During the Indo-Pakistan War of 1971, a small contingent of the Indian Armed Forces (120 soldiers) held a much larger contingent of the Pakistani Army of approximately 2000-3000 soldiers in one place, till the arrival of the Indian Air Force and fought very bravely till then. The famous bollywood movie Border, is based on this battle. The location of this historic battle is named Longewala.The area is remote, there is an endless vista of sand and it does not rain for years, where people have no choice but to bathe with soil, and cannot prevent particles of sand from tainting morsels of food to such an extent that new visitors are not even able to chew properly. In the year 1978, a biologist discovered a new species of lizard here.
At first glance, the lizard appears very strange, for it looks like a toad with a tail. If you want to see this curious lizard, then you have to visit Rajasthan’s Thar desert, to be precise, where the battle of Longewala was fought, albeit it is also found to occur in adjacent areas. Dr. Ishwar Prakash, a scientist studying mammals from the Zoological Society of India (ZSI), was the first to catch it, and when he gave the first specimen to his herpetologist friend, Dr. R.C. Sharma, he was beside himself with joy. It was a lizard that had never been seen before. However, one sample was not enough for his research, so Dr. Sharma tried to visit the corner of the desert where it was found.
A toad-headed agama at rest. (Photo: Dr. Dharmendra Khandal)
It was a difficult period, and only men serving in the Indian Armed Forces could easily access this remote area.Dr. Sharma got an opportunity to avail of a helicopter of the Border Security Force (BSF) which agreed to take him there, but unfortunately the ZSI did not give him official leave. Dr Sharma decided to go to Longewala on personal leave, and after sourcing enough samples from there, he gave the lizard the binomial name – Phrynocephalus laungwalaensis. Dr. Sharma did not mention Dr. Ishwar Prakash in this research publication by mistake. I had the privilege of meeting both Dr. Ishwar Prakash and Dr. R.C .Sharma (both have passed away since), and I had heard this story in their own words.
The unforgiving Thar desert. The toad-headed agama is endemic to the Thar. (Photo: Dr. Dharmendra Khandal)
However, Dr. Sharma overlooked some attributes of this lizard, and in 1992, a herpetologist named Arnold placed the lizard in a new genus Bufoniceps instead of Phrynocephalus. In fact, the genus Bufoniceps was created by studying this lizard. It is now known as Bufoniceps laungwalaensis. Thus, there was not only a new species in Dr. Sharma’s hands, but a new genus, which could have proven to be a bigger discovery.
On all fours, and ready to run on the sand. (Photo: Dr. Dharmendra Khandal)
Dr. Sharma mistakenly used two spellings for its binomial name – “laungwalansis” and “laungwalaensis“. The addition of an ‘E’ became a subject of discussion for taxonomists. The norm would be to accept the first spelling, but the second spelling was correct on the basis of grammar. Eventually the second spelling was adopted, and it is now known as Bufoniceps laungwalaensis. However in vernacular terms, it is known as the “Rajasthan Toad-Headed Lizard” or the “Longewala Toad- Headed Lizard”.
It is a diurnal lizard from the agama family. It can be seen running with astonishing speed on the desert sand, but when it senses danger, this small agama lizard measuring upto 29 to 69 millimeters, either runs and does not stop for a distance of 100 to 125 meters or else it creates a strange tremor in its body and disappears by hiding itself in the sand. It is not found anywhere other than Jaisalmer in Rajasthan, but is also believed to occur in the desert across the border in Pakistan. Thus, this species is endemic to the Thar desert. However, this lizard’s habitat has definitely suffered due to unnecessary plantations in the desert.
Authors:
Dr. Dharmendra Khandal (L) has worked as a conservation biologist with Tiger Watch – a non-profit organisation based in Ranthambhore, for the last 16 years. He spearheads all anti-poaching, community-based conservation and exploration interventions for the organisation.
Mr. Ishan Dhar (R) is a researcher of political science in a think tank. He has been associated with Tiger Watch’s conservation interventions in his capacity as a member of the board of directors.
