शिकारी का शिकारी करती हैं। वह तभी संभव है जब आप जटिल शिकार रणनीतियों की योजना बनाने और उन्हें क्रियान्वित करने माहिर हो। कुछ मकड़ियां अपने रेशम का जाला बनाकर इंतज़ार करती है, परंतु यह पोर्टिया मकड़ियाँ सक्रिय शिकारी होती हैं जो अपने शिकार का पीछा करती हैं और उस पर झपट्टा मारती हैं। देखा गया है की जब इस मकड़ी को एक जाला बनाने वाली मकड़ी मारनी होती है, तो वह उसे झांसा देकर अपने पास बुलाती है। यह उसके जाले में अपनी पतली टांगों से एक कंपन पैदा करती है, यह जाले वाली मकड़ी को लगता है कोई कीट उसके जाले में फंसा है।जाले वाली मकड़ी छिपे स्थान से बाहर आती है और फिर यह उस पर हमला कर देती है। इसके अलावा पोर्टिया प्रजातियाँ सामाजिक व्यवहार प्रदर्शित करने के लिए जानी जाती हैं जो आमतौर पर इन साल्टिसिडे मकड़ियों में नहीं देखी जाती हैं। यह मकड़ी मुझे सवाई माधोपुर (राजस्थान) में देखने को मिली।
सबसे बुद्धिमान आर्थ्रोपॉड में से एक मकड़ी (फोटो: धर्मेन्द्र खांडल)
पोर्टिया मकड़ियाँ सक्रिय शिकारी होती हैं जो अपने शिकार का पीछा करती हैं और उस पर झपट्टा मारती हैं (फोटो: प्रवीण)
India is currently reassessing its tiger conservation campaign after five decades to evaluate the progress made thus far. Despite a significantly large human population in the country, we are delighted to have achieved the arguably remarkable feat of also having the highest tiger population in the world. As we contemplate our next steps as a nation, it is essential to chart a direction that determines that we progress in harmony with nature.
The fate of tigers and humans in this country is inextricably intertwined. By prioritizing tiger conservation, we not only safeguard these majestic creatures but also ensure the protection of our precious forests. Consequently, this commitment leads to significant advancements in our relationship with water and food resources, which are essential to our survival.
However, considering India’s human population has grown by more than 100 crore people since 1950, and we have recently surpassed China in this regard, how can we successfully balance development with wildlife conservation?
Confrontation (Image: Dharmendra Khandal)
As mentioned earlier India boasts the biggest share, approximately 70%, of the global tiger population. Nonetheless, the conflict between humans and tigers in certain regions of the country has sparked debates regarding what the size of an ideal tiger population should be.
Considering the impact of climate change, it has become apparent that we may have to accept a certain degree of conflict between humans and wildlife. To date, no definitive solution has emerged that can eliminate such conflict in its entirety. After acknowledging this ground reality, it becomes essential to work towards mitigating and managing human-wildlife conflict in a way that balances the needs of both humans and wildlife.
The 53 designated tiger reserves spanning an area of 75,796.83 square kilometres, safeguard one-third of India’s forest for the preservation of tigers. Notably, approximately 48% of these reserves have been established in the past 15 years, emphasizing an increasing focus on tiger conservation. These encouraging trends indicate that a significant portion of the remaining forests can still be conserved to provide sanctuary for tigers.
Take Rajasthan for example- The amount of tiger reserve area in the state was not large initially, but the state has recently demonstrated remarkable progress by more than doubling its tiger reserve area from 2292 sq km to 4886 sq km over the past decade, with plans to triple it in the near future. However, despite having ample opportunities, several states like Madhya Pradesh, Chhattisgarh, Odisha, Telangana, and Andhra Pradesh, are yet to undertake similar efforts in expanding their tiger reserves.
Out of a total of 53 tiger reserves in India, approximately 20 reserves cover one-third of the total tiger reserve area. Astonishingly, these reserves account for less than 100 tigers, representing a mere 3-4% of India’s tiger population. This alarming statistic highlights the urgent need for immediate action towards the conservation of these reserves.
According to the United Nations, India’s human population is projected to start declining as early as 2047, eventually reaching 1 billion by 2100. However, this century holds immense significance for our forest and wildlife conservation goals, which will serve as a testament in the future. Despite this potential, it is evident that our forest management practices require improvement. With proper management strategies in place, achieving a tiger population of over 10,000 is indeed attainable.
It is crucial to promote the development of additional tiger reserves in various states. It is counterproductive to discourage their establishment by imposing impractical rules and regulations. Often, it has been observed that the tiger habitats which are deemed suitable extend beyond predefined areas specified by regulations. This highlights the need to further understand and identify suitable habitats for tigers, indicating that our current knowledge might be limited in determining their ideal habitats. An encouraging example is the influx of numerous tigers into the Ratapani Wildlife Sanctuary, situated near Bhopal in Madhya Pradesh. Despite this positive development, the state government of Madhya Pradesh remains hesitant to designate it a tiger reserve.
Efforts should be intensified to expedite the voluntary relocation of villages within tiger reserves while ensuring adequate compensation and responsible care for the relocated communities. It is imperative to diligently coordinate a well-planned and strategic relocation process. For example, in Ranthambore, around 1500 families were relocated, but the relocation of 500 of those 1500 families proved beneficial for tigers, as they were situated in the most vital tiger habitat. Therefore, prioritizing relocation procedures that are both equitable and strategic, will ensure the long-term effectiveness and favorable results of such endeavors.
There is a pressing need to prioritize the development of corridors between states to facilitate the movement of wildlife. In addition, by facilitating the sharing of tigers between states, the issue of genetic depression can be effectively addressed, ensuring healthier and more robust tiger populations.
By embracing progressive and innovative approaches to tourism regulations and ensuring the broader distribution of benefits, wildlife conservation efforts can be significantly advanced. For instance, moving away from large-scale tourism establishments and promoting small-scale Homestays can generate employment opportunities for a greater number of people. This approach will foster stronger connections between the tiger and its conservation efforts.
To change people’s perspectives, it is crucial to emphasize the benefits derived from the tiger in terms of ecosystem services. For instance, in Ranthambhore, which is the world’s driest tiger habitat, the region provides enough water to irrigate 300 villages through the existence of 20 dams despite being an arid region. However, it is unfortunate that many local residents perceive Ranthambore solely as a forest developed for foreign tourism. Efforts should be directed towards educating communities about the positive impact of tigers and the conservation of wildlife, thus fostering a deeper appreciation for their ecological significance.
The assertion that tigers must be constrained once their population reaches 4000, implying potential human wildlife conflict problems, and the proposal of sterilization as a control method, demonstrate a limited perspective and a lack of innovative thinking.
