पत्थर इकट्ठा करने वाला रहस्यमय ककरगड़ा सांप    

 पत्थर इकट्ठा करने वाला रहस्यमय ककरगड़ा सांप    

सवाई माधोपुर – करौली ज़िलों के आस पास के लोग एक रहस्यमय सांप के बारे में अक्सर चर्चा करते है, जिसे वे ककरगड़ा के नाम से जानते है।  उनके अनुसार यह सांप अपने बिलों के आस पास कंकर इकट्ठे करता है।

इन पत्थर के छोटे छोटे टुकड़ों को वह करीने से अपने बिल के मुहाने के आगे सहेज कर रखता हैं। स्थानीय लोग इसे अत्यंत ज़हरीला सांप मानते है, और साथ ही कहते हैं की यह मात्र रात्रि में निकलता है। निरंतर ककरगड़ा की चर्चा होने के कारण, यह सब के लिए एक पहेली बनता जा रहा था। कभी कभी लगाता था, जैसे वह करैत की बात कर रहे है, क्योंकि उनके अनुसार ककरगड़ा मात्र रात्रि में ही सक्रिय होता है। इन सब बातो से इस सांप का रहस्य और भी गहराता जा रहा था।
राजस्थान में सांपों के बारे में अनेक किंवदन्तियाँ और अंधविश्वास से जुड़ी कई कहानियां आम हैं, परन्तु उनकी बातों से ककरगड़ा का वर्णन पूरी तरह गलत नहीं लग रहा था। गांव के बुजुर्ग और जवान सभी इस प्रकार के सांप देखने की चर्चा करते रहे है।गांव के लोगों के अनुसार इस सांप के बिल अक्सर ही मिल जाते हैं।

Little Indian field mouse (Mus booduga) द्वारा बनाया गया बिल (फोटो : श्री धर्म सिंह गुर्जर)

वर्ष 2007, में पाली- चम्बल गांव से फ़ोन आया की उनके घर के पास ककरगड़ा ने एक बिल बना रखा हैं, यह हमारे लिए एक अवसर था। टाइगर वॉच संस्था ने एक इंटर्न श्री प्रीतेश पानके को यह जिम्मा दिया की वह इस रहस्य से पर्दा हटाने में मदद करें। श्री पानके को पूरी रात्रि जाग कर गहन नजर रखते हुए उस बिल के पास बैठना था। श्री पानके वर्तमान में भारतीय वायु सेना में कार्यरत है। पूर्ण सजग श्री पानके पूरी तैयारी कर के उस बिल से थोड़ी दूर अपना कैमरा लेकर बैठ गए की अब इस रहस्य से पर्दा हटाना ही है।

श्री पानके के अनुसार पहली रात्रि में उन्होंने कोई भी गतिविधि नहीं देखी, लगने लगा मानो यह एक व्यर्थ प्रयास होने जा रहा हैं। दूसरी रात्रि भी लगभग ख़तम होने को आयी, अब उन्हें नींद भी आ रही थी, परन्तु अभी उनकी जिज्ञासा ख़तम नहीं हुई थी, साथ ही यह भय भी था कहीं करैत जैसा सांप नींद में काट नहीं ले, बार बार में वे कुर्सी से नीचे लटकते अपने पांव ऊपर करते रहे। सुबह के पांच बज चुके थे, अचानक बिल के पास एक हलचल हुई और एक छोटा चूहा तेजी से बिल से निकल कर बाहर की और भागा। खोदा पहाड़ निकला चूहा की कहावत को चरितार्थ करता हुआ यह प्राणी कई रहस्यों से पर्दा हटाते हुए, उसी कुछ समय में कई बार अंदर बाहर आया गया, उसकी तेज गति के कारण श्री पानके मात्र एक छाया चित्र ही ले पाए।खैर श्री पानके के प्रयास से यह तय हो गया की ककरगड़ा कोई सांप नहीं बल्कि एक चूहा है।

भारतीय प्राणी सर्वेक्षण विभाग के एक वरिष्ठ वैज्ञानिक ने इसे प्राथमिक तौर पर Little Indian field mouse (Mus booduga) के नाम से पहचाना हैं। यद्यपि उनके अनुसार flat-haired mouse (Mus platythrix) भी हो सकता है एवं इसको प्रमाणिक तौर पर पहचनाने के लिए चूहे को पकड़ कर उसका परिक्षण करना पड़ेगा। एक अन्य शोध पत्र के अनुसार यह पाया गया हैं की Little Indian field mouse (Mus booduga) अपने बिल के मुंह पर मिटटी के ढेले लगा कर रखता हैं। यह ढेले बिल में बच्चे मौजूद रहने पर संख्या में अधिक वह आकर में बड़े हो सकते हैं।  इसलिए यह माना गया है की उनका सम्बन्ध सुरक्षा से हैं। यद्यपि इस मामले में मिट्टी के ढेलो की बजाय पत्थर के कंकर थे। शायद सरीसृप इस तरह के बिल के पास जब रेंगते हुए चलते हैं तो पत्थर सरक कर उनके मुँह को ही बंद कर देते हैं अथवा बिल के अंदर जाने का छोटा रास्ता कंकरो के ढेर में ही खो जाता हैं।

