वन्यजीव जगत में भोजन/शिकार की चोरी एक आम बात है और ऐसी चोरियों के दौरान कई बार शिकारी और चोर के बीच संघर्ष भी देखने को मिलते है। परन्तु कई बार कुछ जीव बड़े ही साहसी तरीके से चोरी करते हैं। ऐसी ही एक घटना इस चित्र कथा में दर्शाई गई है।
एक शाम एक नेवला (Indian grey mongoose (Urva edwardsii) घास में आसपास कुछ तलाश रहा था मानो अपना पेट भरने के लिए वो कुछ छोटे कीड़े और चूहों की तलाश में था। लेकिन तभी अचानक नेवला लकड़ी के एक बड़े लट्ठे की ओर चला गया और पेड़ के तने के नीचे से एक कोबरा (Indian cobra (Naja naja) निकला और उसने अपना फन खोलकर इस बात का संकेत दिया जैसे वह लड़ने के लिए तैयार है। लेकिन नेवला कोबरा को पूरी तरह से नजरअंदाज करते हुए उसके सामने लट्ठे के नीचे चला गया।
कुछ पल बाद नेवला लट्ठे की दूसरी तरफ दिखाई देता है और उसके मुंह में आधा मरा हुआ ट्रिंकेट (Trinket snake (Coelognathus helena) सांप था।
दरअसल उस ट्रिंकेट का शिकार कोबरा ने किया था और वह अपनी आखिरी सांस ले रहा था। परन्तु नेवले ने उसे पूरी तरह जान से मारा और फिर अपने जबड़े में दबा कर कोबरा की आँखों के सामने से चुरा कर ले गया।
इस प्रकार का व्यवहार एक जीव अपना समय और मेहनत बचाने के लिए करते हैं।
Today, to stay away from antiquated first aid treatments for snakebites is repeated ad infinitum (and with good reason). The mainstays of these purported treatments involved tying tourniquets above the bites, and making incisions with knives to ‘bleed’ the venom out. But where did these treatments come from? Who first recommended these methods?
The man responsible was Joseph Ewart, a British surgeon. Ewart had been in the employ of the British East India Company since 1854. Ewart was attached by the company to the Mewar Bhil Corps. The Mewar Bhil Corps is a police corps first established by the East India Company along with Mewar State in southern Rajasthan. The corps were raised to maintain peace in what was then an inaccessible area, and to bring Bhil youth into the ‘mainstream’. Since the year 1841, this corps has consistently worked in southern Rajasthan, and still exists today as a paramilitary force under the Rajasthan Police.
An illustration of a Russell’s viper (Daboia russelii) from The Poisonous Snakes of India. Along with cobras and kraits, the Russell’s viper is responsible for the lion’s share of snakebite fatalities in India.
The Bhil youth recruited into the corps are very intrepid and expeditious. Their work ethic is also notable, historically, when a lathi (long stick serving the purpose of a baton) charge was ordered to disperse a mob or riot, the personnel took the order to heart, and accordingly marked their men. They then enthusiastically chased their targets with their lathis held aloft, and pursued them all the way to their homes, at times even after delivering a sound beating. Therefore, whenever they were given their orders, they were explicitly told what to do, as well as what not to do. Historically, the Mewar Bhil Corps made significant contributions in pacifying bandit-affected areas – the notorious Mir Khan was caught by them.
The insignia of the Mewar Bhil Corps, now a paramilitary unit under the Rajasthan Police.
In the part of Rajasthan where this corps is located, there is also a dense jungle, which today constitutes the Phulwari ki Naal Wildlife Sanctuary. As a result, their personnel regularly fell victim to snakebites. Their British officers worried in turn. At the time they weren’t aware of the different kinds of snakes found in India, let alone how to recognize, and avoid them.
The Poisonous Snakes of India was first circulated among British officers in India, only to be republished and brought back into public consciousness by Himalayan Books in 1985 with unforeseen consequences.
This is precisely why Joseph Ewart was attached to the corps. During his time with the corps, he observed many snakebite cases, which he studied along with hypothesizing purported treatments. He did whatever little he could without antivenom, on the basis of his personal experiences. He eventually wrote a book titled The Poisonous Snakes of India, published in 1878, in which there are also uncannily accurate illustrations to help readers identify venomous snakes. Ewart also expounded on various purported treatments for snakebites in the book.
A life size illustration of a saw-scaled viper (Echis carinatus) from The Poisonous Snakes of India.