Proposing the imposition of tiger population control measures based on a specific number sends a highly misleading message to the general public. It implies that tiger conservation is merely an experimental endeavour driven by the dogmatic rigidity of a particular class of people. Such statements can lead the public to unfairly blame the entire wildlife conservation effort for any minor difficulties that may arise in the future out of human wildlife conflict etc. If challenging times do occur, it is crucial to make appropriate decisions at that time, which will not require excessive planning in advance. There is no need to prematurely create an atmosphere of fear, as we can address it when it becomes necessary. Controlling tiger populations through sterilization or culling seems challenging, considering the level of precision that will be required in profiling all wild tigers. In other words, we can cross that bridge when we come to it, there is no need to raise patently unnecessary concerns at this stage. In our country, dogs are accountable for causing more than 4,000 human deaths annually, whereas encounters with tigers result in less than 2% of human fatalities. The ecological role of dogs remains unclear. It is important to highlight that snake bites claim the lives of 50,000 individuals, and we have yet to effectively tackle this issue. In light of these circumstances, it prompts us to question the true level of threat posed by tigers. Our society is far from flawless and perfect.So, why is there such an uproar over conflicts with tigers?
It is essential to transcend narrow perspectives and actively seek innovative strategies that ensure the long-lasting success and sustainability of our wildlife conservation efforts. While it is essential for the general public to understand this significance, policymakers in particular must strive to avoid devising plans without due consideration of perspectives that might be deemed ‘unorthodox’. Embracing a broader and more innovative outlook is crucial for safeguarding both the well-being of tigers and the basic needs of our human population.
भारत के हर एक हिस्से से अंग्रेज अपना लाभ उठा रहे थे, कहीं से कॉफी, कहीं से चाय और कहीं से मसाले, राजस्थान से उन्हें आज्ञाकारी सैनिक और बुद्धिमान व्यापारी तो मिले ही साथ ही उन्हें मिला सांभर झील का नमक। नमक की एक चुटकी हम सब के लिए किसी जादू से कम नहीं है, खाने में इसके इधर उधर होने पर बेहतरीन से बेहतरीन ख़ानसामा की इज्जत दाव पर लग जाती है। परन्तु नमक मात्र स्वाद का मसला नहीं है, बल्कि नमक हमारे शरीर की एक महत्ती जरूरत है, शायद इसी कारण यह हमारे भोजन का एक अहम् हिस्सा भी बन गया है। नमक मानव शरीर की तंत्रिका आवेगों को संचालित करने, मांसपेशियों को अनुबंधित करने और शरीर में पानी एवं खनिजों के उचित संतुलन को बनाए रखने के लिए एक अत्यंत आवश्यक अवयव है।
सांभर झील का एक दृश्य (फोटो: धर्मेन्द्र खांडल)
नमक को शुरुआती खाद्य प्रसंस्करण के लिए भी इस्तेमाल किया जाता था। यदि मछली को नमकीन बनाने की कला न होती, तो यूरोपीय लोगों ने अपनी मछली पकड़ने को यूरोप के तटों तक ही सीमित कर दिया होता और नई दुनिया की खोज में देरी की होती।
आज भी नमक का इतिहास हमारे दैनिक जीवन को छूता है। महीने के अंत में मिलने वाली सैलरी (वेतन) शब्द की उत्पत्ति साल्ट (नमक) शब्द से ही हुई है। प्रारंभिक रोमन सैनिकों को दिए जाने वाले विशेष नमक राशन को सलारियम अर्जेंटम के नाम से जाना जाता था, जो अंग्रेजी शब्द सैलरी का जनक है। इसी जरूरत को ध्यान में रख इस के उत्पादन स्थलों पर शासकों ने अधिकार बनाये रखा और लोगों की ज़िन्दगी को अपनी मुट्ठी में बंद रखा। जरुरत के हिसाब से उनके हलक से टैक्स निकालते रहे।
वर्तमान समय में भारत में तीन मुख्य नमक उत्पादक राज्य है – गुजरात, तमिलनाडु और राजस्थान। यह देश के उत्पादन का लगभग 96 प्रतिशत हिस्सा उत्पादित करते हैं। कुल उत्पादन में गुजरात का योगदान 76.7 प्रतिशत है, इसके बाद तमिलनाडु (11.16%) और राजस्थान (9.86%) का स्थान है। शेष 2.28% उत्पादन आंध्र प्रदेश, महाराष्ट्र, उड़ीसा, कर्नाटक, पश्चिम बंगाल, गोवा, हिमाचल प्रदेश, दीव और दमन से आता है।
राजस्थान के थार रेगिस्तान में कई नमक की झीलें हैं। इनमें से कुछ प्रमुख हैं – सांभर, कुचामन, डीडवाना आदि। सांभर झील असल में एक प्रसिद्ध वेटलैंड है जहाँ कई प्रकार के प्रवासी पक्षी आते है, यह झील किसी भी प्रकृतिवादी के लिए स्वर्ग के समान है। चारों ओर से अरावली से घिरी यह झील राजस्थान के नागौर, अजमेर और जयपुर जिलों में फैली हुई है। इसे मेंधा, रूपनगढ़, खंडेल और करियन नदियों से पानी मिलता है। झील की गहराई गर्मियों के दौरान 60 सेमी से लेकर मानसून के दौरान लगभग 3 मीटर तक होती है। जैसे शिकारी पक्षी पेरीग्रीन और लग्गर फाल्कन तो अक्सर यहाँ मिल ही जाते है, परन्तु कम नजर आने वाले शिकारी पक्षी जैसे मर्लिन और साकेर फाल्कन आदि भी सांभर झील में गाहे बगाहे नजर आ जाते है। यह अद्भुत लैंडस्केप पक्षी दर्शन के अलावा आजकल प्री-वेडिंग शूट का प्रमुख स्थल बन गया है। यहाँ हुए दो विवाह भी अत्यंत प्रचलित रहे है। महाभारत में सांभर झील का उल्लेख राक्षस राजा वृषपर्वा के राज्य के एक हिस्से के रूप में किया गया है। सांभर में उनके पुजारी शुक्राचार्य रहा करते थे, उनकी बेटी देवयानी और राजा ययाति के मध्य यहाँ विवाह हुआ था। आज भी झील के पास देवयानी का मंदिर है। हालांकि कालान्तर में भी सांभर झील मुगल बादशाह अकबर का जोधपुर की राजकुमारी जोधाबाई के विवाह के लिए विख्यात हुआ था।
