जटिल और सुंदर आवाज अथवा मुश्किल नृत्य के माध्यम से पक्षियों में अपने संगी को रिझाना एक अत्यंत सामान्य प्रक्रिया है। परन्तु क्या आप जानते है ‘प्रेम उपहार’ (नुपिटल गिफ्ट) भी एक तरीका है, जिसमें पक्षी अपने संगी को किसी भोजन का उपहार, उसके साथ परिवार बसाने के लिए देते है। अक्सर नर पक्षी मादा को उपहार में खाने के लिए कीड़े आदि उपहार में देते है इसे नुपिटल गिफ्ट (Nuptial gift) कहा जाता है।
इसी प्रकार के व्यवहार का प्रदर्शन वाइट बेलिड मिनिवेट (white-bellied minivet) नामक पक्षी अत्यंत शानदार एवं नाज़ुक तरीके से करता है। White-bellied Minivet (Pericrocotus erythropygius) भारत में मिलने वाला एक स्थानिक पक्षी है, जो शायद किसी अन्य देश में नहीं मिलता (कुछ लोग मानते है की यह नेपाल में भी मिलता है)। झाड़ीदार और सवाना वनों में रहने वाला यह एक सुंदर मिनीवेट है। जिसमें नर का ऊपरी शरीर, चेहरा और गर्दन का हिस्सा चमकदार काला होता है। छाती पर एक गोल नारंगी पैच होता है, बाकी के अंदरूनी हिस्से सफेद होते हैं। पूंछ काली है, जिसके ऊपर का हिस्सा नारंगी होता है और पंखों पर सफेद निशान हैं। परन्तु मादा इतनी प्रभावी नहीं दिखती है, उसके पीठ का ऊपरी भाग गहरे भूरे रंग का, हल्के काले पंख, एक काली पूंछ होती है। पंखों में नर के समान सफेद निशान होते हैं, और पूंछ का ऊपरी हिस्सा हल्का नारंगी होता है।
वर्षा ऋतु में अक्सर मादा उपहार ग्रहण करने के समय 3-5 फीट ऊंची झाड़ी के एक किनारे की शाखा पर बैठ कर नर को देखती है एवं नर इधर उधर घूम कर कीड़े ढूंढ कर मादा को उड़ते उड़ते उसकी चोंच में अपनी चोंच से एक कीड़ा (अक्सर एक कैटरपिलर) उसको उपहार में दे देता है। यह उपहार देने का एक अत्यंत अनोखा तरीका है। हालांकि नर, मादा की शाखा पर बैठ कर यह उपहार आसानी से दे सकता है परन्तु उड़ते उड़ते उपहार देने का दृश्य को अत्यंत रोचक बन जाता है। देखा गया है की यह 15 -20 मिनट में 5 -7 बार इस प्रक्रिया को दर्शाता है। यह आवृति और सततता नर के मादा के प्रति समर्पण के साथ उसकी योग्यता को दर्शाता है। इस दौरान कभी कभी मादा, नर के द्वारा कीड़े पकड़ लिए जाने पर उसके नज़दीक जाने का कष्ट करती है।
प्रकृति में विभिन्न जीवों का अद्भुत व्यवहार देखने लायक है बस उन्हें रुक कर समय देने की आवश्यकता है।
राजस्थान में एक विचित्र नाम का कीट हैं -हिचड़कावा, यह असल में एक विशाल झींगुर हैं, जो रेतीली सतह- धोरों, नदियों के किनारे आदि पर मिलता हैं। हिचाड़कावा क्या नाम हुआ ? असल में इस विचित्र दिखने वाले कीट के लिए शायद एक विचित्र नाम दे दिया गया हैं। इसका वैज्ञानिक नाम हैं – स्किज़ोडाक्टील्युस मोनस्ट्रोसुस (Schizodactylus monstrosus) हैं। यह उड़ नहीं पता हैं और मेंढक की भांति फुदक फुदक कर चलता हैं। भारत में कई स्थानों पर मिलता हैं – जिसमें नॉर्थ ईस्ट भी शामिल हैं। पूरी तरह रात्रिचर कीट के पंख पीछे से मुड़ कर उसके शरीर की रक्षा के काम आते हैं वहीँ इनके पांवो में विचित्र प्रकार की संरचना बनती हैं जो मिट्टी को खोदने और पीछे धकेलने के लिए उपयुक्त होती हैं। यह इतनी जल्दी जमीन खोदते हैं की देखते देखते जमीन में समा जाते हैं।