When first published, only a 1000 copies of the book were printed and distributed to British officers in India. Since there are only a few surviving copies, they have now become prized collectors’ items for Raj nostalgists. A surviving copy of the book is currently worth INR 1 lac.
Times have proven the purported first aid methods mentioned in the book to not only be dangerous to snakebite victims, but also fatal i.e. making an incision on the bite site and bloodletting, cauterising the bite site with a hot iron bar and burning hot embers, tying tourniquets etc. (None of these measures work, and are NOT to be implemented in the event of a snakebite, please read more –https://rajasthanbiodiversity.org/snakebite-challenges-in-rajasthan/). It is equally important to remember that this book was written before the invention of antivenom.
An illustration of a spectacled cobra (Naja naja) from The Poisonous Snakes of India.
In all likelihood, this book would have faded into obscurity, had it not been republished by Himalayan Books in 1985, and this otherwise beautiful book came back into circulation in India, along with all its antiquated information. The simultaneous resurgence of old, dangerous and redundant first aid methods for snakebites is no coincidence, and highly problematic. While this book is certainly of great relevance to historians and collectors, when dealing with a snakebite, it is best to consign Ewart’s prescribed methods to their rightful place in the annals of history.
Authors:
Dr. Dharmendra Khandal (L) has worked as a conservation biologist with Tiger Watch – a non-profit organisation based in Ranthambhore, for the last 16 years. He spearheads all anti-poaching, community-based conservation and exploration interventions for the organisation.
Mr. Ishan Dhar (R) is a researcher of political science in a think tank. He has been associated with Tiger Watch’s conservation interventions in his capacity as a member of the board of directors.
आजकल अक्सर सांप के काटे जाने पर पुराने ज़माने में सुझाये गये प्राथमिक उपचारों से दूर रहने के लिए कहा जाता है। जिनमें चीरा लगाना या पूरी ताकत से कटे स्थान से ऊपर एक बंध बांधना प्रमुख थे। यह पुराने तरीके के प्राथमिक उपचार कहाँ से आये ? कौन ऐसा व्यक्ति था जिसने यह तरीके सुझाये जो अब मान्यता खो चुके है ?
इन सुझावों के पीछे एक अत्यंत कर्मठ ब्रिटिश सर्जन जोसफ एवर्ट थे । जो ईस्ट इंडिया कंपनी के बुलावे पर 1854 में भारत में कार्य करने लगे। यह मेवाड़ भील कॉर्प्स का हिस्सा थे। असल में मेवाड़ भील कॉर्प्स राजस्थान के दक्षिणी हिस्से में ईस्ट इंडिया कंपनी द्वारा स्थापित की गयी एक पुलिस कोर है। अंग्रेजो के शासन काल में इस दुर्गम इलाके में शांति बनाये रखने और भील युवाओं को मुख्यधारा में लाने के लिए इस कोर की स्थापना की गयी थी। वर्ष 1841, से यह कोर निरंतर इस इलाके में कार्य कर रही है एवं अभी भी यह कोर राजस्थान पुलिस का हिस्सा है। आज भी इसमें 773 जवान कार्य रत है। खैरवाड़ा और कोटड़ा नामक स्थानों पर इनकी 8 कंपनीया स्थित है।
द पॉइज़नस स्नेक्स ऑफ़ इंडिया से रसेल वाइपर (Daboia russelii) का एक चित्रण। कोबरा और क्रेट के साथ-साथ, रसेल वाइपर भारत में सर्पदंश से होने वाली मौतों के लिए जिम्मेदार है।
कहते है इस कोर में बड़े कर्मठ भील सिपाही भर्ती है। इस कोर के सिपाहियों का काम करने का अंदाज भी कुछ अलग है, जैसे मानलो आक्रोशित भीड़ को तीतर -बीतर करने के लिए जब लाठी चार्ज का आदेश दिया जाये, तो इस कोर के सिपाही आदेश को एक दम दिल पर ले लेते है और अपने लक्ष्य के पीछे दौड़ते हुए, उसे घर में भी जा कर मार के ही आते है। इसलिए इनको दिए आदेश में क्या क्या करे के साथ साथ क्या नहीं करे भी बतया जाता है। एक जमाने में दस्यु प्रभावित इस इलाके को शांत करने में इस कोर का बहुत बड़ा योगदान रहा है- जैसे कुख्यात दस्यु मीर खान को इसी कोर ने पकड़ा था।
मेवाड़ भील कॉर्प्स का प्रतीक चिन्ह, जो अब राजस्थान पुलिस के अधीन एक अर्धसैनिक इकाई है।
राजस्थान के जिस हिस्से में यह कोर स्थित है वहां एक घनघोर जंगल भी है, जिसे आज फूलवारी की नाल अभ्यराण्य के नाम से जाना जाता है। इस घने वन के कारण यह कोर सर्पदंश से अत्यंत प्रभावित थी। ब्रिटिश लोग इस बात से परेशान थे की क्या किया जाये? उन्हें यह पता नहीं था की भारत में किस प्रकार के सांप पाए जाते है? उनसे कैसे बचना है ? एवं वह कैसे दिखते है?, उन्हें पहचाने कैसे आदि ?