पेरग्रीन फाल्कन यहाँ आसानी से मिलने वाले शिकारी पक्षी है (फोटो: धर्मेन्द्र खांडल)
1884 में, सांभर झील में उत्खनन कार्य किया गया और उस खुदाई के दौरान मिट्टी के स्तूप के साथ कुछ टेराकोटा संरचनाएं, सिक्के और मुहरें मिलीं। सांभर मूर्तिकला कला बौद्ध धर्म से प्रभावित प्रतीत होती है। बाद में, 1934 के आसपास, एक बड़े पैमाने पर व्यवस्थित और वैज्ञानिक उत्खनन किया गया, जिसमें बड़ी संख्या में टेराकोटा मूर्तियां, पत्थर के बर्तन और सजाए गए डिस्क पाए गए। सांभर से प्राप्त कई मूर्तियां अल्बर्ट हॉल संग्रहालय में मौजूद हैं।
कैसे बनी सांभर झील और कैसे बनता है नमक ? :
मिथकों के अनुसार जब एक राक्षस दुर्गामासुर ने धरती पर सूखा और अकाल फैला दिया, तो पृथ्वी पर रहने वालों को सो वर्षों तक इसकी पीड़ा सहनी पड़ी। तब ऋषियों ने देवी लक्ष्मी को याद किया, वह प्रसन्न होकर दुनिया में नीले रंग का रूप लिए अवतरित हुई। देवी ने भी धरती पर दुःख देख उन्होंने अपनी आंखों से लगातार आंसू बहाए और लोगों को पुनः जीवन योग्य सुविधा प्रदान की। परन्तु उसके आँखों के आंसुओं से बहने वाली धाराओं ने एक लवणीय झील का निर्माण किया।
नमक के ढेर और क्यारियां (फोटो: धर्मेन्द्र खांडल)
इस देवी का नाम शाकम्भरी था जो शाक-सब्जी की देवी है। इस देवी का एक मंदिर सांभर झील में एक छोटी सी पहाड़ी पर स्थित है। जो एक महान राजा पृथ्वीराज चौहान के समय बनाया गया था। एक अन्य दंतकथा के अनुसार मां शाकंभरी की कृपा से यहां चांदी की भूमि उत्पन्न हुई। चांदी को लेकर लोगों में झगड़े शुरू हो गए। इस समस्या को नियंत्रित करने के लिए मां ने चांदी को नमक में बदल दिया। इस तरह से सांभर झील की उत्पत्ति हुई।
परन्तु अब तक की वैज्ञानिक मान्यताओं के अनुसार इस झील की उत्पत्ति के संबंध में कई परिकल्पना हैं। उनमें से एक यह है कि ये झीलें टेथिस सागर के अवशेष के रूप में विद्यमान हैं, जो लगभग 70 mya वर्ष पहले भारतीय और यूरेशियन प्लेटों के टकराने से पहले इस क्षेत्र में मौजूद था। हालांकि हाल ही में हुए कई अध्ययनों के अनुसार इस झील की समुद्री द्वारा उत्पत्ति की उपरोक्त परिकल्पना के लिए कोई सबूत नहीं मिले हैं।
इसके विपरीत नए अध्ययन की परिकल्पना के अनुसार इस झील का पानी उल्कापिंड मूल का है और नमक स्थानीय रूप से इस क्षेत्र में चट्टानों के अपक्षय से प्राप्त होताहै। ये झील टर्मिनल झील के रूप में व्यवहार करती हैं; यह मानसून के मौसम (जून-सितंबर) के दौरान पानी प्राप्त करते हैं और शेष वर्ष के दौरान वाष्पित हो जाते हैं (कोई बहिर्प्रवाह नहीं होता है और वाष्पीकरण प्रवाह के बराबर होता है)। यानी यह झील स्थानीय वर्षा द्वारा पोषित संचय और वाष्पीकरण चक्रों द्वारा बनाई गई हैं।यानी इसमें आने वाले नदी नाले यहीं पर समाप्त हो जाते है और आगे नहीं बहते है। वैसे राजस्थान में मुझे एक भी प्राकृतिक रूप से बनी मीठे पानी की झील नहीं मिली जितनी भी प्राकृतिक झीलें है वह खारे पानी की ही है।
सांभर झील में उत्पादित नमक को धोने के लिए एक रेल कनेक्टिविटी भी है (फोटो: धर्मेन्द्र खांडल)
नमक निर्माण और इस पर लगने वाले टैक्स का इतिहास :
नमक उत्पादन का सर्वप्रथम प्रमाण लगभग 6,000 ईसा पूर्व का है जो रोमानिया के पोयाना स्लैटिनी-लुनका में एक उत्खनन में मिला है। भारतीय उपमहाद्वीप में, नमक उत्पादन का प्रमाण सिंधु घाटी सभ्यता से मिलता है, जो लगभग 2500 ईसा पूर्व विकसित हुई थी। गुजरात में लोथल जैसे स्थलों की खुदाई में नमक के बर्तनों और नमक निकालने के लिए उपयोग किए जाने वाले उपकरणों की मौजूदगी का पता चला है, जो प्राचीन काल में भी नमक के महत्व को दर्शाता है। साथ ही भारत में नमक पर कराधान भी प्राचीन काल से होता आया है। सभी कालों में यह राजस्व एकत्रित करने का सबसे अधिक लोकप्रिय माध्यम रहा है।
कहते है एक समय नमक टैक्स चीन के राजस्व के आधे से अधिक था और इसी धन से चीन की महान दीवार के निर्माण में योगदान दिया। चन्द्रगुप्त मौर्य के काल में भी नमक पर कर प्रचलित रहा है। अर्थशास्त्र, जो लोगों के विभिन्न कर्तव्यों का वर्णन करता है, कहता है कि नमक कर इकट्ठा करने के लिए लवणनाध्यक्ष नामक एक विशेष अधिकारी को नियुक्त किया गया था।बंगाल में, मुग़ल साम्राज्य के काल में नमक कर लागू था, जो हिंदुओं के लिए 5% और मुसलमानों के लिए 2.5% था।
हालाँकि, मुगल सम्राट अकबर (1542-16051) के शासनकाल तक झील के संचालन की एक व्यवस्थित प्रणाली शुरू नहीं की गई थी। उनके समय में झील से लगभग 250,000 रुपये प्रति वर्ष की आय होती थी। जब औरंगजेब गद्दी पर बैठा (16582) तो आय धीरे-धीरे बढ़कर 15 लाख रुपये हो गई।, मुगलों के पतन के साथ राजस्व में गिरावट आई और लगभग 1770 में, जयपुर और जोधपुर के लोगों ने बिना किसी संघर्ष के झील पर कब्ज़ा कर लिया। अगले युग के दौरान झील का प्रबंधन राजपूतों और मराठों के बीच आगे और पीछे चला गया। इतिहास इस बारे में मौन है कि उन दिनों (1770-1834) जब तक 1835 में अंग्रेजों ने झील पर कब्ज़ा नहीं कर लिया, तब तक कितना राजस्व प्राप्त हुआ था। जयपुर और जोधपुर की संयुक्त सरकार, शामलात ने 1844 से झील पर काम किया (गोपाल और शर्मा 1994)।