Little Indian field mouse (Mus booduga) का छायाचित्र (फोटो : श्री प्रितेश पानके)

Little Indian field mouse (Mus booduga) चूहे मात्र एक छोटे मुँह वाले बिल बनाते हैं जिस कारण इनको हाइपोक्सिक और ह्यपरकपनीक (hypoxic and hypercapnic) स्थितियों में रह सकते हैं।  इसका मतलब हैं कम ऑक्सीजन एवं रक्त में अधिक कार्बन डाइऑक्साइड की स्थिति में भी रह पाना।
खैर, इस तरह श्री पानके ने दो रात की मेहनत कर एक सांप के मिथक से पर्दा हटा दिया।  परन्तु यह सम्भव है की कोई भी सांप इन चूहों के बिल को इस्तेमाल कर सकता हैं, क्योंकि सांप अपने लिए बिल बनाते नहीं हैं, वे दूसरों के बनाये हुए बिलों को ही इस्तेमाल करते हैं। इस तरह यह कहना गलत नहीं है कि ककरगड़ा के बिल में सांप नहीं होते, परन्तु ऐसे बिल बनाने वाला एक चूहा है।

कवर:
Little Indian field mouse (Mus booduga) द्वारा बनाया गया बिल :  फोटो : श्री प्रितेश पानके
आम की बारहमासी फल देने वाली राजस्थान की एक किस्म – ‘सदाबहार’ 

आम की बारहमासी फल देने वाली राजस्थान की एक किस्म – ‘सदाबहार’ 

 

क्या कोई यह  विश्‍वास करेगा की राजस्थान के एक किसान ने  आम की एक ऐसी नई किस्म विकसित की हैं जो वर्ष में तीन बार फल देती है।   राजस्थान के  कोटा शहर के पास गिरधरपुरा गांव के  रहने वाले किसान श्री किशन सुमन ने 20 वर्ष की कड़ी मेहनत कर आमों यह एक अनूठी किस्म  विकसित की है  जिसे “सदाबहार” नाम दिया गया है।

वह बड़े गर्व से कहते है की ग्रीष्म, वर्षा एवं शीत ऋतुओ में हमारी आम की यह किस्म  फल देती है।  श्री किशन अतीत  के मुश्किल समय को याद करते है | पहले हमारा परिवार मात्र पारम्परिक कृषि पर आधारित था | जिसमें गेहू एवं चावल आदि की फसले उगाकर जीवन यापन करते थे | परन्तु जितनी मेहनत उसमे लगायी जाती थी उतना लाभ प्राप्त नहीं होता था ।  अत: पारम्परिक खेती को छोड़ कर उनका परिवार सब्ज़ियों की खेती करने लगा परन्तु इसके लिए जितनी मात्रा में कीटनाशकों का उपयोग किया जाता था | उससे मन को बहुत ख़राब लगता था एवं एक अपराध भाव पैदा होता था की हम लोगों को मानो जहर ही खिला रहे है । अत: उन्होंने फूलों की खेती शुरू कर दी।  जिनमें गुलाब के फूलों की  खेती भी शामिल थी  और यहाँ से श्री किशन की शोध यात्रा आरम्भ होती है । गुलाब पर कई प्रकार की कलमें  चढ़ा कर उन्होंने एक पौधें पर कई रंग के पुष्प प्राप्त किये |

 

अब उन्हें लगने लगा की फलदार वृक्षों पर भी मेहनत की जा सकती है फिर उन्होंने बाजार से कई प्रकार के आमों के फल लाना शुरू किया और उगाकर के उनके पौधें लगाने शुरू किये ।  उन्होंने पाया की आमों की अलग – अलग  किस्म के स्वाद में तो अंतर है  ही परन्तु इनमें एक और अंतर है  वह हैं उनके  पुष्प एवं फलो के लगने के समय में भी । श्री किशन ने पाया की जब विभिन्न आमों  के पौधों की किस्मों की कलमों को एक साथ लगाया गया तो पाया की एक आम के पेड़ के एक हिस्से में कुछ फल बड़े हो चुके है, और किसी हिस्से में अभी भी छोटे है और किसी हिस्से में अभी बोर भी आये हुए थे ।

इस तरह धीरे – धीरे कई वर्षो के प्रयोगों के बाद  सदाबहार किस्म का विकास हुआ।  यह विकसित किस्म वर्ष में तीन बार फसल देती है। यानी इस पर वर्ष भर आम के फल लगे रहते है।  श्री किशन ने कोटा के कृषि अनुसन्धान केंद्र  को अपनी बात बताई परन्तु उन्होंने इस प्रयास के प्रति उदासीनता का भाव रखा ।