पिले रंग के इन झींगुरों पर कई प्रकार के काले धब्बे और निशान होते हैं, साथ ही इनके पांव में हलके हरे रंग की आभा होती हैं। इनके एंटेना की लम्बाई शरीर से लगभग ढाई-तीन गुना तक बड़ी होती हैं, जो कई प्रकार की सूचना एकत्रित करने में सक्षम होती हैं। इनके मुँह के लैब्रम का आकर बड़ा होता हैं जो मेंडिबल्स को ढक लेता हैं। जो टीलों की जमीन को खोदने के लिए उपयुक्त होते हैं।
यह एक मांसभक्षी कीट हैं जो बीटल, अन्य कीट एवं खुद की प्रजाति को भी खाते हैं। यह स्वयं मरू लोमड़ी, मरू बिल्ली आदि के लिए एक महत्वपूर्ण भोजन का स्रोत बनता हैं।
यह नौ इनस्टार के माध्यम से अपना जीवन पूर्ण करता हैं। इंस्टार आर्थ्रोपोड्स का एक विकासात्मक चरण है, जैसे कि कीटक वर्ग को यौन परिपक्वता तक पहुंचने तक कई रूप ग्रहण करने के लिए बाहरी खोल को (एक्सोस्केलेटन) छोड़ना होगा जिसे निर्मोचन (मोल्टिंग) कहते हैं ।
इंस्टार के बीच अक्सर शरीर के बदलते अनुपात, रंग, पैटर्न, शरीर के खंडों की संख्या में परिवर्तन या सिर की चौड़ाई में अंतर देखा जा सकता है। कुछ आर्थ्रोपोड यौन परिपक्वता के बाद भी निर्मोचन करना जारी रख सकते हैं, लेकिन इन बाद के मौल्टों के बीच के चरणों को आम तौर पर इंस्टार नहीं कहा जाता है।
अध्ययन में पाया गया हैं की यह आधा फुट नीचे खड़ा खोद कर यह अंडे डालते हैं जो 20-25 तक हो सकते हैं। कई देशो में लोग इन्हें पालते भी हैं जैसे हमारे देश में घरों में मछलियां पाली जाती हैं।
भीं भीं भीं ””””’ की निरंतर आवाज करते हुए यह भारी भरकम बीटल निर्भीक तौर पर दिन में उड़ते हुए दिख जाते हैं।स्टेरनोसरा क्रिसिस (Sternocera chrysis) को राजस्थान में भींग कहा जाता हैं। इनका ऊपरी खोल या एलेंट्रा भूरे रंग का होता हैं परन्तु प्रोनोटुं एक हरे चमकीले रंग का होता हैं, यह एक ज्वेल बीटल हैं जो अद्भुत चमकीले रंग के लिए जाने जाते हैं। यह रंग इन्हें अपने शत्रुओं के लिए अदृश्य बनाने में मददगार होते हैं। रंग हालाँकि आकर्षण के लिए होता हैं परन्तु इनकी अनोखी चमक जीवों को चौंधिया देती हैं और यह अपने शत्रुओं से अपना बचाव कर पाते हैं।
बीटल एक प्रकार के कीट हैं, जिनके कठोर पंखों के जोड़े को विंग-केस या एलीट्रा कहा जाता है, जो इन्हें अन्य कीड़ों से अलग करता है। यह उड़ने की बजाय अंदर के मुलायम पंख अथवा शरीर की रक्षा में काम आते हैं। बीटल की लगभग 400,000 वर्णित प्रजातियों हैं यह सम्पूर्ण ज्ञात कीटों का लगभग 40% और सभी ज्ञात प्राणियों का 25% हैं।
पुराने ज़माने में राजस्थान में छोटी लड़कियां इनके चमकीले खोल का इस्तेमाल अपनी गुड़ियों को सजाने में करती थी, यह खोल अक्सर इनके मरने के बाद इधर – उधर गिरे हुए मिल जाते थे।
बारिश के समाप्त होने के दिनों में जब सूरज सर पर हो तब यह उड़ते हुए जमीं पर उतरते हैं और जमीन में अंडे देते हैं, यह उस पेड़ के नजदीक अंडे डालते हैं जो इनके लार्वों को भोजन प्रदान कर सके। कैसिया फिस्टुला या अमलताश के पेड़ इनके होस्ट प्लांट माने जाते हैं। अमलताश के पेड़ों के नीचे यह अपने पीछे के भाग से कई बार अंडे देता हैं एवं इन के लार्वों की वजह से यह पेड़ मारे भी जाते हैं, अथवा कमजोर हो जाते हैं। क्योंकि यह पेड़ो की मुख्य जड़ो को खोखला कर उसको नुकसान पहुंचाते हैं।
यदपि भींग को प्रकृति में हानिकारक कीट के रूप में देखने की आवश्यकता नहीं हैं, इसकी अपनी एक भूमिका हैं जो यह निभाते हैं, और वह हैं पेड़ों के संख्या को नियंत्रित करना।
राजस्थान के मरुस्थल की कठोरता की पराकाष्ठा इन छप्पन्न के पहाड़ों में देखने को मिलती हैं।यह ऊँचे तपते पहाड़ एक वीर सेनानायक की कर्म स्थली हुआ करता था।
