वैसे तो खरपतवार की परिभाषा कोई आसान नहीं है परन्तु फिर भी खरपतवार वे अवांछित पौधे होते हैं जो किसी स्थान पर बिना बोए उगते हैं। ये खरपतवार मुख्यरूप से विदेशी मूल की वनस्पत्तियाँ होती है तथा इसीलिए पारिस्थितिक तंत्र में इनके विस्तार को सिमित रखने वाले पौधे व् जानवर नहीं होते हैं। ये पौधे स्थानीय मनुष्य समुदाय के कोई खास उपयोग में नहीं आते, तथा मनुष्यों, खेती, वनों व पयार्वरण पर बुरा प्रभाव डालते है। खरपतवार मुख्यतः दो प्रकार के होते हैं – एक वे जो स्थानीय पौधों के प्रति आक्रामक रूख अपनाते हैं जैसे ममरी (जंगली तुलसी), लैन्टाना कमारा (बेशर्म), प्रोसोपिस जूलीफ्लोरा (विलायती बबूल) आदि। दूसरी श्रेणी के खरपतवार वे हैं जो स्थानीय पौधों के साथ प्रतियोगिता कर उनके विकास को रोकते है लेकिन आक्रामक रूख प्रदर्शित नहीं करते हैं।  

आज राजस्थान में कई विदेशी वनस्पतियां फैल रहीं हैं जिनके बारे में अभी शोध किया जाना बाकी है जैसे जंगली तुलसी (Hyptis suaveolens) और छोटी फली का पुँवाड (Cassia absus/Senna uniflora)।

जंगली तुलसी (Hyptis suaveolens) वत Mesosphaerum suaveolens

जंगली तुलसी (ममरी), तुलसी यानी लेमियेशी (Lamiaceae) कुल की वनस्पति है तथा इसका वैज्ञानिक नाम हिप्टिस सुवियोलेन्स (Hyptis suaveolens) हैं। यह अमेरिका के गर्म प्रदेशों की वनस्पति है परन्तु आज यह तेजी से हमारे देश के वनों, खेतों, शहरों, गाँवों, सडक व रेल मार्गों के किनारे तथा पडत भूमि में फैलता जा रहा है। इसे राजस्थान सहित कर्नाटक, आन्ध्रप्रदेश, तेलंगाना, महाराष्ट्र, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ, गुजरात आदि राज्यों में दूर-दूर तक फैले हुए देखा जा सकता है। भारतीय पारिस्थितिक तंत्र में यह तेजी से प्राकृतिक (Naturalized) होती जा रही है। घने जंगलों से होकर जैसे ही नई सडकें बनाई जाती है तब वृक्ष छत्रों के हटने से प्रकाश भूमि तक पहुँचता है और यदि ऐसे में कहीं से भी इसके बीज प्रकीर्णन कर वहां पहुँच जायें तो यह तेजी से सडक के दोनों तरफ उग जाती है। यह सुंगधित, वार्षिक तथा शाकीय वनस्पति है जो 2 मीटर तक ऊँची होती है एवं पास-पास उग कर सघन झाड-झंखाड (Thickets) का रूप ले लेती है। इसका तना चौकोर, दृढ एवं रोमों से ढका हुआ होता है। इसके फूल 2 से 5 के गुच्छों में शाखाओं पर लगते हैं तथा यह सालभर फूल व फल देता है लेकिन विशेष रूप वर्षा ऋतु से लेकर गर्मी आने तक हरा भरा रहता है। इसके बीज पानी में डालने पर सफेदी लेते हुये फूल जाते हैं।

जंगली तुलसी “Hyptis suaveolens” (फोटो: प्रवीण कुमार)

चराई रोधक प्रजाति

तीव्र गंध के कारण पालतू या वन्य पशु इसे नहीं खाते अतः जहाँ भी यह वनस्पति भी उगी होती है चराई से सुरक्षित रहती है।

वानिकी गुण

यह अधिक प्रकाश में उगने वाली, चराई प्रतिरोधी वनस्पति है जो अपेक्षाकृत अधिक नमी वाले स्थानों पर उगती है। इस वनस्पति का प्रत्येक पौधा बडी संख्या में फूल, फल व बीज पैदा करता है। एक हैक्टयर में उगे पौधे लाखों बीज पैदा करने की क्षमता रखते हैं। चराई से बचे रहने के कारण इस प्रजाति का हर पौधा बीज पैदा करता है। इस तरह प्रतिवर्ष इस प्रजाति के पौधों की संख्या व विस्तार क्षेत्र बढता ही जाता है।

हानिकारक प्रभाव

जंगली तुलसी के पौधे पास-पास उगने एवं 2.0 मी तक लम्बे होने के कारण, घास व अन्य कम ऊँचाई के स्थानीय पौधों तक प्रकाश नहीं पहुँचने देते है। पानी एवं स्थान की प्रतियोगिता कर यह स्थानीय प्रजातियों के विकास को रोकते है फलतः घास एवं स्थानीय पौधे सामाप्त होने लगते हैं। जिसके कारण चारे की कमी होने लगती है एवं आवास बर्बाद हो जाता है। इन सबसे न केवल पालतु बल्कि वन्यजीवों पर भी बुरा प्रभाव पडता है। इस प्रजाति की वजह से जैव विविधता घटने लगती है। यह वन्यजीवों के आवासों व चारागाहों को भी बर्बाद कर देता है।