उस समय नावा और गुढ़ा नगण्य बस्तियाँ थीं, लेकिन धीरे-धीरे नमक बाजार के रूप में विकसित हो गईं। जब जोधपुर ने नावा और गुढ़ा में नमक का काम विकसित करना शुरू किया, तो जयपुर को ईर्ष्या होने लगी। इससे दोनों राज्यों के बीच निरंतर कलह बनी रही।
यह तब तक चलता रहा जब तक कि 1870 में नावा और गुढ़ा सहित झीलों पर अंग्रेजों ने कब्जा नहीं कर लिया – परन्तु अंग्रेजों ने इसे नमक उत्पादन के मुख्य केंद्र के रूप में विकसित किया। वर्ष 1870 से 1873 के मध्य सांभर झील के नमक उत्पादन के प्रबंधक रहे सहायक साल्ट कमिश्नर आर एम एडम लिखते है की ” सांभर और नावा गुढ़ा झील से नमक का औसत उत्पादन लगभग 1,400,000 मन या 51,429 टन है। अकेले सांभर में पिछले 17 वर्षों का औसत उत्पादन 690,000 मन था। उपरोक्त अवधि के दौरान सबसे बड़ा उत्पादन, यानी 1,360,000 मन, 1869 में हुआ था, और 1868 की अल्प वर्षा और अकाल के कारण श्रमिकों की प्रचुर आपूर्ति के कारण यह हो पाया ; जबकि 1863 में सबसे कम उत्पादन, यानी 1,504 मन, पिछले वर्ष की अत्यधिक वर्षा के कारण हुआ था, जिसने झील को इतना ऊंचा उठा दिया था कि शहर के कुछ निचले हिस्सों में भी बाढ़ आ गई थी” परन्तु सबसे अधिक चौंकाने वाले आंकड़े नमक ढुलाई को लेकर थे की – 150 वर्ष पूर्व नमक निर्यात के लिए आवश्यक गाड़ी में 300,000 बैल, 66,000 ऊंट, 18,000 गाड़ियां और 5,000 गधे थे। यदि आप उस दृश्य को एक बार अपने मन में जिवंत कर देखे तो विचार करे की सांभर का क्या माहौल रहा होगा, शायद कोई अंतहीन मेले जैसा माहौल होगा।
एडम द्वारा बनाया गया सांभर झील का नक्शा (नक्शा सार्वजनिक डोमेन से)
सांभर झील के आस पास के क्षेत्र की वर्तमान स्तिथि (बिंग सॅटॅलाइट व्यू)
आधुनिक समय में, महात्मा गांधी ने भारत में स्वशासन के लिए लोकप्रिय समर्थन जुटाने के साधन के रूप में ब्रिटिश नमक कानूनों की अवहेलना की। हालांकि, नमक कर लागू रहा और इसे तभी निरस्त किया गया जब जवाहरलाल नेहरू 1946 में अंतरिम सरकार के प्रधान मंत्री बने। स्वतंत्रता के बाद भारतीय राज्यों के एकीकरण पर 1950 में झील का स्वामित्व राजस्थान राज्य सरकार को दे दिया गया। आज इसकी भूमि का पट्टा राजस्थान सरकार के साथ हिंदुस्तान साल्ट्स के संयुक्त उद्यम सांभर साल्ट्स को दे दिया गया है।
स्वतंत्रता के बाद, नमक कर को बाद में नमक उपकर अधिनियम, 1953 के माध्यम से भारत में फिर से लागू किया गया। 2017 में वस्तु एवं सेवा कर को खत्म कर दिया गया और सफल बनाया गया, जिसमें नमक पर कर नहीं लगता है।
भारत में अंग्रेजों द्वारा बनाई गई ग्रेट साल्ट हेज :
भारत के नमक निर्माण करने वाले हिस्से को एक लम्बी बाड़ द्वारा अलग किया गया और नमक के व्यापार पर नियंत्रण किया गया। क्या कभी आपने सोचा है यह बाड़ से क्या मतलब है ? ग्रेट इंडियन सॉल्ट हेज असल में कांटो की एक घनी बाड़ थी जिसने भारत को दो भागो में बाँट दिया था i वैसे ही जैसे आप अपने खेत को दो भागों में विभाजित करते हो। इसमें मुख्य रूप से कांटेदार पेड़ों और झाड़ियों की एक विशाल क़तार थी, जो पत्थर की दीवार और खाइयों से पूरक थी, जिसके पार कोई भी इंसान या बोझ वाला जानवर या वाहन बिना गुजर नहीं सकता था, इसकी लम्बाई 3700 किलोमीटर थी। यानी यह एक तरह की इनलैंड कस्टम लाइन थी, जो भारत के ब्रिटिश औपनिवेशिक शासकों द्वारा तटीय क्षेत्रों से नमक की तस्करी को रोकने के लिए बनायी गयी थी। यह ऐ ओ ह्यूम 1870 ने बनायीं थी। उन्होंने यह नमक की आवाजाही को नियंत्रित करने वाले सीमा शुल्क विभाग के खर्च को कम करने के लिए किया था। इसे ग्रेट हेज के नाम से जाना जाता है। इसके माध्यम से देश वासी लगभग दो महीने की आय के बराबर नमक कर देने के लिए मजबूर होते थे। इस बाड़ की सुरक्षा लगभग 12,000 पुरुषों और छोटे अधिकारियों द्वारा की जाती थी। इसी तरह पूरे इतिहास में, नमक सरकारी एकाधिकार और विशेष करों के अधीन रहा है।
1870 के दशक की अंतर्देशीय सीमा शुल्क रेखा (लाल) और ग्रेट हेज (हरा) का मार्ग (सौ: विकिपिडिया)
नमक व्यापार की वर्तमान स्थिति और सांभर के बिगड़ते हालात:
कहते है सांभर के पानी में सोडियम क्लोराइड की उच्च मौजूदगी के कारण यहां के नमक की बहुत अधिक मांग है। झील के नमक उत्पादन का प्रबंधन सांभर साल्ट्स लिमिटेड (एसएसएल) द्वारा किया जाता है, जो हिंदुस्तान साल्ट्स लिमिटेड और राजस्थान सरकार का संयुक्त उद्यम है। परन्तु एक अनुमान के अनुसार सांभर झील से हर साल 32 लाख टन स्वच्छ नमक का उत्पादन होता है, जिसमें से 30 लाख टन का उत्पादन अवैध रूप से होता है।
सांभर झील के उत्तरी और पश्चिमी तट विशेष रूप से अवैध नमक उत्पादन के लिए कुख्यात हैं। इस गतिविधि से क्षेत्र की पारिस्थितिकी बुरी तरह प्रभावित हुई है और पिछले कुछ वर्षों में झील में सर्दियों में रहने वाले फ्लेमिंगो की संख्या में भारी गिरावट आई है। नावा में, निजी नमक उत्पादकों द्वारा बोरवेल खोदने, अवैध पंप द्वारा पानी निकालने और बिजली के केबल बिछाने के लिए कई अर्थमूविंग मशीनें, हेवी ड्यूटी कंप्रेसर और ड्रिल मशीनें देखी जा सकती हैं।
बोरवेल और उन तक पहुंचते बिजली के तार (फोटो: धर्मेन्द्र खांडल)