उनके लिए कहते हैं की
आठ पहर चौबीस घडी, घुडले ऊपर वास I
सैल अणि सूं सेकतो, बाटी दुर्गादास II
जी हाँ वे थे वीर दुर्गादास जिन्होंने अरावली के उबड़-खाबड़ इलाके में घुड़सवारी करते हुए दिन और रात काटे! अपने भाले की नोक से आटे की बाटी बनाकर भूख मिटाई, इस तरह अत्यंत कष्ट पूर्ण स्थिति में रह कर अपने क्षेत्र की रक्षा की थी।
यह क्षेत्र था, मारवाड़ का यानि जोधपुर और इसके आस पास का। इस वीर ने मुगलों के सबसे मुश्किल शासक औरंगजेब के बगावती बेटे – अकबर (यही नाम उसके दादा का भी था) को सहारा देकर मुगलों से सीधी टक्कर ली थी। अकबर के बेटे और बेटी को सुरक्षित जगह रख कर वीर दुर्गादास स्वयं निरंतर युद्धरत रहे। जहाँ इन बच्चों को रखा गया था, वह स्थान था- बाड़मेर के सिवाना क्षेत्र की ऊंची पहाड़ियां, जिन्हें छपन्न के पहाड़ों के नाम से जाना जाता है। कहते हैं 56 पहाड़ियों के समूह के कारण इनका नाम छप्पन के पहाड़ रखा गया था, कोई यह भी कहता हैं छप्पन गांवों के कारण इस क्षेत्र को छप्पन के पहाड़ कहा जाने लगा। मुख्यतया 24 -25 किलोमीटर लंबी दो पहाड़ी श्रंखलाओं से बना हैं यह, परन्तु असल में यह अनेकों छोटे छोटे पर्वतों का समूह हैं। अतः इसे सिवाना रिंग काम्प्लेक्स भी कहा जाता हैं।
वीर दुर्गादास द्वारा निर्मित दुर्गद्वार, जहाँ वह औरंगेज़ब के पौत्र और पौत्री को रखते थे।
पश्चिमी राजस्थान में स्थित यह सिवाना रिंग काम्प्लेक्स अरावली रेंज के पश्चिम में फैले नियो-प्रोटेरोज़ोइक मालाणी इग्नेस का हिस्सा हैं। नियो-प्रोटेरोज़ोइक मालाणी इग्नेस 20,000 वर्ग किमी क्षेत्र में फैला है। सिवाना क्षेत्र आजकल भूगर्भ शास्त्रियों की नजर में है क्योंकि यहाँ रेयर अर्थ एलिमेंट (REE) मिलने की अपार सम्भावना है।
सिवाना रिंग कॉम्प्लेक्स (SRC) बाईमोडल प्रकार के ज्वालामुखी से बने है जिनमें बेसाल्टिक और रयोलिटिक लावा प्रवाहित हुआ था, जो प्लूटोनिक चट्टानों के विभिन्न चरणों जैसे पेराल्कलाइन ग्रेनाइट, माइक्रो ग्रेनाइट, फेल्साइट और एप्लाइट डाइक द्वारा बने हैं, जो कि रेयर अर्थ एलिमेंट की महत्वपूर्ण बहुतायत की विशेषता है। रेयर अर्थ एलिमेंट यानि दुर्लभ-पृथ्वी तत्व (REE), जिसे दुर्लभ-पृथ्वी धातु भी कहा जाता है जैसे लैंथेनाइड, येट्रियम और स्कैंडियम आदि। इन तत्वों का उपयोग हाइब्रिड और इलेक्ट्रिक वाहनों के इलेक्ट्रिक मोटर्स, विंड टर्बाइन में जनरेटर, हार्ड डिस्क ड्राइव, पोर्टेबल इलेक्ट्रॉनिक्स, माइक्रोफोन, स्पीकर में किया जाता है। यह विशेषता कभी इस क्षेत्र के लिए मुश्किल का सबब भी बन सकता हैं क्योंकि मानव जरूरतें बढ़ती ही जा रही हैं और जिसके लिए खनन करना पड़ेगा।
कौन सोच सकता है कि बाड़मेर का यह जैव विविध हिस्सा, जो थार मरुस्थल से घिरा है उसका अपना एक अनोखा पारिस्थितिक तंत्र भी है, जिसे लोग मिनी माउंट आबू कहने लगे। यद्यपि माउंट आबू जैसा सुहाना मौसम और उतना हरा भरा स्थान नहीं हैं यह, परन्तु बाड़मेर के मरुस्थल क्षेत्र में इस प्रकार के वन से युक्त कोई अन्य स्थान भी नहीं हैं। लोग मानते हैं की 1960 तक यहाँ गाहे-बगाहे बाघ (टाइगर) भी आ जाया करता था। आज के वक़्त यद्यपि कोई बड़ा स्तनधारी यहाँ निवास नहीं करता परन्तु आस पास नेवले, मरू लोमड़ी एवं मरू बिल्ली अवस्य है। कभी कभार जसवंतपुरा की पहाड़ियों से बघेरा अथवा भालू भी यहाँ आ जाता हैं। विभिन्न प्रकार के शिकारी पक्षी एवं अन्य पक्षी इन पहाड़ियों में निवास करते है। जिनमें – बोनेलीज ईगल, शार्ट टॉड स्नेक ईगल, लग्गर फाल्कन, वाइट चीकड़ बुलबुल, आदि देखी जा सकती है।