भारत के जहरीले सांपों को पहली बार भारत में ब्रिटिश अधिकारियों के बीच परिचालित किया गया था, जिसे 1985 में हिमालय बुक्स द्वारा फिर से प्रकाशित किया गया था और अप्रत्याशित परिणामों के साथ सार्वजनिक चेतना में वापस लाया गया था।
इसलिए यहाँ जोसफ एवर्ट को पदस्थापित किया गया था। यहाँ आने के बाद उन्हें अनेको सर्प दंश के मांमले देखने को मिले जिनका उन्होंने इलाज के साथ अध्ययन भी किया। बिना एंटीवेनोम के जो कर पाए वो किया होगा परन्तु अपने अनुभवों के आधार पर इन्होने आजदी की पहली क्रांति के थोड़े दिनों बाद एक पुस्तक – The Poisonous Snakes of India का लेखन किया, जिसमें विषैले सांपो की पहचान के लिए अद्भुत चित्र लगाए गये है और उसमें सर्प दंश के पश्च्यात उसके उपचार के उपाय सुझाये गये।
द पॉइज़नस स्नेक्स ऑफ़ इंडिया से सॉ स्केल्ड वाइपर (Echis carinatus) का चित्रण।
यह पुस्तक मात्र एक हजार की संख्या में छपवायी गयी और इसे भारत के सभी ब्रिटिश अफसरों तक पहुंचाई गयी। परन्तु संख्या काम होने के कारण आज यह संग्रहकर्ताओं के लिए एक नायाब पुस्तक बन गयी है। आज यह मूल पुस्तक १ लाख रूपये तक की कीमत रखती है।
आज की दृष्टि से इसमें सुझाये गये उपाय खतरानक हो सकते है जैसे इसमें बतया गया – सर्प दंश के स्थान को काटना एवं रक्त निकालना, लोहे की गर्म सलाख से स्थान को बुरी तरह से जलाना, तपते अंगारे से जलाना, बेहद कसकर बंध बांधना आदि। सनद रहे, यह वह जमाना था जब सर्प दंश के लिए किसी भी प्रकार के एंटीवेनम का अविष्कार नहीं हुआ था।
द पॉइज़नस स्नेक्स ऑफ़ इंडिया से स्पेक्टैलेड कोबरा (Naja naja) का चित्रण।
यह 1000 पुस्तके कहीं खो जाती परन्तु हिमालयन बुक्स द्वारा 1985 में इस पुस्तक को पुनः प्रकाशित किया गया एवं यह सूंदर पुस्तक अपने पुराने ज्ञान के साथ फिर हमारे बीच आगयी। इस प्रकार पुराना प्राथमिक उपचार भी हमारे बीच पुनः पुनः प्रकशित होता रहा है। एवं इस तरह पुराने प्राथमिक उपचार बारम्बार हमारे बीच आते रहे है जो जमाने के साथ बेमानी होगये है। यह पुस्तक अब संग्रहकर्ताओं के लिए उपयोगी है परन्तु सर्प दंश के समय इस पुराने ज्ञान से दूर ही रहे।
आज तक सांपो की प्रजातियों की पहचान पर अनेक पत्र व पुस्तके प्रकाशित हुई पर सर्प दंश पर शायद अभी और अधिक शोध होनी बाकि है तभी तो हमारे देश में हर वर्ष 58000 लोग सांपो के काटने से मारे जाते है।
लेखक:
Dr. Dharmendra Khandal (L) has worked as a conservation biologist with Tiger Watch – a non-profit organisation based in Ranthambhore, for the last 16 years. He spearheads all anti-poaching, community-based conservation and exploration interventions for the organisation.
Mr. Ishan Dhar (R) is a researcher of political science in a think tank. He has been associated with Tiger Watch’s conservation interventions in his capacity as a member of the board of directors.