छोटी फली का पुँवाड (Senna uniflora/Cassia absus)

राजस्थान में फैलने वाली यह सबसे नयी खरपतवार है जो दक्षिणी एवं मध्य भारत में दूर-दूर तक फैल गयी है। संभवतः मध्यप्रदेश एवं गुजरात के क्षेत्रों से चरकर आने वाली भेडों द्वारा यह खरपतवार राजस्थान में आयी है। अभी तक यह हाडोती क्षेत्र में फैलती हुई मेवाड एवं वागड क्षेत्र (डूंगरपुर एवं बांसवाडा) में दस्तक दे चुकी है। उदयपुर जिले में वर्ष 2019 तक यह मंगलवाड से डबोक के बीच राष्ट्रीय उच्च मार्ग के दोनों तरफ जगह-जगह नजर आने लगी है। संभवतः राष्ट्रीय उच्च मार्ग के निर्माण कार्य हेतु कई जगहों से लाई गई मिट्टी व भारी उपकरणों के साथ इसके बीज उदयपुर जिले में प्रवेश कर गए हैं। इसके फैलाव को देखते हुए यह प्रतीत होता है की अगले कुछ ही वर्षाे में यह खरपतवार उदयपुर शहर तक पहुँच जाएगी। यह वनस्पति भी आसपास के क्षेत्र में स्थानीय घासों एवं छोटे कद के शाकीय पौधों को नहीं पनपने देती है।

छोटी फली का पुँवाड “Senna uniflora” (फोटो: प्रवीण कुमार)

नियन्त्रण:

  • वर्षा ऋतु में जब पौधों में फूल आने लगे तब ही (बीज बनने से पहले) उखाड कर ढेर में संग्रह किये जाने चाहियें। छोटे-छोटे क्षेत्रों से हटाने की बजाय खेतों, वनों, आबादियों से पूरे परिदृश्य में नियन्त्रण प्रांरभ करना चाहिये।
  • इनको काट कर ढालू क्षेत्रों में ऊपर की तरफ नहीं बल्कि सबसे निचले क्षेत्रों में पटकना चाहिये ताकी बीजों का पानी से प्रकीर्णन न हो। इनका उन्मूलन पहाडी क्षेत्रों में ऊपर से नीचे की तरफ तथा समतल क्षेत्रों में केन्द्र से परिधि की तरफ बढना चाहिये। नदियों के किनारे जल ग्रहण के ऊपरी क्षेत्रों से नीचे की तरफ उन्मूलन संपादित करना चाहिये।
  • इनको काट कर या जलाकर नहीं बल्कि जड सहित उखाड कर नष्ट किया जाना चाहिये।
  • वनों की निरन्तरता में जहाँ खेत हैं वहाँ वन व खेत की सीमा मिलन स्थल पर गहरी खाई बना देनी चाहिये ताकि वन क्षेत्र के पानी के साथ बह कर आये बीज खेत में नही बल्कि खाई में गिर जावें एवं खेत में प्रसार न करें।
  • एक बार हटाने के बाद हर साल वर्षा में अनुसरण करें तथा नये उगने वाले पौधों को उसी साल उखाड कर नष्ट कर दें। यह सब फूल व बीज बनने से पूर्व किया जावे।

 

यूँ तो विदेशी पौधों की लंबी सूची है लेकिन राजस्थान में पाए जाने वाली कुछ दुर्दान्त विदेशी मूल के खरपतवार निम्न हैं

क्र.सं

आवास

नाम 

फैलाव के मुख्य क्षेत्र

1

थलीय

विलायती बबूल (Prosopis juliflora)

लगभग संपूर्ण राजस्थान

2

थलीय

गाजर घास (Parthenium hysterophorus)

अतिशुष्क क्षेत्रों को छोडकर लगभग संपूर्ण राजस्थान

3

थलीय

बेशर्म (Lantana camara

नमी युक्त वन क्षेत्र, घाटियाँ, पहाडियों के निचले ढाल, नदी-नालों के नमी युक्त तट, जलाशयों के आसपास एवं आबादी क्षेत्र

4

थलीय  

सफेद बेशर्म (Lantana wightiana

अरावली पर्वतमाला के ढाल व तलहटी क्षेत्रों में

5

थलीय 

पुँवाड (Cassia tora)

अति शुष्क क्षेत्रों को छोडकर लगभग संपूर्ण राजस्थान

6

थलीय

जंगली तुलसी,ममरी (Hyptis suaveolens)

हाड़ौती क्षेत्र, बांसवाडा, डूंगरपुर, प्रतापगढ, भीलवाडा, चित्तौडगढ एवं राजसमन्द जिलों के क्षेत्र

7

थलीय

छोटी फली का पुँवाड (Cassia uniflora)

हाड़ौती क्षेत्र, बांसवाडा, डूंगरपुर, प्रतापगढ, भीलवाडा, उदयपुर, चित्तौडगढ

8

जलीय

जल कुंभी (Eichhornia crassipes )

हाड़ौती के जलाशय, उदयपुर के जलाशय, सिलीसेढ (अलवर), भरतपुर के जलाशय