अवैध भूजल निकासी के लिए बिजली चोरी से निपटने के लिए, सांभर साल्ट्स लिमिटेड द्वारा राजस्थान उच्च न्यायालय के समक्ष राजस्थान राज्य बिजली वितरण कंपनी (डिस्कॉम) के खिलाफ एक रिट याचिका दायर की गई थी। जनता के दबाव में राज्य सरकार को विनोद कपूर समिति का गठन करना पड़ा। अपनी 2010 की रिपोर्ट में, समिति ने “झील में नमकीन पानी निकालने के अवैध कारोबार” पर प्रकाश डाला। रिपोर्ट में कहा गया है कि वेटलैंड क्षेत्र में 13,000 से अधिक अवैध ट्यूबवेल हैं। अब हालात और भी बदतर हुए है। यह हजारों करोड़ रुपये का अवैध कारोबार है। इस रिपोर्ट में इसे रोकने के लिए कई प्रकार के सुझाव दिए गए परन्तु क्षेत्र में व्यापार और राजनीतिक हितों के बीच सांठगांठ इतनी अधिक है कि क्षेत्र की पारिस्थितिकी को होने वाले नुकसान को रोक पाना असंभव लगता है।
सांभर झील की इकोलॉजी :
भारत के थार रेगिस्तान में सबसे बड़ी अंतर्देशीय खारी झीलों में से एक है, इसके जैविक महत्व के कारण 1990 में इसे रामसर साइट घोषित किया गया था। यह जयपुर, राजस्थान के पश्चिम में स्थित है। यह नमक की झील एक विशाल खारे आर्द्रभूमि का निर्माण करती है, जो कच्छ के रण के बाहर राजहंस (flamingo) के लिए सबसे महत्वपूर्ण क्षेत्र है। सांभर साल्ट झील एक शीतोष्ण अति लवणीय पारिस्थितिकी तंत्र है।
फ्लेमिंगो के बिना सांभर अधूरा है (फोटो: धर्मेन्द्र खांडल)
झील की जलवायु उष्णकटिबंधीय मानसूनी है। वर्ष को अलग-अलग गर्मी, बारिश और सर्दी के मौसम के साथ चिह्नित किया जाता है। गर्मियों में तापमान 45 डिग्री सेल्सियस (113 डिग्री फारेनहाइट) तक पहुँच जाता है और सर्दियों में 5 डिग्री सेल्सियस (41 डिग्री फारेनहाइट) तक नीचे चला जाता है।
झील के आसपास 38 गांव हैं जिस कारण इस पर अत्यंत मानवीय दबाव है – प्रमुख बस्तियों में सांभर, गुढ़ा, जब्दीनगर, नवा, झाक, कोर्सिना, झापोक, कांसेडा, कुनी, त्योड़ा, गोविंदी, नंधा, सिनोदिया, अरविक की ढाणी, खानदजा, खाखड़की, केरवा की ढाणी, राजास, जालवाली की ढाणी आदि शामिल हैं।
यहाँ आर्द्रभूमि उत्तरी एशिया से प्रवास करने वाले हजारों पक्षियों के लिए एक प्रमुख शीतकालीन क्षेत्र है। झील में उगने वाले विशेष शैवाल और बैक्टीरिया आकर्षक जल रंग प्रदान करते हैं और यह झील की पारिस्थितिकी के मुख्य घटक है। इस झील के पानी में नमक (NaCl) की सांद्रता हर मौसम में अलग-अलग होती है। पैन (क्यार) में नमक की मात्रा अलग-अलग होती है और तदनुसार, haloalkaliphilic सूक्ष्मजीवों के कारण नमकीन पानी का रंग हरा, नारंगी, गुलाबी, बैंगनी, गुलाबी और लाल होता है। जो प्रवासी पक्षियों को भोजन देते है। आसपास के जंगलों में अन्य जंगली सूअर, नीलगाय और लोमड़ियों स्वतंत्र रूप से विचरण करती हैं।
ब्लैक स्टोर्क का एक समूह सांभर झील के किनारे पर (फोटो: धर्मेन्द्र खांडल)
सांभर लेक में मछलीया नहीं मिलती परन्तु कई प्रकार के क्रस्टेसियन यहाँ मिलते है- यानी झींगा और क्रिल्ल समूह से सम्बन्ध रखने वाले जीव, जो कई प्राणियों का भोजन है। पक्षी विज्ञानी आर. एम. एडम, जो सांभर में सहायक आयुक्त थे, कुचामन और नवा सहित झील और इसके आसपास के क्षेत्रों के पक्षीविज्ञान संबंधी रिकॉर्ड प्रकाशित करने वाले पहले व्यक्ति थे (एडम 1873, 1874 ए-बी)। झील के पक्षी जीवन पर उनके विस्तृत नोट्स अभी भी जानकारी का एकमात्र प्रामाणिक स्रोत बने हुए हैं और इसे एक बेंचमार्क अध्ययन माना जाता है। एडम ने 244 पक्षी प्रजातियां दर्ज की थी। एडम के पेपर को वर्तमान संदर्भ में एक पक्षिविद श्री हरकीरत सांघा ने विश्लेषण किया है। सांघा के फ्लेमिंगो की दोनों प्रजातियों पर लिखे नोट्स का ज्यों का त्यों उल्लेख यहाँ कर रहा हूँ – “ग्रेटर फ्लेमिंगो नियमित और आम शीतकालीन आगंतुक। वे आम तौर पर अगस्त के दूसरे सप्ताह तक पहुंचते हैं और झील पर उनका रहना काफी हद तक पानी की उपलब्धता पर निर्भर करता है। सामान्य वर्षा वाले वर्षों में वे फरवरी तक झील छोड़ देते हैं, जब उच्च स्तर के वाष्पीकरण और नमक उत्पादन के लिए पानी के उपयोग के कारण झील सूखने लगती है। हालाँकि, ‘बाढ़’ के वर्षों के दौरान (उदाहरण के लिए, जुलाई 1977-जून 1978), जब झील गर्मियों में भी गीली रहती है, ग्रेटर और लेसर फ्लेमिंगो दोनों को पूरे वर्ष में दर्ज किया गया था (सांघा 1998)। आगमन और प्रस्थान की अंतिम तिथियां क्रमशः 10 अगस्त 1996 और 6 अप्रैल 1996 हैं। 1991 और 2009 के बीच आर्द्रभूमि की कई यात्राओं के दौरान राजहंस की पूरी गणना की गई और दो प्रजातियों के वितरण की योजना बनाई गई। हाल ही में प्रकाशित साहित्य (गोपाल और शर्मा 1994) के विपरीत, ग्रेटर फ्लेमिंगो हमेशा लेसर फ्लेमिंगो की तुलना में कम संख्या में थे। 25 जनवरी 1998 को 10,000 से अधिक की गिनती की गई। हालांकि 2 नवंबर 2001 को झील के किनारे तटबंध के पास एक अंडा पाया गया था, लेकिन इस प्रजाति ने सांभर में कभी भी सफलतापूर्वक प्रजनन नहीं किया, क्योंकि आदर्श जल परिस्थितियाँ उनके लिए उपलब्ध नहीं हैं।
सांभर झील में एक घोडा मकोड़ा (लार्ज अंट) तेजी से इधर उधर गतिमान रहते है (फोटो: धर्मेन्द्र खांडल)
सांघा लिखते है की लेसर फ्लेमिंगो बहुत आम है और झील पर सबसे प्रचुर प्रजाति है। परन्तु वे आगे लिखते है की अजीब बात है, एडम ने सांभर में अपने निवास के “पहले दो वर्षों के दौरान” इसका अवलोकन नहीं किया। वह कहते हैं कि “एक स्थानीय निवासी ने उन्हें बताया कि उन्होंने कमोबेश छोटे राजहंस देखे हैं, जिनके बारे में उनका कहना है कि वे छह या सात साल बाद झील पर आते हैं।” सांघा लिखते है की 1990 से मैं नियमित रूप से लेसर फ्लेमिंगो को देखता रहा हूं। झुंड बारिश की पहली भारी बारिश के बाद दिखाई देते हैं और उनके रहने की अवधि झील में पानी की मात्रा पर निर्भर करती है। सबसे प्रारंभिक आगमन तिथि 7 अगस्त 1998 दर्ज की गई थी जब 7,000 से अधिक देखे गए थे। वे आमतौर पर मार्च के अंत तक चले जाते हैं, लेकिन अंतिम तिथि 6 अप्रैल 1996 दर्ज की गई है। रिकॉर्ड संख्या 23 सितंबर 1995 को देखी गई थी जब 20,000 से अधिक का अनुमान लगाया गया था। जनवरी की शुरुआत से मार्च 1996 के अंत तक लगभग 18,000 फ्लेमिंगो देखे गए। 4 जनवरी 2009 को सी. 15,000 थे।