a) Microgecko persicus, b) Psammophis schokari, c) Ophiomorus tridactylus, d)Chamaeleo zeylanicus, आदि सिवाना की तलहटी में आसानी से मिल जाते है।
छपन्न की इन पहाड़ियों में एक प्रसिद्ध शिव मंदिर है- हल्देश्वर महादेव, जिसके यहाँ से मानसून में एक झरना भी बहता है, जो अच्छी बारिश होने पर दिवाली के समय तक बहता है। बाड़मेर के इस शुष्क इलाके में शायद सबसे अधिक प्रकार के वृक्षों की प्रजातियां यहीं मिलती होगी। धोक (Anogeissus pendula), इंद्र धोक (Anogeissus rotundifolia), पलाश (Butea monosperma), कुमठा (Acacia senegal), सेमल (Bombax ceiba), बरगद (Ficus bengalensis), गुंदी(Cordia gharaf), और कई प्रकार की ग्रेविया Grewia झाड़िया जैसे – विलोसा (Vilosa), jarkhed (Grewia flavescens), टेनक्स (Grewia tenax) आदि शामिल है।
मॉर्निंग ग्लोरी (Ipomoea nil) के खिले हुए फूल हल्देश्वर महादेव के रास्ते को अत्यंत सुन्दर बना देते है |
नाग (Naja naja), ग्लॉसी बेलिड रेसर (Platyceps ventromaculatus),, सिंध करैत (Bungarus sindanus), थ्रेड स्नेक (Myriopholis sp.), सोचुरेक्स सॉ स्केल्ड वाईपर (Echis carinatus sochureki), एफ्रो एशियाई सैंड स्नेक (Psammophis schokari), आदि सर्प आसानी से मिल जाते हैं। मेरी दो यात्राओं के दौरान मुझे अनेक महत्वपूर्ण सरिसर्प यहाँ मिले जिनमें सबसे अधिक उल्लेखनीय हैं – पर्शियन ड्वार्फ गेक्को (Microgecko persicus) जो एक अत्यंत खूबसूरत छोटी छिपकली हैं। शायद यह भारत की सबसे छोटी गेक्को समूह की छिपकली होगी। इन पहाड़ी की तलहटी को ऊँचे रेत के धोरों ने घेर के रखा हैं, इन धोरों के और पहाड़ों के मिलन स्थल पर केमिलिओन या गिरगिट(Chamaeleo zeylanicus) का मिलना भी अद्भुत हैं। मिटटी में छुपने वाली स्किंक प्रजाति की छिपकली दूध गिंदोलो (Ophiomorus tridactylus) तलहटी के धोरो पर मिल जाती है।
बारिश के मौसम में ब्लू टाइगर नमक तितली देखने को मिल जाती हैं।
इन पहाड़ियों के भ्रमण का सबसे अधिक सुगम तरीका हैं सिवाना से पीपलूण गांव जाकर हल्देश्वर महादेव मंदिर तक जाने का मार्ग। पीपलूण तक आप अपने वाहन से जा सकते हैं एवं वहां से पैदल मार्ग शुरू होता हैं। मार्ग के रास्ते में वीर दुर्गादास राठौड़ के द्वारा बनवाया गया उस समय का एक विशाल द्वार भी आता हैं, मार्ग कठिन है और मंदिर तक जाने में एक स्वस्थ व्यक्ति को २-३ घंटे तक का समय लग जाते हैं और आने में भी इतना ही समय लग जाता हैं। नाग और वाइपर से भरे इन पहाड़ों को दिन के उजाले में तय करना ही सही तरीका हैं।
महादेव का मंदिर होने के कारण श्रावण माह में अत्यंत भक्त श्रद्धालु मिल जाते हैं परन्तु मानसून के अन्य महीने में कम ही लोग यहाँ आते हैं। अत्यंत शुष्क पहाड़ियों पर धोक जैसा वृक्ष भी दरारों और पहाड़ियों के कोनों में छुप कर उगता हैं। खुले में मात्र कुमठा ही रह पाता हैं।
राजस्थान के पश्चिमी छोर पर इस तरह का नखलिस्तान कब तक बचा रहेगा यह हमारी जरूरतें तय करेगी।
राजस्थान के सुनहरे रेतीले धोरों पर मिलने वाला एक सुनहरा बिच्छू जो मात्र यहीं पाया जाता हैं …………………………………..