Cover Photo Caption & Credit: The reason for which this lizard has the descriptor ‘toad-headed’ in it’s vernacular name (Dr. Dharmendra Khandal)
भारत – पाकिस्तान की 1971 की लड़ाई में, भारत की एक छोटी टुकड़ी (120 सैनिक ) ने पाक फ़ौज के एक बड़े दस्ते जिसमें 2000-3000 सेनिको थे को वायुसेना आने तक एक स्थान पर रोके रखा था और तब तक बहादुरी से लड़ते रहे। यदि आपने मशहूर भारतीय फिल्म बॉर्डर देखी है तो वह इसी घटना पर आधारित है। यह युद्ध जिस स्थान पर हुआ उसका नाम है लौंगेवाला। दूर-दूर तक रेत ही रेत, जहाँ पानी सालो तक नहीं बरसता, जहाँ लोगों को अक्सर बस मिटटी से ही नहाते रहना पड़ता है और खाने में न चाहते हुए भी मिटटी के इतने कण मुँह में आते है कि, नए लोग खाने को पूरा चबाये बिना ही निगलते है। वर्ष 1978, में यहाँ एक जीव वैज्ञानिक को एक नयी प्रजाति की छिपकली मिली।
यह छिपकली बड़ी विचित्र थी लिसे देखने पर लगता है मानो एक मेंढक के पीछे पूंछ लगी हो। इसे देखना हो तो आपको राजस्थान के थार मरुस्थल में ही आना होगा जहां यह लौंगेवाला युद्ध का मैदान है हालाँकि यह इसके आस पास के क्षेत्रो में भी मिलती है। जूलॉजिकल सोसाइटी ऑफ़ इंडिया (ZSI) के एक स्तनधारी जीवो पर कार्य करने वाले वैज्ञानिक ड़ॉ ईश्वर प्रकाश ने इसे सबसे पहले पकड़ा था और उन्होंने अपने सरीसृप वैज्ञानिक मित्र डॉ आर सी शर्मा को जब इसका पहला नमूना दिया तो वह खुशी से उछल पड़े थे। यह ऐसी छिपकली थी जो पहले कभी नहीं देखी गयी थी। परन्तु एक नमूना उसके शोध के लिए पर्याप्त नहीं था अतः उन्होंने प्रयास किया की उन्हें मरुस्थल के उस कोने में जाने का मौका मिले जहाँ यह पायी जाती है।
टॉड हेडेड अगामा विश्राम स्थिति में।(फोटो: डॉ धर्मेंद्र खांडल)
वह एक मुश्किल दौर था और इस सुदूर क्षेत्र में मात्र सेना के लोग हीआसानी से आ जा पाते थे। बस डॉ शर्मा को मौका मिला की सीमा सुरक्षा बल (BSF) का एक हेलीकाप्टर उन्हें वहां लेजाने को तैयार हुआ, परन्तु अब उन्हें ZSI से छुट्टी नहीं मिली। डॉ शर्मा ने पर्सनल लीव लेकर लौंगेवाला जाना तय किया और वहां से पर्याप्त नमूने लाने के बाद उन्होंने इसे नाम दिया – Phrynocephalus laungwalaensis।
भूलवश डॉ शर्मा ने डॉ ईश्वर प्रकाश को इस शोध पात्र में किसी भी प्रकार से याद नहीं किया। खैर डॉ ईश्वर प्रकाश एवं डॉ आर सी शर्मा दोनों से मुझे मिलने का सौभग्य मिला और यह कहानी उन्ही की जुबानी मैंने सुनी थी।
अपने चारों पैरों पर दौड़ने के लिए तैयार। (फोटो: डॉ धर्मेंद्र खांडल)
परन्तु इस शोध पत्र में श्री शर्मा कई और भी स्थानों पर चूक गए जैसे की अर्नाल्ड नामक एक सरीसृप वैज्ञानिक ने वर्ष 1992 में Phrynocephalus की बजाय इसे एक नये जीनस Bufoniceps में रखा। असल में Bufoniceps जीनस इसी छिपकली को देख कर ही बनाया गया था। अब इसे बुफोनिसेप्स लौंगवालाएंसिस (Bufoniceps laungwalaensis) के नाम से जाना जाता है। यानि डॉ शर्मा के हाथ असल में मात्र एक नयी स्पीशीज ही नहीं बल्कि एक नया जीनस था, जो अधिक बड़ी खोज साबित हो सकता था।
निर्मम थार मरुस्थल। टॉड-हेडेड अगमा थार में स्थानिक है। (फोटो: डॉ धर्मेंद्र खांडल)
डॉ शर्मा ने अपने शोध पत्र में इसके प्रजाति के नाम को भूलवश दो प्रकार की वर्तनी (spelling) के साथ इस्तेमाल किया – “laungwalansis“ और “laungwalaensis“ एक अतिरिक्त E अक्षर लगने पर टक्सॉनॉमिस्ट्स के मध्य कई प्रकार की चर्चा भी हुई। नियम यह कहते है की पहले जो वर्तनी इस्तेमाल हुई उसे मानना सही होगा एवं व्याकरण के आधार पर दूसरा नाम अधिक सही था। अंततः दूसरी वर्तनी को ही सही माना गयाऔर अतः अब यह Bufoniceps laungwalaensis के रूप में जानी जाती है। परन्तु सामन्य भाषा में इसे “राजस्थान टोड -हेडेड लिज़र्ड” अथवा “लौंगवाला टोड हेडेड लिज़र्ड ” के नाम से जाना जाता है।
यह एक दिनचर छिपकली है, जो अगामा परिवार से सम्बन्ध रखती है। यह आकर में 29 से 69 मिलीमीटर तक की है। खतरा महसूस होने पर या तो तेजी से भाग जाती है और 100 -125 मीटर तक की दुरी तक रूकती ही नहीं या फिर यह अपने शरीर में एक विचित्र प्रकार का कम्पन्न पैदा करती है और रेत में ही छुप कर गायब हो जाती है। यह राजस्थान के जैसलमेर के अलावा कही और दिखाई नहीं देती परन्तु माना गया है की पाकिस्तान के मरुस्थल में भी यह पाई जाती है। इस तरह यह प्रजाति थार मरुस्थल की एक एंडेमिक प्रजाति है। मरुस्थल में किये गए अनावस्यक प्लांटेशन के कारण इसके हैबिटैट को अवश्य नुकशान हुआ है।
परन्तु आशा है यह लोंगेवाला अगामा छिपकली थार मरुस्थल में हर समय हमारी फ़ौज की तरह डटी रहेगी।
लेखक:
Dr. Dharmendra Khandal (L) has worked as a conservation biologist with Tiger Watch – a non-profit organisation based in Ranthambhore, for the last 16 years. He spearheads all anti-poaching, community-based conservation and exploration interventions for the organisation.
Mr. Ishan Dhar (R) is a researcher of political science in a think tank. He has been associated with Tiger Watch’s conservation interventions in his capacity as a member of the board of directors.
Cover photo: जिस कारण से इस छिपकली का स्थानीय नाम में ‘टॉड हेडेड’ है।