इस तरह यह लवणीय झील कई प्रकार के जीवों का अनोखा पर्यावास है।
सांभर झील की इकोलॉजी में बदलाव :
अब फिजा बदल रही है ।इस झील के बारे में एडम ने कभी लिखा था की – “बारिश में अत्यंत वीरान झील एक अत्यंत सुंदर दृश्य में बदल जाता है। साफ वातावरण जगमगा उठता है और दूर-दूर तक फैली पहाड़ियों की निचली श्रृंखला बैंगनी रंग में रंग जाती है, रेतीले टीले हरे रंग से ढक जाते हैं, और झील का तल 20 मील लंबाई और लगभग 5 इंच चौड़ाई में पानी के विस्तृत विस्तार में परिवर्तित हो जाता है। इस सब को बढ़ाने के लिए, छोटी-छोटी कलगीदार लहरें लहरा रही हैं, और पूरी सतह पक्षी-जीवन से भरी हुई है। राजहंसों के घने समूह को हर जगह तैरते या झील के तल में बहते, ऊपर की ओर उड़ते हुए, “सभी शानदार चीजों की समृद्ध छटा” के साथ, या भोजन की तलाश में किनारे पर चुपचाप घूमते हुए देखा जा सकता है। बड़े और छोटे पक्षियों की लंबी कतारें, सभी प्रकार के पंखों के, भव्य गुलाबी रंग के वयस्क फ्लेमिंगो से लेकर मटमैले भूरे और सफेद युवा फ्लेमिंगो तक, पश्चिम से पूर्व तक यहां मार्च करते हैं, और सभी अपने सिर नीचे झुकाते खाना खोजते हुए”
साकेर एक अत्यंत दुर्लभ शिकारी पक्षी है (फोटो: धर्मेन्द्र खांडल)
वे आगे लिखते है की सिंचाई के लिए सांभर के आसपास उपयोग में आने वाले खुले कुएं लगभग 30 या 40 फीट व्यास और 20 फीट गहरे खेतों में खोदे गए हैं। इनके किनारे विलो, बाघ और सरपत घास (प्रजातियों का वर्णन स्पष्ट नहीं है ) आदि की प्रजातियों से घने रूप से ढके हुए हैं, और कई पक्षियों का पसंदीदा निवास स्थान हैं। वर्तमान में पानी का लेवल लगभग 100 फ़ीट से भी गहरा चला गया है।
वर्तमान में यहाँ वर्षा के आंकड़े पैटर्न में किसी बड़े बदलाव का संकेत नहीं देते हैं, लेकिन झील में जल की आवक में भारी कमी आई है दूसरी और शैवाल में उल्लेखनीय वृद्धि झील के अस्तित्व के लिए गंभीर चिंता का विषय है। यह आसपास की मानवजनित गतिविधियों और झील के जलग्रहण क्षेत्र में चेक बांधों और एनीकटों के निर्माण के कारण हो सकता है जो झील में अपवाह को रोकते हैं और शैवाल की अनुकूल वृद्धि प्रदान करते हैं। सांभर झील को पानी लाने वाली अधिकांश नदियाँ रेत से भर गई हैं। जिस कारण ताजे पानी का मार्ग अवरुद्ध हो गया है। दूसरी और आस पास अनियमित वर्षा और अत्यधिक दोहन के कारण सरकार ने खेती को बचाने के लिए इधर उधर चेक्ड बाँध एवं एनीकट बनाकर जल प्रवाह को रोकने अथवा जल संचय हेतु जल स्तर में सुधार करने की नीति बनाई। इसके कारण स्थिति और भी विकट हो गयी है, जलग्रहण क्षेत्र से झील में पानी का प्रवाह बंद होता जा रहा है।
कम ताज़ा पानी के कारण उपमृदा पानी और अधिक लवणीय हो गया है और एक अध्ययन के अनुसार इसकी सांद्रता 18 to 24°Be तक पहुंच गई है। वर्तमान स्थिति को पुनर्जीवित करने के लिए, वर्षा जल जलग्रहण क्षेत्र से झील तक पहुंचना चाहिए।नहीं तो बढ़ते सूखे दिनों के कारण हवा -आँधी और तूफ़ान के माध्यम से नमक पास के क्षेत्र में ले जाएँगी और वह क्षेत्र भी खारा होता जाएगा।
एक अध्ययन के अनुसार सांभर झील की फाइटोप्लांकटन प्रजातियों की संरचना पहले बताई गई 20 जेनेरा से घटकर केवल 11 (नोस्टॉक, माइक्रोसिस्टिस, स्पिरुलिना, अपानोकैप्सा, ऑसिलेटोरिया, मेरिस्मोपेडिया, नित्ज़स्चिया, नेविकुला, सिनेड्रा, कोस्मेरियम और क्लॉस्टेरियम) रह गई है। (Jakher, Bhargava & Sinha,1990)
नवंबर 2019 में, झील क्षेत्र में लगभग 20,000 प्रवासी पक्षी रहस्यमय तरीके से मृत पाए गए थे। बोटुलिस्म को इसका कारण माना गया और अनेक लोग इस से सहमत नहीं लगते है। परन्तु अभी तक बोटुलिस्म ही प्रामाणिक कारण माना जाता है। झील के उत्तरी किनारे बिजली की तारों से पटा हुआ है। लोगों ने झील के पेट में हजारों की संख्या में बोरवेल खुदा दिए है ताकि १-२-३ किलोमीटर दूर तक अपने खेत में खारा पानी लेजा कर नमक बनाया जा सके। तीन और के किनारे नमक की क्यारियों से अटे पड़े है, झील के माता मंदिर वाले किनारे में भी मानवीय गतिविधियां जोरो पर है।
2019 में सांभर में हुई हजारों पक्षियों की मौत को सबसे पहले उजागर करने वाले पक्षी विशेषज्ञ श्री किशन मीणा और एक सरकारी कर्मचारी मृत पक्षी दिखता हुआ (फोटो: धर्मेन्द्र खांडल)
2019 में हुई घटना के दौरान इस प्रकार मृत पक्षियों का ढेर एकत्रित किया जा रहा था (फोटो: धर्मेन्द्र खांडल)
सांभर झील संरक्षण के प्रयास :
अनेक लोग आज कल झील की चिंता करने लगे है। परन्तु PIL और मुखर मीडिया रिपोर्ट्स के बाद भी नतीजा सिफर रहा है। मात्र वर्ष 2014 में, भारत हेवी इलेक्ट्रिकल्स लिमिटेड और पावर ग्रिड कॉरपोरेशन ऑफ इंडिया लिमिटेड सहित छह सार्वजनिक उपक्रमों ने कंपनी के तहत भूमि पर दुनिया की सबसे बड़ी 4,000 मेगावाट की अल्ट्रा-मेगा सौर ऊर्जा परियोजना स्थापित करने की योजना बनाई थी। लेकिन राज्य में एक अत्यंत बुद्धिमान वन अधिकारी की चौकस निगाहों के कारण इस परियोजना को रोक दिया गया और गुजरात में स्थानांतरित कर दिया गया, नहीं तो यह झील पूरी तरह बरबाद हो जाती। इस अधिकारी का नाम उजागर करना ठीक नहीं है। वरना इसके पैरोकार कम और गाली देने वाले ज्यादा लोग मिल जायेंगे।
यह झील धीरे धीरे अपने गुणों के कारण मारी जा रही है। इसे बचाना अब असंभव लगता है।
References
Adam, R. M. 1873. Notes on the birds of Sambhur Lake and its vicinity. Stray Feathers 1 (5): 361–404.
