आजकल अक्सर सांप के काटे जाने पर पुराने ज़माने में सुझाये गये प्राथमिक उपचारों से दूर रहने के लिए कहा जाता है। जिनमें चीरा लगाना या पूरी ताकत से कटे स्थान से ऊपर एक बंध बांधना प्रमुख थे। यह पुराने तरीके के प्राथमिक उपचार कहाँ से आये ? कौन ऐसा व्यक्ति था जिसने यह तरीके सुझाये जो अब मान्यता खो चुके है ?

इन सुझावों के पीछे एक अत्यंत कर्मठ ब्रिटिश सर्जन जोसफ एवर्ट थे । जो ईस्ट इंडिया कंपनी के बुलावे पर 1854 में भारत में कार्य करने लगे।  यह मेवाड़ भील कॉर्प्स का हिस्सा थे। असल में मेवाड़ भील कॉर्प्स राजस्थान के दक्षिणी हिस्से में ईस्ट इंडिया कंपनी द्वारा स्थापित की गयी एक पुलिस कोर है। अंग्रेजो के शासन काल में इस दुर्गम इलाके में शांति बनाये रखने और भील युवाओं को मुख्यधारा  में लाने के लिए इस कोर की स्थापना की गयी थी। वर्ष 1841, से यह कोर निरंतर इस इलाके में कार्य कर रही है एवं अभी भी यह कोर राजस्थान पुलिस का हिस्सा है। आज भी इसमें 773 जवान कार्य रत है। खैरवाड़ा और कोटड़ा नामक स्थानों पर इनकी 8 कंपनीया स्थित है।

द पॉइज़नस स्नेक्स ऑफ़ इंडिया से रसेल वाइपर (Daboia russelii) का एक चित्रण। कोबरा और क्रेट के साथ-साथ, रसेल वाइपर भारत में सर्पदंश से होने वाली मौतों के लिए जिम्मेदार है।

कहते है इस कोर में बड़े कर्मठ भील सिपाही भर्ती है। इस कोर के सिपाहियों का काम करने का अंदाज भी कुछ अलग है, जैसे मानलो आक्रोशित भीड़ को तीतर -बीतर करने के लिए जब लाठी चार्ज का आदेश दिया जाये, तो इस कोर के सिपाही आदेश को एक दम  दिल पर ले लेते है और अपने लक्ष्य के पीछे दौड़ते हुए, उसे घर में भी जा कर मार के ही आते है। इसलिए इनको दिए आदेश में क्या क्या करे के साथ साथ क्या नहीं करे भी बतया जाता है। एक जमाने में दस्यु प्रभावित इस इलाके को शांत करने में इस कोर का बहुत बड़ा योगदान रहा है- जैसे कुख्यात दस्यु मीर खान को इसी कोर ने पकड़ा था।

मेवाड़ भील कॉर्प्स का प्रतीक चिन्ह, जो अब राजस्थान पुलिस के अधीन एक अर्धसैनिक इकाई है।

राजस्थान के जिस हिस्से में यह कोर स्थित है वहां एक घनघोर जंगल भी है, जिसे आज फूलवारी की नाल अभ्यराण्य के नाम से जाना जाता है।  इस घने वन के कारण यह कोर सर्पदंश से अत्यंत प्रभावित थी।  ब्रिटिश लोग इस बात से परेशान थे की क्या किया जाये? उन्हें यह पता नहीं था की भारत में किस प्रकार के सांप पाए जाते है? उनसे कैसे बचना है ? एवं वह कैसे दिखते है?, उन्हें पहचाने कैसे आदि ?

भारत के जहरीले सांपों को पहली बार भारत में ब्रिटिश अधिकारियों के बीच परिचालित किया गया था, जिसे 1985 में हिमालय बुक्स द्वारा फिर से प्रकाशित किया गया था और अप्रत्याशित परिणामों के साथ सार्वजनिक चेतना में वापस लाया गया था।

इसलिए यहाँ जोसफ एवर्ट को पदस्थापित किया गया था।  यहाँ आने के बाद उन्हें अनेको सर्प दंश के मांमले देखने को मिले जिनका उन्होंने इलाज के साथ अध्ययन भी किया। बिना एंटीवेनोम के जो कर पाए वो किया होगा परन्तु अपने अनुभवों के आधार पर इन्होने आजदी की पहली क्रांति के थोड़े दिनों बाद एक पुस्तक – The Poisonous Snakes of India का लेखन किया,  जिसमें विषैले सांपो की पहचान के लिए  अद्भुत चित्र लगाए गये है और उसमें सर्प दंश के पश्च्यात उसके उपचार के उपाय सुझाये गये।

द पॉइज़नस स्नेक्स ऑफ़ इंडिया से सॉ स्केल्ड वाइपर (Echis carinatus) का चित्रण।

यह पुस्तक मात्र एक हजार की संख्या में छपवायी गयी और इसे भारत के सभी ब्रिटिश अफसरों तक पहुंचाई गयी। परन्तु संख्या काम होने के कारण आज यह संग्रहकर्ताओं के लिए एक नायाब पुस्तक बन गयी है। आज यह मूल पुस्तक १ लाख रूपये तक की कीमत रखती है।

आज की दृष्टि से इसमें सुझाये गये उपाय खतरानक हो सकते है जैसे इसमें बतया गया – सर्प दंश के स्थान को काटना एवं रक्त निकालना, लोहे की गर्म सलाख से स्थान को बुरी तरह से जलाना, तपते अंगारे से जलाना, बेहद कसकर बंध बांधना आदि। सनद रहे,  यह वह जमाना था जब सर्प दंश के लिए किसी भी प्रकार के एंटीवेनम का अविष्कार नहीं हुआ था।

द पॉइज़नस स्नेक्स ऑफ़ इंडिया से स्पेक्टैलेड कोबरा (Naja naja) का चित्रण।

यह 1000 पुस्तके कहीं खो जाती परन्तु हिमालयन बुक्स द्वारा 1985 में इस पुस्तक को पुनः प्रकाशित किया गया एवं यह सूंदर पुस्तक अपने पुराने ज्ञान के साथ फिर हमारे बीच आगयी।  इस प्रकार पुराना प्राथमिक उपचार भी हमारे बीच पुनः पुनः प्रकशित होता रहा है।  एवं इस तरह पुराने प्राथमिक उपचार बारम्बार हमारे बीच आते रहे है जो जमाने के साथ बेमानी होगये है। यह पुस्तक अब संग्रहकर्ताओं के लिए उपयोगी है परन्तु सर्प दंश के समय इस पुराने ज्ञान से दूर ही रहे।

आज तक सांपो की प्रजातियों की पहचान पर अनेक पत्र व पुस्तके प्रकाशित हुई पर सर्प दंश पर शायद अभी और अधिक शोध होनी बाकि है तभी तो हमारे देश में हर वर्ष 58000 लोग सांपो के काटने से मारे जाते है।

लेखक:

Dr. Dharmendra Khandal (L) has worked as a conservation biologist with Tiger Watch – a non-profit organisation based in Ranthambhore, for the last 16 years. He spearheads all anti-poaching, community-based conservation and exploration interventions for the organisation.

Mr. Ishan Dhar (R) is a researcher of political science in a think tank. He has been associated with Tiger Watch’s conservation interventions in his capacity as a member of the board of directors.