राजस्थान देश का विशालतम राज्य है, जहाँ हर वर्ष हज़ारों लोग सर्प दंश से मारे जाते है। सांपो के बारे में कुछ लोग अज्ञानतावश और कई लोग अपने स्वार्थ के लिए भ्रामक जानकारियां फैला रहे हैं।
पास के एक गांव से मुझे किसी जानकार का फ़ोन आया कि, किसी को सांप ने हाथ में काटा है, मुझे लगा जरूर कोई महिला होगी, क्योंकि महिलाये ही हाथ से अधिकांश काम करती है, पांव में सांप काटता तो पुरुष होने की अधिक सम्भावना रहती है, जो इधर-उधर घूमते फिरते हैं। गांव वाला बोला हाँ महिला ही है और उसे एक देवता के लेकर आये हैं, परन्तु आराम नहीं आया, आप कुछ करो। मेरा सहज सुझाव था, आप डॉक्टर के लेकर जाओ। गांव वाला बोला, यह बहुत मुश्किल है, क्योंकि लोग मानेगे नहीं। अक्सर विभिन्न देवताओं के स्थानों पर सांप काटे के इलाज के लिए सर्प दंश से पीड़ित लोगों को लेकर आते है। यह एक आम परिदृश्य है, जो राजस्थान के सभी जिलों में देखने को मिल जाता है। कुछ दिनों बाद महिला अपने दूध मुहे बालक को छोड़ कर परलोक सिधार गयी।
सॉ स्केल वाईपर Saw-scaled viper (Echis carinatus): इसे स्थानीय भाषा में फुरसा, फोपसिया, अथवा बांडी नाम से जाना जाता है। रक्तसंचार प्रणाली पर असर डालने वाला विष छोड़ते है। शरीर से शल्कों को रगड़ कर आवाज पैदा करता है। (Photo: Dr. Dharmendra Khandal)
राजस्थान में सांपो के इलाज से जुड़े अनेक लोक देवता है जैसे – गोगाजी, देलवारजी, हरबूजी, रामदेवजी, तेजाजी, कारिशदेवजी आदि, इन देवताओं में स्थानीय लोगों की अटूट आस्था है। इन देवता में आस्था ने लोगों को सांप काटने के बाद मानसिक रूप से सबल भी किया है। इन देवताओं का यदि इतिहास देखे तो पता चलता है कि, यह योद्धा रहे हैं, जो स्थानीय युद्ध वीरता से लड़ते हुए वीरगति को प्राप्त हो गये थे। इनके स्थलों पर जिस प्रकार के वाद्य यंत्र आदि बजाये जाते हैं, वह किसी युद्ध के माहौल में बजाये जाने वाले ध्वनि यंत्रो की भांति होते है। सर्प दंश से पीड़ित को जब उत्सावर्धक माहौल मिलता है वह प्लेसिबो इफ़ेक्ट से अपने आप को कुछ हद तक समस्या से उबार लेता है। प्लेसिबो इफ़ेक्ट का मतलब है मानसिक रूप से अपने आप को मजबूत कर बिना दवा और इलाज के अपने कष्ट से लड़ना अथवा कष्ट को नगण्य मानना। इसके लिए इन देव स्थलों पर अनोखा माहौल होता है जहाँ अनेको लोग आप के कष्ट में शामिल होते हैं और उत्तेजक धुन पर लोग नाच गा रहे होते हैं। पीड़ित व्यक्ति को देवताओं के स्थलों पर जाने से जीवित रहने की आशा तो मिलती है, परन्तु यह पर्याप्त नहीं, उसे उचित इलाज मिलना आवश्यक है।
इंडियन कोबरा Indian cobra (Naja naja) : नाग भारतीय मिथको का सबसे अधिक विषमयकारी प्राणी जिसे देवताओं के गले की शोभा बढ़ाने का दर्जा दिया गया है। अत्यंत विषैला परन्तु उतना ही शर्मीला सरीसृप अक्सर अपने सिर के आस पास की त्वचा को फन के रूप में फैला कर और फुफकार कर अपने दुश्मन को दूर रखने की चेष्टा करता है। इस का विष हेमो और न्यूरो टॉक्सिक दोनों प्रकार के गुणों से युक्त होता है। (Photo: Dr. Dharmendra Khandal)
असल में सांपो के काटने के बाद उसका सही इलाज होना ही कोई आधी सदी पूर्व से शुरू हुआ है। एन्टीवेनॉम का चलन और उसका निर्माण का इतिहास कोई अधिक लंबा नहीं है, इसी कारण भारत की विशाल अनपढ़ जनसंख्या अपने पारम्परिक तरीके से दूर नहीं हो पायी। हज़ारों वर्षो तक इन देवस्थलों पर पीड़ितों को मानसिक तोर पर सबल बनाकर सांप काटे का इलाज होता रहा है।