Adam, R. M. 1874a. Additional notes on the birds of Sambhur Lake and its vicinity. Stray Feathers 2 (4&5): 337–341.
Adam, R. M. 1874b. Letters to the Editor. [“Since writing my additional note I find that the under mentioned bird has been shot at Sambhar:- …”]. Stray Feathers 2 (4&5): 465–466.
Jakher G. R., S. C. Bhargava & R. K. Sinha, (1990), Comparative limnology of Sambhar and Didwana lakes (Rajasthan, NW India) Hydrobiologia
राजस्थान में पाए जाने वाले चमगादड़ों की विविधता को संकलित करता आलेख
चमगादड़ स्तनधारी प्राणियों का एक ऐसा समूह जिसे लोग सदैव हेय दृष्टि से ही देखते आये हैं। इन्होंने भी अपने आप को हमसे दूर रखने में कोई कमी नहीं रखी, एक तो उड़ने वाले प्राणी के रूप में विकसित हुए और दूसरे यह मात्र रात के समय सक्रिय रहते हैं। चमगादड़ एकांत प्रेमी होते हैं और अक्सर निर्जन स्थान पर रहते हैं। इन सभी वजहों के कारण हम इनके बारे में कम ही जानते हैं। वहीं इनके जीवन जीने की सैली भी थोड़ी विचित्र है, यह प्राणी अपना मूत्र और विष्ठा का उत्सर्जन वहीं करते है जहाँ यह रहते हैं, जिसकी गंध अक्सर अन्य प्राणी पसंद नहीं करते और इस तरह चमगादड़ अपने आप को अन्य प्राणियों से बचाते हैं और वहीं इंसान भी इन्हें दूर रखने का प्रयास करते हैं।
चमगादड़ को भोजन के आधार पर दो मुख्य भागों में बांटा जा सकता है – फल खाने वाले विशाल फल भक्षी मेगाबैट्स और दूसरे किट खाने वाले छोटे कीटभक्षी माइक्रो-बैट्स। राजस्थान में ३ चमगादड़ फ्रूट बैट प्रजाति की है और बाकि लगभग 18 कीटभक्षी प्रजाति की है। हालांकि कुछ और भी चमगादड़ प्रजातियां राजस्थान में हो सकती है और जंतु वैज्ञानिकों में कई प्रजातियों के राजस्थान में मिलने नहीं मिलने को लेकर कई तरह की बहस भी चल रही है।
राजस्थान में निम्न चमगादड़ प्रजातियां आसानी से मिल जाती है।
मेगाबैट्स:
यह बैट इकोलोकेशन का इस्तेमाल नहीं करते है और फलों को खाकर अपना पेट भरते है। तीन प्रजातियों की फ्रूट बैट हमारे यहाँ मिलती है।
1. इंडियन फ्लाइइंग फॉक्स (Pteropus medius)
अधिकांशतया बरगद के विशाल वृक्षों पर कॉलोनी बनाकर रहते है। यह एक विशाल चमगादड़ है जिनके हाथों के साथ पंखों का फैलाव 890mm तक हो सकता है। यह अक्सर विशाल बरगद के वृक्षों पर मिलते है। बरगद, गूलर आदि फलों को खाने वाले यह चमगादड़ अपनी विष्ठा से बीजों को फैलाने में एक महत्ती भूमिका निभाते हैं।
यह चमगादड़ इंडियन फ्लाइंग फॉक्स की तुलना में आधे आकार की फ्रूट बैट है। जिनके पंखों का फैलाव 480 mm तक होता है। दिन के समय यह केले, घने पत्ते वाले पेड़ों में छिप कर रहती है। राजस्थान में इसका प्रसार व्यापक है परन्तु राज्य में इसे 1980 में पहली बार देखा गया।
3. लेसचेनॉल्ट का रुसेट (Rousettus leschenaultii)
इस फ्रूट बैट का आकर 560 mm तक होता है। अक्सर यह चमगादड़ गुफाओं अथवा इमारतों में मिलती है। झालावाड़ के गागरोन के किले और जालोर के स्वर्णगिरि के किले पर इसके बड़े समूह देखे जा सकते है।
माइक्रोबैट्स:
राजस्थान में अनेक कीटभक्षी चमगादड़ मिलती है।
A. राइनोपोमा (माउस-टेल्ड बैट)
राजस्थान में अनेक स्थानों पर राइनोपोमा चमगादड़ मिल जाती है। यह एक चूहे के समान दिखने वाली चमगादड़ है जिसके एक लम्बी पूंछ होती है। राजस्थान में इनकी दो प्रजातियां पाई जाती है
4. लेसर माउस-टेल्ड बैट (Rhinopoma hardwickii)
5. ग्रेटर माउस-टेल्ड बैट (Rhinopoma microphyllum)
R. hardwikii की पूंछ इनके फोरआर्म से लम्बी होती है। इनके नाक के पास दोनों और फुले हुए नथुने होते है इन भिन्नताओं के अलावा इसमे और R. microphyllum में कोई अंतर नहीं है।
B. टैफोज़स (टॉम्ब बैट)
इस वंश की 4 प्रजातियां राजस्थान में मानी जाती है। इस जीनस की चमगादड़ को टॉम्ब बैट कहा जाता है, अक्सर पुरानी इमारतों में रहती है अथवा गुफाओं के खुले हिस्से को पसंद करती है। यानी अधिक गहरी और अधिक अँधेरी जगह में कम रहती है।
इन में से नुडीवेन्ट्रिस बैट के शरीर पर अत्यंत छोटे और पतले बाल होते है एवं इसके ऊपरी भाग पर एक तिहाई हिस्से पर बाल नहीं होते है यानि इसका रम्प वाला हिस्सा नग्न होता है। यह सूर्यास्त से आधे घंटे पहले सक्रिय हो जाती है, तेजी से उड़ती है और उड़ते हुए कीड़ों को शिकारी पक्षी की भांति पकड़ती है। वहीं लोन्गिमैनस की आगे की आर्म अधिक लम्बी होती है और मुँह के नीचे बाल रहित गले के पास एक अर्ध गोलाकार गूलर सैक होता है। मेलनोपोगों के नर में गले पर काली दाढ़ी होती है।
C. हिप्पोसिडरोस (राउन्डलीफ बैट)
10. फुलवस लीफ-नोज़ड़ बैट (Hipposideros fulvus)
11. इंडियन राउन्डलीफ बैट (Hipposideros lankadiva)