राजस्थान के रेगिस्तान में ऐसे तो कई तरह के भू-भाग है, परन्तु सबसे प्रमुख तौर पर जो जेहन में आता है वह है सुनहरे रेत के टीले या धोरे। इन धोरो पर एक खास तरह का बिच्छू रहता है- जिसका नाम है- बूथाकस अग्रवाली (Buthacus agarwali)। मेरे लिए यह इस लिए महत्वपूर्ण है क्योंकि मेरे एक साथी श्री अमोद जामब्रे ने 2010 में इसकी खोज की थी। यहाँ खोज से मतलब है, पहली बार जंतु जगत के सामने इस प्रजाति के अस्तित्व के बारे में जानकारी रखी थी। उन्हें यह बिच्छू उनके मित्र श्री ईशान अग्रवाल ने ही संगृहीत करके दिया था जो राजस्सथान के जैसलमेर जिले के सगरो गांव से मिला था।श्री अमोद ने इसे अपने इसी मित्र के उपनाम से नाम भी दिया – अग्रवाली।
राजस्थान के कठोर वातावरण को दर्शाते हुए एक सटीक कविता है |
लू री लपटा लावा लेवे |
धोरा में तू किकर जीवै ?
कियाँ रेत में तू खावै पीवै ?
(एक अज्ञात राजस्थानी कवि की रचना)
खोज कर्ता :- श्री अमोद जामब्रे
यह बिच्छू आपको राजस्थान के मुलायम रेत वाले धोरों पर ही मिलेगा, इन धोरों पर लगभग उसी रंग के यह मध्यम आकार के बिच्छू शाम को सूरज ढलते ही सक्रिय हो जाते है और अपने लिए भोजन तलाशते है। पूरे दिन यहां तापमान 50 डिग्री सेल्सियस तक पहुँच जाता हैं अतः इन्हें छुप कर रहना पड़ता हैं। इनकी एक विशेषता यह है की यह धोरों के सबसे मुलायम रेत वाले हिस्से पर रहता है।त्वरित रूप से अपने आगे के तीनो पांवों की जोड़ियों से रेत निकालते हुए अपने चतुर्थ पांव की जोड़ी से मिट्टी को तेजी से बाहर निकालता है (जैसे अक्सर कोई ततैया करता है) और एक छोटा सा कोटर बना कर छुप कर बैठ जाता है। और तब तक इंतज़ार करता है, जब तक कोई शिकार नहीं आ जाये जिसे वह अपना भोजन बना सके । यदि यह अधिक धोरों पर अधिक विचरण कर अपना शिकार खोजेगा तो खुद का भी इसे किसी शिकारी द्वारा पकड़े जाने का खतरा रहेगा। दिन उगते ही यह एक कोटर को और गहरा करके रेत में समा जाता हैं।
अमोद अपने आलेख में लिखते हैं की यह जीनस बूथाकस अफ्रीका में मिलता हैं परन्तु इस खोज के साथ यह जीनस भारत में पहली बार पाया गया हैं। साथ ही यह प्रजाति राजस्थान की एक एंडेमिक या स्थानिक प्रजाति हैं जो मात्र राजस्थान में ही मिलती हैं।
Citation:
Amod Zambre and R Lourenço (Feb 2011), A NEW SPECIES OF BUTHACUS BIRULA, 1908 (SCORPIONES, BUTHIDAE) FROM INDIA, 115 Boletín de la Sociedad Entomológica Aragonesa, nº 46 (2010) : 115 -119.