रसल्स वाईपर Russell’s viper (Daboia russelii) : चित्ती नाम से जाना जाने वाला बेहद खूबसूरत परन्तु अत्यंत गुसैल सांप, भारत में सबसे अधिक लोगो की मृत्यु का कारण बनता है। इसके विष दन्त बहुत अधिक लम्बे और मजबूत होते है, जो काफी गहराई तक विष छोड़ते है एवं इनके विष की मात्रा भी सिर के बड़े होने के कारण अधिक होती है। (Photo: Dr. Dharmendra Khandal)
इन स्थलों पर पीड़ित के बचने के कई कारण थे -कई बार सर्प दंश में विष की मात्रा थोड़ी छोड़ पाता है, कई बार तो सर्प काटने के बाद भी अपना विष छोड़ता नहीं जिसे ड्राई बाईट कहते है, कई बार केवल सांप की फुफकार आदि से व्यक्ति डर जाता है, अनेक बार विषहीन सर्प ही काट लेता है, राजस्थान में 40 सांपो की प्रजातियों में 35 तो विषहीन ही है। इस तरह के मामलो में जब व्यक्ति बच जाते है, तो आस्था के इन स्थलों में और अधिक विश्वास बढ़ता चला जाता है। इन सभी मसलों को गहराई से बिना समझे लोग झाड़ फूंक में लगे रहते हैं और इन देवताओं के स्थलों के संचालक, लोगों को भर्मित कर, अपना उल्लू सीधा करते रहते हैं, और साथ ही ऐसे लोग सही इलाज से भी लोगो को दूर रखते हैं।
यह तय मान के चलिए की यदि किसी विषैले सांप ने काटा है तो एंटीवेनम के अलावा कोई इलाज नहीं है। आपको ऐसे कई उदहारण मिलेंगे जिसमें व्यक्ति देवता के स्थान पर पहुंचे है और मारे गए, उसके बाद देवता के पुजारी बिना जिम्मेदारी लिए पीड़ित और उसके परिवार को ही लापरवाह बता कर उसी की गलती सिद्ध कर देते हैं।
करैत common krait (Bungarus caeruleus) : पूरणतया रात्रिचर सांप अत्यंत विषैला होता है। इसके अत्यंत छोटे विषदंत लोगो को काटने पर दर्द नहीं होने देते एवं इसका न्यूरोटोएक्सिक विष निद्रा में सोते हुए व्यक्ति की मृत्यु का कारण बन जाता है। इसी सांप से मिलती जुलती प्रजाति का एक और सांप राजस्थान के मरुस्थली क्षेत्रो पाया जाता है जिसे पीवणा नाम से भी जाना जाता है। तंत्रिका तंत्र पर असर डालने के कारण इस सर्प का विष व्यक्ति को और गहरी नींद में ले जाता है। (Photo: Dr. Dharmendra Khandal)
सांपो के सही इलाज का विचार भी भारतीय उपमहाद्वीप की ही देन है, वर्ष 1870, में सर्जन मेजर एडवर्ड निकोल्सोन ने मद्रास मेडिकल जर्नल में एक बर्मा देश के सपेरे के बारे में आलेख प्रकाशित किया की किस प्रकार वह अपने आपको सर्प दंश करवाकर भविस्य में होने वाले सांपो के दंशो से सुरक्षित रखता था। इस तरह के उल्लेख भारतीय मिथको में पढ़ने को भी मिलते रहे है। खैर इसी तरह के कई और शुरुआती पर्यवेक्षण आधार बने एक विशेष शोध के कारण 1896 में पहली बार एक फ्रेंच चिक्तिसक अल्बर्ट कालमेट्टे ने पहले मोनोक्लेड कोबरा सर्प दंश के टीके का निर्माण किया। इन्होने इस टीके का निर्माण वियतनाम में बाढ़ ग्रस्त इलाके में फसे अनेक लोगो के सर्प दंश से मारे जाने के बाद किया था।
100 वर्ष से अधिक पहले विकशित हुए इस इलाज को कई वर्षो तक कोई अधिक मान्यता नहीं मिली परन्तु 1950 के आस पास जाकर ही लोगो ने इसे स्वीकारा एवं पिछले कुछ दशकों से ही इसकी उपलब्धता बढ़ी है। यद्दपि आज भी देश में एंटीवेनम की कमी है।
देश में होने वाले कई सर्प मेला में अनेको सांपो को अवैध रूप से प्रदर्शित किया जाता है एवं सांपो के प्रति वैज्ञानिक सोच की बजाय अन्धविश्वास को जारी रखा जाता है। (Photo: Dr. Dharmendra Khandal)
राजस्थान में कितने लोग सर्प दंश से प्रभावित होते है ?