इनके नाक पर मिलने वाले विभिन्न आकारों के कारण इन्हे सामूहिक रूप से राउंड लीफ चमगादड़ कहा जाता है। इसमें अभी तक दो प्रजातियों के चमगादड़ राज्य में मिले हैं। फुलवस प्रजाति आकर में छोटी और लंकादिवा आकर में बड़ी होती है। लंकादिवा अक्सर नम क्षेत्र में मिलती है और राज्य में मात्र करौली जिले में ही देखी गयी है, जो इस आलेख के लेखक ने ही पहली बार रिकॉर्ड की है। फुलवस राज्य में जैसलमेर से लेकर धौलपुर तक सभी हिस्सों में मिल जाती है। यद्यपि यह भी कुछ नमी वाले स्थानों को पसंद करती है और राइनोपोमा चमगादड़ के साथ भी रह लेती है।
एक वेस्पर्टिलिओनिडे परिवार की बैट है, वेस्पर का अर्थ है ‘शाम’; उन्हें “शाम के चमगादड़” कहा जाता है। इसमें २ प्रजाति राजस्थान में मिलती है। हीथी सबसे अधिक मिलने वाली बैट है जो अकसर भवनों की सीधी दीवारों पर चिपकी रहती है। इन की मादा चमगादड़ में शुक्राणु संग्रहित करने की क्षमता होती है जो ओव्यूलेशन के समय इस्तेमाल होते है। कुहली आकर में छोटी होती है और ब्रीडिंग के समय इनके अंदरूनी हिस्से का रंग और अधिक पीला हो जाता है।
E. टैडारिडा (फ्री-टेल्ड बैट)
इस जीनस में मुक्त पूंछ वाले चमगादड़ों की 2 प्रजातियों राजस्थान में मिलती हैं।
यह सबसे तेजी से उड़ने वाले बैट है जो १५० कम प्रतिघंटा की स्पीड से उड़ सकती है। इसको तेजी से उडने में इसकी पूंछ और उस से लगी झिल्ली काम आती है। इनकी पूँछ आमतौर पर आराम करते समय ही दिखाई देती है। इनकी उपास्थि (cartilage) का एक विशेष छल्ला पूंछ कशेरुकाओं को ऊपर या नीचे स्लाइड करती है साथ ही पूंछ के पास की झिल्ली भी मांसपेशियों द्वारा आगे पीछे खींचने के काम आती है। aegyptiaca प्रजाति अधिकांश राजस्थान में सामान्य तौर पर मिल जाती है परन्तु plicata मात्र माउंट आबू से 1980 में श्री सिन्हा द्वारा रिपोर्टेड है। यह तेजी से आवाज करने में भी माहिर है।
F. राइनोलोफस (हॉर्सशू बैट)
16. ब्लीदस हॉर्सशू बैट (Rhinolophus lepidus)
राइनोलोफस जीनस में हॉर्सशू बैट की कई प्रजातियों आती है। असल में इन चमगादड़ों की नाक के चारों ओर त्वचा का एक गोलाकार आवरण होता है जो घोड़े की नाल की तरह होता है।अधिकांश कीटभक्षी चमगादड़ों की तरह, उनकी आंखें छोटी होती हैं और उनकी दृष्टि का क्षेत्र अक्सर उनकी नाक की पत्ती तक सीमित होता है। राजस्थान में एडवर्ड ब्लाइथ द्वारा खोजी गयी एक बैट मिलती है। यह नाम गुफा में मिलने वाली छोटी बैट है।
G. लयरोडेर्मा (फ़ाल्स वैम्पायर बैट)
17. ग्रेटर फ़ाल्स वैम्पायर बैट (Lyroderma lyra)
यह अपेक्षाकृत बड़े चमगादड़ हैं, जिनके बड़ी आंखें और बहुत बड़े कान और एक उभरी हुई नाक पर एक पत्ती समान संरचना होती है। उनके पिछले पैरों या यूरोपेटागियम के बीच एक चौड़ी झिल्ली होती है, लेकिन कोई पूंछ नहीं होती। इनका पुराना नाम मेगाडरमा था। इन्हें फाल्स वैम्पायर बैट कहते है। यह वैम्पायर जैसे लगते है परन्तु असल में यह अन्य प्राणियों का रक्त नहीं पीते है। राजस्थान में इसकी एक ही lyra नामक प्रजाति मिलती है।
H. पिपिस्टरेलस
18. केलार्ट पिपिस्ट्रेल (Pipistrellus ceylonicus)
19. लीस्ट पिपिस्ट्रेल (Pipistrellus tenuis)
जीनस का नाम इतालवी शब्द पिपिस्ट्रेलो से लिया गया है, जिसका अर्थ है “चमगादड़”। यह अत्यंत छोटे चमगादड़ है। जिनमें २ चमगादड़ राजस्थान से शामिल किये गए है। यह वजन में मात्र ३-८ ग्राम तक के है। इनकी पहचान बाह्य आकर से कम ही हो सकती है परंतु वैज्ञानिक इनकी आवाज , डीएनए, एवं स्कल की बनावट से इनका पता लग सकते है। केलार्ट पिपिस्ट्रेल (Pipistrellus ceylonicus) को अब तक मात्र माउंट आबू, सिरोही से रिकॉर्ड किया गया है। लीस्ट पिपिस्ट्रेल (Pipistrellus tenuis) को गुढ़ा, लिहोरा, नावा, नागौर, (बिस्वास और घोस 1968) जोधपुर, नागौर, जयपुर, टोंक, पाली, सिरोही (सिन्हा 1980) आदि से रिकॉर्ड किया है। यद्यपि यह राजस्थान में विस्तृत रूप से मिलती है।
I. स्कोटोजोस
20. डॉर्मर पिपिस्ट्रेल (Scotozous dormeri)
इस जीनस में मात्र एकमात्र प्रजाति है, यह है -डॉर्मर पिपिस्ट्रेल (स्कॉटोज़स डॉर्मरी) प्रजाति। वितरण: जोधपुर, डूंगरपुर, बांसवाड़ा, भरतपुर (सिन्हा, 1980)
J. असेलिआ
21. ट्राइडेंट लीफ़-नोज़्ड बैट (Asellia tridens)
यह चमगादड़ गर्म क्षेत्रों में मिलती है। इसकी महत्वपूर्ण खोज राजस्थान से मात्र १० वर्ष पूर्व में की गयी है और साथ में पहली बार यह चमगादड़ भारत की सूची में भी शामिल हुई है। राजस्थान के दो जंतु वैज्ञानिक डॉ के आर सेनेचा एवं डॉ सुमित डूकिया ने मिलकर इसकी खोज जैसलमेर से 2013 में की है। इस खोज के बाद शायद इसे पुनः कभी नहीं देखा गया है। इसके नाक की पत्ती नुमा संरचना त्रिशूल के आकर की होती है यानी इसके तीन भाग होते हैं; बाहरी दो हिस्से कुंद हैं, जबकि केंद्रीय हिस्सा नुकीला होता है।
संकलित चमगादड़ों की सूची के अलावा भी कई और चमगादड़ों का राजस्थान के वैज्ञानिक साहित्य में वर्णन है परन्तु उनके रिकॉर्ड त्रुटि पूर्ण लगते है। अतः इन २१ चमगादड़ों को ही राजस्थान का माना जाना चाहिए, यह मेरा मत है।