परन्तु राष्ट्रीय नव प्रवर्तन प्रतिष्ठान भारत ( National Innovation Foundation  – India – NIF) के सुंडा राम जी ( सीकर निवासी ) ने श्री किशन   को एक अनोखा अवसर दिलाने में मदद की उन्होंने NIF की मदद से इस किस्म को राष्ट्रपति भवन में प्रदर्शित करने के लिए उन्हें वहां भेजा । उन्हें वहां अत्यंत सम्मान एवं पहचान मिली ।  इस “सदाबहार” आम एवं श्री किशन को देश विदेश के लोग जानने लगे। देश के विभिन्न हिस्सों से श्री किशन को इस किस्म के पौधों के लिए आर्डर आ ने लगे । साथ ही   भा . कृ . अनु . प . केंद्रीय उपोषण बागवानी संसथान ( ICAR- Central Institute for subtropical Horticulture) के वैज्ञानिको के साथ संपर्क किया गया एवं इस नस्ल को एक नई नेसल होने का दर्जा मिला साथ ही उन्होंने ही इसे एक नाम दिया  – ‘सदाबहार’ है।  यह आम अत्यंत स्वादिष्ट है एवं  इनमें में  पूर्णतः घुले हुए ठोस पदार्थ (Total dissolved solids – TSS ) 16 % मानी गयी है , TSS का मतलब होता है, इसके  मीठास कार्बोहाइड्रेट, कार्बनिक अम्ल , प्रोटीन , वसा एवं खनिज  की मात्रा कितनी है | सदाबहार आमों की TSS मात्रा अच्छी मानी गयी है |

श्री किशन जी मुस्कुराते हुए कहते है की कृषि अनुसन्धान केंद्र का सहयोग न सही, परन्तु मेरी पत्नी सुगना देवी और ईश्वर साथ देने में कोई कमी भी नहीं छोड़ी है। आज श्री किशन आशान्वित हैं की इस आम को जनता ने पहचान लिया हैं एवं इस की सफलता को अब कोई रोक नहीं पायेगा।  आप भी श्री किशन से आम का पौधा मंगवा सकते हैं।

राजस्थान की वन्यजीवों से टक्कर लेने वाली गाय की नस्ल : ‘नारी’

राजस्थान की वन्यजीवों से टक्कर लेने वाली गाय की नस्ल : ‘नारी’

 

राजस्थान में गाय की एक नस्ल मिलती है जिसे कहते है ‘नारी’, शायद यह नाम इसकी नाहर (Tiger) जैसी फितरत होने के कारण पड़ा है। सिरोही के माउंट आबू  क्षेत्र की तलहटी में मिलने वाली यह माध्यम आकर की गाय अपने पतले लम्बे सींगों से बघेरों से भीड़ जाती है। अक्सर जंगल में बघेरो से उन्हें अपने बछड़ो  को बचाते हुए देखा जाता है अथवा कई बार अपने मालिक को वन्यजीव से मुठभेड़ में फंसा देख, यह वन्य जीव पर टूट पड़ती है। यदि इन पर वन्य जीव हमला करते है तो यह आवाज निकाल कर अन्य गायों को अपने पास बुला लेती है, जबकि सामान्य तय अन्य गायों की नस्लें दूर भाग जाती है।

फोटो :- अंजू चोहान

नेशनल ब्यूरो ऑफ़ एनिमल जेनेटिक रिसोर्सेज, करनाल, हरियाणा (NBAGR) ने इसे कुछ समय पहले ही इसे एक अलग मवेशी की नस्ल के रूप में मान्यता दी है। इस नस्ल का विस्तार- राजस्थान के सिरोही, पाली एवं गुजरात के  बनासकांठा, साबरकांठा आदि क्षेत्रों में है। यह नस्ल लम्बी दुरी तय कर चराई के लिए ले जाने के लिए उपयुक्त है।

सफ़ेद और स्लेटी रंग की यह गाय स्वभाव में अत्यन्त गर्म होती है एवं इसके सींग बाहर की और मुड़े होते है, एवं यह कृष्ण मृग (Blackbuck) की भांति घूमे हुए होते है । इनके आँखों की पलकों के बाल सामान्यत सफ़ेद होते है। यह 5-9 लीटर तक दूध दे सकती है, वहीँ इनके नर (बैल) माल वाहन के लिए भी उपयुक्त होते है। कहते है यह गाय अत्यंत बुदिमान नस्ल है जो पहाड़ो के रास्तों में सहजता से चरने चली जाती है एवं कम चराई में अच्छा  दूध देती है।  यह बिमारियों एवं अन्य व्याधियों से भी कम ही ग्रसित होती है साथ ही इनका कम लागत में पालन पोषण संभव है। यदि आप वन्य जीवो से प्रभावित क्षेत्र में रहते है तो यह गाय पलना उपयुक्त होगा।

आज भी हमारी जैव विविधता में कई अनछुए हर्फ़ है, इन्हे संरक्षित रखना हमारी जिम्मेदारी है

 

लेखक:

Dr. Dharmendra Khandal (L) has worked as a conservation biologist with Tiger Watch – a non-profit organisation based in Ranthambhore, for the last 16 years. He spearheads all anti-poaching, community-based conservation and exploration interventions for the organisation.

Mr. Rajdeep SIngh Sandhu (R)  :-is a lecturer of political science. He is interested in history, plant ecology and horticulture.