विश्व स्वास्थ्य संघठन (World Health Organization -WHO ) के अनुसार विश्व में 81,000–138,000 लोग सर्प दंश से मारे जाते है और इनसे तीन गुणा लोग स्थायी तौर पर अपने अंगो से विकलांग हो जाते हैं।
मिलियन डेथ स्टडी (MDS) भारत सरकार के द्वारा किया गया ऐसा अध्ययन है, जिसमें अल्पायु में मृत्यु के कारणों पर आंकड़े संगृहीत किये गए थे। यह अनूठा अध्ययन वर्ष 1998-2014 के मध्य संपन्न किया गया। इसी अध्ययन के अनुसार वर्ष 2001 to 2014 के मध्य 14 वर्षो में भारत देश में लगभग 808,000 लोगो की जान सर्प दंश से गयी। यानी एक वर्ष में भारत में 58000 लोग सर्प दंश से मारे जाते है। जिनमें से 94% लोग ग्रामीण इलाको में और उनमेसे 77% अस्पताल नहीं पहुंचे थे।
सर्प दंश से मारे जाने वालों की संख्या के हिसाब से भारत के अन्य राज्यों की तुलना में राजस्थान का शीर्ष से पांचवा स्थान है जो कि, एक अत्यंत चिंता का विषय है। इस अध्ययन के अनुसार 14 वर्षो में राजस्थान में 52,100 लोगों की मृत्यु हुई जिसका प्रतिवर्ष हुई मृत्यु का औसत 3722 होता है।
सांपो को इन मेलो में अनेक प्रकार से सांपो परेशान किया जाता है, एवं कुछ व्यक्ति अपने सांप पकडने के कौशल को देवीय शक्ति के रूप में प्रदर्शित करते है। (Photo: Dr. Dharmendra Khandal)
सूरवीरा एवं साथियो 2020 द्वारा प्रकाशित आलेख ”Trends in snakebite deaths in India from 2000 to 2019 in a nationally representative mortality study ” – (https://elifesciences.org/articles/54076) के अनुसार भारत में होने वाले सर्प दंशो में रसल्लस वाईपर (Daboia russelii) द्वारा 43%, करैत द्वारा (Bungarus species) द्वारा 18%, कोबरा द्वारा (Naja species) 12% एवं सर्प प्रजाति की पहचान नहीं हो पायी 21%, अन्य सांप की प्रजातिया ने 6 % लोगो की मृत्यु के कारण बने। इन्होने प्रकाशित शोध एवं अन्य तथ्यों के आधार पर कई प्रकार के अन्य आंकड़े भी जुटाए और पाया की 59 % पुरुषो एवं 41 % महिलाओं की मृत्यु हुई। इनके अनुसार सबसे अधिक जून से सितम्बर के मध्य 48 % सर्पदंश से मारे गए जबकि जनवरी फरवरी में सबसे कम 9 % लोगो को ही सांपो ने द्वारा मारे गए।
चिरंजी लाल के पुत्र ने अपने मृत पिता का चित्र हाथ में लिए उन्हें याद करते है और बताते है की किस प्रकार उनके पिता सर्प दंश से मारे गए जबकि वह सांप के काटे का इलाज भी करते थे। यह अनोखी विडंबना है की जो सर्प दंश का इलाज करता था, उसे सांप की वजह से अपनी जान गवानी पड़ी। (Photo: Dr. Dharmendra Khandal)
बचाव और प्राथमिक चिकित्सा आदि:
सर्प दंश से बचने के लिए प्रस्तावित प्राथमिक चिकित्सा के उपायों में अत्यंत भ्रम की स्थिति है, आपको भली प्रकार याद होगा की सर्प दंश के पश्च्यात अक्सर लोग कहते थे, उस स्थान पर “X” अथवा “+” के निशान के चीरे लगाए एवं रक्त के श्राव को होने दे। यह प्राथमिक चिकित्सा की पुस्तिकाओं में भी छपा हुआ मिल जाता है। परन्तु यह तरीका अत्यंत घातक होसकता है एवं पीड़ित अति रक्त स्त्राव से अपनी जान गवां सकता है। अनेक बॉलीवुड फिल्मो में आपने देखा होगा की एक हीरो चाकू से चीरा लगाकर मुँह से विष चूस कर हेरोइन की जान बचा लेता है। यह अत्यंत गलत उपाय है।
इनको रसल्स वाईपर ने काटा, तत्काल घर के लोग इन्हे देवता के यहाँ लेगये, परन्तु पहले मंदिर के मना करने के बाद दूसरे मंदिर में ले गये और बहुमूल्य समय को नष्ट करदिया। इनके द्वारा की गयी देरी के कारण इनके घाव ठीक होने में कुछ माह का टाइम लगा। (Photo: Dr. Dharmendra Khandal)
हमें सर्प दंश वाले स्थान पर किसी भी प्रकार का चीरा नहीं लगाना चाहिए – सर्प के विष दो प्रकार के होते है – हेमोटोक्सिक एवं न्यूरोटॉक्सि। दोनों वाईपर प्रजाति के सर्पो में हेमोटोक्सिक विष विद्यमान है एवं यह जब काटते है तो परिसंचरण तंत्र या वाहिकातंत्र बुरी तरह प्रभावित होता है और परिणाम स्वरुप नाक, मुँह, मूत्रमार्ग एवं सर्प द्वारा काटे जाने वाले स्थान पर रक्त का स्त्राव शुरू होजाता है। इस स्थिति में यदि किसी प्रकार का चीरा लगाकर और रक्त निकलने का प्रयास किया जाए तो बिना चिक्तिसक की मदद के रक्त प्रवाह रुकना बहुत दूभर कार्य होजाता है। इस तरह व्यक्ति की मृत्यु विष से पूर्व अति रक्तप्रवाह से ही हो जाती है। अतः याद रखे कभी चीरा नहीं लगाये।
सर्प दंश से पीड़ित महिला को देव स्थान की तेज गति से दौड़ते हुए परिक्रमा दिलवाते स्थानीय लोग, इस से रक्त चाप बढ़जाता है जो हानिकारक है। (Photo: Dr. Dharmendra Khandal)
पीड़ित महिला को बेहोशी से जगाने के लिए लोग नारे जयकारे लगते रहते है, कभी थपियाते और हिलाते रहते है। (Photo: Dr. Dharmendra Khandal)
दूसरा प्रचलित प्राथमिक चिकित्सा का तरीका है , सर्प के काटे स्थान से थोड़ा ऊपर ताकत के साथ एक रस्सी या कपडे का बंध बांधना। यह तरीका भी पुरानी प्राथमिक चिकित्सा की पुस्तकों में आम तोर पर पढ़ने को मिलता है परन्तु यह तरीका भी पीड़ित के लिए घातक होसकता है। क्योंकि शरीर के एक ही हिस्से में विष का संग्रहण होजाता है और यह उस अंग के लिए अत्यंत घातक होसकता है। रक्त प्रवाह के सम्पूर्ण रुकने से वैसे भी उस अंग को हानि पहुँच सकती है।
इस बालक को सोते हुए सॉ स्केल्ड वाईपर ने मुँह पर काटने के बाद इन्हे देवता के यहाँ लेजाया गया। कई दिन परेशान होने के बाद धीरे धीरे यद्पि बालक ठीक होगया, परन्तु उसके कोनसे शारीरिक अंगो पर विष का लम्बे समय तक प्रभाव रहेगा कोई नहीं जानता। (Photo: Dr. Dharmendra Khandal)
वर्तमान ज्ञान के अनुसार यह अत्यंत प्रचलित प्राथमिक उपचार के दोनों तरीके ही पूर्णतया हानिकारक हो सकते है। तो फिर क्या किया जाए ?
विशेषज्ञ दो प्रकार की रणनीत से चलने की सलाह देते है —- बचाव और उचित इलाज। बचाव –
सबसे अधिक महत्वपूर्ण है सर्प दंश से बचना, सांप आपके घरो के आस पास अधिक नहीं पनपे इसकेलिए उनके साफ सफाई रखे, अक्सर चूहों आदि को खाने के लिए ही सांप आपके घर के नजदीक आते है। कबाड़ आदि रखे स्थानों को साफ सुथरा रखे।
रात्रि में इधर उधर जानेके लिए प्रकाश की उचित व्यवस्ता रखे। रात्रि विचरण के लिए अच्छी टोर्च को अपनी जिंदगी का हिस्सा बनाये।
सांपो की प्रजातियों को पहचानना सीखे ताकि आप उनके व्यव्हार को समझ सके।
सांपो के साथ उचित दुरी बनाये एवं सावधानी बरते, अनेको बार लापरवाही के कारण सांप पकड़ने वाले प्रशिक्षित व्यक्ति भी सर्पदंश के शिकार बन जाते है।
प्राथमिक चिकित्सा एवं इलाज :
बांधना एवं काटना नहीं करे , जिसका जिक्र हम शुरू में कर चुके है। परन्तु सांप के काटे हुए स्थान पर एक साफ कपडा लपेटे , जिसे आप हलके दबाव के साथ बंध सकते है, परन्तु तेज ताकत के साथ कदापि नहीं।
पीड़ित व्यक्ति को शांत रखे एवं उसका होंसला बढ़ाते रहे।
व्यक्ति को बिना दौड़ाये / भगाये चिकित्शालय तक पहुंचाए, इसके लिए वाहन का इस्तेमाल करे। यदि वाहन उप्लंध नहीं हो तो दुपहिया वाहन का इस्तेमाल करे एवं दो जनो के बीच में पीड़ित को बैठा कर अस्पताल लेकर जाना चाहिए ।
अस्पताल में यदि किसी को जानते है तो उनको पीड़ित के पहुंचने से पहले सूचित कर दे, ताकि वह बिना समय गवाए पहले ही संशाधनो की व्यवस्था कर सके।
अधिक सांप पाये जाने वाले क्षेत्र में रहने वाले लोग आस पास के अस्पताल के बारे में जानकारी रखे क्या वाहन एवं सर्प दंश से सम्बंधित इलाज उपलब्ध है।
एंटीवेनम का इस्तेमाल मात्र प्रशिक्षित डॉक्टर ही कर सकता अतः अपने पास इनका अनावस्यक संग्रहण नहीं करे एवं स्वयं इसका इस्तेमाल तो कदापि नहीं करे।
सर्प दंश में जिस एंटीवेनम- पॉलीवालेन्ट स्नेक एंटीवेनम का भारत में इस्तेमाल किया जाता है वह भारत के चार प्रमुख विषैले सांपो के विष के लिए प्रभावी है परन्तु फिर भी सांप की प्रजाति अगर पहचान सकते है तो इलाज आसान होता है। अतः उसे पहचान ने का प्रयास करे एवं डॉक्टर को ठीक से वर्णित करे।
कई बार डॉक्टर को भी सांप के काटे के इलाज का अनुभव नहीं होता है, अतः आस पास के सर्प विशेषज्ञ से मदद लेकर उन्हें अनुभवी डॉक्टर से राय मशविरा करवाया जा सकता है।
अक्सर निजी अस्पताल सांप के काटे का इलाज करते है परन्तु जिले के मुख्य सरकारी अस्पताल में यह पूर्णतया मुफ्त है, चूँकि एंटीवेनम की दवा को लाइफ सेविंग ड्रग की श्रेणी में रखा गया है, अतः वह इनका पर्याप्त स्टॉक भी रखना उनके लिए अनिवार्य है । एंटीवेनम की दवा महंगी होती है अतः आम जनता सरकार की योजना का लाभ भी इन्ही सरकारी अस्पतालों में ही उठा सकती है।
सांप के देवता के मंदिर में आये चढ़ावे आदि को समेटते प्रबंधक और पुजारी (Photo: Dr. Dharmendra Khandal)
इस प्रकार राजस्थान के विशाल भू भाग जहाँ अधिकांश जनता ग्रामीण इलाकों में रहती है, सर्प दंश से प्रभावित होसकती है। आवस्यकता है इसके बाद उचित इलाज लेने की। सांप हमारे पर्यवरण के महत्वपूर्ण घटक है इन्हे बचाना भी आवश्यक है। आप थोड़ी सावधानी से सर्प दंश से बच सकते है इनके शिकार आप नहीं आपका शत्रु चूहा है। असावधानी वश आपका इनसे प्रभावित होसकते है। अंधविश्वास से दूर रहे सही वैज्ञानिक जानकारी के आधार पर निर्णय लेकर अपनी और अपने मित्रो की जान बचाये एवं सांप की भी जान बचाये।